LAW of Crime ii Long Answer

-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

प्रश्न 1. (A) निम्नलिखित को परिभाषित कीजिए-

(क) जमानतीय अपराध

(ख) जाँच

(ग) अन्वेषण

(घ) अपराध

(ङ) समन मामला एवं वारण्ट मामला

(च) न्यायिक कार्यवाही

Define following-

(a) Bailable offence

(b) Inquiry

(c) Investigation

(d) offence

(e) Summon cases and Warrant cases

(f) Judicial Proceedings

(B) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अन्तर्गत परिवाद और आरोप में अन्तर बताइये। इन्हें परिभाषित भी करें।

Distinguish between complaint and charge under the Criminal Procedure Code, 1973. Also Define complaint and charge.

उत्तर (A) – (क) जमानतीय अपराध (Bailable offence ) —— दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (क) के अनुसार जमानतीय अपराध से अभिप्राय ऐसे अपराध से है, जो-

(i) प्रथम अनुसूची में जमानतीय अपराध के रूप में दिखाया गया हो; या

(ii) तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया हो; और

(iii) अजमानतीय अपराध से भिन्न अन्य कोई अपराध हो।

      जमानतीय अपराध की संहिता की धारा 2 (क) में दी गई परिभाषा से यह स्पष्ट नहीं होता कि वे कौन से अपराध हैं जो जमानतीय एवं अजमानतीय हैं। प्रथम अनुसूची में भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराधों को विशेष रूप में एवं अन्य विधियों के अधीन किए गए अपराधों को सामान्य रूप में बाँटा गया है और प्रत्येक अपराध के बारे में यह उल्लेख किया गया है कि वह जमानतीय या अजमानतीय अपराध हैं। कुछ अपवादों के अतिरिक्त 3 वर्ष या 3 वर्ष से अधिक कारावास से दण्डनीय अपराधों को अजमानतीय अपराध की श्रेणी में एवं केवल जुर्माने से दण्डनीय या 3 वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों को अजमानतीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है।

     जमानतीय अपराध में जमानत की माँग एक अधिकार के रूप में की जा सकती है, अजमानतीय अपराध में जमानत स्वीकार किया जाना न्यायालय के विवेक पर निर्भर है। हालाँकि अजमानतीय अपराध में भी अभियुक्त को जमानत पर न छोड़ा जाना एक अपवाद है।

     इस प्रकार जमानतीय अपराध, अपराध की वह कोटि है जिसके कारण प्रथमदृष्ट्या अपराध की गंभीरता परिलक्षित होती है तथा वर्णित सूची के तहत दण्ड विधान को दृष्टिगत रखते हुए सक्षम अधिकारी अपने अधिकार का विवेकपूर्ण उपयोग करता है तथा जमानत दिये जाने को विवश नहीं है।

    मोतीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 1594 के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने विचार व्यक्त किया था कि जमानतीय अपराधों में भी अभियुक्त को जमानत पर रिहा करना एक नियम है और ऐसा न करना केवल एक अपवाद है।

     संजय चन्द्र बनाम सी० बी० आई० ए० आई० आर० (2012) एस० सी० 830 के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जमानत का मुख्य उद्देश्य विचारण के दौरान अभियुक्त की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है। इसका उद्देश्य न तो दण्डात्मक है और न निवारणात्मक ।

उत्तर (A) – (ख) जाँच (Inquiry ) – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (छ) के अन्तर्गत “जाँच” से तात्पर्य विचारण से भिन्न, ऐसी प्रत्येक जाँच से है, जो कि इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय के द्वारा कारित की जाए

     लक्ष्मी ब्राह्मण बनाम स्टेट, 1976 कि० लॉ० ज० के मामले में न्यायालय ने कहा कि जाँच का प्रधान प्रयोजन किसी तथ्य की सच्चाई को निर्धारित करना होता है। तुलसीबाला बनाम एन० एन० कौशल, ए० आई० आर० 1953 कोलकाता 109 के मामले में न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 के अन्तर्गत की जाने वाली कार्यवाही को भी “जाँच” माना जाएगा एवं ऐसी कार्यवाही “जाँच” शब्द के अन्तर्गत आती है।

      जाँच आरोप-पत्र प्रेषित होने के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। यह मजिस्ट्रेट का कार्य है। अन्वेषण से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है [हरदीप सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 1400]

उत्तर (A) – (ग) अन्वेषण (Investigation ) – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (ज) के अनुसार- “अन्वेषण” के अन्तर्गत वे सब कार्यवाहियाँ हैं जो इस संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी के द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट के द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र करने के लिए की जाएँ:

     इस तरह से अन्वेषण के अन्तर्गत वह सब कार्यवाहियाँ आ जाती हैं जो कि-

(1) पुलिस अधिकारी के द्वारा किया जाता है; या

(2) ऐसे मानव के द्वारा, जो कि इस उद्देश्य के लिए मजिस्ट्रेट के द्वारा प्राधिकृत किया गया है तथा ऐसा व्यक्ति मजिस्ट्रेट से अलग या भिन्न है;

(3) जो कि इस दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत की जाती है; तथा (4) जिसका प्रयोजन किसी साक्ष्य को इकट्ठा करना होता है।

     एच० एन० रिशबुद बनाम स्टेट ऑफ दिल्ली, ए० आई० आर० 1955 सु० को० 196 के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्वेषण करने के निम्नलिखित चरण बताए :

(1) जहाँ पर घटना हुई है, उस जगह की तरफ जाना

(ii) अन्वेषण में किसी वाद की परिस्थितियों तथा तथ्यों को निर्धारित करना;

(iii) अभियुक्त को खोजना तथा गिरफ्तार करना;

(iv) साक्ष्यों को एकत्रित करना;

(v) निष्कर्ष ।

      जमुना चौधरी बनाम स्टेट ऑफ बिहार, ए० आई० आर० 1974 सु० कौ० 1922 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अन्वेषण का प्रधान प्रयोजन किसी मामले की गहराई में जा करके सच्चाई को मालूम करना होता है।

     अन्वेषण को करने का तरीका एक पद्धति पूरी तरह से पुलिस के ऊपर आधारित होती है, क्योंकि यह कृत्य पूरी तरह से किसी पुलिस प्राधिकारी के द्वारा सम्पादित होता है। अन्वेषण के कृत्य को करने का तरीका पुलिस अधिकारी ही सुनिश्चित करता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 के तहत किसी मजिस्ट्रेट के द्वारा अन्वेषण को करने में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है परन्तु यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम प्रकाश पी० हिन्दुजा, ए० आई० आर० 2003 सु० को० 2612 के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी वाद में आखिरी रिपोर्ट को स्वीकार करने का मतलब किसी मजिस्ट्रेट के द्वारा किसी अन्वेषण में हस्तक्षेप कारित करना नहीं माना जाता है।

उत्तर (A) – (घ ) अपराध (Offence)– दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (द) या 2 (n) के अनुसार, अपराध से अभिप्राय ऐसे किसी कार्य या लोप से है-

(i) जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा दण्डनीय बना दिया गया हो; और

(ii) जिसके बारे में पशु अतिचार अधिनियम, 1871 की धारा 20 के अन्तर्गत परिवाद किया जा सकता है।

     दशरथ रूप सिंह राठौड़ बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 3519 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि केवल अभियोजन की स्वीकृति मिल जाने से अपराध अस्तित्व में नहीं आ जाता है।

उत्तर (A) – (ङ) समन मामला एवं वारण्ट मामला (Summon Cases and Warrant Cases)—दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (ब) या 2 (W) के अनुसार, समन मामले से तात्पर्य ऐसे मामले से है जो किसी ऐसे अपराध से सम्बन्धित होता है जो कि वारण्ट मामला नहीं है। समन-मामले में ऐसा अपराध निहित होता है जिसमें दो वर्ष तक का कारावास या अर्थदण्ड अथवा दोनों प्रकार का दण्डादेश दिया जा सकता है एवं जो परिवाद से आरम्भ होता है। मजिस्ट्रेट द्वारा वारण्ट जारी कर दिये जाने मात्र से मामले की प्रकृति में परिवर्तन नहीं हो जाता।

     दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (थ) या (x) के अनुसार, वारण्ट मामले से अभिप्राय ऐसे मामले से है जो किसी ऐसे अपराध से सम्बन्धित होता है जिसमें दो वर्ष से अधिक का कारावास या आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड का आदेश दिया जा सकता है। किसी मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा वारण्ट जारी कर दिये जाने मात्र से वह मामला वारण्ट मामला नहीं हो जाता। पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बनाम हिन्दुस्तान मोटर्स, ए० आई० आर० (1970) आन्ध्र प्रदेश 176 के मामले में अभिनिर्णीत किया गया है कि समन एवं वारण्ट मामलों की कसौटी दण्ड की अवधि है। यदि कोई मामला 50 रुपये के अर्थदण्ड से दण्डनीय है तो वह समन- मामला माना जायेगा।

उत्तर (A) – (च) न्यायिक कार्यवाही (Judicial Proceeding )- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (झ) या 2 (1) के अनुसार, न्यायिक कार्यवाही से तात्पर्य ऐसी कार्यवाही से है जिसमें शपथ पर वैध रूप से साक्ष्य लिया जा सकता है। न्यायिक कार्यवाही एक विस्तृत शब्द है जिसमें जाँच तथा विचारण दोनों सम्मिलित हैं। किसी जाँच को न्यायिक कार्यवाही माने जाने के लिए निम्नांकित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

(i) जाँच का उद्देश्य

(ii) जाँच की प्रकृति एवं

(iii) जाँच करने वाले व्यक्ति की शक्तियाँ।

     चिमन सिंह बनाम स्टेट, ए० आई० आर० 1951 मध्य भारत 44 के मामले में यह कहा गया है कि ऐसी जाँच को मात्र एक प्रशासनिक जाँच माना जायेगा जिसमें जाँच अधिकारी द्वारा न तो मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है और न जिसकी रिपोर्ट को सरकार मानने के लिए आबद्ध होती है।

उत्तर (B)—परिवाद (Complaint)- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (घ) के अनुसार “परिवाद” से तात्पर्य इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप से उससे किया गया यह अभिकथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात, अपराध किया है, किन्तु इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है

     गणेश बनाम शरणप्पा, ए० आई० आर० (2014) एस० सी० 1198 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘परिवाद’ की परिभाषा देते हुए यह कहा गया है कि परिवाद से अभिप्राय मजिस्ट्रेट से किये गये लिखित या मौखिक दोषारोपण से है।

सामान्यत: पुलिस रिपोर्ट को परिवाद नहीं माना जाता है लेकिन यदि ऐसे किसी मामले में, जो अन्वेषण के पश्चात् किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है, पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद समझी जायेगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की गई है, परिवादी समझा जायेगा; परिवाद के लक्षण निम्न हैं-

(1) परिवाद का रूप लिखित या मौखिक दोनों में से किसी भी प्रकार का हो सकता है।

(2) विद्यमान कानून के तहत दण्डनीय अपराध के किये जाने की शिकायत होने पर ही परिवाद को माना जाएगा, यदि अपराध का कारित किया जाना गठित नहीं होता है तो इसको परिवाद नहीं कहा जा सकेगा।

(3) परिवाद को हमेशा किसी पुलिस अधिकारी के सामने न प्रस्तुत करके किसी मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाना चाहिए।

(4) परिवाद के मामले में इससे सम्बन्धित कार्यवाही को इस दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रावधानित रीति के अनुसार किया जाना चाहिए।

(5) परिवाद का प्रधान उद्देश्य ऐसे मजिस्ट्रेट के द्वारा किसी कार्यवाही का कारित किया जाना है, जिसके सामने परिवाद को लाया गया है।

(6) सामान्यत: पुलिस रिपोर्ट को परिवाद के रूप में नहीं माना जाता है, हालाँकि जब अन्वेषण करने के बाद यह पता चलता है कि असंज्ञेय अपराध कारित हुआ है, तब ही इसको अर्थात् पुलिस रिपोर्ट को परिवाद माना जाएगा।

(7) यह जरूरी है कि परिवाद के अन्तर्गत अपराधी के दण्डनीय चरित्र को पूरी तरह से स्पष्ट तथा निश्चित कर दिया जाए। इसमें अपराधी के बारे में उल्लेखित किया जाना जरूरी नहीं है।

(8) परिवाद के अन्तर्गत परिवादी के पास होने वाले साक्ष्यों का उल्लेख किया जाना जरूरी नहीं है। हलीमुद्दीन बनाम अशोक सीमेण्ट, 1976 क्रि० लॉ० ज० 449 के बाद में भी न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि परिवाद में, परिवादी के पास उपस्थित साक्ष्यों को बताया जाना जरूरी नहीं है।

       म्युनिसिपल बोर्ड, मिर्जापुर बनाम रेजिडेण्ट इन्जीनियर, मिर्जापुर इलेक्ट्रिक सप्लाई कम्पनी, 1971 क्रि० लॉ० ज० 474 के मामले में परिवाद की परिभाषा को निम्न प्रकार से दिया गया- “परिवाद का तात्पर्य इस तरह के मौखिक या लिखित दोष को लगाए जाने से है जिसको कि किसी मजिस्ट्रेट के सामने किसी कार्यवाही को करने के लिए लाया जाता है।

      मोहम्मद युसुफ बनाम श्रीमती अफाक जहाँ, ए० आई० आर० (2006) एस० सी० 705 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिव्यक्त किया है कि परिवाद का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। इसे कोई नाम दिया जाना भी अर्थहीन है। परिवाद किसी भी रूप में हो सकता है।

      ठीक ऐसा ही मत मे० विन्टेज शेल्टर्स बनाम डॉ० इन्दुरेखा त्रिपाठी, ए० आई० आर० (2011) कर्नाटक 142 के मामले में अभिव्यक्त किया गया है। इसमें उपभोक्ता मंच के आदेश की अवहेलना किये जाने पर सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21. नियम 11 के अन्तर्गत संस्थित निष्पादन याचिका को परिवाद’ माना गया है।

       आरोप- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (ख) के अन्तर्गत आरोप की परिभाषा दी गयी है, जिसके अनुसार” आरोप” के अन्तर्गत, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हो, आरोप का कोई भी शीर्ष है।

    आरोप किसी व्यक्ति के विरुद्ध किये गये विशिष्ट दोषारोपण का संक्षिप्त तथा सुस्पष्ट प्रतिपादन है, जो यथाशीघ्र इसकी प्रकृति को जानने का आधिकारिक स्रोत होता है। इसके अन्तर्गत अभियुक्त के उस अपराध की अधिसूचना रहती है, जिसके कि करने का उस पर आरोप है और जिसके लिए उसे सफाई देनी है। आरोप के अन्तर्गत उस आरोप को बताया जाना चाहिए जो अभियुक्त पर आरोपित है। यह सामान्यतः मामले की जाँच के बाद सूत्रबद्ध किया जाता है। इसे निश्चित होना चाहिए एवं समय से अभियुक्त को दिया जाना चाहिए।

परिवाद एवं आरोप में अन्तर

इन दोनों में निम्न अन्तर हैं-

(1) परिवाद किसी अपराध को कारित किये जाने की केवल एक सूचना मात्र ही होता है, परन्तु आरोप साधारणतः तब होता है जब मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त के विरोध में कोई मामला प्रथमदृष्टया बनता है।

(2) परिवाद की सच्चाई आरोप बन जाती है अर्थात् सत्य का पता होने पर यह आरोप के रूप में हो जाती है, परन्तु आरोप के सत्य होने पर यह परिवाद का रूप नहीं ले लेती है।

(3) परिवाद में मजिस्ट्रेट को किसी अपराध के होने के बारे में लिखित या मौखिक सूचना देने के बाद मजिस्ट्रेट के द्वारा किसी कार्यवाही को किया जाना ही परिवाद का मुख्य उद्देश्य होता है, परन्तु आरोप का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त के ऊपर अपराध का दोष लगाना होता है जिसके आधार पर अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा करने का मौका मिलता है। वह अपने तर्क अपनी प्रतिरक्षा के लिए दे सकता है।

(4) परिवाद लिखित एवं मौखिक हो सकता है, परन्तु आरोप लिखित होता है।

(5) परिवाद की परिभाषा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (d) में दी गयी है। तथा इसके बारे में प्रावधान इस संहिता की धारा 200 से लेकर 210 तक में दिये गये हैं, जबकि आरोप की परिभाषा इस संहिता की धारा 2 (b) में दी गई है, एवं प्रावधान धारा 211 से 224 तक में दिए गए हैं।

(6) परिवाद को सामान्यतः पुलिस रिपोर्ट नहीं माना जाता है, परन्तु जब अन्वेषण करने के बाद यह पता लगता है कि असंज्ञेय अपराध कारित हुआ है, तब ही पुलिस रिपोर्ट को परिवाद माना जाता है तथा पुलिस अधिकारी को, जो इसको मजिस्ट्रेट के सामने लाता है परिवादी माना जाता है, आरोप हमेशा मजिस्ट्रेट के द्वारा ही तैयार किया जाता है, आरोप कभी भी पुलिस रिपोर्ट नहीं हो सकता है।

(7) परिवाद के अन्तर्गत अपराधी के विरुद्ध शिकायत दर्ज करायी जाती है, जबकि आरोप में अभियुक्त के विरुद्ध दोषारोपण किया जाता है।

(8) परिवाद किसी ज्ञात या अज्ञात अपराधी के विरुद्ध भी हो सकता है, परन्तु आरोप किसी ज्ञात अभियुक्त के विरुद्ध ही लगाया जाता है।

प्रश्न 2. (A) दण्ड न्यायालयों के कितने वर्ग हैं और वे क्या-क्या दण्ड दे सकते हैं? Enumerate the classes of Criminal Courts and mention the sentences which may be passed by them.

अथवा (or)

भारत के विभिन्न दण्ड न्यायालयों का वर्गीकरण एवं उनकी शक्तियाँ क्या हैं? What are the different classification of Criminal Courts in India and their powers?

(B) सत्र न्यायालय से आप क्या समझते हैं? इनके न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है? स्पष्ट करें। What do you understand by the Court of Session. Who appoint the Judges of Session Court? Explain.

(C) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट से क्या तात्पर्य है? क्या महानगर क्षेत्र के महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है? What do you mean by Judicial Magistrate of the First Class? Whether in any metropolitan area, Metropolitan Magistrate can exercise the powers of Judicial Magistrate of the first class?

उत्तर- (A) भारतीय संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार दण्ड प्रक्रिया संहिता में दो प्रकार के न्यायालयों की व्यवस्था की गयी है-

(1) न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय एवं

(2) कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय

     दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 6 के अनुसार भारत में उच्च न्यायालयों और इस संहिता से भिन्न किसी विधि द्वारा गठित किसी अन्य प्रकार के न्यायालयों के अतिरिक्त, प्रत्येक राज्य में निम्नलिखित चार प्रकार के दण्ड न्यायालय होंगे, अर्थात्

(i) सत्र न्यायालय (Court of Session) (ii) प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट और महानगर में महानगर मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrate of First Class and in any Metropolitan Area, Metropolitan Magistrate)

(iii) द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrate of Second Class)

(iv) कार्यपालक मजिस्ट्रेट (Executive Magistrate)

    इस संहिता के अन्तर्गत जिन दण्ड न्यायालयों का गठन किया गया है, वे निम्न प्रकार हैं-

(i) सत्र न्यायालय;

(ii) न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय;

(अ) प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय; एवं

(ब) द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय

(iii) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालयः

(iv) विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय;

(v) महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय;

(vi) द्वितीय महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय;

(vii) कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय-

(अ) जिला मजिस्ट्रेट के न्यायालय एवं

(ब) उपखण्ड मजिस्ट्रेट के न्यायालय;

(viii) विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय

      भारतीय संविधान के अनुच्छेद 134 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय उन सभी आपराधिक मामलों की अपील, जो उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध हो, सुन सकता है। उच्च न्यायालय की आपराधिक कार्यवाही के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में निम्नलिखित परिस्थितियों में अपील की जा सकती है –

(i) जब सम्बन्धित उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से कोई मुकदमा लेकर उसमें स्वयं निर्णय किया हो और अभियुक्त को प्राणदण्ड की सजा दी हो।

(ii) जब सम्बन्धित उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय के विरुद्ध की गई। अपील को निपटाने में, अधीनस्थ न्यायालय के अपराधमुक्त आदेश को बदलकर अभियुक्त को मृत्युदण्ड की सजा दी हो।

(iii) अगर उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर देता है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील योग्य है।

     दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 से 31 तक में विभिन्न न्यायालयों द्वारा दण्ड देने की शक्ति का वर्णन किया गया है। दण्ड हमेशा अपराध की प्रकृति की गम्भीरता के आधार पर दिया जाता है।

      उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय द्वारा दण्डादेश (धारा 28 ) –

(i) उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत, किसी भी प्रकार का दण्डादेश दे सकेगा।

(ii) सत्र न्यायालय या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ऐसा कोई दण्डादेश दे सकेगा जिसके लिए वह विधि द्वारा प्राधिकृत है। लेकिन उसके द्वारा दिये जाने वाले मृत्युदण्ड की अवस्था में उच्च न्यायालय द्वारा उसकी पुष्टि होना आवश्यक है।

(iii) सहायक सत्र न्यायाधीश, विधि द्वारा प्रदत्त ऐसा कोई दण्डादेश दे सकेगा जो मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अधिक अवधि का कारावास नहीं हो।

      मजिस्ट्रेटों द्वारा दण्डादेश (Sentence by Magistrate ) — धारा 29 के अनुसार-

(i) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट विधि द्वारा प्राधिकृत ऐसा कोई दण्डादेश दे सकेगा जो मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक अवधि का कारावास नहीं हो।

(ii) प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट तीन वर्ष तक का कारावास या अर्थदण्ड या दोनों का दण्डादेश दे सकेगा, लेकिन अर्थदण्ड दस हजार रुपये से अधिक का नहीं होगा। [अर्थदण्ड 5 हजार रुपये से बढ़ाकर 10 हजार रुपये दण्डे प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा किया गया है।]

(iii) द्वितीय श्रेणी का मजिस्ट्रेट एक वर्ष तक का कारावास या अर्थदण्ड या दोनों का दण्डादेश दे सकेगा, लेकिन अर्थदण्ड पाँच हजार रुपये [ दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा संशोधित] से अधिक का नहीं होगा।

(iv) मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट की दण्ड के सम्बन्ध में वही शक्तियाँ होंगी जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की हैं एवं महानगर मजिस्ट्रेट की दण्डादेश के सम्बन्ध में यही शक्तियाँ होंगी जो प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट की है।

उत्तर- (B) सत्र न्यायालय (Session Court) — दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 9 में उपबन्धित प्रावधानों के अनुसार, राज्य सरकार प्रत्येक सेशन खण्ड के लिए एक सेशन न्यायालय स्थापित करेगी। लेकिन ऐसे प्रत्येक न्यायालय के लिए न्यायाधीश की नियुक्ति करने का अधिकार उच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है। पुरानी संहिता में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार भी राज्य सरकार को ही था। किन्तु उच्चतम न्यायालय के निर्णय द्वारा जो कि बाद स्टेट ऑफ आसाम बनाम रंग मोहम्मद ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 903 में दिया गया कि “जिला न्यायाधीशों के, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 236 के अन्तर्गत सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश, सहायक सेशन न्यायाधीश और मुख्य प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट भी सम्मिलित हैं, स्थानान्तरण राज्य सरकार द्वारा नहीं किये जाकर आवश्यक रूप से उच्च न्यायालय द्वारा ही किये जाने चाहिए, यह परिवर्तन किया गया है।

      इस धारा की उपधारा (3) के अनुसार, उच्च न्यायालय अपर सेशन न्यायाधीशों और सहायक सेशन न्यायाधीशों को भी सेशन न्यायालय में अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए नियुक्त कर सकता है।

(4) उच्च न्यायालय द्वारा एक सेशन खण्ड के सेशन न्यायाधीश को दूसरे खण्ड का अपर सेशन न्यायाधीश भी नियुक्त किया जा सकता है और ऐसी अवस्था में वह मामलों को निपटाने के लिए दूसरे खण्ड के ऐसे स्थान या स्थानों में बैठ सकता है जिनको उच्च न्यायालय निदेश दे।

      जहाँ पर सेशन न्यायाधीश का पद रिक्त होता है वहाँ उच्च न्यायालय किसी ऐसे अर्जेंट आवेदन के, जो उस सेशन न्यायालय के समक्ष किया जाता है या लम्बित है, अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश द्वारा, अथवा यदि अपर या सहायक सेशन न्यायाधीश नहीं है तो सेशन खण्ड के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निपटाये जाने के लिए व्यवस्था कर सकता है। और ऐसे प्रत्येक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसे आवेदन पर कार्यवाही करने की अधिकारिता होगी।

       सेशन न्यायालयों की बैठक उच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट स्थानों पर होती है, लेकिन यदि किसी मामले में सेशन न्यायालय पक्षकारों एवं साक्षियों के लिए किसी अन्य स्थान पर बैठक करना सुविधाजनक समझे तो ऐसे स्थान पर बैठकें की जा सकेंगी।

      पालनपुर बार एसोसियेशन बनाम हाई कोर्ट ऑफ गुजरात, ए० आई० आर० (2010) एन० ओ० सी० 346 गुजरात के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उच्च न्यायालय द्वारा सेशन्स न्यायालय की अतिरिक्त बैठक अन्य स्थान पर रखे जाने का आदेश दिया जा सकता है। ऐसी अधिसूचना विधिमान्य है। इस मामले में बनासकांठा सेशन्स न्यायालय की अतिरिक्त बैठक डीसा में रखे जाने की अधिसूचना जारी की गई थी।

       केहर सिंह और अन्य बनाम स्टेट (दिल्ली प्रशासन), ए० आई० आर० (1988) एस० सी० 1833 के एक महत्वपूर्ण मामले में जिसमें उच्च न्यायालय की अधिसूचना के अन्तर्गत मामले की सुनवाई तिहाड़ जेल में की गई थी। इसे इस आधार पर चुनौती दी गई कि सेशन न्यायालय की बैठक तीस हजारी कोर्ट में होने से तिहाड़ जेल में सुनवाई नहीं की जा सकती है। उच्चतम न्यायालय ने तिहाड़ जेल को तीस हजारी कोर्ट को अतिरिक्त बैठक का स्थान मानते हुए, वैध ठहराया।

उत्तर- (C) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अनुसार प्रत्येक जिले में (जो महानगर क्षेत्र नहीं है) प्रथम वर्ग और द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेटों के इतने न्यायालय, ऐसे स्थानों में स्थापित किए जाएंगे जितने और जो राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे। ऐसे न्यायालयों के पीठासीन अधिकारी उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किए जाएंगे।

    उच्च न्यायालय, जब कभी उसे यह समीचीन या आवश्यक प्रतीत हो, किसी सिविल न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्यरत राज्य की न्यायिक सेवा के किसी सदस्य को प्रथम वर्ग या द्वितीय वर्ग मंजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान कर सकता है।

      राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के पश्चात् किसी स्थानीय क्षेत्र के लिए, प्रथमः वर्ग या द्वितीय वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट के एक या अधिक विशेष न्यायालय, किसी विशेष मामले या विशेष वर्ग के मामलों का विचारण करने के लिए स्थापित कर सकती है और जहाँ कोई ऐसा विशेष न्यायालय स्थापित किया जाता है, उस स्थानीय क्षेत्र में मजिस्ट्रेट के किसी अन्य न्यायालय को किसी मामले या ऐसे वर्ग के मामलों में विचारण करने की अधिकारिता नहीं होगी, जिनके विचारण के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट का ऐसा विशेष न्यायालय स्थापित किया गया है।

      प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का न्यायालय तीन वर्ष से अनधिक अवधि के लिए कारावास या दस हजार रुपए से अनधिक जुर्माने का या दोनों का दण्डादेश दे सकता है।

    दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 29 (4) में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि महानगर क्षेत्र के महानगर मजिस्ट्रेट के न्यायालय को प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ होंगी।

       प्रत्येक महानगर मजिस्ट्रेट की महानगर क्षेत्र के अन्दर कहीं भी किये गये अपराध का विचारण करने की अधिकारिता होगी। महानगर के अन्तर्गत विभिन्न मजिस्ट्रेटों के क्षेत्रों का आवंटन प्रशासनिक सुविधा के लिए किया जाता है।

प्रश्न 3. (a) कार्यपालक मजिस्ट्रेट से आप क्या समझते हैं? इनकी नियुक्ति एवं अधिकारिता का उल्लेख कीजिए। What do you understand by the Executive Magistrate? Discuss the appointment and powers of Executive Magistrate.

(b) लोक अभियोजक से आप क्या समझते हैं? इसके नियुक्ति से सम्बन्धित प्रावधानों का उल्लेख करें। What do you understand by the Public Prosecutors. Discuss the provisions regarding his appointment?

उत्तर- (a) कार्यपालक मजिस्ट्रेट (Executive Magistrate )- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 20 के अन्तर्गत, राज्य सरकार को प्रत्येक जिले एवं महानगर क्षेत्र में आवश्यकतानुसार कार्यपालक मजिस्ट्रेटों के न्यायालय स्थापित करने की शक्तियाँ दी गई हैं।

    राज्य सरकार ऐसे प्रत्येक न्यायालय में कार्यपालक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति करती है एवं उनमें से एक को जिला मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त करती है।

     राज्य सरकार किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को अपर जिला मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त कर सकेगी और उसे इस संहिता के अधीन या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि जैसी राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट की जाये, के अधीन जिला मजिस्ट्रेट की ऐसी शक्तियाँ होंगी।

      जब कभी किसी जिला मजिस्ट्रेट के पद की रिक्ति के परिणामस्वरूप कोई अधिकारी उस जिले के कार्यपालक प्रशासन के लिए अस्थायी रूप से उत्तरवर्ती होता है तो ऐसा अधिकारी, राज्य सरकार द्वारा आदेश दिये जाने तक, क्रमशः उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कर्त्तव्यों का पालन करेगा जो उस संहिता द्वारा जिला मजिस्ट्रेट को प्रदत्त या उस पर अधिरोपित हो ।

      प्रत्येक उपखण्ड में एक भारसाधक कार्यपालक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जा सकेगी जिसे उपखण्ड मजिस्ट्रेट कहा जायेगा। एक उपखण्ड में केवल एक ही उपखण्ड मजिस्ट्रेट हो सकेगा। इस तरह से कार्यपालक मजिस्ट्रेटों के मुख्यतया तीन सोपान हैं-

(i) जिला मजिस्ट्रेट

(ii) अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट एवं

(iii) उपखण्ड मजिस्ट्रेट ।

       दो जिलों के लिए एक जिला मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जा सकती है। ऐसा जिला मजिस्ट्रेट कार्यपालक मजिस्ट्रेट की समस्त शक्तियों का प्रयोग कर सकेगा।

      अपर जिला मजिस्ट्रेट जिला मजिस्ट्रेट से ठीक नीचे की श्रेणी का अधिकारी होता है। यह जिला मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में उसके सारे कार्यों को देखता है। इस पद पर केवल कार्यपालक मजिस्ट्रेट को ही नियुक्त किया जा सकता है।

          उपधारा (5) के अनुसार, महानगर क्षेत्र के सम्बन्ध में किसी पुलिस आयुक्त को कार्यपालक मजिस्ट्रेट की सब या उनमें से कोई शक्तियाँ प्रदत्त की जा सकेंगी।

       संहिता की धारा 22 कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता के बारे में उपबन्ध करती है जिसमें राज्य सरकार के नियन्त्रण के अधीन रहते हुए जिला मजिस्ट्रेट, समय-समय पर उन क्षेत्रों की स्थानीय सीमाएं परिनिश्चित कर सकता है जिनके अन्दर कार्यपालक मजिस्ट्रेट उन सब शक्तियों का या उनमें से किन्हीं का प्रयोग कर सकेंगे, जो इस संहिता के अधीन उनमें निहित की जाएँ। फिर जहाँ तक अन्यथा उपबन्धित न हो, ऐसे प्रत्येक मजिस्ट्रेट को अधिकारिता और शक्तियों का विस्तार सम्पूर्ण जिले में होगा।

उत्तर-(b) लोक अभियोजक (Public Prosecutors)- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में उच्च न्यायालयों एवं जिलों में लोक अभियोजक एवं अपर लोक अभियोजक की नियुक्ति तथा उनकी अर्हताओं के बारे में प्रावधान किया गया है। राज्य सरकार अथवा केन्द्रीय सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श कर उच्च न्यायालय के लिए केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार की ओर से किसी अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाही के संचालन के लिए लोक अभियोजक की नियुक्ति कर सकती है। केन्द्रीय सरकार किसी जिले या स्थानीय क्षेत्र में किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के संचालन के प्रयोजनों के लिए एक या अधिक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है। राज्य सरकार प्रत्येक जिले के लिए एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी।

       लोक अभियोजक की नियुक्ति के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन न्यायाधीश के परामर्श से उपयुक्त व्यक्तियों का एक पैनल तैयार किया जाता है। ऐसा पैनल तैयार करते समय जिला मजिस्ट्रेट से अपने विवेक का प्रयोग करने तथा सांविधिक दायित्वों का निर्वहन करने की अपेक्षा की जाती है। यदि जिला मजिस्ट्रेट द्वारा लोक अभियोजक की नियुक्ति करने में सांविधिक दायित्वों का निर्वहन नहीं किया जाता है तो ऐसी नियुक्ति अपास्त किये जाने योग्य होती है। जैसा कि श्रीमती नीलिमा सदानन्द वर्तक बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, ए० आई० आर० (2005) बम्बई 431 के बाद में स्पष्ट किया गया है।

       उपधारा (5) के अनुसार कोई व्यक्ति राज्य सरकार द्वारा उस जिले के लिए लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त नहीं किया जायेगा जब तक कि उसका नाम जिला मजिस्ट्रेट द्वारा तैयार किये गये नामों के पैनल में न हो। उपधारा (5) में किसी बात के होते हुए भी जहाँ किसी राज्य में अभियोजन अधिकारियों का नियमित काडर है वहाँ राज्य सरकार ऐसा काडर गठित करने वाले व्यक्तियों में से ही लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त करेगी।

       इस धारा की उपधारा (7) में लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किये। जाने के लिए कतिपय अर्हताएँ भी निश्चित की गई हैं- जा

        लोक अभियोजक अथवा अपर लोक अभियोजक के लिए वही व्यक्ति नियुक्त किया सकेगा जो कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्य कर चुका हो।

       उपधारा (8) अनुसार केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के प्रयोजनों के लिए किसी अधिवक्ता को, जो कम से कम दस वर्ष तक विधि-व्यवसाय करता रहा हो, विशेष लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

      परन्तु न्यायालय इस उपधारा के अधीन पीड़ित को अभियोजक की सहायता के लिए अपनी पसन्द का अधिवक्ता मुकर्रर करने के लिए अनुज्ञात कर सकेगा। [दं० प्र० [सं० (संशोधन) अधिनियम, 2008 द्वारा अंतःस्थापित ]

       सीताराम सिंह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० (2003) इलाहाबाद 208 के मामले में ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न उठाया गया कि लोक अभियोजक एवं अपर लोक अभियोजक को सहायक लोक अभियोजक के समान वेतन दिया जाना चाहिए अर्थात् ‘समान कार्य के लिए समान वेतन’ (Equal Pay for Equal Work) का सिद्धान्त लागू किया जाना चाहिए। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस तर्क को नकार दिया और कहा कि उच्च न्यायालय एवं सेशन न्यायालय में अभियोजन का संचालन करने वाले लोक अभियोजक एवं अपर लोक अभियोजक की तुलना मजिस्ट्रेट के न्यायालय में कार्य करने वाले सहायक लोक अभियोजक से नहीं की जा सकती है। दोनों के कार्य की प्रकृति एवं सेवा शर्तों में अन्तर है।

     आर० सरला बनाम टी० एस० वेलू, ए० आई० आर० (2000) एस० सी० 1731 के बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि लोक अभियोजक का कार्य न्यायालय में सरकार की ओर से पैरवी करना है। उसकी भूमिका न्यायालय के भीतर परिसीमित है। न्यायालय में आरोप-पत्र प्रस्तुत करने से पूर्व किसी मामले में अन्वेषण अधिकारी को लोक अभियोजक से परामर्श करने का निदेश नहीं दिया जा सकता।

गिरफ्तारी (Arrest)

प्रश्न 4. (अ) गिरफ्तारी का क्या अर्थ है और कब एक पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है?

(ब) कब एक निजी व्यक्ति को गिरफ्तारी करने का अधिकार प्रदान किया जाता है?

(स) गिरफ्तार व्यक्ति के क्या अधिकार है? इसकी व्याख्या कीजिए।

(a) What is the meaning of arrest and when can a police officer arrest a person without warrant?

(b) When is a Private person empowered to arrest?

(c) What is right of an arrested person ? Explain.

उत्तर- (अ) गिरफ्तारी का अर्थ – गिरफ्तारी को दण्ड प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। सामान्यतया गिरफ्तारी से तात्पर्य किसी व्यक्ति को विधि के अनुसार उसकी निजी स्वतंत्रता से वंचित करने से है। संहिता की धारा 46 में गिरफ्तारी के ढंग का वर्णन किया गया है। धारा 46 के अनुसार गिरफ्तारी करने में पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति, जो गिरफ्तारी कर रहा है, गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वस्तुतः छुएगा या परिरुद्ध करेगा, जब तक उसने वचन या कर्म द्वारा अपने को अभिरक्षा में समर्पित न कर दिया गया हो। यदि ऐसा व्यक्ति अपने गिरफ्तार किए जाने के प्रयास का बल पूर्वक विरोध करता है या गिरफ्तारी से बचने का प्रयत्न करता है तो ऐसा पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति गिरफ्तारी करने के लिए आवश्यक सब साधनों को उपयोग में ला सकता है।

       परन्तु जहाँ किसी स्त्री को गिरफ्तार किया जाना है, वहाँ जब तक कि परिस्थितियों से इसके विपरीत उपदर्शित न हो, गिरफ्तारी को मौखिक सूचना पर अभिरक्षा में उसके समर्पण कर देने की उपधारणा की जाएगी और जब तक कि परिस्थितियों में अन्यथा अपेक्षित न हो या जब तक पुलिस अधिकारी महिला न हो, तब तक पुलिस अधिकारी महिला को गिरफ्तार करने के लिए उसके शरीर को नहीं छुएगा।

     वारण्ट के बिना पुलिस कब गिरफ्तार कर सकेगी-सामान्य नियम यह है कि कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के या फिर बिना वारण्ट के गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है लेकिन दण्ड प्रक्रिया संहिता में कुछ ऐसे प्रावधान है, जिनके अन्तर्गत पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के, गिरफ्तारी कर सकते हैं। ऐसे उपबन्ध संहिता की धारा 41, 42, 123 (6), 151 तथा 432 (3) के अन्तर्गत दिये गए हैं। इन उपर्युक्त प्रावधानों के अधीन रहते हुए पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना तथा बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है जो निम्नवत है-

     दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के अनुसार- (1) कोई पुलिस अधिकारी मैजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारण्ट के बिना किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है।

 

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