LAW OF CONTRACT – Short Answer

– प्रथम  सेमेस्टर-

प्रश्न 1. संविदा को परिभाषित कीजिये।

Define Contract.

उत्तर – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार, “विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है” अर्थात् संविदा, दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार है। संविदा में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य कुछ करने के अधिकार या इनके द्वारा कुछ न करने के दायित्व (Obligation) का सृजन होता है। संविदा एक ऐसा करार है जो विधि के अन्तर्गत प्रवर्तनीय है अर्थात् वे करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं, वे संविदा नहीं है। संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 टन तत्वों का उल्लेख करती है जो संविदा को विधि द्वारा प्रवर्तनीय बनाते हैं। इस प्रकार सिर्फ वही करार संविदा है जिसके अन्तर्गत संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 में वर्णित तत्व विद्यमान हो ।

        संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 के अनुसार एक करार को विधि द्वारा प्रवर्तनीय बनाने के लिये निम्न तत्वों का होना आवश्यक है-

(1) कम से कम दो पक्षकार

(2) पक्षकार करार करने के लिये सक्षम हो;

(3) पक्षकारों के मध्य स्वतंत्र सहमति हो;

(4) करार का विधिपूर्ण उद्देश्य हो;

(5) करार के लिये वैध प्रतिफल हो; तथा

(6) करार विधि द्वारा शून्य घोषित न हो।

करार के पक्षकार प्राकृतिक व्यक्ति या कम्पनी या निगम जैसे विधिक व्यक्ति हो सकते हैं।

प्रश्न 2. संविदा विधि की परिभाषा दीजिये।

Define Law of Contract.

उत्तर – प्रोफेसर ऐन्सन के अनुसार संविदा विधि, विधि की वह शाखा है, जो उन परिस्थितियों का वर्णन करती है या उन परिस्थितियों को सुनिश्चित करती है, जिनमें प्रतिज्ञाकर्ता (Promisor) अपने बचन (Promise) से बाध्य होता है जबकि सामण्ड के अनुसार संविदा विधि न तो पूर्णरूपेण विधि है न ही आभार विधि बल्कि वह करार विधि है। जो आभार उत्पन्न करती है।

        संविदा विधि वह विधि है जिसमें संविदा के आवश्यक तत्वों को परिभाषित किया गया है तथा जिसमें प्रवर्तन से संबंधित सामान्य सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है तथा विशिष्ट संविदाओं के बारे में नियमों का उल्लेख किया गया है।

प्रश्न 3 संविदा के आवश्यक तत्व क्या है?

What are essential elements of Contract? उत्तर-“विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है।” धारा 10 के अनुसार एक करार को विधि द्वारा प्रवर्तनीय बनाने के लिये निम्न तत्वों का होना आवश्यक है-

(1) कम से कम दो पक्षकार;

(2) पक्षकार करार करने के लिये सक्षम हों।

(3) पक्षकारों के मध्य स्वतंत्र सहमति हो

(4) करार का विधिपूर्ण उद्देश्य हो:

(5) करार के लिये वैध प्रतिफल हो तथा

(6) करार विधि द्वारा शून्य घोषित न हो।

करार के पक्षकार प्राकृतिक व्यक्ति या कम्पनी या निगम जैसे विधिक व्यक्ति हो सकते हैं।

प्रश्न 4. प्रस्थापना को परिभाषित कीजिये।

Define ‘Proposal’,

उत्तर- प्रस्थापना (Proposal)- भारतीय संविदा अधिनियम के अन्तर्गत प्रयुक्त शब्द प्रस्थापना अंग्रेजी संविदा विधि में प्रयुक्त शब्द प्रस्ताव (Offer) का पर्यायवाची है। इस अधिनियम की धारा 2 (क) में प्रस्थापना की परिभाषा निम्न प्रकार से दी गयी है-

“जब एक व्यक्ति किसी कार्य को करने या करने से प्रविरत रहने (किसी कार्य को न करने) की अपनी इच्छा (वांछा) ऐसे कार्य या प्रविरति (Abstinance) के लिये दूसरे व्यक्ति की अनुमति प्राप्त करने की दृष्टि से, उस दूसरे व्यक्ति को संज्ञात (प्रकट) करता है तब उसके बारे में कहा जाता है कि वह प्रस्थापना (Proposal) करता है।” प्रस्थापना करने वाला व्यक्ति वचनदाता [प्रतिज्ञाकर्ता (Promisor)] तथा प्रस्थापना को प्रतिग्रहीत [ स्वीकार (Accept)] करने वाला व्यक्ति वचनग्रहीता [ प्रतिज्ञाग्रहीता (Acceptor)] कहलाता है।

‘अ’, ‘ब’ से अपनी गाय अमुक मूल्य पर बेचने की अपनी इच्छा इस दृष्टि से प्रकट (संज्ञात) करता है कि ‘ब’ गाय खरीदने (कुछ कार्य करने) को अनुमति प्रदान कर देगा यहाँ यह कहा जायेगा कि ‘अ’ ने ‘ब’ से अमुक मूल्य पर गाय बेचने की प्रस्थापना (Proposal) किया।

प्रश्न 5. करार को परिभाषित कीजिये।

Define Agreement,

उत्तर- करार (Agreement)– भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ङ) ‘करार’ पद को परिभाषित करती है। धारा 2 (ङ) के अनुसार “हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग, जो एक-दूसरे के लिये प्रतिफल हो, करार है।”

       और भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार सिर्फ वही करार है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय है।

       अत: ‘करार’शब्दविदा शब्द से अधिक व्यापक है की तत्वनिम्न है

(1) दो या दो से अधिक पक्षकारों का होगा

(2) पक्षकारों का एक हो विषय पर एक हो भाव में मौका होना।

(3) पारस्परिक संसूचना होना जब तक पक्षकारों के विचारों का तक न हो तब तक विधि को दृष्टि में करार नहीं हो सकता।

(4) पक्षकारों में विधिक सम्बन्ध कायम करने का इरादा होना।

     एक करार विधि द्वारा तभी लागू करवाया जा सकता है जब यह करार संविदा अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत एक वैध करार हेतु प्रतिपादित सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता है।

प्रश्न 6. अभिव्यक्त प्रस्ताव तथा विवक्षित प्रस्ताव से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Express Proposal and Implied Proposal?

उत्तर- भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 9 के अनुसार वचन या प्रस्ताव अभिव्यक्त (Express) तथा विवक्षित दो प्रकार के हो सकते हैं। अभिव्यक्त प्रस्ताव ही प्रस्ताव करने का वास्तविक तथा विधिक ढंग है। अभिव्यक्त प्रस्ताव लिखित या मौखिक हो सकता है। आमतौर पर प्रस्ताव करने का यही स्पष्ट एवं सुनिश्चित ढंग है। ‘अ’, मौखिक या लिखित रूप से अपना घर अमुक मूल्य पर ‘ब’ को बेचने का प्रस्ताव इस आशय से करता है कि ‘ब’ उसे वह मूल्य चुका कर घर को उस मूल्य पर क्रय करने के लिये अपनी सहमति प्रदान कर देगा। यही प्रस्ताव मौखिक रूप से भी संविदात्मक सम्बन्ध सृजित करने के आशय से किया जा सकता है। यह प्रस्ताव अभिव्यक्त (Express) प्रस्ताव है।

      परन्तु कभी-कभी प्रस्ताव लिखित रूप से या मौखिक रूप से न होकर पक्षकार के आचरण से अनुमानित किया जाता है। ऐसा प्रस्ताव विवक्षित (Implied) प्रस्ताव कहलाता है। जैसे- कोई व्यक्ति बस या किसी अन्य ऐसे वाहन में बैठता है जो किराये पर चलते हैं तो उसके इस आचरण से यह उपधारणा या अनुमान लगाया जाता है कि वह निर्धारित किराया या यात्रा मूल्य देने का प्रस्ताव करता है। यह प्रस्ताव लिखित या मौखिक रूप से न होकर पक्षकार के आचरण से या व्यवहार से अनुमानित किया जाता है तथा इसके स्वीकार हो जाने से वैध संविदा का सृजन हो जाता है।

प्रश्न 7. सामान्य प्रस्ताव General Offer.

उत्तर – सामान्य प्रस्ताव (General Offer) – जब प्रस्ताव सार्वजनिक तौर पर रखा जाता है तो उसे सामान्य प्रस्ताव कहते हैं अर्थात् सामान्य प्रस्ताव किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों से न होकर जनसाधारण से की जाती है, परन्तु संविदा सिर्फ उसी व्यक्ति से होती है जो प्रस्ताव या प्रस्थापना की शर्तों को पूरी करता है। सामान्य प्रस्ताव जब किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तभी संविदा का सृजन होता है। सामान्य प्रस्ताव विज्ञापनों, लाउडस्पीकरों या किसी ऐसे साधन द्वारा किया जा सकता है जिसका प्रसार साधारण जनता में हो।

     सामान्य प्रस्ताव की एक विशेषता यह है कि यहाँ प्रस्तावक स्वीकृति (प्रतिग्रहण) प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभियजन कर देता है। इस प्रकार सामान्य प्रस्ताव में स्वीकृतिकर्ता को प्रस्ताव की स्वीकृति या प्रतिग्रहण की सूचना देनी आवश्यक नहीं है। सामान्य प्रस्ताव का उदाहरण कारलिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कम्पनी (1893) में मिलता है। इस बाद में एक कम्पनी ने समाचार पत्रों में यह विज्ञापन दिया कि कम्पनी द्वारा निर्मित सूंघने वाली गोलियों का प्रयोग लिखित निर्देशानुसार जो व्यक्ति करेगा वह यदि प्रयोग के पश्चात् भी इन्फ्लूएन्जा से पीड़ित होगा तो कम्पनी उसे 100 पौण्ड का इनाम देगी। कम्पनी द्वारा इनाम की निश्चितता के लिये 100 पौंड रिलायन्स बैंक में जमा करा दिया गया था। कारलिल नामक एक महिला ने निर्देशों के अनुसार इस गोली का प्रयोग किया परन्तु उसके पश्चात् भी उसे इन्फ्लुएन्जा हो गया। उसने 100 पौंड इनाम का दावा किया।

      कम्पनी का तर्क था कि कारलिल ने प्रस्ताव के स्वीकृति की सूचना नहीं दी थी तथा कम्पनी ने उक्त विज्ञापन को संविदा निर्माण के आशय से नहीं किया था

      न्यायालय ने कम्पनी के दोनों तर्कों को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय के अनुसार कम्पनी द्वारा विज्ञापन के माध्यम से किया गया प्रस्ताव एक सामान्य प्रस्ताव था। इस प्रकार के प्रस्ताव में यह उपधारणा होती है कि प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण (स्वीकृति) प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभिव्यजन कर दिया है। न्यायालय ने दूसरे तर्क को अस्वीकार करते हुये कहा कि कम्पनी द्वारा रिलायन्स बैंक में 100 पौंड जमा कराना इस बात का प्रमाण है कि कम्पनी द्वारा प्रस्ताव पूर्ण गम्भीरता के साथ किया गया था।

प्रश्न 8. प्रति प्रस्ताव या क्रास प्रस्ताव से आप क्या समझते हैं? What do you understand by cross proposal?

उत्तर- प्रति प्रस्ताव (Counter Offer)– प्रति प्रस्ताव उस समय होता है जब एक व्यक्ति एक प्रस्ताव करता है तथा दूसरे पक्षकार उस प्रस्ताव की जानकारी के पश्चात् उस शर्त पर संविदा पूर्ण प्रतिग्रहीत (स्वीकृत) न करके एक अन्य प्रस्ताव करता है। यहाँ भी संविदा का निर्माण नहीं होता क्योंकि यहाँ एक प्रस्ताव के उत्तर में दूसरा प्रस्ताव भी एक प्रस्ताव ही होता है, जो स्वीकृति सदृश्य लगता है।

     अ, ब को अपनी कार 30,000/- रुपये में बेचने का प्रस्ताव करता है। प्रस्ताव की जानकारी के पश्चात् व कार 25,000/- रुपये में क्रय करने को तैयार होता है। यह व का 25,000/- रुपये में कार खरीदने का प्रति प्रस्ताव होता है न कि अ के प्रस्ताव की स्वीकृति।

प्रश्न 9 स्वीकृति को परिभाषित कीजिये।

Define Acceptance.

उत्तर- जब वह व्यक्ति जिससे प्रस्थापना की जाती है, इस प्रस्थापना या प्रस्ताव के सम्बन्ध में अपनी अनुमति (सहमति) संज्ञात करता है या संसूचित करता है तब यह कहा जाता है कि प्रस्थापना प्रतिग्रहीत हुई या प्रस्ताव स्वीकार हुआ। जब प्रस्ताव प्रतिग्रहीत या स्वीकृत हो जाता है तो वैध संविदा का निर्माण हो जाता है। स्वीकृति या प्रतिग्रहण (Acceptance) की परिभाषा संविदा अधिनियम, 1872 की धारा

2 (ख) में दी गयी जो निम्न है-

       “जब कि वह व्यक्ति जिससे स्थापना की जाती है उसके (के) प्रति अपनी अनुमति या सहमति संज्ञात करता है (संकरता है) है कि प्रस्थापना प्रतिग्रहीत हुई। इस प्रकार प्रस्थापना के प्रतिया हमति व्यक्त करता ही (प्रस्थापना का प्रति(Acceptance) है”

        जैसे ‘अ’ अपने मकान को 40,000 रुपये में विक्रय करने की प्रस्थापना ‘ब’ से करता है। “ब उस मकान की 40,000 रुपये में क्रय करने की अनुमति देता है। यहाँ

‘ब’ के द्वारा प्रस्थापना प्रतिग्रहीत की गयी।

प्रश्न 10. प्रस्ताव का आमंत्रण।

Invitation to offer.

उत्तर- प्रस्ताव का आमंत्रण (Invitation to offer)- प्रस्थापना के लिये निमंत्रण प्रस्थापना के समतुल्य नहीं होता है। चूंकि प्रस्थापना संविदा करने के इच्छुक व्यक्ति की अन्तिम अभिव्यक्ति है। इसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति की अनुमति या सहमति प्राप्त करना होता है। जब कोई व्यक्ति दूसरे की अनुमति या सहमति प्राप्त करने के आय से नहीं बल्कि कुछ बातों की सूचना परिचालित करके या शर्तें रखकर यह आशा करता है कि के इच्छुक व्यक्ति चाहे तो सूचना या शर्तों के आधार पर प्रस्थापना कर सकता है तो उसे प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव के लिये निमंत्रण कहते हैं, जैसे-दूकानदार द्वारा मूल्य सूची प्रदर्शित करना, बिक्री की जाने वाली वस्तुओं पर मूल्य अंकित करना, निविदा का विज्ञापन, नीलाम की सूचना इत्यादि।

प्रश्न 11. प्रस्ताव वापस कब लिया जा सकता है।

When offer can be revoked?

उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 6 में प्रस्ताव के वापस लेने की विभिन्न विधियाँ  बताई गई हैं –

(1) प्रस्तावक अपना प्रस्ताव  उसके सम्बन्ध में प्रतिग्रहण (स्वीकृति) की सूचना पूर्ण होने से पूर्व किसी समय वापस ले सकता है। [धारा 5]

(2) यदि प्रस्तावक ने अपने प्रस्ताव को स्वीकार किये जाने की कोई समय सीमा निर्धारित किया है जो निर्धारित समय सीमा व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रस्ताव का प्रतिसंहरण मान लिया जायेगा।

(3) यदि प्रस्तावक ने अपनी प्रस्तावना में प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिये कोई पूर्व शर्त निर्धारित की है तथा प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) उस शर्त को पूरा करने में असफल रहता है तो प्रस्ताव समाप्त या प्रतिसंहरित या विखण्डित माना जायेगा।

(4) प्रस्तावक की मृत्यु अथवा पागलपन भी प्रस्ताव को समाप्त कर देता है।

प्रश्न 12 प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण।

Revocation of Acceptance.

उत्तर प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण [ धारा 5]-अंग्रेजी विधि के अनुसार प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण (Revocation) संभव नहीं है। एन्सन के अनुसार प्रतिग्रहण का प्रस्तावना पर वही प्रभाव होता है जो बारूद पर जलती हुयी दियासिलाई का वैध तथा पूर्ण प्रस्ताव तथा वैध एवम पूर्ण प्रतिग्रहण ऐसा कार्य करते हैं जिसे मिटाया नहीं जा सकता। परन्तु के अनुसार सीमित होता है। एमन महोदव के अनुसार अपरिस्थितियों में किये गये प्रतिग्रहण की प्रतिग्रहण की सूचनपूर्ण पूर्व प्रतिग्रहवा प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण (Revocation) कर सकता है, परन्तु उसके लिये शर्त यह है कि प्रतिसंहरण (Revocation) को सूचना प्रतिद्वारा किये गये प्रतिग्रहण (स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक के पास पहुँचने से पूर्व किया जाय।

       भारतीय विधि में यह सुनिश्चित नियम है कि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का प्रतिसंहरण (Revocation) सदैव किया जा सकता है। यदि प्रतिसंहरण पत्र (Revocation letter) प्रतिग्रहण (स्वीकृति) की सूचना प्रस्तावक के पास पहुँचने से पूर्व प्रतिसंहरण की सूचना प्रस्तावक के पास पहुंचायी जाय।

परन्तु यदि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) तथा प्रतिग्रहण के प्रतिसंहरण (Revocation) की सूचना साथ-साथ पहुंचती है तो क्या परिणाम होगा इस विषय में संविदा अधिनियम की धारा 5 में स्पष्ट नहीं है। धारा 5 से जुड़ा उदाहरण यह स्पष्ट करता है कि यदि प्रतिग्रहण तथा प्रतिसंहरण की सूचना साथ-साथ पहुंचती हैं तो प्रतिसंहरण (Revocation) प्रभावी होगा।

प्रश्न 13. टेलीफोन द्वारा स्वीकृति।

Acceptance by telephone.

उत्तर- टेलीफोन द्वारा स्वीकृति कभी-कभी ऐसा होता है कि संविदा के पक्षकार एक-दूसरे से बात-चीत तो सीधे करते हैं परन्तु एक दूसरे के सामने नहीं होते अथवा दूर होते हैं उदाहरण के लिये टेलीफोन द्वारा बातचीत। जब टेलीफोन द्वारा प्रस्ताव किया जाता है और उसी के द्वारा स्वीकृति की सूचना भेजी जाती है तो संविदा का निर्माण तब होता है जब स्वीकृति का तथ्य प्रस्तावकर्ता के ज्ञान में आ जाता है। इस सम्बन्ध में कोर्ट ऑफ अपील द्वारा निर्णीत इन्टोईस लि० बनाम मिल्स फार ईस्ट कार्पोरेशन, (1955) 2 All E. R. 493 का बाद इसका उदाहरण है-वादी ने लंदन से टेलेक्स द्वारा हालैण्ड की एक पार्टी को कुछ सामान खरीदने का प्रस्ताव किया जिसकी स्वीकृति प्रस्तावक को प्राप्त हो गयी। संविदा पूर्ण हो गयी। अब प्रश्न यह उठा कि संविदा लंदन में उत्पन्न हुयी या हालैण्ड में? न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संविदा लंदन में उत्पन्न हुयी क्योंकि टेलीफोन द्वारा संदेश तुरन्त पहुँच जाता है जबकि डाक में समय लगता है। अत: संविदा उस स्थान पर पूर्ण होती है जह स्वीकृति प्रस्तावकर्ता को प्राप्त होती है।

      उपर्युक्त मत का समर्थन सर्वोच्च न्यायालय ने भगवानदास-गोवर्धन दास केडिया बनाम गिरधारी लाल एण्ड कं० AIR 1966 S.C. के बाद में कर दिया है, इस बाद में वादी ने अहमदाबाद में टेलीफोन द्वारा खामगाँव में प्रतिवादी से कुछ सामान्य क्रय करने के लिये प्रस्ताव किया। प्रतिवादी ने अपनी स्वीकृति तुरन्त दे दी। वादी का कहना था कि संविदा अहमदाबाद में पूरी हुयी जबकि प्रतिवादी का कहना था कि संविदा खामगाँव में पूरी हुयी।

    उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि संविदा अहमदाबाद में पूर्ण हुई थी क्योंकि स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को अहमदाबाद में प्राप्त हुई थी।

प्रश्न 14 मानक संविदा।

Standard form of contract.

उत्तर- मानक संविदा (Standard form of Contract)- मानक संविदा को ” अनिवार्य संविदा” भी कहा गया है क्योंकि यह एक पक्षकार द्वारा दूसरे पर थोपी जाती है या इसे ‘निजी विधान’ भी कहा गया है क्योंकि इस संदर्भ में यह संविदा, एक प्रकार के नियमों की संहिता है जिनके आधार पर सेवाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

      ऐन्सन महोदय ने मानक संविदा को “कान्ट्रैक्ट्स ऑफ एडिसन” कहा है जिसका आशय है, संयुक्त होने की ऐसी संविदा जिसमें व्यक्ति के समक्ष कोई विकल्प नहीं, वह केवल स्वीकार कर सकता है, वह बहस नहीं कर सकता।

         आधुनिक समय में मानक रूपी संविदाओं का प्रचलन तीव्र गति से हो गया है क्योंकि कुछ ऐसे संगठन या उपक्रम है जैसे LIC, भारतीय रेल आदि, इन्हें प्रतिदिन हजारों संविदायें करनी पड़ती है। इन संगठनों, उपक्रमों एवं निगमों के लिए यह सम्भव नहीं है कि वे प्रत्येक व्यक्ति के साथ विभिन्न विभिन्न प्रकार की संविदायें करें, इसलिए वे संविदा का एक मानक रूप छपवा लेते है जिसमें शर्तें रहती है। जो भी व्यक्ति संव्यवहार करना चाहता है, उन्हें स्वीकार करे स्वीकार करने वाला व्यक्ति संविदा की शर्तों में परिवर्तन नहीं कर सकता और न तो उसकी युक्तता के विषय में बहस कर सकता है क्योंकि संविदा की शर्तें सभी व्यक्तियों के लिए समान होती हैं, तथा उसके समक्ष स्वीकार करने के अलावा कोई भी विकल्प नहीं रहता।

          उदाहरण के लिए-‘अ’ नामक एक महिला ने संविदा पर बिना पढ़े, हस्ताक्षर किया जिसके द्वारा एक सिगरेट बेचने वाली मशीन क्रय किया। संविदा में दी गई शर्तों के द्वारा मशीन के सभी दोषों से छूट प्राप्त कर ली गई थी। मशीन व्यर्थ साबित हुई। यहाँ पर हस्ताक्षर करने वाला बाध्य है। इसका कोई महत्व नहीं कि वह उसने पढ़ा नहीं।

प्रश्न 15. प्रतिफल से क्या तात्पर्य है?

What is the meaning of term consideration?

उत्तर- सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति को अपने वचन का पालन करना चाहिये। परन्तु वचन पालन के लिये एक प्रलोभन या मूल्य हो तो वचन पालन की सुनिश्चितता बढ़ जाती है। इसीलिये वचन का पालन करने हेतु किसी प्रलोभन की आवश्यकता होती है। साधारणत: इसे ही प्रतिफल कहते हैं।

        विभिन्न विद्वानों ने प्रतिफल को अपने ढंग से परिभाषित किया है “प्रतिफल ऐसे मुआवजे को कहते हैं जो संविदा का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को देता है।”- ब्लैक स्टोन (Black Stone).

“प्रतिफल ऐसे मूल्य को कहते हैं जिसके बदले में दूसरे पक्षकार का वचन प्राप्त किया जाता है” और इस प्रकार से मूल्य के लिये दिया गया वचन प्रवर्तनीय होता है।-पोलक

       उपरोक्त सभी परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि प्रतिफल वचनदाता द्वारा वचन को पूरा करने हेतु दिया जाने वाला प्रलोभन है। यह प्रलोभन, कुछ करने या करने से विरत रहने के रूप में या धन के रूप में हो सकता है। प्रतिफल वचन का मूल्य है जिसके अन्तर्गत संविदा पालन करने की सुनिश्चितता प्राप्त की जाती है। प्रतिफल एक पक्षकार के लिये हित, लाभ या सुविधा होता है तो दूसरे पक्षकार के लिये अहित, हानि या असुविधा या दायित्व होता है। प्रतिफल वचन का ऐसा मूल्य है जिसे विधिक मान्यता प्राप्त हो ।

         भारत में प्रतिफल की परिकल्पना संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में दी गयी परिभाषा पर आधारित है। इस धारा के अनुसार यदि वचनदाता वचनग्रहीता की इच्छा पर कोई कार्य कर चुका है या करता है या करने का वचन देता है या कोई कार्य नहीं किया है या नहीं करता या कुछ करने का वचन देता है तो यह कार्य न करना या करने का वचन उस वचन के लिये प्रतिफल कहलाता है।

         इस प्रकार भारत में धारा 2 (घ) के अनुसार एक वचन या प्रतिज्ञा या संविदा के लिये प्रतिफल (1) भूतकालिक (Past), (2) वर्तमानकालिक (Present), या (3) भविष्यकालिक (Future) हो सकता है।

प्रश्न 16. किन परिस्थितियों में बिना प्रतिफल के भी संविदा वैध होती है?

Under what circumstances a contract without consideration is valid?

उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत तीन अपवाद प्रतिपादित किये गये हैं जिनमें बिना प्रतिफल के भी संविदा वैध होती है

(1) प्राकृतिक स्नेह एवं प्रेम के कारण लिखित एवं पंजीकृत करार (संविदा) (Written and Registered contract due to natural love and affection)-धारा 25 के अन्तर्गत प्रतिपादित सिद्धान्त के प्रथम अपवाद के अनुसार निकट रिश्तेदार (Near relatives) के नैसर्गिक प्रेम एवं स्नेह (Natural love and affection) के कारण की गयी संविदा प्रतिफल के अभाव में भी वैध तथा लागू कराने योग्य होती है।

(2) पूर्व में की गयी स्वैच्छिक सेवा के प्रति कुछ देने का करार– यदि एक पक्षकार ने किसी व्यक्ति की पहले कोई सेवा या कार्य किया है तथा उससे प्रभावित होकर वह कुछ देने का करार (संविदा) करता है तो ऐसी संविदा (करार) प्रतिफल के अभाव में भी प्रवर्तनीय होती है।

       ख, की थैली क पड़ी पाता है और उसे उसको (क को) देता है। ख, क को 50 रुपये देने का वचन देता है। यह वैध संविदा है।

      ख के शिशु पुत्र का पालन क करता है। ऐसा करते हुये जो क का खर्च होता है, उसे देने का वचन ख देता है। यह एक वैध संविदा है।

(3) कालवर्जित या कालावरोधित ऋण (Time barred debt) – कालवर्जित या कालवरोधित ऋण के भुगतान का करार (संविदा) (1) लिखित तथा (2) हस्ताक्षर युक्त होना चाहिये (3) वचन ऋण के अंशत: या पूर्ण भुगतान का हो (4) यह ऋण परिसीमा अधिनियम के अन्तर्गत काल बाधित (Time barred) होना चाहिये। यह भी आवश्यक है कि वचन उसी व्यक्ति ने दिया हो जो ऋण देने के दायित्वाधीन रहा हो (5) ॠण प्रत्यक्ष होना चाहिये, अनुमानित नहीं होना चाहिये।

प्रश्न 17. अवयस्क कौन है? क्या अवयस्क की संविदा शून्य होती है? Who is minor? Is minor’s contract void?

उत्तर-आंग्ल विधि के अनुसार जिस व्यक्ति ने 21 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं किया है, अवयस्क है। परन्तु भारतीय विधि के अन्तर्गत भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 की धारा-3 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है. वयस्क माना जाता है अर्थात् भारतीय विधि के अन्तर्गत जिस व्यक्ति ने 18 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की है, वह संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम (Guardian and Wards Act) के अन्तर्गत संरक्षक की नियुक्ति की गयी है, वह 21 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर ही वयस्क माना जाता है।

ऐसी संविदा जिसका एक पक्षकार अवयस्क है, आंग्ल विधि के अनुसार अवयस्क के विकल्प पर शून्यकरणीय (Voidable) होती है, परन्तु आंग्ल विधि के अनुसार कुछ संविदायें जिसका एक पक्षकर अवयस्क है, शून्य होती हैं, जैसे-

(क) उधार लिये गये धन या उसके देनगी की संविदा

(ख) जीवन की आवश्यकताओं को छोड़कर अन्य वस्तु के प्रदाय की संविदा; तथा

(ग) लेखे (Accounts) संबंधी संविदा।

भारतीय विधि के अन्तर्गत यद्यपि भारतीय संविदा विधि की धारा 11 के अन्तर्गत एक अवयस्क संविदा करने के लिये सक्षम नहीं है। परन्तु संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 अवयस्क द्वारा की गयी संविदा की प्रवृत्ति के बारे में कोई उल्लेख नहीं करती। अतः सन् 1930 तक भारत में यह विवाद रहा कि अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्य है या शून्यकरणीय है। परन्तु सन् 1930 में प्रिवी काउन्सिल ने मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, (1903) 30 आई० ए० 114, 30 कलकत्ता 539 नामक वाद यह स्पष्ट कर दिया कि एक अवयस्क द्वारा की गयी संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती है अर्थात् ऐसी संविदा जिसका एक पक्षकार अवयस्क है, का विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व नहीं है। प्रिवी काउन्सिल के अनुसार चूँकि अवयस्क संविदा करने में अक्षम है अतः उसके द्वारा की गयी संविदा के बारे में विधि यह मानकर चलती है कि वह संविदा हुयी ही नहीं।

प्रश्न 18. सुस्थिर चित्त से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by sound mind?

उत्तर- सुस्थिर चित्त (Sound mind) -संविदा अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत जब कोई व्यक्ति जिस समय वह संविदा करता है, संविदा की शर्तों को समझने तथा अपने हितों पर संविदा के प्रभावों के बारे में युक्तियुक्त निर्णय करने के योग्य है तो उस व्यक्ति के बारे में यह कहा जाता है कि वह संविदा करने के लिये सुस्थिर चित्त का है।

     यदि जो व्यक्ति प्रायः विकृतचित्त का (of unsound mind) है परन्तु कभी-कभी सुस्थिर चित्त का हो जाता है, जब सुस्थिर चित्त (sound mind) का हो तो संविदा कर सकेगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति प्राय: सुस्थिर चित्त का है किन्तु कभी-कभी विकृतचित्त का हो जाता है वह, जबकि वह विकृतचित्त का है, संविदा नहीं कर सकेगा।

प्रश्न 19. सम्मति या मतैक्य को परिभाषित कीजिये।

Define consent ad idem.

उत्तर- सम्मति या मतैक्य (Consent ad idem)- मतैक्य या सहमति को संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 13 में परिभाषित किया गया है। धारा 13 के अनुसार जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर एक ही भाव में करार करते हैं तो उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे सम्मत या सहमत हुये। संविदा निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि संविदा के दोनों पक्षकार एक ही बात पर एक अर्थ में करार किये हों अर्थात् एक ही बात पर एक ही अर्थ में मतैक्य होना (Consensus ad idemn) संविदा निर्माण के लिये आवश्यक है। उदाहरण के लिये ‘क’, ‘ख’ से घोड़ा बेचने का करार करता है। ‘क’ समझाता है कि ‘ख’ उसके कई घोड़ों में से काला घोड़ा खरीदना चाहता है जबकि ‘ख’ समझता है कि ‘क’ अपने कई घोड़ों में से अपना सफेद घोड़ा बेचना चाहता है। यहाँ ‘क’ तथा ‘ख’ एक ही बात पर एक ही भाव से करार नहीं कर रहे हैं। अतः यह कहा जायेगा कि उनमें संविदा के लिये सम्मति या सहमति नहीं थी।

प्रश्न 20. स्वतंत्र सहमति क्या है?

What is free consent?

उत्तर- स्वतंत्र सम्मति (Free consent) – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार-“सभी करार संविदा हैं यदि वे पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति से किये जाते हैं” दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मान्य संविदा में सम्मति ही बल्कि स्वतंत्र सहमति होनी चाहिये।

       धारा 14 में यह परिभाषित किया गया है कि स्वतंत्र सहमति किसे कहते हैं। इसके अनुसार ऐसी सम्मति को स्वतंत्र सम्मति कहा जाता है जिसमें सम्मति-

(i) उत्पीड़न (coercion)

(ii) असम्यक् असर (Undue influence)

(iii) कपट (Fraud)

(iv) मिथ्या-व्यपदेशन (Misrepresentation); एवं

(v) भूल (Mistake)

से न करायी गयी हो।

      इस प्रकार जब कोई व्यक्ति बिना किसी बाधा अथवा अवरोध के कार्य करता है, अपनी सम्मति देता है तब उसे स्वतंत्र सम्मति कहा जाता है।

प्रश्न 21. सक्षम पक्षकार।

Competent Parties.

उत्तर- सक्षम पक्षकार संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति जो वयस्कता की आयु प्राप्त कर चुका है, स्वस्थचित्त का है या विधि द्वारा संविदा करने में अक्षम घोषित नहीं है, संविदा करने में सक्षम है। इसका अर्थ यह है कि वह व्यक्ति जो अवयस्क है या विकृतचित्त का है या विधि द्वारा संविदा करने से अक्षम घोषित है (जैसे दिवालिया व्यक्ति) संविदा नहीं कर सकता है। धारा 11 में दी गयी परिभाषा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति, जो कि उस विधि के अनुसार जिसके कि वह अध्यधीन है, वयस्कता की आयु का हो, जो कि सुस्थित चित्त का हो और किसी विधि द्वारा, जिसके कि यह अध्यधीन है, संविदा करने से निरहित नहीं है, संविदा करने के लिये सक्षम है। इस प्रकार प्रत्येक वैध संविदा के लिये यह आवश्यक है कि पक्षकार संविदा करने के लिये सक्षम हो। निम्न व्यक्ति संविदा करने के लिये धारा 11 में सक्षम पक्षकार माने गये हैं।

1. वयस्क 2. स्वस्थचित व्यक्ति 3. अन्य व्यक्ति जो विधि द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 22 शून्य संविदा क्या है?

What is vold contract?

उत्तर- शून्य संविदा ऐसी संविदा है जिसका विधि की दृष्टि में कोई प्रभाव नहीं होता। ऐसी संविदा विधि के अन्तर्गत किसी भी प्रकार का दायित्व किसी भी प्रकार के अधिकार का सृजन नहीं करती। शून्य संविदा विधि के अन्तर्गत संविदा के किसी भी पक्षकार द्वारा प्रवर्तित (Enforce) नहीं कराई जा सकती। यह स्मरणीय है कि शून्य संविदायें शून्य या अप्रवर्तनीय तो होती हैं परन्तु ये संविदायें अवैध नहीं होंगी। इसका प्रभाव यह है कि शून्य संविदा के अन्तर्गत साम्पाश्विक करार प्रवर्तनीय होता है। परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यह नियम सिर्फ उन्हीं संविदाओं पर लागू होता है जो सक्षम पक्षकारों के मध्य सम्पन्न हुयी थी (जैसे बाजी की संविदा)। अवयस्क द्वारा की गयी संविदा ऐसी संविदा है जिसका एक पक्षकर संविदा करने की सक्षमता नहीं रखता अतः विधि यह मानकर चलती है कि ऐसी संविदा का अस्तित्व ही नहीं है। अत: अवयस्क द्वारा की गयी संविदा के साम्पाश्विक करार (Collateral agreements) भी अप्रवर्तनीय (Nonenforceable) होते हैं।

प्रश्न 23. शून्यकरणीय संविदा को समझाइये ।

Explain voidable contract.

उत्तर- शून्यकरणीय संविदा (Voidable) – वह संविदा है जो एक पक्षकार के विकल्प पर निरस्त करायी जाती है। जब तक संविदा का एक पक्षकार उसके विरुद्ध आपत्ति नहीं करता, ऐसी संविदा वैध तथा प्रवर्तनीय होती है। उदाहरण के रूप में उत्पीड़न या प्रपीड़न ((Coercion) के अन्तर्गत प्राप्त सहमति के अन्तर्गत की गयी संविदा उस व्यक्ति के विकल्प पर निरस्त करायी जा सकती है जिसकी सहमति प्रपीड़न के अन्तर्गत प्राप्त की गयी है। जैसे-एक महिला के पति का शव उसके रिश्तेदार तब तक शमशान नहीं ले गये जब तक उसने एक बच्चे को गोद लेने के लिये सहमति नहीं की। महिला के विकल्प पर इस संविदा को निरस्त कर दिया गया जिसके अन्तर्गत महिला ने बच्चा को गोद लेने के लिये सहमति प्रदान की थी।

प्रश्न 24. सरकारी संविदा से आप क्या समझते हैं ?

What do you understand by Government contracts?

उत्तर- सरकारी संविदा- भारतीय संविधान का अनुच्छेद-299 का संबंध सरकार के साथ की गयी संविदा से सम्बन्धित है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ की या राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग करते हुये की गयी सभी संविदायें यथास्थिति (जैसे) राष्ट्रपति या सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल के द्वारा की गयी कही जायेंगी और वे सभी संविदायें और सम्पत्ति सम्बन्धी हस्तान्तरण-पत्र जो इस शक्ति का प्रयोग करते हुये किये जायें, राष्ट्रपति या राज्यपाल की ओर से ऐसे व्यक्तियों द्वारा और ऐसी रीति से निष्पादित किये जायेंगे जिसे वह निर्दिष्ट या प्राधिकृत करे।

बिहार राज्य बनाम थापर एण्ड ब्रदर्स लि० (AIR 1962 S.C. 110) के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने विचार व्यक्त किया कि-  केन्द्र व राज्य सरकार को बाध्य करने वाली संविदा के लिये तीन शर्तों का पूरा होना आवश्यक है

(1) संविदा में यह अभिव्यक्त होना चाहिये कि वह राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा की गयी है,

(2) संविदा निष्पादित की जानी चाहिये, और

(3) उसका निष्पादन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिये जिसे राष्ट्रपति या राज्यपाल ने निर्दिष्ट या प्राधिकृत किया हो।

प्रश्न 25. संविदा से असंबद्ध व्यक्ति।

What to contract.

उत्तर- आंग्ल-विधि में संविदात्मक संबंध के सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति संविदा का पक्षकार नहीं है अर्थात् संविदा से असंबद्ध व्यक्ति है वह संविदा प्रवर्तन के लिये या संविदा भंग से उत्पन्न परिणामों के लिये वाद लाने का अधिकारी नहीं है। भले ही संविदा उसके लाभ के लिये की गयी हो।

       चूँकि इस सिद्धान्त का उदय ही अंग्रेजी वाद ट्विडल बनाम एटकिंसन के बाद में हुआ था जिसमें यह अभिनिर्धारित हुआ था कि जब दो व्यक्ति संविदा करते हैं तो कोई तीसरा व्यक्ति उस संविदा का लाभ नहीं उठा सकता। भले ही संविदा उसके भले के लिये हुयी हो। भारतीय संविदा विधि में इस नियम के बारें में कोई उपबंध नहीं है परन्तु भारतीय न्यायालयों ने अपने निर्णयों में इस नियम को लागू किया है।

प्रश्न 26. प्रपीड़न क्या है?

What is Coercion?

उत्तर- प्रपीड़न (Coercion)-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, “प्रपीड़न इस आशय से कि किसी व्यक्ति से कोई करार कराया जाय, कोई ऐसा कार्य करना या करने की धमकी देता है, जो भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध है अथवा किसी व्यक्ति पर, चाहे वह कोई हो, प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिये किसी सम्पत्ति का विधि विरुद्ध निरोध करना या निरोध करने की धमकी देना है।” अत: इसमें निम्न तत्व हैं

       धारा 15 के अधीन प्रपीड़न द्वारा प्राप्त सम्मति तब कही जाती है, जब-

(1) किसी व्यक्ति द्वारा भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध कार्यों को कराया गया हो या कराने की धमकी दी गयी हो;

(2) किसी सम्पत्ति का विधि-विरुद्ध निरोध किया गया हो; या

(3) ऐसी धमकी या निरोध किसी व्यक्ति से कोई करार कराने या प्रतिकूल प्रभाव डालने के आशय से की गयी हो।

जैसे – आत्महत्या की धमकी देना यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराध नहीं होता परन्तु आत्महत्या की धमकी देकर कराया गया करार प्रपीड़न के अधीन माना जाता है।

प्रश्न 27. असम्यक् असर क्या है?

What is undue influence?

उत्तर- असम्यक् असर (Undue influence) – जब पक्षकार एक दूसरे से इस प्रकार विश्वास की स्थिति में होते हैं कि एक दूसरे पर अपना असर डाल सकते हो जो स्वयं में प्राकृतिक तथा उचित हो परन्तु उसे नाजायज प्रकार से प्रयोग किया गया तो इसे असम्यक् असर द्वारा उत्प्रेरित कही जाती है जहाँ कि पक्षकारों के बीच विद्यमान सम्बन्ध ऐसे हैं कि उनमें से एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में है। और उस स्थिति का उपयोग उस दूसरे पक्षकार से ऋजु फायदा अभिप्राप्त करने के लिये करता है।

       एक व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में तब कहा जाता है जब वह ऐसे व्यक्ति के साथ संविदा करता है-

      जिस पर वास्तविक या दृश्यमान प्राधिकार रखता हो तथा जिसके साथ वैश्वासिक संबंध की स्थिति में हो।

प्रश्न 28. उत्पीड़न एवं अनुचित दबाव में अन्तर । Distinction between coercion and undue influence.

उत्तर- प्रपीड़न (उत्पीड़न ) व असम्यक् प्रभाव में अन्तर Distinction between coercion and undue influence

प्रपीड़न (उत्पीड़न)

1. प्रपीड़न में भारतीय दण्ड संहिता द्वारा निषिद्ध किसी कार्य को करने या करने की धमकी से सहमति प्राप्त की जाती है।

2. उत्पीड़न का स्वरूप मुख्यतः शारीरिक होता है।

3. उत्पीड़न में हिंसा के प्रयोग की सम्भावना होती है।

4. उत्पीड़न में पक्षकारों के मध्य पूर्व संबंध का अस्तित्व आवश्यक नहीं है।

असम्यक् प्रभाव

1. असम्यक् असर में एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को अधिशासित करके सहमति प्राप्त करता है।

2. असम्यक् असर का स्वरूप नैतिक होता है।

3. असम्यक् असर सूक्ष्म, अमूर्त एवं प्रभावात्मक होता है।

4. असम्यक् असर में पक्षकारों में सक्रिय विश्वास का पूर्व संबंध आवश्यक है जैसे-वकील-मुवक्किल।

प्रश्न 29 कपट की परिभाषा दीजिये।

Define frand.

उत्तर- कपट (Fraud)– भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 17 में कपट को परिभाषा दी गयी है जो बहुत ही विस्तृत है। छल, जालसाजी, धोखा देने वाला प्रत्येक कार्य इस परिभाषा के अन्तर्गत आ जाता है।

धोखा देने के आशय या किसी व्यक्ति को संविदा करने के लिये प्रेरित करने के आशय से निम्नलिखित कार्य किये जाते हैं तो उसे कपट कहते हैं।

1. तथ्यों के बारे में झूठा सुझाव देना जबकि सुझाव देने वाला जानता है कि वह सुझाव असत्य दे रहा है।

2. जान-बूझकर तथ्यों को छिपाना।

3. ऐसी प्रतिज्ञा करना जिसको पूरा करने का आशय न हो।

4. कोई भी कार्य जिससे धोखा होता है।

5. ऐसा कोई भी कार्य जो किसी कानून के तहत कपटपूर्ण घोषित हो ।

      अंग्रेजी विधि में कपट की परिभाषा स्पष्ट रूप से डेरी बनाम पीक (1889) 14 अप केस 33 में दी गयी थी। यदि कोई मिथ्या व्यपदेशन जान-बूझकर, इसकी सत्यता में विश्वास हैं किये बिना या सत्य-असत्य की जाँच किये बिना किया जाता है तो उसे कपट कहते हैं।

प्रश्न 30. मिथ्या व्यपदेशन से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by misrepresentation?

उत्तर- मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation)-भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 18 मिथ्या व्यपदेशन के बारे में है। कपट की तरह मिथ्या व्यपदेशन की परिभाषा भी विस्तृत रूप से दी गई है। निम्नलिखित मामले दुर्व्यपदेशन के अन्तर्गत आते हैं

1. किसी को असत्य तथ्यों के अस्तित्व में होने का विश्वास दिलाना, जबकि विश्वास दिलाने वाला उसे सत्य समझता है।

2. बिना बुरे आशय के कर्तव्य भंग करना अर्थात् लापरवाही से कर्त्तव्य भंग करना। जो करने वाले को कुछ लाभ दे तथा दूसरे पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।

3. कोई ऐसा कार्य करना जिससे दूसरा पक्षकार संविदा की विषय-वस्तु के बारे में सारभूत गलती कर दे।

      यदि कोई व्यक्ति सद्भावपूर्वक दूसरे को कहता है कि उसकी कम्पनी में इस वर्ष एक लाख का लाभ हुआ। दूसरा व्यक्ति इस तथ्य में विश्वास करके कम्पनी के साथ संविदा कर आता है, किन्तु बाद में पता चलता है कि कम्पनी को मात्र 50 हजार रुपये का ही लाभ हुआ । यदि प्रथम व्यक्ति ने असत्य तथ्य धोखा देने के आशय से नहीं बताये बल्कि उसे सत्य मानते हुए कहे थे तो वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा।

     दो व्यक्ति मिलकर मौखिक रूप से कोई बात तय करते हैं। बातचीत के आधार पर एक क्ति लिखत तैयार करता है और दूसरे को विश्वास दिलाता है कि लिखत में वही बातें हैं जो मौखिक रूप से तय की गई थीं। अनजाने में लिखित में ऐसी बात भी लिख दी जाती है, जो दूसरे के ज्ञान में नहीं होती है। दूसरा व्यक्ति पहले पर विश्वास करके हस्ताक्षर करता है, ऐसी परिस्थिति में पहले व्यक्ति का कर्तव्य है कि लिखत की सभी बातों से दूसरे व्यक्ति को अवगत कराये। कर्त्तव्य भंग करने से वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा। उदाहरण के लिए एक हिन्दू पिता यह कहता है कि वही मात्र सम्पत्ति का हकदार है, यह कहकर दूसरे व्यक्ति की संविदा में सहमति प्राप्त कर लेता है। यदि पिता का पूर्ण हक है तो वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा।

प्रश्न 31. कपट और मिथ्या व्यपदेशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए। Distinguish between fraud and misrepresentation.

उत्तर- कपट और मिथ्या व्यपदेशन में अन्तर

कपट (Fraud)

1. कपट में धोखा देने का आशय रहता है।

2. कपट में तथ्यों को बताने वाला यह जानता है कि वह झूठ बोल रहा है।

3. कपट में संविदा शून्य घोषित हो सकती है तथा साथ में प्रतिकर के लिए दावा किया जाता है।

4. कपट एक अपराध भी है तथा दीवानी दोष भी है ।

5. कपट में प्रतिवादी यह कह सकता था कि वादी के पास सत्यता का पता लगाने के साधन थे।

मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation)

1. मिथ्या व्यपदेशन में धोखा देने का आशय नहीं रहता है।

2. मिथ्या व्यपदेशन में तथ्यों को सत्य जानकर बताया जाता है, किन्तु वास्तव में तथ्य सत्य नहीं होते।

3.मिथ्या व्यपदेशन में क्षतिपूर्ति नहीं होती है।

4. मिथ्या व्यपदेशन सिर्फ दीवानी दोष है।

5. मिथ्या व्यपदेशन के बाद में प्रतिवादी को इस प्रकार का बचाव उपलब्ध नहीं है।

प्रश्न 32 तथ्य की भूल से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Mistake of fact?

उत्तर- तथ्य की भूल-जहाँ कि किसी करार के दोनों पक्षकार, करार के लिये सारभूत किसी तथ्य की बात के बारे में भूल के अधीन हैं, वहाँ करार शून्य हैं।” धारा 20 ऐसी स्थिति में लागू होती है कि करार का निर्माण तो होता है लेकिन करार के पक्षकार ऐसे तथ्य के बारे में भूल करते हैं, जो करार के लिये अत्यावश्यक एवं मर्मभूत हैं।

आवश्यक तत्व

(1) दोनों पक्षकार भूल के अधीन होने चाहिये;

(2) भूत किसी तथ्य की होनी चाहिये तथा

(3) तथ्य करार का आवश्यक अंग होना चाहिये।

प्रश्न 33. विधि की भूल

Mistake of Law.

उत्तर-विधि की भूल (Mistake of Law)- प्रत्येक व्यक्ति की देश की सामान्य विधि का ज्ञान होना चाहिये। यदि वह कोई संविदा या संव्यवहार करता है तो संबंधित विधि की जानकारी प्राप्त करना या व्यावसायिक व्यक्ति की सहायता लेना अपेक्षित है। विधि की भूल के लिये उसे माफी नहीं दी जा सकती सिद्धान्त यह है कि “विधि की अनभिज्ञता दोषमार्जन का आधार नहीं हो सकती।” यह सिद्धान्त देश की सामान्य विधि संबंधी भूलों तक ही सीमित है। इस सिद्धान्त के शब्द विधि का आशय सामान्य विधि से है न कि वैयक्तिक अधिकार से कोई संविदा इस कारण ही शून्यकरणीय नहीं है कि वह भारत में प्रवृत्त विधि के बारे की किसी भूल के कारण की गयी थी किन्तु किसी ऐसी विधि के बारे में जो भारत में प्रवृत्त नहीं है, किसी भूल का वही प्रभाव है जो तथ्य की भूल का है।

दृष्टान्त

       क और ख इस गलत विश्वास पर संविदा करते हैं कि एक विशिष्ट ऋण भारतीय परिसीमा विधि द्वारा बाधित है, संविदा शून्यकरणीय नहीं है।

प्रश्न 34. अविधिपूर्ण प्रतिफल ।

Unlawful consideration.

उत्तर- अविधिपूर्ण प्रतिफल- जब किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल विधि विरुद्ध है तो उसे अविधिपूर्ण संविदा कहेंगे। प्रत्येक अविधिपूर्ण या अवैध संविदा शून्य संविदा होती है इसलिये अवैध संविदा का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 अवैध संविदा की व्याख्या करती है। धारा 23 के अनुसार किसी करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण है, सिवाय जबकि वह विधि द्वारा निषिद्ध, या

        वह ऐसी प्रकृति का हो कि यदि वह अनुज्ञात किया जाये तो वह किसी विधि के उपबंधों को विफल कर देगा; या

       उसमें किसी अन्य के शरीर या सम्पत्ति की क्षति अन्तर्वलित या विवक्षित हो अथवा न्यायालय उसे अनैतिक या लोकनीति के विरुद्ध माने।

       इन दशाओं में से हर एक में करार का प्रतिफल या उद्देश्य अवैध कहलाता है।

      इस प्रकार उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि निम्नलिखित दशाओं में की गयी संविदा अवैध होती है। यदि किसी संविदा का उद्देश्य व प्रतिफल अनैतिक, लोकनीति के विरुद्ध या विधि द्वारा निषिद्ध या ऐसी प्रकृति का है कि यदि लागू किया जाय तो विधि के प्रावधानों को निष्फल कर देगा या किसी के शरीर व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाता हो या कपटपूर्ण है।

दृष्टान्त

(क) क, ख और ग अपने द्वारा चोरी से अर्जित किये गये या किये जाने वाले अभिलाभों को आपस में विभाजन के लिये तैयार होते हैं। करार शून्य है, क्योंकि उसका उद्देश्य विधि विरुद्ध है।

प्रश्न 35. प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है। Consideration need not be adequate.

उत्तर- प्रतिफल का कुछ न कुछ मूल्य होना आवश्यक है। परन्तु धारा 25 के स्पष्टीकरण 2 से यह स्पष्ट है कि प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं है यद्यपि उसका कुछ न कुछ मूल्य होना आवश्यक है।

      थामस बनाम थामस (1842) 2 क्यू० बी० 857 नामक बाद में एक वसीयतकर्ता ने अपने वसीयत में यह इच्छा प्रकट की कि उसके भवन का उपयोग उसको पत्नी करे। बसोयत के निष्पादक ने इसके लिये शर्त रखी कि वसीयतकर्ता की पत्नी भवन के बदले में । पाँड किराया दे। विधवा द्वारा एक पौंड किराया देने का वचन वैध प्रतिफल माना गया। विधवा पत्नो तथा वसीयत निष्पादक के मध्य किया गया करार वैध माना गया।

         एन्सन ने अपनी पुस्तक लॉ ऑफ कान्ट्रेक्ट में यह कहा कि प्रतिफल ऐसा होना चाहिये जिसका विधि की दृष्टि में कुछ न कुछ मूल्य हो।

प्रश्न 36. विवाह के अवरोधक करार की प्रकृति क्या है?

What is nature of an agreement in restraint of marriage?

उत्तर- विवाह के अवरोधक करार की प्रकृति- भारतीय विधि में विवाह के अवरोधक करार शून्य होते हैं चाहे करार के अन्तर्गत विवाह पर लगाया गया अवरोध आंशिक हो या पूर्ण। इस सामान्य नियम के अन्तर्गत एक अपवाद है। वह अवयस्क के विवाह से संबंधित है। संविदा अधिनियम की धारा 26 यह स्पष्ट प्रावधान करती है कि अवयस्क को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ की गयी संविदा शून्य होती है अर्थात् एक अवयस्क के विवाह के अवरोधार्थ की गयी संविदा वैध तथा प्रवर्तनशील होगी। ऐसी संविदा शून्य नहीं होगी।

      परन्तु यह स्मरणीय है कि जो संविदा विवाह की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाती, वह शून्य नहीं होती। लुप्तुनिसा बनाम शहरबानू, ए० आई० आर० 1936 अवध 108 नामक बाद में संविदा के अन्तर्गत यह शर्त थी कि यदि विधवा पुनः विवाह करेगी तो उसके भरण पोषण का अधिकार समाप्त हो जायेगा। न्यायालय ने इस करार को विधिमान्य माना।

प्रश्न 37. अवैध संविदा क्या है?

What is Illegal Contract?

उत्तर- अवैध संविदा- यदि किसी संविदा को विधि के प्रावधानों द्वारा विधि-विरुद्ध घोषित किया गया है तो ऐसी संविदा अवैध करार या अवैध संविदा कहलाती है। जैसे यदि किसी संविदा के प्रतिफल तथा उद्देश्य अवैध हैं तो ये संविदा अवैध होने के कारण शून्य घोषित की गयी हैं। यहाँ संविदा के सभी आवश्यक तत्व यथा सक्षम पक्षकार स्वतंत्र सहमति तथा प्रतिफल तो उपस्थित होते हैं। परन्तु उसका उद्देश्य या प्रतिफल अवैध होने के कारण ये संविदायें अवैध होने के कारण विधि द्वारा लागू नहीं करवाई जा सकतीं। इस प्रकार अवैध संविदा शून्य होती है, परन्तु प्रत्येक शून्य संविदा अवैध नहीं होती, क्योंकि संविदा किन्हीं अन्य कारणों से शून्य हो सकती है जैसे सक्षम पक्षकार या भूल के अन्तर्गत की गयी संविदा।

प्रश्न 38. व्यापार के अवरोधार्थ करार क्या हैं?

What are an agreement in restraint of trade?

उत्तर- व्यापार के अवरोधार्थ करार ( An agreement is restraint of trade)-व्यापार करने की स्वतंत्रता का अधिकार संवैधानिक अधिकार है। ऐसे अधिकार पर न तो विधिक प्रतिबंध लगाया जा सकता है और न ही व्यक्ति करार द्वारा अवरोध उत्पन्न कर सकता है।

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 में यह सिद्धान्त वर्णित किया गया है कि विधिपूर्ण व्यापार, वृत्ति एवं कारोबार में अवरोध उत्पन्न करने वाले करार शून्य होते हैं। इस धारा में वे ही व्यापार रहित हैं जो विधिक हो।

धारा 27 निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करती है –

(1) व्यापार में एकाधिकार (Monopoly) को निरुत्साहित करना;

(2) समाज में कारबार की आवश्यकता को मान्यता देना;

(3) व्यक्ति की आजीविका के अधिकार की रक्षा करना, इत्यादि।

प्रश्न 39. विधिक कार्यवाहियों में अवरोध डालने वाला करार।

Agreement in restraint of legal proceedings.

उत्तर–विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार-विधि का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रवर्तन के लिये न्यायालय से संरक्षण प्राप्त कर सकता है। कोई भी व्यक्ति न तो इससे वंचित किया जा सकता है और न कोई व्यक्ति अपने आपको इससे अपवर्जित ही कर सकता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 28 के अनुसार विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार शून्य हैं “

      हर करार जिससे उसका कोई पक्षकार किसी संविदा के अधीन या बारे में अपने अधिकारों को मामूली अधिकरणों में प्रायिक कार्यवाहियों द्वारा प्रवर्तित कराने से आत्यंतिक अवरुद्ध किया जाता हो या जो उस समय को, जिसके भीतर वह अपने अधिकारों को इस प्रकार प्रवृत्त करा सकता है परिसीमित कर देता हो, उस विस्तार तक शून्य है।

व्याख्या की दृष्टि से धारा 28 को 2 भागों में बाँट सकते हैं –

(i) करार के द्वारा एक पक्षकार के संविदा से उत्पन्न अधिकारों को सामान्य न्यायालयों में विधिक कार्यवाहियों द्वारा पालन कराने में पूर्णतः अवरुद्ध करना।

(ii) करार द्वारा अधिकारों को लागू कराने के लिये निर्धारित समय को मर्यादित करना (बढ़ाना या घटाना) । उपर्युक्त दोनों स्थितियों में करार शून्य होता है।

प्रश्न 40. संविदा तथा करार में अन्तर स्पष्ट कीजिये। Differentiate between agreement and contract.

उत्तर-(क) संविदा तथा करार में अन्तर (Difference between Contract and Agreement) – संविदा एवं करार में निम्नलिखित अन्तर हैं –

संविदा

1. धारा 2 (ज) के अनुसार “विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा कहलाता है”

2. सभी संविदायें करार होती हैं।

3. संविदा का संविदा के पक्षकारों पर सदैव बाध्यकारी प्रभाव है

4. संविदा विधि द्वारा प्रवर्तनीय होती है।

करार

1. धारा 2 (ङ) के अनुसार प्रत्येक वचन या वचनों का प्रत्येक समूह जो एक दूसरे के लिये प्रतिफल है, करार कहलाता है।

2. सभी करार संविदा नहीं होते हैं केवल विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार ही संविदा होते हैं।

13. जबकि करार का सदैव बाध्यकारी प्रभाव नहीं होता है

4. जबकि सभी करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते। कुछ होते हैं और कुछ नहीं होते हैं जैसे सामाजिक करार ।

प्रश्न 41. बाजी की संविदा को समझाइये।

Explain Wagering Contract.

उत्तर- बाजी की संविदा (Wagering contract)- बाजी लगाना एक अनैतिक तथा असामाजिक कार्य है इसलिये संविदा अधिनियम की धारा 30 बाजी की संविदा को शून्य घोषित करती है। बाजी में हार जीत की वस्तु को प्राप्त करने हेतु वाद नहीं लाया जा सकता है। बाजी या पंद्यम या क्षणिक करार (Wagering contract or agreement) की परिभाषा संविदा अधिनियम में नहीं दो गयी है। परन्तु एन्सन महोदय के अनुसार, बाजी की संविदा में किसी ऐसी घटना के विनिश्चयन या निर्धारण हेतु द्रव्य या द्रव्य जैसी कोई मूल्यवान वस्तु परिदान करने का करार होता है, न्यायमूर्ति हाकिन्स ने कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कम्पनी, (1893) 1 क्वीन्स बेंच 256, नामक बाद में बाजी के करार की परिभाषा देते हुये कहा कि बाजी की संविदा वह है जिसमें दो पक्षकार भविष्य की किसी अनिश्चित घटना के संबंध में विपरीत मत रखते हुये यह करार करते हैं कि उस घटना के निश्चय या निर्धारण (घटना घटित होने पर) एक पक्षकार की दूसरे पक्षकार पर जीत होगी तथा पहला पक्षकार दूसरे पक्षकार को धन या अन्य कोई वस्तु देगा। घटना के घटित होने या न होने में पक्षकारों का हार-जीत के अतिरिक्त कोई अन्य (उद्देश्य) हित नहीं होता।

प्रश्न 42 समाश्रित संविदा से आप क्या समझते हैं?

What do you mean by Contingent Contract?

उत्तर- समाश्रित संविदा (Contingent contract)- समाश्रित संविदा को संविदा अधिनियम की धारा 31 में परिभाषित किया गया है। समाश्रित संविदा, वह संविदा है जो ऐसी संविदा से साम्पार्शिवक किसी घटना के घटित होने या न होने पर किसी बात को करने या न करने के लिये हो। ये संविदायें किसी अनिश्चित साम्पाविक घटना घटित होने या न होने पर आधारित होती है। जीवन बीमा (Life Insurance) को छोड़कर बीमा की सभी संविदा समाश्रित संविदा है क्योंकि जीवन बीमा एक निश्चित घटना (मृत्यु) घटने पर ही प्रवर्तित होती है। ‘ख’ ‘क’ से कहता है कि यदि ‘ख’ का गृह जल जाय तो वह ‘ख’ को 50,000 रुपये देगा। यह समाश्रित संविदा है क्योंकि यह किसी अनिश्चित घटना के घटित होने पर प्रवर्तनीय होती है।

प्रश्न 43. ‘संविदा के उन्मोचन के बारे में बताइए।

Discuss ‘Discharge of contract.”

उत्तर- संविदा का उन्मोचन (Discharge of contract)–मान्य संविदा होने के बाद पक्षकारों पर प्रतिज्ञाओं के पालन का नम्बर आता है, प्रतिज्ञा पालन के बिना पक्षकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं होते हैं। प्रतिज्ञा पालन दायित्व से उन्मुक्ति का एक तरीका है अन्य तरीके भी हैं, जिनसे पक्षकार अपने दायित्व से उन्मुक्त हो जाते हैं तथा संविदा का उन्मोचन हो जाता है।

       ऐन्सन (Anson) के अनुसार संविदा उन्मोचन के पाँच तरीके हैं –

1. पालन – द्वारा पक्षकार अपने कर्तव्यों का पूर्णरूपेण पालन करते हैं, जिनसे उनके अधिकारों की पूर्ण तुष्टि होती है।

2. पालन की असम्भवता द्वारा उन्मोचन-जिससे पक्षकार अपने क्रमिक दायित्वों से अलग हो जाते हैं।

3. पारस्परिक करार द्वारा उन्मोचन।

4. संविदा भंग द्वारा उन्मोचन-संविदा भंग होने पर एक पक्षकार पर दायित्व उत्पन्न होता है।

5. विधि के नियमों द्वारा उन्मोचन।

भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार संविदा उन्मोचन के निम्न तरीके हैं –

(1) संविदा पालन द्वारा

(2) संविदा भंग द्वारा

(3) संविदा पालन असम्भव होने से

(4) करार द्वारा

(5) अभिल्याग द्वारा

(6) अभिसंविदा तथा संतुष्टि द्वारा

(7) शून्यकरणीय संविदाओं के विखण्डन से

(8) संविदा पालन के लिए सुविधाएँ देने से प्रतिज्ञाग्रहीता के असफल होने पर

(9) विधि-प्रवर्तन से

प्रश्न 44. विफलता या भग्नता का सिद्धान्त।

Frustration or Doctrine of Frustration.

अथवा (Or)

असम्भव कार्य करने की संविदा पर एक टिप्पणी लिखिए। Write a note on contract to do impossible act.

उत्तर- विफलता या भग्नता का सिद्धान्त- इसे असम्भवता का सिद्धान्त भी कहते हैं संविदा अधिनियम की धारा 56 कहती है कि ऐसा करार, जो ऐसा कार्य करने के लिये जो स्वतः असम्भव है, शून्य है। जैसे-जादू से खजाने का पता लगाने का ‘क’ से ‘ख’ करार करता है। यह करार शून्य है।

      अर्थात् धारा 56 का प्रथम पूर्ववर्ती या विद्यमान असम्भवता की बात करता है जो करार निर्माण से पूर्व हो असम्भव कार्य करने का करार रहता है।

       जबकि दूसरा पैराग्राफ पश्चात्वर्ती असम्भावना की बात करता है इसका आशय यह है कि जिस समय संविदा का निर्माण किया गया. संविदा का पालन करना सम्भव एवं वैध था तत्पश्चात् परिस्थिति परिवर्तन या विधि में परिवर्तन द्वारा असम्भव एवं विधि विरुद्ध हो जाता है तो ऐसी संविदा शून्य हो जाती है। जैसे-बृजेश एवं वन्दना आपस में विवाह करने को संविदा करते हैं। विवाह की निर्धारित अवधि के पूर्व बृजेश पागल हो जाता है तो संविदा असम्भावना के आधार पर शून्य हो जायेगी।

प्रश्न 45. निविदा क्या है? What is Tender ?

उत्तर- निविदा (Tender)-वस्तुओं के क्रय या विक्रय के लिये अथवा सड़क, भवन आदि के निर्माण के लिये टेण्डर माँगने वाले पक्षकार की ओर से प्रस्ताव नहीं होता, वरन् यह तो विक्रेताओं क्रेताओं या ठेकेदारों को प्रस्ताव करने के लिये निमंत्रण या आमंत्रण होता है जिसे टेण्डर माँगने वाला पक्षकार स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है।

प्रश्न 46. लोकनीति के विरुद्ध करार से आप क्या समझते हैं? What do you understand by agreement against public policy?

उत्तर- लोकनीति के विरुद्ध करार-अनैतिक उद्देश्य व प्रतिफल से युक्त करार अवैध होता है। अनैतिक का अर्थ होता है-सदाचरण के विरुद्ध नैतिकता के विरुद्ध (Against good morals) करार को अवैध करार कहते हैं। अनैतिकता का निर्धारण वैसे तो न्यायालय कर सकती है परन्तु कुछ उद्देश्य एवं कार्य प्रारम्भ से ही अनैतिक होते हैं। विवाह सम्बन्धों में हस्तक्षेप इसका प्रथम उदाहरण है। इस शब्द को भारतीय विधि तथा आंग्ले विधि दोनों में यौन संबंधों तक सीमित रखा गया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार से हैं-उपपत्नी या रखैल बनाने के लिये सम्पत्ति की व्यवस्था करना तथा वेश्यावृति के प्रयोग के लिये कोई वस्तु किराये पर देना, यौन संबंधों के लिये धन देने की प्रतिज्ञा करना, किसी का तलाक करवाकर उससे शादी करने का करार करना इत्यादि अनैतिक होने के कारण शून्य माने गये हैं।

       पीयर्स बनाम बुक्स (1866) एल० आर० 1-एक्स 213 के बाद में एक वेश्या ने वादी से एक घोड़ा गाड़ी किराये पर लिया। वादी यह जानता था कि वेश्या इसका प्रयोग वेश्यावृत्ति के लिये ही करेगी। वेश्या ने किराया नहीं दिया। वादी द्वारा किराया प्राप्त करने के लिये वाद प्रस्तुत करने पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार का उद्देश्य अनैतिक कार्य को बढ़ावा देना था। अत: वह किराया प्राप्त नहीं कर सकता।

     मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत एक बाद जिसमें श्रीमती कमला बाई बनाम अर्जुन सिंह (AIR 1991 एम० पी० 275) के बाद में विवाहिता स्त्री के पिता ने अपनी पुत्री का विवाह किसी दूसरे व्यक्ति से कर दिया। उक्त व्यक्ति ने विवाह के पूर्व स्त्री के पिता के नाम कुछ भूमि का अन्तरण किया था तथा स्त्री ने अपने पूर्व पति से तलाक नहीं लिया था। अतः न्यायालय ने निर्णीत किया कि उक्त अन्तरण का करार अनैतिक व लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण शून्य है। अतः विवाह दलाली की संविदा जिसमें तीसरे व्यक्ति का हस्तक्षेप लोकनीति के विरुद्ध होने पर अवैध होता है।

निम्नलिखित करार लोकनीति के विरुद्ध माने जाते हैं –

(1) विदेशी शत्रु के साथ व्यापार करने का करार

(2) दाण्डिक अभियोजन को दबाने या समाप्त करने का करार

(3) न्यायिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का करार

(4) लोक पदों के क्रय-विक्रय संबंधी करार

(5) बाद क्रय या पोषण के करार

(6) वैवाहिक संबंधों में हस्तक्षेप का करार

(7) वैवाहिक संबंधों में दलाली करना

(8) एकाधिकार को प्रोत्साहित करने का करार

(9) लोक सेवकों को उनके कर्तव्य के विरुद्ध भड़काने का करार।।

प्रश्न 47. “समय संविदा का सार है।” समझाइये।

Time is the essence of a contract. Explain.

उत्तर – “समय संविदा का सार है”- संविदा अधिनियम की धारा 55 यह उल्लेख करती है कि जब पक्षकारों का आशय यह रहा हो कि समय संविदा का मर्म या सार होगा तो ऐसी संविदा जिनका पालन नहीं किया गया है, वचनग्रहीता के विकल्प पर निम्न परिस्थितियों में शून्य होगी –

(1) जब संविदा का एक पक्षकार किसी बात को निश्चित समय पर या उसके पूर्व या

(11) किन्हीं बातों को निश्चित समयों पर या उसके पूर्व करने का वचन देता है, और

(iii) ऐसी बात या बातों को निश्चित समय पर पूरा करने में असफल रहता है।

      परन्तु जहाँ समय संविदा का सार (Essential) न हो, वहाँ संविदा यद्यपि शून्यकरणीय नहीं होगी परन्तु वचनग्रहीता संविदा अपालन से हुई हानि के लिये वचनदाता से प्रतिकर पाने का हकदार होता है।

       किसी संविदा में समय सार है अथवा नहीं, यह प्रत्येक वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर अलग-अलग निर्भर करता है। समय बढ़वाने का प्रार्थना पत्र जब तक स्वीकार नहीं होता तब तक लागू नहीं होता।

प्रश्न 48 संविदा का नवीनीकरण ।

Navation of Contract.

उत्तर- संविदा का नवीयन- संविदा का नवीयन संविदा के उन्मोचन का एक तरीका है। इस बात का उल्लेख भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 62 में किया गया है जिसके अनुसार यदि किसी संविदा के पक्षकार उस संविदा के बदले में एक नई संविदा प्रतिस्थापित करने का करार करें तो मूल संविदा के पालन करने की आवश्यकता नहीं होगी।

       ‘संविदा के नवीयन’ का सामान्य अर्थ पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा को प्रतिस्थापित करना होता है।

        स्कार्फ बनाम जार्डाइन, (1882) 7AC 345 के मामले में हाउस ऑफ लाईस ने नवीयन के अर्थ को स्पष्ट करते हुये मत व्यक्त किया कि पुरानी संविदा को समाप्त करने के प्रतिफल में उन्हीं पक्षकारों के मध्य या नये पक्षकारों के मध्य पुरानी संविदा के स्थान पर नयी संविदा की स्थापना को नवीयन कहते हैं।

       उदाहरणार्थ- क ने ख को 100 मन धान एक निश्चित तिथि पर 300 रुपये प्रति मन की दर से विक्रय करने की संविदा किया। निश्चित तिथि के पूर्व ख ने धान के स्थान पर 150 मन गेहूँ 400 रुपये प्रति मन की दर से क से क्रय करने की संविदा की। यह संविदा का नवीयन है।

प्रश्न 49. संविदा का पूर्वकालिक भंग ।

Anticipatory breach of contract.

उत्तर- संविदा का पूर्वकालिक भंग- पूर्व कालिक संविदा भंग में वचनदाता संविदा पालन का समय आने से पूर्व ही अपने संविदात्मक दायित्व पूरा करने से इंकार कर देता है। ऐसी स्थिति में निर्दोष पक्षकार चाहे तो संविदा पालन की तिथि तक इंतजार कर सकता है या तुरन्त ही संविदा भंग के लिये वाद ला सकता है। संविदा पालन के समय संविदा भंग तब होती है जब एक पक्षकार संविदा पालन की तिथि पर संविदा पालन करने में या तो असफल रहता है या संविदा पालन से इंकार कर देता है। इस स्थिति में जिस पक्षकार को संविदा भंग से क्षति पहुँची हो, वह क्षतिपूर्ति हेतु मुकदमा कर सकता है।

प्रश्न 50. असम्भवता ।

Impossibility.

उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 56 असम्भवता के सिद्धान्त (Doctrine of frustration) को प्रतिपादित करती है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि पश्चात्वर्ती परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा शून्य हो जाती है तथा संविदा के पक्षकार संविदा के पालन के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं या कभी-कभी संविदा ऐसी होती है कि संविदा के समय ही संविदा का पालन असम्भव होता है। ऐसी दशा में भी संविदा शुरू मानी जाती है तथा संविदा के पक्षकार संविदा के पालन के लिये बाध्य नहीं होते।

       इस प्रकार संविदा के पालन की असम्भाव्यता निम्न प्रकार की हो सकती हैं –

(1) प्रारम्भिक असम्भाव्यता (Initial impossibility)

(2) पश्चात्वर्ती असम्भाव्यता (Subsequent impossibility)

प्रश्न 51. संविदा-कल्प की परिभाषा दीजिये।

Define Quasi-contract.

उत्तर- संविदा कल्प की परिभाषा – विनफील्ड के अनुसार, “एक विशिष्ट व्यक्ति पर, किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति को, कुछ धन के लिये इस आधार पर आरोपित किया जाता है कि धन का भुगतान न करने से पहले व्यक्ति को अनुचित लाभ होगा।”

       ऐन्सन– “विधि को किसी भी प्रणाली में कुछ परिस्थितियों में यह जरूरी हो जाता है कि बिना किसी करार के एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिये दायित्वाधीन माना जाय, क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो पहले वाला व्यक्ति धन या अन्य लाभ को प्रतिधारित कर सकेगा जिसका विधि के अनुसार अन्य कोई अधिकारी है।”

        मास बनाम मैक फरलान, (1760) के बाद में मैन्सफील्ड ने कहा है कि “कानून अन्यायपूर्ण तरीके से धनी होने से रोकता है।”

      उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि संविदा कल्प के अन्तर्गत पक्षकारों में कोई संविदा प्रत्यक्षतः नहीं होती, परन्तु एक पक्षकार दूसरे के लिये कुछ कार्य करता है या किसी धन का भुगतान करता है तो लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति को अन्यायपूर्ण तरीके से धनी होने से रोकने के लिये न्यायालय साम्या के आधार पर आगे आकर कहता है कि फायदा प्राप्त करने वाला व्यक्ति दूसरे पक्षकार को प्रतिकर दे।।

प्रश्न 52 संविदा एवं संविदा कल्प में क्या अन्तर है?

What is the difference between contract and quasi-contract?

उत्तर- संविदा एवं कल्प संविदा में निम्न अन्तर हैं-

(1) संविदा के अन्तर्गत दायित्व का सृजन पक्षकारों के मध्य वर्तमान संविदा के द्वारा होता है जबकि संविदा-कल्प के अन्तर्गत दायित्व, विधि के द्वारा सृजित होता है।

(2) संविदा में पक्षकारों का आशय विधिक संबंध स्थापित करना होता है जबकि संविदा कल्प में ऐसी बात नहीं है।

(3) संविदा की स्थिति में संविदा तब तक बाध्यकारी नहीं होती जब तक कि पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति, विधिपूर्ण उद्देश्य व प्रतिफल न हो। संविदा कल्प में अन्य तत्वों का होना आवश्यक, लेकिन स्वतंत्र सहमति के अभाव में भी एक पक्षकार दूसरे के प्रति उसी प्रकार से बाध्य होते हैं जैसे संविदा में हुआ करते है।

प्रश्न 53. खोये हुये माल के पाने वाले के क्या कर्तव्य होते हैं?

What are the duties of the finder of lost goods?

उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 71 उन व्यक्तियों के दायित्व के बारे में प्रावधान करती है जो किसी अन्य का माल पड़ा पाते हैं और उसे अपनी अभिरक्षा में लेते हैं। दूसरे की वस्तु पाकर अपनी अभिरक्षा में लेने वाला व्यक्ति विधि की दृष्टि में उपनिहिती के समतुल्य होता है। उपनिहिती को उपनिधान की गयी वस्तुओं की देखभाल उसी प्रकार करनी चाहिये जैसे कि कोई स्वामी अपने वस्तु की देखभाल करता है। इसी प्रकार खोई हुयी वस्तु का प्राप्तकर्ता वस्तु की देख-रेख करने के लिये बाध्य होगा। इसके अन्तर्गत निम्न कर्तव्य आरोपित होते हैं। जैसे –

(1) पायी हुयी वस्तु लाना

(2) स्वामी का पता लगाना; तथा

(3) स्वामी की वस्तु वापस करना।

प्रश्न 54 ‘परिनिर्धारित नुकसानी’ को समझाइये।

Explain ‘Liquidated damages’

उत्तर- परिनिर्धारित क्षति (Liquidated Damages)- संविदा के पक्षकार संविदा करते समय हो प्रतिकर की उस धनराशि का निर्धारण कर सकते हैं जो संविदा भंग की स्थिति में देय होगी अर्थात् यदि संविदा के समय ही संविदा भंग के कारण सम्भावित क्षति का पूर्वानुमान कर लिया जाता है तो वह परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति होती है। इसका प्रावधान संविदा अधिनियम की धारा 74 के अन्तर्गत किया गया है। जब संविदा भंग के कारण भुगतान होने वाली रकम निर्धारित कर ली जाती है तो नुकसान उठाने वाला पक्षकार नामित रकम की सौमा के अन्दर उचित प्रतिकर पान का अधिकारी है किन्तु किसी भी परिस्थिति में यह रकम संविदा में उल्लिखित धनराशि से अधिक नहीं होनी चाहिये। उल्लिखित धनराशि चाहे प्रतिकर हो या अर्थदण्ड हो दोनों दशा में न्यायालय कोई भी उचित प्रतिकर संविदा भंग करने वाले पक्षकार को देने का आदेश दे सकता है। अत: परिनिर्धारित क्षति के निम्न तत्व सामने आते हैं

(1) यह धनराशि प्रसंविदित एवं उचित हो;

(2) क्षति का पूर्व प्राक्कलन हो;

(3) पक्षकारों की पूर्ण सहमति से निश्चित की गयी हो।

प्रश्न 55. ‘नाम मात्र की नुकसानी’ क्या होती है?

What is ‘Nominal damages?

उत्तर- नाममात्र की नुकसानी (Naminal damages) – नाममात्र को नुकसानी का उद्देश्य पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता देना होता है। इस प्रकार की नुकसानी दण्डात्मक नहीं होती यहाँ नुकसानी या क्षतिपूर्ति की राशि नाममात्र की ही होती है जिसका भुगतान संविदा पूरा न करने वाले पक्षकार को अदा करना होता है।

       यहाँ धारा 73 के अन्तर्गत कोई वाद-हेतुक उत्पन्न नहीं होता है जब तक कि वास्तविक हानि न हुयी हो। यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम त्रिभुवन दास लाल जी पटेल, ए० आई० आर० (1971) दिल्ली 120 रेलवे के स्लीपर आपूर्ति की संविदा में ठेकेदार ने संविदा भंग किया। यद्यपि रेलवे को कोई नुकसान नहीं हुआ। न्यायालय ने उक्त सिद्धान्त के आधार पर ठेकेदार को उत्तरदायी नहीं ठहराया। चार्टर बनाम सुलियान, (1957) 1 आल० आई० आर० 809 के वाद में प्रतिवादी ने कारों के व्यापारी से हिमैन कार क्रय करने की संविदा किया, फिर भी क्रय नहीं किया। कार दूसरे ग्राहकों ने क्रय कर ली। विक्रेता जितनी कारों का विक्रय करना चाहता था, विक्रय कर दिया। उसे कोई हानि नहीं हुयी। न्यायालय ने नाममात्र का प्रतिकर 40 शिलिंग दिलाये।

प्रश्न 56. विशेष क्षतिपूर्ति।   Special damages.

उत्तर- विशेष क्षतिपूर्ति (Special damages)- संविदा अधिनियम की धारा 73 संविदा भंग के फलस्वरूप होने वाले नुकसान के लिये क्षतिपूर्ति दो आधारों पर निर्धारित करती है

(I) सामान्य क्षतिपूर्ति

(II) विशेष क्षतिपूति

        हेडले बनाम बैक्सेनडेल (1854) 9 इक्वे० 341 के निर्णय का दूसरा नियम विशेष • क्षतिपूर्ति का उल्लेख करता है जब पक्षकारों को संविदा करते समय ही ज्ञान हो कि संविदा उल्लंघन के सम्भावित परिणाम यही होंगे। इन विशेष परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होने वाली हानि के लिये जो (प्रतिकर) क्षतिपूर्ति दी जाती है, उसे विशेष क्षतिपूर्ति कहते हैं। बादी को विशेष परिस्थितियों का दावा करते समय यह सिद्ध करना होता है कि विशेष क्षति को सम्भावना थी।

        सुरजीत कौर बनाम नौरता सिंह, ए० आई० आर० (2000) सु० को० 2927 जहाँ पर संविदा भंग पर दिये जाने वाले प्रतिकर का उल्लेख हो तो न्यायालय को उसे मानना होगा। पूर्व ज्ञान या पूर्व कल्पना कि संविदा उल्लंघन के सम्भावित परिणाम क्या होगे यह दो प्रकार से होता है –

(1) वास्तविक – कभी-कभी प्रतिवादी को विशेष परिस्थितियों की जानकारी दी जाती है और उसे यह ज्ञान रहता है कि वह विशेष शर्तों के साथ संविदा कर रहा है। तत्पश्चात् भी यदि वह संविदा-भंग करता है तो उससे विशेष क्षतिपूर्ति प्राप्त की जा सकती है। जैसे—क की आटा चक्को का शैफ्ट टूट गया। उसने एक मरम्मतकर्ता ख से ता० 1 को संविदा किया कि वह उस शैफ्ट को मरम्मत करके 10 ता० तक वापस कर दे, क्योंकि 15. बोरा गेहूँ की पिसाई करके 12 ता० को पुलिस लाइन को देना है तथा पड़ोसी की शादी, जो 13 ता० को है, के लिये 5 बोरा गेहूँ पोसना है। इस जानकारी के होते हुये भी ख ने शॅफ्ट को मरम्मत करके 20 ता० को दिया अर्थात् 10 दिन विलम्ब से दिया, तो उस विलम्ब से होने वाली समस्त हानि के लिये ख उत्तरदायी होगा।

(ख) परिलक्षित (Implied) – इस दशा में विशेष परिस्थितियों की जानकारी देना आवश्यक नहीं होता है, बल्कि संविदा में कार्य की प्रकृति एवं आवर्ती परिस्थितियों को पक्षकार संविदा करते समय जानता है। पीड़ित पक्षकार को उनके विषय में जानकारी देने की आवश्यकता नहीं है। विधि यह मानकर चलती है कि विशेष परिस्थितियाँ उसको बता दो गयी थीं।

प्रश्न 57. संविदा भंग पर क्या उपचार उपलब्ध है?

What remedies are available in breach of contract?

उत्तर- संविदा भंग के उपचार संविदा- भंग संविदा-उन्मोचन का एक तरीका है। इसका शाब्दिक अर्थ “संविदा के अन्तर्गत एक पक्षकार द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने से पूर्णत: या अंशत: इंकार करना है”। संविदा भंग करने वाला पक्षकार अपने कर्तव्य का उल्लंघन करके दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करता है जिसके फलस्वरूप उस दूसरे व्यक्ति को उपचार प्राप्त होता है। यह परिकल्पना की जाती है कि जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है। बिना उपचार के अधिकार को मान्यता देना व्यर्थ होगा।

जैसे ही संविदा का एक पक्षकार संविदा को भंग करता है, विधि दूसरे पक्षकार को तीन प्रकार के उपचार प्रदान कर सकती है- (1) विशिष्ट पालन, (2) व्यादेश, (३) क्षतिपूर्ति ।

(1) विशिष्ट पालन (Specific Performance)- यह एक विवेकीय उपचार है। इसका आदेश वहीं पर दिया जाता है, जहाँ आर्थिक प्रतिकर पर्याप्त उपचार नहीं होता है या न्यायालय संविदा के क्रियान्वयन का निरीक्षण स्वयं करती है। व्यक्तिगत गुण की संविदाओं में यथोल्लिखित पालन का आदेश उपचार के रूप में नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इसका अर्थ वस्तु के रूप में अनुतोष से लगाया जाता है या उपचार के रूप में वहीं कार्य जिसको करने के लिये प्रतिज्ञा की गयी है।

(2) व्यादेश (Injunction)- यह एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा पक्षकार को कोई कार्य करने या न करने का आदेश दिया जाता है।

(3) क्षतिपूर्ति (Damages)-क्षतिपूर्ति संविदा के नियमों के अनुसार विनियमित होती है। प्रत्येक संविदा-भंग में पीड़ित पक्षकार क्षतिपूर्ति के लिये अधिकृत होता है चाहे नाम मात्र की हानि क्यों न हो। क्षतिपूर्ति पुनर्स्थापना या प्रतिकर के रूप में दी जाती है न कि सजा के रूप में। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963

प्रश्न 58 विनिर्दिष्ट अनुतोष से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by specific relief?

उत्तर- विनिर्दिष्ट अनुतोष (Specific relief)-किसी संविदा के भंग होने पर व्यथित पक्षकार को दो विकल्प उपलब्ध हैं। प्रथम यह कि संविदा भंग से व्यथित पक्षकार यह माँग करे कि संविदा का हूबहू (as it is) पालन कराया जाय या संविदा भंग के फलस्वरूप बादी को हुयी क्षति के लिये प्रतिकर या क्षतिपूर्ति कराया जाये जहाँ पक्षकार (वादी), संविदा को भंग करने वाले पक्षकार से यह चाहता है कि संविदा की शर्तों का यथावत् पालन कराया जाय, ऐसी परिस्थिति में यह कहा जाता है कि संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के उपचार की माँग की गयी है। यदि वादी उपचार के रूप में वही वस्तु प्राप्त करता है जिसका कि वह अधिकारी है तो उसे विनिर्दिष्ट उपचार कहा जाता है। इस प्रकार विनिर्दिष्ट उपचार से तात्पर्य है कि दायित्वों का वास्तविक या हुबह पालन करना (The exact fulfillment of obligation)। जहाँ वादी संविदा भंग के फलस्वरूप होने वाली क्षति के लिये प्रतिकर की माँग करता है, उसे प्रतिकारात्मक अनुतोष कहा जाता है।

         उदाहरण के लिये अ, ब से मकान क्रय करने की संविदा करता है। ‘ब’ बिना किसी औचित्य के संविदा पालन से इंकार कर संविदा भंग करता है। ‘अ’ को यह अधिकार है कि वह ‘ब’ के विरुद्ध मकान के विक्रय तथा कब्जा हस्तान्तरित करने हेतु वाद संस्थित करे। अ को मकान के बदले क्षतिपूर्ति लेने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। यहाँ ‘अ’ को जो अधिकार प्राप्त है, उसे संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का उपचार कहा जायेगा।

प्रश्न 59. “संविदा के विशिष्ट अनुपालन” से आप क्या समझते हैं? What do you understand by “Specific Performance of Contract”.

उत्तर- संविदा के विशिष्ट अनुपालन से तात्पर्य संविदा में स्वीकृत शर्तों का यथावत् पालन करना होता है। फ्राई कहते हैं कि “संविदा का विनिर्दिष्ट पालन उसके अनुबंधों तथा शर्तों के अनुसर, वास्तविक निष्पादन है तथा संविदा का निष्पादन न करने (संविदा भंग) के लिये क्षतिपूर्ति अथवा प्रतिकर उसके विपरीत होता है। “

      विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 10 उन परिस्थितियों को बतलाती है जिनमें विशिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है –

(1) जहाँ क्षतिपूर्ति का निर्धारण न हो पाये;

(2) जहाँ आर्थिक क्षतिपूर्ति या प्रतिकर पर्याप्त उपचार न हो; तथा (3) जहाँ आर्थिक प्रतिकर बसूल न किया जा सके।

प्रश्न 60 व्यादेश क्या है?    What is Injunction?

उत्तर – ( क ) व्यादेश (Injunction)- हेल्सबरी के अनुसार, व्यादेश एक न्यायिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी पक्षकार को कुछ करने से वर्जित कर दिया जाता है या कुछ करने का आदेश दिया जाता है।

      पोलक व मुल्ला के अनुसार, व्यादेश न्यायालय का एक ऐसा विशिष्ट आदेश है जिसके द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को, जो किसी के सम्पत्ति संबंधी अधिकारों में हस्तक्षेप करता है या करने की धमकी देता है, ऐसा करने से रोकता है एवं किसी आभार के भंग को रोकने के लिये, किसी कार्य का किया जाना या नहीं किया जाना आवश्यक हो, जैसी भी स्थिति हो, न्यायालय वैसा करने का आदेश देता है।

       उपरोक्त कथनों द्वारा यह कहा जा सकता है कि व्यादेश न्यायालय का एक विशिष्ट आदेश है जिसके द्वारा आशंकित अपकृत्य करने पर प्रतिबंध लगाया जाता है या यदि अपकृत्य आरम्भ हो गया है तो उसे जारी रखने को प्रतिबंधित किया जाता है।

प्रश्न 61. व्यादेश के प्रकार बतलाइये।

Explain kinds of injunction.

उत्तर- व्यादेश के प्रकार-व्यादेश को दो आधारों पर बाँटा जा सकता है

(1) समयावधि के आधार पर

(क) अस्थायी व्यादेश

(ख) स्थायी व्यादेश

(2) प्रकृति के आधार पर

(क) निरोधात्मक व्यादेश

(ख) आज्ञात्मक या समादेशात्मक व्यादेश

प्रश्न 62. किन संविदाओं का यथावत् पालन नहीं कराया जा सकता है?

Which contracts can not be specifically enforced?

उत्तर- वे संविदायें जिनका विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता है- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 14, इस अधिनियम की धारा 10 के विपरीत यह प्रावधान करती है कि किन संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता। ये निम्न हैं –

(1) ऐसी संविदायें जिनके अपालन के फलस्वरूप होने वाली क्षति के लिये आर्थिक प्रतिकर पर्याप्त अनुतोष है।

(2) ऐसी संविदायें जिनमें व्यक्तिगत सेवा या व्यक्तिगत योग्यता अन्तर्ग्रस्त हो ।

(3) ऐसी संविदा जिसकी प्रकृति से स्पष्ट है कि संविदा पक्षकारों की इच्छा पर समाप्त या निरस्त की जा सकती है।

(4) ऐसी संविदा जिनके पालन के लिये न्यायालय का निरन्तर पर्यवेक्षण आवश्यक है।

((5) ऐसी संविदा जिसकी शर्तें अनिश्चित हो

(6) माध्यस्थम की संविदायें

(7) जहाँ संविदा की विषय वस्तु का सारवान भाग अस्तित्वहीन हो गया हो।

(8) जहाँ संविदा पक्षकारों के विकल्प पर प्रवर्तनीय है।

प्रश्न 63. विशिष्ट अनुतोष अधिनियम में वर्णित उन उपबन्धों को बताइये जिसके लिए व्यक्ति विशिष्ट पालन अभिप्राप्त कर सकता है।

Explain the provisions of Specific Relief Act by which a person can be granted specific performance.

उत्तर – विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 उन परिस्थितियों का उल्लेख करती है जिनमें संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। ये निम्न हैं –

(1) क्षतिपूर्ति का निर्धारण न हो पाना- धारा 10 के अनुसार यदि एक पक्षकार द्वारा कार्य न करने पर दूसरे पक्षकार को होने वाली हानि का आकलन करने का कोई निर्धारित मापदण्ड विद्यमान न हो अर्थात् यदि विक्रय की संविदा की विषय वस्तु असामान्य हो या अप्राप्य (Rare) प्रकृति की है, वहाँ संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दिया जा सकता है।

(2) जहाँ आर्थिक क्षतिपूर्ति या प्रतिकर पर्याप्त उपचार नहीं है – जहाँ न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि वादी को प्रदान की जा सकने वाली आर्थिक क्षतिपूर्ति या प्रतिकर पर्याप्त उपचार नहीं है, वहाँ न्यायालय संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करा सकता है।

(3) जहाँ आर्थिक प्रतिकर वसूल नहीं किया जा सकता– प्रतिवादी का दिवालिया होना एक ऐसा आधार है जहाँ संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। जहाँ यह सम्भावना है कि यदि प्रतिकर प्रदान कर दिया जाय तो प्रतिकर की वसूली सम्भाव्य नहीं है वहाँ संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। शीरी बनाम बालाजी, 7 इण्डियन केसेल 406.

       अ, ब के पक्ष में एक वचन-पत्र (Promissory note) बिना पृष्ठांकन के अन्तरित करता है। ‘अ’ दिवालिया हो जाता है तथा स प्रापक नियुक्त होता है। ब स को वचन पत्र पृष्ठांकित करने को बाध्य कर सकता है क्योंकि स ने अ के दायित्वों को ग्रहण किया है तथा आर्थिक क्षतिपूर्ति की आज्ञप्ति स के पृष्ठांकन के अभाव में अर्थहीन हो जायेगी।

प्रश्न 64. शाश्वत व्यादेश।  Perpetual Injunction.

उत्तर- शाश्वत व्यादेश (Perpetual Injunction)– स्थायी व्यादेश या शाश्वत व्यादेश, न्यायालय द्वारा किसी वादी की सुनवाई तथा उसके गुण-दोष पर विचार करने के पश्चात् जारी किया जाने वाला ऐसा आदेश है जिसके द्वारा वादी के विरुद्ध किसी अधिकार का प्रयोग करने या वादी के अधिकारों के प्रतिकूल किसी कार्य को करने से प्रतिवादी को हमेशा के लिए [शाश्वत काल (for perpetuity) के लिए] रोक दिया जाता है, व्यादिष्ट कर दिया जाता है। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 37 (2) में इसके बारे में उपबन्ध किया गया है।

स्थायी व्यादेश या शाश्वत व्यादेश के आवश्यक तत्व

(1) शाश्वत व्यादेश तभी जारी किया जा सकता है जब वादी ने अपना अधिकार सिद्ध कर दिया हो।

(2) शाश्वत व्यादेश गुणावगुण के आधार पर न्यायालय द्वारा आज्ञप्ति के माध्यम से जारी किया जाता है।

(3) शाश्वत व्यादेश न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को, बादी के अधिकारों के प्रतिकूल कार्य करने के लिए रोक दिया जाता है।

(4) शाश्वत व्यादेश के अन्तर्गत प्रतिवादी को शाश्वत काल (हमेशा के लिए वादी के अधिकारों के प्रतिकूल कार्य करने से रोक दिया जाता है।

(5) यह विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 द्वारा विनियमित होता है।

प्रश्न 65. अस्थायी व्यादेश से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by ‘Temporary injunction?

उत्तर- धारा 37 की उपधारा (1) में अस्थायी व्यादेश को परिभाषित किया गया है, “अस्थायी व्यादेश ऐसे व्यादेश होते हैं जिन्हें विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक, बने रहना है तथा वे बाद के किसी प्रक्रम में अनुदत्त किये जा सकेंगे, और सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5) द्वारा विनियमित होते हैं।”

        अस्थायी व्यादेश एक ऐसा आदेश है जो न्यायालय द्वारा वाद के किसी प्रक्रम पर, वादग्रस्त सम्पत्ति को बाद के अन्तिम निर्णय तक, अथवा न्यायालय के अग्रिम आदेश तक, यथास्थिति (Status quo) में बनाये रखने के लिये प्रदान किया जाता है।

      इसका मुख्य उद्देश्य बाद के लम्बित रहने के दौरान वादग्रस्त सम्पत्ति को संरक्षण प्रदान करना है। [मो० हाफिज खाँ बनाम श्रीमती नाजिबन बीबी और अन्य, 1973 जे० एल० जे० 114]

प्रश्न 66. घोषणात्मक आज्ञप्ति का उद्देश्य क्या है?

What is object of declaration decree?

उत्तर- घोषणात्मक आज्ञप्ति का उद्देश्य- घोषणात्मक आज्ञप्ति का उद्देश्य यह है कि जहाँ किसी व्यक्ति की विधिक हैसियत या स्थिति को इंकार किया जाता है या जहाँ किसी सम्पत्ति में उसके स्वत्वों पर संदेह प्रकट किया जाय, वहाँ वह व्यक्ति अपनी विधिक स्थिति अथवा अधिकारों को न्यायालय द्वारा घोषणा करवा कर, उस संदेह का निराकरण कर सकता है। विधिक हैसियत ऐसी होनी चाहिये जो विधि द्वारा मान्यता प्राप्त हो।

67. समस्यायें। Problems-

समस्या 1. ‘अ’ का भतीजा अपने घर से भाग गया। उसने अपने नौकर को खोये हुये भतीजे को खोजने के लिये भेजा। जब नौकर जा चुका था उसने यह घोषणा की कि जो कोई भी खोये हुये बालक को लायेगा, उसे 500 रुपये इनाम दिया जायेगा। इसे जाने बिना नौकर ने खोये हुये बालक को खोज लिया। नौकर को जब इनाम के बारे में ज्ञात हुआ तो उसे वसूलने के लिये ‘अ’ के विरुद्ध कार्यवाही की कार्यवाही का क्या निर्णय होगा? व्याख्या कीजिये।

      A’s nephew had absconded from his home. He sent his servant to trace his missing nephew. When the servant had left a then announced that any body who discovered the missing boy would be given the reward of Rs. 500. The servant discovered the missing boy. Without knowing the same. When the servant came to know about the reward he brought an action against A to recover the same. What shall be decision of the action? Explain.

उत्तर- चूंकि घोषणा द्वारा ‘अ’ ने सामान्य प्रस्थापना किया था। सामान्य प्रस्ताव चूँकि जनसाधारण को किया जाता है अतः कोई भी व्यक्ति इनाम की माँग कर सकता है। अत: इस बारे में यह बात उल्लेखनीय है कि प्रस्ताव स्वीकार करने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसे प्रस्ताव की जानकारी स्वीकृति या प्रतिग्रहण से पूर्व थी। एन्सन ने अपनी पुस्तक ‘लॉ ऑफ कान्ट्रेक्ट’ में एक उदाहरण देते हुये कहा कि यदि मैं इंग्लिश चैनल पार करने वाले व्यक्ति को इनाम की घोषणा करता हूँ तो मैं उन सभी व्यक्तियों के प्रति इनाम के लिये दायी नहीं हूँ जो इंग्लिश चैनल पार कर चुके हैं, परन्तु इनाम का दावा करने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि इंग्लिश चैनल पार करते समय उसे मेरे प्रस्ताव की जानकारी थी तथा उसने इंग्लिश चैनल इनाम प्राप्त करने की आशा से पार किया था।

        इस विषय पर लालमन शुक्ला बनाम गौरीदत्त (1913) का वाद उल्लेखनीय है। इस बाद में प्रतिवादी का भतीजा खो गया था। उसने अपने मुनीम को लड़के की तलाश हेतु भेजा। जब मुनीम लड़के की खोज में चला गया तो प्रतिवादी ने लड़के को खोजने वाले को इनाम को घोषणा की। मुनीम जब लड़के को खोज कर लाया तो उसके पश्चात् उसे इनाम की घोषणा का पता चला। उसने इनाम का दावा किया।

        न्यायालय ने निर्णय किया कि वादी इनाम का हकदार नहीं था। संविदा के प्रस्ताव के ज्ञान के अभाव में की गयी स्वीकृति (प्रतिग्रहण) विधिमान्य नहीं होती। चूँकि मुनीम को लड़के को खोज लाने के पश्चात् इनाम के प्रस्ताव की घोषणा की जानकारी हुयी अतः उसके पश्चात् उसके द्वारा की गयी स्वीकृति से वैध संविदा का निर्माण नहीं हुआ।

       अतः प्रस्तुत सामान्य में ‘अ’ से नौकर द्वारा 500 रुपये इनाम नहीं वसूला जा सकता क्योंकि प्रस्ताव के ज्ञान के अभाव में संविदा का निर्माण नहीं हुआ था।

समस्या 2 (i) X ने अपना मकान जिसकी बाजारू कीमत 50 लाख रुपये है, 5 लाख रुपये में Y को बेंच दिया। विक्रय की वैधानिकता की विवेचना कीजिये।

‘X’ sold his house to Y in Rs. 5 Lakh whereas the market value of the house is 50 Lakh. Discuss the validity of sale.

(ii) एक स्वस्थचित्त मनुष्य, जो ज्वर से चित्तविपर्यस्त है या जो इतना मत्त है कि वह संविदा के निबंधनों को नहीं समझ सकता या अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय नहीं ले सकता, क्या वह संविदा कर सकता है?

       A sane man, who is delirious from fever, or who is so drunk that he cannot understand the terms of contract, or form a rational judgment as to its effect on his interest, can he contract? Give your answer with reasons.

(iii) ‘क’ नैसर्गिक प्रेम और स्नेह से अपने पुत्र ‘ख’ को 10,000 रुपये देने का बचन देता है। ‘ख’ के प्रति अपने वचन को ‘क’ लेखबद्ध करता है और उसे रजिस्ट्रीकृत करता है। क्या यह संविदा है? कारण सहित उत्तर दीजिये।

A for natural love and affection, promises to give his son ‘B’ Rs. 10,000. A puts his promise to ‘B’ into writing and registers it. Is it a contract? Give your answer with reasons.

(iv) ‘क’ किसी मकान अथवा भूखण्ड पर काबिज है ‘ख’ जो सम्पत्ति का स्वामी है उसे संपति से बेदखल कर देता है तो ‘क’ को क्या कोई उपचार प्राप्त होगा?

      A is in possession of a land. B who is owner of land dispossesses him. What is remedy for A?

(v) ‘क’ राज्य सरकार के आदेश से, उसके नियोजित कर्मचारियों के द्वारा विधि के सामान्य अनुक्रम के अन्यथा अपनी सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जाता है। क्या ‘क’ सम्पत्ति का पुनः कब्जा प्राप्त कर सकता है?

      A is dispossessed of his property by his employees of Government by the order of Government is due course of (v) law or otherwise. Can A the owner of property get possession over his property?

(vi) ‘क’, ‘ख’ को ऐसा पत्र भेजता है जिसमें ‘ख’ के अधिकार की कुछ सम्पत्ति है। क, ख से पत्र को वापस ले लेता है। ‘ख’ क्या ‘क’ से पत्र प्राप्त कर सकता है?

      A sends a letter to B which contains the property right of B. A takes letter back from B. Can B obtain the letter from A?

(vii) ‘क’ एक ऐसी पारिवारिक मूर्ति को, अपने आधिपत्य में धारण किये हुये हैं जिस पर कि वास्तव में ‘ख’ का अधिकार है। क्या ‘ख’, ‘क’ से वह मूर्ति प्राप्त कर सकता है?

      A is in possession of a family statue on which B has real right can B obtain the statue form A?

(viii) ‘क’ ‘ख’ के एक ऐसे चित्र पर अपना आधिपत्य बनाये हुये हैं जो कि एक मृतक चित्रकार द्वारा बनाया गया है एवं दुर्लभ चित्र है। क्या ‘ख’ ‘क’ को चित्र लौटाने के लिये बाध्य कर सकता है?

      A has possession over a picture belonging to B. Which was made by a painter. Who is dead. Moreover the picture is antique. Can B compell A to return the picture?

(ix) ‘क’ने ‘ख’ से एक मृत चित्रकार द्वारा बनाये गये, एक चित्र तथा चीनी मिट्टी के दो दुर्लभ पात्रों को कय करने की संविदा किया। ख ने उनके विक्रय की संविदा किया। क्या ‘क’ इस संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये ‘ख’ को बाध्य कर सकता है?

A enters into contract with B for the sale of a picture made by dead painter and two antique pots made up of china clay. Can A compell B for specific performance of contract?

(x) ‘क’ किसी भूमि का न्यासधारी है एवं उसे उस भूमि को सात वर्ष तक के लिये पट्टे पर देने का अधिकार है। वह उस भूमि को ‘ख’ को सात वर्ष के लिये पट्टे पर देने की संविदा इस शर्त पर करता है कि सात वर्ष के पूर्ण हो जाने पर, उसका नवीनीकरण किया जा सकेगा। क्या इस संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है?

        A is trustee of some land. He has right to lease the land for seven years. He makes a contract with B to give him land on lease for seven years with condition that after expiry of seven years the contract could be renewed. Can this contract be specifically performed?

(xi) ‘क’ एक 100 बीघे का भू-खण्ड ‘ख’ को विक्रय करने की संविदा करता है। बाद में उसे ज्ञात होता है कि उस भूमि में 98 बीघा भूमि ‘क की है एवं 2 बीघा भूमि किसी अन्य व्यक्ति की है जिसका विक्रय वह करना नहीं चाहता। क्या ‘क’ को इस बात के लिये विवश किया जा सकता है कि वह 98 बीघा भूमि ‘ख’ को दे, तथा शेष के लिये प्रतिकर दे?

A enters into contract with B to sell a piece of land measuring 100 Bighas. Afterward it is discovered that piece of land is actually of 98 Bighas and out of that land 2 Bighas belongs to other person. Can A be compell to sell 98 Bighas of land and give compensation for rest 2 Bighas of land?

(xii)  ‘क’ एक ऐसी संम्पति जिसके बारे में वह जानता है कि वह ‘ग’ की है, ‘ख’ को विक्रय करने की संविदा करता है, क्या ऐसे विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन कराया जा सकता है?

A enters into contract regarding a property with B knowing that the property belonged to C. Can this contract be specifically enforced?

(xiii) ‘क’ख’ के यहाँ किसी पद पर कार्य करने के लिये, पुस्तक लिखने, या लेक्चर देने की संविदा करता है। क्या ऐसी संविदा का विनिर्दिष्टत: प्रवर्तन कराया जा सकता है?

A enters into contract with B for working on a post. or for writing books or deliver a lecture. Can these contract be specifically enforced?

(xiv) ‘क’ ‘ख’ को सम्पूर्ण सम्पत्ति के विक्रय करने की संविदा करता है। जबकि उसे सम्पत्ति के आधे भाग को विक्रय करने का अधिकार है। जिस भाग के विक्रय का अधिकार है वह विक्रय किये गये शेष भाग से विभक्त नहीं किया जा सकता। क्या संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है?

(xiv) A enters into contract with B to sale whole of his property. But actually he has right go sell only half portion of the land. The portion of property for which he has right to sell can not be separated from the portion of land over which he does not have right to sell. Can this contract be specifically?

(xcv) ‘क’ 50,000 रुपये में, एक मकान के विक्रय की संविदा ‘ख’ के साथ करता है। मकान ‘क’ का नहीं था, बल्कि ‘ख’ का था जो बाद में उसी मकान का दान ‘क’ को कर देता है। क्या ‘ख’ को ‘क’ के विरुद्ध संविदा के प्रवर्तन का अधिकार है?

A enters into contract with B to sell a property for Rs. 50,000. The property did not belong to A, it belonged to B. B afterwards sifts two property to A. Can B enforce the contract against A?

(xvi) ‘क’ ‘ख’ को कुछ भूमि 50 हजार रुपये में विक्रय करने की संविदा करता है। ‘क’ बाद में उसी भूमि को ‘ग’ को 60 हजार रुपये में हस्तान्तरित कर देता है, जिसको कि पूर्व संविदा की जानकारी थी। क्या ‘ख’ग’ के विरुद्ध अनुपालन की आज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है?

A contracts to sell a land to B for Rs. 50,000. But afterwards A sell the same land to C for Rs. 60,000. C had the knowledge of A’s contract with B. Can C bring suit against B for specific performance of contract?

(xvii) ‘क’ एक हिन्दू, एक बाद में, जिसमें उसकी अभिकथित पत्नी ‘ख’ और उसकी माता प्रतिवादी है, यह घोषणा किया कि उसका विवाह यथा रीति से हुआ था, और दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के आदेश की प्रार्थना करता है। न्यायालय यह घोषणा कर देता है। तब तक एक व्यक्ति ‘ग’ यह मांग करते हुये न्यायालय में वाद प्रस्तुत करता है कि ‘ख’ उसकी पत्नी है अतः उसे परिदत्त कराई जाये। क्या पूर्णनिर्णय ‘ग’ बाध्यकारी होगा?

        A, a Hindu, in a suit, in which his alleged wife B and her mother are defendant, declared that his marriage was solemonises according to Hindu custom, and ask for order of restitution of conjugal rights and pray that his wife B should be given to him. Is previous judgment of restitution of conjugal rights be enforced specifically?

(xviii) ‘क’ ‘ख’ के लिये एक वकील के रूप में कार्य करता है। ‘ख’ के कुछ दस्तावेज कार्य के दौरान ‘क’ को प्राप्त हो जाते हैं। ‘क’ उन दस्तावेजों के प्रकाशन व प्रचार की धमकी देता है। क्या ‘ख’ उसको ऐसा करने से रोकने के लिये, व्यादेश हेतु वाद ला सकता है? A works for B as his attorney (Vakil). During course of employment obtains document of B. A threatens to publish and circulate the document. Can B bring a suit for obtaining injunction to restrain A from doing so?

(xix) ‘क’ के ईंट के भट्ठे के धुयें से वादी के बाग को हानि पहुंचती है तथा उसके फलों व वृक्षों को क्षति पहुंचती है, ‘क’ के भट्ठे को वादी के बाग से दूर ले जाने के लिये कहा गया। क्या ऐसा करने के लिये ‘ख व्यादेश प्राप्त कर सकता है?

The garden of plaintiff is injured by the smokes emitting from A’s bricks clin. A is asked to shift his brick clin away from garden of plaintiff. Can an injunction be obtain for this?

(xx) ‘क’ एक ऐसी दीवाल का निर्माण करता है जिससे पास के ‘ख’ के मकान की हवा एवं प्रकाश अवरुद्ध हो जाते हैं। क्या ‘ख’ ‘क’ को दीवाल बनाने से रोकने के लिये व्यादेश प्राप्त कर सकता है? A contracts a wall which obstracts the air and light of B’s house Can B obtain the injunction to stop the construction against A?

(xxi) ‘क’ एक ऐसे मकान का निर्माण करता है जिसका कि कुछ भाग ‘ख’ की भूमि पर जाता है। क्या ‘ख’ उस भाग को हटाने के लिये व्यादेश प्राप्त कर सकता है?

A constructs a house, a portion of which goes on the land of B. Can B obtain the injunction to remove that portion of house?

उत्तर (i) -प्रस्तुत समस्या भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 25 के स्पष्टीकरण (2) पर आधारित है। जिसमें कहा गया है कि कोई करार, जिसके लिये वचनदाता की सम्मति स्वतंत्रता से दी गयी है, केवल इस कारण शून्य नहीं है कि प्रतिफल अपर्याप्त है, किन्तु इस प्रश्न को अवधारित करने में कि वचनदाता की सम्मति स्वतंत्रता से दी गयी थी या नहीं, प्रतिफल की अपर्याप्तता न्यायालय द्वारा गणना में भी ली जा सकेगी। जैसे– ‘क’ 1,000 रुपये के मूल्य के घोड़े को 10 रुपये में बेचने का करार करता है। इस करार के लिये ‘क’ को सम्मति स्वतंत्रता से दी गयी थी। प्रतिफल अपर्याप्त होते हुये भी यह करार संविदा है।

        यदि संविदा के पक्षकार अपनी इच्छानुसार प्रतिफल तय करते हैं तो प्रतिफल को पर्याप्तता की जाँच करना न्यायालय की जाँच का विषय नहीं है। एन्सन के अनुसार प्रतिफल का संविदा के समरूप होना अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि संविदा को इस आधार पर एक पक्षकार चुनौती देता है कि संविदा के अन्तर्गत उसकी सहमति स्वतंत्र नहीं थी तो प्रतिफल की पर्याप्तता एक जाँच का विषय हो सकती है। चूँकि प्रस्तुत समस्या में की सम्पत्ति स्वतंत्रता से दी गयी है तो यह करार संविदा मानी जायेगी भले ही प्रतिफल पर्याप्त न हो।

उत्तर (ii) – प्रस्तुत समस्या भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 12 के दृष्टान्त (ख) पर आधारित है। धारा 12 के अन्तर्गत जब कोई व्यक्ति जिस समय वह संविदा करता है, संविदा की शर्तों को समझने तथा अपने हितों पर संविदा के प्रभावों के बारे में युक्तियुक्त निर्णय करने के योग्य है तो उस व्यक्ति के बारे में यह कहा जाता है कि वह संविदा करने के लिये सुस्थिर चित्त का है।

     यदि जो व्यक्ति प्रायः विकृतचित्त का (of unsound mind) है परन्तु कभी-कभी सुस्थिर चित्त का हो जाता है, जब सुस्थिर चित (sound mind) का हो तो संविदा कर सकेगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति प्रायः सुस्थिर चित्त का है किन्तु कभी-कभी विकृतचित्त का हो जाता है वह, जबकि वह विकृतचित्त का है संविदा नहीं कर सकेगा। समस्या में जहाँ एक स्वस्थचित्त मनुष्य, जो ज्वर से विपर्यस्तचित्त है या जो इतना मत्त है कि वह संविदा के निबंधनों को नहीं समझ सकता या अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय नहीं ले सकता तब तक संविदा नहीं कर सकता जब तक ऐसी विपर्यस्तचित्तता या मत्तता बनी रहे।

उत्तर (iii)– प्रस्तुत समस्या भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 25 के दृष्टान्त (ख) पर आधारित है। प्रस्तुत समस्या जो कि एक संविदा होगी। चूंकि धारा 25 यह प्रावधान करती है कि प्रतिफल के अभाव में करार शून्य होते हैं। लेकिन धारा 25 के अन्तर्गत प्रतिपादित सिद्धान्त के प्रथम अपवाद के अनुसार निकट रिश्तेदार (near relatives) के नैसर्गिक प्रेम एवं स्नेह (Natural love and affection) के कारण की गयी संविदा प्रतिफल के अभाव में भी वैध तथा लागू कराने योग्य होती है। नैसर्गिक प्रेम तथा स्नेह को जन्म देने वाले सम्बन्धों को परिभाषा की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। परन्तु विवाह, जन्म तथा गोद से उत्पन्न होने वाले सम्बन्ध निश्चय ही निकट सम्बन्ध हैं तथा उनके अन्तर्गत स्नेह तथा प्रेम नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम होगा।

       राजलखी देवी बनाम भूतनाथ मुखर्जी (1900) के बाद में पति ने पत्नी को पृथक रहने के लिये खर्च हेतु कुछ धनराशि प्रतिमाह देने का वचन दिया। बाद में उसने यह धनराशि देने से इंकार कर दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार जो पक्षकार एक साथ नहीं रह सके उनके मध्य नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम की उपधारणा नहीं की जा सकती तथा यह मामला धारा 25 के अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता है। नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम के कारण धारा 25 के अपवाद में आने के लिये संविदा की निम्न आवश्यकतायें हैं –

(अ) करार (संविदा) के पक्षकारों के मध्य निकट सम्बन्ध हो ।

(ब) करार (संविदा) प्राकृतिक स्नेह एवं प्रेम के कारण हो।

(स) करार (संविदा) लिखित तथा पंजीकृत हो।

     चूँकि ‘क’ नैसर्गिक प्रेम और स्नेह से अपने पुत्र ‘ख’ को 10,000 रुपये देने का वचन देता है। ‘ख’ के प्रति अपने वचन को ‘क’ लेखबद्ध करता है और उसे रजिस्ट्रीकृत करता है। यह संविदा है।

उत्तर (iv)– विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 6 उपबंध करती है कि यदि किसी व्यक्ति को विधि के नियमित क्रम के अतिरिक्त किसी अन्य रीति से, उसकी सम्मति के बिना अचल सम्पति से बेदखल कर दिया गया है तो वह उक्त सम्पत्ति का कब्जा पुनः प्राप्त कर सकता है।

       ‘क’ इस धारा के अन्तर्गत ‘ख’ के प्रति वाद लाने व संम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार रखता है भले ही ‘ख’ संम्पति का स्वामी है, क्योंकि अधिकारयुक्त स्वामी भी अपनी सहायता नहीं कर सकता। उसको अनिवार्यतः अधिपत्य का अपना अधिकार उचित वैध प्रक्रिया द्वारा लागू करना पड़ता है।

उत्तर (v) – धारा 6 में अचल सम्पति से बेदखल किये गये व्यक्ति को प्राप्त होने वाले उपचार का उल्लेख किया गया है। धारा 6 (2) (ख) कोई भी सरकार के विरुद्ध वाद नहीं लाया जायेगा। परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति, जो शासन द्वारा बेदखल कर दिया गया है यद्यपि बिना अनुमति तथा विधि के यथाक्रम की अपेक्षा, अन्यथा, वह अपने पूर्विक कब्जे का लाभ नहीं ले सकता। उसको कब्जा की पुनः प्राप्ति के लिये नियमित वाद लाना चाहिये और अपना स्वत्व स्थापित करना चाहिये।

उत्तर (vi) – धारा 7 के अन्तर्गत विशिष्ट चल सम्पत्ति का अधिकृत व्यक्ति सिविल प्रक्रिया संहिता में विहित रीति के अनुसार उसे पुनः प्राप्त कर सकेगा। इस धारा को प्रयोज्य होने के लिये यह आवश्यक है-(i) विशिष्ट चल सम्पत्ति का होना, (ii) अधिकृत व्यक्ति अधिकृत व्यक्ति वही है जो उस सम्पत्ति पर तत्काल आधिपत्य का अधिकार रखता है।

उत्तर (vii)– धारा 8 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गयी है कि कोई ऐसा व्यक्ति, जिसका चल सम्पत्ति की, किसी ऐसी वस्तु पर जिसका वह स्वामी नहीं हो सकता या नियंत्रण हो, निम्नलिखित दशाओं में से किसी में भी, उसके तत्काल कब्जे के अधिकारी व्यक्ति को, विशिष्ट रूप में, उसका परिदान करने के लिये विवश किया जा सकता है

(1) जबकि दावाकृत वस्तु के लिये, उस वस्तु के हानि के बदले धन के रूप में दिया गया प्रतिकर प्रर्याप्त न होगा। अतः ‘ख’ ‘क’ से वह मूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी होगा।

उत्तर (viii)– प्रस्तुत समस्या धारा 8 से सम्बन्धित है।

       इस धारा में किसी ऐसी विशिष्ट चल सम्पत्ति, जिस पर ऐसा व्यक्ति आधिपत्य धारण किये हुये है जो कि वास्तव में उसका स्वामी नहीं है, को ऐसे व्यक्ति को देने के लिये बाध्य करने का प्रावधान है जो कि वास्तव में उस प्रकार अविलम्ब आधिपत्य प्राप्त करने का अधिकारी है। इस धारा को लागू होने के लिये निम्न अपेक्षाओं में संबंधित समस्या की अपेक्षा है कि “जबकि उस वस्तु की हानि के बदले उसकी क्षतिपूर्ति निर्धारण अत्यन्त कठिन होगा।” अर्थात् ऐसे चित्र के बाजार मूल्य का निर्धारण नहीं किया जा सकता। अत: ‘क’ को उक्त चित्र ‘ख’ को लौटाने के लिये बाध्य किया जा सकेगा।

उत्तर (ix)– विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 में उन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, जिनमें संविदाओं का विनिर्दिष्टतः पालन कराया जा सकता है- वे निम्न हैं-

(1) जबकि उस कार्य को न करने से, जिसके किये जाने की संविदा हुयी है वास्तविक हानि को अभिनिश्चित करने का मापदण्ड न हो अर्थात् जबकि कप तथा विक्रय किये जाने के लिये संविदा की गयी वस्तु दुष्प्राय या बहुमूल्य वस्तु है जो कहीं से प्राप्त नहीं हो सकती, या

(ii) जबकि वह कार्य, जिसके किये जाने की संविदा हुयी है ऐसा हो कि उसके न किये जाने पर आर्थिक प्रतिकर से पर्याप्त अनुतोष प्राप्त नहीं किया जा सकेगा।

       प्रस्तुत समस्या में ‘क’ इस संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये ‘ख’ को विवश कर सकता है क्योंकि उसका पालन न किये जाने से पहुँचने वाली हानि के सुनिश्चयन के लिये कोई स्तर नहीं है।

उत्तर (x) – धारा 11 में उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है कि जबकि न्यास से संबंधित संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन कराया जा सकता है या जब संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता।

(i) ऐसे किसी कार्य को करने का करार, जो कि न्यास के पूर्णत: या अशंत: पालन में है, विनिर्दिष्ट पालन के लिये प्रवर्तनीय होगा, पर न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति के अन्तर्गत होगा।

(ii) लेकिन ऐसे किसी कार्य को करने की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं करवाया जा सकता जो कि किसी न्यासधारी ने अपनी शक्तियों के बाहर की है या न्यास भंग में निर्मित है।

        प्रस्तुत समस्या में संविदा का विनिदिष्ट पालन नहीं करवाया जा सकता क्योंकि न्यासधारी को सात वर्ष से अधिक समय के लिये भूमि को पट्टे पर देने का अधिकार नहीं है।

उत्तर (xi) – धारा 12 में संविदा के भाग के विनिर्दिष्ट पालन का उपबंध उल्लिखित है। इस धारा में एतस्मिन् पश्चात् अन्यथा उपबंधित के सिवाय, न्यायालय किसी संविदा के किसी भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निर्देश नहीं देगा।

       धारा 12 (2) जहाँ कि किसी संविदा का कोई पक्षकार उसमें से अपने पूरे भाग का पालन करने में असमर्थ हो, किन्तु वह भाग, जिसे अपालित रह जाना है, पूरे भाग के अनुपात में मूल्य में बहुत कम हो, और उसके लिये धन के रूप में प्रतिकर हो सकता हो, वहाँ दोनों से किसी पक्षकार के वाद लाने पर, न्यायालय संविदा में से उतने भर के विनिर्दिष्ट पालन निर्देश दे सकेगा, जितने का पालन किया जा सकता हो, और शेष के लिये प्रतिकर दिलवा

      2 बीघा भूमि पूरे भाग के अनुपात में मूल्य में बहुत कम है, उस भूमि के प्रयोग लिये कोई महत्व नहीं है एवं उसका आर्थिक प्रतिकर भी दिया जा सकता है। अतः ऐसी स्थिति में ‘ख’ के द्वारा वाद प्रस्तुत किये जाने पर न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि ‘क’ 98 बीघा भूमि ‘ख’ को हस्तान्तरित कर दे तथा शेष 2 बीघा के लिये आर्थिक प्रतिकर दे दें।

उत्तर (xii) – धारा 17 के अनुसार “ऐसे व्यक्ति द्वारा विक्रय या पट्टे की संविदा का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता जिसका कि सम्पत्ति पर कोई स्वत्व नहीं हो।” किसी अचल सम्पत्ति के विक्रय या पट्टे की संविदा का विक्रेता या पट्टाकर्ता के पक्ष में विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता –

(1) जिसके बारे में यह जानते हुये कि सम्पत्ति पर उसका स्वत्व नहीं है उसे विक्रय करने या पट्टे पर देने की संविदा करता है।

    प्रस्तुत समस्या में विनिर्दिष्ट पालन का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है।

उत्तर (xiii)– धारा 14 उन संविदाओं के संबंध में प्रावधान करती है जिनका कि विनिर्दिष्टत: अनुपालन नहीं कराया जा सकता है। धारा 14 (2) में उल्लेख है कि ऐसी संविदायें जिनका पालन पक्षकार की व्यक्तिगत अर्हता पर आधारित हो, का विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता।

      प्रस्तुत समस्या में संविदा का विनिर्दिष्टतः अनुपालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि संविदा व्यक्तिगत दक्षता एवं कुशलता या अर्हता पर निर्भर है।

उत्तर (xiv) — धारा 12 में उन स्थितियों का उल्लेख किया गया है जब संविदा के भाग का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। धारा 12 (4) विभाजन या पृथक्करणीयता के सिद्धान्त पर आधारित है। यह धारा किसी संविदा के ऐसे भाग के विनिर्दिष्ट पालन का निर्देश देती है जिसका पालन किया जा सकता हो, एवं जो संविदा के ऐसे भाग से पृथक होने योग्य हो, जिसका कि विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत समस्या में संविदा के जिस भाग का विनिर्दिष्टतः पालन कराया जा सकता है, वह उस भाग से पृथक नहीं किया जा सकता जिनका विनिर्दिष्टत: पालन नहीं कराया जा सकता अत: इस समस्या में संविदा के किसी भाग का विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता है।

उत्तर (xv ) – धारा 13 उल्लेख करती है कि अपूर्ण स्वत्व वाले विक्रेता के विरुद्ध क्रेता के क्या अधिकार होते हैं। जहाँ कोई पक्षकार, कोई संविदा करे, उस समय उसे संविदा के पालन की शक्ति न हो परन्तु आगे चल कर वह उस शक्ति को अर्जित कर ले, तो की गयी संविदा के पालन के लिये वह बद्ध होगा।

      यदि विक्रेता या पट्टादाता संविदा करने के उपरान्त सम्पत्ति में कोई हित अर्जित कर ले, तो क्रेता या पट्टेदार उसे ऐसे हित में से संविदा के पालन के लिये विवश कर सकेगा। अतः प्रस्तुत समस्या में ‘ख’ को ‘क’ के विरुद्ध संविदा के प्रवर्तन का अधिकार है।

उत्तर (xvi) – धारा 19 ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख करती है जिनके विरुद्ध संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन का प्रवर्तन कराया जा सकता है। संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन का प्रवर्तन केवल संविदा के पक्षकारों के विरुद्ध ही नहीं, अपितु स्वत्व के अन्तर्गत दावा करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध भी किया जा सकता है। यह समस्या के० एम० एब्राहम बनाम श्रीमती चंडी रोजम्मा के वाद पर आधारित है।

      संविदा के समय इस बात की जानकारी थी, कि वही भूमि किसी अन्य व्यक्ति को बेचने की संविदा हो चुकी है। इस समस्या में ‘ग’ को क्रय करते समय इस बात की जानकारी रही है कि वहाँ भूमि क ने ख को बेचने की संविदा किया है। अतः ख द्वारा ग से विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है।

उत्तर (xvii) — धारा 35, में घोषणात्मक डिक्री के प्रभाव के बारे में उल्लेख किया गया है। यह डिक्री लोकबंधी नहीं होती वरन यह केवल निम्नलिखित पर बंधनकारी होती है – (1) बाद के पक्षकारों पर, (2) क्रमशः उनकी ओर से दावा करने वाले व्यक्तियों पर (3) जहां पक्षकारों में से कोई पक्षकार न्यासधारी है तो उन व्यक्तियों पर जिनका अस्तित्व यदि ऐसा घोषणा के दिनांक पर होता तो वे न्यासधारी होते, बाध्यकारी होती है। यह तीसरे व्यक्ति पर बंधनकारी नहीं होती है।

     अतः पूर्व के वाद में की गयी घोषणा ‘ग’ पर बंधनकारी नहीं है।

उत्तर (xviii)– धारा 38 के अनुसार, जब प्रतिवादी वादी की सम्पत्ति के अधिकार या उपभोग पर आक्रमण करे, या आक्रमण की धमकी दे तब न्यायालय शाश्वत व्यादेश अनुदत्त क र सकेगा

     जहाँ कि प्रतिवादी, वादी के लिये उस सम्पत्ति का न्यासी हो। प्रस्तुत समस्या में ‘क’ ‘ख’ का संबंध एक न्यासवत व वैश्वासिक है जो भी दस्तावेज ‘क’ वकील के कब्जे में है उसके प्रति न्यासवत संबंध है। अपने मुवक्किल का भेद न खोलने का न्यास के समान वकील पर दायित्व होता है। अत: ‘ख’ ऐसा करने से रोकने के लिये व्यादेश हेतु वाद ला सकता है।

उत्तर (xix) – प्रस्तुत समस्या धारा 38 पर आधारित है। किसी व्यादेश को निर्गमित करने के लिये इसके पूर्व वादी को यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि उच्चताप जिस पर आपत्ति करते हैं आभियोज्य हो, उसके द्वारा सम्पति को सारवान क्षति पहुंचने की आशंका हो। अतः ‘ख’ ‘क’ के भट्ठे को वादी के बाग से दूर ले जाने का व्यादेश प्राप्त कर सकता है।

      प्रस्तुत समस्या राज सिंह बनाम गजराज सिंह, ए० आई० आर० 1958 इलाहाबाद 335 पर आधारित है।

उत्तर (xx ) – प्रस्तुत समस्या निषेधात्मक व्यादेश से संबंधित है। निषेधात्मक व्यादेश एक ऐसा व्यादेश है जो प्रतिवादी को ऐसे कोई कार्य करने से रोकता है जिससे वादी के किन्हीं वैध या साम्यिक अधिकारों का अतिलंघन होता है।

      अतः ‘ख’ ‘क’ को ऐसी दीवाल बनाने से रोकने के लिये निषेधात्मक व्यादेश  प्राप्त कर सकता है।

उत्तर (xxi) – प्रस्तुत समस्या समादेशात्मक व्यादेश (Mandatory Injunction) से सम्बन्धित है। यह एक ऐसा व्यादेश है जो यह अपेक्षा करता है कि जो कुछ अपकार किया जा चुका है, उसे समाप्त कर, यथास्थिति में लाया जाय, एवं आगे के लिये उसे ऐसा करने से रोका जाय। इस प्रकार समादेशात्मक व्यादेश किसी कार्य विशेष को करने का आदेश देता है साथ ही साथ आगे के लिये अपकार नहीं करने का आदेश भी देता है।

     अत: ‘ख’ उस भाग को हटाने के लिये, जो उसकी भूमि पर जाता है, समादेशात्मक व्यादेश प्राप्त कर सकता है।

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