प्रश्न 20. संविदा उन्मोचन क्या है? इसके विभिन्न तरीके क्या हैं? संविदा के भंग द्वारा संविदा के उन्मोचन से सम्बन्धित विधि की विवेचना कीजिए।
What is a Discharge of Contract? What are its various modes? Discuss the law relating to discharge of contract by breach of contract.
अथवा
उन विभिन्न परिस्थितियों की व्याख्या कीजिए जिनके द्वारा संविदा का अभिमोचन किया जा सकता है।
Explain various modes in which a contract is discharged.
उत्तर- संविदाओं का उन्मोचन (Discharge of Contracts)-मान्य संविदा होने के बाद पक्षकारों पर प्रतिज्ञाओं के पालन का नम्बर आता है, प्रतिज्ञा पालन के बिना पक्षकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं होते हैं। प्रतिज्ञा पालन दायित्व से उन्मुक्ति का एक तरीका है अन्य तरीके भी हैं, जिनसे पक्षकार अपने दायित्व से उत्पुक्त हो जाते हैं तथा संविदा का उन्मोचन हो जाता है।
ऐन्सन (Anson) के अनुसार संविदा उन्मोचन के पाँच तरीके हैं –
1. पालन द्वारा – पक्षकार अपने कर्तव्यों का पूर्णरूपेण पालन करते हैं, जिनसे उनके अधिकारों की पूर्ण तुष्टि होती है।
2 पालन की असम्भवता द्वारा उन्मोचन– जिससे पक्षकार अपने क्रमिक दायित्वों से अलग हो जाते हैं।
3 पारस्परिक करार द्वारा उन्मोचन।
4. संविदा भंग द्वारा उन्मोचन- संविदा भंग होने पर एक पक्षकार पर दायित्व उत्पन्न होता है।
5. विधि के नियमों द्वारा उन्मोचन।
भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार संविदा उन्मोचन के निम्न तरीके हैं –
1. संविदा पालन द्वारा [ धारा 37 ] – जिस कार्य को करने के लिए पक्षकारों ने प्रतिज्ञा किया हो, उसका पालन किये जाने पर संविदा का उन्मोचन हो जाता है जब प्रतिज्ञाकर्ता-पालन की प्रस्थापना करता है और प्रतिज्ञाग्रहीता उसे प्रतिग्रहीत नहीं करता तो वह अपालन के लिए उत्तरदायी नहीं होता और संविदा के अन्तर्गत उसके अधिकार बने रहते हैं।
2. संविदा भंग द्वारा (By Breach of Contract) [धारा 39]- जब कि संविदा का एक पक्षकार अपने दायित्व का निर्वहन करने से इन्कार कर देता है। इस प्रकार संविदा उल्लंघन दो प्रकार से होता है। (i) पूर्वकालिक या (ii) पालन के समय।
पूर्वकालिक संविदा उल्लंघन का आशय- संविदा-पालन का समय आने के पूर्व प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा अपनी प्रतिज्ञा पालन से इन्कार या अपने को निर्योग्य सिद्ध करना है। परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष को भी संविदा पालन से मुक्ति मिल जाती है तथा निर्दोष पक्षकार को प्रतिकर प्राप्ति का दावा करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। उदाहरण- एक गायिका ‘क’ एक नाटय गृह के प्रबन्धक ‘ख’ से अगले दो मास के दौरान, प्रति सप्ताह में दो रात उसके नाट्य गृह में गाने की संविदा करती है, ‘ख’ उसे हर रात गाने के लिए 100/- रुपये देने का में वचन देता है। छठी रात ‘क’ जान बूझकर अनुपस्थित रहती है। इस आधार पर ‘ख’ संविदा का अन्त कर सकता है और क्षतिपूर्ति का बाद ला सकता है।
पालन के समय भंग- यदि संविदा का एक पक्षकार पालन के समय अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता तो पीड़ित पक्षकार दोषी पक्षकार के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है। उदाहरण के लिए ‘क’ ने ‘ख’ से एक लाख ईंट 1100 रुपये प्रति हजार की दर से क्रय करने की संविदा किया। ‘ख’ ने दस हजार ईंट दिया। उसके बाद ईंटों का भाव गिर गया और ‘क’ ने ईंट लेने से इन्कार कर दिया जबकि ‘ख’ ईंट देने के लिए तैयार था। बाद में ईंट का भाव 1150 रुपये प्रति हजार हो गया। तब ‘क’ ने ‘ख’ से संविदा मूल्य पर ईंट माँगा। इस स्थिति में ‘ख’ ईंट देने के इन्कार कर सकता है। ‘क’ ने दस हजार ईंट लेने के बाद अपनी प्रतिज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करने से इन्कार कर दिया। अतः ‘ख’ को संविदा का अन्त करने का अधिकार था और उसने अन्त कर दिया।
3. संविदा पालन असम्भव होने से [ धारा 56]- संविदा पालन की असम्भवता संविदा उन्मोचन का एक तरीका है। यह असम्भवता कभी-कभी पूर्व विद्यमान रहती है, लेकिन पक्षकरों की अज्ञानता के कारण संविदा हो जाती है और ज्ञान होने पर पालन असम्भव हो जाता है। दूसरी स्थिति यह है कि जिस समय संविदा का सृजन हुआ, उसका पालन पूर्णत: सम्भव था लेकिन परिस्थिति के कारण पालन असम्भव हो गया तो कहा जायेगा कि संविदा विफल हुई तथा पक्षकार अपने उत्तरदायित्व से उन्मुक्त हो गये। इस प्रकार असम्भवता द्वारा संविदा का उन्मोचन होता है। उदाहरण के लिए-‘ख’ ने ‘क’ से कुछ टेण्स्ट्री क्रय करने की प्रतिज्ञा किया ‘ख’ ने स्पष्ट किया कि वह इस माल को आस्ट्रेलिया में बेचना चाहता है, किन्तु आस्ट्रेलिया ने माल का आयात वर्जित कर दिया। ‘ख’ ने प्रतिज्ञा भंग की यहाँ पर ‘ख’ ने बिना किसी उचित कारण के संविदा का उल्लंघन किया। अतः ‘ख’ को वचन भंग के लिए प्रतिकर देना होगा।
4. करार द्वारा (By Agreement) [ धारा 62-63]- संविदा जिसका पालन करना आवश्यक नहीं है अर्थात् पक्षकार आपसी सहमति से नये करार द्वारा पुरानी संविदा का उन्मोचन कर देते हैं, ऐसी स्थिति में पुरानी संविदा का पालन आवश्यक नहीं होता है। क ‘ख’ को 100 बोरे गेहूँ एक निश्चित तिथि तक देने तथा ‘ख’ ‘क’ को इसका मूल्य देने की संविदा करते हैं। ‘क’ और ‘ख’ बाद में एक अन्य करार करके पहले वाले करार की बाध्यता समाप्त कर देते हैं। यह पश्चात्वर्ती करार धारा 62 के अन्तर्गत विधिमान्य है। इसके अन्तर्गत यदि किसी संविदा के पक्षकार उसके बदले एक नई संविदा प्रतिस्थापित करने या उस संविदा को विखण्डित करने का करार करें तो मूल संविदा का पालन करने की आवश्यकता नहीं होगी। इस तरह पुरानी संविदा का उन्मोचन हो जाता है।
5. अभित्याग द्वारा (By Waiver) [धारा 63] – अभित्याग संविदा उन्मोचन का एक तरीका है। प्रत्येक प्रतिज्ञाकर्ता अपने प्रति की गई प्रतिज्ञा का (क) अभित्याग कर सकता है या (ख) परिहार कर सकता है या (ग) प्रतिज्ञा पालन के समय को बढ़ा सकता है या (घ) पालन के बदले कुछ ही तुष्टि स्वीकार कर सकता है, जिसे वह उचित समझे। उदाहरण के लिए ‘क’ ‘ख’ का 1,000 रुपये का देनदार है। ‘क’, ‘ख’ को 500 रुपये देता है तथा निवेदन करता है कि इसे ही पूर्ण धनराशि के प्रतिसंदाय के रूप में स्वीकार कर लें। ‘ख’ ‘क’ के शेष 500 रुपये, 1,000 रुपये के बदले स्वीकार कर लेता है और ‘क’ से शेष 500 रुपये न लेने का वचन देता है। ‘ख’ बाद में शेष 500 रुपये के लिए ‘क’ पर वाद संस्थित करता है। लेकिन यहाँ पर ‘ख’ अपने वाद में सफल नहीं होगा। धारा 63 के अधीन वचनग्रहीता के पालन से अभियुक्ति या परिहार पूर्णत: या भागतः दे या कर सकता है या ऐसे पालन के लिए समय बढ़ा सकता है। इसलिए ‘ख’ अपने बाद में सफल नहीं होगा।
(6) अभिसंविदा तथा सन्तुष्टि द्वारा (By Accord and Satisfaction) [ धारा 63]- जब संविदा का एक पक्षकार किसी पूर्व करार के उल्लंघन हो जाने पर उस प्रतिफल के लिए उस कार्य से भिन्न कोई करार करता है तथा पुरानी के स्थान पर नई संविदा का पालन करता है तो कहो जायेगा कि संविदा का उन्मोचन अभिसंविदा या तुष्टि से हुआ है। • नया करार अभिसंविदा तथा पालन तुष्टि है।
शून्यकरणीय संविदाओं के विखण्डन से [ धारा 64 ] – जबकि कोई व्यक्ति, जिसके विकल्प पर कोई संविदा शून्यकरणीय है, उसे विखण्डित कर देता है तब उसके दूसरे पक्षकार को, उसमें अन्तर्विष्ट किसी वचन का, जिसका वह वचनदाता है, पालन करने की आवश्यकता नहीं होती है। शून्यकरणीय संविदा को विखण्डित करने वाले पक्षकार ने, यदि ऐसी संविदा के दूसरे पक्षकार से तद्धीन कोई लाभ प्राप्त किया है, वह ऐसा लाभ, उस व्यक्ति को, जिससे वह प्राप्त किया था. यथासम्भव प्रत्यावर्तित कर देगा और कहा जायेगा कि संविदा का उत्मोचन हो गया।
यह धारा अवयस्क की संविदा के सम्बन्ध में लागू नहीं होती है। जैसे अवयस्क संविदा को शून्य कराने का वाद प्रस्तुत करता है तो न्यायालय द्वारा संविदा के अमान्य कराये जाने पर, लाभ वापस करने का प्रश्न होता है तो न्यायालय लाभ वापस करने का आदेश इस आधार पर नहीं देता है, क्योंकि अवयस्क की संविदा शून्यकरणीय न होकर प्रारम्भ से ही शून्य होती है।
मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, के बाद में अपीलकर्ता ने धारा 64 का आधार लेकर तर्क प्रस्तुत किया। लेकिन न्यायालय ने इसे इस आधार पर अमान्य कर दिया कि यह धारा शून्यकरणीय संविदा के हो सन्दर्भ में लागू होती है जो संविदा प्रारम्भतः शून्य होती है, जैसे-अवयस्क की संविदा, जहाँ पर यह धारा लागू नहीं होती तो प्राप्त लाभ वापस करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
(8) संविदा पालन के लिए सुविधाएँ देने से प्रतिज्ञाग्रहीता के असफल होने पर [धारा 67] – यदि कोई वचनग्रहीता किसी वचनदाता को उसके वचन के पालन के लिए युक्तियुक्त सौकर्य देने में उपेक्षा या देने से इन्कार करे तो एतद्द्वारा कारित किसी भी अपालन के बारे में ऐसी उपेक्षा या इन्कार के कारण वचनदाता की माफी हो जाती है।
उदाहरण-‘ख’ के घर की मरम्मत करने की ‘ख’ से ‘क’ संविदा करता है। जिन स्थानों में उसके घर की मरम्मत अपेक्षित है, ‘ख’ उन्हें ‘क’ को बताने में उपेक्षा या इन्कार करता है। संविदा के अपालन के लिए ‘क’ की माफी हो जाती है यदि वह ऐसी उपेक्षा या इन्कार से कारित हुआ है।
( 9 ) विधि-प्रवर्तन से यह संविदा उन्मोचन का अन्तिम तरीका है। विधि-प्रवर्तन से संविदा तीन प्रकार से उन्मोचित होती है
(क) विलय द्वारा
(ख) संविदा में परिवर्तन से; तथा
(ग) दिवालिया होने से।
भंग द्वारा उन्मोचन की विस्तृत विवेचना– संविदा-भंग संविदा के उन्मोचन का एक तरीका होता है। ‘संविदा भंग’ किसे कहते हैं, इसको संविदा अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है। परन्तु धारा 37 में यह कहा गया है कि संविदा के पक्षकारों को अपने-अपने वचनों का पालन करना होगा या पालन करने की प्रस्थापना करनी होगी। अतः धारा 37 के आधार पर हम कह सकते हैं कि जब किसी पक्षकार द्वारा वचन का पालन नहीं किया जाता तो उसे संविदा भंग कहते हैं। दूसरे शब्दों में संविदा भंग का तात्पर्य है कि एक पक्षकार ने संविदात्मक दायित्व (वचन) को पूरा करने से इन्कार कर दिया है या अपने ही कार्य द्वारा अपने लिए उस दायित्व को पूरा करना असम्भव कर दिया है।
अपने संविदा भंग दो प्रकार से हो सकता है –
(1) पूर्व कालिक भंग
(2) पालन के समय भंग
पूर्वकालिक भंग का अर्थ है कि संविदा पालन के लिए नियत समय के आने से पूर्व डी संविदा का एक पक्षकार अपने संविदात्मक दायित्वों का पालन करने से इन्कार कर देता है। इस सम्बन्ध में भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 39 में प्रावधान किया गया है। धारा 39 के अनुसार जब संविदा का कोई पक्षकार अपने वचन का पूर्णत: पालन करने से इन्कार कर देता है या ऐसा पालन करने के लिए अपने को निर्योग्य बना लेता है, तब वचनग्रहीता उस संविदा का अन्त कर सकता है जब तक उसे चालू रखने की सहमति वचनग्रहीता ने न दे दो हो।
उदाहरण के लिए – एक गायिका ‘क’ एक नाट्य गृह के प्रबन्धक ‘ख’ से अगले दो माह के दौरान प्रति सप्ताह में दो रात उसके नाट्यगृह में गाने की संविदा करती है और ‘ख’ उसे हर रात के लिए गाने के 100 रुपये देने का वचन देता है। छठी रात को ‘क’ नाट्यगृह में जानबूझकर अनुपस्थित रहती हैं। ‘ख’ संविदा का अन्त करने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु यदि गायिका ‘ख’ की अनुमति से सातवीं रात को थियेटर में गाती है तो यह माना जायेगा कि उसने (ख) ने संविदा को चालू रखने की अपनी अनुमति दे दी है और अब वह संविदा का अन्त नहीं कर सकता परन्तु छठी रात में न गाने के कारण हुई हानि के लिए वह ‘क’ से प्रतिकर वसूल सकता है।
पूर्वकालिक भंग का प्रभाव- धारा 39 के अनुसार जब संविदा का भंग पालन के समय से पूर्व कर दिया जाता है तब निर्दोष पक्षकार उस संविदा का अन्त कर सकेगा और उसे उस संविदा के अधीन अपने दायित्वों के निर्वहन करने को बाध्यता नहीं रहती है। इसके अतिरिक्त निर्दोष पक्षकार चाहे तो संविदा का अन्त कर उसी समय क्षतिपूर्ति के लिए कार्यवाही प्रारम्भ कर सकता है अथवा संविदा पालन के समय का इन्तजार कर सकता है।
तत्क्षण क्षतिपूर्ति की कार्यवाही प्रारम्भ करने का उदाहरण होचेस्टर बनाम डिलादूर, (1853) 22 एल० जे० क्यू० बी० 455 का मामला है। इस मामले में वादी एक अटेन्डेन्ट था प्रतिवादी ने पर्यटकों के विश्राम आदि के प्रबन्ध के लिए वादी को नियुक्त किया। यह नियुक्ति 1 जून से प्रभाव में आनी थी। उस दिन के पूर्व ही प्रतिवादी ने वादी को सूचित कर दिया कि उसे अब वादी की सेवा की जरूरत नहीं है। वादी द्वारा उसी समय क्षतिपूर्ति वाद प्रस्तुत करने पर प्रतिवादी ने तर्क दिया कि संविदा पालन का समय आने से पूर्व संविदा का भंग नहीं हो सकता था। लॉर्ड कैम्पेल ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि ऐसा कोई सार्वदेशिक सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता कि यदि किसी कार्य को भविष्य में करने को संविदा की जाए तो ऐसी संविदाओं के भंग के लिए तब तक दावा नहीं किया जा सकता जब तक कार्य करने का समय न आ जाए।
फ्रास्ट बनाम नाइट (1872) एल० आर० 7 एक० 111 के मामले में प्रतिवादी अपने पिता की मृत्यु के शीघ्र बाद ही वादी से शादी करने की संविदा किया अभी उसके पिता जीवित हो थे तभी उसने शादी करने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि अभी शादी का निश्चित समय नहीं आया है फिर भी वादी संविदा भंग के लिए वाद प्रस्तुत कर सकती है।
पीड़ित पक्षकार द्वारा पालन की प्रतीक्षा का प्रभाव– यदि निर्दोष पक्षकार पूर्वकालिक भंग की दशा में संविदा के पालन का पालन के समय तक इन्तजार करता है तो उसके निम्न परिणाम होते हैं –
(1) जिस पक्षकार ने संविदा का भंग किया है, वह पालन के समय पर संविदा का पालन कर सकता है; तथा
(2) जब तक संविदा सुरक्षित बनी रहती है तब तक संविदा का परित्याग करने वाला पक्षकार संविदा को असम्भव करने वाली किसी घटना का लाभ उठा सकता है।
इस सम्बन्ध में एवरी बनाम बाउडन, (1855) 5 इ० वी० 714 का वाद उल्लेखनीय है। इस मामले में प्रतिवादी ने 45 दिनों के अन्दर माल लादने के लिए वादी का जहाज किराये पर लेने की संविदा की। जहाज पहुँचने पर प्रतिवादी ने माल लादने में असमर्थता व्यक्त की। परन्तु कैप्टन वहाँ ठहरा रहा और प्रतिवाली से माल लादने की प्रार्थना करता रहा। 45 दिन पूरे होने से पूर्व ही युद्ध के हस्तक्षेप के कारण माल लादना अवैध हो गया। इसके बाद वादी द्वारा संविदा भंग का वाद प्रस्तुत किया गया। निर्णीत हुआ कि संविदा, भंग द्वारा नहीं वरन् असम्भवता द्वारा समाप्त हुई थी। वादी चाहता तो उसी समय क्षतिपूर्ति का वाद ला सकता था लेकिन उसने वैसा नहीं किया तब संविदा को असम्भव बनाने वाली परिस्थितियों का लाभ प्रतिवादी को मिलेगा।
क्षतिपूर्ति का निर्धारण- यदि पूर्वकालिक भंग को स्वीकार कर लिया जाय तो क्षतिपूर्ति का निर्धारण भंग की तिथि से होगा। इसके विपरीत यदि निर्दोष पक्षकार भंग को स्वीकार न करके पालन के समय तक इन्तजार करता है तो क्षतिपूर्ति का निर्धारण संविदा पालन के समय से होता है।
प्रश्न 21. क्रियान्वयन की असम्भवता के कारण कब संविदा करने वाले दायित्व से बरी (मुक्त) हो जाते हैं। वादों का उल्लेख कीजिए।
या
उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जब एक संविदा को नैराश्यगत (frustrated) कहा जाता है। वादों का हवाला दीजिए।
या
वादों की सहायता से नैराश्य के सिद्धान्त को समझाइए।
When are the parties to contract discharge from liability on account of impossibility of performance? Refer to case law.
Or
Describe the situations when contract is said to be frustrated. Refer to case law.
Or
With the help of case law explain the doctrine of frustration.
उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 56 असम्भवता के सिद्धान्त (Doctrine of frustration) को प्रतिपादित करती है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि पश्चात्वर्ती परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा शून्य हो जाती है तथा संविदा के पक्षकार संविदा के पालन के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं या कभी-कभी संविदा ऐसी होती है कि संविदा के समय ही संविदा का पालन असम्भव हो जाता है। ऐसी दशा में भी संविदा शून्य मानी जाती है तथा संविदा के पक्षकार संविदा के पालन के लिए बाध्य नहीं होते।
इस प्रकार संविदा के पालन की असम्भाव्यता निम्न प्रकार की हो जाती है –
(1) प्रारम्भिक असम्भाव्यता (Initial impossibility)
(2) पश्चात्वर्ती असम्भाव्यता (Subsequent impossibility)
(1) प्रारम्भिक असम्भाव्यता (Initial impossibility)– संविदा अधिनियम की धारा 56 का प्रथम पैरा प्रारम्भिक असम्भाव्यता से सम्बन्धित है। इस पैरा के अनुसार, वह करार जो ऐसा कार्य करने के लिए हो जो स्वतः असम्भव हो, शून्य है। धारा 56 से जुड़ा उदाहरण (क) इसे स्पष्ट करता है। इसके अनुसार क, ख से जादू से गुप्त निधि का पता लगाने का करार करता है यह करार शून्य है क्योंकि करार करते समय यह स्वतः स्पष्ट है कि जादू से किसी गुप्त निधि का पता लगाना असम्भव है। यहाँ प्रारम्भ से ही करार के पालन को असम्भाव्यता स्पष्ट है। प्रारम्भिक असम्भाव्यता भौतिक या विधिक दोनों प्रकार की हो सकती है। भौतिक असम्भाव्यता का उदाहरण (क) इसका उदाहरण है। विधिक असम्भाव्यता वहाँ होती है जहाँ भौतिक रूप में कार्य करना तो सम्भव हैं परन्तु चूँकि विधि द्वारा ऐसा करना। प्रतिबन्धित है अतः वहाँ कार्य करना सम्भव नहीं है। जैसे क, ख से विवाह करने का करार करता है, क पहले से हो ग से विवाहित है तथा क, उस विधि से शासित है जिसके अन्तर्गत बहुपत्नीत्व वर्जित है अतः क का पहले से ही विवाहित होने के कारण ग से विवाह करना विधि विरुद्ध होने के कारण असम्भव है। अतः यह करार शून्य होगा।
(2) पश्चात्वर्ती असम्भाव्यता (Subsequent impossibility)– सही अर्थों में उन्हीं मामलों में नैराश्य का सिद्धान्त (Doctrine of frustration) लागू होता है जहाँ संविदा या करार करते समय संविदा या करार का पालन सम्भव होता है परन्तु पश्चात्वत परिस्थितियों में इस प्रकार परिवर्तन होता है कि करार या संविदा का पालन असम्भव हो जाता है। यह असम्भाव्यता प्रदान करने वाली परिस्थिति ऐसी होनी चाहिए कि जिनका निवारण प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता। यह पश्चात्वर्ती असम्भवता या तो भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण हो सकती है या विधि में पश्चात्वर्ती परिवर्तन के कारण होता है।
पश्चात्वर्ती असम्भवता से तात्पर्य ऐसी असम्भवता से है जो संविदा निर्माण की विधि के बाद उत्पन्न होती है। असम्भवता भौतिक तथा विधिक हो सकती है।
भौतिक असम्भवता- धारा 56 से जुड़ा उदाहरण (ख) पश्चात्वर्ती असम्भवता को स्पष्ट करता है। क और ख आपस में विवाह करने को संविदा करते हैं। विवाह के लिए नियत समय के पूर्व के पागल हो जाता है। अतः क के लिए विवाह करना असम्भव हो जाता है। जहाँ संविदा के पालन (निष्पादन) से पूर्व क तथा ख दोनों स्वस्थ्य चित्त के थे परन्तु संविदा करने की तिथि को उनमें से एक पागल हो जाने के कारण संविंदा का पालन असम्भव हो जाता है अत: संविदा पश्चात्वर्ती असम्भवता के कारण शून्य हो जायेगी।
इस बिन्दु पर केल बनाम हेनरी (1903) 2 के० वी० 740 का वाद प्रमुख प्रतिवादी ने बादी का मकान 26 तथा 27 जून को राज्याभिषेक का जूलूस देखने के लिए किराये पर लिया। जूलूस उस मकान के सामने वाली सड़क से गुजरने वाला था। कुछ किराया अग्रिम दे दिया गया था। राजा के अस्वस्थ हो जाने के कारण राज्याभिषेक का जुलूस स्थगित हो गया। प्रतिवादी ने बादी को किराया देने से इन्कार कर दिया। बादी ने बाकी किराया वसूल करने हेतु बाद संस्थित किया न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्याभिषेक का जूलूस न निकलने के कारण संविदा का उद्देश्य व्यर्थ या निष्फल हो गया। अत: वादी बकाया किराया प्राप्त नहीं कर सकता।
गंगासरन बनाम रामगोपाल, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 09 नामक बाद में न्यू विक्टोरिया मिल्स कानपुर द्वारा बनाए हुए कपड़ों को कुछ गाँठों के विक्रय के लिए करार किया गया। करार के अनुसार विक्टोरिया मिल का यह माल जैसे-जैसे प्राप्त हो, वैसे-वैसे देने का करार किया गया था, विक्टोरिया मिल ने कपड़े की आपूर्ति करने वाले पक्षकार को कपड़े नहीं दिए। विक्रेता ने इस आधार पर संविदा के दायित्व से छूट माँगी कि चूँकि विक्टोरिया मिल कपड़े नहीं दे रही है, अतः उनके लिए विक्टोरिया मिल द्वारा बनाए गये कपड़ों को आपूर्ति कर पाना असम्भव हो गया था। परन्तु न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर यह निर्णय दिया कि संविदा का माल किस प्रकार का होगा, यह वर्णन किया गया था। संविदा में ऐसी कोई शर्त नहीं थी कि माल विक्टोरिया मिल्स से ही प्राप्त करना आवश्यक था। अतः विक्रेता क्षतिपूर्ति हेतु बाध्य था।
पश्चात्वर्ती असम्भवता स्थायी प्रकृति की होनी चाहिए– धारा 56 में नैराश्य के सिद्धान्त को लागू करने हेतु आवश्यक है कि पश्चात्वर्ती असम्भायता अस्थायी प्रकृति को न होकर स्थायी प्रकृति की रही हो।
सत्यव्रत घोष बनाम मेगनीराम बांगूर, ए० आई० आर० 1951 सु० को० 44 के बाद में प्रतिवादी कम्पनी ने कुछ भूखण्डों को विकसित किया। वादी ने उनमें से एक भूखण्ड क्रय करने की संविदा की तथा अग्रिम भी दे दिया। प्रतिवादी द्वारा भूखण्डों को विकसित करने से पूर्व उसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सैनिक उद्देश्य से अधिग्रहीत कर लिया गया। कम्पनी ने पश्चात्वर्ती असम्भवता के कारण संविदा के पालन की असम्भवता के आधार पर दायित्व से मुक्ति माँगी। न्यायालय ने प्रतिवादी के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि चूँकि भूखण्ड युद्ध के दौरान सैनिक उद्देश्य से अधिग्रहीत किया गया था अतः यह अधिग्रहण अस्थायी था। यहाँ यह तो कहा जा सकता था कि संविदा के पालन में विलाब होगा परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि संविदा का पालन असम्भव हो गया। चूँकि संविदा के पालन के लिए कोई अवधि निर्धारित नहीं थी अत: संविदा के पालन के (नैराश्य) असम्भवता के आधार पर पर प्रतिवादी को संविदा पालन से मुक्ति प्रदान नहीं की जा सकती।
इसी प्रकार हरनन्दराय फूलचन्द बनाम प्रागदास, ए० आई० आर० (1923) प्रिवी काउन्सिल 54, नामक वाद में वादी ने प्रतिवादी से कुछ धोतियाँ खरीदने की संविदा की। संविदा में यह शर्त थी कि कुछ विशेष मिलों से धोतियाँ जैसे प्राप्त होंगी, बादी को दे दी जाएँगी। प्रतिवादी अभी कुछ धोतियाँ ही दे पाया था कि मिलों में हड़ताल हो गई जिसके कारण बकाया धोतियाँ नहीं दी जा सकीं। प्रतिवादी ने असम्भवता के आधार नैराश्य का सिद्धान्त लागू कर संविदा शून्य घोषित करने की माँग की। प्रिवी काउन्सिल ने प्रतिवादी के तर्क को अस्वीकार कर यह अभिमत व्यक्त किया कि धोतियाँ किसी विशिष्ट मिल की हों, यह संविदा की पूर्व शर्त नहीं थी। अतः प्रतिवादी यह नहीं कह सकता कि मिलों में हड़ताल के कारण घोतियों की आपूर्ति असम्भव हो गई। संविदा का नैराश्य का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
पश्चात्वर्ती विधिक परिवर्तन- यदि संविदा करते समय संविदा का पालन विधि सम्मत है परन्तु संविदा के पालन की तिथि को संविदा के अन्तर्गत किया जाने वाला कार्य विधि-विरुद्ध हो जाए तो भी यह कहा जाता है कि संविदा के पालन की असम्भवता के कारण संविदा का उद्देश्य विफल हो गया।
क, ख से संविदा करता है कि वह ख के लिए एक विदेशी पत्तन पर स्थोरा भरेगा। क की सरकार उस देश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करती है जहाँ पत्तन स्थित है। ऐसी स्थिति में के द्वारा उस पत्तन से स्थोरा भरना असम्भव हो गया तथा संविदा शून्य हो गयी।
इसी प्रकार क, ख से गेहूँ निर्यात करने की संविदा करता है परन्तु क के राज्य ने एक विधि पारित कर गेहूँ के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यहाँ पश्चात्वर्ती संविदा पालन को असम्भवता विधि के परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुई।
ग्वालियर रेयोन सिल्क मैन्युफैक्चरिंग कं० बनाम श्री अन्दावर एण्ड कं० के बाद में धारा 56 को लागू होने की निम्न शर्तें न्यायालय द्वारा निर्धारित की गईं ये शर्तें निम्न हैं –
(1) संविदा का पालन असम्भव हो।
(2) संविदा का पालन जिस घटना के कारण असम्भव हुआ है, उसका निवारण करना पक्षकार के नियन्त्रण में नहीं था तथा पक्षकार उस घटना का पूर्व अनुमान नहीं कर सकता था।
(3) संविदा के पालन की असम्भवता के लिए पक्षकार उपेक्षा का दोषी नहीं था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संविदा –
(क) विधिमान्य होनी चाहिए।
(ख) संविदा का निष्पादन या प्रवर्तन बाकी (शेष) होना चाहिए।
(ग) संविदा का पालन एक ऐसी घटना के कारण असम्भव हो गया
जिसका निवारण करना प्रतिवादी के नियन्त्रण में न हो। संविदा के पालन की असम्भवता निम्न आधार पर होनी चाहिए हो।
(1) संविदा के पक्षकारों की मृत्यु या संविदा पालन करने में स्थायी असमर्थता।
(2) संविदा की विषय वस्तु का विनाश या नष्ट होना।
(3) पश्चात्वर्ती परिस्थितियों में परिवर्तन।
(4) वैधानिक या राज्य का हस्तक्षेप।
(5) संविदा की शर्तों में निर्धारित किसी विशिष्ट घटना का घटित न होना।
(6) पश्चातूवर्ती युद्ध का हस्तक्षेप।
धारा 56 के पैरा तीन के उल्लेख के अभाव में धारा 56 की चर्चा अधूरी है। धारा 56 के पैरा तीन के अनुसार यदि किसी संविदा के प्रस्तावक ने ऐसे कार्य को करने का वचन दिया हो, जिसका असम्भव या विधि विरुद्ध होना वह जानता था या वह उचित प्रयास या तत्परता से जान सकता था तथा उस तथ्य को स्वीकृतिकर्ता (वचनग्रहीता) या संविदा का दूसरा पक्षकार नहीं जानता था तथा संविदा के अन्तर्गत वचन पालन या असम्भवता के फलस्वरूप यदि स्वीकृतिकर्ता या वचनग्रहीता को कोई क्षति होती है तो प्रस्तावक या वचनदाता उस क्षति के प्रतिकर के लिए उत्तरदायी होगा।
मैरी बनाम स्टेट ऑफ केरल, ए० आई० आर० (2014) सु० को० के बाद में जहाँ कानूनी संविदा जिसमें अपालन के परिणाम उल्लिखित हो वहाँ पक्षकार विफलता का तर्क देकर अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते।
प्रश्न 22 (क) संविदा भंग से आप क्या समझते हैं? संविदा भंग के परिणाम के रूप में क्षतिपूर्ति के नियमों की विवेचना कीजिए।
What do you understand by breach of contract? Discuss the role of damages as consequence of breach of contract.
(ख) उस पक्षकार के अधिकारों का वर्णन कीजिए जो संविदा का उचित ढंग से विखण्डन करता है।
Explain the rights of those party who rightfully rescinds the contract.
उत्तर (क) – संविदा भंग (Breach of contract)– जब संविदा का एक पक्षकार अपने संविदात्मक दायित्व को पूरा करने में असफल रहता है या अपने संविदात्मक दायित्वों से इन्कार कर देता है या वह अपने संविदात्मक दायित्व का पूर्णतः या अंशत: पालन नहीं करता तो यह कहा जाता है कि उसने संविदा भंग की है। संविदा का भंग (1) पूर्व कालिक (Anticipatory) या (2) संविदा पालन के समय हो सकता है।
पूर्व कालिक संविदा भंग में वचनदाता संविदा पालन का समय आने से पूर्व ही अपने संविदात्मक दायित्व पूरा करने से इन्कार कर देता है। ऐसी स्थिति में निर्दोष पक्षकार चाहे तो संविदा पालन की तिथि तक इन्तजार कर सकता है या तुरन्त ही संविदा भंग के लिए बाद ला सकता है। संविदा पालन के समय संविदा भंग तब होती है जब एक पक्षकार संविदा पालन की तिथि पर संविदा पालन करने में या तो असफल रहा है या संविदा पालन से इन्कार कर देता है। इस स्थिति में जिस पक्षकार को संविदा भंग से क्षति पहुँची हो, वह क्षतिपूर्ति हेतु मुकदमा कर सकता है।
संविदा अधिनियम की धारा 73 के अनुसार जबकि कोई संविदा भंग कर दी गई है, तब वह पक्षकार, जो ऐसे भंग से क्षति उठाता है, उस पक्षकार से जिसने संविदा भंग की है, अपने को एतद्वारा कारित किसी ऐसी हानि या नुकसान के लिये प्रतिकर पाने का हकदार है जो ऐसी घटनाओं के प्रायिक अनुक्रम में प्रकृत्या ऐसे भंग से उद्भूत हुआ हो, जिसका संविदा भंग का संभाव्य परिणाम होना पक्षकार उस समय जानते थे, जब उन्होंने संविदा की थी।
संविदा भंग से प्रतिकर निर्धारण के समय दो बातें ध्यान देने योग्य होती हैं (1) संविदा भंग तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली क्षति में क्या सम्बन्ध है? यह सम्बन्ध दूरस्थ (Remote) न होकर निकटस्थ (Proximate) होना चाहिए। (2) क्षतिपूर्ति की राशि का मूल्यांकन।
(1) संविदा भंग तथा क्षति दूरस्थ नहीं होनी चाहिए – एक संविदा भंग के कई परिणाम हो सकते हैं। संविदा भंग करने वाले पक्षकार को संविदा भंग के अनन्त परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। उसके उत्तरदायित्व की कोई न कोई सीमा निर्धारित करनी होगी। उत्तरदायित्व की सीमा के बाहर होने वाली क्षति को दूरस्थ क्षति कहते हैं। दूरस्थ क्षति उत्तरदायित्व की सीमा के निर्धारण की समस्या हेडले बनाम बैक्सनडेल (1854) में विचार किया गया। इस बाद में बादी एक आटा मिल के मालिक थे। उनकी मित का क्रेन्क शेफ्ट टूट गया। उन्होंने यह प्रतिवादी को मिस्त्री के पास शीघ्र पहुँचाने हेतु दिया। वादी के नौकर ने प्रतिवादी को यह बताया कि केन्क शेफ्ट को शीघ्र ले जाना है क्योंकि इसके अभाव में काम रुका पड़ा है। प्रतिवादी ने क्रेन्क शैष्ट पहुंचाने में विलम्ब किया जिसके कारण मिल कई दिनों तक बन्द रही। इसी कारण होने वाली क्षति के लिए वादी ने प्रतिवादी पर बाद किया वैरन एल्डरसन ने कहा हमारे विचार में संविदा भंग में उतना ही प्रतिकर मिलना चाहिए जो उचित तथा स्वाभाविक लगता हो अर्थात् संविदा भंग के कारण घटना के समात्य क्रम में जो क्षति हुई है जिसका ज्ञान संविदा भंग के समय पक्षकारों को हो सकता है। इस बाद में प्रतिवादी को उपरोक्त हानि के लिए क्षतिपूर्ति नहीं मिल सकती क्योंकि सामान्य परिस्थितियों में प्रतिवादी यह नहीं जान सकता था कि क्रेन्क शेफ्ट के कारण मिल बन्द हो जायेगी। यदि ऐसी विशेष परिस्थिति थी तो इसे विशिष्ट रूप से प्रतिवादी को बतानी चाहिए थी क्योंकि प्रतिवादी यह सोच सकता था कि वादी के पास दूसरा क्रेन्क शेफ्ट हो।
सविदा अधिनियम की धारा 73 के दूसरे पैरा में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि साँवदा भंग के कारण उस स्थिति में प्रतिकर देय नहीं होगा जहाँ क्षति दूरस्थ (Remote) या (Indirect) हो।
(2) क्षतिपूर्ति की राशि का मूल्यांकन– धारा 73 तथा हेडले बनाम बैग्लेन्डेल के बाद के आधार पर यह कहा जाता है कि क्षतिपूर्ति निर्धारण के निम्न सिद्धान्त हैं (क) सामान्य क्षतिपूर्ति (ख) विशेष क्षतिपूर्ति का सद्धिान्त
सामान्य क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त– सामान्य क्षतिपूर्ति वह है जो संविदा भंग के कारण बटनाओं के सामान्य अनुक्रम में सामविक रूप से होने वाली क्षति के लिए देय होती है। यहाँ क्षतिपूर्ति का निर्धारण क्षति के पूर्व-ज्ञान के आधार पर होता है। यहाँ क्षति पक्षकारों के सामान्य ज्ञान (जिसको सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है) के आधार पर निर्धारित की जाती है। गाजियाबाद डेवलपमेण्ट अथार्टी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2000) सु० को० 2003 में गाजियाबाद विकास प्राधिकरण ने भूखण्ड विक्रय की योजना के अन्तर्गत लोक सूचना के लिए एक विवरणिका जारी किया। इसे प्रस्थापना के लिए आमन्त्रण माना गया। इसके प्रत्युत्तर में आवेदन भेजे गये जिसे प्रस्ताव माना गया। प्राथमिकता के आधार पर आवेदन स्वीकार किये गये संविदा भंग पर आवेदन को परिनिर्धारित या अपरिनिर्धारित नुकसानी मिलनी चाहिए। मुख्य रूप से नुकसानी निर्धारण का नियम यह है कि पीड़ित पक्षकार को आर्थिक तौर पर उस स्थिति में लाना, जिस स्थिति में वह होता, यदि संविदा का पालन किया गया होता। संविदा भंग के फलस्वरूप प्रत्यक्ष हानियों का प्रतिकर प्राप्त करने के लिए अधिकृत होगा। क्रेता, भूखण्ड क्रय के बाद, उससे कितना लाभ प्राप्त करता यदि सामान्य तौर पर भूखण्ड का प्रयोग करता तथा सामान्य प्रतिकर के भुगतान में विलम्ब के लिए न्यायालय ने 12 प्रतिशत ब्याज भी प्राप्त करने का आदेश दिया।
स्वाती जार उत्पादक औद्योगिक सहकारी मण्डली लि० बनाम गुजरात हाउसिंग बोर्ड, ए० आई० आर० (2014) गुजरात 107 के बाद में मत व्यक्त किया गया कि संविदा भंग के परिणामस्वरूप ही क्षतिपूर्ति की माँग की जा सकती है।
विशेष क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त के अनुसार विशेष परिस्थितियों में होने वाली क्षति से पक्षकारों को संविदा करते समय ही जान लेना चाहिए कि वादी को यहाँ यह साबित करना होगा कि विशेष क्षति की सम्भावना थी जिसका ज्ञान संविदा करते समय ही पक्षकारों को था।
संविदा भंग से होने वाली क्षतिपूर्ति दो प्रकार की हो सकती है –
(1) परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति
(2) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति
(1) परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Liquidated Damages)- संविदा के पक्षकार संविदा करते समय ही प्रतिकर की उस धनराशि का निर्धारण कर सकते हैं जो संविदा भंग की स्थिति में देय होगी अर्थात् यदि संविदा भंग के समय ही संविदा भंग के कारण सम्भावित क्षति का पूर्वानुमान कर लिया जाता है तो वह परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति होती है। इसका प्रविधान संविदा अधिनियम की धारा 74 के अन्तर्गत किया गया है। जब संविदा भंग के कारण भुगतान होने वाली रकम निर्धारित कर ली जाती है तो नुकसान उठाने वाला पक्षकार नामित रकम को सीमा के अन्दर उचित प्रतिकर पाने का अधिकारी है किन्तु किसी भी परिस्थिति में यह रकम संविदा में उल्लिखित धनराशि से अधिक नहीं होनी चाहिए। उल्लिखित धनराशि चाहे प्रतिकर हो या अर्थदण्ड हो दोनों दशा में न्यायालय कोई भी उचित प्रतिकर संविदा भंग करने वाले पक्षकार को देने का आदेश दे सकता है।
अंग्रेजी विधि में कुछ भिन्नता है। अंग्रेजी विधि में संविदा में उल्लिखित धनराशि यदि प्रतिकर है तो न्यायालय उस धनराशि में कमी या वृद्धि नहीं कर सकता परन्तु यदि संविदा में उल्लिखित धनराशि शास्ति (Penalty) है तो न्यायालय प्रतिकर के रूप में कोई भी धनराशि पीड़ित पक्षकार को देने का आदेश दे सकता है। परन्तु यह रकम संविदा में उल्लिखित धनराशि से अधिक नहीं होनी चाहिए।
अ, ब को 1,000 रुपये के उधार को 5 मासिक किस्तों में देने के लिए इस शर्त पर देता है कि यदि किसी किस्त के भुगतान में चूक हो जाती है तो पूर्ण धनराशि देय हो जायेगी। यह शाति (Penalty) न होकर पूर्व निर्धारित प्रतिकर है।
(2) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages)- यदि पक्षकारों ने संविदा भंग के परिणामों के बारे में कोई करार नहीं किया है ऐसी परिस्थिति में क्षतिपूर्ति का निर्धारण न्यायालय करता है। ऐसी क्षतिपूर्ति को अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages) कहते हैं। धारा 73 अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के बारे में उपबन्ध करती है। धारा 73 यह स्पष्ट करती है कि बादी का यह कर्तव्य है कि उसे क्षतिपूर्ति की राशि को कम करने हेतु उचित कार्य करना चाहिए तथा यदि वह ऐसा नहीं करता तो जितनी धनराशि उसके उचित कार्य द्वारा कम की जा सकती थी, उतनी धनराशि की माँग वादी नहीं कर सकता।
अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति का अध्ययन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है-
(1) वस्तुओं की बिक्री के सम्बन्ध में – वस्तुओं के विक्रय के सम्बन्ध में क्षतिपूर्ति के निर्धारण का आधार संविदा में निर्धारित मूल्य तथा संविदा भंग के समय वस्तु के बाजार मूल्य का अन्तर होता है। बाजार मूल्य उस स्थान का होगा जहाँ वस्तु संविदा के अन्तर्गत क जानी होती है।
(2) सम्पत्ति विक्रय के सम्बन्ध में – यदि संविदा सम्पत्ति के विक्रय की है तो क्षतिपूर्ति निर्धारण का आधार वह हानि होगी जो विक्रेता के द्वारा उठायी जाती है यदि क्रेता के संविदा भंग की है। यदि विक्रेता उचित समय के अन्दर सम्पत्ति अन्य को बेच देता है तो क्रेता से वह संविदा तथा बिक्री की जाने वाली कीमत के अन्तर तथा विक्रय में किये गये व्यय को वसूल कर सकता है।
(3) मानसिक कष्ट के लिए क्षतिपूर्ति– यह क्षतिपूर्ति साधारण परिस्थितियों में प्राप्त नहीं की जा सकती। मानसिक कष्ट के लिए क्षतिपूर्ति निम्न मामलों को ध्यान में रख लिया जाता है –
(1) विवाह की संविदा भंग (2) सेवा सम्बन्धी संविदा भंग अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (1) नाम मात्र या (2) अनुकरणीय हो सकती है।
(1) नाम मात्र क्षतिपूर्ति (Nominal Damages)- नाम मात्र क्षतिपूर्ति का उद्देश्य पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता देना होता है। इस प्रकार की क्षतिपूर्ति दण्डात्मक नहीं होती यहाँ क्षतिपूर्ति की राशि नाममात्र की हो सकती है।
प्रेमलता बनाम म्यूनिसिपल कारपोरेशन दिल्ली, ए० आई० आर० (2003) दिल्ली 211 के बाद में माल के प्रदान में विलम्ब हुआ, परन्तु क्रेता को हानि नहीं हुई। प्रतिकर के लिए बाद सफल नहीं हुआ। माइटी मास्टर्स इंजि० प्रा० लि० बनाम टैक्साजाने मेट्रोलाजी एस० पी० ए० ए० आई० आर० (2011) (एन० ओ० सी० ) 560 बाम्बे के बाद में वादी भारतवर्ष में प्रतिवादी की मशीनरी बेचनी का एकमात्र अभिकर्ता नियुक्त हुआ। वादी के द्वारा आशानुकूल कार्य नहीं किया गया। प्रतिवादी को संविदा की शर्तों के अनुसार संविदा भंग का अधिकार था। वादी न तो क्षतिपूर्ति और न तो कमीशन प्राप्त करने के लिए अधिकृत हुआ।
एच० डी० एफ० सी० बैंक लि० बनाम दिल्ली जिमखाना क्लब लि०, ए० आई० आर० (2013) दिल्ली के बाद में निर्धारित किया गया है कि प्रतिकर के लिए कोई लिखित करार आवश्यक नहीं है।
(2) अनुकरणीय क्षतिपूर्ति (Exemplary Damages)- यह क्षतिपूर्ति ऐसी होती है जिसका उद्देश्य दूसरे के लिए उदाहरण प्रस्तुत करना होता है। यहाँ संविदा भंग के कारण पक्षकारों की ख्याति को क्षति या विचारों को होने वाले आघात को ध्यान में लिया जाता है। विवाह की संविदा भंग तथा बैंक में पर्याप्त राशि होते हुए उसके चेक का अनादर इसका उदाहरण रहा है।
उत्तर (ख) – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 75 में यह प्रावधान किया गया है कि वह व्यक्ति जो किसी संविदा को अधिकार पूर्वक विखण्डित करता है, ऐसे नुकसान के लिए प्रतिकर पाने का हकदार है जो उसने उस संविदा का पालन न किए जाने से उठाया है। इस धारा का लाभ उठाने के लिए निम्नांकित बातों को साबित किया जाना आवश्यक है –
(i) ऐसे व्यक्ति को संविदा का विखण्डन करने का अधिकार था, (ii) संविदा का विखण्डन उचित रीति से किया गया है,
(iii) दूसरा पक्षकार संविदा का पालन न कर पाने का दोषी रहा है एवं
(iv) ऐसे दोष के कारण प्रथम पक्षकार को नुकसान कारित हुआ है।
उदाहरणार्थ– ‘क’ जो एक गायिका है, एक नाट्यगृह के प्रबन्धक ‘ख’ से अगले दो माह में प्रति सप्ताह में दो रातें उसके नाट्यगृह में गाने की संविदा करती है और उसे हर रात के गाने के लिए एक सौ रुपये देने के लिए वचनबद्ध होता है। छठीं रात को ‘क’ नाट्यगृह से जानबूझकर अनुपस्थित रहती है और परिणामस्वरूप ‘ख’ उस संविदा को विखण्डित कर देता है। ख उस नुकसान के लिए प्रतिकर का दावा करने का हकदार है, जो उसने उस संविदा को पूरा न किए जाने से उठाया है।
प्रश्न 23. विनिर्दिष्ट अनुतोष से क्या तात्पर्य है? विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 किन अनुतोषों की व्यवस्था करता है?
या
संविदाओं के विनिर्दिष्ट अनुपालन से सम्बन्धित विधि की व्याख्या करें।
या
उन सिद्धान्तों को समझाइए जिन पर विनिर्दिष्ट पालन आधारित है।
What do you mean by Specific Relief? What types of relieves are provided under Specific Relief Act, 1963?
Or
Discuss the Law relating to specific performance of contract.
Or
Discuss the principles upon which specific performance is based.
उत्तर- अनुतोष या उपचार से तात्पर्य है वादकारियों को न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला उपचार या राहत। चूँकि प्रत्येक अपकृत्य के लिए उपचार आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो व्यथित पक्षकार को उपचार प्रदान किया जाता है। ऐसे उपचार या अनुतोष को दो भागों में बाँटा जा सकता है (1) विधिक उपचार (2) साम्यिक उपचार (Equitable remedy)। विधिक उपचार (Legal Remedy) विधिक अधिकारों के उल्लंघन पर व्यथित पक्षकार को उपलब्ध होता है। यदि विधि कर्तव्य अधिरोपित करती है तो उस कर्तव्य को लागू करने के विरुद्ध उपचार भी विधि द्वारा सृजित होना चाहिए। यदि कोई कार्य करना विधि के अन्तर्गत एक व्यक्ति का कर्तव्य है तो उस कर्तव्य को करने के लिए उस व्यक्ति को बाध्य करने का उपाय भी होना चाहिए। यही उपाय वादी को उपचार के रूप में उसके विधिक अधिकारों के उल्लंघन फलस्वरूप प्राप्त होता है। इसे विधिक उपचार (legal relief or remedy) कहते हैं।
साम्यिक उपचार (equitable remedy) का आधार साम्या (equity) होता है। यह उपचार साम्यिक न्यायालय (Equity courts) द्वारा प्रदान किया जाता है। इसका आधार साम्या के सिद्धान्त होते हैं। साम्यिक नियम न्यायालयों के निर्णयों द्वारा विधि की व्याख्या करते समय अन्तःकरण की आवाज तथा प्राकृतिक के आधार पर विकसित हुए हैं। सामान्य नियम के अनुसार साम्या, विधि का अनुसरण करती है। इस प्रकार न्यायालय साम्यिक उपचार तभी प्रदान करेंगे यदि विधि के अन्तर्गत ऐसा अनुमत (permissible) हो। साम्यिक उपचार का आधार नैतिकता (Morality) भी हो सकता है। यदि किसी व्यक्ति ने संविदा भंग की है तो नैतिकता की मांग है कि उसे व्यक्ति पक्षकार को संविदा संविदा भंग से होने वाली क्षति की पूर्ति करनी होगी।
सायिक न्यायालय कई अन्य उपचारों में पाँच प्रकार के उपचार प्रदान करता है (1) विनिर्दिष्ट पालन (Specific performance) (ii) व्यादेश (iii) प्रापक (Receivers) (iv) लेखा (v) लिखित विलेखों की परिशुद्धि।
इस प्रकार विनिर्दिष्ट अनुपालन एक साम्यिक उपचार है।
विनिर्दिष्ट उपचार (Specific Relic)- किसी संविदा के भंग होने पर व्यक्ति पक्षकार को दो विकल्प उपलब्ध है। प्रथम यह कि संविदा भंग से व्यथित पक्षकार यह माँग करे कि संविदा का हुबहु (as it is) पालन कराया जाय या संविदा भंग के फलस्वरूप वादी को हुई क्षति के लिए प्रतिकर या क्षतिपूर्ति कराया जाय। जहाँ पक्षकार (वादी), संविदा को भंग करने वाले पक्षकार से यह चाहता है कि संविदा की शर्तों का यथावत पालन कराया जाय। ऐसी परिस्थिति में यह कहा जाता है कि संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के उपचार की माँग को गई है। यदि वादी उपचार के रूप में वही वस्तु प्राप्त करता है जिसका कि वह अधिकारी है। तो उसे विनिर्दिष्ट उपचार कहा जाता है। इस प्रकार विनिर्दिष्ट उपचार से तात्पर्य है कि दायित्वों का वास्तविक या हुबहु पालन करना (The exact fulfillment of obligation)। जहाँ वादी संविदा भंग के फलस्वरूप होने वाली क्षति के लिए प्रतिकर की माँग करता है, उसे प्रतिकारात्मक अनुतोष कहा जाता है।
उदाहरण के लिए अ, ब से मकान क्रय करने की संविदा करता है। अ बिना किसी औचित्य के संविदा पालन से इन्कार कर संविदा भंग करता है। ब को यह अधिकार है कि वह अ के विरुद्ध मकान के विक्रय तथा कब्जा हस्तान्तरित करने हेतु वाद संस्थित करे व को मकान के बदले क्षतिपूर्ति लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यहाँ ब को जो अधिकार प्राप्त है, उसे संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का उपचार कहा जायेगा।
विनिर्दिष्ट पालन के आधार- साम्या के अनुसार यदि किसी व्यक्ति द्वारा संविदा के विशिष्ट पालन में सन्तुष्टि प्राप्त की जाती है तो साम्या की यह माँग है कि उसे क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए बाध्य न किया जाय। प्रसिद्ध विधिशास्त्री बेन्थम (Bentham) के विचार का तत्व है कि विधि के लिए यह उचित है कि जो वस्तु मेरी है, वह मुझे दे दो जाय, यद्यपि मुझे उसके बदले में अन्य वस्तु या धन लेने के लिए विवश न किया जाय, यद्यपि मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। एडवर्ड फ्राई के अनुसार विधिशास्त्र की परिपूर्ण पद्धति के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक प्रकार तथा वर्ग की संविदा के वास्तविक (Exact) पालन का प्रवर्तन करे सिवाय जबकि परिस्थितियाँ ऐसी हों जो ऐसे प्रवर्तन को अनावश्यक अथवा अपवंचनीय बना दें।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अन्तर्गत निम्न उपचारों की व्यवस्था की गई है।
(1) सम्पत्ति के आधिपत्य की पुनः प्राप्ति– किसी सम्पत्ति का कब्जा उसके दावेदार को देना (धारा 5,6.7.8) ।
(2) संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन (Specific performance of contract)- पक्षकार के उसी कार्य को यथावत करने का आदेश जिसको करने का उस पर दायित्व हो (धारा 9-25)।
(3) व्यादेश (Injunction)– पक्षकार को उस कार्य को करने से रोकना जिसे न करने का उस पर दायित्व हो। उसे निषेधात्मक उपचार भी कहा जा सकता है (धारा 36-42)।
(4) घोषणात्मक आज्ञप्तियाँ (Declaratory decree) – प्रतिकर प्रदान करने के अतिरिक्त अन्य तरीकों से अधिकारों का निर्धारण एवं घोषणा (धारा 34-55)।
(5) प्रलेखों की परिशुद्धि (Rectification of Instrument) (धारा 26)।
(6) संविदाओं का विखण्डन (Recission of contract) (धारा 27-30)।
(7) प्रलेखों को रद्द करना (Cancellation of Instrument) (धारा 37-33 )।
(ब) संविदा भंग होने पर निम्न अवस्थाओं में विनिर्दिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है। इस सम्बन्ध में उपबन्ध विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 9 से 25 तक किया गया है।
विनिष्टि अनुपालन का सिद्धान्त (Principles of specific performance) – विनिर्दिष्ट पालन (specific performance) का नियम इस सिद्धान्त आधारित है कि साम्या (equity) की दृष्टि में वादी उसी विशिष्ट वस्तु को प्राप्त करने का अधिकारी है। जिसके लिए उसने संविदा की है।
विनिर्दिष्ट अनुपालन का आधार (Basis of specific performance) – विनिर्दिष्ट पालन का अनुतोष (उपचार) निम्न आधार पर प्रदान किया जाता है –
(1) सामान्य विधि में अन्य उपचार का अभाव है।
(2) उपचार के रूप में क्षतिपूर्ति अपर्याप्त होगी।
(3) विशिष्ट अनुपालन में बादी को अपनी इच्छा के अनुसार उपचार प्राप्त करने पर सन्तुष्टि होती है।
संविदाओं के विनिर्दिष्ट अनुपालन का आदेश प्रदान करने के अधिकार क्षेत्र का मूल तथा एकमात्र आधार यह है कि क्षतिपूर्ति पक्षकार को वह अनुतोष या उपचार नहीं देगी जिसका कि वह हकदार है अर्थात् क्षतिपूर्ति पक्षकार (वादी) को उतनी हितकारी (Profitable) स्थिति में नहीं रखेगा जितना कि विनिर्दिष्ट पालन किया जाता तो होता।
प्रो० स्टोरी के अनुसार, “यह सुज्ञात है कि सामान्य विधि किसी वस्तु के विक्रय अथवा हस्तान्तरण का प्रयोग संविदा का, यदि वस्तुतः कोई हस्तान्तरण न हो, एक व्यक्तिगत संविदा मात्र समझती है तथा इस रूप में यदि उसका पालन किया जाय तो मात्र क्षतिपूर्ति के अतिरिक्त कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं हो सकता। पक्षकार को केवल अपनी स्वेच्छा से क्षतिपूर्ति के भुगतान अथवा संविदा के विशिष्ट पालन के चयन की अनुमति है।”
संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के नियम (Rules regarding specific performance of contract)– संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के प्रमुख नियम निम्न हैं-
(1) एक विधिपूर्ण संविदा का अस्तित्व होना चाहिए अर्थात् एक प्रवर्तनीय संविदा के लिए सभी आवश्यक तत्व प्रश्नगत् संविदा में भी विद्यमान होना चाहिए। जैसे सक्षम पक्षकार स्वतन्त्र सहमति वैध प्रस्ताव तथा स्वीकृति प्रतिफल संविदा का वैध पूर्ण उद्देश्य तथा संविदा शून्य या शून्यकरणीय न हो इत्यादि।
(2) यदि हानिपूर्ति या क्षतिपूर्ति पर्याप्त उपचार है तो विनिर्दिष्ट अनुपालन का उपचार प्रदान नहीं किया जाता। यदि वाद के तथ्य तथा परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात् इस बात से सन्तुष्ट है कि यादी को प्रदान की जाने वाली क्षतिपूर्ति एक पर्याप्त उपचार है तो न्यायालय द्वारा संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए आदेश नहीं दिया जा सकता।
(3) ऐसे कार्यों के लिए विनिर्दिष्ट अनुपालन का आदेश नहीं दिया जा सकता जिस पर न्यायालय द्वारा सतत् पर्यवेक्षण अपेक्षित हो।
(4) व्यक्तिगत कार्य या सेवा से सम्बन्धित संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन करने का आदेश नहीं दिया जा सकता। जैसे यदि क गाना गाने की संविदा करता है या चित्र बनाने की संविदा करता है तो इनके विशिष्ट पालन का आदेश नहीं दिया जा सकता। प्रो० लोंगडेल का कथन है कि यदि संविदा कुछ परिदान करने की है तो उसके भंग के लिए क्षतिपूर्ति का उपचार प्रदान किया जा सकता है। यदि कुछ करने की संविदा है तो उसका विशिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता।
(5) प्रसिद्ध विधिवेत्ता प्रो फ्राई का मत है कि न्यायालय द्वारा विनिर्दिष्ट रूप से प्रवर्तित की जाने वाली संविदा का सामान्यतया पारस्परिक (mutual) होना आवश्यक हैं।
अर्थात् पक्षकारों को एक संविदा के अन्तर्गत कुछ न कुछ करना आवश्यक है।
भारतीय विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अन्तर्गत संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन या अपालन से सम्बन्धित नियम निम्न हैं –
(1) संविदाएँ जिनका विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता (धारा 10-13)।
(2) संविदाएँ जिनका विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है (धारा 14 ) ।
(3) वे व्यक्ति जिनके पक्ष में या जिनके विरुद्ध संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है (धारा 15-19)
(4) न्यायालय का विवेकाधिकार तथा शक्तियाँ (धारा 20-24)।
(5) पंचाटों का प्रवर्तन तथा व्यवस्थापनों के निष्पादन के लिए निदेश (धारा 25 )।
प्रश्न 24. उदाहरण सहित यह बतायें कि कब संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है? वे कौन सी संविदाएं हैं जिनका विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता?
Giving suitable examples, describe the circumstances in which the contract can be specifically performed? Also explain the circumstances in which the contract cannot be specifically performed?
या
न्यायालय द्वारा संविदा के विशिष्ट अनुपालन का निर्देश कब दिया जाता है? व्याख्या कीजिए।
When specific performance of contract can be granted by the court? Explain.
उत्तर– संविदा के विनिर्दिष्ट पालन (Specific performance) से तात्पर्य है कि संविदा की स्वीकृत शर्तों का यथावत (as it is) पालन होता है। उदाहरण के लिए, यदि क तथा ख के मध्य एक मकान या 10 बोरे गेहूँ के विक्रय की संविदा होती है। क विक्रेता है. तथा ख क्रेता जहाँ क्रेता ख, विक्रेता क को 10 बोरा गेहूँ या मकान का अन्तरण संविदा की शर्तों के अनुसार करते हैं, उसे संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कहते हैं। परन्तु यदि के संविदा को भंग करता है तथा ख उसे हुई क्षति को प्रतिकर के रूप में प्राप्त करता है यह संविदा का विनिर्दिष्ट पालन नहीं है यह क्षतिपूर्ति का उपचार कहा जाता है। हेल्सबरी के अनुसार विनिर्दिष्ट पालन एक साम्यिक अनुतोष (equitable relief) है जिसे न्यायालय संविदा के विखण्डन होने पर एक निर्णय के रूप में देता है कि प्रतिवादी संविदा की शर्तों के अनुसार संविदा का यथावत् पालन करे। फ्राई कहते हैं संविदा का विनिर्दिष्ट पालन उसके अनुबन्धों तथा शर्तों के अनुसार वास्तविक (यथावत्) निष्पादन है तथा संविदा का निष्पादन न करने (संविदा भंग) के लिए क्षतिपूर्ति अथवा प्रतिकर उसके विपरीत होता है। सारांश में कहा जाय तो संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का आशय पक्षकारों के द्वारा उस कार्य को करने या न करने से है जिसको करने या न करने की उसने प्रतिज्ञा की है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 उन परिस्थितियों का उल्लेख करती है जिनमें संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। ये निम्न हैं –
(1) क्षतिपूर्ति का निर्धारण न हो पाना– धारा 10 के अनुसार यदि एक पक्षकार द्वारा कार्य न करने पर दूसरे पक्षकार को होने वाली हानि का आंकलन करने का कोई निर्धारित मापदण्ड विद्यमान न हो। अर्थात् यदि विक्रय की संविदा की विषय-वस्तु असामान्य सुन्दर हो या अप्राप्य (Rare) प्रकृति की है, वहाँ संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दिया जा सकता है। इस प्रविधान के अन्तर्गत यदि कोई वस्तु अद्वितीय हो अर्थात् बाजार में वह वस्तु उपलब्ध नहीं है तो इस वस्तु की विक्रय की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति की भावना या लगाव किसी वस्तु से है और वह उस वस्तु के क्रय के लिए संविदा करता है तथा ऐसी वस्तु वर्तमान समय में बाजार में न तो उपलब्ध है न, ही उसका निर्माण बाजार में हो सकता है तो उस वस्तु को विक्रय की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है।
अ, ब से एक ऐसा चित्र बेचने की संविदा करता है जो एक ऐसे चित्रकार ने बनाया था जो मर गया है। इस प्रकार वह चित्र अब बाजार में उपलब्ध नहीं है तथा चूँकि चित्रकार मर गया। है तो उसका दूसरा प्रतिरूप तैयार नहीं कराया जा सकता और न ही उसका मूल्यांकन किया जा सकता है तथा उसके मूल्यांकन के लिए कोई मानक विद्यमान नहीं है तो ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन का आदेश न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है। यहाँ उस वस्तु के साथ क्रेता का भावनात्मक लगाव या विशेष सम्मान या सम्बन्ध हो सकता है। डावलिंग बनाम बेलगामन नामक बाद में एक चित्रकार ने एक चित्र बनाया। उसने स्वयं उस चित्र का मूल्य निर्धारित कर दिया। न्यायालय ने विक्रय की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराने से इन्कार कर दिया क्योंकि चित्र के मूल्यांकन का मानक चित्रकार ने स्वयं निर्धारित किया था अतः संविदा भंग की दशा में न्यायालय ने क्षतिपूर्ति दिलायी।
इस प्रकार बहुमूल्य एकमात्र, चित्र (Painting) प्राचीन फर्नीचर जिनके सम्बन्ध में वास्तविक मूल्य का आंकलन सम्भव नहीं होता तथा ऐसी (विषय) वस्तु जिनका वादी से भावनात्मक सम्बन्ध या महत्व होता है ऐसी वस्तुएँ है जिनके विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दिया जा सकता है।
संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के कुछ उदाहरण निम्न हैं –
(1) समाश्रित संविदाओं में एक ऐसी संविदा है जो समाश्रित हित प्रदान करता है। ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है।
(2) भावी सम्पत्ति – भावी पेटेन्ट के अधिकार का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है।
(3) यदि संविदा की शर्तें शून्य या लोकनीति के विरुद्ध नहीं हैं तो विभाजन विलेख की संविदा का विशिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है। पति तथा पत्नी के मध्य विभाजन करार का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है।
(4) भागीदारी – सामान्यतः विभाजन की संविदा का विशिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता है परन्तु यदि भागीदारी का आंशिक पालन हुआ है अर्थात् भागीदारी कुछ समय तक चली है तो ऐसी भागीदारी विलेख का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है।
(5) पेटेन्ट अधिकार – पेटेन्ट विक्रय के अधिकार का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है।
(6) कॉपीराइट– कॉपीराइट के करार का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है।
(2) जहाँ आर्थिक क्षतिपूर्ति या प्रतिकर पर्याप्त उपचार नहीं है – जहाँ न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि वादी को प्रदान की जा सकने वाली आर्थिक क्षतिपूर्ति या प्रतिकर पर्याप्त उपचार नहीं है, वहाँ न्यायालय संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करा सकता है।
भारत में निम्न मामलों में यह माना जाता है कि आर्थिक क्षतिपूर्ति पर्याप्त उपचार नहीं है –
(1) कम्पनी के अंश– जहाँ कम्पनी के अंश सीमित संख्या में हैं तथा बाजार में सामान्यत: उपलब्ध नहीं है। जै नारायन बनाम सूरजामल (1949) एफ० एल० जे० 216.
(2) भवन संविदाएँ (Building contracts)
(3) सम्पत्ति में अंश (Share in property) रजनी पटेल बनाम राव किशोर सिंह, 1929 पी० सी० 190.
(4) जहाँ वस्तु एकमात्र है तथा उससे वादी का भावनात्मक लगाव है या वादी उस वस्तु को विशिष्ट महत्व देता है।
अ, ब को रेलवे के कुछ अंश (Share) अन्तरित करने की संविदा करता है। इस संविदा का विशिष्ट अनुपालन कराया जा सकता है क्योंकि रेलवे शेयर आसानी से बाजार में उपलब्ध नहीं होते।
(3) जहाँ आर्थिक प्रतिकर वसूल नहीं किया जा सकता – प्रतिवादी का दिवालिया होना एक ऐसा आधार है जहाँ संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। जहाँ यह सम्भावना है कि यदि प्रतिकर प्रदान कर दिया जाय तो प्रतिकर की वसूली सम्भाव्य नहीं है वहाँ संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। शीरी बनाम बालाजी ? इण्डियन कैसेज 406.
अब के पक्ष में एक वचन-पत्र (Promissory-note) बिना पृष्ठांकन के अन्तरित करता है। अ दिवालिया हो जाता है तथा से प्रापक नियुक्त होता है ब स को वचन पत्र पृष्ठांकित करने को बाध्य कर सकता है क्योंकि स ने अ के दायित्वों को ग्रहण किया है तथा आर्थिक क्षतिपूर्ति की आज्ञप्ति स के पृष्ठांकन के अभाव में अर्थहीन हो जायेगी।
न्यायालय का विवेकाधिकार – यह उल्लेखनीय है कि धारा 10 के अन्तर्गत न्यायालय को विवेकाधिकार है कि वह संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करने की आज्ञप्ति दे या न दे। कोई भी व्यक्ति ऐसी आज्ञप्ति का दावा अधिकार पूर्वक नहीं कर सकता।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 11 उन मामलों पर लागू होती है जहाँ न्यासों के संशक्त (न्यास से सम्बन्धित) संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है। इस धारा का उद्देश्य न्यास को हित प्रदान करना है। इस धारा के अनुसार किसी ऐसे कार्य को करने का करार जो कि न्यास के अंशतः या पूर्णत: पालन में है, विशिष्ट अनुपालन के लिए प्रवर्तनीय (enforceable) होगा परन्तु ऐसे किसी कार्य को करने की संविदा का विशिष्ट अनुपालन नहीं करवाया जा सकता जो न्यासधारी द्वारा अपनी शक्तियों के बाहर या न्यास भंग में की गई है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि धारा 11 के अन्तर्गत संविदा के विशिष्ट पालन कराने का न्यायालय का अधिकार विवेकाधीन शक्ति के अन्तर्गत है, इसका अधिकारपूर्ण दावा नहीं किया जा सकता।
उदाहरण– (i) अ एक भूमि का न्यासी है। उसे भूमि को दस वर्ष तक की अवधि के लिए पट्टे पर देने का अधिकार है। वह उस भूमि को सात वर्ष के लिए पट्टे पर इस शर्त पर देता है कि सात वर्ष पूर्ण होने पर उस पट्टे का नवीनीकरण किया जा सकता है। उस संविदा का विशिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि न्यासी को सात वर्ष से अधिक समय के लिए पट्टे पर देने का अधिकार नहीं है।
(ii) के एक न्यासधारी को यह अधिकार है कि वह न्यास की सम्पत्ति को एक लाख से कम में विक्रय नहीं करेगा क, ख को न्यास की सम्पत्ति को 50 हजार में विक्रय कर देता है। इस संविदा का विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि न्यास की सम्पत्ति को एक लाख से कम मूल्य पर बेचना न्यास भंग है।
इस प्रकार एक सम्पत्ति के न्यासी के साथ न्यास की सम्पत्ति के सम्बन्ध में की गई संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जा सकता है परन्तु इसके दो अपवाद हैं जिनमें न्यास से सम्बन्धित संविदा का विशिष्ट पालन नहीं हो सकता
(i) न्यासी द्वारा की गई संविदा शक्ति बाहा (ultra vires) है।
(ii) न्यासी द्वारा की गई संविदा न्यास भंग के तुल्य है।
ये संविदाएँ जिनका विनिर्दिष्ट अनुपालन (Specific performance) नहीं कराया जा सकता है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 14, उस अधिनियम की धारा 10 के विपरीत यह प्रविधान करती है कि किन संविदाओं का विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता। ये निम्न है –
(1) ऐसी संविदाएँ जिनके अपालन (non-performance) के फलस्वरूप होने वाली क्षति के लिए आर्थिक प्रतिकर (monetory compensation) पर्याप्त (adequate) अनुतोष (relief) है-धारा 14 की उपधारा (1) का खण्ड (क) यह प्रविधान करता है कि यदि संविदा इस प्रकार की है जिसके भंग होने के फलस्वरूप देय आर्थिक प्रतिकर एक पर्याप्त अनुतोष है, उस संविदा का विशिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
अ, ब को तीस कुन्तल गेहूं बेचने की संविदा करता है जिसका मूल्य 400 रुपये प्रति कुन्तल है। इस संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि इस संविदा के भंग होने पर आर्थिक प्रतिकर एक पर्याप्त अनुतोष (Adequarte relief) होगा।
इसी प्रकार यदि किसी कम्पनी के अंश क्रय करने की संविदा है उस कम्पनी के अश बाजार में सरलता से उपलब्ध हैं तो इस संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करने से न्यायालय इन्कार कर सकता है।
(2) ऐसी संविदाएँ जिसमें व्यक्तिगत सेवा या व्यक्तिगत योग्यता (Personal service or personal qualification) अन्तर्ग्रस्त हो- विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 14 की उपधारा (1) का खण्ड (ख) तीन प्रकार की संविदाओं का उल्लेख करती है जिनका विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं किया जा सकता। ये निम्न हैं –
(i) जिन संविदाओं की शर्तें सूक्ष्म तथा अधिसंख्य ब्यौरे से (minute and numerous details) ग्रस्त हैं।
(ii) जिन संविदाओं में संविदा का पालन पक्षकारों की व्यक्तिगत सेवा या व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित है या पक्षकारों की इच्छा पर समाप्त की जा सकती हों।
(iii) जिन संविदाओं की प्रकृति से स्पष्ट है कि न्यायालय द्वारा उनका विनिर्दिष्ट पालन का आदेश प्रवर्तन करा पाना सम्भव नहीं होगा।
(i) जिन संविदाओं की शर्तें सूक्ष्म तथा अधिसंख्य ब्योरेवार हैं –
इस प्रकार की संविदाओं का उदाहरण एक भवन निर्माण की संविदाएँ हैं। इन संविदाओं की शर्तें छोटी-छोटी तथा बहुसंख्य एवं ब्योरेवार होती हैं। इनके अनुपालन में न्यायालय के सतत् पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है जो न्यायालय के लिए सम्भव नहीं है अतः इनका विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
(ii) जिन संविदाओं का पालन व्यक्तिगत सेवा तथा व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित होता है –
ऐसी संविदा जिनमें एक चित्रकार से एक चित्र (Potrait) निर्मित करने की संविदा को जाती है या पुस्तक लिखने की संविदा की जाती है या किसी रंगशाला में गीत गाने की संविदा की जाती है। ऐसी संविदाएँ व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर होती हैं। इनका विशिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
(iii) जहाँ संविदा की प्रकृति से यह स्पष्ट है कि न्यायालय उसके विनिर्दिष्ट अनुपालन को लागू या प्रवर्तित नहीं करा सकती। उनका विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता।
उदाहरण के रूप में भागीदार संचालित करने (carry on partnership) की संविदा को लागू कराना न्यायालय के लिए कठिन होता है, अतः न्यायालय ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करने से इन्कार कर सकती है।
(3) ऐसी संविदा जिसकी प्रकृति से स्पष्ट है कि संविदा पक्षकारों की इच्छा पर समाप्त या निरस्त (determinable) की जा सकती है। जैसे विवाह की संविदा की प्रकृति से ही स्पष्ट है कि पक्षकार अपनी इच्छा से इसे विखण्डित कर सकते हैं तथा ऐसी संविदा के पालन में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करना अर्थहीन होगा क्योंकि यदि पक्षकारों की इच्छा संविदा को लागू करने की नहीं है तो उन्हें विवाह को बनाये रखने के लिए बाध्य करना सम्भव नहीं होता।
अ तथा व एक व्यापार में भागीदार होने की संविदा करते हैं। इसका विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि यदि इसका अनुपालन कराने का आदेश भी दिया गया तो पक्षकार आदेश का पालन करने के तुरन्त पश्चात् भागीदारी को समाप्त करने के लिए स्वतन्त्र होने के कारण भागीदारी को समाप्त कर देंगे अतः न्यायालय का आदेश अर्थहीन हो जायेगा। इसी प्रकार संविदा निर्माण के पश्चात् यदि विधि में परिवर्तन के फलस्वरूप यदि संविदा शून्य हो जाती है तो ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
(4) ऐसी संविदा जिनके पालन के लिए न्यायालय का निरन्तर पर्यवेक्षण (continuous supervision) आवश्यक है- उदाहरण के लिए मेसर्स पराग इन्जीनियरिंग वक्स बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1989 गोहाटी 77 नामक वाद में वादी ने इस आशय का वाद प्रस्तुत किया जिसमें न्यायालय से यह अपेक्षा की गई की वह टेलीफोन विभाग को यह निर्देश दे कि टेलिफोन विभाग यह सुनिश्चित करे कि वादी का टेलोफोन ठीक रूप से कार्य करता रहे। न्यायालय ने इस संविदा के विशिष्ट पालन के आदेश को पारित करने से इन्कार कर दिया क्योंकि इसके विशिष्ट पालन को सुनिश्चित करने हेतु न्यायालय के लिए यह आवश्यक होगा कि न्यायालय सतत् पर्यवेक्षण करती रहे ऐसा किया जाना न्यायालय के लिए सम्भव नहीं है।
अ तथा व आपस में एक संविदा करते हैं जिसके अन्तर्गत अ व को यह अधिकार देता है कि, अ ने जो रेल लाइन व की भूमि पर निर्मित को है उसका प्रयोग ब 21 वर्ष तक करता रहे। इस संविदा के अनुसार इस रेल लाइन का रख-रखाव अ को करना है तथा व इस पर गाड़ी चलायेगा। संविदा की शर्तों के अनुसार इन्जिन की आपूर्ति अ द्वारा की जानी है। इस संविदा का विशिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि ऐसा आज्ञप्ति को लागू करने में न्यायालय का निरन्तर (सतत्) पर्यवेक्षण आवश्यक होगा।
(5) ऐसी संविदा जिसकी शर्तें अनिश्चित हों- यदि संविदा की शर्तों का उचित रूप से सुनिश्चित किया जाना सम्भव नहीं है तो ऐसी अनिश्चित शर्तों वाली संविदा का विनिर्दिष्ट पालन न्यायालय नहीं करायेगी।
अ एक कमरे का स्वामी है। व के साथ उसे अपने कमरे की वस्तुओं के विक्रय के लिए उपलब्ध कराने की संविदा करता है। संविदा में यह शर्त है कि अ, ब को आवश्यक साधनों को आपूर्ति करेगा। यहाँ प्रतिफल तथा साधनों की प्रकृति के बारे में निश्चित तथा स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इस संविदा की शर्तें अनिश्चित होने के कारण न्यायालय इस संविदा का विशिष्ट पालन कराने से इन्कार कर सकती है। इस प्रकार यदि संविदा की शर्तों को निश्चित किया जाना असम्भव है तो उसका विशिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
(6) माध्यस्थम की संविदाएँ (Contract of Arbitration)- यदि किसी माध्यस्थम के अन्तर्गत माध्यस्थम अधिनियम, 1940 के उपबन्धों के अधीन माध्यस्थम के •पक्षकारों की बाध्यता सुनिश्चित नहीं है, वहीं वर्तमान या भावी विवाद को माध्यस्थम को सुपुर्द करने की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराने से न्यायालय इन्कार कर सकती है।
(7) ऐसी संविदाएँ जो विधिक तौर पर मान्य नहीं है। शून्य हैं, इनका विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता- ऐसी संविदाएँ जो अधिकारातीत (ultra (vires) हैं वे विधितः शून्य होती हैं। ऐसी संविदाओं का विनिर्दिष्ट अनुपालन कराने से न्यायालय इन्कार कर सकती है। यदि एक न्यासी को न्यास की सम्पत्ति एक लाख रुपये से कम पर बेचने का अधिकार नहीं है तथा वह उस सम्पत्ति को पचास हजार में बेच देता है तो ऐसी संविदा अधिकारातीत संविदा है। ये विधित: मान्य नहीं होतीं अतः ऐसी संविदाओं का विनिर्दिष्ट अनुपालन नहीं कराया जा सकता। यदि संविदा अक्षम पक्षकार द्वारा की गई है तो यह विधितः मान्य नहीं है अत: उसका विनिर्दिष्ट अनुपालन कराने से न्यायालय इन्कार कर सकता है।
(8) जहाँ संविदा की विषय-वस्तु का सारवान भाग (Substantial part) अस्तित्वहीन (non-existence) हो गया हो –
जहाँ संविदा का सारवान भाग पक्षकार भूल या भ्रम के अन्तर्गत अस्तित्व में मानते हैं वस्तु वास्तव में संविदा के सारवान भाग का अस्तित्व ही नहीं है, ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन करने से न्यायालय इन्कार कर सकती है।
(9) जहाँ संविदा पक्षकारों के विकल्प पर प्रवर्तनीय है- यदि संविदा में यह शर्त है। कि संविदा पक्षकारों के विकल्प पर प्रवर्तनीय होगी, ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराने से न्यायालय इन्कार कर सकता है। सामान्यतः संविदा को परस्पर प्रवर्तनीय होना चाहिए। संविदा के दोनों पक्षकार संविदा को प्रवर्तित (लागू) करने के इच्छुक होने चाहिए। यदि संविदा में यह स्पष्ट शर्त है कि संविदा का प्रवर्तन एक पक्ष के विकल्प पर होगा तो ऐसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन कराने से न्यायालय इन्कार कर सकती है।
प्रश्न 25. (अ) व्यादेश से आप क्या समझते हैं? इनका वर्गीकरण करते हुए यह बतायें कि व्यादेश कितने प्रकार के होते हैं? व्यादेश जारी करने के पीछे सामान्य सिद्धान्त क्या हैं? स्थायी तथा अस्थायी व्यादेश में अन्तर स्पष्ट करें।
(ब) अस्थायी व्यादेश कब जारी (मंजूर ) किया जा सकता है? स्थायी व्यादेश कब जारी (मंजूर) किया जा सकता है ?
(स) व्यादेश कब मंजूर नहीं किया जा सकता?
अथवा
उन परिस्थितियों को बतावे जब व्यादेश मंजूर नहीं किया जा सकता।
(द) क्या नकारात्मक करार के पालन के लिए व्यादेश जारी किया जा सकता है? यदि हाँ तो किन परिस्थितियों में?
(य) (i) आज्ञात्मक व्यादेश तथा निषेधात्मक व्यादेश को समझाते हुए इनमें अन्तर करें।
(ii) निवारक अनुतोष तथा विनिर्दिष्ट पालन को समझाते हुए उनमें अन्तर स्पष्ट करें।
(A) What do you understand by Injunction? Classifying Injunction indicate its kinds? What is general principle for issuing Injunction? Distinguish between Temporary Injunction and Permanent or Perpetual Injunction.
(B) When the Temporary Injunction can be issued? When the Permanent Injunction can be issued?
(C) When Injunction cannot be issued?
Or
Discuss the circumstances in which the grant of Injunction can be refused.
(D) Can Injunction be issued for enforcement of negative contracts? If yes under what circumstances?
(E) (i) Explaining mandatory and prohibitory Injunctions distinguish them.
(ii) Explain preventive relief and specific relief and make difference between the two.
उत्तर (अ) – व्यादेश (Injunction)- व्यादेश न्यायालय का एक विशिष्ट आदेश है। जिसके द्वारा आशंकित अपकृत्य करने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है या यदि अपकृत्य प्रारम्भ हो गया है तो उसे जारी रखने को प्रतिबन्धित किया जाता है तथा कुछ मामलों में जहाँ इसे आज्ञात्मक व्यादेश (Mandatory injunction) कहा जाता है। इसके अन्तर्गत न्यायालय यथास्थिति के सक्रियात्मक स्थापन (active restitution) की आज्ञा देता है। बानें (Barney) के शब्द कोष में व्यादेश को एक ऐसी विधिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसके अन्तर्गत किसी ऐसे व्यक्ति को एक ऐसे अपकृत्य पूर्ण कार्य प्रारम्भ करने या उसे जारी रखने से रोका जाता है, जिसके द्वारा उस व्यक्ति ने किसी के विधिक अधिकारों पर आक्रमण किया है या आक्रमण करने जा रहा है। लार्ड हेल्सबरी व्यादेश की परिभाषा की स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “व्यादेश एक ऐसी विधिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक पक्षकार को एक विशिष्ट कार्य करने या उसे करते रहने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है।
पुराने चान्सरी व्यवहार में व्यादेश एक ऐसी साम्यापूर्ण (Equitable) निषेधात्मक याचिका (Prohibitory writ) थी जिसके द्वारा एक व्यक्ति को अपने ऐसे विधिक अधिकारों का प्रयोग करने से प्रतिबन्धित किया जाता था, जो साम्या तथा अन्तःकरण के प्रतिकूल होता है।
व्यादेश के लक्षण (Characteristics of injunction) –
(1) यह एक न्यायिक प्रक्रिया है
(2) इसका उद्देश्य प्रतिबन्ध या प्रतिषेध है।
(3) जिसे प्रतिबन्धित या निषेधित किया जाता है, वह एक अपकृत्य पूर्ण कार्य है।
(4) एक व्यादेश व्यक्तियों को प्रतिबन्धित करता है, प्रभावित करता है तथा भूमि के साथ जुड़ा नहीं होता।
व्यादेश जारी नहीं किया जा सकेगा –
(1) जब प्रतिकर उपयुक्त उपाय हो;
(2) जब व्यादेश उचित अनुतोष न दिलवा सकता हो। बोलीशन इन्वस्टमेन्ट लि० बनाम माधुरी जितेन्द्र, ए० आई० आर० (2003) बाम्बे 360
(3) जब वादी अपने ही दुराचरण के कारण व्यादेश का हकदार न हो;
(4) जब संविदा ऐसी हो कि उसका विनिर्दिष्ट पालन न करवाया जा सकता हो; तथा
(5) जब पक्षकारों के प्रति व्यादेश के असम्यक् परिणाम हों।
व्यादेश के प्रकार – व्यादेश सामान्य या विशिष्ट (Common or Special) हो सकता है। व्यादेश स्थायी या अस्थायी तथा निषेधात्मक या समादेशात्मक हो सकता है।
व्यादेश (Injunction)
समयावधि के आधार पर
ON BASIS OF TIME (DURATION)
अस्थायी स्थायी
(Temporary) (eeretual or Parmanent)
प्रकृति के आधार पर
ON BASIS OF NATURE
निषेधात्मक आज्ञात्मक या समादेशात्मक
(Prohibitory) (Mandatory)
व्यादेश जारी करने का सामान्य सिद्धान्त
(General princeple in granting injunction)
डॉ० पॉमेराय (Pomeroy) ने व्यादेश जारी करने के सामान्य सिद्धान्त को समझाते हुए कहा है कि व्यादेश जारी करने का प्रमुख सिद्धान्त यह है कि व्यादेश जारी करने का उद्देश्य सम्पत्ति से सम्बन्धित अधिकार को सुरक्षा प्रदान करना, किसी दायित्व का प्रवर्तन कराना (लागू कराना) तथा किसी अपकृत्य को रोकन है। व्यादेश जारी करने के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि यदि उपरोक्त से सम्बन्धित किसी समस्या का हल करने से सम्बन्धित प्रश्नों का नकारात्मक या सकारात्मक उत्तर है। यह सिद्धान्त सकारात्मक तथा नकारात्मक होता है।
व्यादेश जारी करने के पीछे सिद्धान्त यह है कि किसी पक्षकार के कार्यों द्वारा किसी अन्य पक्षकार को होने वाली अपूरणीय क्षति को व्यादेश जारी करके रोका जाये। इस प्रकार यदि किसी के कार्य करने से या कार्य करने से प्रविरत रहने से, अन्य व्यक्ति को अपूरणीय क्षति होने की सम्भावना है तो उस व्यक्ति को ऐसा कृत्य करने से रोका जाय या ऐसा कृत्य करने के लिए बाध्य किया जाय।
अ, ब का चिकित्सीय परामर्शदाता है। व ने अ से चिकित्सा के दौरान यह लिखित संसूचना दी थी कि वह अनैतिक जीवन जीता रहा है। अ, इस संसूचना को प्रकाशित करने की धमकी देता है। यदि अ यह संसूचना प्रकाशित कर देता है तो व को अपूरणीय क्षति होगी अतः ब न्यायालय द्वारा ऐसा व्यादेश जारी करने की याचना कर सकता है कि न्यायालय व को उक्त संसूचना को प्रकाशित करने से रोके।
स्थायी (शाश्वत) व्यादेश तथा अस्थायी व्यादेश में अन्तर
(धारा 37 )
स्थायी (शाश्वत) व्यादेश
(Perpetual Injunction)
1. स्थायी व्यादेश न्यायालय द्वारा तब प्रदान किया जाता है जब पक्षकार अपना अधिकार सिद्ध कर लेता है।
2. स्थायी व्यादेश आज्ञप्ति द्वारा पारित किया जाता है।
3. स्थायी व्यादेश के वाद का प्रभाव शाश्वत होता है।
4. स्थायी व्यादेश वाद के अन्तिम निर्णय हो जाने पर जारी किया जा सकता है।
5. स्थायी व्यादेश का उद्देश्य पक्षकार के अधिकार को संरक्षित करना है।
6. स्थायी व्यादेश विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 द्वारा विनियमित होते हैं।
अस्थायी व्यादेश
(Temporary Injunction)
1. अस्थायी व्यादेश वाद प्रस्तुत करने के पश्चात् किसी भी समय, वाद के किसी भी प्रक्रम (Stage) पर जारी किया जा सकता है।
2. अस्थायी व्यादेश न्यायालय के आदेश द्वारा पारित किया जाता है।
3. अस्थायी व्यादेश का प्रभाव वाद के अन्तिम निर्णय के होने तक ही रहता है।
4. अस्थायी व्यादेश वाद के दौरान अन्तिम निर्णय के पूर्व जारी किया जा सकता है।
5. अस्थायी व्यादेश का उद्देश्य यथास्थिति कायम रखना है।
6. अस्थायी व्यादेश दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा विनियमित होते है।
उत्तर (ब) – अस्थायी व्यादेश (Temporary Injunction)– धारा 37 की उपधारा (1) में अस्थायी व्यादेश को परिभाषित किया गया है “अस्थायी व्यादेश ऐसे व्यादेश होते हैं जिन्हें विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक, बने रहना है तथा वे बाद के किसी प्रक्रम में अनुदत्त किए जा सकेंगे, और सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का (S) द्वारा विनियमित होते हैं।”
अस्थायी व्यादेश एक ऐसा आदेश है जो न्यायालय द्वारा वाद के किसी प्रक्रम पर, वादग्रस्त सम्पत्ति को, वाद के अन्तिम निर्णय तक, अथवा न्यायालय के अग्रिम आदेश तक, यथास्थिति (Status quo) में बनाये रखने लिए प्रदान किया जाता है।
इसका मुख्य उद्देश वाद के लम्बित रहने के दौरान वादग्रस्त सम्पत्ति का संरक्षण प्रदान करना है। [मो० हाफिज खाँ बनाम श्रीमती नाजिबन बीबी और अन्य, 1973 जे० एल० जे० 114]
अस्थायी व्यादेश के सिद्धान्त – अस्थायी व्यादेश जारी करना या न करना, न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। अस्थायी व्यादेश जारी करने के पूर्व न्यायालय को यह समाधान होना आवश्यक है कि –
(1) पक्षकारों के मध्य एक सद्भावनापूर्ण विवाद वर्तमान है, अर्थात् किसी प्रथम दृष्ट्या मामले का होना आवश्यक है, ऐसे मामले में वादी को अनुतोष प्राप्त होने की सम्भावना अपेक्षित है। [श्रीमती विमला देवी बनाम जंगबहादुर, ए० आई० आर० 1977 राजस्थान 196]। वादी को अपना न्यायिक अधिकार सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे मात्र यह सिद्ध करना आवश्यक होता है कि जाँच के लिए एक सारवान तथ्य वर्तमान है, एवं जब तक उसका अन्तिम निर्णय नहीं हो जाता, तब तक मामले को यथास्थिति में रखना आवश्यक है। [जोन्स बनाम पैया, के० वी० 455; मो० फिरोज खाँ बनाम मुल्ला मुमताज हुसेन, 1963 एम० पी० एल० जे० 24]
(2) प्रतिवादी द्वारा किये जाने वाले कार्य से वादी के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है या होने की सम्भावना है।
(3) न्यायालय को इस बात से सन्तुष्ट होना चाहिए कि यदि व्यादेश जारी नहीं किया गया तो, इस बात की सम्भावना है कि वादी को ऐसी क्षति होगी जिसकी पूर्ति सम्भव नहीं होगी।
(4) यदि अन्य उपचार उपलब्ध हो तो व्यादेश जारी नहीं किया जायेगा, व्यादेश जारी करने के लिए यह आवश्यक है कि वैकल्पिक उपचार का अभाव हो ।
(5) न्यायालय को समाधान होना चाहिए कि, यदि व्यादेश वादी के पक्ष में जारी नहीं किया गया तो उसे ऐसी असुविधा होगी, जो प्रतिवादी के पक्ष में जारी किये जाने पर, उसको होने वाली असुविधा से अधिक होगी।
(6) वादी को व्यादेश की माँग करने में विलम्ब का दोषी नहीं होना चाहिए।
व्यवहार प्रक्रिया संहिता (1908 का 5) आदेश 39 नियम-1 अस्थायी व्यादेश और अन्तर्वर्ती (Interlocutory) आदेश के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है।
अस्थायी व्यादेश कब जारी किया जा सकता है? – आदेश 37 नियम-1 के अन्तर्गत उन दशाओं का उल्लेख किया गया है, जब अस्थायी व्यादेश जारी किया जा सकता है।
जहाँ किसी वाद में, शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा यह सिद्ध कर दिया जाय कि –
(i) वादग्रस्त सम्पत्ति को, वाद के किसी पक्षकार द्वारा, नष्ट किये जाने या उसे नुकसान पहुँचाए जाने या अन्तरित किये जाने का खतरा है।
(ii) प्रतिवादी ऋणदाताओं के साथ कपट करने के लिए, अपनी सम्पत्ति को हटाने या व्ययन करने की धमकी देता है।
(iii) प्रतिवादी वादी को वादग्रस्त सम्पत्ति से बेकब्जा करने, या अन्यथा उसे क्षतिग्रस्त करने की धमकी देता है।
तो न्यायालय अन्तिम निर्णय तक, अथवा अग्रिम आदेश तक उपर्युक्त कार्य से प्रतिविरल रहने के आशय का, अस्थायी व्यादेश जारी कर सकेगा।
आदेश 39 नियम-2 के अन्तर्गत वादी संविदा भंग को रोकने के निमित्त इस प्रकार का व्यादेश जारी करने की प्रार्थना कर सकता है। आदेश 39, नियम-2 (क) के अनुसार आदेश की अवहेलना करने पर सम्पत्ति को कुर्क, तीन माह का कारावास तथा न्यायालय की अवमानना के लिए दण्डित किये जाने का प्रावधान है।
आदेश 39 नियम-3 के अन्तर्गत न्यायालय का यह कर्तव्य है कि व्यादेश अनुदत करने के पूर्व वह विपक्षी को एक सूचना-पत्र जारी करे, यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि ऐसा सूचना-पत्र जारी करने में विलम्ब होगा और ऐसे विलम्ब से व्यादेश विफल हो जायेगा तो उस स्थिति में सूचना-पत्र जारी करना आवश्यक नहीं होगा, परन्तु इसका कारण अभिलिखित किया जायेगा। ऐसे अनुदत व्यादेश के आदेश की प्रति पंजीकृत पत्र द्वारा शपथ-पत्र के साथ, वाद पत्र व अन्य कागजात की प्रतिलिपि विपक्षी को भेजी जायेगी। आदेश 39. नियम-3 के अनुसार जहाँ व्यादेश विपक्षी को सूचना दिये बिना जारी किया जाय, वहाँ न्यायालय को, व्यादेश के आवेदन के तीस दिन के अन्दर निपटारा करने का प्रयास करना होगा। आदेश 39, नियम-4 व्यादेश की समाप्ति अथवा उसके परिर्वतन के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है।
आर्डर 39, नियम-5 निगम (Corporation) को व्यादेश जारी करने के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है
स्थायी व्यादेश कब जारी किया जा सकता है? (When Perpetual Injunction can be issued) स्थायी या शाश्वत व्यादेश (Perpetual Injunction or Permanent injunction)
स्थायी व्यादेश या शाश्वत व्यादेश, न्यायालय द्वारा किसी वादी की सुनवाई तथा उसके गुण-दोषों पर विचार करने के पश्चात् जारी किया जाने वाला ऐसा आदेश है जिसके द्वारा वादी के विरुद्ध किसी अधिकार का प्रयोग करने या वादी के अधिकारों के प्रतिकूल किसी कार्य को करने से प्रतिवादी को हमेशा के लिए [ शाश्वत काल (for perpetuity) के लिए] रोक दिया जाता है, व्यादिष्ट कर दिया जाता है। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 37 (2) में इसके बारे में उपबन्ध किया गया है।
स्थायी व्यादेश या शाश्वत व्यादेश के आवश्यक तत्व
(1) शाश्वत व्यादेश तभी जारी किया जा सकता है जब वादी ने अपना अधिकार सिद्ध कर दिया हो।
(2) शाश्वत व्यादेश गुणावगुण के आधार पर न्यायालय द्वारा आज्ञप्ति के माध्यम से जारी किया जाता है।
(3) शाश्वत व्यादेश न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को, बादी के अधिकारों के प्रतिकूल कार्य करने के लिए रोक लिया जाता है।
(4) शाश्वत व्यादेश के अन्तर्गत प्रतिवादी को शाश्वत काल (हमेशा) के लिए बादी के अधिकारों के प्रतिकूल कार्य करने से रोक दिया जाता है।
(5) यह विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 द्वारा विनियमित होता है।
शाश्वत व्यादेश कब अनुदत्त किया जाता है?
अधिनियम की धारा 38 के अनुसार –
(1) शाश्वत व्यादेश, बादी के पक्ष में, अभिव्यक्त या उपलक्षित आभारों के भंग को रोकने के लिए न्यायालय के विवेकानुसार प्रदा किया जा सकता है।
(2) जब किसी आभार का उद्भव संविदा से हो, तो विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के अध्याय ॥ (धारा 9 से 25) तक में अन्तर्विष्ट नियम व उपबन्ध, न्यायालय का मार्गदर्शन करेंगे।
आभार (obligation) का तात्पर्य– विधिक बाध्यता अर्थात् विधि द्वारा प्रवर्तनीय कर्तव्य शाश्वत व्यादेश तभी जारी किया जाता है जब ऐसा कर्तव्य वर्तमान हो।
दृष्टान्त – ‘क’ अपनी भूमि ‘ख’ को पट्टे पर देता है एवं ‘ख’ के साथ संविदा करता है. कि वह उसमें से बालू, रेत, केकड़ नहीं निकालेगा। ‘ख’ यदि बालू, रेत, कंकड़ निकालता है तो ‘क’ संविदा भंग के आधार पर ‘ख’ को बालू, रेत, कंकड़ निकालने से रोकने के लिए बाद प्रस्तुत कर सकता है।
(3) जब प्रतिवादी, वादी के सम्पत्ति के अधिकार या उपभोग पर आक्रमण करता है या आक्रमण की धमकी देता है, तो न्यायालय निम्न दशाओं में व्यादेश अनुदत्त कर सकता है –
(i) जहाँ तक कि, प्रतिवादी, वादी के लिए उस सम्पत्ति का न्यासी हो।
(ii) जहाँ कि उस वास्तविक हानि को, जो उस आक्रमण द्वारा कारित है या जिसका उस आक्रमण द्वारा कारित होना सम्भाव्य है, अभिनिश्चित करने के लिए कोई मानक विद्यमान न हो।
(iii) जहाँ कि आक्रमण ऐसा हो, कि धन के रूप में प्रतिकर यथायोग्य अनुतोष न देना।
(iv) जहाँ कि व्यादेश न्यायिक कार्यवाहियों में वाद बाहुल्य निवारित करने के लिए आवश्यक हो।
किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में शाश्वत व्यादेश तभी जारी किया जा सकता है, जब बादी यह साबित कर दे कि विवादित सम्पत्ति उसके वास्तविक कब्जे में है। [महादेव बनाम दीनबन्धु, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 152]
हरी राम बनाम ज्योति प्रसाद, ए० आई० आर० (2011) सु० को० 952 के बाद में अनधिकृत निर्माण को हटाने तथा शाश्वत व्यादेश जारी करने का वाद लाया गया। प्रतिवादी ने विवादित गली पर अपने मकान का कुछ भाग बना लिया था जो बी० डी० ओ० की रिपोर्ट में प्रमाणित भी हो गया था। उच्चतम न्यायालय ने इसे अतिक्रमण माना तथा बादी के पक्ष में निर्णय दिया।
उत्तर (स)– व्यादेश कब नामंजूर किया जाता है? (Injunction when (refused)- धारा 41 में उन दशाओं में यादेश का उल्लेख किया गया है जिनमें व्यादेश अनुदत्त नहीं किया जा सकता। सामान्यत: ये दशाएँ ऐसी होती हैं जो या तो साम्य के सिद्धान्तो के विपरीत हैं या उनके लिए व्यादेश के अतिरिक्त अन्य अनुतोष उपलब्ध हैं या जो विधि के उपबन्धों का उल्लंघन करने वाली हैं।
निम्नलिखित दशाओं में व्यादेश अनुदत नहीं किया जा सकता-
(1) ऐसे वाद के प्रस्तुत किये जाने के समय, जिसमें व्यादेश चाहा जाता हो, लम्बित किसी न्यायिक कार्यवाही चलाने से, किसी व्यक्ति को अवरुद्ध करने के लिए, जब तक कि ऐसा अवरोध कार्यवाहियों के बाहुल्य को रोकने के लिए आवश्यक न हो।
दृष्टान्त – एक निर्णीत ऋणी, डिक्री के निष्पादन को व्यादेश द्वारा रोकने के लिए डिक्रोदार के, उसके निष्पादन न कराने के आधार पर, वाद प्रस्तुत किया गया। ऐसा करार न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था। यह धारित किया गया कि व्यादेश प्रदान नहीं किया जा सकता। [21 कलकत्ता 431]
(2) ऐसे न्यायालय में, जो उस न्यायालय के अधीनस्थ नहीं है जिसमें व्यादेश चाहा गया, किसी व्यक्ति को, किसी कार्यवाही को प्रारम्भ करने, या चलाने से रोकने के लिए। [ए० आई० आर० 1990 कर्नाटक 32]
(3) किसी दाण्डिक मामले में, किसी कार्यवाही को प्रारम्भ करने या चलाने से रोकने के लिए। [काली प्रसाद बनाम गंगाधर साहू, ए० आई० आर० 1978 उड़ीसा 8]
(4) ऐसी संविदा का भंग निवारित करने के लिए, जिनका विनिष्टितः पालन प्रवर्तनीय नहीं है।
(5) किसी ऐसे कार्य को, उपताप (न्यूसेन्स) के आधार पर निवारित करने को, जिसके सम्बन्ध में यह युक्तियुक्त तौर पर स्पष्ट न हो कि वह उपताप हो जायेगा।
“सामान्यतया जबकि उपताप द्वारा पहुँचायी जाने वाली हानि तुच्छ हो, गम्भीर न हो, तो कथित उपताप से सातत्व (Continuance) के निग्रहण के लिए व्यादेश प्रदान नहीं किया जायेगा या जब हानिपूर्ति द्वारा क्षति का पर्याप्त प्रतिकर हो जाता है।” [ हैलसबरी-लॉ ऑफ इंग्लैण्ड वाल्यूम 26, पेज 91]
राजसिंह बनाम गजराज सिंह [ए० आई० आर० 1958 इलाहाबाद 335] के बाद में वादी ने यह कथन किया कि प्रतिवादी के ईंटों के भट्ठे से वादी के बाग, फलों व वृक्षों को क्षति पहुँच रही है, प्रतिवादी से भट्ठे को वादों के बाग से काफी दूर हटा ले जाने के लिए कहा गया। वादी ने, न्यायालय से प्रतिवादी के भट्ठे को बाग से 500 गज दूर चलाने का निर्देश देने के लिए न्यायालय में आज्ञापक व्यादेश जारी करने की प्रार्थना किया।
न्यायमूर्ति श्री श्रीवास्तव ने अवलोकन किया कि किसी व्यादेश को अनुदत्त किए जाने के पूर्व, बादी को यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि उपताप (Nuisance) जिस पर वह आपत्ति कर रहा है, अभियोज्य है तथा उसके द्वारा सम्पत्ति को सारवान क्षति पहुँचने की आशंका है।
सारवान का आशय – यथार्थ या वास्तविक तुच्छ महत्वहीन, काल्पनिक, प्रातीतिक, अस्थायी उपताप के मामले में व्यादेश निर्गत नहीं किया जा सकता है।
(7) किसी ऐसे निरन्तर भंग को रोकने के लिए, जिसके बारे में वादी की मौन अनुमति रही हो।
रामनाथ बनाम जय किशन [1 डब्ल्यू० आर० 288] के बाद में वादी ने सड़क के निर्माण के पूर्ण हो जाने के समय तक उस पर आपत्ति नहीं किया। यह धारण किया गया कि वह इसके निर्माण कार्य के बन्द कराने के लिए वाद प्रस्तुत करने के लिए अधिकृत नहीं है।
(8) न्यास भंग को छोड़कर, जब किसी अन्य कार्यवाही द्वारा समतुल्य अनुतोष प्रदान किया जा सकता है।
(9) जब आवेदनकर्ता या अभिकर्ता का आचरण ऐसा रहा हो कि वह उसे न्यायालय से सहायता प्राप्त करने से वंचित कर दे।
(10) जब वादी का उस मामले में कोई वैयक्तिक हित न हो।
प्रेम जी रत्नेकशाह बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1994) 5 एस० सी० सी० 547 के बाद में मत व्यक्त किया गया कि किसी अतिचार करने वाले व्यक्ति के पक्ष में व्यादेश जारी नहीं किया जा सकता और न ही किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में जिसने किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का कब्जा अविधिक रूप से प्राप्त कर लिया हो।
एस० जाफरवाल बनाम पी० पेहडा सिदईया, ए० आई आर० (2003) एन० ओ० सी० 219 (आन्ध्र प्रदेश) के एक वाद में एक ऐसे व्यक्ति को व्यादेश अनुदत्त नहीं किया गया। जिसके बारे में सरकारी रिपोर्ट यह थी कि वह प्रश्नगत भूमि पर कब्जा नहीं रखता था जिसकी पुष्टि न्यायालय के समक्ष हुई।
गुण्डाला सथैया बनाम गुण्डाला मलईया, ए० आई० आर० (2003) एन० ओ० सी० 180 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि कब्जा साबित करने में असफल होने पर कब्जा व स्वामित्व की सुरक्षा हेतु व्यादेश प्राप्त नहीं होगा। शिवप्पा बनाम एडमिनिस्ट्रेटर महादेव टेक्साइटल मिल्स, ए० आई० आर० (2006) कर्नाटक 114 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि भूमि के वास्तविक स्वामी के विरुद्ध व्यादेश जारी नहीं किया जा सकता।
उत्तर (द) – आज्ञापक व्यादेश (Mandatory Injunction)– आज्ञापक व्यादेश में न्यायालय किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए आदेश देता है। यह एक ऐसा व्यादेश है जो यह अपेक्षा करता है कि जो कुछ अपकृत्य किया जा चुका है, उसे समाप्त कर यथास्थिति में लाया जाय तथा भविष्य (आगे) में उसे करने से रोका जाय।
धारा 39 के अनुसार “जबकि किसी बाध्यता के भंग के निवारण के लिए कतिपय ऐसे कार्यों का, जिनका प्रवर्तन कराने को न्यायालय समर्थ है, पालन विवश करना आवश्यक है, तब न्यायालय परिवादित भंग को निवारित करने और अपेक्षित कार्यों का पालन विवश करने के लिए भी, स्वविवेक अनुदत्त कर सकेगा।”
आज्ञापक व्यादेश के आवश्यक तत्व
(1) वादी के प्रति प्रतिवादी पर विधिक दायित्व या आभार– आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त किए जाने के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि प्रतिवादी पर कुछ विधिक दायित्व या आभार हैं।
(2) विधिक दायित्वों या आभार का भंग किया जाना – प्रतिवादी द्वारा विधिक दायित्वों या आभार का भंग किया जाना, आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त की आवश्यक शर्त है।
(3) अतिलंघन या भंग, रोकने के कार्यों का निर्धारण- आज्ञापक व्यादेश अनुदत किये जाने के लिए, इस बात पर विचार किया जाता है कि अतिलंघन को रोकने के लिए कौन-कौन से कार्यों का कराया जाना आवश्यक है।
(4) न्यायालय की सक्षमता– आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त किये जाने के लिए यह प्रश्न है कि क्या न्यायालय ऐसे कार्यों का प्रवर्तन करने के लिए सक्षम है, नहीं।
(5) आर्थिक प्रतिकर की अपर्याप्तता– जहाँ आर्थिक प्रतिकर पर्याप्त हो, वहाँ आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त नहीं किया जायेगा।
(6) न्यायालय का विवेकाधिकार– आज्ञापक व्यादेश अनुदत्त करना या न करना न्यायालय के विवेक पर आधारित है अर्थात् इस सम्बन्ध में न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है। न्यायालय अपने विवेक का प्रयोग, अत्यन्त सावधानीपूर्वक वाद के सभी तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करके करता है। न्यायालय न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करता है। [राम अवलम्ब बनाम जटाशंकर, 1968 ए० एल० जे० 1108] इस सम्बन्ध में निश्चित नियम प्रतिपादित करना सम्भव नहीं है।
दृष्टान्त
(1) महावीर बनाम श्रीमती दयावती [ए० आई० आर 1977 इलाहाबाद 393] के वाद में प्रतिवादी ने ऐसे छज्जे का निर्माण किया जो कि वादी की भूमि पर जाता है, यहाँ आज्ञापक व्यादेश जारी किया जा सकता है।
(2) ‘क’ एक भवन का निर्माण कर रहा है जो ‘ख’ को मिलने वाले प्रकाश में बाधक है जिसका कि उसे संविधि के अन्तर्गत अधिकार है। ‘ख’ ऐसा व्यादेश प्राप्त कर सकता है जो कि न केवल भवन के निर्माण को रोकने के लिए हो, बल्कि मकान का उतना भाग, जितना कि ‘ख’ के प्रकाश में बाधक है, गिराने के लिए व्यादेश देगा।
(3) महावीर चौधरी बनाम यदुनन्दन तिवारी [ए० आई० आर० 1977 पृष्ठ 338] – प्रतिवादी की भूमि पर स्थित वृक्ष, वादी की फसल को क्षति, एवं उत्पादन क्षमता पर कुप्रभाव डालते थे। न्यायालय ने आज्ञापक व्यादेश जारी करके वृक्षों को काटकर हटाये जाने का व्यादेश दिया।
(4) मधु सिंह बनात साँवला [ए० आई० आर० 1971 राजस्थान 241]- प्रतिवादी ने अपने मकान की छत को इतना ऊँचा कर दिया कि उसके छत का पानी वादी के आंगन में गिरने लगा, यदि ऐसा करने दिया जाय तो कुछ समय बाद प्रतिवादी को सुखाधिकार सृजित हो जायेगा। अतः न्यायालय ने पानी का बहाव वादी के आंगन की तरफ रोकने के लिए व्यादेश जारी किया।
(5) शंकर कुमार बनाम मोहन लाल शर्मा [ए० आई० आर० 1998 उड़ीसा 116]-उड़ीसा उच्च न्यायालय ने इस वाद में अपना मत व्यक्ति किया कि “वादी प्रतिवादी की कमजोरी का फायदा प्राप्त नहीं कर सकता।” यदि वादी यह कहता है कि विवादित भूमि मेरी है तो उसे यह सिद्ध करना होगा, मात्र इस आधार पर व्यादेश प्राप्त नहीं कर सकता कि प्रतिवादी अपना मामला सिद्ध करने में असफल रहा।
गुरूनाथ मनोहर पनास्कर बनाम नागेश सिदप्पा नवल-नंद, ए० आई० आर० (2008) ए० सी० 901 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि वादी के स्वत्व को विनिश्चित किए बिना आज्ञापक प्ररूप में स्थायी व्यादेश के लिए डिक्री जारी करना उचित नहीं तथा राजस्व अभिलेख स्वत्व का दस्तावेज नहीं। यह केवल कब्जे की उपधारणा करता है। अतः वादी का स्वत्व विनिश्चित किए बिना केवल राजस्व अभिलेख के आधार पर आज्ञापक व्यादेश की डिक्री जारी करना अनुचित है।
निषेधात्मक व्यादेश (Prohibitory Injunction)-निषेधात्मक व्यादेश एक ऐसा व्यादेश है जो प्रतिवादी को ऐसे कोई कार्य करने से रोकता है, जिससे कि वादी के किन्हीं वैध या साम्यिक अधिकारों का अतिलंघन होता है।
दृष्टान्त– ‘क’ ‘ख’ का एक चिकित्सकीय परामर्शदाता है। वह ‘ख’ से कुछ धन की माँग करता है, ‘ख’ ऐसा धन देने से इन्कार करता है। ‘क’ उन सूचनाओं के प्रकट करने की धमकी देता है जो उसे ‘ख’ से रोगी के रूप में प्राप्त हुई हैं। ‘ख’ ‘क’ को ऐसा करने से रोकने के लिए निषेध व्यादेश प्राप्त कर सकता है।
आज्ञापक और निषेधात्मक व्यादेश में अन्तर
(1) आज्ञापक व्यादेश में न्यायालय किसी कार्य को करने का आदेश देता है। इसके विपरीत निषेधात्मक व्यादेश में न्यायालय किसी कार्य को न करने का आदेश देता है।
(2) आज्ञापक व्यादेश उस स्थिति में जारी किया जाता है जबकि अस्थायी आदेश से कोई अर्थ नहीं निकलता।
उत्तर (य) – निवारक अनुतोष तथा विशिष्ट या विनिर्दिष्ट अनुतोष निवारक अनुतोष का आशय- निवारक अनुतोष एक ऐसा अनुतोष है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति कोई कार्य करने से निवारित किया जाता है, जिसे वह विधिमान्यत: करने के लिए दायी नहीं है। जैसे ‘क’ ‘ख’ की जमीन पर दीवाल बना रहा है, ‘ख’ के द्वारा बाद प्रस्तुत करने पर, न्यायालय ‘क’ को ऐसा मना करके, ‘ख’ को अनुतोष (निवारक) प्रदान करेगा। न्यायालय द्वारा ऐसा अनुतोष व्यादेश (Injunction) द्वारा अनुदत्त किया जाता है। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धाराएँ 36-43 निवारक अनुतोष के सम्बन्ध में उपबन्ध करती हैं।
धारा 36 स्पष्ट करती है कि निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार अस्थायी या शाश्वत व्यादेश द्वारा अनुदत्त किया जाता है। न्यायालय स्वविवेकानुसार निवारक अनुतोष प्रदान करता है, यह न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति है। न्यायालय अपने विवेक का प्रयोग न्यायिक सिद्धान्तों पर करता है अर्थात् यह मनमाना न होकर विधिक व नियमित होता है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष का आशय (Meaning of specific relief)
विनिर्दिष्ट अनुतोष का शब्दिक अर्थ– वस्तु के रूप में अनुतोष (Relief in Specie)। जब दो पक्षकारों के मध्य सृजित संविदा का उल्लंघन एक पक्षकार द्वारा किया जाता है तो उस पक्षकार को उन कार्यों को करने के लिए विवश करना, जैसा करना या न करना उसने स्वीकार किया हो।
किसी संविदा के उल्लंघन, अपकृत्य, या क्षति के विरुद्ध प्राय: दो उपचार प्रदान किए जाते हैं। प्रथम, जिसमें वादी उसी वस्तु को प्राप्त कर लेता है जिसका कि वह अधिकारी है, द्वितीय, उपचार के अन्तर्गत वादी उसी वस्तु को नहीं बल्कि क्षति के लिए प्रतिकर प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रथम उपचार विनिर्दिष्ट अनुतोष, द्वितीय प्रतिकारात्मक अनुतोष कहा जाता है।
भारत में विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अन्तर्निहित सिद्धान्त वही है जो कि इंग्लैण्ड के साम्या न्यायालयों में प्रचलित थे। इस प्रकार परिषद में विधेयक प्रस्तुत किये जाने के समय यह अवलोकन किया गया कि “भारत में यह बड़ा लाभ है कि प्रत्येक प्रकार के न्याय प्रशासन के लिए एक हो न्यायालय होता है, जिसके द्वारा हम उन अनेक अतिसूक्ष्मताओं तथा रहस्यात्मकताओं से छुटकारा पा सकते हैं जो न्यायालयों द्वारा प्रशासित इस प्रकार के अधिकार क्षेत्र में व्याप्त हैं। परन्तु फिर भी अनुतोषों के दो बड़े वर्गों (विधिक अथवा प्रतिकारात्मक एवं साम्यिक अथवा विशिष्ट) के बीच अन्तर अभी बना हुआ है। यह तथ्य कि विनिर्दिष्ट अनुतोष से अधिक सुस्पष्ट होते हुए भी इसका प्रशासन सूक्ष्म तथा अधिक कठिन था, यह कि न्यायाधीश से अधिक कौशल तथा सावधानी अपेक्षित है इसलिए उसे विधान मण्डल द्वारा कुछ मार्गदर्शन स्वीकार्य होगा।”
निवारक अनुतोष व विनिर्दिष्ट पालन में अन्तर
निवारक अनुतोष
1. निवारक अनुतोष किसी व्यक्ति को ऐसा कोई “कार्य करने से रोककर” अनुदत्त किया जाता है जिसके करने से अन्य व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण होता है।
2. निवारक अनुतोष नकारात्मक प्रकृति का होता है।
3. निवारक अनुतोष दोषयुक्त कृत्यों से सम्बन्धित है चाहे वह संविदा से सम्बन्धित हो, या अपकृत्य से।
4. निवारक अनुतोष का उद्देश्य किसी कार्य विशेष को करने से रोकना है।
विनिर्दिष्ट पालन
1. जबकि विनिर्दिष्ट पालन के अन्तर्गत न्यायालय व्यक्ति को वही कार्य करने का आदेश देता है जिसको करने का उस पर दायित्व या आभार है।
2. विनिर्दिष्ट पालन सकारात्मक प्रकृति का होता है।
3. विनिर्दिष्ट पालन केवल संविदा से सम्बन्धित होता है।
4 विनिर्दिष्ट पालन का उद्देश्य संविदा का यथावत पालन है।
प्रश्न 26. घोषणात्मक आदेश से आप क्या समझते हैं? उसकी आवश्यक शर्तें समझाइए। ऐसी आज्ञप्ति का क्या प्रभाव है? क्या ऐसी आज्ञप्ति के लिए परिणामिक अनुतोष की माँग किया जाना आवश्यक है?
या
एक घोषणात्मक आज्ञप्ति क्या है? कब कोई व्यक्ति घोषणात्मक आज्ञप्ति प्राप्त करने के लिए वाद दायर कर सकता है? घोषणात्मक आज्ञप्ति के प्रभाव का वर्णन करें।
या
भारत में घोषणात्मक अनुरोध के सिद्धान्तों का क्षेत्र विस्तार में लिखें। न्यायालय एक घोषणात्मक आज्ञप्ति कब पारित कर सकता है? कब न्यायालय ऐसी आज्ञप्ति पारित करने से अस्वीकार कर सकता है?
What do you understand by declaratory decree? Explain its essential conditions. What is effect of such decree? Is it necessary to ask for resultent relief for such decree?
Or
What is declamatory decree? When any person can file a suit for obtaining declaratory decree? Describe the effect of declaratory decree.
Or
Describe the scope and jurisdiction of principles of a remedy for declaratory reliefs. When a court can pass declaratory decree. When the court can refuse to pass declaratory decree.
उत्तर–घोषणात्मक आज्ञप्ति (Declaratory decree)- कभी-कभी एक व्यक्ति जिसके अधिकार पर विवाद नहीं होता तथा वह व्यक्ति अपने किसी अधिकार के अस्तित्व के बारे में भ्रम में होता है तो न्यायालय से उसके अधिकार के अस्तित्व की घोषणा करने या मान्यता देने का अनुरोध वाद लाकर कर सकता है। इस प्रकार घोषणात्मक आज्ञप्ति उपचार का एक ऐसा माध्यम है जिसमें न तो प्रतिकर प्राप्त होता है न ही संविदा का विनिर्दिष्ट पालन कराया जाता है। इसमें वादी के अधिकारों या अधिकार को घोषणा कर न्यायालय एक प्रकार से वादी के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। इस आज्ञप्ति के अन्तर्गत वादी के पक्ष में अधिकारों की घोषणा मात्र होती है अतः वादों को प्रतिवादों से कुछ पाना नहीं होता। घोषणात्मक आज्ञप्ति का आशय एक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना अथवा उन्हें यथास्थान रखना है। इस प्रकार घोषणात्मक आज्ञप्ति के माध्यम से न्यायालय किसी व्यक्ति के पक्ष में किसी नवीन अधिकार का सृजन नहीं करती परन्तु विद्यमान (अस्तित्वाधीन) किसी अधिकार को घोषित करती है जिसका वह पहले से अधिकारी था। इस प्रकार घोषणात्मक आदेश किसी व्यक्ति के अपने किसी अधिकार की घोषणा कर उस सम्बन्ध में भ्रम को समाप्त करने हेतु ऐसे अधिकारों को मान्यता देती है।
भारत में सर्वप्रथम इसका प्रावधान सन् 1854 में तत्कालीन प्रेसीडेन्सी नगरों में स्थित सुप्रीम न्यायालय के सम्बन्ध में किया गया था। उसके पश्चात् इस सम्बन्ध के प्रविधान सन् 1859 की दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 15 में किया गया। 1877 में 1859 की दीवानी प्रक्रिया संहिता के निरस्त होने पर वह प्रावधान 1877 को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 42 में परिवर्तित हुआ जब सन् 1963 में वर्तमान विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम पारित हुआ तो यह प्रावधान इसकी धारा 34 में किया गया।
घोषणात्मक आज्ञप्ति के सम्बन्ध में प्रावधान विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 34 के अन्तर्गत किया गया है। इस धारा के अनुसार कोई व्यक्ति जो किसी विधिक चरित्र का, या किसी सम्पत्ति से सम्बन्धित किसी अधिकार का हकदार या अधिकारी है तो वह किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध वाद संस्थित कर सकता है जो उसके इस विधिक चरित्र या अधिकार से इन्कार करता है या इन्कार करने में हितबद्ध है, तथा न्यायालय अपने विवेकानुसार, उस वाद में ऐसी घोषणा कर सकती है कि वह (वादी) ऐसे अधिकार या विधिक चरित्र का हकदार (entitled) है। यह आवश्यक नहीं है कि वादी ने प्रश्नगत् में अनिश्चित उपचार की माँग की हो। इस अधिनियम की धारा 35 घोषणात्मक आज्ञप्ति के प्रभाव (effect) का वर्णन करती है।
उदाहरण- (क) एक भूखण्ड पर अ का उचित कब्जा है। समीपवर्ती गाँव के निवासी उस भूखण्ड पर रास्ते के अधिकार का दावा करते हैं। अ, इस घोषणा के लिए वाद कर सकता है कि उन्हें ऐसे रास्ते का अधिकार नहीं है जिसका कि वे दावा कर रहे हैं।
(ख) अ, एक ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण व के पक्ष में करता है जिस पर उसे जीवनहित है। यह अन्तरण अवैध है। स जो ब का revisioner है। स अ तथा व के विरुद्ध इसके लिए दावा कर सकता है कि न्यायालय यह घोषणा करे कि उसका प्रश्तगत सम्पत्ति पर अधिकार है।
(ग) एक सम्पत्ति अ के कब्जे में है। व यह आरोप लगाता है कि वह सम्पत्ति का स्वामी है तथा अ से उस सम्पत्ति को परिदत्त करने को कहता है। यहाँ अ न्यायालय में घोषणात्मक आज्ञप्ति के लिए वाद लाकर न्यायालय से यह घोषणा करने के लिए कह सकता है कि वह भूमि को धारण करने का अधिकार रखता है।
घोषणात्मक आज्ञप्ति की आवश्यक शर्ते- घोषणात्मक आज्ञप्ति प्राप्त करने हेतु निम्न शर्तों का पालन किया जाना आवश्यक है –
(1) वादी के किसी विधिक चरित्र (स्थिति) (Legal character) या सम्पत्ति में किसी अधिकार का अस्तित्व आवश्यक है (Existence of Legal Character or any right in respect of property in favour of plaintiff) –
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कोई ऐसा व्यक्ति जिसे कोई विधिक (स्थिति) चरित्र या किसी सम्पत्ति में कोई अधिकार भविष्य में प्राप्त होने की सम्भावना है तो वह घोषणात्मक वाद नहीं ला सकता। शिव प्रसन्न सिंह बनाम रामनन्द सिंह, (1916) आई० ए० 43 नामक वाद में यह निर्णीत किया गया कि ऐसा व्यक्ति जो किसी सम्पत्ति में विधिक हैसियत या अधिकार नहीं रखता, घोषणात्मक आज्ञप्ति प्राप्त करने हेतु बाद नहीं ला सकता।
स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम मोतीलाल शर्मा, ए० आई० आर० 1998 एस० सी० 743 नामक बाद में एक व्यक्ति ने त्याग पत्र दिया। बैंक ने त्याग पत्र की स्वीकृति की सूचना नहीं दी। वह इस बात के लिए घोषणात्मक बाद ला सकता है कि न्यायालय यह घोषणा करे कि वह अभी भी सेवा में है।
(2) प्रतिवादी द्वारा बादी की विधिक स्थिति या विधिक अधिकार या हैसियत में इन्कार किया जाना या इन्कार करने में अभिरुचि या हित रखना (The defendant must have denied or must be interested in denial of the legal character For right of plaintiff)- यह घोषणात्मक वाद लाये जाने की महत्त्वपूर्ण शर्त है। इसके अनुसार प्रतिवादी का हित बादी की विधिक स्थिति या बादी के हित के विपरीत होना चाहिए। यहाँ वादी की विधिक स्थिति या वादी के अधिकार के अस्तित्व से प्रतिवादी इन्कार करता है यही पर्याप्त नहीं है यदि प्रतिवादी की रुचि बादी की विधिक स्थिति से इन्कार करने में है तो भी घोषणात्मक आज्ञप्ति के लिए याद लाया जा सकता है।
(3) घोषणात्मक वाद, विधिक स्थिति या सम्पत्ति में अधिकारों की घोषणा के लिए होना चाहिए (The declaratory suit must be for declaration of a legal character (Status) or any right in the property)- यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि घोषणात्मक बाद में वादी कोई प्रतिकर या विशिष्ट अनुपालन की माँग नहीं करता वह सिर्फ अपनी विधिक स्थिति या अधिकार की न्यायालय से मान्य (recognise) करने की आशा रखता है जिससे उसकी स्थिति या अधिकार सुनिश्चित हो सकें।
(4) अपने स्वत्व (Title) की घोषणा के अतिरिक्त किसी अन्य अनुतोष की माँग करने की वादी की स्थिति नहीं होती। (The plaintiff is not in position to demand any further remedy except the declaration of his legal (Status) character or his right)-अब्दुल रुऊफ बनाम अबू अहमद, ए० आई० आर० 1977 एन० ओ० सी० 280 कलकत्ता नामक वाद में यह निर्धारित किया गया कि यदि सम्पत्ति वादी के कब्जे में नहीं है तो घोषणात्मक आज्ञप्ति तब तक पारित नहीं की जा सकती जब तक वह ऐसी सम्पत्ति के कहने की या दस्तावेज को निरस्त करने की आनुषंगिक माँग नहीं करता।
न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति (Discretion of Court)– घोषणात्मक आज्ञप्ति की माँग वादी अधिकार पूर्वक नहीं कर सकता। घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित करना या न करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यदि न्यायालय यह समझता है कि वादी को विधिक स्थिति अथवा किसी सम्पत्ति मे अधिकार को खतरा उत्पन्न हो गया है तथा उसे सुरक्षा प्रदान करना आवश्यक है तो यदि घोषणात्मक आज्ञप्ति के साथ अन्य कोई अनुतोष माँगा जाना वांछनीय है तथा वह अनुतोष नहीं माँगा गया है तो न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति में ऐसे अनुतोष के सम्बन्ध में घोषणा करने से इन्कार कर सकता है।
घोषणात्मक आज्ञप्ति के अन्तर्गत घोषणा का प्रभाव (Effect of declaration in declaratory decree)- धारा 34 के अधीन की गई घोषणा, केवल वाद के पक्षकारों और उसके माध्यम से अधिकार जताने वाले व्यक्तियों (हित प्रतिनिधियों) पर बन्धनकारी होती है यह प्रविधान धारा 35 में किया गया है। यदि पक्षकारों में से कोई न्यासी हो तो वह न्यासी भी घोषणात्मक आज्ञप्ति से बाध्य होगा। दूसरे शब्दों में घोषणात्मक आज्ञप्ति व्यक्ति सम्बन्धी होते हैं। यह सिर्फ पक्षकारों तथा उनके हित प्रतिनिधियों पर बाध्य होती है। संसार के सभी व्यक्तियों पर बाध्यकारी नहीं होती।
उदाहरण – क एक हिन्दू, एक बाद में जिसमें उसकी अभिकथित पत्नी ख और उसकी माता प्रतिवादी हैं। क ने घोषणा किया कि उसका विवाह हिन्दू रीति से हुआ था और दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए आदेश की प्रार्थना करता है। न्यायालय यह घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित कर देता है कि घ, क की पत्नी है। तत्पश्चात् एक व्यक्ति ग यह प्रार्थना करते हुए कि ख उसकी पत्नी है। ख की प्राप्ति हेतु क के विरुद्ध वाद करता है। पूर्व वाद जो क तथा ख एवं उसकी माता के विरुद्ध था जिसमें न्यायालय ने ख को क की पत्नी घोषित किया था, ग पर बाध्यकारी नहीं होगी क्योंकि ग उस वाद का पक्षकार नहीं था, जिसमें न्यायालय ने घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित की थी।
क्या परिणामिक अनुतोष की माँग किया जाना आवश्यक है- विनिर्दिष्ट अनुतोष • अधिनियम, 1963 की धारा 34 में यह स्पष्ट उल्लेख है कि वादी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह उस वाद में अतिरिक्त अनुतोष की माँग करे परन्तु कोई भी न्यायालय वहाँ (जहाँ अतिरिक्त अनुतोष की माँग नहीं की गई है) ऐसे अतिरिक्त अनुतोष के बारे में कोई भी घोषणा नहीं करेगा।
अर्थात् एक घोषणात्मक आज्ञप्ति के लिए वाद लाये जाने के लिए वादी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वादी अतिरिक्त अनुतोष की माँग करे। यदि वादी ने किसी अतिरिक्त अनुतोष की माँग नहीं की है तो न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति देते समय किसी अतिरिक्त अनुतोष के बारे में कोई घोषणा नहीं करेगा भले ही वादी किसी अतिरिक्त अनुतोष की घोषणा नहीं करेगा। भले ही वादी ऐसे अतिरिक्त अनुतोष की घोषणा करे जिसका कि वह हकदार है तो वादी के लिए आवश्यक है कि वह बाद में उस अतिरिक्त अनुतोष की माँग करे। परन्तु बाद के पोषण के लिए अतिरिक्त अनुतोष की माँग किया जाना आवश्यक नहीं है।
घोषणात्मक आज्ञप्ति के लिए बाद कौन कर सकता है (Who can sue for declaratory decree)- धारा 34 के अनुसार घोषणात्मक आज्ञप्ति के लिए निम्न व्यक्ति वाद कर सकते हैं –
(i) ऐसा व्यक्ति जो किसी विधिक हैसियत (प्रास्थिति) (legal character) का हकदार हो।
(ii) ऐसा व्यक्ति जो किसी सम्पत्ति के बारे में किसी अधिकार (right) का हकदार (entitled) हो या इस धारा के अन्तर्गत कोई भी किरायेदार किराये की सम्पत्ति में अपने हितों जैसे हवा, रोशनी, पानी, जल निकासी रास्ते के मार्ग आदि सुखाधिकार की घोषणा के लिए वाद ला सकता है। (रत्नमाला दासी बनाम रतन सिंह ‘बाबा’ ए० आई० आर० 1990 कलकत्ता 26. )
किसके विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया जा सकता है (Against whom the suit can be brought-Who can be sued) – घोषणात्मक आज्ञप्ति प्राप्त करने के लिए किसी भी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया जा सकता है जो किसी व्यक्ति की विधिक स्थिति (legal status) या उसकी सम्पत्ति से सम्बन्धित अधिकार का इन्कार करता हो या अधिकार करने में अभिरुचि रखता हो।
कब न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित कर सकती है (When the court can pass a declaratory decree)- निम्न परिस्थितियों में न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित कर सकती है –
(1) वादो का किसी सम्पत्ति में हित विद्यमान हो या वह कोई विधिक स्थिति (legal status) रखता हो।
(2) वादी का विधिक स्थिति या किसी सम्पत्ति के हित या अधिकार को खतरा या संकट विद्यमान हो न कि भविष्य में संकट उत्पन्न होने की आशंका हो
(3) उसे उस समय जिस समय बाद किया गया है किसी अन्य आज्ञप्ति के निष्पादन का हक न हो।
(4) न्यायालय उपरोक्त परिस्थितियों में अपने विवेकानुसार घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित कर सकता है जिससे वादी की विधिक स्थिति तथा उसके किसी सम्पत्ति में हित या अधिकार के संकट या खतरे का निवारण हो सके।
कब न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति पारित करने से इन्कार कर सकती है (When the court can refuse to pass declaratory order)- घोषणात्मक आज्ञप्ति का दावा पूर्ण अधिकार (Absolute right) के रूप में नहीं किया जा सकता। न्यायालय अपने विवेक का पालन बाद की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सुस्थापित सिद्धान्तों के अनुसार करेगी।
निम्नलिखित कुछ उदाहरण हैं जिनमें न्यायालय घोषणात्मक आज्ञप्ति देने से इन्कार कर सकती है –
(1) जहाँ अपना कब्जा प्राप्त करने के अधिकार को उचित प्रक्रिया अपना कर प्रभावी ढंग से प्राप्त किया जा सकता है।
(2) जाहाँ यह सन्देह है कि जो व्यक्ति वाद का पक्षकार नहीं है वह आज्ञप्ति के अनुसार कार्य करेगा या नहीं।
(3) सीमित स्वामी जैसे हिन्दू विधवा के द्वारा वसीयत के निष्पादन के लिए।
(4) जहाँ घोषणा प्रभावी (प्रवर्तनीय) नहीं हो सकती थी।
(5) जहाँ आज्ञप्ति अनुपयोगी तथा व्यर्थ साबित होने की सम्भावना है।
(6) जाहाँ वादी का सम्पत्ति पर अधिकार विधिक संरक्षण (custodia legis) के रूप में है।
(7) जहाँ घोषणात्मक आज्ञप्ति से कम्पनी के निदेशकों में अवरोध उत्पन्न होने की सम्भावना है।
(8) जहाँ वादी का आचरण कपटपूर्ण है।
(9) जब तक सारवान क्षति नहीं है।
(10) यदि उचित उद्देश्य का अभाव हो