– प्रथम सेमेस्टर-
प्रश्न 12. व्याख्या कीजिए कि क्या एक अवस्यक के साथ किया गया करार उसके विरुद्ध लागू कराया जा सकता है? क्या इस बात से कोई अन्तर आएगा कि करार करते समय अवयस्क ने अपने बारे में मिथ्या कथन किया था? उदाहरण सहित समझाइए।
या
नाबालिग (अवयस्क) के संविदात्मक दायित्व की विवेचना कीजिए।क्या विधि का यह कथन ठीक है कि नाबालिगों (अवयस्कों) के साथ संविदा पूर्ण रूप से शून्य होती है? यदि ऐसा नहीं है तो यथार्थ विधि का विवेचन कीजिए।
या
एक अवयस्क के साथ किया गया करार शून्य होता है। सम्बन्धित निर्णयों का उल्लेख देते हुए इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष (1903) 30 आई० ए० 114 नामक वाद के तथ्य तथा इसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों की व्याख्या करें।
Discuss as to whether an agrrement entered into with a minor can be enforced him? Will it make any difference if the minor enters into an agreement misrepresenting his age? Illustrate your answer.
Or
Discuss the contractual liabilities of minor. It is precise statement that, a contract with minor is absolutely void. If not state the precise position.
Or
“An agreement with minor is void.” Discuss with the help of decided case-law.
Or
Discuss the facts and principles of Law laid down in Mohri Bibi Vs. Dharmodas Ghosh (1903) 301,A, 114.
उत्तर- संविदा अधिनियम की धारा 10 एक करार को वैध संविदा का स्वरूप प्रदान करने वाली आवश्यक शर्तों का प्रतिपादन करती है जिसकी एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि करार सक्षम पक्षकारों द्वारा स्वतन्त्र सहमति के साथ किया गया होना चाहिए। संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार प्रत्येक वयस्क स्वस्थचित तथा ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जिसे किसी विधि द्वारा करार करने के लिए अयोग्य घोषित न किया गया हो अर्थात् अवयस्क विकृतचित तथा जिसे किसी विधि द्वारा संविदा करने में असक्षम घोषित किया गया है, ऐसा व्यक्ति संविदा करने में असक्षम है तथा उसके द्वारा की गई संविदा शून्य होगी।
अवयस्क कौन? – अवयस्क वह व्यक्ति है जिसने वयस्कता की आयु प्राप्त नहीं की है। भारत वर्ष में सामान्य परिस्थिति में वह व्यक्ति वयस्क है जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है जिस व्यक्ति की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त किया गया है, उसके लिए वयस्कता की आयु 21 वर्ष है।
अवयस्क के साथ किये गये करार की स्थिति- भारत में संविदा अधिनियम की धारा 10 सिर्फ यह प्रावधान करती है कि एक वैध संविदा के लिए आवश्यक है कि वह एक सक्षम पक्षकार द्वारा की गई हो तथा एक अवयस्क सक्षम पक्षकार नहीं है। परन्तु एक अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होगी या शून्यकरणीय (voidable) होगी। उसके बारे में संविदा अधिनियम मौन है। परन्तु मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के बाद में प्रिवी काउन्सिल ने विचार व्यक्त किया कि एक अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकार नहीं है तथा एक: अवयस्क व्यक्ति द्वारा की गई संविदा शून्य (void) होगी।
मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, (1903) के बाद में एक अवयस्क धर्मोदास घोष ने अपनी सम्पत्ति ब्रह्मदत्त के पास बन्धक रख ऋण लिया ब्रह्मदत्त ने कुछ रुपया तुरन्त दे दिया। शेष ऋण के लिए कार्यवाही के दौरान ब्रह्मदत्त के एजेन्ट केदारनाथ को यह सूचना मिली कि धर्मोदास अवयस्क था। इसके पश्चात् धर्मोदास घोष ने न्यायालय में यह तर्क दिया कि चूँकि वह अवयस्क था अतः वह बन्धक की संविदा करने में असक्षम था अतः उसके द्वारा ब्रह्मदत्त के साथ की गई बन्धक की संविदा शून्य थी।
प्रिवी काउन्सिल ने धर्मोदास घोष के तर्क को स्वीकार कर लिया तथा यह निर्णय दिया कि चूँकि धर्मोदास घोष बन्धक की संविदा करते समय अवयस्क होने के कारण संविदा करने में सक्षम नहीं था अतः उसके द्वारा की गई संविदा शूनय थी अतः वह ऋण ली हुई रकम वापस करने के लिए बाध्य नहीं था।
क्या इस बात से कोई अन्तर आयेगा कि संविदा करते समय अवयस्क ने अपनी आयु के बारे में मिथ्या कथन (Misrepresentation) किया था?
मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के बाद में प्रिवी काउन्सिल ने इस प्रश्न पर विचार किया। इस बाद में ऋणदाता की ओर से यह तर्क दिया गया था कि धर्मोदास घोष ने संविदा करते समय अपनी आयु के बारे में मिथ्या कथन (Misrepresentation) किया था। उसने झूठ बोला था) अत: उसे यह कहने की अनुमति नहीं होनी चाहिए कि बन्धक के समय वह अवयस्क था। प्रिवी काउन्सिल ने इस तर्क से असहमति जताते हुए कहा कि बन्धक के सृजन के समय ऋणदाता के एजेन्ट को यह मालूम हो गया था कि बन्धक के समय धर्मोदास अवयस्क था। चूँकि वास्तविक तथ्य की जानकारी ऋणदाता के एजेन्ट को थी अतः यह नहीं कहा जा सकता कि धर्मोदास के मिथ्या कथन से ऋणदाता को बहकाया गया था अब यह नियम सुनिश्चित विधि का रूप ले चुका है कि यदि काई अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर संविदा करता है तो उसके विरुद्ध विबन्ध लागू नहीं होता तथा उसके द्वारा की गई संविदा शून्य होगी भले ही उसने संविदा करते समय अपनी आयु गलत बतायी थी।
मोहरी बीबी के वाद में दूसरा तर्क यह दिया गया कि संविदा अधिनियम की धारा 64 के अनुसार शून्यकरणीय (voidable) संविदा के अन्तर्गत यदि किसी पक्षकार ने संविदा के अन्तर्गत कोई रकम प्राप्त की है तो उसे वापस करना होगा अतः धर्मोदास को यह निर्देश दिया जाय कि उसके द्वारा बन्धक के फलस्वरूप जो रकम प्राप्त की है उसे वापस करें। प्रिवी काउन्सिल ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि धारा 64 शून्यकरणीय संविदाओं के सम्बन्ध में लागू होती है परन्तु प्रस्तुत मामले में अवयस्क धर्मोदास द्वारा की गई संविदा शून्य (void) थी जिसका विधि के अन्तर्गत कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसे मामलों में यह माना जाता है कि कोई संविदा हुई ही नहीं।
इस बाद में ऋणदाताओं ने संविदा अधिनियम की धारा 65 के अनुसार संविदा के फलस्वरूप धर्मोदास द्वारा प्राप्त धन को वापस लौटाने हेतु आज्ञा देने की माँग की धारा 65 के अनुसार शून्य संविदा के अन्तर्गत यदि किसी पक्षकार ने कोई लाभ प्राप्त किया है तो वह लाभ उसे लौटाना होगा। प्रिवी काउन्सिल ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि धारा 65 उन मामलों में लागू होती है जहाँ संविदा सक्षम पक्षकारों के मध्य हुई हो तथा किसी कारण से शून्य घोषित है परन्तु इस मामले में संविदा असक्षम पक्षकार (अवयस्क) द्वारा की गई होने के कारण शून्य थी अतः धारा 65 इस मामले में लागू नहीं होगी।
अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होती है इस नियम के अपवाद- अवयस्क को संरक्षण प्रदान करने हेतु न्यायालयों ने इस सामान्य नियम के अपवाद सृजित किए हैं कि अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होने के कारण यह माना जाता है कि अयवस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होने के कारण यह माना जाता है कि अवयस्क द्वारा की गयी संविदा का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
ये अपवाद निम्न हैं –
(1) यदि संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न दायित्वों को अवयस्क ने पूरा किया हो– यदि एक अवयस्क ने किसी वयस्क पक्षकार के साथ कोई संविदा की है तथा अवयस्क पक्षकार ने संविदा के अन्तर्गत अपने दायित्वों को पूरा किया है तथा उसके द्वारा संविदा के अन्तर्गत उसे जो कुछ करना था, वह अवयस्क ने कर दिया है तो अवयस्क को यह अधिकार है कि वह वयस्क पक्षकार को संविदा पूरा करने के लिए बाध्य करे परन्तु यह स्मरणीय है। कि वयस्क पक्षकार इस स्थिति में भी संविदा को पूरा करने हेतु अवयस्क को बाध्य नहीं करा सकता क्योंकि यह अपवाद सिर्फ अवयस्क को संरक्षण प्रदान करने हेतु सृजित किया गया है। इस प्रकार यदि एक संविदा एक अवयस्क तथा वयस्क के मध्य हुई तथा वयस्क पक्षकार ने संविदा के अन्तर्गत अपने दायित्वों को पूरा किया है परन्तु अवयस्क ने अपना दायित्व पूरा नहीं किया है तो वयस्क उन संविदाओं को अवयस्क के विरुद्ध लागू नहीं करवा सकता। राधवा चारियर बनाम श्रीनिवास (1961) मद्रास उदाहरण के रूप में यदि किसी अवयस्क ने अचल सम्पत्ति क्रय करने हेतु सम्पत्ति का मूल्य (प्रतिफल) वयस्क पक्षकार (विक्रेता) को दे दिया है तो वह उक्त सम्पत्ति पर कब्जा कर सकता है।
(2) यदि संविदा अवयस्क के लाभ के लिए की गई हो- यदि अवयस्क का संरक्षक या अभिभावक, जो अवयस्क की ओर से संविदा करने हेतु अधिकृत किया गया है, अवयस्क के लाभ के लिए संविदा करता है तो वह संविदा लागू कराई जा सकेगी। ग्रेट अमेरिकन इन्स्योरेन्स कं० लि० बनाम मदन लाल (1935) बम्बई के बाद में एक अवयस्क का संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का बीमा कराता है तथा बीमा कम्पनी को यह ज्ञात था कि जिस सम्पत्ति का बीमा कराया गया है, वह अवयस्क की सम्पत्ति है तो बीमा कम्पनी यह तर्क नहीं दे सकती कि जिस सम्पत्ति का बीमा कराया गया था, वह अवयस्क की थी। बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय किया कि यह बीमा की संविदा अवयस्क के लाभ के लिए की गई थी अतः यह संविदा अवयस्क लागू करवा कर बीमा धन प्राप्त कर सकता है। यह उल्लेखनीय है कि यदि अवयस्क के विवाह हेतु संविदा की गई है तो यह संविदा अवयस्क की इच्छा पर लागू करवाई जा सकती है अर्थात् यदि अवयस्क न चाहे तो उसके लिए की गई विवाह की संविदा उसके विरुद्ध लागू नहीं करवाई जा सकती।
(3) अवयस्क द्वारा की गई सेवा की संविदा (Contract of service)– यदि एक अवयस्क ने सेवा नियोजन (नौकरी) हेतु कोई संविदा की है तो इसके परिणाम के बारे में। अंग्रेजी विधि तथा भारतीय विधि में अन्तर है। अंग्रेजी विधि में अवयस्क द्वारा की गई सेवा की संविदा लागू करवाई जा सकती है। यह संविदा वयस्क पर बाध्यकारी होगी। ब्लेमेंट्स बनाम लन्दन एण्ड नार्थ रेलवे कं० (1894)। परन्तु भारतीय विधि में अवयस्क द्वारा की गई सेवा की संविदा शून्य होती है चाहे वह संविदा अवयस्क ने स्वयं की हो या उसके संरक्षक पिता ने एक फिल्म में अभिनय करने हेतु एक संविदा एक फिल्म निर्माता से को। फिल्म निर्माता ने वह भूमिका किसी अन्य को देकर संविदा भंग की न्यायालय के अनुसार अवयस्क की ओर से की गई संविदा शून्य थी अत: वादी द्वारा इसको लागू नहीं करवाया जा सकता।
परन्तु भारतीय विधि के उक्त नियम का अपवाद भारतीय प्रशिक्षु अधिनियम, 1850 में किया गया है। इसके अनुसार यदि एक अवयस्क के संरक्षक ने अवयस्क की ओर से प्रशिक्षु हेतु कोई संविदा की है तो वह अवयस्क पर बाध्यकारी होगी।
क्या अवयस्क वयस्कता प्राप्त करने अपनी पूर्व संविदा का अनुसमर्थन (Retification) कर सकता है?- अवयस्क एक बहुत ही खतरनाक पक्षकार होता है। इसके द्वारा की गई संविदा शून्य होने के कारण उनके विरुद्ध लागू नहीं करवाई जा सकती। इस विषय में एक प्रश्न है कि क्या एक अवयस्क वयस्कता प्राप्त करने पर उसके द्वारा अवयस्कता के समय की गई संविदा का समर्थन कर उसे स्वीकार कर सकता है? इसका उत्तर नकारात्मक है अर्थात् चूँकि अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होती है तथा इसका विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं होता अतः इसे समर्थन देकर जीवित नहीं कराया जा सकता। सूरज नारायण बनाम सुक्खू अहीर (1928) के वाद में एक अवयस्क ने प्रोनोट लिखकर एक ऋण लिया। वयस्कता प्राप्त करने पर उसने एक दूसरा प्रोनोट लिखकर अवयस्कता के दौरान लिए गए ऋण को भुगतान करने का वचन दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि नया प्रोनोट प्रतिफल रहित था अतः लागू नहीं कराया जा सकता। चूँकि अवयस्कता के दौरान की गई संविदा शून्य थी अत: उसका प्रतिफल भी शून्य था।
परन्तु यदि एक अवयस्क अपनी अवयस्कता के दौरान कुछ ऋण लेता है तथा वयस्कता प्राप्त करने पर उसी ऋणदाता से कुछ और धन ऋण के रूप में लेता है तथा वयस्कता प्राप्त करने पर सम्पूर्ण ऋण के भुगतान की प्रतिज्ञा करता है तो वह प्रतिज्ञा लागू करवाई जा सकती है जैसे एक अवयस्क के एक व्यक्ति से 15,000/- रुपये ऋण अवयस्कता के दौरान लेता है तथा वयस्कता प्राप्त करने पर ख से 5,000/- रुपये और उधार लेकर 20,000/ रुपये के भुगतान की संविदा करता है तो वह पूरे 20,000/- के भुगतान के लिए बाध्य किया जा सकता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि एक अवयस्क एक खतरनाक पक्षकार है। इसके द्वारा की गई संविदा शून्य होने के कारण इसके विरुद्ध लागू नहीं करवाई जा सकती। परन्तु यदि अवयस्क की ओर से उसके लाभ के लिए कोई संविदा की गई है या अवयस्क ने संविदा के अन्तर्गत अपने दायित्वों को पूरा कर लिया है तो वह संविदा अवयस्क द्वारा लागू करवाई जा सकती है।
प्रश्न 13. संविदा करने के लिए कौन व्यक्ति सक्षम है? क्या एक पर्दानशीन महिला संविदा कर सकती है? बाद एवं उदाहरण की सहायता से समझाइए।
Who is competent to contract? Whether ‘Pardanaseen lady’ can contract? Explain by the cases and examples.
उत्तर– संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति जो वयस्कता की आयु प्राप्त कर चुका है, स्वस्थचित्त का अर्थ यह है कि वह व्यक्ति जो अवयस्क है या विकृतचित्त का है या विधि द्वारा संविदा करने से अक्षम घोषित है (जैसे दिवालिया व्यक्ति) संविदा नहीं कर सकता है। धारा 11 में दी गई परिभाषा के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति, जो कि उस विधि के अनुसार जिसके कि वह अध्यधीन है, वयस्कता की आयु का हो, जो कि सुस्थिर चित्त का हो और किसी विधि द्वारा, जिसके कि वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरहित नहीं है, संविदा करने के लिए सक्षम हैं। इस प्रकार प्रत्येक वैध संविदा के लिए यह आवश्यक है कि पक्षकार संविदा करने के लिए सक्षम हो। निम्न व्यक्ति संविदा करने के लिए धारा 11 में सक्षम पक्षकार माने गये हैं –
(1) वयस्कः
(2) स्वास्थचित्त व्यक्ति तथा
(3) अन्य व्यक्ति जो विधि द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।
(1) वयस्क (Major)– यह प्रश्न उठने पर कि वयस्क कौन व्यक्ति होगा? इस पर आंग्ल विधि में तो 21 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर वयस्क माना जाता है, परन्तु भारतीय विधि इसके विपरीत है। भारतीय विधि में वयस्कता की आयु भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 की धारा 3 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर वयस्क समझा जाता है तथा वह व्यक्ति जिसके शरीर एवं सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए न्यायालय द्वारा संरक्षक एवं प्रतिपालक अधिनियम (Gurdian and Wards Act) के अन्तर्गत संरक्षक की नियुक्ति की गयी है, वह 21 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर ही वयस्क माना जाता है। वयस्कता की आयु व संविदा करने की योग्यता का निर्धारण उस विधि के अनुसार होता है, जहाँ का वह अधिवासी (Law of Domicile) है न कि उस स्थान की विधि के अनुसार जहाँ पर संविदा की जाती है, इससे सम्बन्धित एक बाद में कशीबा बनाम श्रीपत, (1894) 19. बाम्बे 697 के बाद में कशीबा एक हिन्दू विधवा 16 वर्ष से अधिक व 18 वर्ष से कम आयु की थी। उसका पति ब्रिटिश भारत का अधिवासी था। पति की मृत्यु के समय ब्रिटिश भारत के बाहर कोल्हापुर में निवास करती थी, उसने वहाँ पर एक बाण्ड निष्पादित किया। उत्तरदायित्व की बात पर यह प्रश्न उठा कि क्या कशीबा कोल्हापुर की विधि के अनुसार शासित होगी या ब्रिटिश भारत की विधि के अनुसर चूँकि पत्नी का अधिवास पति के अधिवास से निर्धारित होत जब तक कि उसे परिवर्तित न कर दिया जाय। कोल्हापुर में वयस्कता की आयु 16 वर्ष थी और यदि वह वयस्क है तो वह बाण्ड के प्रति उत्तरदायी है। न्यायालय के निर्णय के अनुसार संविदा करने की क्षमता अधिवास की विधि के अनुसार निर्धारित होती है न कि उस विधि के अनुसार जहाँ पर संविदा की गयी है। पति के अधिवास के आधार पर ब्रिटिश भारत की अधिवासी होने के कारण बाण्ड के प्रति उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि ब्रिटिश भारत में वयस्कता की उम्र 18 वर्ष है।
(2) स्वस्थचित व्यक्ति- भारतीय संविदा विधि में धारा 11 के अनुसार प्रत्येक मान्य संविदा के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि पक्षकार वयस्क होने के अलावा स्वस्थ चित्त का भी होना चाहिए क्योंकि अस्वस्थचित व्यक्ति द्वारा की गयी संविदा आरम्भतः शून्य होती है चाहे दूसरे पक्षकार को अस्वस्थता का ज्ञान हो या नहीं इससे संविदा प्रभावित नहीं होती है। जब कोई व्यक्ति संविदा करता है, संविदा की शर्तों को समझने तथा अपने हितों पर संविदा के प्रभावों के बारे में युक्तियुक्त निर्णय करने के योग्य है तो उस व्यक्ति के बारे में यह कहा जाता है कि वह व्यक्ति स्वस्थ चित्त का है और संविदा करने के लिए सक्षम है। संविदा अधिनियम की धारा 12 इसको व्याख्या करती है। धारा 12 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति उस समय, जिस समय कि वह संविदा करता है, उस संविदा को समझने और अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तियुक्त निर्णय करने के योग्य है तो उस व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि वह संविदा करने के लिए स्वस्थ चित्त का है।
जो व्यक्ति प्रायः अस्वस्थचित्त का है, किन्तु कभी-कभी स्वस्थचित्त का हो जाता है, वह जब स्वस्थ चित्त का हो, संविदा कर सकेगा।
जो व्यक्ति प्रायः विकृतचित्त का है, किन्तु कभी-कभी स्वस्थ चित्त का हो जाता है. जबकि वह विकृतचित्त का हो, संविदा नहीं कर सकेगा।”
इस प्रकार धारा 12 उन दशाओं का वर्णन करती है कि कब कोई व्यक्ति सुरक्षित (स्वस्थ) चित्त का कहा जाता है। व्यक्ति जब संविदा के उद्देश्य को समझने व जानने तथा उसके बारे में समुचित निर्णय लेने की क्षमता रखता हो तो वह संविदा करने के लिए स्वस्थ चित्त का माना जाएगा। विधिक उपधारणा हमेशा उस व्यक्ति की स्वस्थचित्तता के पक्ष में होती है। यह केवल कहा नहीं जाएगा बल्कि इसको ठोस प्रमाण द्वारा साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो उसे अस्वस्थ चित्त का कहता है।
श्रीमती निर्मला घोष बनाम हरजीत कौर एण्ड अदर्श, ए० आई० आर० (2011) दिल्ली 104 के बाद में निर्णय दिया गया कि किसी संविदा को, अस्वस्थ चित्त के आधार पर अमान्य करने के बाद में निर्धारण का आधार यह होता है कि जब संविदा का निष्पादन किया गया, उस समय उसके चित्त के अवस्था क्या थी तत्पश्चात् चित्त को अवस्था सुसंगत नहीं होती।
स्वस्थ चित्तता के सम्बन्ध में धारा 12 दो तथ्य स्पष्ट करती है जिसमें कोई विकृतचित्त व्यक्ति भी संविदा कर सकता है जैसे –
(1) जब कोई विकृत चित्त व्यक्ति स्वस्थ्य चित्त का होता है, तब वह संविदा कर सकता है।
(2) ऐसा व्यक्ति जो स्वस्थ चित्त का है, परन्तु कभी-कभी विकृत हो जाता है तो वह विकृत-चित्तता के समय संविदा नहीं कर सकता है।
उन्मत्त व्यक्ति (Drunkand person)- संविदा करने के लिए उक्त व्यक्ति को भी इसी श्रेणी में शामिल किया गया है। कोई व्यक्ति यदि किसी प्रकार के नशे के कारण संविदा के परिणामों को समझने में असफल रहता है तो उसके द्वारा की गयी संविदा शून्य होती है। इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि दूसरे पक्ष को इसकी जानकारी है या नहीं।
जब कोई व्यक्ति शराब पीने के कारण केवल उत्तेजित हुआ हो, परन्तु उसकी तर्क शक्ति वर्तमान है तो नशे के आधार पर संविदा शून्य नहीं होगी। असफाक कुरैशी बनाम आयशा कुरैशी, ए० आई० आर० (2010) छत्तीस० 58 के मामले में एक हिन्दू लड़की की मुस्लिम लड़के के साथ विवाह के मामले में लड़की ने बताया कि उसे नशे के अधीन कर दिया गया और हो सकता है कि उसी समय उसका निकाह कर दिया गया हो, परन्तु उसका कोई विवाह नहीं हुआ था और न ही वह किसी के घर एक दिन के लिये भी रही हो। लड़के का कथन परस्पर विरोधी था न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय ऐसे विवाह को शून्य घोषित कर सकता है जबकि आंग्ल विधि इसके विपरीत है- पिट बनाम स्मिथ, 3 काम्य 6 (36)। लार्ड एलिनबरो ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि-“विधि इस बात का परीक्षण नहीं करेगी कि उन्मत्तता स्वेच्छया (voluntary) हुई या नहीं। सिर्फ इताना प्रमाण होना आवश्यक है कि संविदा वह उन्मत्तता के कारण उचित निर्णय के लिए सक्षम नहीं था।”
(3) अन्य व्यक्ति जो विशेष विधि द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो- धारा 11 के तीसरे तथ्य के अनुसार ऐसा व्यक्ति जो किसी विधि द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो, संविदा करने के लिए सक्षम है परन्तु संविदा अधिनियम में केवल संविदा करने के अयोग्य व्यक्तियों की चर्चा गयी है जिसके अनुसार संविदा तो प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है परन्तु कुछ व्यक्ति जो संविदा करने के लिए सक्षम नहीं हैं, उनका उल्लेख किया गया है
(1) विवाहिता स्त्री (Married woman)- भारत में किसी भी विवाहित स्त्री को संविदा करने के लिए सक्षम माना गया है परन्तु कुछ प्रतिबन्ध स्थापित किये गये हैं। इसके अनुसार कोई विवाहिता स्त्री संविदा करना चाहती है तो वह आवश्यकतानुसार पति की साख (credit) को गिरवी रख सकती है बशर्ते वह पति द्वारा प्रदान न की जाय। यदि वह पति के द्वारा भरण-पोषण की जाती हो पर पति के साथ रहना छोड़ दिया हो तो वह पति के अभिकर्ता के रूप में कार्य नहीं कर सकती। ऐसी स्त्री कुछ दशाओं में अपने स्त्रीधन को गिरवी रख सकती है। यदि वह पति के साथ संयुक्त रूप से संविदा करती है तो उसका उत्तरदायित्व स्त्रीधन तक ही सीमित रखा गया है।
(2) व्यवसायी व्यक्ति ( Professional man)- भारतीय विधि में एडवोकेट्स को अपने मुवक्किल से संविदा करने के लिए मान्यता प्रदान की गयी है। यही नहीं भारतीय एडवोकेट फीस वसूली के लिए भी वाद प्रस्तुत कर सकता है जबकि अंग्रेजी विधि इसके विपरीत है।
(3) विदेशी शत्रु (Alience Enemy)- भारत में कोई भी विदेशी व्यक्ति संविदा कर सकता है परन्तु जब किसी विदेशी देश से भारत का युद्ध चल रहा हो तो उस देश का कोई नागरिक भारत में संविदा नहीं कर सकता परन्तु यदि किसी संविदा में सीमा निर्धारित की गयी हो तो वह उस सीमा से बाहर जाकर कोई संविदा नहीं कर सकता।
(4) निगम (Corporation)– निगम एक विधिक व्यक्ति होता है। वह वाद प्रस्तुत कर सकता है तथा इसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता था परन्तु इस पर लगे प्रतिबन्धों के साथ वह अपनी निर्धारित सीमा से बाहर संविदा नहीं कर सकता है।
पर्दानशीन महिला द्वारा संविदा (Contract by Pardansahain Indy) – एक पर्दानशीन महिला ऐसी महिला होती है जिसे समाज में एकान्त और विशेष धर्म एवं सम्प्रदाय के अनुसार समाज से अलग-अलग रहने के कारण कम लोगों से ही मिल पाती है। इसी कारण भारतवर्ष में ऐसी महिला को कमजोर एवं अशक्त व्यक्तियों की श्रेणी में रखा गया है। ऐसी महिलाओं को अपनी विचारधारा को व्यक्ति करने की स्वतन्त्रता नहीं होती। इस तरह अनुचित प्रभाव उन पर जल्दी से पड़ता है। इस तरह एक पदनिशीन महिला अपनी सम्पति का विलेख करके किसी व्यक्ति के साथ कोई संविदा करती है तो यह उपधारणा की जाती है। कि उसने अनुचित प्रभाव में आकर अपनी सम्पत्ति का विलेख किया है। ऐसी संविदा में यह सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति (पक्षकार) पर होता है जिसने महिला के साथ संविदा किया है उससे यह सिद्ध करना होता है कि पर्दानशीन महिला ने अनुचित प्रभाव में आकर संविदा नहीं किया है। इस सम्बन्ध में प्रियी कौंसिल का विचार इस प्रकार है” सर्वप्रथम स्त्री पर्दानशीन है जिसे कानून का संरक्षण प्राप्त है। न्यायालय की इस बात से सन्तुष्ट होना चाहिए कि यह विलेख वास्तव में उस स्त्री ने सम्पन्न किया है और उसे अच्छी तरह समझकर किया है कि वह क्या करने जा रही थी। उसे उस संव्यवहार की प्रकृति और उसके प्रभाव के बारे मे पूरी जानकारी थी और उसे स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष सलाह प्राप्त थी” ऐसी स्थिति में एक पर्दानशीन महिला द्वारा की गई संविदा मान्य है, क्योंकि यह अनुचित प्रभाव द्वारा प्रेरित नहीं होता है।
काली बक्स बनाम रामगोपाल सिंह, (1913) 41] आई० ए० 28, 29 के बाद में एक पर्दानशीन स्त्री ने अपने दूसरे पति की सम्पत्ति का 1/2 भाग दान कर दिया। तत्पश्चात् उन दानपत्र को रद्द करने का वाद प्रस्तुत किया। प्रथम न्यायलय ने यह निर्णय दिया कि उसे विलेख के बारे में पूरी जानकारी थी उसे पढकर भी सुनाया गया था लेकिन उसकी सहमति स्वतन्त्र नहीं मानी जाएगी। इसकी अपील प्रिवी कौसिल में करने पर निर्णय में प्रिवी कौंसिल ने कहा कि यह कोई प्रतिपादित सिद्धान्त नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतन्त्र सलाह द्वारा संविदा हो, यदि सभी तथ्यों से स्पष्ट हो कि स्त्री ने जानबूझकर पूर्ण स्वतन्त्रता से संविदा किया है तो असम्यक असर होने की उपधारणा नहीं की जायेगी। फरीदुन्निसा बनाम मुहम्मद अख्तर अहमद, ए० आई० आर० 1925 पी० सी० 304 के बाद में न्यायालय ऐसे संव्यवहारों की विधिमान्यता के लिए कुछ योग्यताओं का निर्धारण करने की अपेक्षा करती है। जैसे –
(1) अमुक दस्तावेज स्वयं उस महिला या उसके अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा निष्पादित किया गया है।
(2) संव्यवहार की प्रकृति एवं प्रभाव की पूर्व जानकारी थी।
(3) सम्मति स्वतन्त्र एवं निःस्वार्थ थी।
पर्दानशीन स्त्रियों द्वारा किये गये संव्यवहार के परिणाम के सम्बन्ध में रानी मदनावती तथा अनय बनाम मुहम्मद अख्तर अहमद, ए० आई० आर० 1976 एम० पी० 41,44 का बाद महत्वपूर्ण है। इस मामले में वादी एक अशिक्षित, शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से पीड़ित एक पर्दानशीन स्त्री थी। उसकी सुरक्षा या देखभाल तथा नेक सलाह देने वाला कोई अन्य व्यक्ति नहीं था। उसके द्वारा की गई एक संविदा जिसको रद्द कराने का उसने वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अशिक्षा, अज्ञानता एवं उचित निर्णय करने की अकुशलता की अवस्था में अनुचित प्रभाव की उपधारणा की जा सकती है चाहे वह पर्दानशीन हो या न हो पर्दानशीन महिलाओं की सुरक्षा मात्र इस आधार पर नहीं दी जाती है कि वह पर्दे पर रहती है उन्हें अशिक्षा, नासमझी, अनुभवहीनता तथा अच्छे-बुरे में भेद करने की अज्ञानता होनी चाहिए।
श्रीमती अन्नपूर्णा बारिक देई व अन्य बनाम श्रीमती इन्द्राबेवा व अन्य ए० आई० आर० 1995 उडीसा 273 में पर्दानशीन या अशिक्षित महिला द्वारा यदि कोई बाण्ड निष्पादित किया जाता है तो सिद्ध करने का भार उस अन्य व्यक्ति पर रहता है जिसने उसके साथ संविदा किया है कि बाण्ड में उल्लिखित पद ठीक व साम्यपूर्ण है तथा निष्पादन के समय उसको सहमति स्वतन्त्र थी तथा विलेख में उल्लिखित मतों का उसे भली-भाँति ज्ञान था। श्रीमती हंसरानी बनाम यशोदा नन्द, ए० आई० आर० 1996 उडीसा 273 में पर्दानशीन या अशिक्षित महिला द्वारा यदि कोई बाण्ड निष्पादित किया जाता है तो सिद्ध करने का भार उस अन्य व्यक्ति पर रहता है जिसने उसके साथ संविदा किया है कि बाण्ड में उल्लिखित पद ठीक व साम्यपूर्ण है तथा निष्पादन के समय उसकी सहमति स्वतन्त्र थी तथा विलेख में उल्लिखित मतों का उसे भली भाँति ज्ञान था। श्रीमती हंसरानी बनाम यशोदा नन्द, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 761 के बाद में वादी अपने को अशिक्षित हरिजन, सन्तानविहीन पर्दानशीन विधवा बताते हुए बाण्ड को निरस्त करने का वाद प्रस्तुत किया। इस बाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह महिला पति की मृत्यु के पश्चात् अनुकम्पा के आधार पर रेलवे विभाग में नौकरी कर रही थी-तथ्यों के आधार पर यह आभास नहीं होता है कि वह अशिक्षित व मानसिक दुर्बलता से पीड़ित है। अतः इसकी तुलना पर्दानशीन महिला से नहीं की जा सकती है।
प्रश्न 14. ( क ) सम्मति की परिभाषा दीजिए। कब कोई सम्मति ‘स्वतन्त्र सम्पति’ कहलाती है इसके आवश्यक तत्व कौन-कौन हैं?
Define Consent. When the consent is said to be a free consent? What are its essential ingredients?
(ख) मिथ्याव्यपदेशन को पूर्णतया समझाइए। संविदा की वैधता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? विवेचित कीजिए।
Define fully the misrepresentation. Discuss its effect on the validity of a contract.
उत्तर (क) – सम्मति (Consent)- सम्मति की परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 13 में दी गई है। इस धारा में दी गई परिभाषा के अनुसार जब कि दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-सी ही बात पर एक से ही भाव में करार करते है, तब उनके बारे में कहा जाता है कि वे सम्मत हुए है।
अर्थात् संविदा के पक्षकारों की पहचान विषयवस्तु एवं संव्यवहार की प्रकृति के सम्बन्ध में दोनों पक्षकारों के मन में किसी प्रकार की विभिन्नता का नहीं होना ही ‘सम्मति’ है। अतः वास्तविक सहमति वह है जिसमे प्रत्येक पक्षकार एक ही बात पर एक ही भाव में सहमत हों, अर्थात् वे मतैक्य (Ad-Idem) हों।
जैसे-‘क’ ‘ख’ से अपनी गाय बेचने की संविदा करता है। क के पास कई गाय है। ख समझता है कि वह काली गाय खरीदने की संविदा कर रहा है। जब कि क समझता है कि वह लाल गाय बेचने की संविदा कर रहा है। इस संविदा में गाय का अर्थ दोनों पक्षकारों के मन मे भिन्न-भिन्न है। अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि संविदा के दोनों पक्षकार एक ही विषय-वस्तु पर एक ही मन के करार कर रहे है। यहाँ दोनों पक्षकारों के मध्य मतैक्य (consensus ad-idem) नही हुआ। अत: उन दोनों के मध्य करार नहीं हुआ।
करार के अन्तर्गत प्रतिज्ञाओं का पालन उस आशय से किया जाना चाहिए, जैसे कि प्रतिज्ञाकर्ता ने प्रत्याशा (Apprehend) किया हो, प्रतिज्ञाग्रहीता ने प्राप्त किया हो तथा प्रतिज्ञाकर्ता उस भाव में प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जिसमें प्रतिज्ञाग्रहीता को ज्ञान हो, लेकिन प्रतिज्ञाकर्ता ने उसे सोचा भी न हो, क्योंकि यह कथन सही है- “मेरे द्वारा मेरी इच्छा के विरूद्ध किया गया कोई कार्य मेरा कार्य नहीं है।” (Any Act done by me against my will is not my act) i
संविदा की व्युत्पत्ति के लिए आवश्यक है कि दोनों पक्षकार एक ही बात पर एक हो भाव में सहमत हों। इस प्रकार प्रस्ताव की स्वीकृति ऐसे व्यक्ति द्वारा होनी चाहिए जिससे कि यह किया गया हो। यदि कोई किसी ऐसे व्यक्ति से संविदा करता है जो उसके मस्तिष्क में है ही नहीं तो उससे संविदा का सम्बन्ध कायम नहीं हो सकता क्योंकि मस्तिष्क ने जो सम्मति दी है, वह अन्य को समझ कर जो है ही नहीं, अत: वहाँ पर सम्मति नहीं होगी।
कुण्डी बनाम लिण्डसे, (1878) 3 अपोल केस 459, 38 एल० टी० 573 के बाद में ब्लैनकर्न नामक व्यक्ति जो एक धोखेबाज था, ब्लेनकिरोन नाम की विख्यात फर्म के नाम से, अपने नाम की समानता का फायदा उठाते हुए लिण्डसे एण्ड कम्पनी को कुछ माल का आदेश दिया। आदेश पर उसने हस्ताक्षर इस प्रकार किये कि वह ब्लैनकिरोन एण्ड कम्पनी जैसा प्रतीत होते थे। कम्पनी ने उस आदेश को ब्लेनकिरोन एण्ड कम्पनी का आदेश समझ कर माल भेज दिया। ब्लेनकर्न ने वह माल एक सद्भावी क्रेता कुनडी एण्ड कम्पनी के हाथ बेच दिया और विक्रेता को माल के मूल्य का संदाय नहीं किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि संविदा करने वाले पक्षकारों के सम्बन्ध में भूल के कारण ब्लेनकर्न तथा विक्रेता में “एक सी ही बात पर एक से भाव में” कोई करार न होने के कारण संविदा शून्य थी और ब्लेनकर्न को माल में कोई स्वत्व प्राप्त नहीं हुआ । जिसे वह कुण्डी एण्ड कम्पनी को बेच सके।
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार-“सभी करार संविदा हैं यदि वे पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते है कि मान्य संविदा में सम्मति ही नहीं बल्कि स्वतन्त्र सम्मति होनी चाहिए।
धारा 14 में यह परिभाषित किया गया है कि स्वतन्त्र सहमति किसे कहते हैं। इसके अनुसार ऐसी सम्मति को स्वतन्त्र सम्मति कहा जाता है जिसमें सम्मति –
(i) उत्पीड़न (Coercion)
(ii) असम्यक् असर (Undue influence)
(iii) कपट (Fraud)
(iv) मिथ्या (Misrepresentation) एवं
(v) भूल (Mistake)
से न करायी गयी हो।
इस प्रकार जब कोई व्यक्ति बिना किसी बाधा अथवा अवरोध के कार्य करता है, अपनो सम्मति देता है तब उसे स्वतन्त्र सम्मति कहा जाता है। प्रतीडन, असम्यक असर, कपट, मिथ्या व्यपदेशन एवं भूल ही ये बाधायें हैं।
तरसेम सिंह बनाम सुखमिन्दर सिंह, (1998) 3 एस० सी० सी० 471 के कारण प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 13, 14 तथा 20 के सम्दर्भ में यह अभिनिर्धारित किया गया है। कि-चूँकि पारस्परिक सम्मति को स्वतन्त्र सहमति होना चाहिए। यह एक वैध करार की
अनिवार्य शर्त है। अतः यदि कोई बात संविदा के अन्य पक्षकार द्वारा उसी अर्थबोध में समझी जाती, जिस अर्थबोध के अन्तर्गत उसको संविदा के प्रथम पक्षकार द्वारा समझी गयी है। यह धारा 20 के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही, उस करार को अवैधानिक बना देती है चाहे भले हो उस तथ्य की खोज वाद के किसी प्रक्रम पर होती है।
प्रत्येक संविदा से यह उपधारणा की जाती है कि पक्षकारों की सहमति स्वतन्त्र हो। यदि पक्षकार ऐसा न होने का दावा करता है तो सिद्धि भार उस पर है जो कि उसके बारे में कहता है।
जैसे- बिरला जूठ मैनयुफैक्चरिंग कम्पनी बनाम स्टेट ऑफ एम० पी०, (2002) g एस० सी० सी० 667 के बाद में बाध्यता (Duress) के अन्तर्गत दी गई परिवचन को मान्यता का उल्लेख किया गया है। कम्पनी का तर्क था कि बाध्यता से प्रभावित होकर परिवचन दिया गया था। अतः अमान्य है। न्यायालय का अभिमत था कि अपीलार्थी ने स्वेच्छा एवं स्वतन्त्रतापूर्वक वचन दिया था। अतः अपील निरस्त कर दी गई। अपीलार्थी बाध्यता की स्थिति को सिद्ध न कर सका।
किसी विधिमान्य संविदा के लिए पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति का होना आवश्यक है। ऐसी सम्मति जो प्रपीड़न, कपट, असम्यक् असर, मिथ्या-व्यपदेशन अथवा भूल के बिना अभिप्राप्त की जाती है, स्वतन्त्र सम्मति कहलाती है। इसके विपरीत प्रपीड़न, असम्यक् असर, कपट, मिथ्या व्यपदेशन अथवा भूल द्वारा अभिप्राप्त सम्मति स्वतन्त्र नहीं होने से वह संविदा भी विधिमानय नहीं होकर शून्यकरणीय होती है न कि शून्य
उत्तर (ख) – मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation)– भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 18 मिथ्या व्यपदेशन के बारे में है। कपट की तरह मिथ्या व्यपदेशन की विस्तृत परिभाषा दी गई है। निम्नलिखित मामले दुर्व्यपदेशन के अन्तर्गत आते हैं –
1. किसी को असत्य तथ्यों के अस्तित्व में होने का विश्वास दिलाना, जबकि विश्वास दिलाने वाला उसे सत्य समझता है।
2. बिना बुरे आशय के कर्त्तव्य भंग करना अर्थात् लापरवाही से कर्त्तव्य भंग करना, जो करने वाले को कुछ लाभ दे तथा दूसरे पक्षकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले।
3. कोई ऐसा कार्य करना जिससे दूसरा पक्षकार संविदा की विषय-वस्तु के बारे में सारभूत गलती कर दे।
यदि कोई व्यक्ति सद्भावपूर्वक दूसरे को कहता है कि उसकी कम्पनी में इस वर्ष एक लाख का लाभ हुआ। दूसरा व्यक्ति इस तथ्य में विश्वास करके कम्पनी के साथ संविदा कर लेता है, किन्तु बाद में पता चलता है कि कम्पनी को मात्र 50 हजार रुपये का ही लाभ हुआ था। यदि प्रथम व्यक्ति ने असत्य तथ्य धोखा देने के आशय से नहीं बताये बल्कि उसे सत्य मानते हुए कहे थे तो वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा।
दो व्यक्ति मिलकर मौखिक रूप से कोई बात तय करते हैं। बातचीत के आधार पर एक व्यक्ति लिखत तैयार करता है और दूसरे को विश्वास दिलाता है कि लिखत में वही बाते हैं। जो मौखिक रूप से तय की गई थीं। अनजाने में लिखत में ऐसी बात भी लिख दी जाती है, जो दूसरे के ज्ञान में नहीं होती है। दूसरा व्यक्ति पहले पर विश्वास करके हस्ताक्षर करता है, ऐसी परिस्थिति में पहले व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि लिखत के सभी बातों से दूसरे व्यक्ति को अवगत कराये। कर्त्तव्य भंग करने से वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा।
उदाहरण के लिये एक हिन्दू पिता यह कहता है कि मात्र वही सम्पत्ति का हकदार है, यह कहकर दूसरे व्यक्ति की संविदा में सहमति प्राप्त कर लेता है। यदि पिता का अपूर्ण हक है तो वह मिथ्या व्यपदेशन का दोषी होगा।
मिथ्या व्यपदेशन का प्रभाव (Effect of Misrepresentation) — यदि किसी व्यक्ति की सहमति मिथ्या व्यपदेशन द्वारा प्राप्त की जाती है तो संविदा शून्यकरणीय बनती है। जिस पक्ष की सहमति स्वतन्त्र नहीं होती है, उसके विवेकानुसार संविदा वैध या शून्य घोषित की जा सकती है।
प्रश्न 15. (क) “असम्यक असर” को परिभाषित कीजिए तथा भारत में पर्दानशीन महिलाओं के सम्बन्ध में असम्यक असर का सिद्धान्त किस सीमा तक लागू होता है? असम्यक असर द्वारा कारित एक संविदा के परिणामों का भी वर्णन कीजिए।
Defien “Undue influence” and State how for is the doctrine of Undue influence applicable in case of Pardanashin women in India. State also the consequences of a contract caused by undue influences.
(ख) एक प्रतिफल तथा उद्देश्य कब अवैध कहा जाता है? एक अवैध उद्देश्य तथा प्रतिफल का एक करार पर क्या प्रभाव पड़ता हैं?
अथवा
अवैध संविदा से आप क्या समझते हैं? उदाहरण तथा वादों की सहायता से विवेचना कीजिए।
What do you understand by Illegal Contract? Discuss with illustration and case law.
उत्तर (क) – असम्यक् असर (undue influence) – असम्यक् असर अर्थात् अनुचित प्रभाव का हल्सबरी द्वारा इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि “किसी व्यक्ति द्वारा अपनी शक्ति का दूसरे व्यक्ति पर नृशंसतापूर्वक प्रयोग संविदा के लिए उत्प्रेरित करना असम्यक् असर है। जबकि ऐन्सन महोदय ने इसे इस प्रकार परिभाषित किया-“जब पक्षकार एक-दूसरे पर इस प्रकार से विश्वास की स्थिति में होते हैं कि एक दूसरे पर अपना असर डाल सकते हों जो स्वयं में उचित हो परन्तु उसे नाजायज प्रकार से प्रयोग किया जाय तो इसे असम्यक् असर कहेंगे।”
संविदा अधिनियम की धारा 16 असम्यक् असर की निम्नलिखित परिभाषा बताती है- संविदा असम्यक् असर द्वारा कराई गई तब कही जाती है जब –
(i) एक पक्षकार के दूसरे पक्षकार से ऐसा सम्बन्ध हो कि वह दूसरे पक्षकार की इच्छा का अधिशासित करने की स्थिति में हो; और
(ii) उन्होंने दूसरे पक्षकार से अनुचित फायदा उठाने के लिए उस स्थिति का उपयोग किया हो।
एक व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति की इच्छा की अधिशासित करने की स्थिति में तब कहा जाता है जब वह ऐसे व्यक्ति के साथ संविदा करता है –
(क) जिस पर वास्तविक या दूश्यमान प्राधिकार रखता है, या
(ख) जिसके साथ वैश्वासिक सम्बन्ध की स्थिति में हो या
(ग) जिसको मानसिक सामर्थ्य पर आयु, रुग्णता या मानसिक या शारीरिक कष्ट के कारण अस्थायी या स्थायी रूप से प्रभाव पड़ा है।
(iii) लोकात्मा विरूद्ध प्रतीत होने वाली संविदा के बारे में यह साबित करे का भार कि संविदा असम्यक असर द्वारा नहीं कराई गई थी उस व्यक्ति पर होगा जो दूसरे पक्षकार की इच्छा अधिशासित करने की स्थिति में था।
आवश्यक तत्व- संविदा असम्यक् असर द्वारा कराई गई तब कही जाती है जब किसी संविदा में निम्नलिखित तत्व उपस्थित हों।
(1) सम्बन्धों के कारण एक पक्षकार दूसरे पक्षकार की इच्छा को अधिशासित करने की स्थिति में हो-जैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्णात मन्यू सिंह बनाम उमादत्ता पाण्डेय, (1880) के बाद में एक धार्मिक गुरू ने अपने चेले को यह कहकर धन देने के लिए उत्प्रेरित किया कि वह यदि अपनी सारी सम्पत्ति ट्रस्ट को दान में दे देगा तो उसे मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति और स्वर्ग में शान्ति मिलेगी। उस चेले ने अपनी सम्पत्ति दान दे दी। निर्णीत हुआ कि संविदा असम्यक् असर द्वारा प्रभावित थी।
(2) अधिशासित करने की स्थिति का उपयोग अनुचित फायदा उठाने के प्रयोजन से किया गया हो –
(i) ऐसा व्यक्ति जो किसी दूसरे व्यक्ति पर वास्तविक या दृश्यमान प्राधिकार रखता है। जैसे-अभियुक्त के प्रति पुलिस एवं मजिस्ट्रेट।
(ii) वैश्वासिक सम्बन्ध- जैसे- बालक एवं माता-पिता या संरक्षक के सम्बन्ध, मरीज डाक्टर, बकील मुवक्किल का सम्बध।
उदाहरण– ‘क’ जिसने अपने पुत्र ‘ख’ को उसकी अवयस्कता के दौरान में धन उधार दिया था, ‘ख’ के वयस्क होने पर अपने पैतृक असर के दुरुपयोग द्वारा उससे उस उधार धन की बाबत शेध्य धनराशि से अधिक रकम के लिए एक बन्धपत्र प्राप्त कर लेता है। ‘क’ असम्यक् असर का प्रयोग करता है।
(iii) दिमागी रूप से असमर्थ व्यक्ति के साथ संविदा करने वाला [धारा 16 (2) (ख)]
इस सम्बन्ध में लक्ष्मी अम्मा बनाम टी० नारायन भट्ट, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 1365 का वाद एक उपयुक्त उदाहरण है-एक बूढ़ा आदमी जो कई बीमारियों से पीड़ित था इलाज करवाने के लिए एक नर्सिंग होम में भर्ती हुआ वहाँ उसने अपनी सारी सम्पत्ति एक ही लड़के को दान-पत्र द्वारा दे दी। दूसरे लड़के को कुछ भी नहीं दिया। निर्णीत हुआ कि वह दान-पत्र असम्यक् असर के अधीन लिखा गया था इसलिए शून्यकरणीय था।
दलवीर सिंह बनाम वीर सिंह, ए० आई० आर० (2001) पी० एण्ड एच० 216 के बाद में भूमि का विक्रय, एक आढ़तिया और उसके ग्राहक के मध्य करार हुआ। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इस मामले में आदतिया ग्राहक पर अनुचित प्रभाव डाल सकता था। इसलिए करार के उचित होने के बारे में अधिक सबूत माँगा जाना चाहिये था सुन्दरी देवी बनाम देवनारायन प्रसाद, ए० आई० आर० (2011) पटना 89 के बाद में प्रतिवादी ने यह तर्क दिया कि वादी ने मेरा हस्ताक्षर सादे कागज पर करा कर करार किया लेकिन अभिवचन में कोई साक्ष्य भी प्रस्तुत नहीं किया और न तो प्रतिवादी ने विक्रय विलेख को निरस्त करने का बाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने विक्रय विलेख को विधिक व मान्य माना।
(3) अन्तःकरण (लोकात्मा) विरुद्ध प्रतीत होने वाली संविदाणे 16 (3) ]- सेन्ट्रल इनलैण्ड वाटर ट्रान्सपोर्ट बनाम बृजनाथ गांगुली, (1986) 3 एस० सी० सी० का वाद एक उपयुक्त उदाहरण है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ किसी करार की कोई शर्त इतनी अनुचित और आयुक्तियुक्त हो कि वह न्यायालय के अन्तःकरण को प्रभावित करती हो वहाँ करार लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण धारा 23 के अधीन शून्य होगा। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित थे-वादी, निगम का एक कर्मचारी था। बादी ने कम्पनी की सेवा शर्तों में उस सेवा शर्त की विधिमान्यता को चुनौती दी जिसके अनुसार कर्मचारी को 3 माह की नोटिस देकर या 3 माह का वेतन देकर नियोजक द्वारा कभी भी निकाला जा सकता था।
पर्दानशीन औरतों के साथ संविदा –
पर्दानशीन महिला किसे कहेंगे ?– पर्दानशीन औरतें पर्दे में रहकर समाज से कुछ अर्थों में पृथक जीवन बिताती है उन्हें सांसारिक बातों का ज्ञान नहीं होता है इसलिए विधि द्वारा उन्हें विशेष संरक्षण प्रदान किया यगा है। सामान्यतया पर्दानशीन औरत उसे कहते हैं जो देश की प्रथा या समुदाय विशेश के चलन के अनुसार समाज से पृथक रहने को बाध्य है इसलिए जो व्यक्ति उनसे संविदा करता है उसे ही यह साबित करना पड़ता है कि पर्दानशीन स्त्री को संव्यवहार की प्रकृति एवं परिणाम को अच्छी तरह से समझा दिया गया था।
पर्दानशीन औरतों के साथ की गयी संविदा असम्यक असर द्वारा प्रभावित मानी जाती है यदि दूसरा पक्षकार यह नहीं कर देता कि उक्त महिला को संविदा करने पूर्व संविदा की शर्तों के बारे में समझा नहीं दिया गया था और उक्त महिला ने स्वतन्त्र सहमति से संविदा की थी। इसे न्यायालयों द्वारा निर्णीत वादों से ही समझा जा सकता है क्योंकि संविदा अधिनियम में पर्दानशीन महिला को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है
शेख इस्माइल बनाम अमीर बीबी, (1902) एक उचित उदाहरण है- एक महिला जिसने रजिस्ट्रार के समक्ष दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किया था और एक दूसरे मूकदमें में अदालत में गवाही देने भी गई थी। अपने मकानों को किरायें पर वह स्वयं उठाती थी और स्वयं किराया तय करती थी। निर्णीत हुआ कि वह पर्दानशीन महीला नहीं थी क्योंकि समाज में कुछ सीमा तक मात्र अलग रहने वाली महिला को पर्दानशीन महिला को श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
असम्यक् असर द्वारा संविदा कराने का परिणाम [ धारा 19 ( क ) ] – इसे संविदा अधिनियम में सन् 1899 में संशोधन करके जोड़ा गया। यदि किसी पक्षकार की सम्मति अनुचित प्रभाव का प्रयोग करके प्राप्त की गई है तो सम्मति स्वतन्त्र नहीं होगी तथा उस पक्षकार के विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय होगी तथा यदि न्यायालय के समक्ष ऐसी संविदा से सम्बन्धित वाद प्रस्तुत होता है जिसमें असम्यक् असर का प्रयोग किया गया है तो वह अपने विवेक का प्रयोग करके यदि उचित हो तो प्राप्त लाभ वापस करने का आदेश दे सकता है।
उदाहरण के लिए– ‘अ’ एक किसान ने परम आवश्यक कार्य के लिए धन 60% ब्याज की दर से उधार लिया। तत्पश्चात् ‘अ’ संविदा को इस कारण शून्य कराता है कि असम्यक् असर के प्रयोग से ब्याज की दर का अनुबन्ध किया गया है। ऐसी स्थिति में न्यायालय संविदा को शून्य कराते हुए मूलधन उचित ब्याज की दर से वापस करने का आदेश दे सकता है। क्योंकि ऋणदाता ॠणी की इच्छा को अधिशासित करने की अवस्था में था।
उत्तर (ख)- अवैध संविदा (Illegal contract)- जब किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल विधि-विरुद्ध है तो उसे अवैध संविदा कहेंगे। प्रत्येक अवैध संविदा शून्य संविदा होती है इसलिए अवैध संविदा का प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 अवैध संविदा की व्याख्या करती है। धारा 23 के अनुसार किसी करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण है, सिवाय जबकि-वह विधि द्वारा निषिद्ध हो, या वह ऐसी प्रकृति का हो यदि वह अनुज्ञात किया जाए तो वह किसी विधि के उपबन्धों को विफल कर देगा; या
वह कपटपूर्ण हो; या
उसमें किसी अन्य के शरीर या सम्पत्ति की क्षति अन्तर्वलित या विर्वक्षित हो अथवा न्यायालय उसे अनैतिक या लोकनीति के विरूद्ध माने।
इन दशाओं में से हर एक में करार का प्रतिफल या उद्देश्य अवैध कहलाता है।
इस प्रकार उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि निम्नलिखित दशाओं में की गयी संविदा अवैध होती है। यदि किसी संविदा का उद्देश्य व प्रतिफल अनैतिक, लोकनीति के विरूद्ध या विधि द्वारा निषिद्ध या ऐसी प्रकृति का है कि यदि लागू किया जाय तो विधि के प्रावधानों को निष्फल कर देगा या किसी के शरीर व सम्पत्ति को क्षति पहुँचाता हो या कपटपूर्ण है।
दृष्टान्त –
(क) क, ख और ग अपने द्वारा कपट से अर्जित किये गये या किये जाने वाले अभिलाषों को आपस में विभाजन के लिए तैयार करते है। करार शून्य है, क्योंकि उसका उद्देश्य विधि-विरूद्ध है।
(ख) ख के लिए लोक सेवा में नियोजन अभिप्राप्त करने का वचन क देता है और क को ख 1,000 रुपये देने का वचन देता है। करार शून्य है, क्योंकि उसके लिए प्रतिफल विधि-विरुद्ध है।
(ग) क जो ख का मुख्तार है, उस असर का जो उस हैसियत में उसका ख पर हैं ग के पक्ष में प्रयुक्त करने का वचन देता है और क को 1,000 रुपये देने का वचन ग देता है, करार शून्य है, क्योंकि वह अनैतिक है।
(घ) क अपनी पुत्री को उपपत्नी के रूप में रखे जाने के लिए ख को भाड़े पर देने के लिए करार करता है, करार शून्य है, क्योंकि वह अनैतिक है, यद्यपि इस प्रकार भाड़े पर दिया जाना भरतीय दण्ड संहिता के अधीन दण्डनीय न हो।
इस प्रकार करार को मान्य संविदा के रूप में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है। कि करार का प्रतिफल व उद्देश्य विधिपूर्ण हो। जैसे अ ने ब से कुछ वस्तु को एक तस्करी के द्वारा प्राप्त घड़ी देकर क्रय करने की प्रतिज्ञा किया हो तो ऐसा किया गया करार शून्य है क्योंकि उसका प्रतिफल अवैध है। संविदा अधिनियम की धारा 23 में दी गयी परिभाषा के अनुसार निम्न दशाओं में किसी करार का प्रतिफल व उद्देश्य अवैध होगा।
विधि द्वारा निषिद्ध हो (Fobidden by Law)- यदि किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल विधि द्वारा निषिद्ध हो तो वह अवैध एवं शून्य होगा जिसका प्रवर्तन न्यायालय द्वारा नहीं किया जा सकेगा। इस निषिद्धता को दो अर्थों में लगाया गया है- (1) प्रवृत्त विधि के अधीन निषिद्ध होना चाहिए तथा (2) अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्णित किया गया हो।
उपरोक्त दोनों स्थितियों में किया गया कार्य निषिद्ध माना जाता है। नन्दलाल बनाम जे० विलियम्स, 171 आई० सी० 948 के बाद में वादी ने उत्पादक अधिनियम के अन्तर्गत अनुज्ञप्ति प्राप्त करके एक शराब की दुकान स्थापित किया जिसका अन्तरण, साझेदारी, उपपट्टा निषिद्ध था। वादी ने इस नियम का उल्लंघन करते हुए प्रतिवादी से करार किया। न्यायालय ने करार को इस आधार पर शून्य किया कि इसका उद्देश्य ऐसे व्यक्ति के साथ दुकान चलाना था जिसे लाइसेंस प्राप्त नहीं है। अतः उक्त करार से अधिनियम का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। इसके अलावा बहुत से ऐसे कार्य है जो स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट नहीं किये गये है बल्कि केवल दण्ड अधिरोपित किये गये है। इसका उदाहरण इस वाद से लिया जा सकता है। भीखन भाई बनाम हीरालाल, (1900) 24, बाम्बे 622 के बाद में बम्बई मार्ग शुल्क अधिनियम (Toll Tax Act) 1875 के अन्तर्गत वादी को एक पट्टा दिया गया जिसको शर्त यह थी कि कलेक्टर की आज्ञा के बिना इसका दरपट्टा नहीं किया जा सकता। इसका उल्लंघन करने वाले को 200 रुपये जुर्माना देना पड़ेगा। वादी ने इसका उल्लंघन किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा शून्य नहीं थी तथा जुर्माना का अर्थ यह नहीं है कि दरपट्टा विधि द्वारा निषिद्ध है बल्कि यह शर्त केवल मालगुजारी की सुरक्षा की दृष्टि से लगायी गयी थी।
(2) विधि के उपबन्धों को निष्फल करने वाला हो – यदि किसी करार की प्रकृति (करार का उद्देश्य एवं प्रतिफल की प्रकृति) ऐसी है कि लागू किये जाने पर वह विधि के उपबन्धों को निष्फल कर देगा वह करार अवैध एवं शून्य होगा। कोई भी ऐसी विधि जो विधायन के नियमों, अधिनियमों का उल्लंघन करता हो वह अवैध एवं शून्य होगी साथ ही हिन्दू विधि या मुस्लिम विधि के प्रावधानों का निष्फल करने वाला करार अवैध है तथा व नियम जो न्याय प्रशासन का कार्य करते हैं (जैसे-इंग्लैण्ड में नीलामी में बोली न बोलने वाला करार अवैध माना गया है) या जो करार किसी देश की मौलिक विधि को विफल करता हो वह करार अवैध माना जाता है। इससे सम्बन्धित बात रैगाजोनी बनाम सेठिया, (1952) 2 क्यू० वी० 490 का है। भारतीय सेन्ट्रल कस्टम अधिनियम, 1878 के अन्तर्गत भातीय सामान दक्षिण अफ्रीका भेजना वर्जित था। पक्षकार इस बात पर सहमत हुए कि पहले माल इंग्लैण्ड भेजा जाय फिर वहाँ से दक्षिण अफ्रीका प्रतिवादी माल न भेज सका, उसके विरूद्ध संविदा भंग का वाद लाया गया। न्यायालय ने इस संविदा का उल्लंघन नहीं माना क्योंकि करार अवैध था।
(3) कपटपूर्ण होना – जब किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल कपटपूर्ण हो तो वह अवैध है। जहाँ पर करार के दोनों पक्षकारों का इरादा कपट करके प्राप्त धनराशि का आपस में वितरित करना है। वह करार अवैध है जैसे-लेनदारों को धोखा देना, उनमे किसी को अधिमान देना या वित्त प्राधिकारी को धोखा देना या कम्पनी में धन लगाने वालों को धोखा देना इत्यादि कपट है। इसलिए अवैध है।
शिवराम बनाम नागरमल, (1884) पंजाब रे० 63 के बाद में दो व्यक्तियों ने आपस में करार करके सरकारी विभाग से कपट द्वारा ठेका प्राप्त किया। न्यायालय ने करार को अमान्य किया, क्योंकि करार का उद्देश्य कपटपूर्ण था। रामसेवक बनाम रामचरन, ए० आई० आर० 1982 इला० 177 के बाद में दो साझेदारों में करार हुआ कि वे आयकर को बचाने के लिए। आय कम दिखाएँगे। यह करार अवैध घोषित किया गया।
(4) शरीर या सम्पत्ति को क्षति पहुंचती हो – जब किसी संविदा का उद्देश्य किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को क्षति पहुंचना हो तो वह अवैध है। जैसे-अ एक समाचार पत्र के सम्पादक को 1,000 रुपये देने का करार किया बशर्ते कि वह उसके दुश्मन के खिलाफ मानहानिकारक लेख छापे ऐसी स्थिति में सम्पादक वह रुपया अ से वसूल नहीं कर सकता, क्योंकि उसका उद्देश्य समाज मे किसी की इज्जत को उछालना था इस प्रकार की गई कोई भी संविदा अवैध होगी।
(5) अनैतिक या लोकनीति के विरूद्ध हो– अनैतिक उद्देश्य व प्रतिफल से युक्त करार अवैध होता है। अनैतिक का अर्थ होता है-सदाचरण के विरूद्ध, नैतिकता के विरूद्ध (Against good morala) करार को अवैध करार कहते है। अनैतिकता का निर्धारण वैसे तो न्यायालय कर सकती है परन्तु कुछ उद्देश्य कार्य प्रारम्भ से ही अनैतिक होते हैं। विवाह सम्बन्धों मे हस्तक्षेप इसका प्रथम उदाहरण है। इस शब्द को भारतीय विधि तथा आंग्ल विधि दोनों में यौन सम्बन्धों तक सीमित रखा गया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार से है- उपपत्नी या रखैल बनाने के लिए सम्पत्ति की व्यवस्था करना तथा वेश्यावृत्ति के प्रयेग के लिए कोई वस्तु किराये पर देना, यौन सम्बन्धों के लिए धन देने की प्रतिज्ञा करना, किसी का तलाक करवाकर उससे शादी करने का करार करना इत्यादि अनैतिक होने के कारण शून्य माने गये है।
पीयर्स बनाम बुक्स, (1866) एल० आर० 1 एक्स 213 के बाद में एक वेश्या ने वादी से एक घोड़ा गाड़ी किराये पर लिया। वादी यह जानता था कि वेश्या इसका प्रयोग वेश्यावृत्ति के लिए ही करेगी। वेश्या ने किराया नहीं दिया। वादी द्वारा किराया प्राप्त करने के लिए वाद प्रस्तुत करने पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि करार का उद्देश्य अनैतिक कार्य को बढ़ावा देना था। अतः वह किराया प्राप्त नहीं कर सकता।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत एक वाद जिसमें श्रीमती कमला बाई बनाम अर्जुन सिंह, ए० आई० आर० 1991 एम० पी० 275 के बाद में विवाहिता स्त्री के पिता अपनी पुत्री का विवाह किसी दूसरे व्यक्ति से कर दिया। उक्त व्यक्ति ने विवाह के पूर्व स्त्री के पिता के नाम कुछ भूमि का अन्तरण किया था तथा स्त्री ने अपन पूर्व पति से तलाक नहीं लिया था। अतः न्यायालय ने निर्णीत किया कि उक्त अन्तरण का करार अनैतिक व लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण शून्य है। अतः विवाह दलाली की संविदा जिसमें तीसरे व्यक्ति का हस्तक्षेपं लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण अवैध होता है।
भूतपूर्व सहवास (Past Cohabitation) ऐसे सम्बन्धों के लिए यदि की गयी प्रतिज्ञा शीलयुक्त है तो वह प्रवर्तनीय होगी अन्यथा नहीं।
धीरज कुंवरि बनाम विक्रमाजीत, (1881) 3 इलाहाबाद 887 के बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिज्ञाकर्ता को एक स्त्री के प्रति भूतपूर्व सम्बन्धों के लिए कुछ धन देने की प्रतिज्ञा के पालन के लिए उत्तरदायी ठहराया। मैसूर उच्च न्यायालय ने वी० वी० रामाराव, बनाम जै अम्मा, ए० आई० आर० 1953 मैसूर 33 के बाद में भूतपूर्व सहवास के लिए को गयी प्रतिज्ञा को प्रवर्तनीय माना।
लोकनीति (Public Policy)- इस व्यापक अर्थ वाले शब्द की परिभाषा अधिनियम मे नहीं दी गयी है। लोक एक अनिश्चित तथ्य है जो समाज के स्तर व समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। इसकी सीमा का निर्धारण करना एक कठिन कार्य है। कोई करार लोकनीति के विरुद्ध तब कहा जाएगा, जब वह करार समाज के हित के विरुद्ध हो। धेरुलाल पारिख बनाम महादेव दास, (1959) 2 एस० सी० ए० 342 के बाद में लोकनीति की व्याख्या इस प्रकार की गयी है –
लोकनीति का सिद्धान्त सामान्य विधि का एक अंग है जो कि पूर्व निर्णयों से बाध्य है। और कई वर्गों में विभाजित किया जा चुका है। न्यायालय उन वर्गों को नई परिस्थितियों में लागू कर सकते हैं, परन्तु ऐसी परिस्थितियों में जिससे लोकहित की हानि स्पष्ट हो। यद्यपि लोकनीति के वर्ग बन्द नहीं किये गये हैं और सिद्धान्त रूप में हम कह सकते हैं कि नई स्थितियों में नये वर्ग बनाये जा सकते हैं।
जोधपुर विकास प्राधिकरण बनाम राज्य उपभोक्ता अनुतोषीय फोरम, ए० आई० आर० (2012) ए० ओ० सी० 253 (राज०) के मामले में विकास प्राधिकरण ने आवंटिती को प्लाट आवंटित किया जो भूमि पट्टेदारों के कब्जे में थी। आवंटन की शर्त थी कि भूमि से बेदखल होने का कर्तव्य स्वयं पट्टाधारी को है जिसमें विकास प्राधिकरण आवंटती को केवल सहयोग करेगी। न्यायालय का यह निर्णय था कि शर्त शुन्य एवं लोकनीति के विरुद्ध है और इसे आवंटतों के विरुद्ध प्रवर्तनीय नहीं कराया जा सकता है।
राजश्री शूगर एण्ड केमिकल लि० बनाम ऐक्सिस बैंक लि० ए० आई० आर० (2011) मद्रास 144 के बाद में मत व्यक्त किया गया कि जो संव्यवहार विधि द्वारा अनुज्ञेय है, उसे लोकनीति के विरुद्ध नहीं माना जा सकता।
निनलिखित करार लोकनीति के विरुद्ध माने जाते हैं –
(1) विदेशी शत्रु के साथ व्यापार करने का करार
(2) दाण्डिक अभियोजन को दबाने या समाप्त करने का करार
(3) न्यायिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का करार
(4) लोक पदों के क्रय-विक्रय सम्बन्धी करार
(5) वाद व्यय या भरण-पोषण के करार
(6) वैवाहिक सम्बन्धों में हस्तक्षेप का करार
(7) वैवाहिक सम्बन्धों में दलाली करना
(8) एकाधिकार को प्रोत्साहित करने का करार
(9) लोक सेवकों को उनके कर्तव्य के विरुद्ध भड़काने का करार।
प्रश्न 16. “प्रत्येक करार जिससे कि किसी व्यक्ति को किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति, व्यापार या कारोबार करने से अवरुद्ध किया जाता है, अवरोध के विस्तार तक शून्य है” इस कथन की विवेचना कीजिए। इस नियम के अपवाद बतायें।
या
निम्नलिखित के बारे में भारतीय संविदा अधिनियम के उपबन्धों का वर्णन करें तथा उदाहरण दीजिए –
(i) व्यापार के अवरोधार्थ करार
(ii) विवाह के अवरोधार्थ करार
व्यापार में अवरोध पैदा करने वाले करार शून्य होते हैं। इसके अपवाद बताइये।
“Every agreement by which one is restrained from exercising a lawful professions trade or business is to that extent void.” Discuss state the exceptions to this rule.
Or
Discuss with illustrations the provisions of Indian Contract Act relating to followings-
(i) An agreement is restraint of trade.
(ii) An agreement is restraint of marriage. उत्तर– व्यापार के अवरोधार्थ करार व्यापार करने की स्वतन्त्रता का अधिकार है। ऐसे अधिकार पर न तो विधिक प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है और न ही व्यक्ति करार द्वारा अवरोध उत्पन्न कर सकता है भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 में यह सिद्धान्त वर्णित किया गया है कि व्यापार, वृत्ति एवं कारबार में अवरोध उत्पन्न करने वाले करार शून्य होते हैं। इस धारा में वे ही व्यापार रहित हैं जो विधिक हो।
धारा 27 निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करती है –
1. व्यापार में एकाधिकार को निरुत्साहित करना,
2. समाज में कारबार की आवश्यकता को मान्यता देना,
3. व्यक्ति की आजीविका के अधिकार की रक्षा करना, इत्यादि।
अंग्रेजी विधि- इस विषय पर अंग्रेजी विधि में समय-समय पर परिवर्तन होते गये। नार्डन फेल्ड बनाम मैक्सिम गन कम्पनी (1894) ए० सी० 535 में प्रतिपादित किये गये सिद्धान्त अब भी मान्य है। यदि कोई करार न्यायोचित नहीं हो अर्थात् लोकहित के विरुद्ध हो तो शून्य माना जाता है। अवरोध चाहे पूर्ण हो या आंशिक, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला करार युक्तिसंगत है या नहीं यह सिद्ध करने का भार भी पक्षकार पर रहता है।
भारतीय विधि अंग्रेजी विधि से कुछ अधिक कठोर है। धारा 27 या अन्य विधि में दिये गये अपवादों में जब तक मामला नहीं आता, व्यापार में अवरोध पैदा करने वाला करार शून्य होता है। भारत में मापदण्ड यह नहीं है कि अवरोध युक्तिसंगत है या नहीं। इस प्रकार भारत में करार को शून्य घोषित करना, न्यायालय के विवेक अधिकार पर निर्भर नहीं करता है। यदि करार व्यापार, वृत्ति या कारबार में अवरोध उत्पन्न करने वाला है और किसी अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता है तो शून्य होगा।
अवरोधक करार
पेट्रोलियम कम्पनी लिमिटेड बनाम हारपर्स गैरेज (1968) ए० सी० 269 के बाद में न्यायालय ने एक ऐसे करार को शून्य ठहराया जिसके अन्तर्गत एक व्यापारी ने 21 वर्ष तक कम्पनी से व्यापार करने की संविदा किया था। यह समय लम्बा तथा अनुचित था।
अपवाद – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 में एक अपवाद दिया गया है। कुछ अपवाद भागीदारी अधिनियम में दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त न्यायिक व्याख्या द्वारा भी अपवाद बताये गये हैं।
विधिक अपवाद (Statutory Exceptions)
1. गुडविल का बेचना (Sale of goodwill)- भारतीय संविदा अधिनियम में मात्र यही अपवाद दिया गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने व्यापार की गुडविल बेचता है तो यह गुडविल खरीदने वाले के साथ यह करार कर सकता है कि यह उस प्रकार का व्यापार निश्चित सीमा में नहीं करेगा। ऐसा करार तभी वैध होता है जब गुडविल बेचने वाले पर प्रतिबन्ध न्यायालय की राय में युक्तिसंगत हो।
गुडविल की परिभाषा देना कठिन है- लाई एल्डसन के अनुसार गुडविल एक आशा या सम्भावना है कि पुराने ग्राहक पुरानी जगह पर आते रहेंगे।
इस अपवाद का प्रत्यक्ष प्रयोजन गुडविल के खरीददार के हित की रक्षा करना है। इस अपवाद को लागू करने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी करनी आवश्यक होती हैं –
1 व्यापार की गुडविल को बेचना हो,
2. गुडविल क्रेता ने विक्रेता पर व्यापार करने की रोक लगाई हो,
3. अवरोध उसी प्रकार का व्यापार करने के लिए हो,
4. अवरोध किसी क्षेत्रीय सीमा में व्यापार न करने का हो,
5. ऐसा अवरोध न्यायालय की दृष्टि में युक्तिसंगत हो।
2. भागीदारी अधिनियम (Partnership Act)- (1) धारा 11 के तहत भागीदार फर्म के रहते हुए एक दूसरे के साथ यह करार कर सकते हैं कि भागीदारी के दौरान वे कोई दूसरा व्यापार नहीं करेंगे।
(2) धारा 36 के तहत भागीदारी छोड़ने वाले सदस्य पर यह प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है कि वह निश्चित अवधि तक या निश्चित क्षेत्रीय सीमा में यही व्यापार नहीं करेगा। ऐसा प्रतिबन्ध युक्तिसंगत होना चाहिए।
(3) धारा 54 के तहत भागीदारी विघटन के समय ऐसा करार किया जा सकता है कि भागीदार निश्चित क्षेत्रीय सीमा में या निश्चित अवधि तक वही व्यापार नहीं करेंगे।
न्यायिक व्याख्या द्वारा प्रतिपादित अपवाद (Exception propounded by judicial interpretation)
1. व्यापारिक संयोजन (Trade conbination)– आजकल व्यापार भी संगठित रूप में किया जाता है। बाजार में व्यापारिक प्रतियोगिता रोकने के लिए वस्तुओं एवं कार्य की दर भी निर्धारित कर दी जाती है। जैसे घड़ीसाज, बाल काटने वाले, दर्जी इत्यादि अपने कार्य की दर निश्चित कर लेते हैं।
कुछ बर्फ बनाने वाली फर्मों के बीच करार हुआ कि वे निश्चित दर से नीचे बर्फ नहीं बेचेंगी। ऐसे करार को भी वैध घोषित किया गया। (एम० वी० फेजर एवं कम्पनी बनाम बम्बई आइस कं० (1964) 29 आई० एल० आर० (बम्बई) 107)
ऐसे व्यापारिक संयोजन के रूप में यदि व्यापार पर अवरोध लगता भी है तो अपवाद के अन्तर्गत वैध माना जाता है।
2. नियोक्ता एवं नौकर के बीच करार (Agreement between Employer & Employee)- नियोक्ता किसी व्यक्ति को नौकरी देते समय यह करार कर सकता है कि उसकी नौकरी के दौरान नौकरी करने वाला अन्य नौकरी नहीं करेगा या चिश्चित अवधि तक उसी प्रकार का व्यवसाय नहीं करेगा।
फिटजी लि० बनाम ब्रिलियेन्ट ट्यूटोरियल (प्रा० ) लि० ए० आई० आर० (2011) एन० ओ० सी० सप्ली० 797 दिल्ली के बाद में जब कर्मचारी द्वारा परिवचन दिया जाता है कि सेवा काल के दौरान अन्यत्र सेवा नहीं करेगा। यह नकारात्मक प्रसंविदा मान्य है बशर्ते विनिर्दिष्ट समय तक के लिए उचित हो।
नियोजक और नौकर के बीच हुए करार के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय अति महत्वपूर्ण है। सुपरिटेण्डेन्ट कम्पनी ऑफ इण्डिया लि० बनाम कृष्णन मुरगाई (1981) 2 ए० सी० सी० 246 के बाद में कर्मचारी ने नियोजक कम्पनी से करार किया कि वह नौकरी छोड़ने के दो वर्ष की अवधि तक अन्तिम पोस्टिंग के स्थान पर कम्पनी के साथ स्पर्धा करने वाली किसी कम्पनी में नौकरी नहीं करेगा और कम्पनी के कारबार के सदृश कारबार नहीं करेगा, उक्त कर्मचारी को कम्पनी ने कुछ कारणवश निकाल दिया, नौकरी से निकाल दिये जाने के 4 महीने के अन्दर ही उक्त कर्मचारों के कम्पनी के कारवार के सदृश कारबार करने लगा, बाद प्रस्तुत होने पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिबन्धयुक्त करार प्रवर्तनीय नहीं होगा क्योंकि कर्मचारी नौकरी से निकाला गया है।
समसार स्पेसियटी के० लि० बनाम शिवजीत राय, ए० आई० आर० (2007) मद्रास 237 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि जब नौकरी में एक खण्ड यह हो कि सेवा समाप्त होने के बाद किसी भी व्यक्ति को मालिक के सम्बन्ध में विश्वसनीय जानकारी के बारे में कुछ भी नहीं बतायेगा और न ऐसे किसी कारोबारी घराने में नौकरी करेगा जिसका कारोबार मालिक के मुकाबले का हो। न्यायालय ने इस खण्ड को धारा 27 के विपरीत बताया। हम्बी साफ्टवेयर प्रा० लि० बनाम समीर कुमार एण्ड अदर्स, ए० आई० आर० 2012 कल० 141 के बाद में निर्णय दिया गया कि पूर्व कर्मचारी द्वारा किसी ग्राहक को पूर्व नियोजक से संविदा भंग करने के लिए उकसाना अपकृत्य माना जाता है। उसे धारा 27 के अन्तर्गत सुरक्षा नहीं मिल सकती है।
3. किसी निश्चित व्यक्ति के माध्यम से ही व्यापार करना – यदि कोई कम्पनी किसी को इस शर्त पर वस्तु उपलब्ध कराती है कि क्रेता अन्य जगह के माल की खरीद नहीं करेगा। इस प्रकार के करार यद्यपि अवरोध उत्पन्न करने वाले होते हैं, फिर भी अपवाद के रूप में वैध माने जाते हैं।
विवाह के अवरोधार्थ करार या विवाह में अवरोध पैदा करने वाले करार (An agreement in restraint of marriage)- धारा 27 के तहत वे करार शून्य होते हैं। जो विवाह में अवरोध पैदा करते हैं। कानून व्यक्तियों को विवाह सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। वैसे किसी भी व्यक्ति को विवाह करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है किन्तु किसी व्यक्ति को विवाह न करने के लिए भी बाध्य नहीं किया जा सकता है।
विवाह में अवरोध चाहे पूर्ण हो या आंशिक, सामान्य हो या विशिष्ट, सभी प्रकार के अवरोध वर्जित हैं।
मोहम्मद अली बनाम आयशा खातून (1915) में पति-पत्नी के बीच करार हुआ कि यदि पति दूसरी शादी करेगा तो पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार होगा। इस करार को वैध घोषित किया गया।
अंग्रेजी विधि में विवाह में पूर्ण अवरोध पैदा करने वाला करार शून्य होता है। यदि अवरोध आंशिक एवं नाममात्र का है तो करार शून्य होता है।
प्रश्न 17. बाजी के करार या पंद्यम करार से आप क्या समझते हैं? क्या इन करारों को लागू करवाया जा सकता है? बाजी की संविदा एवं समाश्रित संविदा में अन्तर स्पष्ट करें। निम्न की स्थिति क्या है-
(1) लाटरी
(2) कास शब्द प्रतियोगिता
( 3 ) तेजी-मंदी संव्यवहार
अ तथा व ने आपस में करार किया कि बाजी लगाने का व्यापार करेंगे तथा हानि लाभ में बराबर हिस्सेदार होंगे। अ, ने करार के अनुसार बाजी लगाई तथा पचास हजार रुपये हो हानि हुई। अ ने ब से हानि की आधी रकम 25 हजार रुपये के लिए ब पर वाद किया व का कहना है कि बाजी करार होने के कारण करार शून्य युक्त है। निर्णय दीजिए।
What do you understand by wagering agreement? Can they be enforced under law? What is the difference between wagering agreement (contract) and contingent agreement contract? What is position of followings
(1) Lottery
(2) Cross word puzzles
(3) Teji-Mandi Transaction.
A and B entered into an agreement carry on the business of wagering and to share the profit and loss equally. According to the agreement, A, entered into wagering agreement and suffered loss of Rs. 50,000/-, Now a files a suit against B to recover half of the loss ie., Rs. 25,000/- B, says being wagering agreement, the agreement in question is void. Decide.
उत्तर– बाजी लगाना एक अनैतिक तथा असामाजिक कार्य हैं इसलिए संविदा अधिनियम की धारा 30 बाजी की संविदा को शून्य घोषित करती है। बाजी में हार-जीत की वस्तु को प्राप्त करने हेतु वाद नहीं लाया जा सकता है। बाजी या पंद्यम या क्षणिक करार (Wagering contract or agreement) की परिभाषा संविदा अधिनियम में नहीं दी गई है। परन्तु एन्सन महोदय के अनुसार बाजी की संविदा में किसी ऐसी घटना के विनिश्चयन या निर्धारण हेतु द्रव्य या द्रव्य जैसी कोई मूल्यवान वस्तु परिदान करने का करार होता है, न्यायमूर्ति हाकिन्स नै कालिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कम्पनी (1893) 1 क्वीन्स बेंच 256, नामक वाद में बाजी के करार की परिभाषा देते हुए कहा कि बाजी की संविदा वह है जिसमें दो पक्षकार भविष्य की किसी अनिश्चित घटना के सम्बन्ध में विपरीत मत रखने हुए यह करार करते हैं कि उस घटना के निश्चय या निर्धारण (घटना घटित होने पर) एक पक्षकार की दूसरे पक्षकार पर जीत होगी तथा पहला पक्षकार दूसरे को धन या कोई वस्तु देगा। घटना के घटित होने या न होने में पक्षकारों का हार-जीत के अतिरिक्त कोई अन्य (उद्देश्य) हित नहीं होता।
इस प्रकार बाजी की संविदा शुद्ध रूप से हार-जीत की संविदा होती है तथा इसमें हर जीत के अतिरिक्त पक्षकारों का कोई हित नहीं होता। बाजी की संविदा में यह आवश्यक कि प्रत्येक पक्षकार को हारने या जीतने की सम्भावना हो तथा किसी पक्षकार का हारना या जीतना घटना के परिणाम पर निर्भर रहता है। परिणाम आने तक पक्षकारों का हारना या जीतना अनिश्चित रहता है। यदि किसी संविदा में किसी पक्षकार के सिर्फ जीतने या सिर्फ हारने की सम्भावना हो तो वह संविदा बाजी की संविदा नहीं होगी।
मेसर्स राजश्री शुगर एण्ड केमिकल लि० बनाम ऐक्सिस बैंक लि० एण्ड अदर्स, ए० आई० आर० (2011) मद्रास 144 के बाद में यदि किसी करार को बाजीयुक्त करार का नाम देना है तो तीन बातों को सिद्ध करना होगा-
(i) दो व्यक्ति विरोधी विचारधारा भविष्यकालीन अनिश्चित घटना पर रखते हों।
(ii) घटना के निश्चित होने पर हार-जीत हो।
(iii) दो पक्षकारों को घटना के घटने या न घटने में कोई रुचि न हो, बल्कि पक्षकारों का आशय दाँव लगाना हो।
जैसे अ तथा व आपस में करार करते हैं कि यदि क्रिकेट के एक दिवसीय खेल में भारत जीतेगा तो अ, ब को 5000 रुपये देगा तथा यदि वेस्टइण्डीज जीतेगा तो ब, अ को 5000 रुपये देगा यह एक बाजी की संविदा होगी क्योंकि यहाँ भारत या वेस्टइण्डीज का जीतना या हारना अनिश्चित है तथा इनकी हार-जीत में अ या ब का बाजी की रकम प्राप्त करने के अतिरिक्त कोई हित नहीं है अतः यह बाजी की संविदा होगी।
बाजी की संविदा के आवश्यक तत्व– न्यायमूर्ति हाकिन्स के द्वारा कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बाल कम्पनी के वाद में जो बाजी के करार की परिभाषा दी गई है, वह एक पूर्ण परिभाषा में बाजी की संविदा (करार) के निम्न आवश्यक तत्व बनाये गये हैं.
(1) बाजी की संविदा में घटना का घटित होना या न होना अनिश्चित (2) बाजी की संविदा में दोनों पक्षकारों का मत विपरीत होता है।रहता है।
(3) बाजी की संविदा में प्रत्येक पक्षकार को हारने या जीतने की सम्भावना रहती है।
(4) बाजी की संविदा में पक्षकरों का हार या जीत के अतिरिक्त अन्य कोई हित या स्वार्थ नहीं रहता।
(1) बाजी की संविदा में घटना का घटना या न घटना अनिश्चित होता है – न्यायमूर्ति हाकिन्स के अनुसार बाजी की संविदा में घटना का घटना या न घटना अनिश्चित होता है। जैसे क्रिकेट के खेल मे जीत-हार की शर्त में यह अनिश्चित होता है कि कौन सी टीम जीतेगी परन्तु एन्सन महोदय के अनुसार घटना, निश्चित भी हो सकती है शर्त केवल यह है कि घटना के परिणामों की जानकारी पक्षकारों को न रही हो। यह घटना भूतकालीन भी हो सकती है। जैसे एक चुनाव हो चुका है परन्तु उसके परिणाम के बारे में पक्षकारों को जानकारी नहीं है तो उसके परिणामों के बारे में लगायी गयी शर्त बाजी की शर्त नहीं होगी।
(2) बाजी की संविदा में शर्त के बारे में पक्षकर विपरीत मत के होते हैं – यह भी आवश्यक है कि बाजी की संविदा में एक पक्षकार एक मत का होता है तथा दूसरा पक्षकार उसके विपरीत मत का होता है। एक पक्षकार कहता है कि अमुक टीम विजयी होगी तो दूसरा पक्षकार इस मत का होता है कि हारेगी।
(3) बाजी की संविदा में एक पक्षकार के जीतने की या हारने की सम्भावना रहती है– यदि किसी करार के अन्तर्गत एक पक्षकार सिर्फ जीत सकता है तथा उसके हारने की सम्भावना नहीं रहती या दूसरे पक्षकार के सिर्फ हारने की सम्भावना ही रहती है तथा वह जीत नहीं सकता तो वह बाजी की संविदा नहीं होगी। जैसे बाबा साहेब बनाम राजाराम के बाद में दो पहलवानों ने यह करार किया कि जो पहलवान कुश्ती के दिन नहीं आएगा उसे दूसरे पहलवान को 500/- रुपये देना होगा तथा यदि कुश्ती हो गई तो जीतने वाला पहलवान 1125/- रुपये पायेगा। कुश्ती के दिन एक पहलवान नहीं आया। दूसरे पहलवान ने अनुपस्थिति के कारण एक पहलवान पर 500/- रुपये प्राप्त करने हेतु वाद लाया न्यायालय ने इस करार को बाजी का करार नहीं माना क्योंकि जीतने वाले पहलवान को 1125/- रुपये मिलने थे परन्तु हारने वाले पहलवान को किसी भी राशि का भुगतान नहीं करना था। इस प्रकार प्रत्येक पहलवान को जीतने पर कुछ पाना ही था कुछ खोना नहीं था। यही अगर इस कुश्ती की पहलवान की हार या जीत के बारे में अ तथा व पारस्परिक संविदा करते हैं तो अ तथा ब के मध्य संविदा बाजी की संविदा होगी।
(4) पक्षकारों का संविदा में शर्त के अतिरिक्त कोई हित या स्वार्थ न हो- यही तत्व बाजी की संविदा तथा समाश्रित संविदा में अन्तर करता है। बाजी की संविदा में कोई पक्ष हारे या जीते इसमें बाजी की संविदा के पक्षकारों का बाजी की रकम के अतिरिक्त कोई स्वार्थ या हित नहीं रहता जबकि समाश्रित संविदा में घटना के घटित होने या न होने में पक्षकारों का हित रहता है जैसे यदि कोई व्यक्ति अपनी दुकान का बीमा कराता है तो उसका हित अपनी दुकान की सुरक्षा में होता है। उसका हित सिर्फ बीमाकृत रकम में ही नहीं होता।
ब्रह्मदत्त शर्मा बनाम जीवन बीमा निगम (1996) नामक वाद में मुख्तार सिंह नामक व्यक्ति के जीवन का बीमा कराया गया था जिसका प्रीमियम ब्रह्मदत्त (वादी) का हित मुख्तार सिंह की मृत्यु पर बीमाकृत रकम ब्रह्मदत्त को दी जाती थी, यहाँ ब्रह्मदत्त वादी का हित मुख्तार सिंह के जीवन में नहीं था। अत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अनुसार यह संविदा जो ब्रह्मदत्त तथा जीवन बीमा निगम के मध्य थी, वह बीमा की संविदा न होकर बाजी की संविदा थी तथा संविदा शून्य थी।
क्या बाजी की संविदा लागू करायी जा सकती है? : बाजी की संविदा का परिणाम- बाजी की संविदा अवैध तो नहीं है परन्तु शून्य है। इस प्रकार बाजी की संविदा में जिस वस्तु के बारे में बाजी लगाकर वस्तु जीती गयी है उस वस्तु की वसूली के लिए न्यायालय में वाद नहीं लाया जा सकता इसी प्रकार यदि बाजी की संविदा के परिणामों के आधार पर यदि कोई वस्तु किसी व्यक्ति को दे दी गई है तो उसे वापस पाने हेतु वाद नहीं लाया जा सकता। इसी प्रकार यदि बाजी की संविदा के अन्तर्गत जीतने वाले पक्षकार को कोई वस्तु दे दी गई है तो उस वस्तु को वापस लेने हेतु वाद नहीं लाया जा सकता। यदि बाजी करार के अन्तर्गत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का ऋणी हो जाता है तथा इस ऋण के भुगतान हेतु पहला व्यक्ति कोई वचनपत्र (Promissory Note) लिखता है तो वह वचनपत्र शून्य होगा तथा उसके आधार पर ऋण वापस प्राप्त नहीं हो सकता।
उपरोक्त नियम के अपवाद के रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि चन्दे या अंशदान के लिए एक करार किया गया है तथा घुड़दौड़ विजेता को 500/- रुपया या उससे अधिक मूल्य की कोई प्लेट पुरस्कार देने हेतु धनराशि देने को कहा गया है तो यह करार शून्य नहीं होगा।
बाजी का करार बम्बई राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में बाजी के करार को किसी विधि द्वारा वर्जित नहीं किया गया है अतः बम्बई को छोड़कर शेष भारत में बाजी का करार अवैध नहीं है। परिणामस्वरूप बम्बई को छोड़कर शेष भारत में बाजी की संविदा शून्य तो है परन्तु इससे जुड़ा दूसरा साम्पाश्विक करार प्रवर्तनीय होगा अर्थात् लागू करवाया जा सकता है।
घेरू लाल बनाम महादेवदास (ए० आई० आर० 1959 सु० को० 781) नामक बाद में दो व्यक्तियों ने बाजी का संव्यवहार करने हेतु आपस में करार किया। इस करार की साम्पाश्विक शर्त यह थी कि इस धंधे (संव्यवहार) में हानि-लाभ का भुगतान दोनों पक्षकार समान रूप से करेंगे। एक पक्षकार ने बाजी का करार किया जिसमें उसे 10,000 रुपये की हानि हुई। एक पक्षकार ने 10,000 का भुगतान कर दिया तथा उसकी आधी राशि 5000/ रुपया पाने हेतु दूसरे पक्षकार पर वाद किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि दूसरा पक्षकार हानि में अपना समान अंश 5000/- रुपये देने हेतु बाध्य है क्योंकि बाज़ी की संविदा से जुड़ा साम्पाश्विक करार प्रवर्तनीय है।
निम्न की वैधानिक स्थिति –
(1) लाटरी (Lottery)- भारतीय दण्ड संहिता (1860) की धारा 294 (क) द्वारा सरकार अनधिकृत लाटरी की घोषणा करना, आयोजन करना या रखना वर्जित तथा दण्डनीय कर दिया। इस प्रकार यदि कोई लाटरी सरकार द्वारा अधिकृत है तो वह अवैध या दण्डनीय नहीं होगी। परन्तु इसका दीवानी दायित्वों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् लाटरी क्रय करने का करार शून्य होगा भले ही लाटरी सरकार द्वारा अधिकृत क्यों न हो। परिणामस्वरूप यदि एक व्यक्ति लाटरी में इनाम जीतता है तो वह न्यायालय में वाद कर लाटरी की रकम प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि लाटरी करार को करार शून्य होने के कारण न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
(2) वर्ग या शब्द पहेलियाँ (Crossword Puzzles)- जिस करार में कौशल या बुद्धि या व्यक्ति की दक्षता का प्रयोग हो जैसे बन्दूक चलाना या वर्ग शब्द पहेलियाँ ऐसा करार शून्य नहीं होते तथा इन्हें लागू करवाया जा सकता है क्योंकि इन मामलों में जीतना या हारना संयोग पर निर्भर न होकर जीतने वाले व्यक्ति के कौशल बुद्धि या दक्षता पर निर्भर करता है।
(3) तेजी-मंदी संविदा– तेजी-मंदी संव्यवहार बाजार में मूल्यों की तेजी (बढ़त) या मंदी (घटत) पर निर्भर रहता है। इस संविदा में एक पक्षकार का यह विकल्प रहता है कि वह एक निश्चित वस्तु को एक निश्चित तिथि पर खरीदे या बेचे, जिस पक्षकार को यह विकल्प रहता है कि वह दूसरे पक्षकार को कमीशन के रूप में कुछ भुगतान करता है। यदि पक्षकारों का आशय निर्धारित तिथि पर निर्धारित वस्तु के बाजार मूल्य तथा संविदा मूल्य के अन्तर का भुगतान करना होता है। ये संविदाएँ सट्टे एवं बाजी की संविदा होगी अतः शून्य होंगी। परन्तु यदि पक्षकारों का आशय निर्धारित तिथि को निर्धारित वस्तु का निर्धारित मूल्य पर क्रय या विक्रय कर वस्तु का वास्तव में लेना या देना है तो यह संविदा बाजी की संविदा नहीं होगी तथा इसे (प्रवर्तनीय) लागू करवाया जा सकता है।
(4) सट्टेबाजी का करार- यदि किसी संविदा के पक्षकार भविष्य में किसी विशेष तिथि पर किसी वस्तु के बाजार मूल्य और संविदा मूल्य के अन्तर को ले देकर निपटारा करने का करार करते हैं तो ऐसे करार को सट्टेबाजी का करार कहते हैं। सट्टेबाजी का करार एक प्रकार का बाजी का करार होता है तथा बाजी का करार शून्य होता है। उदाहरण के लिए यदि क, ख से यह करार करता है कि वह 12 दिसम्बर, 1996 को 50 किलो चावल 600 प्रति की दर से प्रदान करेगा परन्तु इन दोनों का आशय गेहूँ बेचना-खरीदना न होकर सिर्फ 12 दिसम्बर, 1996 को बाजार मूल्य एवं संविदा मूल्य में अन्तर को पाना या देना है तो यह करार सट्टेबाजी का करार होगा तथा यह बाजी के करार का ही एक प्रकार होने के कारण शून्य है तथा इसे न्यायालय के माध्यम से लागू नहीं करवाया जा सकता। यहाँ पक्षकारों का आशय (Intention) महत्वपूर्ण होता है।
बाजी की संविदा तथा समाश्रित संविदा में अन्तर
बाजी की संविदा (Wagering Contract)
1. बाजी की संविदा में दोनों पक्षकार विपरीत मन से किसी घटना के घटित होने या घटित न होने पर हारने या जीतने के लिए सहमत होते हैं।
2. बाजी की हर संविदा में पक्षकरों का हारने या जीतने के अतिरिक्त घटना के घटित होने या न होने में कोई हित या स्वार्थ नहीं रहता।
3. बाजी की संविदा शून्य होती है। इसका प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता।
4. बाजी की संविदा में वचन पारस्परिक (mutual) होता है।
5. बाजी की संविदा में एक पक्षकार को हानि होती है तथा दूसरे पक्षकार को लाभ होता है।
समाश्रित संविदा (Contingent Contract)
1. समाश्रित संविदा में दोनों पक्षकार इस बात पर सहमत (एकमत) होते हैं कि संविदा का पालन एक अनिश्चित घटना के घटित होने या न होने पर कराया जाय।
2. समाश्रित संविदा में संविदा की विषय वस्तु की सुरक्षा में पक्षकार का हित या स्वार्थ रहता है। (बीमे की संविदा जीवन बीमा छोड़कर)
3. समाश्रित संविदा एक वैध संविदा है परन्तु यहाँ संविदा का पालन एक साम्पाश्विक घटना के घटित होने या न होने पर आश्रित रहता है।
4. समाश्रित संविदा में वचन एक पक्षकार द्वारा ही दिया जाता है।
5. समाश्रित संविदा चूँकि एकपक्षीय होती है अतः हार जीत का प्रश्न नहीं होता।
समस्या – प्रस्तुत समस्या उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत घेरूलाल बनाम महादेव दास नामक वाद पर आधारित है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि बाजी के करार शून्य होते हैं परन्तु अवैध नहीं होते अत: बाजी की संविदा से जुड़े साम्पारियक (Colleteral) करार को लागू कराया जा सकता है।
इस समस्या में अ तथा व बाजी का कारोबार करने की संविदा करते हैं परन्तु इस करार के साथ-साथ इस अन्य करार को बाजी के कारोबार में हानि, लाभ कर समान रूप से बाँटने के लिए सहमत होते हैं। अत: यह साम्पाश्विक करार लागू कराया जा सकता है। अतः व अ द्वारा उठाई गई 10,000 रुपये की हानि में अपना समान भाग 5000 रुपये देने के लिए बाध्य है।
प्रश्न 18 “समाश्रित संविदा” की परिभाषा दीजिए। समाश्रित संविदा के आवश्यक तत्वों की चर्चा कीजिए। उन परिस्थितियों का उल्लेख करें जिनमें इन संविदाओं को लागू करवाया जा सकता है या लागू नहीं करवाया जा सकता। उन परिस्थितियों का वर्णन करें जब समाश्रित संविदाएं शून्य हो जाती हैं।
Define “Contingent Contract”. Discus the essential features of contingent contrac Point out the situations when such contract can and cannot be enforced. State the circumstances under which it becomes void.
उत्तर- समाश्रित या आकस्मिक संविदा (Contingent contract) – यह संविदा वह संविदा है जिसका पालन किसी आकस्मिक घटना के घटित होने या न होने पर निर्भर करता है। यह घटना अनिश्चित घटना होनी चाहिए। जीवन बीमा को छोड़कर सभी बीमा की संविदाएँ समाश्रित संविदा (Contingent contract) होती हैं।
संविदा अधिनियम की धारा 31 समाश्रित संविदा की परिभाषा देते हुए कहती है कि समाश्रित संविदा वह संविदा है जो ऐसी संविदा से साम्पाश्विक (colleteral) किसी घटना के घटित होने या न होने पर किसी बात को करने या न करने के लिए हो। धारा 31 से जुड़ा उदाहरण परिभाषा को स्पष्ट करता है। उसके अनुसार अ, ब से संविदा करता है कि यदि ब का घर जल जाए तो वह ख को 10,000/- रुपये देगा। यहाँ संविदा ब के घर के जल जाने पर आधारित है तथा घर का जलना एक अनिश्चित घटना है जबकि जीवन बीमा की संविदा भी मृत्यु होने पर आधारित होती है परन्तु चूँकि मृत्यु एक अनिश्चित घटना न होकर निश्चित घटना है अतः जीवन बीमा की संविदा समाश्रित संविदा नहीं है। यह उल्लेखनीय है कि उक्त घटना जिस पर संविदा का पालन निर्भर करता है या जिस पर संविदा के अन्तर्गत अधिकारों को लागू करना निर्भर होता है, वह संविदा का भाग न होकर साम्पार्रिवक (colletayal) होना चाहिए।
समाश्रित संविदा के आवश्यक तत्व
(Essential elements of contingent contract)
(1) समाश्रित संविदा कुछ करने या न करने की संविदा होती है।
(2) ऐसा कुछ करना या न करना संविदा में कथित किसी घटना (contingency) के घटित होने या न होने की शर्त पर निर्भर करता है।
(3) वह कथित घटना एक अनिश्चित घटना होती है।
(4) कथित घटना का घटित होना या न होना ऐसी संविदा को लागू करवाने की पूर्ण शर्त होती है अर्थात् संविदा पालन के लिए घटना का घटित होना या न होना एक पूर्व शर्त होती है।
(5) वह कथित घटना ऐसी संविदा के साम्पाश्विक (colleteral) होती है।
संविदा अधिनियम की धारा 31 से 36 तक की धाराएँ समाश्रित संविदा से सम्बन्ध रखती हैं।
धारा 32 समाश्रित संविदा के पालन से सम्बन्धित नियम के बारे में है जो किसी अनिश्चित भावी घटना के घटित होने पर किसी बात को करने या न करने के लिए की गई है। इस धारा के अनुसार समाश्रित संविदा का पालन तब तक नहीं कराया जा सकता जब तक वह घटना जिस पर संविदा का पालन आश्रित है घटित न हो गई हो। यदि वह घटना असम्भव हो जाती है तो समाश्रित संविदा शून्य हो जाती है। उदाहरण के लिए अ, ब से संविदा करता है कि यदि अ स से मरने के पश्चात् जीवित रहा तो वह उसका घोड़ा क्रय करेगा परन्तु यदि अ स के मरने के पूर्व (स के जीवन काल में) मर जाता है तो इस संविदा का पालन नहीं कराया जा सकता।
धारा 33 ऐसी समाश्रित संविदा के बारे में है जिसका पालन किसी भावी अनिश्चित घटना के न होने पर निर्भर करता है। इस धारा के अनुसार यदि संविदा का पालन किसी ऐसी घटना के न होने पर निर्भर है तो यदि उस घटना का घटित होना असम्भव हो जाता है तब भी संविदा का पालन कराया जा सकता है क्योंकि जब घटना घटित होना असम्भव हो जाता है तो यह मान लिया जाता है कि घटना घटित नहीं होगी। उदाहरण के लिए, अ, ब से करार करता है कि एक विशिष्ट जलयान वापस नहीं आयेगा तो वह ब को 10,000/- रुपये देगा। वह विशिष्ट जलयान रास्ते में डूब जाता है अब यहाँ जलयान का वापस आना असम्भव हो गया अतः ब अ से 10,000/- रुपये प्राप्त कर सकता है।
धारा 34 के अनुसार यदि समाश्रित संविदा का पालन किसी व्यक्ति द्वारा कोई विशिष्ट कार्य करने पर निर्भर है तथा परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन होता है कि उस व्यक्ति द्वारा उस विशिष्ट कार्य को किया जाना असम्भव हो जाता हो तो भी संविदा का पालन कराया जा सकता है क्योंकि ऐसी परिस्थिति में यह मान लिया जाता है कि उस व्यक्ति ने वह कार्य नहीं किया। जैसे क यह करार करता है कि यदि ख, ग से विवाह करता है तो वह ख को 5,000/- रुपये देगा। परन्तु ग, घ से विवाह कर लेती है। इस परिस्थिति में यह असम्भव हो गया है कि ख ग से विवाह कर सकेगा। यह तभी सम्भव हो पायेगा यदि घ की मृत्यु हो जाय तत्पश्चात् ग, ख से विवाह कर सकेगा।
धारा 35 के अनुसार यदि समाश्रित संविदा का पालन एक घटना के निश्चित समय के अन्दर घटित होने पर निर्भर है तथा वह निश्चित समय या अवधि व्यतीत हो जाने पर भी घटना नहीं घटती है या परिस्थितियों में परिवर्तन के फलस्वरूप उस घटना का उस निश्चित अवधि के अन्दर घटित होना असम्भव हो जाय तो उक्त संविदा शून्य हो जाती है तथा उसका पालन नहीं कराया जा सकता। जैसे क वचन देता है कि यदि एक जलयान एक निश्चित अवधि तक आ जायेगा तो वह 10,000/- रुपये देगा। अब यदि जलयान निश्चित अवधि से पूर्व जल जाता है तो यह जलयान का लौटना असम्भव हो गया। अतः इस संविदा का पालन नहीं कराया जा सकता क्योंकि यह संविदा शून्य हो जाती है। इसी प्रकार यदि किसी संविदा में यह शर्त हो कि यदि घटना एक निश्चित समय तक नहीं घटती तो यदि उस घटना का घटित होना यदि असम्भव हो जाता है तो वह उस निश्चित समयावधि तक यह घटना नहीं घटती तो इस संविदा का पालन कराया जा सकता है। जैसे यदि अ व से संविदा करता है कि यदि ‘जल सम्राट’ नामक जलपान दिनांक 12 दिसम्बर, 1996 तक नहीं आएगा तो वह 10,000/- रुपये देगा अब यदि ‘जल सम्राट’ नामक जलपोत 12 दिसम्बर, 1996 तक नहीं आता या यदि 12 दिसम्बर 1996 के पूर्व किसी दिन जल सम्राट जलपोत डूब जाता है तो जल सम्राट जलपोत का 12 दिसम्बर तक आना असम्भव हो गया जतः इस संविदा का पालन कराया जा सकता है।
वे परिस्थितियाँ जिनके अन्तर्गत समाश्रित संविदा शून्य हो जाती है- समाश्रित संविदा निम्न परिस्थितियों में शून्य हो जाती है –
(1) धारा 35 के प्रथम भाग के अनुसार यदि एक संविदा किसी भावी घटना के घटित होने पर निर्भर (आश्रित) है तथा परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण उस घटना का घटित होना असम्भव हो जाता है तो वह संविदा शून्य हो जाती है जैसे यदि अ. यह संविदा करता है कि यदि ‘अकबर’ नामक जलयान यदि 12. दिसम्बर, 1996 तक वापस आ जायेगा तो वह ब को 5000/- रुपये देगा अब यदि 10 दिसम्बर 1996 को अकबर जलयान जल जाता है या डूब जाता है तो संविदा का पालन असम्भव हो गया अतः संविदा शून्य हो जायेगी तथा संविदा का पालन नहीं कराया जा सकता है। परन्तु यदि अकबर’ नामक जलपोत 12 दिसम्बर, 1996 तक आ जाये तो संविदा का पालन कराया जा सकता है।
(2) धारा 36 के अनुसार यदि कोई समाश्रित संविदा किसी असम्भव घटना के घटित होने पर आधारित है तो वह संविदा शून्य होगी। चाहे घटना की असम्भवता को जानकारी पक्षकारों को उस समय रही हो या न रही हो जब करार किया गया था।
जैसे अ, ब से करार करता है कि यदि दो सरल रेखाएँ किसी स्थान को घेर लें तो वह व को 1,000/- रुपये देगा यह करार शून्य है क्योंकि दो सरल समान्तर रेखाओं का मिलना असम्भव है।
उसी प्रकार यदि क ख से करार करता है कि वह क की पुत्री ग से विवाह कर ले तो वह 10,000/- रुपये देगा करार के समय ग मर चुकी थी यह करार शून्य है भले ही ख को ग के मृत्यु की जानकारी रही हो या न रही हो।
इस प्रकार समाश्रित संविदा वह संविदा है जिसका पालन किया जाना एक ऐसी साम्पाश्विक घटना पर आश्रित रहता है जिसको भविष्य के किसी समय घटित होना है तथा यह शर्त संविदा की साम्पाश्विक शर्त थी। घटना ऐसी होनी चाहिए जिसका घटित होना अनिश्चित हो तथा यह शर्त संविदा उस सम्पाश्विक घटना के घटित होने या न होने पर हो पालन करायी जा सकती है। जीवन बीमा को छोड़कर सभी बीमा की संविदाएँ समाश्रित संविदाएँ होती है।
प्रश्न 19. भारतीय संविदा अधिनियम के अन्तर्गत कौन-कौन से ऐसे सम्बन्ध हैं जिन्हें संविदा न होते हुए भी संविदा की तरह लागू कराया जा सकता है ?
या
संविदा कल्प क्या है? इसके प्रमुख स्वरूपों का उल्लेख कीजिए। उनकी मान्यता तथा प्रवर्तन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
या
“संविदा कल्प” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
According to Indian Contract Act what are the relations which can be enforced like contract though not contract.?
Or
What are quasi-contract? Mention their principal varieties. Explain the reasons for their recognition and enforcement.
Or
Write short notes on quasi-contract.
उत्तर- कल्प संविदा या अर्द्ध-संविदा (Quasi-contract.)– कोई भी संविदा करने के लिए प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल आदि की आवश्यकता रहती है। किन्तु कुछ सम्बन्ध ऐसे होते है जिनमें न तो प्रस्ताव रखा जाता है और न ही स्वीकृति दी जाती है, फिर भी उसे संविदा के समरूप माना जाता है। यद्यपि भारतीय संविदा अधिनियम में कल्प या अर्द्ध संविदा शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, फिर भी धारा 68 से 72 में कुछ ऐसे सम्बन्ध बनाये गये हैं जो संविदा से मिलते-जुलते हैं?
विनफील्ड के अनुसार कुछ सम्बन्ध ऐसे उत्पन्न हो जाते हैं जिनमें एक व्यक्ति दूसरे से अनुचित लाभ उठा लेता है तो साम्या के सिद्धान्त के अनुसार दूसरे व्यक्ति को भी उपचार मिलना चाहिए। चूँकि ऐसे सम्बन्ध संविदा से मिलते-जुलते होते हैं इसलिए इन्हें कल्प या अर्द्ध संविदा के नाम से पुकारा जाता है। पोलक ऐसी संविदाओं को विवक्षित संविदा कहना पसन्द करते हैं। कल्प-संविदा का महत्व संविदा के बराबर ही होता है।
धारा 68 से 72 में 5 प्रकार के संविदा से मिलते-जुलते सम्बन्ध अर्थात् कल्प-संविदाओं का वर्णन किया गया है।
1. किसी असक्षम की आवश्यकता की पूर्ति करना (धारा 68)
2. हित रखने वाले व्यक्ति द्वारा दूसरे द्वारा देय धन का भुगतान करना; (धारा 69)
3. बिना निःशुल्क के कार्य का फायदा उठाना; (धारा 70)
4 खोई हुई वस्तुओं को पाने वाले की जिम्मेदारी;
5. भूल या उत्पीड़न द्वारा प्राप्त की गई वस्तु के बारे में।
अक्षम व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरी करना – अवयस्क एवं विकृतचित्त व्यक्ति संविदा करने के लिए अक्षम माने जाते हैं। यदि सक्षम व्यक्ति या उस पर निर्भर व्यक्ति की किसी आवश्यकता की पूर्ति की जाती है तो आवश्यकता की पूर्ति करने वाला सक्षम व्यक्ति की सम्पत्ति से क्षतिपूर्ति प्राप्त कर सकता है, यहाँ अक्षम व्यक्ति के साथ दूसरा व्यक्ति न तो प्रस्ताव रखता है, न अन्य औपचारिकताएँ पूरी होती हैं, फिर भी इसे संविदा के बराबर माना जाता है।
आवश्यकता – अक्षम व्यक्ति की आवश्यकता का अर्थ मात्र उसका भरण-पोषण डी नहीं है। उसकी हैसियत के अनुसार उसकी शिक्षा, कपड़े एवं अन्य सामग्री भी आवश्यकता में शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए अ, ब को, जो अवयस्क हैं, शिक्षा के लिए खर्च देता है एवं व के माता-पिता, जो ब पर आश्रित हैं, उनका भरण-पोषण करता है। यद्यपि अ एवं ब के बीच कोई प्रस्ताव एवं स्वीकृति नहीं हुई फिर भी धारा 68 के तहत अ, ब की सम्पत्ति से अपना खर्च वसूल कर सकता है।
आवश्यकता को निर्धारित करने हेतु न्यायालय को निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए –
(क) वस्तुएँ जिस अवयस्क या असमर्थ व्यक्ति को प्रदान की गई हों, वे उसके जीवन स्तर को बनाये रखने के लिए आवश्यक होनी चाहिए;
(ख) जिस तिथि पर उक्त आवश्यक वस्तुएँ अवयस्क या असमर्थ व्यक्ति को दो गयी थीं, उस तिथि पर उसके पास उक्त आवश्यक वस्तुएँ पर्याप्त मात्रा में नहीं होनी चाहिए, पर्याप्त वस्तुओं की उपस्थिति के कारण ही नैस बनाम इनमैन (1908) के बाद में दर्जी द्वारा प्रदत्त पोशाक विद्यार्थी के लिए आवश्यक वस्तु नहीं मानी गयी।
कुँवर लाल बनाम सूरजमल (ए० आई० आर० 1963 एम० पी० 58) के बाद में विद्यार्थी को पढ़ाई के लिए किराये का मकान देना आवश्यक वस्तु माना गया और निर्णय दिया गया कि उसको सम्पत्ति से किराया वसूला जा सकता है।
धारा 68 के अन्तर्गत अक्षम व्यक्ति की व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं होती है।
हित रखने वाले व्यक्ति द्वारा भुगतान (Payment by interested person) (धारा 69) – यदि कोई व्यक्ति ऋण या धन चुकाने के लिए जिम्मेदार है किन्तु उसके द्वारा भुगतान न करने से अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुंचता है अर्थात् प्रथम के भुगतान में अन्य व्यक्ति हित रखता है, तो ऐसी स्थिति में हितबद्ध व्यक्ति दूसरे का भुगतान चुका सकता है और बाद में प्रथम व्यक्ति से पैसे वसूल कर सकता है।
ऐसा तभी सम्भव है जब निम्न दशायें विद्यमान हों –
(i) भुगतान करने वाला व्यक्ति भुगतान से सम्बन्धित सम्पत्ति में हित रखता हो, और अपने हित को कायम रखने हेतु भुगतान करता है,
(ii) दूसरा व्यक्ति भुगतान करने के लिए विधि द्वारा बाध्य हो किन्तु भुगतान करने वाला व्यक्ति भुगतान के लिए स्वयं बाध्य न हो,
(iii) भुगतान किसी अन्य (तीसरे) व्यक्ति को किया गया हो।
उदाहरण के लिए अ मकान मालिक और ब उसका किरायेदार है। अ मकान के बिजली एवं पानी का बिल नहीं चुकाता है, परिणामस्वरूप उसके घर के पानी एवं बिजली के कनेक्शन काटने के आदेश आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में यदि कनेक्शन कट जाये तो ब को असुविधा होती है इसलिए ब अ के भुगतान में हित रखता है और यदि भुगतान व द्वारा कर दिया जाता है तो वह अ से वसूल कर सकता है।
बिना निःशुल्क किये गये कार्य का फायदा उठाना (Non & gratuitous act) (धारा 70) – प्रायः वकील, डाक्टर अपना व्यवसाय निःशुल्क नहीं करते हैं। यदि कोई व्यक्ति, वकील, डाक्टर इत्यादि से स्पष्ट करार किये बिना उनकी सेवाओं का फायदा उठाता है तो भी उनकी फीस चुकानी पड़ेगी। यद्यपि ऐसे सम्बन्धों में संविदा के आवश्यक तत्व पूरे नहीं होते हैं फिर भी धारा 70 के अन्तर्गत संविदा के बराबर माने जाते हैं।
खोई हुई वस्तु को पाने वाला (Finder of goods) (धारा 71) – यदि किसी व्यक्ति को दूसरे की वस्तुएँ प्राप्त हो जाती है तो उसके एवं सही मालिक के बीच विवक्षित संविदा उत्पन्न हो जाती है।
सही मालिक एवं वस्तु पाने वाले के बीच उपनिधान की संविदा बन जाती है। कुछ प्रयोजनों के लिए मालिक उपनिधाता एवं वस्तु को पाने वाला उपनिहिती कहलाता है। वस्तु को पाने वाले के अधकार एवं दायित्व के बारे में विवरण धारा 168 एवं 169 में भी दिया गया है।
भूल अथवा उत्पीड़न के अधीन दी गई वस्तु (Thing given under mistake or coercion) (धारा 72 )- यदि किसी व्यक्ति की वस्तु भूल या उत्पीड़न द्वारा प्राप्त की जाती है तो ऐसी वस्तुओं को वापस लौटाना पड़ता है। व्यापार में एक कहावत है ‘भूल-चूक लेन-देन’। यह धारा उसी उक्ति पर आधारित प्रतीत होती है।
इस धारा में प्रयुक्त भूल या उत्पीड़न शब्द का अर्थ सामान्य अर्थों में लिया जाना चाहिए न कि अधिनियम की धारा 20, 21 में परिभाषित भूल एवं धारा 15 में परिभाषित उत्पीड़न से।
दृष्टान्त– ‘क’ और ‘ख’ संयुक्तत: ‘ग’ के 100 रुपये के देनदार हैं अकेला ‘क’ ही ‘ग’ को वह रकम संदत्त कर देता है और इस तथ्य को न जानते हुए ‘ग’ को ‘स’ 100 रुपये फिर संदत्त कर देता है, इस रकम का ‘ख’ को प्रतिसंदाय करने के लिए ‘ग’ आबद्ध है।
संविदा की शर्त से अधिक दी गयी धनराशि धारा 72 के अर्थों में भूल कहलायेगी। बोर्ड‘ऑफ ट्रस्टी बनाम अशोक ली लैण्ड, ए० आई० आर० 1992 केरल।
चण्डी प्रसाद उनियाल बनाम उत्तराखण्ड राज्य, ए० आई० आर० (2012) एस० सौ० 2951 के बाद में निर्णय दिया गया कि कर्मचारियों को किया गया अधिक भुगतान वापस किया जा सकता है और कर्मचारी इसे संदाय करने के लिए बाध्य होंगे अन्यथा यह अनुचित ढंग से धनवान होना होगा।
ससीन्द्र कुमारी बनाम स्टेट बैंक ऑफ ट्रावनकोर, ए० आई० आर० (2011) केरल 58 के मामले में भूल से यदि बैंक ने प्रतिवादी के खाते में अधिक धन जमा कर दिया हो तो वह उससे वसूल कर सकती है।
कल्प-संविदा की मान्यता तथा प्रवर्तन का (आधार) कारण- जैसा कि ऊपर कहा गया है कल्प संविदाएँ जो कुछ परिस्थितियों तथा कुछ सम्बन्धों के अन्तर्गत संविदा न होते हुए भी संविदा मान ली जाती हैं। इसके पीछे दो कारण हैं –
(1) नैसर्गिक न्याय तथा साम्या (Natural Justice and Equity)
(2) अन्यायपूर्ण लाभ प्राप्त करने से रोकना।
यद्यपि कल्प संविदा की मान्यता या इसका प्रवर्तन किस कारण या सिद्धान्त पर आधारित है, यदि सुनिश्चित नहीं हो सका। न्यायमूर्ति मैन्सफील्ड ने मांसेज बनाम मेकफर लान के बाद में सर्वप्रथम कुल्प संविदा की व्याख्या इस सिद्धान्त पर की कि विधि किसी व्यक्ति को अन्यायपूर्ण रीति से धनी होने (unjust enrichment) की अनुमति नहीं होगी।
नागपुर गोल्डेन ट्रान्सपोर्ट कं० बनाम मेसर्स नाथ ट्रेडर्स एण्ड अदर्स, ए० आई, आर• (2012) सु० को०] 357 के बाद में अन्यायपूर्ण तरीके से धनवान होने के प्रश्न पर विचार व्यक्त किया गया कि परिवहन के दौरान यदि ट्रान्सपोर्ट कं० द्वारा माल क्षतिग्रस्त होता है तो मान पाने वाला यदि क्षतिग्रस्त माल विक्रय कर देता है तो पूरे माल का मूल्य नहीं पा सकता यदि माल के मूल्य की मांग करता हो तो अनुचित लाभ प्राप्त होगा।
अम्बोज कुमार सिन्हा बनाम देवाशीश भारूका, ए० आई० आर० (2014) सु० को० 101 के बाद में निर्णय दिया गया कि अन्यायपूर्ण धनी होने की अवधारणा कर मामलों में लागू होती है।
स्टेट ऑफ बिहार बमान कल्याणपुर सीमेंट लि०, ए० आई० आर० (2010) सु० को० 924 के बाद में कम्पनी ने ग्राहकों से कर वसूला तथा परिकल्पित खाते में जमा किया। निर्णीत हुआ कि विधिपूर्ण तरीके से वसूला गया कर वापस नहीं किया जा सकता।
कुछ विद्वानों ने इसे विवक्षित संविदा के आधार पर मान्यता देने की संस्तुतियों की परन्तु कल्प संविदा विवक्षित संविदा से भिन्न है क्योंकि विवक्षित संविदा में यद्यपि संविदा लिखित रूप से या मौखिक रूप से अभिव्यक्त नहीं होती परन्तु यहाँ पक्षकारों के आचरण के आधार पर पक्षकारों के संविदा करने के आशय की उपधारणा की जाती है। कल्प संविदा में संविदा करने के आशय का लिखित या विवक्षित रूप से अभाव रहता है तथा यह किन्हीं सम्बन्धों में संविदा अधिनियम की धारा 68 से 72 तक में वर्णित पाँच परिस्थितियों में ही मान्य तथा प्रवर्तित की जा सकती है।
संविदा एवं कल्प संविदा में निम्न अन्तर हैं –
(1) संविदा के अन्तर्गत दायित्व का सृजन पक्षकारों के मध्य वर्तमान संविदा के द्वारा होता है जबकि संविदा-कल्प के अन्तर्गत दायित्व, विधि के द्वारा सृजित होता है।
(2) संविदा में पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध स्थापित करना होता है जबकि संविदा कल्प में ऐसी बात नहीं है।
(3) संविदा की स्थिति में संविदा तब तक बाध्यकारी नहीं होती जब तक कि पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति, विधिपूर्ण उद्देश्य व प्रतिफल न हो।
संविदा कल्प में अन्य तत्वों का होना आवश्यक है लेकिन स्वतंत्र सहमति के अभाव में भी पक्षकार दूसरे के प्रति उसी प्रकार से बाध्य होते हैं जैसे संविदा में हुआ करते हैं।