LAW OF CONTRACT-I Long Answer Part-1

– प्रथम सेमेस्टर-

प्रश्न 1. संविदा विधि के विकास, प्रकृति एवं उद्देश्य को संक्षिप्त में वर्णित कीजिए।

State briefly Purpose, Evolution and Nature of Law of Contracts.    Or

संविदात्मक दायित्व की प्रकृति एवं इतिहास को संक्षिप्त में वर्णित कीजिए।

State briefly history and nature of contractual obligation.

उत्तर- संविदा विधि को उत्पत्ति की उपधारणा, संविदा अधिनियम, 1872 से करना प्रायः गलत ही होगा। प्राचीन भारत में भी संविदा विधि के मुख्य तत्व किसी न किसी रूप में मौजूद थे जिसका आधार धर्म था क्योंकि धर्म में ही मानव व्यवहार समाहित थे। धार्मिक ग्रन्थ जैसे मनु संहिता में “लिए गये ऋण की वसूली” पर बल दिया गया था जिसका कार्यान्वयन करना राजा अपना कर्तव्य समझता था। उस समय समाज में भी यह धार्मिक विश्वास था कि जो व्यक्ति लिये गये ऋण की अदायगी किये बिना मरता है उसे घोर नरक में जाना पड़ेगा, अतः ऋऋण-अदायगी की प्रतिज्ञा का पालन एक धार्मिक आभार था।

      हिन्दू काल में धर्मशास्त्र, मनुसंहिता, ब्रहस्पति एवं नारद आदि ऋषियों की कृतियाँ इस दिशा में जनता को निर्देशित करती थीं कि दान (Gift) में प्रतिफल नहीं दिया जाता था बल, अनुचित प्रभाव एवं लोक-नीति के विरुद्ध कार्यों से उत्प्रेरित संविदा को मान्यता प्रदान नहीं की जाती थी। इसके अलावा “कौटिल्य” ने अपनी पुस्तक ” अर्थशास्त्र में संविदा विधि को व्यवहार विधि के रूप में निरूपित किया है।

      मुस्लिम काल में संविदा के स्वरूप में परिवर्तन हुआ। अरबी भाषा में संविदा को Aqd’ (अक्द) कहा गया जिसका अर्थ होता है- बन्धन प्रस्ताव स्वीकृति, मतैक्य, बाह्य अभिव्यक्ति को मान्यता प्रदान की गई। औरंगजेब के शासन काल में प्रकाशित ” फतवा-ए आलमगीरी” में संविदा के मूल तत्वों का उल्लेख उपलब्ध है।

      ब्रिटिश भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों की वैयक्तिक विधि को कायम रखने का प्रावधान किया गया। 1781 में एक अधिनियम पारित किया गया, जिसके अन्तर्गत संविदात्मक वादों का निर्णय हिन्दू के मामलों में हिन्दू विधि एवं प्रथाओं एवं मुसलमानों के सभी मामलों में मुस्लिम विधि के अनुसार होता था, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में जहाँ एक पक्षकार हिन्दू व दूसरा पक्षकार मुसलमान हो तो निर्णय का आधार प्रतिवादी की विधि होती थी। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में विधि की एकरूपता असन्तोषजनक स्थिति में थी। अतः सम्पूर्ण देश में विधि प्रणाली में एकरूपता लाने की आवश्यकता महसूस हुई। 1833 के चार्टर द्वारा प्रेसीडेन्सी टाउन में एकल विधान प्रारम्भ किया गया, जिसकी धारा 53 के अन्तर्गत 1834 में प्रथम विधि आयोग गठित हुआ जिसकी सिफारिश पर विचार करने के लिए 1853 के बार्टर के अन्तर्गत द्वितीय विधि आयोग की स्थापना हुई तथा इसे ही कुछ संशोधनों के बाद “भारतीय संविदा अधिनियम, 1872′ का रूप दिया गया।

उद्देशिका- भारतीय संविदा अधिनियम 1872 को उद्देशिका (Preamble) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संविदा अधिनियम को इसलिए अधिनियमित किया गया है कि संविदाओं से सम्बन्धित विधि के कतिपय भागों की परिभाषित व संशोधित करना समीचीन है। अतः उद्देशिका से ही स्पष्ट हो जाता है कि संविदा अधिनियम संविदा पर पूर्ण विधि नहीं

है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 को उसकी प्रकृति के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से विभक्त कर सकते हैं-

1. सामान्य सिद्धान्त

(क) संविदा निर्माण करार-

-प्रस्थापना (धारा 2क)

-प्रतिग्रहण (धारा 2ख)

-प्रतिज्ञा (धारा 2ग)

-प्रतिफल (धारा 2घ)

– सक्षम पक्षकार (धारा 11, 12)

-स्वतन्त्र सम्मति (धारा 13, 14)

विधि के द्वारा प्रवर्तनीय-   -विधिपूर्ण उद्देश्य, प्रतिफल (धारा 23)

-करार जो शून्य घोषित न किया गया हो                                    शून्य करार

1. प्रतिफल रहित करार (धारा 25)

2. विवाह के अवरोधार्थ करार (धारा 26)

3. व्यापार के अवरोधार्थ करार (धारा 27)

4. विधिक कार्यवाही के अवरोधार्थ करार

(धारा 28)

5. अनिश्चिततायुक्त करार (धारा 29)

6. बाजीयुक्त करार (धारा 30)

-(ख) संविदा सदृश (धारा 68-72)

-(ग) संविदा उन्मोचन

-(घ) संविदा विखण्डन (धारा 73-75)

प्रश्न 2. संविदा से आप क्या समझते हैं? इसकी परिभाषा एवं प्रमुख प्रकारों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए तथा शून्य एवं शून्यकरणीय संविदा में अन्तर बताइये। What do you understand by contract? Mention their definition and main kinds and explain difference between Void and Voidable Contract.

उत्तर- संविदा एक ऐसी विधि है जिसके अन्तर्गत रहकर दो समान विचार वाले व्यक्ति आपस में समझौता करके कुछ अधिकार एवं दायित्व का सृजन करते हैं। जब कोई व्यक्ति कोई कार्य करना चाहता है तो अपनी इच्छा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने रखता है और वह व्यक्ति उसे स्वीकार करता है तब दोनों के बीच किसी कार्य को करने के लिए करार हुआ है, ऐसा कहा जाता है और यह करार जब विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है तब यह संविदा का रूप धारण करता है ऐन्सन महोदय ने संविदा को परिभाषित करते हुए कहा कि-” संविदा विधि, दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य विधि द्वारा प्रवर्तनीय एक करार है जिसमें एक या अधिक व्यक्तियों द्वारा एक या अधिक के प्रति कृत्यों या सहनशीलता के अधिकार अर्जित होते हैं।”

       सामण्ड के अनुसार-“संविदा विधि न तो पूर्णरूपेण करार विधि है न तो आभार विधि बल्कि वह करार विधि है जो आभार उत्पन्न करती है।” संविदा की परिभाषा इस अधिनियम की धारा 2 (ज) में दी गयी है

संविदा अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार– “विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है” अर्थात् करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है वही संविदा है, कुछ ऐसे भी करार होते हैं जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते, उन्हें संविदा नहीं कहा जा सकता है। अतः मान्य संविदा के सृजन के लिए दो आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है-

(i) करार

(ii) जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो ।

(i) करार (Agreement)-करार का अर्थ होता है-“दो मस्तिष्कों का एक ही भाव में मिलन”। करार उस समय उत्पन्न होता है जब पक्षकार एक दूसरे से एक के पक्ष में अधिकार दूसरे के पक्ष में समवर्ती कर्तव्य की उत्पत्ति कराने की इच्छा से संचार करते हैं। सेविग्नी के अनुसार-“दो या अधिक व्यक्तियों का अपने वैध सम्बन्धों को प्रभावी करने के समान आशय की अभिव्यक्ति ही करार है।” प्रतिज्ञा का स्वरूप ही करार होता है। एक प्रतिज्ञा तब बनती है जब कोई प्रस्थापना स्वीकार कर ली जाती है। इस प्रकार प्रस्थापना का अर्थ है जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को किसी कार्य को करने या न करने की अपनी इच्छा इस हेतु संज्ञात करता है कि वह दूसरा व्यक्ति उस कार्य को करने या न करने के सम्बन्ध में अपनी सहमति प्रदान कर दे तो कहा जाएगा कि पहले व्यक्ति ने प्रस्थापना की है तथा दूसरे व्यक्ति ने सहमति द्वारा प्रस्थापना की स्वीकृति दी है। करार का उद्भव विधिक प्रस्थापना तथा विधिक प्रतिग्रहण से होता है। करार शब्द संविदा की अपेक्षा अधिक व्यापक है। प्रत्येक संविदा में करार सहमति होता है परन्तु प्रत्येक करार संविदा हो, यह आवश्यक नहीं है। अतः विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है।

(ii) विधि द्वारा प्रवर्तनीय-ऐसे सभी करार जो सक्षम पक्षकारों की सहमति से विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए, विधिपूर्ण उद्देश्य के लिए तथा किसी विधि द्वारा शून्य घोषित न किये गये हों, संविदा कहलाती है।

       इस प्रकार करार यदि निम्न तत्वों के आधार पर विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो तो वह संविदा का रूप धारण कर लेता है, अतः किसी करार को संविदा बनने के लिए धारा 10 की अपेक्षित शर्तें पूरी करनी होती हैं।

धारा 10 के अनुसार, “सभी करार, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और विधिपूर्ण उद्देश्य के लिए किये जाते हैं। और जो एतद्द्वारा अभिव्यक्तरूपेण शून्य घोषित नहीं किये गये हैं, संविदा हैं।”

      इस परिभाषा के विश्लेषण से निम्न तत्व उभरकर सामने आते हैं जो संविदा में होने आवश्यक हैं।

आवश्यक तत्व- 

(1) संविदा के पक्षकारों को सक्षम होना चाहिए।

(2) पक्षकारों की संविदा करने के लिए सहमति स्वतन्त्र होनी चाहिए।

(3) करार किसी विधिपूर्ण प्रतिफल तथा विधिपूर्ण उद्देश्य के लिए होना चाहिए।

(4) वह करार किसी विधि द्वारा शून्य घोषित नहीं किया गया होना चाहिए।

(5) करार लिखित या पंजीकृत तथा दो स्वतन्त्र साक्षियों की उपस्थिति में होना चाहिए।

       इस प्रकार जो करार उपरोक्त शर्तों की पूर्ति करता है, वही विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है। तथा एक मान्य संविदा का सृजन करता है।

संविदा के प्रकार-आंग्ल विधि में केवल दो प्रकार की संविदा पायी जाती है। विशिष्ट संविदा तथा आंग्ल संविदा, जबकि भारतीय विधि में संविदायें निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

(1) प्रत्यक्ष संविदा (Direct Contract)

(2) अप्रत्यक्ष संविदा (Indirect Contract)

(3) प्रलक्षित संविदा (Constructive Contract)

(4) अप्रवर्तनीय संविदा (Unenforceable Contract)

(5) शून्य संविदा (Void Contract)

(6) शून्यकरणीय संविदा (Voidable Contract)

(7) अवैध संविदा (Illegal Contract)

(8) निष्पादित संविदा (Executed Contract)

(9) निष्पाद्य संविदा (Executory Contract)

(10) समाश्रित संविदा (Contingent Contract)

(11) बाजीयुक्त संविदा (Wegering Contract)

(12) संविदा कल्प (Quasi Contract)

शून्य संविदा (Void contrat) और शून्यकरणीय संविदा (Voidable contract) में अन्तर 

1. शून्य संविदाएं विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होती हैं।

1. शून्यकरणीय संविदाएं केवल एक पक्षकार की इच्छा पर प्रवर्तनीय होती हैं।

2. शून्य संविदाएं आरम्भ से अन्त तक शून्य होती हैं।

2. शून्यकरणीय संविदाएँ तब तक वैध रहती हैं जब तक पीड़ित पक्षकार शून्य नहीं करा देता।

3. शून्य संविदा के अन्तर्गत संविदा के पक्षकार को कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं होता।

3. शून्यकरणीय संविदा में पीड़ित पक्षकार को संविदा समाप्त करने और कुछ मामलों में क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है।

4. शून्य संविदा में तीसरे पक्षकार को कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता।

4. शून्यकरणीय संविदा में तीसरे पक्षकार को अच्छा अधिकार प्राप्त हो सकता है यदि उसने वस्तु को प्रतिफल के बदले में सद्भावना से प्राप्त किया है और शून्यकरणीय घोषित होने के पहले स्वामित्व प्राप्त कर लिया है।

5. जब कोई संविदा अवैधता के कारण शून्य होती है तो उसका सांपाश्विक (Collateral) संव्यवहार भी शून्य  हो जाता  है।

5. शून्यकरणीय संविदा का सांपाश्विक संव्यवहार अप्रभावित रहता है।

प्रश्न 3 करार पद को परिभाषित कीजिए एवं एक करार को विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार बनाने हेतु आवश्यक शर्तों का वर्णन कीजिए।

अधवा

“विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है” समझाइए तथा एक विधिमान्य संविदा की अनिवार्य शर्तों का उल्लेख कीजिए।

अथवा

“सभी संविदाएं, करार होती हैं परन्तु सभी करार संविदा नहीं होते व्याख्या कीजिए।

Define agreement. Mention those conditions which are necessary to enforce it by law.

Or

“An agreement enforceable by law is contract.” Explain and Describe the essential conditions of a valid contract.

Or

“All contracts are agreements but all agreements are not contract.” Discuss.

उत्तर – भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ङ) ‘करार’ पद को परिभाषित करतो है। धारा 2 (ङ) के अनुसार, “हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग, जो एक दूसरे के प्रतिफल हो, करार हैं।”

     भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार सिर्फ वही करार संविदा है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय है तथा एक करार विधि द्वारा तभी लागू करवाया जा सकता है जब वह करार संविदा अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत एक वैध करार हेतु प्रतिपादित सभी आवश्यक शर्तों (तत्वों) को पूरा करता है। वे शर्तें (तत्व) निम्न हैं –

(1) करार सक्षम पक्षकारों द्वारा किया गया है।

(2) करार में सक्षम पक्षकारों की सहमति स्वतन्त्र हो।

(3) करार के अन्तर्गत प्रतिफल वैध हो।

(4) करार वैध उद्देश्य के लिए किया गया हो।

(5) करार को संविदा अधिनियम की किसी धारा के अन्तर्गत अवैध घोषित न किया

गया हो।

(1) करार सक्षम पक्षकारों द्वारा किया गया हो– एक वैध करार की उत्पत्ति हेतु दो पक्षकार आवश्यक हैं। उसमें से एक पक्षकार प्रस्ताव करता है तथा दूसरा पक्षकार उस करार पर अपनी स्वीकृति प्रदान करता है। संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार एक अवयस्क व्यक्ति, एक विकृत चित्त व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति जिसे विधि द्वारा संविदा करने के लिए अक्षम घोषित किया गया है, संविदा करने हेतु सक्षम पक्षकार नहीं माने जाते। भारत में एक व्यक्ति जो 18 वर्ष से कम उम्र का है अवयस्क माना जाता है परन्तु यदि किसी 18 वर्ष उम्र प्राप्त व्यक्ति की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त किया गया हो तो वह 21 वर्ष की आयु में वयस्क समझा जायेगा। विकृत चित्त व्यक्ति पागल व्यक्ति को कहते हैं जो अपने हित को समझने में सक्षम नहीं होता तथा दिवालिया (insolvent) व्यक्ति विधि द्वारा करार करने के लिए सक्षम नहीं है।

     प्रमुख बाद मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष, (1903) 30 आई० ए० 144, में प्रिवी कौंसिल ने सदा के लिए यह तय कर दिया कि अवयस्क की संविदा पूर्णरूपेण या आरम्भतः शून्य है न कि शून्यकरणीय।

(2) करार में (सक्षम) पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति हो – जब दो व्यक्ति एक ही विषय-वस्तु के बारे में एक मस्तिष्क होते हैं तो यह कहा जाता है कि वे उस विषय-वस्तु पर सहमत हुए। एक करार को संविदा बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उनके मध्य सहमति स्वतन्त्र हो। संविदा अधिनियम की धारा 14 स्वतन्त्र सहमति की परिभाषा देती है। इस धारा के अनुसार स्वतन्त्र सहमति तब कही जाएगी जब यह (1) उत्पीड़न (coercion) के द्वारा न प्राप्त की गई हो, (2) जब यह असम्यक असर (प्रभाव) के अन्तर्गत प्राप्त न की गई हो, (3) जब यह कपट (fraud) द्वारा प्राप्त न की गई हो, (4) जब यह दुर्व्यपदेशन (misrepresentation) द्वारा न प्राप्त की गई हो तथा (5) जब यह भूल (mistake) के अन्तर्गत प्राप्त न की गई हो।

(3) करार के अन्तर्गत प्रतिफल वैध हो – कोई भी करार जो प्रतिफल रहते (बिना प्रतिफल) के है। धारा 25 के अनुसार शून्य होता है। परन्तु धारा 10 के अनुसार एक करार को संविदा के रूप में लागू करवाने के लिए प्रतिफल का वैध होना आवश्यक है। एक करार का प्रतिफल तभी वैध होगा जब वह (1) विधि द्वारा वर्जित न हो, (2) प्रतिफल किसी विधि को निष्फल करने का उद्देश्य न रखता हो, (3) प्रतिफल कपट पूर्ण न हो, (4) प्रतिफल किसी व्यक्ति की शरीर या सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से न किया गया हो, (5) प्रतिफल का उद्देश्य अनैतिक न हो जैसे व्यभिचारपूर्ण मैथुन, (6) प्रतिफल का उद्देश्य लोक नीति (Public Policy) के प्रतिकूल न हो। जैसे नौकरी पाने हेतु धन देकर, झूठी गवाही प्राप्त करना; घूस देना दाण्डिक अभियोजन में बाधा उत्पन्न करना लोक नीति के प्रतिकूल प्रतिफल है।

(4) करार का उद्देश्य वैध हो– करार के लिए यदि प्रतिफल देने का उद्देश्य वैध नहीं है तो यह कहा जाएगा कि करार अवैध उद्देश्य के लिए किया गया है जैसे प्रतिफल का उद्देश्य यदि (1) बाजी लगाना, (2) किसी संविदा को निष्फल करना, (3) या कपट करना, (4) किसी को मारने-पीटने या किसी की सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने का उद्देश्य (5) व्यभिचार पूर्ण मैथुन या जारकर्म करने का उद्देश्य (6) घूस देना दाण्डिक अभियोजन में बाधा उत्पन्न करना है तो यह कहा जाएगा कि प्रतिफल का उद्देश्य वैध न होकर अवैध है।

(5) करार किसी धारा के अन्तर्गत शून्य घोषित न हो- संविदा अधिनियम की कुछ धाराओं में कतिपय करारों को स्पष्ट रूप से शून्य (void) घोषित किया गया है तो ऐसे करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते अतः उन्हें संविदा नहीं कहा जा सकता। जैसे (1) विवाह के अवरोधार्थ करार (धारा 26), (2) व्यापार के अवरोधक करार (धारा 27), (3) विधिक कार्यवाहियों के अवरोधक करार (धारा 28), (4) अनिश्चितता के कारण शून्य करार (धारा 29), (5) बाजी करार या पंद्यम तौर के करार (wagering contracts ) ।

(6) लिखित एवं अनुप्रमाणित होना- जहाँ पर संविदा का भारत में प्रवृत्त किसी विधि द्वारा लिखित एव अनुप्रमाणित किया जाना अपेक्षित हो वहाँ उसका लिखित एवं अनुप्रमाणित होना आवश्यक है। सामान्यतः निम्नांकित करारों का लिखित, अनुप्रमाणित एक रजिस्ट्रीकृत होना अनिवार्य माना गया है।

(i) अवधि बाधित ऋण (Time-barred debt) के संदाय का करार;

(ii) स्थावर सम्पत्ति के अन्तरण का करार:

(iii) किसी विवादग्रस्त मामले को मध्यस्थता के लिए सुपुर्द करने का करार आदि।

       इस प्रकार यदि एक करार में धारा 10 के अन्तर्गत उल्लिखित सभी पाँच आवश्यक शर्ते (elements तत्व) मौजूद हैं तभी एक करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय होगा अन्यथा नहीं। धारा 10 के अनुसार करार को संविदा होने के लिए यह आवश्यक है कि भारत में प्रवृत्त किसी विधि द्वारा प्रश्नगत करार को निरस्त न किया गया हो। यह भी आवश्यक है कि करार लिखित हो तथा साक्षियों की उपस्थिति में हों।

       प्रत्येक संविदा एक करार है परन्तु प्रत्येक करार संविदा नहीं होता है– किसी भी करार के लिए एक प्रस्ताव तथा स्वीकृति का मिलन आवश्यक है। जब एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से कुछ करने की अपनी इच्छा प्रकट करे तथा दूसरा पक्षकार इच्छानुसार उस कार्य को करने के लिए अपनी स्वीकृति दे तो करार का जन्म हो जाता है। परन्तु जैसा कि संविदा अधिनियम की धारा 2 (ज) प्रावधान करती है कि प्रत्येक करार संविदा नहीं है सिर्फ वही करार संविदा माने जायेंगे जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो अर्थात् जिन्हें विधि द्वारा लागू करवाया जा सके। सिर्फ वह करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय है जो धारा 10 में प्रतिपादित सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हो अन्य करार संविदा नहीं होंगे।

        इस प्रकार कोई भी करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है तथा जिसमें एक पक्षकार की इच्छा पर दूसरे पक्षकार ने स्वीकृति दे दी है वह करार तो होगा परन्तु उस करार को संविदा का रूप तभी प्राप्त होगा जब वह करार धारा 10 में उल्लिखित सभी शर्तों को पूरा करता हो। परन्तु यहाँ यह स्मरणीय है कि एक संविदा जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय है वह मूल रूप में एक करार तो है ही।

      प्रस्ताव +स्वीकृति = करार

      करार जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय = संविदा

      इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रत्येक संविदा में करार तो मौजूद रहता है परन्तु प्रत्येक करार संविदा नहीं होती सिर्फ वह करार संविदा होगी जो धारा 10 के आवश्यक तत्वों को पूरा कर संविदा कहलाने लायक हो तथा जिन्हें विधि द्वारा लागू (प्रवर्तनीय) कराया जा सके।

प्रश्न 4. प्रस्ताव से आप क्या समझते हैं? एक वैध प्रस्ताव के आवश्यक तत्व बताइए। प्रस्ताव एवं प्रस्ताव के आमन्त्रण में क्या अन्तर है?

What do you understand by Proposal? Explain the essential ingredients of Valid Proposal.

उत्तर– साधारण बोलचाल की भाषा में जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सामने अपनी इच्छा को व्यक्त करता है तो उसे प्रस्ताव कहते हैं। प्रस्ताव की विधिक परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (क) में दी गयी है। जब एक व्यक्ति दूसरे के सामने कुछ करने या न करने की इच्छा को अभिव्यक्त करता है और ऐसा करते समय उसका यह आशय रहता है कि दूसरा व्यक्ति उसकी इच्छा के प्रति अपनी सहमति प्रकट करे तो यह कहा जा सकता है कि उसने प्रस्ताव रखा।

धारा 2 (क) में दी गई परिभाषा एवं न्यायिक व्याख्या के अनुसार एक वैध प्रस्ताव के निम्नलिखित आवश्यक तत्व होते हैं –

1. एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के सामने इच्छा को व्यक्त किया जाना,

2. इच्छा कुछ करने या करने से प्रविरत रहने की हो,

3. व्यक्त इच्छा के प्रति, दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने का आशय होना चाहिए।

इच्छा को व्यक्त करने के तीन तरीके हैं –

1. मौखिक 2. लिखित एवं 3. विवक्षित अर्थात् आचरण द्वारा।

     जो व्यक्ति प्रस्ताव रखता है, उसे प्रस्तावकर्ता (proposer) कहते हैं। उदाहरणार्थ अव के सामने अपनी इच्छा व्यक्त करता है कि वह अपना स्कूटर 5000 रुपये में बेचना चाहता है। अ का यह आशय रहता है कि यहाँ या नहीं कहे। हम कह सकते हैं कि अ नेव को प्रस्ताव रखा।

     अभिव्यक्त एवं विवक्षित प्रस्ताव (Express and implied proposal)– जब कोई प्रस्ताव मौखिक या लिखित रूप में किया जाता है तो ऐसे प्रस्ताव को अभिव्यक्त प्रस्ताव कहते हैं एवं जब प्रस्ताव का अनुमान व्यक्ति के आचरण से लगाया जाता है तो उसे विवक्षित प्रस्ताव कहते हैं। अपट्रोन रूरल कौंसिल बनाम पावेल, (1942) आल ई० आर० 220

     सामान्य एवं विशिष्ट प्रस्ताव (General and particular proposal)– जब प्रस्ताव सार्वजनिक तौर पर रखा जाता है तो उसे सामान्य प्रस्ताव कहते हैं। जब प्रस्ताव किसी व्यक्ति विशेष के सामने ही रखा जाता है तो उसे विशिष्ट प्रस्ताव कहते हैं। शुरू-शुरू में सामान्य प्रस्ताव को प्रस्ताव नहीं मानते थे। वीक्स बनाम टाइबाल्ड [ (1605) 74 ई० आर० 982] में अंग्रेजी न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि प्रस्ताव किसी विशिष्ट एवं निश्चित व्यक्ति को ही किया जा सकता है। किन्तु सुप्रसिद्ध वाद लेडी कारलिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बाल कं० (1893 ए० सी० 256) में यह स्पष्ट कर दिया गया कि प्रस्ताव सामान्य रूप का भी हो सकता है। जब प्रस्ताव सार्वजनिक तौर पर रखा जाता है तो उसकी स्वीकृति कोई भी दे सकता है।

      भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (क) में दी गई परिभाषा सम्पूर्ण नहीं है। एक विधिक प्रस्ताव के लिए और बातें भी आवश्यक होती हैं।

1. प्रस्ताव रखने का आशय विधिक सम्बन्ध स्थापित करने का होना चाहिए राजनैतिक, नैतिक या शिष्टाचार एवं व्यवहार में किये गये प्रस्ताव विधिक अधिकार या दायित्व उत्पन्न नहीं करते हैं।

     यदि अ ब को भोजन करने का प्रस्ताव रखता है या पति द्वारा पत्नी के लिए साड़ी लाने का प्रस्ताव या मित्र को सिनेमा दिखाने का प्रस्ताव रखा जाता है तो इसे विधिक प्रस्ताव नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसे प्रस्ताव का आशय विधिक दायित्व उत्पन्न करने का नहीं होता है।

2. प्रस्ताव का निश्चित अर्थ निकलना चाहिए।

3. प्रस्ताव की संसूचना पूर्ण होनी चाहिए।

      प्रस्ताव की संसूचना तब पूर्ण मानी जाती है जब जिस व्यक्ति से प्रस्ताव किया जाता है उसके ज्ञान में प्रस्ताव आ जाता है।

     चिरगामी प्रस्ताव (Continuing proposal)– जब प्रस्ताव किसी विशिष्ट कार्य तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि निरन्तर कार्यों के लिए किया जाता है तो इसे चिरगामी प्रस्ताव कहते हैं। अ ब को वचन देता है कि वह उसे हर महीने 10 किलो घी पहुँचायेगा, यह एक चिरगामी प्रस्ताव है।

     प्रस्तावक एवं प्रस्ताव का आमन्त्रण (Offer and invitation to offer)– यद्यपि भारतीय संविदा अधिनियम में प्रस्ताव व प्रस्ताव के आमन्त्रण में कोई अन्तर नहीं बताया गया है, फिर भी दोनों को एक मानना गलत है। धारा 2 (अ) के अनुसार प्रस्ताव कुछ करने की इच्छा है, जिसमें दूसरे व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने का आशय रहता है। यह इच्छा अन्तिम होती है जो विधिक दायित्व उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होती है।

      जबकि प्रस्ताव के आमन्त्रण में सम्पूर्ण इच्छा व्यक्त नहीं होती है। व्यक्ति संविदा करने की रुचि व्यक्त करता है और लोगों को आमन्त्रित करता है कि वे आकर उसे प्रस्ताव रखें। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्ताव व प्रस्ताव के आमन्त्रण में अन्तर मात्र इच्छा की मात्रा का है।

निम्नलिखित प्रस्ताव के आमन्त्रण माने जाते हैं –

1 नीलामी का विज्ञापन,

2. दुकान के प्रदर्शन कक्ष (शो रूम) में वस्तुएं रखना। बाटा के जूतों की दूकान के शो रूम में जूते रखे जाते हैं और उस पर कीमत भी लिखी रहती है, किन्तु दुकानदार को वही जूता बेचने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

3. पुस्तक विक्रेता द्वारा पुस्तक सूची (Catalogue) देना प्रस्ताव का आमन्त्रण है।

4. होटल के बैरे द्वारा खाद्य सामग्री की सूची (minu) देना ही प्रस्ताव का आमन्त्रण है।

5. रेलवे समय सारिणी (Railway time table) को डेन्टम बनाम ग्रेट नार्दन रेलवे (1865) में अंग्रेजी न्यायालय ने प्रस्ताव माना। किन्तु इस पर कोई भी प्रत्यक्ष भारतीय वाद नहीं है। आज के सन्दर्भ में रेलवे समय सारिणी भी प्रस्ताव का आमन्त्रण मानी जा सकती है।

6. निविदा (टेण्डर) भी प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण माना जाता है। टेण्डर का आदेश देने के पूर्व इसका प्रतिसंहरण किया जा सकता है। 7. बैंक द्वारा दी गई सेवा शुल्क की तालिका प्रस्थापना के लिए निमन्त्रण है।

      स्टेट बैंक ऑफ पटियाला बनाम रोमेश चन्द्र कन्नौजी, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० डब्ल्यू० 2108 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया है कि राष्ट्रीकृत बैंक द्वारा प्रारम्भ की गई स्वैच्छिक निवृत्ति योजना प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण के समतुल्य है जब कर्मचारी इस योजना के अन्तर्गत आवेदन करता है तो वह प्रस्ताव माना जायेगा। उसे स्वीकार करना या न करना बैंक का विवेकाधिकार है।

प्रस्ताव तथा प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण में अन्तर

प्रस्ताव

1. प्रस्ताव किसी निश्चित बात को करने या न करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से इस आशय से किया जाता है कि उसको अनुमति प्राप्त हो जाय।

2. प्रस्ताव किसी निश्चित व्यक्ति को 2 किया जाता है।

3. प्रस्ताव को व्यक्तियों के मध्य विधिक सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से किया जाता है।

4. प्रस्ताव यदि स्वतन्त्र कर दिया जाता तो वैध संविदा का निर्माण होता है।

5. प्रस्ताव की सूचना उस व्यक्ति को दी जानी आवश्यक है जिससे संविदात्मक सम्बन्ध स्थापित किया जाना है।

प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण

1. जब प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण में प्रस्ताव करने हेतु निमन्त्रित किया जाता है तथा यह आशा की जाती है कि दूसरा प्रस्ताव करे।

2. प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण निश्चित व्यक्ति को न होकर सर्वसाधारण के प्रति होता है।

3. प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण में किसी से प्रस्ताव करवाने का आशय होता है।

4. प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण यदि स्वीकार कर लिया जाए तो प्रस्ताव किया जाता है। तथा उससे वैध संविदा का निर्माण नहीं होता ।

5. प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण में किसी प्रकार के संसूचना की आवश्यकता नहीं रहती।

प्रश्न 5. विशिष्ट तथा साधारण प्रस्ताव से आप क्या समझते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति जिसे प्रस्ताव की जानकारी नहीं है, प्रस्ताव स्वीकार कर सकता है? निर्णीत वादों का हवाला दीजिए।

What do you understand by specific offer and general offer. Can a person who have no knowledge of offer can accept it?

Refer the decided cases.

उत्तर- विशिष्ट प्रस्ताव या प्रस्थापना (Specific offer or proposal) – जब प्रस्ताव किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों से किया जाता है तो यह विशिष्ट प्रस्ताव कहलाता है। इस प्रस्ताव में यह विशेषता होती है कि यह उन विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा ही स्वीकार की जाती है, जिसे यह प्रस्ताव किया गया है। जैसे एक प्रस्ताव अ, ब को पत्र द्वारा करता है। पत्र पहुँचने से पूर्व व की मृत्यु हो जाती है, व का पुत्र प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है। अ, ब के पुत्र की स्वीकृति से बाध्य नहीं होगा क्योंकि यह प्रस्ताव व को किया गया था जिसकी स्वीकृति सिर्फ व ही दे सकता है।

     सामान्य प्रस्ताव या प्रस्थापना (General offer)–किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यक्तियों से न होकर जनसाधारण से की जाती है परन्तु संविदा सिर्फ उसी व्यक्ति से होती है, जो प्रस्ताव या प्रस्थापना की शर्तों को पूरा करता है। सामान्य प्रस्ताव जब तक किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तभी संविदा का सृजन होता है। सामान्य प्रस्ताव विज्ञापनों, लाउडस्पीकरों या किन्हीं ऐसे साधनों द्वारा किया जा सकता है जिसका प्रसा साधारण जनता में हो।

      सामान्य प्रस्ताव को एक विशेषता यह है कि यहाँ प्रस्तावक स्वीकृति (प्रतिग्रहण) प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभिव्यजन कर देता है। इस प्रकार सामान्य प्रस्ताव में स्वीकृतिकर्ता को प्रस्ताव के स्वीकृति या प्रतिग्रहण की सूचना देनी आवश्यक नहीं है। सामान्य प्रस्ताव का उदाहरण कारलिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कम्पनी (1893) में मिलता है। इस बाद में एक कम्पनी ने समाचार पत्रों में यह विज्ञापन दिया कि कम्पनी द्वारा निर्मित सूंघने वाली गोलियों का प्रयोग लिखित निर्देशानुसार जो व्यक्ति करेगा उसे यदि प्रयोग के पश्चात् इन्फ्लुन्जा हो जायेगा तो कम्पनी उसे 100 पौण्ड का इनाम देगी। कम्पनी द्वारा इनाम की निश्चितता के लिए 1000 पौंड एलायन्स बैंक में जमा करा दिया गया था। कारलिल नामक एक महिला ने निर्देशों के अनुसार इस गोली का प्रयोग किया परन्तु उसके पश्चात् भी उसे इन्फ्लून्जा हो गया। उसने 100 पौंड इनाम का दावा किया।

    कम्पनी का तर्क था कि कारलिल ने प्रस्ताव के स्वीकृति की सूचना नहीं दी थी तथा कम्पनी ने उक्त विज्ञापन को संविदा निर्माण के आशय से नहीं किया था।

     न्यायालय ने कम्पनी के दोनों तर्कों को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय के अनुसार कम्पनी द्वारा विज्ञापन के माध्यम से किया गया प्रस्ताव एक सामान्य प्रस्ताव था। इस प्रकार के प्रस्ताव में यह उपधारणा होती है कि प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण (स्वीकृति) प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभित्यजन कर दिया है। न्यायालय ने दूसरे तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि कम्पनी द्वारा एलायन्स बैंक में 1000 पौंड जमा कराना इस बात का प्रमाण है कि कम्पनी द्वारा प्रस्ताव पूर्ण गम्भीरता के साथ किया गया था।

       प्रस्ताव के ज्ञान के अभाव में प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जा सकता – सामान्य प्रस्ताव चूंकि जनसाधारण को किया जाता है अतः कोई भी व्यक्ति इनाम की माँग कर सकता है। अत: इस बारे में यह बात उल्लेखनीय है कि प्रस्ताव स्वीकार करने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उसे प्रस्ताव की जानकारी स्वीकृति या प्रतिग्रहण से पूर्व थी। एन्सन ने अपनी पुस्तक लॉ ऑफ कान्ट्रेक्ट में एक उदाहरण देते हुए कहा कि यदि मैं इंग्लिश चैनल पार करने वाले व्यक्ति को इनाम की घोषणा करता हूँ तो मैं उन सभी व्यक्तियों के प्रति इनाम के लिए दायी नहीं हूँ जो इंग्लिश चैनल पार कर चुके हैं परन्तु इनाम का दावा करने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि इंग्लिश चैनल पार करते समय उसे प्रस्ताव की जानकारी थी तथा उसने इंग्लिश चैनल इनाम प्राप्त करने की आशा से पार की थी।

      इस विषय में लालमन शुक्ला बनाम गौरीदत्त (1913) का वाद उल्लेखनीय है। इस बाद में प्रतिवादी का भतीजा खो गया था। उसने अपने मुनीम को लड़के की तलाश हेतु भेजा। जब मुनीम लड़के की खोज में चला गया तो प्रतिवादी ने लड़के को खोजने वाले को इनाम की घोषणा की। मुनीम जब लड़के को खोज कर लाया उसके पश्चात् उसे इनाम के घोषणा का पता चला। उसने इनाम का दावा किया।

      न्यायालय ने निर्णय किया कि वादी इनाम का हकदार नहीं था। संविदा के प्रस्ताव के ज्ञान के अभाव में की गई स्वीकृति (प्रतिग्रहण) विधि मान्य नहीं होती। चूँकि मुनीम को लड़के को खोज लाने के पश्चात् इनाम के प्रस्ताव की घोषणा की जानकारी हुई अतः उसके पश्चात् उसके द्वारा की गई स्वीकृति से वैध संविदा का निर्माण नहीं हुआ।

      सामान्य प्रस्ताव चूंकि एक से अधिक व्यक्ति को किया जाता है अतः इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उन सभी व्यक्तियों के साथ संविदा निर्मित हो जाती है जो प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं?

      इस विषय में नियम यह है कि यदि प्रस्तावना ऐसी है जो सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा स्वीकार की जा सकती है तो संविदा सिर्फ उसी के साथ निर्मित होगी जो प्रस्ताव को स्वीकार करता है। जैसे लालमन शुक्ल बनाम गौरी दत्त। परन्तु यदि प्रस्ताव की प्रकृति ऐसी है जो एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा स्वीकार किया जा सकता है तो संविदा का निर्माण सिर्फ उसी व्यक्ति के साथ होगा जो सबसे पहले प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना देगा। ऐसी दशा में प्रस्तावना सिर्फ एक व्यक्ति की स्वीकृति से समाप्त नहीं होता। अन्य व्यक्ति भी ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार कर सकते हैं। कारलिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कम्पनी ऐसे प्रस्ताव को जो एक व्यक्ति की स्वीकृति के पश्चात् भी बना रहता है, चलत प्रस्ताव या स्थायी प्रस्थापना (Continuing or Standing offer) कहा जाता है।

प्रश्न 6. प्रस्ताव की तथा स्वीकृति की सूचना किस प्रकार की जाती है? प्रस्ताव तथा स्वीकृति की सूचना कब पूरी मानी जाती है?

अ, जौनपुर में गोमती नदी के एक किनारे से चिल्ला कर ब से जो गोमती नदी के दूसरे किनारे पर है, एक प्रस्ताव करता है। परन्तु वह ब का उत्तर उस समय आकाश में हवाई जहाज के उड़ने के शोर के कारण नहीं सुन सका। क्या कोई संविदा हुई?

How the communication of proposal and acceptance is made? A, in Jaunpur speaking loudly from one side of Gomti river made a proposal to B, who was on the other side of river, but he could not hear the reply of B. As that very moment, a plan passed over the river on the sky. Was there any contract?

उत्तर– किसी संविदा की उत्पत्ति के लिए सर्वप्रथम प्रस्तावना (प्रस्थापना : Proposal) की जाती है। प्रस्तावना को धारा 2 (क) में दी गई परिभाषा अनुसार जब एक व्यक्ति कुछ करने या न करने की अपनी इच्छा दूसरे व्यक्ति को इस प्रकार प्रकट करता है कि दूसरा व्यक्ति कुछ करने या न करने की अपनी सहमति प्रकट करे अर्थात् संविदा निर्माण का सबसे आवश्यक तत्व प्रस्थापना तथा उस प्रस्थापना की दूसरे व्यक्ति को सूचना होना अति आवश्यक है। कोई व्यक्ति प्रस्तावना की इच्छा की जानकारी के बिना प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।

     प्रस्तावना की संसूचना (Communication of proposal)— संविदा के लिए यह आवश्यक है कि प्रस्तावक ने अपनी इच्छा को प्रकट किया हो अर्थात् प्रस्तावना (Proposal) की सूचना दूसरे व्यक्ति को दी जाती है। संविदा अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत प्रस्तावना किसी ऐसे ढंग से की जानी चाहिए कि जिससे दूसरे व्यक्ति को (जिसके प्रति प्रस्तावना की गई हो) प्रस्तावना की सूचना हो जाय। इस प्रकार प्रस्तावना किसी ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए जिससे प्रस्तावना की जानकारी उस व्यक्ति को हो जाय जिसके प्रति प्रस्तावना की गई हो।

      प्रस्तावना विवक्षित या अभिव्यक्त की जा सकती है। यदि प्रस्तावना प्रस्तावक के आचरण से अनुमानित की जाती है तो यह प्रस्तावना विवक्षित होती है। जैसे नीलामी को बोली लगाना, बस में चढ़ना, स्वयंसेवी जलपान गृह में भोजन खाना ऐसा आचरण है जिससे किसी व्यक्ति की प्रस्तावना का अनुमान लगाया जा सकता है। अभिव्यक्त प्रस्तावना लिखित रूप में या बोल कर की जा सकती है। यदि कोई व्यक्ति पत्र लिखकर या अन्य लेखक के माध्यम से या बोल कर मौखिक रूप से अपनी इच्छा किसी के समक्ष प्रकट करता है तो वह प्रस्तावना अभिव्यक्त होती है।

      अपदान रूरल डिस्ट्रिक्ट काउन्सिल बनाम पोबेल के बाद में एक व्यक्ति ने फायर ब्रिगेड को अपने खेतों की आग बुझाने के लिए फोन कर बुलाया। बाद में विदित हुआ कि वादी को निःशुल्क सेवा को प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। यहाँ फायर ब्रिगेड को बुलाना एक वैध प्रस्ताव माना गया।

     इस प्रकार प्रस्ताव किसी ऐसे माध्यम से संसूचित किया जा सकता है जिससे प्रस्ताव को जानकारी जिस व्यक्ति के प्रति प्रस्ताव किया गया है, उसे हो जाय। अतः प्रस्ताव मौखिक, लिखित या विवक्षित रूप से किया जा सकता है जिससे उस व्यक्ति को प्रस्ताव की जानकारी हो जाय जिसके प्रति प्रस्तावना की गई है। विशिष्ट प्रस्ताव, किसी विशिष्ट व्यक्ति को पत्र भेजकर स्वयं मौखिक रूप से या ऐसे आचरण के माध्यम से किया जा सकता है जिससे प्रस्ताव की जानकारी उस व्यक्ति को हो जाय, जिसके प्रति प्रस्तावना की गई है।

     प्रस्ताव की संसूचना कब पूरी होती है?- प्रस्तावक प्रस्ताव की संसूचना पूरी होने से पूर्व अपना प्रस्ताव वापस ले सकता है उसके पश्चात् नहीं। प्रस्ताव प्रस्तावक तथा स्वीकृतिकर्ता दोनों के लिए एक ही साथ तब पूरा होता है जब प्रस्ताव की जानकारी स्वीकृतिकर्ता की जानकारी में आ जाती है।

      क, ख को पत्र द्वारा अपनी कार बेचने का प्रस्ताव करता है यहाँ जब ख, क का प्रस्ताव पढ़ता है तो उसे प्रस्ताव की जानकारी होती है अतः क, तथा ख के लिए प्रस्ताव उसी समय पूरा होता है जब ख, क का पत्र पढ़ता है इसके पश्चात् क अपना प्रस्ताव वापस नहीं ले सकता।

     स्वीकृति या प्रतिग्रहण (Acceptance) की संसूचना (Communication of Acceptance) — स्वीकृति या प्रतिग्रहण का संविदा के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान है। प्रस्तावना या प्रस्थापना के प्रतिग्रहण या स्वीकृति के बिना संविदा का निर्माण नहीं हो सकता। संविदा अधिनियम की धारा 2 (ख) के अनुसार जिस व्यक्ति से प्रस्तावना (proposal) को जाती है, उस प्रस्तावना या प्रस्थापना के सम्बन्ध में अपनी स्वीकृति संसूचित करता है तब यह कहा जाता है कि प्रस्तावना स्वीकृत हुई। प्रस्थापना या प्रस्तावना स्वीकृत होने के पश्चात् वचन या प्रतिज्ञा या संविदा का रूप धारण कर लेती है।

      धारा 3 के अनुसार प्रस्तावना या प्रतिग्रहण (स्वीकृति) की सूचना प्रस्ताव की स्वीकृति तथा प्रस्ताव या स्वीकृति का प्रतिसंहरण (खण्डन-वापस लेना) प्रस्तावक या स्वीकृतिकर्ता के किसी ऐसे कार्य या चूक (omission) से समझा जाएगा जो प्रस्ताव करने, प्रस्ताव को स्वीकार करने या प्रस्ताव या स्वीकृति का खण्डन (वापस लेने का आशय रखता हो या प्रस्ताव या स्वीकृति को प्रभावी बनाने का प्रभाव रखता हो।

     प्रस्तावना के स्वीकृति की सूचना स्वीकृतिकर्ता द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा दी जानी चाहिए। प्रतिग्रहण (स्वीकृति) को सूचना अभिव्यक्ति के माध्यम द्वारा की जानी चाहिए। केवल मानसिक स्वीकृति संविदा के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं है।

     प्रतिसंहरण या स्वीकृति (Acceptance) को संसूचित करने का ढंग –

(1) यदि प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का कोई ढंग निर्धारित किया हो।

(2) यदि प्रस्तावक ने कोई ढंग निर्धारित नहीं किया है।

(1) यदि प्रस्थापक या प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण ( स्वीकृति) का कोई ढंग निर्धारित किया हो – यदि प्रस्तावक ने प्रस्ताव (proposal) को स्वीकार करने का कोई ढंग निर्धारित किया हो तो प्रस्तावना की स्वीकृति या प्रतिग्रहण प्रस्तावक द्वारा निर्धारित ढंग से ही किया जाना आवश्यक है। इस प्रकार यदि एक प्रस्तावक ने पत्र द्वारा प्रस्ताव करते समय तार से या विशेष दूत से प्रस्ताव के प्रतिग्रहण या स्वीकृति करने का आग्रह किया है तो प्रस्ताव का प्रतिग्रहण तार या विशेष दूत से ही होना चाहिए।

     परन्तु यदि प्रस्ताव का प्रतिग्रहण (स्वीकृति) प्रस्तावक द्वारा निर्धारित ढंग से नहीं किया गया है किसी अन्य ढंग से किया गया है तो प्रतिग्रहण (स्वीकृति) स्वयं रद्द नहीं हो जाती तो प्रस्तावक, प्रतिग्रहण (स्वीकृति) संसूचित किये जाने के पश्चात् उचित समय के अन्दर यह आग्रह कर सकता है कि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) निर्धारित ढंग से ही किया जाय। यदि प्रस्तावक उचित समय में ऐसा आग्रह नहीं करता है तो यह समझा जाएगा कि प्रस्तावक ने निर्धारित ढंग से पृथक् ढंग से की गई स्वीकृति को स्वीकार कर लिया है तथा प्रस्तावक, प्रतिग्रहण स्वीकृति से बाध्य हो जाएगा।

       इस प्रकार यदि क, प्रस्ताव करते समय ख से यह कहता है कि यदि ख को उसका प्रस्ताव स्वीकार हो तो मन्दिर में घंटी बजा दे या जंगल में नगाड़ा बजा दे अब यदि ख मन्दिर में घंटी बजा देता है या जंगल में नगाड़ा बजा देता है तो यह वैध स्वीकृति (प्रतिग्रहण) माना जाएगा भले ही स्वीकृति प्रस्तावक को संसूचित नहीं हुई हो क्योंकि इस परिस्थिति में यह मान लिया जाएगा कि क ने स्वीकृति या प्रतिग्रहण का उक्त ढंग निर्धारित करके स्वीकृति से संसूचित होने के अपने अधिकार का अभित्यजन कर दिया है।

(2) यदि प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण का कोई ढंग निर्धारित नहीं किया है – यदि प्रस्तावक ने प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का कोई ढंग निर्धारित नहीं किया है तो स्वीकृति उचित या सामान्य ढंग से की जानी चाहिए।

     प्रस्ताव के प्रतिग्रहण या स्वीकृति प्रस्तावक द्वारा प्रस्ताव के प्रतिसंहरण (खण्डन) या वापस लेने से पूर्व किया जाना आवश्यक है। यदि प्रस्तावना की स्वीकृति के लिए कोई समय निर्धारित किया गया है तो स्वीकृति या प्रतिग्रहण उस निर्धारित समय के अन्दर किया जाना आवश्यक है क्योंकि उस निर्धारित समय के पश्चात् वह प्रस्ताव समाप्त हो जाता है और तत्पश्चात् उसका प्रतिग्रहण (स्वीकृति) नहीं किया जा सकता।

     समस्या – यदि संविदा के पक्षकार अपने सामने उपस्थित होकर संविदा कर रहे हैं तो प्रस्तावक को प्रस्ताव इस प्रकार करना चाहिए कि वह जिससे प्रस्ताव किया गया है उसे सुनाई दे या उसकी जानकारी में आ जाय, इसी प्रकार प्रतिग्रहण या स्वीकृति भी इस प्रकार की जानी चाहिए कि स्वीकृति या प्रतिग्रहण की जानकारी प्रस्तावक को हो जाय।

     इस समस्या में संविदा के दोनों पक्षकार अ तथा व गोमती के किनारे आमने-सामने खड़े है। क ने तब एक किनारे से प्रस्ताव किया तब व ने उसे सुन लिया परन्तु जब व ने स्वीकृति या प्रतिग्रहण किया तब आसमान से हवाई जहाज गुजरा तथा उसके शोर के कारण क स्वीकृति नहीं सुन सका अतः क को स्वीकृति या प्रतिग्रहण की जानकारी नहीं हुई अतः यहाँ संविदा का निर्माण नहीं हुआ। यदि व चाहता है कि संविदा का निर्माण हो तो उसे पुनः अपनी स्वीकृति या प्रतिग्रहण को चिल्ला कर इस प्रकार कहना होगा कि वह अ को सुनाई दे। यह समस्या एण्टोर्स लि० बनाम माइल्स फार ईस्ट कारपोरेशन, (1955) 2Q.B. 327 में लाई एटकिन द्वारा दिया गया उदाहरण है।

प्रश्न 7. (अ) प्रस्ताव कब और किस प्रकार प्रतिसंहृत (खण्डित) किया जा सकता है या वापस लिया जा सकता है? प्रतिग्रहण किस प्रकार वापस लिया जा सकता है?

(ब) 1 जनवरी, 1992 को पत्र भेजकर प ने अपना घर क को बेचने का प्रस्ताव किया। क ने प्रस्ताव को प्रतिग्रहीत (स्वीकृत) कर लिया तथा 4 जनवरी, 1992 को प्रतिग्रहण का पत्र पत्र-पेटिका में डाल दिया जो प को 16 जनवरी, 1992 को प्राप्त हुआ। प ने 5 जनवरी, 1992 को प्रस्ताव को प्रतिसंहृत कर लिया ( वापस ले लिया )? क्या प्रतिसंहरण वैध है?

(a) When and how can the proposal be revoked? How and when acceptance is revoked?

(b) Through a letter, sent by post on Jan Ist, 1992, P proposed to sell his house to K. K. accepted the proposal and posted the letter of acceptance in letter box on Jan 4, 1992 and the same was delivered to P on 16th Jan, 1992. P, Has revoked the proposal on 5th Jan, 1992. Is the revocation of proposal valid?

उत्तर (अ) – संविदा अधिनियम की धारा 6 में प्रस्थापना (proposal) के प्रतिसंहरण (Revocation) या वापस लेने की विभिन्न विधियाँ बताई गई हैं। प्रस्तावना का प्रतिसंहरण निम्न तरीके से किया जा सकता है –

(1) प्रस्तावक द्वारा दूसरे पक्षकार को प्रतिसंहरण की सूचना देकर-प्रस्तावक अपने प्रस्ताव का दूसरे पक्ष को सूचना देकर खण्डन कर सकता है या अपना प्रस्ताव वापस ले सकता है। संविदा अधिनियम की धारा 5 के अनुसार प्रस्तावक अपना प्रस्ताव उसके सम्बन्ध में प्रतिग्रहण (स्वीकृति) के सूचना पूर्ण होने से पूर्व किसी समय वापस ले सकता है। प्रस्तावक के लिए प्रतिग्रहण (स्वीकृति) की सूचना उस समय पूर्ण हो जाती है जब स्वीकृतिकर्ता ने प्रतिग्रहण की सूचना पारेषण (delivery) के अनुक्रम में इस प्रकार कर दी है। कि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) को वापस लेना प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) के नियन्त्रण से बाहर हो गया है। प्रस्ताव को वापस लेना (प्रतिसंहरण) तभी तक सम्भव है जब तक स्वीकृतिकर्ता को प्रस्ताव के वापस लाने (प्रतिसंहरण) की सूचना उस समय से पूर्व मिल जाय जब वह प्रतिग्रहण (स्वीकृति) को पारेषण के उस माध्यम को दे चुका हो जहाँ स्वीकृति (प्रतिसंहरण) को वापस लेना प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) के लिए असम्भव हो जाए। जैसे स्वीकृति की सूचना को पत्र-पेटिका में डाल देना या पोस्ट ऑफिस को दे देना।

     हन्थान बनाम फ्रेजर के बाद में प्रतिवादी ने अपनी सम्पत्ति बेचने का प्रस्ताव किया। उसी दिन प्रस्ताव के प्रतिसंहरण (खण्डन) में सूचना भी पत्र-पेटिका में डाली। यह (प्रतिसंहरण) की सूचना प्रतिग्रहोता (स्वीकृतिकर्ता) को 5.30 शाम को प्राप्त हुई जबकि शाम 4 बजे प्रतिग्रहोता (स्वीकृतिकर्ता) ने प्रतिग्रहण (स्वीकृति) की सूचना डाक पेटिका में डाल चुका था यहाँ प्रस्तावक के लिए स्वीकृति (प्रतिग्रहण) 4 बजे पूर्ण हो चुका था जब प्रतिग्रहण को सूचना पत्र-पेटिका में डाली गई थी, उसके पश्चात् नहीं। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविदा 4 बजे सृजित हो चुकी थी जब स्वीकृति पत्र पारेषण के माध्यम से सुपुर्द कर दिया गया था। अतः 4 बजे के पश्चात् प्रस्ताव का प्रतिसंहरण नहीं किया जा सकता था।

      यदि प्रस्तावक ने प्रस्ताव को स्वीकार (प्रतिग्रहण) करने के लिए कोई समय निश्चित किया है तथा उस निर्धारित समय के अन्दर प्रस्ताव का प्रतिग्रहण (स्वीकृति) नहीं हुई है तो प्रस्तावक, प्रस्तावना का प्रतिसंहरण उस समय की समाप्ति के पूर्व कर सकता है तथा उसे निर्धारित समय को समाप्त होने के लिए इन्तजार करने की आवश्यकता नहीं है।

(2) प्रस्ताव के प्रतिग्रहण के लिए निर्धारित समय या उचित समय की समाप्ति पर – यदि प्रस्तावक ने अपने प्रस्ताव को स्वीकार किए जाने का कोई समय निर्धारित किया है तथा प्रस्ताव को उस निर्धारित समय के भीतर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया है तो निर्धारित समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् प्रस्ताव का प्रतिसंहरण (खण्डन) मान लिया जाएगा।

      यदि प्रस्तावना में प्रस्ताव के स्वीकृति के लिए कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है। तो प्रस्ताव की स्वीकृति युक्तियुक्त (उचित) समय के भीतर की जानी चाहिए। उचित समय क्या है, यह प्रत्येक वाद के तथ्यों पर निर्भर करेगा। जिन वस्तुओं का मूल्य प्रतिदिन बदलता है वहाँ प्रतिग्रहण (स्वीकृति) अतिशीघ्र की जानी चाहिए परन्तु मकान या जमीन के विक्रय के प्रस्ताव के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत अधिक समय को युक्तियुक्त समय माना जाएगा।

(3) प्रतिग्रहण ( स्वीकृति) की पूर्व शर्त पूरी न करने पर प्रस्ताव की समाप्ति यदि प्रस्तावक ने अपनी प्रस्तावना में प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए कोई पूर्व शर्त निर्धारित की है तथा प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) उस शर्त को पूरा करने में असफल रहता है तो प्रस्ताव समाप्त या प्रतिसंहरित या विखण्डित माना जाएगा।

     क, ख को अपना मकान बेचने का प्रस्ताव, ख को इस शर्त पर करता है कि विक्रय के पूर्व, ख मकान की पूरी कीमत अदा कर देगा। यदि ख, पूरी कीमत अदा करने में असफल रहता है तो क का प्रस्ताव स्वयं प्रतिसंहरित (विखण्डित) माना जाएगा।

     यदि किसी प्रस्ताव को यथावत् स्वीकार न करके प्रस्ताव का प्रतिग्रहण (स्वीकृति) किसी परिवर्तन के साथ किया जाता है तो ऐसी परिस्थिति में वह प्रतिग्रहण न होकर प्रस्ताव के उत्तर में प्रति प्रस्ताव (counter proposal) माना जाता है तथा प्रति प्रस्ताव मूल प्रस्ताव को नष्ट कर देता है यदि मूल प्रस्तावक इस प्रति प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो एक वैध संविदा का निर्माण हो जाता है।

     हाइड बनाम रेन्च नामक वाद में प्रतिवादी अपना खेत बादी को 1000 पौंड में बेचने का प्रस्ताव करता है परन्तु वादी खेत 950 पौण्ड में खरीदने को कहता है। यहाँ वादी का खेत 950 पौण्ड में खरीदने को कहना प्रतिवादी के मूल प्रस्ताव का प्रति प्रस्ताव (counter proposal) है। तत्पश्चात् वादी खेत को 1000 पौण्ड में खरीदने को तैयार हो जाता है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी का खेत को 950 पौण्ड में खरीदने का प्रस्ताव प्रतिवादी के मूल प्रस्ताव का प्रति प्रस्ताव था जिसने मूल प्रस्ताव को विखण्डित कर दिया अत: बाद में वादी का खेत को 1000 पौण्ड में खरीदने को तैयार हो जाना प्रतिग्रहण नहीं माना जा सकता तथा वैध संविदा का निर्माण नहीं हुआ।

(4) प्रस्तावक की मृत्यु अथवा पागलपन भी प्रस्ताव को समाप्त कर देता है- यदि प्रस्तावक को मृत्यु हो जाती है या प्रस्तावक पागल हो जाता है तथा प्रस्ताव को स्वीकार करने से पूर्व (प्रतिग्रहीता) स्वीकृतिकर्ता को इस तथ्य की जानकारी हो जाती है तो ऐसी दशा में (प्रतिग्रहोता) स्वीकृतिकर्ता द्वारा प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने से वैध संविदा का निर्माण नहीं होता। परन्तु यदि प्रस्तावक के मृत्यु या पागलपन की जानकारी स्वीकृतिकर्ता या प्रतिग्रहीता को प्रस्ताव के प्रतिग्रहण के पश्चात् होती है तो वैध संविदा का निर्माण हो जायेगा तथा प्रस्तावक के उत्तराधिकारी संविदा के अन्तर्गत बाध्य होंगे।

     अंग्रेजी विधि में स्वीकृति करने से पूर्व प्रस्तावक की मृत्यु का प्रभाव यह होगा कि प्रस्ताव समाप्त हो जायेगा चाहे प्रस्तावक उस तथ्य की जानकारी के पश्चात् या जानकारी के पूर्व प्रस्ताव का प्रतिग्रहण स्वीकृति की हो। अंग्रेजी विधि में प्रस्तावक की मृत्यु से वैध संविदा का निर्माण नहीं होगा।

    प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का प्रतिसंहरण (खण्डन: Revocation ) – अंग्रेजी विधि के अनुसार (स्वीकृति प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण (Revocation) सम्भव नहीं है। एन्सन के अनुसार प्रतिग्रहण का प्रस्तावना पर वही प्रभाव होता है जो बारूद पर जलती हुई दियासलाई का वैध तथा पूर्ण प्रस्ताव तथा वैध एवम पूर्ण प्रतिग्रहण ऐसा कार्य करते हैं जिसे मिटाया नहीं जा सकता परन्तु एन्सन महोदय के अनुसार उपरोक्त नियम डाक के माध्यम से किए गए प्रतिग्रहण को प्रतिग्रहण की संसूचना प्रतिग्रहीता के सम्बन्ध में पूर्ण होने से पूर्व प्रतिग्रहीता, प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण (Revocation) कर सकता है परन्तु उसके लिए शर्त यह है कि प्रतिसंहरण (Revocation) की सूचना प्रतिग्रहीता द्वारा किए गए प्रतिग्रहण (स्वीकृति) को सूचना प्रस्तावक के पास पहुँचने से पूर्व किया जाय।

     भारतीय विधि में यह सुनिश्चित नियम है कि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का प्रतिसंहरण (Revocation) सदैव किया जा सकता है, यदि प्रतिसंहरण पत्र (Revocation letter) प्रतिग्रहण (स्वोकृति) की सूचना प्रस्तावक के पास पहुंचने से पूर्व प्रतिसंहरण की सूचना प्रस्तावक के पास पहुँचायी जाय।

      परन्तु यदि प्रतिग्रहण (स्वीकृति) तथा प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण (revocation) की सूचना साथ-साथ पहुँचते हैं तो क्या परिणाम होगा इस विषय में संविदा अधिनियम की धारा 5 में स्पष्ट नहीं है। धारा 5 से जुड़ा उदाहरण यह स्पष्ट करता है कि यदि प्रतिग्रहण तथा प्रतिसंहरण की सूचना साथ-साथ पहुँचती है तो प्रतिसंहरण (revocation) प्रभावी होगा।

     यह उल्लेखनीय है कि प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) उसके सम्बन्ध में प्रतिग्रहण पूर्ण होने से पूर्व प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण कर सकता है। प्रतिग्रहीता के सम्बन्ध में प्रतिग्रहण उस समय पूरा होगा जब प्रतिग्रहण की जानकारी प्रस्तावक को हो। परन्तु प्रस्तावक के लिए प्रतिग्रहण तभी पूरा होगा जब प्रतिग्रहण का पत्र पारेषण के ऐसे माध्यम में डाल दिया गया है जिसे वापस ले पाना प्रतिग्रहीता के लिए असम्भव हो।

    इस प्रकार यदि प्रतिग्रहण पत्र द्वारा किया गया है तथा प्रतिसंहरण तार द्वारा किया गया है तथा प्रस्तावक को पत्र तथा तार एक साथ प्राप्त हो जायेगा क्योंकि कोई भी सामान्य बुद्धि का व्यक्ति पत्र तथा तार साथ-साथ प्राप्त होने पर तार पहले खोलकर पड़ेगा अतः इस परिस्थिति में प्रतिसंहरण की जानकारी प्रस्तावक को पहले होगी तथा प्रतिग्रहण की बाद में तथा प्रतिसंहरण की संसूचना पूरी होने से पूर्व प्रतिग्रहण का प्रतिसंहरण किया जा सकता है।

उत्तर (ब) – समस्या – प्रस्तुत समस्या में प ने पत्र भेजकर अपना प्रस्ताव 1 जनवरी, 1992 को किया। क ने प्रस्ताव की (स्वीकृति) प्रतिग्रहण का पत्र 4 जनवरी, 1992 को पत्र पेटिका में डाल दिया। अतः प के विरुद्ध (स्वीकृति) प्रतिग्रहण 4 जनवरी, 1992 को उस समय पूरी हो गयी जब क ने अपनी स्वीकृति (प्रतिग्रहण) पारेषण के उस माध्यम में डाल दिया जहाँ से (प्रतिग्रहण) स्वीकृति वापस लेना क के लिए असम्भव हो गया। प के लिए संविदा का निर्माण 4 जनवरी, 1992 को ही हो गया भले ही (प्रतिग्रहण) स्वीकृति का पत्र प को 16 जनवरी, 1992 को प्राप्त होता है।

     अत: 4 जनवरी, 1992 को प के लिए संविदा का निर्माण होने के पश्चात् 5 जनवरी, 1992 को प अपने प्रस्ताव को वापस नहीं ले सकता। प द्वारा 5 जनवरी, 1992 को किया गया प्रतिसंहरण (विखण्डन revocation) वैध नहीं होगा।

प्रश्न 8. (अ) संविदा कब पूर्ण हुई मानी जाती है? प्रस्तावना के लिए प्रतिग्रहण (स्वीकृति) का वही महत्व है जो कि बारूद की एक ट्रेन के लिए जलती हुई एक सलाई का है। ये दोनों एक ऐसा कार्य करते हैं, जो वापस नहीं हो सकता- एन्सन। विवेचना करें।

निम्नलिखित दशाओं में संविदा कब और कहाँ पूरी होती है –

(a) जहाँ पक्षकार दूरस्थ हों और टेलीफोन द्वारा संविदा कर रहे हों।

(b) जहाँ पक्षकार एक-दूसरे की उपस्थिति में संविदा कर रहे हों।

(c) जहाँ पक्षकार दूरस्थ हों और ई-मेल द्वारा संविदा कर रहे हों।

When the contract is said to be complete? “Acceptance is to an offer, what a lighted match is to a train of Gun Powder? Both do something which can not be undone.?-Anson.

Comment. When and where does a contract conclude in the following cases :

(a) Where the parties are at distance and are contracting through telephone.

(b) Where the parties are contracting in each other’s presence.

(c) Where the parties are at distance and are contracting through e-mail.

(ब) प्रतिग्रहण आत्यन्तिक होना ही चाहिये। समझाइये।

Acceptance must be absolute”. Explain it.

उत्तर (अ)- संविदा कय पूर्ण मानी जाती है?– एक वैध संविदा के सृजन के लिए एक वैध तथा पूर्ण प्रस्ताव तथा एक वैध एवं पूर्ण स्वीकृति का मिलन आवश्यक है। जब एक पूर्ण तथा वैध प्रस्ताव तथा एक वैध एवं पूर्ण स्वीकृति आपस में मिलते हैं तो संविदा का सृजन होता है। संविदा एक ऐसा विस्फोट है जो प्रस्ताव रूपी बारूद तथा जलती दियासलाई रूपी पूर्ण एवं वैध स्वीकृति के संयोग से उत्पन्न होता है तथा एक बार जब प्रस्तावरूपी बारूद की गाड़ी पर सलाई रूपों स्वीकृति का मिलन हो जाता है तो एक ऐसा कार्य हो जाता है जिसे मूल रूप में वापस नहीं किया जा सकता है।

     प्रस्ताव कब पूर्ण होता है?- संविदा अधिनियम की धारा 4 के अनुसार प्रस्ताव प्रस्तावक तथा स्वीकृतिकर्ता (प्रतिग्रहीता) के लिए एक ही समय पूरा होता है और वह समय है, जब प्रस्ताव की सूचना (प्रतिग्रहीता) स्वीकृतिकर्ता को जानकारी में आती है। प्रतिग्रहीता को जब प्रस्ताव की जानकारी हो जाती है, उसके पश्चात् प्रस्तावक प्रस्ताव को वापस नहीं ले सकता। उदाहरण के लिए क, दिनांक 12.1.1996 को अपनी कार 50,000 रुपये में बेचने का प्रस्ताव ख को पत्र द्वारा प्रेषित करता है। यह पत्र 15.1.1996 को ख को प्राप्त होता है तथा ख पत्र को 15.1.1996 को पढ़ता है। अतः प्रस्तावना के तथा ख दोनों के लिए 15.1.1996 को पूरी होती है। क अपना प्रस्ताव 15.1.1996 से पूर्व वापस ले सकता है उसके पश्चात् नहीं। इस प्रकार 15.1.1996 को पत्र ख को प्राप्त हो जाने के पश्चात् जिस समय पत्र ख पढ़ता है उस समय से पूर्व के अपना प्रस्ताव वापस ले सकता है। उसके पश्चात् प्रस्ताव यदि स्वीकार कर लिया जाता है तो वह एक पूर्ण तथा वैध प्रस्ताव हो जाता है।

      स्वीकृति या प्रतिग्रहण कब पूर्ण होती है? इस बिंदु पर अंग्रेजी विधि तथा भारतीय विधि में भेद है। अंग्रेजी विधि में प्रतिग्रहण प्रस्तावक तथा प्रतिग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) दोनों के लिए एक समय पूरी होती है। अंग्रेजी विधि के अनुसार जब स्वीकृति पत्र (प्रतिग्रहण पत्र) डाक में डाल दिया जाता है तब प्रतिग्रहण प्रस्तावक तथा प्रतिग्रहोता दोनों के लिए पूर्ण हो जाने के कारण स्वीकृति (प्रतिग्रहण) के पूर्ण होते ही संविदा का जन्म हो जाता है तथा प्रस्तावक न अपना प्रस्ताव वापस ले सकता है, न ही स्वीकृतिकर्ता (प्रतिग्रहोता) अपना प्रतिग्रहण ही वापस ले सकता है।

      परन्तु भारतीय विधि में संविदा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार (स्वीकृति) प्रतिग्रहण प्रस्तावक के लिए तथा (स्वीकृतिकर्ता) प्रतिग्रहीता के लिए भिन्न-भिन्न समयों पर पूरी होती है। प्रस्तावक के लिए प्रतिग्रहण तभी पूरा हो जाता है जब प्रतिग्रहीता या स्वीकृतिकर्ता ने प्रतिग्रहण या स्वीकृति को संचार के माध्यम से ऐसे प्रेषित कर दिया है कि प्रतिग्रहण को वापस लेना प्रतिग्रहीता के नियन्त्रण के बाहर हो जाता है। जैसे पत्र डाक पेटी में डाल देना। इस प्रकार ज्यों ही स्वीकृतिकर्ता (प्रतिग्रहोता) अपनी स्वीकृति पत्र-पेटिका में डाल देता है प्रस्तावक के लिए संविदा पूर्ण हो जाती है तथा प्रस्तावक अपना प्रस्ताव वापस नहीं ले सकता तथा बारूद रूपी प्रस्ताव तथा सलाई रूपी स्वीकृति के संयोग से अखण्डनीय (irrevocable) संविदा का जन्म हो जाता है।

      परन्तु स्वीकृति स्वीकृतिकर्ता के लिए तब पूरी होगी जय स्वीकृति की जानकारी प्रस्तावक को हो जाय। इस प्रकार व प्रस्ताव की स्वीकृति दिनांक 15.1.1996 को पत्र पेटिका में डाल देता है तो क (प्रस्तावक) के लिए संविदा का निर्माण 15.1.1996 को ही हो जाता है तथा के प्रस्तावक तथा ख स्वीकृतिकर्ता के मध्य अखण्डनीय संविदा का निर्माण हो जाता है। परन्तु ख स्वीकृतिकर्ता के लिए संविदा का निर्माण तब पूरा होगा जब स्वीकृति की जानकारी प्रस्तावक को होगी अर्थात् जब वह पत्र पायेगा।

      उदाहरण के रूप में ख अपनी स्वीकृति पत्र द्वारा भेजता है परन्तु प्रस्ताव का खण्डन तार द्वारा भेजता है। क्या यदि पत्र तथा तार प्रस्तावक को साथ-साथ मिलते हैं तो प्रस्ताव का खण्डन माना जायेगा क्योंकि जब एक व्यक्ति को तार तथा पत्र साथ-साथ प्राप्त होता है तो वह आमतौर पर तार पहले पढ़ेगा तथा उसे खण्डन की जानकारी पहले होगी।

       प्रस्ताव की स्वीकृति ज्यों ही पूर्ण हो जायेगी एक वैध संविदा का निर्माण हो जायेगा। इस प्रकार प्रस्तावक के लिए संविदा तभी पूर्ण हो जायेगी जब स्वीकृति पत्र डाक में डाल दिया जाता है, परन्तु स्वीकृतिकर्ता के लिए संविदा का निर्माण तब होगा जब स्वीकृति की जानकारी प्रस्तावक को हो जाती है।

     प्रस्ताव तथा स्वीकृति एक दूसरे के लिए बारूद की गाड़ी तथा जलती सलाई हैं- प्रतिग्रहण संविदा सूचना का द्वितीय चरण है जिसके अभाव में प्रस्थापना, प्रस्थापना ही रह जाती है तथा संविदा निर्माण का कार्य अग्रसर नहीं हो सकता। प्रतिग्रहण की बात तभी उत्पन्न होती है जब एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति से प्रस्थापना की गयी हो। अगर प्रस्थापना हुई है तो प्रतिग्रहीत होने पर उसके रूप में परिवर्तन हो जाता है। तब प्रस्थापना, प्रस्थापना नहीं रह जाती यदि प्रतिग्रहीत कर ली जाय ऐन्सन (Anson) का कथन उचित ही है कि “प्रतिग्रहण का प्रस्थापना के साथ वही सम्बन्ध है जो जलती हुई दियासलाई की तीली का बारूद की गाड़ी के साथ” (Acceptance is to offer what a lighted match is to a Train of Gun Powder)। बारूद तथा जलती हुई दियासलाई की तीली जब तक एक दूसरे से अलग हैं, तब तक निष्प्रभावी होंगे। लेकिन जैसे ही जलती हुई दियासलाई की तीली को बारूद से लगा दिया जाय तो बारूद का रूप बदल जाता है तथा वह प्रभावकारी हो जाता है। उसी प्रकार प्रस्थापना करने के पश्चात् जब तक उसका प्रतिग्रहण नहीं हो जाता प्रस्थापना ही रह जाती है वह दूसरे पक्षकार पर बन्धनकारी नहीं हो सकती। लेकिन प्रस्थापना का प्रतिग्रहण होते ही उसके रूप में परिवर्तन हो जाता है तथा संविदा का रूप धारण कर लेता है, जिसके फलस्वरूप अन्य औपचारिकताओं के बाद पक्षकार एक-दूसरे के प्रति बाध्य होते हैं। प्रस्थापना बारूद की तरह है और प्रतिग्रहण जलती हुई दियासलाई की तीली। दोनों के संयोग मात्र से एक नई चीज उत्पन्न होती है जिसे संविदा कहते हैं।

      इस प्रकार जब तक बारूद में आग नहीं लगायी जाती है तब तक बारूद को बचाया जा सकता है। पर आग लगा देने के बाद विस्फोट होकर ही रहेगा और उसका एक अलग ही प्रभाव होगा। इसलिए कहा गया है कि “प्रतिग्रहण का प्रस्थापना के साथ वही सम्बन्ध है जो जलती हुई तीली का बारूद की गाड़ी के साथ।”

उत्तर (a)जहाँ पक्षकार दूरस्थ हों और टेलीफोन या टेलेक्स द्वारा संविदा कर रहे हाँ- कभी-कभी ऐसा होता है कि संविदा के पक्षकार एक-दूसरे से बातचीत तो सीधे करते हैं परन्तु एक-दूसरे के सामने नहीं होते अथवा दूर होते हैं। उदाहरण के लिए टेलीफोन द्वारा बातचीत जब टेलीफोन द्वारा प्रस्ताव किया जाता है और उसी के द्वारा स्वीकृति को सूचना भेजी जाती है तो संविदा का निर्माण तब होता है जब स्वीकृति का तब्य प्रस्ताव कर्ता के ज्ञान में आ जाता है। इस सम्बन्ध में कोर्ट ऑफ अपील द्वारा निर्णीत इन्टोर्डस लि० बनाम मिल्स फार ईस्ट कारपोरेशन (1955) 2 ऑल ई० आर० 493 का बाद इसका उदाहरण है- बादी ने लंदन से टेलेक्स द्वारा हालैण्ड की एक पार्टी को कुछ सामान खरीदने का प्रस्ताव भेजा और उसी टेलेक्स से प्रतिवादी पार्टी ने अपनी स्वीकृति दे दी जो प्रस्तावक को प्राप्त हो गई। संविदा पूर्ण हो गई। अब प्रश्न यह उठा कि संविदा लंदन में उत्पन्न हुई या हालैण्ड में? न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संविदा लंदन में उत्पन्न हुई क्योंकि टेलीफोन द्वारा संदेश तुरन्त पहुँच जाता है जबकि ढाक में समय लगता है। अतः संविदा उस स्थान पर पूर्ण होती है जहाँ स्वीकृति प्रस्तावकर्ता को प्राप्त होती है।

       उपर्युक्त मत का समर्थन सर्वोच्च न्यायालय ने भगवानदास गोवर्धन दास केडियां बनाम गिरधारी लाल एण्ड कं० ए० आई० आर० 1966 एस० सी० के बाद में कर दिया है, इस बाद में वादी ने अहमदाबाद में टेलीफोन द्वारा खामगाँव में प्रतिवादी से कुछ समान क्रय करने के लिए प्रस्ताव किया। प्रतिवादी ने अपनी स्वीकृति तुरन्त दे दी। वादी का कहना था कि संविदा अहमदाबाद में पूरी हुई जबकि प्रतिवादी का कहना था कि संविदा खाँमगाँव में पूरी हुई।

    उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि संविदा अहमदाबाद में पूर्ण हुई थी क्योंकि स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को अहमदाबाद में प्राप्त हुई थी।

      सन्तोष कुमार रंका बनाम फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2011) पटना 114 के मामले में उल्लेख है कि “जब प्रतिग्रहण की सूचना टेलीफोन व टेलेक्स द्वारा दी जाती है, सूचना तब पूर्ण मानी जाती है जब प्रस्थापक उसे प्राप्त करता है संविदा का निर्माण उस स्थान पर होता है जहाँ प्रस्थापक प्रतिग्रहण की सूचना प्राप्त करता है।”

उत्तर (b) – जहां दोनों पक्षकार एक दूसरे के सामने हों – यदि संविदा के पक्षकार एक दूसरे से वार्तालाप सीधे स्वयं कर रहे हों तो उनमें से एक पक्षकार प्रस्ताव दूसरे पक्षकार से करेगा और दूसरा पक्षकार जब प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है और अपनी स्वीकृति से प्रस्तावकर्ता को अवगत करा देता है तो वहीं पर संविदा पूर्ण हो जाती है।

      इस सम्बन्ध में इसे बनाम हार्न पिने, (1893) 1 क्यू० बी० 256 का वाद प्रमुख है-‘अ’ ने ‘ब’ से अपना घर 5,000 रुपये में बेचने का प्रस्ताव किया। ‘ब’ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया कि “मैं आप द्वारा कथित मूल्य पर घर खरीदने को तैयार हूँ” यदि मेरा वकील घर के कागजातों का अनुमोदन कर देता है। यहाँ संविदा दोनों पक्षकारों के बीच पूरी हो गई क्योंकि ‘ब’ द्वारा की गई स्वीकृति ‘अ’ के संज्ञान में आ गई थी।

उत्तर (c)- जहाँ पक्षकार दूरस्थ हों और ई-मेल या फैक्स द्वारा संविदा कर रहे हों– ई-मेल या फैक्स तीव्र संचारण का एक तरीका है। इसमें संविदा तभी पूरी होती है जब प्रतिग्रहण, प्रस्थापक को प्राप्त हो जाये और संविदा उस स्थान पर पूर्ण होगी जहाँ प्रतिग्रहण प्राप्त होता है।

     इस सम्बन्ध में मेसर्स गैम्पेन इण्डिया लि० बनाम पंजाब इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड, एक आई० आर० 1997 (पी० एण्ड एच०) के मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि फैक्स के माध्यम से भी प्रस्ताव का प्रतिग्रहण हो सकता है।

उत्तर (ब) – प्रतिग्रहण विधिमान्य होना ही चाहिए– विधिमान्य प्रतिग्रहण (स्वीकृति) के लिए आवश्यक है कि वह शर्त रहित हो तथा पूर्ण हो। जैसा कि अधिनियम की धारा 7 में उल्लिखित है कि प्रस्ताव को वचन में परिवर्तित करने के लिए स्वीकृति पूर्ण एवं शर्त रहित होती है। विधिमान्य प्रतिग्रहण की दो अनिवार्य शर्तों का उल्लेख किया गया है –

(i) प्रतिग्रहण आत्यन्तिक (absolute) एवं बिना किसी शर्त के होना चाहिये, तथा

(ii) उसे प्रायिक और युक्तियुक्त प्रकार से (usual and reasonable manner) अभिव्यक्त किया जाना चाहिये।

     किसी प्रस्थापना को वचन का रूप धारण करने के लिए यह जरूरी है कि उसका प्रतिग्रहण आत्यन्तिक एवं शर्तरहित हो अर्थात् प्रस्थापना को बिना किसी हेर-फेर किये हुए उसी रूप में उन्हीं शर्तों के अधीन स्वीकृत किया जाना चाहिए जो कि उसमें विहित हो। जब तक प्रतिग्रहण आत्यंतिक नहीं होता, तब तक यह माना जाता है कि अभी वार्तालाप का दौर चल रहा है और पक्षकारों के बीच कोई विधिक दायित्व उत्पन्न नहीं हुए हैं।

     ह्वाइट बनाम रेन्च (1840) 3 बीब 334 के बाद में प्रतिवादी ने अपने फार्म को 2000 पौण्ड में विक्रय करने की प्रस्थापना किया। वादी ने 950 पौण्ड में क्रय करने की स्वीकृति भेजी जिसे प्रतिवादी ने अस्वीकार कर दिया। न्यायालय द्वारा निर्णय किया गया कि प्रथम प्रतिग्रहण, प्रतिग्रहण नहीं बल्कि प्रतिस्थापना की, जिसने मौलिक प्रस्थापना को रद्द कर दिया। पुनः उसका प्रतिग्रहण नहीं किया जा सकता। पुनः वादी ने 1000 पौण्ड में क्रय करने की स्वीकृति दिया तो वह प्रतिग्रहण नहीं बल्कि प्रतिस्थापना थी, जिसे स्वीकार या अस्वीकार करने का पूर्ण अधिकार प्रतिवादी को है।

      राउटलेज बनाम ग्रान्ट (1828) 130 ई० आर० 920 के मामले में ‘ख’ ने कतिपय शर्तों पर कोई गृह खरीदने की प्रस्थापना की। गृह का कब्जा 25 जुलाई को दिया जाने वाला था। ‘क’ शर्तों से सहमत हो गया, लेकिन यह कहा कि वह कब्जा पहली अगस्त को देगा। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वह ‘ख’ की प्रस्थापना का प्रतिग्रहण नहीं था।

     यू० पी० राजकीय निर्माण निगम लि० बनाम इण्ड्यूर प्राइवेट लि०, ए० आई० आर० (1996) ए० सी० 1373 के मामले में प्रस्थापना में वस्तुगत परिवर्तन करके प्रतिग्रहण किया गया। न्यायालय ने इसे पूर्ण संविदा नहीं माना।

     दो पक्षकारों ने पट्टे का एक प्ररूप प्रस्तुत करके एक करार किया जब अन्तिम प्ररूप तैयार किया गया तो उससे असहमत हुए। न्यायालय ने निर्णय दिया कि काई संविदा हुई ही नहीं। करार का आधार था कि अन्तिम प्ररूप ही स्वीकार किया जायेगा, जो न हो सका। सन्तोष कुमार रंका बनाम फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2011) पटना 114 के वाद  में ठेकेदार ने फूड कारपोरेशन से पूर्ण व शर्त रहित स्वीकृति किया लेकिन उसके अनुरूप पालन नहीं किया, अतः न्यायालय ने संविदा को पूर्ण मानकर ठेकेदार को क्षतिपूर्ति के लिए दायी ठहराया। कोई भी करार तभी निर्मित हो सकता है जब उसके दोनों पक्षकार एक ही बात व एक ही भाव पर निश्चय करते हैं। यह शाश्वत सत्य नहीं है कि प्रतिग्रहण में नई बात जोड़ने से प्रतिस्थापना ही होती है। बल्कि कभी-कभी आवर्ती परिस्थितियों के आधार पर उसे पूर्ण प्रतिग्रहण भी माना गया है। जिस प्रकार हस्सी बनाम हार्न पायनी, (1893) क्यू० बी० 256 के मामले में स्पष्ट है कि प्रतिवादी ने अपने मकान को 5,000 रुपये में बेचने की प्रस्थापना किया, जिसे वादी ने इस प्रकार स्वीकार किया कि “बताये हुए मूल्य पर मकान खरीदने के लिए तैयार हूँ, बशर्ते कि मेरा वकील मकान के स्वत्व विलेख पर (Title deed) का अनुमोदन कर दे।” प्रतिवादी ने इस प्रतिग्रहण को प्रतिग्रहण न मान कर संविदा भंग किया।

     न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह प्रतिग्रहण पूर्ण था। प्रत्येक क्रेता का यह सामान्य अधिकार है कि वह जिस वस्तु को क्रय कर रहा है, उसकी भली-भाँति जाँच कर ले। यदि सही है तो स्वीकृति उसने पहले ही दे दिया है।

प्रश्न 9. संविदा के मानक स्वरूप की व्याख्या कीजिए। उदाहरण एवं वादों को सहायता से विवेचन कीजिए।

Explain standard orm of contract and discuss with illustrations and cases.

उत्तर- संविदा का मानक स्वरूप (Standard form of Contract)- मानक संविदा को ” अनिवार्य संविदा” भी कहा गया है क्योंकि यह एक पक्षकार द्वारा दूसरे पर थोपी जाती है या इसे ‘निजी विधान’ भी कहा गया है क्योंकि इस सन्दर्भ में यह संविदा, एक प्रकार के नियमों की संहिता है जिनके आधार पर सेवाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

     ऐन्सन महोदय ने मानक संविदा को “कान्ट्रैक्ट्स ऑफ एडिसन” कहा है जिसका आशय है, संयुक्त होने की ऐसी संविदा जिसमें व्यक्ति के समक्ष कोई विकल्प नहीं, वह केवल स्वीकार कर सकता है, वह बहस नहीं कर सकता।

     आधुनिक समय में मानक रूपी संविदाओं का प्रचलन तीव्र गति से हो गया है क्योंकि कुछ ऐसे संगठन या उपक्रम हैं जैसे- भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय रेल आदि, इन्हें प्रतिदिन हजारों संविदायें करनी पड़ती हैं। इन संगठनों, उपक्रमों, निगमों के लिए यह सम्भव नहीं है कि वे प्रत्येक व्यक्ति के साथ विभिन्न विभिन्न प्रकार की संविदायें करें, इसलिए वे संविदा का एक मानक रूप छपवा लेते हैं जिसमें शर्त रहती है। जो भी व्यक्ति संव्यवहार करना चाहता है, उन्हें स्वीकार करे स्वीकार करने वाला व्यक्ति संविदा की शर्तों में परिवर्तन नहीं कर सकता और न तो उसकी युक्तता के विषय में बहस कर सकता है क्योंकि संविदा की शर्तें सभी व्यक्तियों के लिए समान होती हैं, तथा उसके समक्ष स्वीकार करने के अलाव कोई भी विकल्प नहीं रहता।

    उदाहरण के लिए-  ‘अ’ नामक एक महिला ने एक संविदा पर बिना पढ़े, हस्ताक्षर किया जिसके द्वारा एक सिगरेट बेचने क्रय किया। संविदा में दी गई शर्तों के द्वारा मशीन के सभी दोषों से छूट प्राप्त कर ली गई थी। मशीन व्यर्थ साबित हुई। यहाँ पर हस्ताक्षर करने वाला बाध्य है इसका कोई महत्व नहीं कि वह उसने पढ़ा नहीं।

    मानक रूप की संविदाओं का मुख्य लाभ यह है कि इसमें एकरूपता तथा निश्चितक होती है, सौदेबाजी न होने के कारण समय भी बर्बाद नहीं होता। लाभ की तुलना में हानिया की सम्भावना अधिक है जो संगठन उपक्रम व कम्पनियाँ इस प्रकार की संविदा छपवाती, व तैयार करती हैं, उन्हें इस संविदा को स्वीकार करने वाले व्यक्तियों की कमजोरी का लाभ उठाने का पर्याप्त अवसर मिलता है क्योंकि इसमें ऐसी शर्त भी आरोपित की जाती है जिससे स्वीकारकर्ता के अहित की सम्भावना बनी रहती है अतः न्यायालयों ने ऐसे पक्षकारों के हितों की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित नियम बनाये हैं

(1) शर्तों की युक्तियुक्त सूचना- मानक संविदा को तैयार करने वाले पक्षकार का. सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह संविदा में उल्लिखित शर्तों की युक्तियुक्त सूचना दूसरे पक्षकार को दे। ऐसा न किये जाने पर, दूसरा पक्षकार उन शर्तों से बाध्य नहीं होगा भले ही उसने संविदा का प्रतिग्रहण कर लिया हो। यही बात न्यायालय ने पारकर बनाम साउथ ईस्टर्न रेलवे कं० में भी कही है। जबकि हंडर्सन बनाम स्टीवेन्सन के बाद में कहा गया कि युक्तियुक्त सूचना का आशय ऐसी सूचना से है जो प्रतिग्रहीता का ध्यान आकर्षित करें। वाद के तथ्य इस प्राकर थे-वादी ने जलयान से यात्रा करने के लिए एक टिकट क्रय किया जिसके मुखपृष्ठ पर ‘डबलिन से ह्वाइटहेवन’ उल्लिखित था तथा टिकट के पीछे कुछ शर्तें भी छपी थीं जैसे-यात्रियों के सामान के नुकसान के लिए जलयान कम्पनी उत्तरदायी न होगी। लेकिन टिकट के मुखपृष्ठ पर ऐसा कोई संकेत नहीं था जिससे यह लगे कि पीछे कुछ लिखा है। इस कारण वादी ने टिकट के पीछे नहीं देखा। यात्रा के दौरान वादी का सामान जलयान कर्मियों की लापरवाही से नष्ट हो गया। बादी ने प्रतिकर के लिए वाद प्रस्तुत किया। न्यायालय ने जलयान कम्पनी को उत्तरदायी ठहराया क्योंकि छूट वाली शर्तों की युक्तियुक्त सूचना न होने के कारण वादी बाध्य नहीं ठहराया जा सकता।

(2) सूचना संविदा के समकालीन होनी चाहिए– संविदा के पक्षकार, संविदा के निर्माण के समय ही अपने उत्तरदायित्व से बचने के लिए छूट की सूचना दूसरे पक्षकार को दें।

     ओले बनाम मार्लबरो कोट लि०. (1949) 1 के० बी० 532 के बाद में वादी व उसके पति ने एक होटल में कमरा किराये पर लिया। ठहरने व भोजन के व्यय की अनुमानित धनराशि जमा कर दी। कमरे के सामने सूचना लगी थी कि ग्राहक का कोई समान खोने पर होटल का स्वामी दायी नहीं होगा। जब तक कि सामान प्रबन्धिका के पास न रख दिया गया हो, वादी का समान चोरी होने पर प्रतिवादी ने सूचना के आधार पर दायित्व से बचना चाहा। निर्णीत हुआ कि प्रदर्शित सूचना संविदा का भाग नहीं थी। अतः प्रतिवादी नुकसान के लिए दायी होगा।

(3) संविदात्मक दस्तावेज की उपस्थिति- ऐसा दस्तावेज जिसमें संविदा को शर्त हो, अर्थात् जिस व्यक्ति को यह दिया जाय वह महसूस कर सके कि इसमें संविदा की शर्त है, पक्षकार उन्हीं शर्तों से बाध्य होते हैं। यदि दस्तावेज ऐसा है जो केवल रसीद, टोकेन, वाउचर है-संविदा का निर्माण नहीं करते अतः उसमें उल्लिखित शर्त बन्धनकारी नहीं होती है जिसे चैपेल्टन बनाम बैरी अरबन डिस्ट्रिक्ट कौंसिल (1940) के ० बी० के वाद में स्पष्ट किया गया है।

(4) मिथ्या व्यपदेशन न हो- संविदात्मक दस्तावेज में कोई शर्त मिथ्या व्यपदेशन करके न दिया गया हो अन्यथा दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाला पक्षकार उस समय शर्तों से बाध्य नहीं होगा।

(5) संविदा के मूलभूत भंग का सिद्धान्त प्रत्येक संविदा में कुछ निबंन्धन सारभूत शर्ते उल्लिखित होती है, उनका पालन किया जाना पक्षकार का मुख्य दायित्व होता है। जब कोई पक्षकार इनका पालन नहीं करता है तो उसे संविदा भंग के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में छूट वाली शर्त का भी सहारा नहीं ले सकता।

      एलेक्जेण्डर बनाम रेलवे एक्जीक्यूटिव, (1951) 2 के० बी० रेलवे के क्लाक रूम में सामान जमा करते समय बादी को जो रसीद मिली उसमें एक शर्त यह थी कि सामान खोने या गलत आदमी को दिये जाने की दशा में रेलवे कम्पनी का दायित्व मात्र 5 पौण्ड होगा जब तक कि विशेष शुल्क न दिया हो। रेलवे कम्पनी ने उक्त सामान को किसी गलत व्यक्ति को देकर संविदा को मूलभूत रूप से भंग किया अतः छूट वाली शर्त के आधार पर दायित्व से मुक्ति नहीं हो सकती।

(6) छूट खण्डों का कठोर अर्थान्वयन-मानक संविदा में जब छूट खण्ड इतना विस्तृत हो जाता है कि अनुचित प्रतीत हो या छूट खण्ड के शब्दों में अस्पष्टता या अनिश्चितता है तो उसका कठोर अर्थान्वयन किया जाना चाहिए जो उसके विपरीत होगा जिसने इस छूट खण्ड का प्रयोग किया हो, इसे कान्टा प्रोफेरन्टम का नियम भी कहते हैं।

     ली एण्ड सन्स लि० बनाम रेलवे एक्जीक्यूटिव, (1949) 2 ऑल० ई० आर० 587 के बाद में बादी ने प्रतिवादी से एक गोदाम किराये पर लिया। इनके बीच हुई किरायेदारी की संविदा में एक शर्त यह थी कि प्रतिवादी किसी भी ऐसी हानि के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। प्रतिवादी की असावधानी के कारण गोदाम में रखा माल जल गया। वादी ने प्रतिकर का वाद प्रस्तुत किया, इस पर प्रतिवादी ने छूट खण्ड का सहारा लिया, न्यायालय ने कहा कि छूट खण्ड अस्पष्ट था अतः उसका अर्थान्वयन कठोरता से किया जाना चाहिए।

( 7 ) अनुचित शर्तें – शर्तें अनुचित नहीं होनी चाहिए जो संविदा के मूल उद्देश्य को समाप्त कर दे या लोकनीति के विरुद्ध हो। उदाहरण के लिए-लिली ह्वाइट बनाम मनुस्वामी, ए० आई० आर० 1966 मद्रास 13 के बाद में एक धुलाई गृह की रसीद पर शर्त इस प्रकार थी कि किसी ग्राहक का वस्त्र खो जाने पर उसे वस्त्र के मूल्य का 15 प्रतिशत प्रतिकर के रूप में मिलेगा। वादी की एक नयी साड़ी व चोली, जो धुलने के लिए दी गई थी. खो गई, वादी ने 15 प्रतिशत मूल्य लेने के इन्कार किया, उसके द्वारा वाद प्रस्तुत किये जाने पर न्यायालय ने निर्णय लिया कि ऐसी शर्त से बेईमानी को प्रोत्साहन मिलेगा तथा कम हो मूल्य देकर धुलाई गृह को उस वस्त्र का स्वामी बनने का अवसर मिलेगा।

प्रश्न 10. संविदा पक्षकारों का एक निजी सम्बन्ध है, तीसरा व्यक्ति इसके अन्तर्गत न अधिकार प्राप्त कर सकता है और न अपने ऊपर दायित्व ले सकता है? व्याख्या कीजिए।

A contract is a private relationship between the parties who make it, and no other person can acquire rights or incur liabilities under it? Explain.

अथवा

संविदा संसर्ग (Privity of Contract) सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? इस नियम के अपवाद बतायें।

What do you understand by privity of contract? Discuss the exceptions to this rule.

उत्तर- संविदात्मक सम्बन्ध का सिद्धान्त (Privity of Contract)- संविदात्मक संसर्ग का अर्थ है संविदा से निकटता या संविदा से सम्बन्ध /इस सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति संविदा का पक्षकार नहीं है, वह संविदा प्रवर्तन के लिए या संविदा भंग से उत्पन्न परिणामों के लिए बाद लाने का अधिकारी नहीं है। भले हो संविदा उसके लाभ के लिए की गई हो।

     चूँकि इस सिद्धान्त का उदय ही अंग्रेजी वाद ट्विडल बनाम एटकिंसन के बाद में हुआ था जिसमें यह अभिनिर्धारित हुआ था कि जब दो व्यक्ति संविदा करते हैं तो कोई तीसरा व्यक्ति उस संविदा का लाभ नहीं उठा सकता। भले ही संविदा उसके भले के लिए हुई हो। हाउस ऑफ लार्ड्स ने इस सिद्धान्त को डनलप न्यूमेटिक टायर कं० बनाम सेल्फ्रिज एण्ड कं०, (1915) ए०सी० 847 के बाद में मान्यता प्रदान कर दी –

      वादी डनलप कं० ने ड्यू एण्ड कॅ० को कुछ टायर इस शर्त पर बेचा कि ड्यू एण्ड कं० टायरों को निश्चित मूल्य से नीचे नहीं बेचेगी शर्त को भंग करने पर 5 पौण्ड प्रति टायर के हिसाब से जुर्माना देना पड़ेगा। ड्यू एण्ड कं० ने कुछ टायरों सेल्फ्रिज एण्ड कं० को उपर्युक्त शर्तो पर बेचा। परन्तु सेल्फ्रिज एण्ड कं० ने टायरों को निर्धारित मूल्य से कम पर बेच दिया। डनलप के० ने सेलिफ्रज एण्ड के० पर शर्त भंग के कारण वाद संस्थित किया।

    अभिनिर्धारित हुआ कि डनलप एण्ड कं० कुछ भी नहीं वसूल सकती थी क्योंकि संविदा डनलप कं० और सेल्फ्रिज के० के मध्य नहीं हुई थी।

लार्ड वाईकाउन्ट ने अंग्रेजी विधि के दो सारभूत सिद्धान्त बताए-

हो अर्थात्

1. किसी संविदा को वही व्यक्ति लागू करा सकता है जो उसका पक्षकार कोई भी व्यक्ति जो संविदा का पक्षकार नहीं है, संविदा को लागू नहीं करा सकता भले ही संविदा उनके भले के लिए की गई हो।

2. प्रतिफल केवल वचनग्रहीता द्वारा दिया जा सकता है किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं।

      “संविदा का सम्बन्ध” जिसका अर्थ है कि संविदा के पक्षकार ही वाद ला सकते हैं, की इंग्लैण्ड में बड़ी आलोचना होती रही है। लार्ड जस्टिस डेनिंग ने बेसविक बनाम बेसविक, (1966) के बाद में इस नियम की कड़ी आलोचना की है। इस वाद में –

      प्रतिवादी, ‘B’ के कोयले के कारबार में सहायता करता रहता था। प्रतिवादी और ‘B’ के बीच एक संविदा हुई जिसमें शर्त यह थी कि प्रतिवादी कारबार करेगा और ‘B’ केवल सलाह देगा। ‘B’ के मरने के बाद प्रतिवादी, ‘B’ की विधवा को प्रतिसप्ताह 2 पौण्ड देगा। ‘B’ की मृत्यु के बाद प्रतिवादी ने विधवा को 5 पौण्ड दिया लेकिन बाद में देना बन्द कर दिया।

      निर्णीत हुआ कि विधवा वाद ला सकती थी। लार्ड डेनिंग ने कहा कि संविदा संसर्ग का नियम । मुख्य रूप से प्रक्रिया का नियम है जो उपाय से सम्बन्धित है, अन्तर्निहित अधिकार से नहीं। परन्तु अपील में HL यद्यपि निर्णय को नहीं बदला परन्तु निर्णय का आधार भिन्न बताया। लार्ड रीड ने कहा कि “वादी को व्यक्तिगत रूप से बाद लाने का अधिकार नहीं है परन्तु अपने पति की सम्पत्ति का प्रशासक होने के नाते अपीलार्थी को संविदा पालन के लिए बाध्य करवा सकती है।”

     भारतीय विधि में संविदा का सम्बन्ध (Privity of contract in Indian law) भारतीय संविदा विधि में इस नियम के बारे में कोई उपबन्ध नहीं है परन्तु भारतीय न्यायालयों ने अपने विनिश्चयों (निर्णयों) में इस नियम को लागू किया है जैसे-जमुना दाम बनाम राम औतार, (1911) 30 आई० ए० 7 का वाद ‘अ’ ने पहले अपनी जमींदारी भूमि ‘ब’ के पास 40,000 रू० ऋण लेकर गिरवी रखी। फिर 44,000 रूपये इसलिए छोड़ दिया कि वह ‘ब’ का ऋण चुकाकर जमीन छुड़ा ले। ‘ब’ ने 40,000 रु० वसूलने के लिए ‘स’ पर वाद किया। निर्णीत हुआ कि ब वाद नहीं ला सकता था क्योंकि संविदा ‘अ’ और ‘स’ के बीच हुई थी।

अपवाद- संविदा के संसर्ग के नियम के निम्नलिखित अपवाद हैं- (1) न्यास या भार (Trust or charge)- जब किसी विशेष सम्पत्ति में किसी के लिए किसी न्यास या भार का सृजन किया गया हो तो वह व्यक्ति जिसके पक्ष में ऐसा न्यास या भार सृजित किया गया है संविदा का पक्षकार न होते हुए भी लागू करा सकता है।

     राना उमानाथ बक्स सिंह बनाम जंगबहादुर, 1938 पी० सी० के बाद में उमानाथ के पिता ने अपनी सारी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी उमानाथ को नियुक्त किया। बदले में उमानाथ ने बाप को वचन दिया कि जंगबहादुर जो उसके बाप का अधर्मज पुत्र था, को बालिग होने तक कुछ रुपया व एक गाँव देगा। निर्णीत हुआ कि जंगबहादुर वाद ला सकता था क्योंकि जंगबहादुर के पक्ष में न्यास उद्भूत हो गया था।

(2) विवाह, बँटवारा एवं अन्य पारिवारिक करार- जब कोई ऐसा करार हुआ है. जो विवाह, बँटवारा, भरण-पोषण, आदि किसी प्रकार के पारिवारिक करार से सम्बन्धित है और उस करार में किसी के भले के लिए कोई व्यवस्था है तो वह संविदा का पक्षकार न होते हुए भी करार को लागू करा सकता है।

(3) विबन्ध या अभिस्वीकृति – जब किसी संविदा का कोई पक्षकार किसी अन्य व्यक्ति के प्रति दायित्व स्वीकार कर लेता है तो वह अन्य व्यक्ति का पक्षकार न होते हुए भी संविदा को लागू करा सकता है। मेसर्स प्रकाशवती जैन एण्ड अदर्स बनाम पंजाब स्टेट इण्डस्ट्रियल डेवलपमेन्ट कारपोरेशन एण्ड अदर्स, ए० आई० आर० ( 2012 ) पं० एण्ड ह०, 13 के मामले में निर्णय दिया गया कि प्रतिफल से अपरिचित से कर्ज की वसूली का दावा किया जा सकता है जब प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा दूसरे व्यक्ति के लिए हानि उठायी गई हो।

(4) अभिकर्ता द्वारा की गई संविदा- यदि किसी अभिकर्ता ने अपने स्वामी की ओर से कोई संविदा की है तो उसका स्वामी संविदा का पक्षकार ने होते हुए भी संविदा प्रवर्तित कराने हेतु वाद ला सकता है।

प्रश्न 11. (अ) “प्रतिफल” से आप क्या समझते हैं? क्या भूतकालिक प्रतिफल एक वैध प्रतिफल है? उदाहरण सहित समझाइए।

या

प्रतिफल के आवश्यक तत्वों को समझाइए। “प्रतिफल के अभाव में करार शून्य होता है। समझाइए।

(ब) एक वैध संविदा के एक तत्व के रूप में प्रतिफल की चर्चा करें “एक करार प्रतिफल के अभाव में शून्य होता है” इस नियम का समझाइए तथा दूसरे अपवाद बताइए।

(a) What do you understand by ‘consideration’? Is past consideration a good consideration? Discuss with illustration.

or

Discuss the main elements of consideration. “An agreement without consideration is valid”. Explain.

(b) Discuss consideration as an element to valid contract.

“An agreement without consideration is void.” State the exception to the above rule.

उत्तर (अ) – सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति को अपने वचन का पालन करना चाहिए। परन्तु वचन पालन के लिए एक प्रलोभन या मूल्य हो तो वचन पालन की सुनिश्चितता बढ़ जाती है। इसीलिए वचन का पालन करने हेतु किसी प्रलोभन की आवश्यकता होती है साधारणत: इसे ही प्रतिफल कहते हैं

       विभिन्न विद्वानों ने प्रतिफल को अपने ढंग से परिभाषित किया है “प्रतिफल ऐसे मुआवजे को कहते हैं जो संविदा का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को देता है। ब्लैक स्टोन (Black Stone)

    “प्रतिफल ऐसे मूल्य को कहते हैं जिसके बदले में दूसरे पक्षकार का वचन प्राप्त किया जा सकता है और इस प्रकार से मूल्य के लिए दिया गया वचन प्रवर्तनीय होता है।-पोलक

    “प्रतिफल वह मूल्य है जिसका विधि की दृष्टि में कुछ मूल्य है….उससे वादी को कुछ लाभ हो सकता है अथवा प्रतिवादी का कुछ अहित हो सकता है”- न्यायमूर्ति पेटर्सन

     “विधि के अभिप्राय में मूल्यवान प्रतिफल उसे कहते हैं जिसमें कोई अधिकार, हित, लाभ या सुविधा एक पक्षकार को मिले या दूसरा पक्षकार कोई हानि, अहित या उत्तरदायित्व ले या लेने का वचन दे या किसी (लाभ हानि या दायित्व) से प्रविरत रहने का वचन दे” (न्यायमूर्ति लश क्यूरी बनाम मीसा (1875) एक्सचेकर में।)

      प्रकाशवती जैन बनाम पंजाब स्टेट इण्डस्ट्रियल डेवलपमेन्ट कारपोरेशन, ए० आई० आर० (2012) पी० एच० 13 के वाद में प्रतिभू द्वारा साम्पाश्विक प्रतिभूति देना जिससे किसी को ऋण मिल सके, पर्याप्त प्रतिफल माना गया।

     “जबकि वचनदाता की इच्छा पर वचनग्रहीता या कोई अन्य व्यक्ति कुछ कर चुका है या करने से प्रविरत रहा है या करता है या करने से प्रविरत रहता है या करने या करने से प्रविरत रहने का वचन देता है, तब ऐसा कार्य, प्रविरत या वचन उस वचन (प्रतिज्ञा) के लिए। प्रतिफल कहलाता है। [धारा 2 (घ) संविदा अधिनियम, 1872]

      उपरोक्त सभी परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि प्रतिफल वचनदाता द्वारा वचन को पूरा करने हेतु दिया जाने वाला प्रलोभन है। यह प्रलोभन, कुछ करने या करने से विरत रहने के रूप में या धन के रूप में हो सकता है। प्रतिफल वचन का मूल्य है जिसके अन्तर्गत संविदा पालन करने की सुनिश्चितता प्राप्त की जाती है। प्रतिफल एक पक्षकार के लिए हित, लाभ या सुविधा होता है तो दूसरे पक्षकार के लिए अहित, हानि या असुविधा या दायित्व होता है। प्रतिफल वचन प्राप्त करने हेतु दिया जाने वाला मूल्य है। संक्षेप में प्रतिफल वचन का ऐसा मूल्य है जिसे विधिक मान्यता प्राप्त हो ।

     भारत में प्रतिफल की परिकल्पना संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में दी परिभाषा पर आधारित है। इस धारा के अनुसार यदि वचनदाता की इच्छा पर कोई कार्य गा का चुका है या करता है या करने का वचन देता है या कोई कार्य नहीं किया है या नहीं करता कुछ न करने का वचन देता है तो यह कार्य न करना या करने का वचन उस वचन के लि प्रतिफल कहलाता है।

      इस प्रकार भारत में धारा 2 (घ) के अनुसार एक वचन या प्रतिज्ञा या संविदा के लिए • प्रतिफल (1) भूतकालिक (past), (2) वर्तमानकालिक (present), या (3) भविष्यकालिक (future) हो सकता है।

     धारा 2 (घ) में दी गई परिभाषा के अनुसार प्रतिफल किसने किया है इसका कोई महत्व नहीं होता दूसरे शब्दों में प्रतिफल संविदा के पक्षकार या उसके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ि भी दे सकता है।

      प्रतिफल के आवश्यक तत्व (Essential elements of consideration) एक वैध प्रतिफल के निम्नलिखित आवश्यक तत्व है –

(1) प्रतिफल वचनदाता की इच्छा पर गया हो– संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) के अनुसार प्रतिफल एक कार्य, कार्य करने से विरत रहना (कार्य न करना), अथव कार्य करने या कार्य न करने के वचन के रूप में हो सकता है। इस प्रकार इस धारा के अनुसार यदि वचनग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) ने वचनदाता (प्रस्तावक) के वचन के बदले कोई कार्य किया है या कोई कार्य करने से विरत रहा है, अथवा कोई कार्य करता है या कोई कार्य करने से विरत रहता है या कोई कार्य करने या किसी कार्य से विरत रहने का वचन देता है तो यह सब प्रतिफल होता है परन्तु इसके लिए यह पूर्ण शर्त है कि यह उपरोक्त सब कुछ वचनदाता (प्रस्तावक) की इच्छा पर किया गया हो। यदि किसी व्यक्ति ने स्वयं की इच्छानुसार या वचनदाता (प्रस्तावक) के इच्छा के प्रतिकूल या वचनग्रहीता से भिन्न किसी व्यक्ति की इच्छा पर प्रतिफल किया गया है (कार्य किया गया है) तो वह विधिक प्रतिफल नहीं होगा।

      इस प्रकार अब्दुल अजीज बनाम मासूम अली के बाद में एक व्यक्ति ने अपनी इच्छानुसार मस्जिद की मरम्मत के लिए 500/- चन्दा देने का वचन दिया, मस्जिद का निर्माण नहीं हुआ। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चन्दा देने का वचन प्रतिफल नहीं था।

    यदि वचनदाता की इच्छा पर वचनग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) कोई कार्य कर देता है या कोई दायित्व ले लेता है तो वह उक्त कार्य करना या दायित्व लेना ही वचन के लिए वैध प्रतिफल होगा। केदार नाथ बनाम गोरी मुहम्मद के बाद मे गोरी मुहम्मद ने हावड़ा में टाउनहाल निर्माण के लिए 100/- चन्दा देने का वचन दिया। इस चन्दों के आधार पर टाउनहाल के निर्माण के लिए ठेकेदार से संविदा की गई। निर्माण का कार्य सौंप दिया गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चन्दा देने के वचन के आधार पर ठेकेदार का टाउनहाल के निर्माण का कार्य सौंपना चन्दे के वचन के लिए वैध प्रतिफल था।

(2) प्रतिफल वचनग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) द्वारा अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जा सकता है – भारत में संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) के अनुसार प्रतिफल वचनग्रहीता (स्वीकृतिकर्ता) या वचनग्रहीता की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भी दिया जा सकता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि एक व्यक्ति जो संविदा का पक्षकार नहीं है, संविदा से अपरिचित (Stranger to Contract), वह व्यक्ति भी प्रतिफल दे सकता है। इसे दूसरी तरह से कह सकते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रतिफल नहीं दिया है, जो व्यक्ति प्रतिफल से अपरिचित (Stranger to Consideration) वह भी संविदा को लागू करवा सकता है। यदि यह संविदा का पक्षकार हो। परन्तु अंग्रेजी विधि में इस बिन्दु पर भारतीय विधि से भेद है। अंग्रेजी विधि में प्रतिफल से अपरिचित (जिसने प्रतिफल नहीं किया है) संविदा को लागू नहीं करवा सकता भले ही वह संविदा का पक्षकार हो।

      इस बिन्दु पर चिन्नव्या बनाम रमैय्या (1882) का बाद महत्वपूर्ण है। इस बाद में प्रतिवादी की माँ ने प्रतिवादी को दान में सम्पत्ति दी तथा दान के अन्तर्गत यह शर्त लगाई कि वह अपने मामा को 635 रु० वार्षिक दिया करे। इस दिन प्रतिवादी ने अपने मामा (वादी) से संविदा की कि वह अपनी माँ को निर्देशानुसार 635 रु० वार्षिक दिया करेगी। प्रतिवादी ने संविदा का पालन नहीं किया। प्रतिवादी का तर्क था कि प्रतिफल बादी ने नहीं किया था। प्रतिफल उसकी माँ द्वारा किया गया था जो संविदा की पक्षकार नहीं थी। अतः संविदा बाध्यकारी नहीं थी। मद्रास उच्च न्यायालय इस आधार पर वचन बन्धनकारी घोषित कर सकता था कि इस मामले में वचन के लिए प्रतिफल किसी दूसरे व्यक्ति (उसकी माँ) द्वारा किया गया था। परन्तु न्यायालय ने दूसरे आधार पर संविदा बन्धनकारी घोषित किया।

(3) प्रतिफल, भूतकालीन, वर्तमान तथा भावी हो सकता है भूतकालीन प्रतिफल– भूतकालीन प्रतिफल वह है जो संविदा होने से पूर्व ही दे दिया जाता है। भूतकालीन प्रतिफल तथा वर्तमान प्रतिफल में अन्तर यह है कि भूतकालीन प्रतिफल में कार्य वचन से पूर्व किया गया होता है अर्थात् वचनदाता के वचन से पूर्व प्रतिफल दे दिया जाता है जबकि वर्तमान प्रतिफल में कार्य वचन के उत्तर में किया जाता है। वर्तमान प्रतिफल में वचन (संविदा) की शर्तों को पूरा करने हेतु कार्य किया जाता है (प्रतिफल दिया जाता है)। भूतकालीन प्रतिफल में जिस समय प्रतिफल दिया जाता है, उस समय वचनदाता का वचन अस्तित्व में नहीं होता है जबकि वर्तमान प्रतिफल में प्रतिफल देते समय बचनदाता का वचन अस्तित्व में होता है तथा वचन की शर्तों को पूरा करने हेतु जो कार्य किया जाता है, वही (प्रतिफल) होता है। एन्सन के अनुसार वर्तमान प्रतिफल में वचन (संविदा) तथा कार्य (प्रतिफल) एक ही संव्यवहार के अंग होते हैं जब कि भूतकालीन प्रतिफल में वचन (संविदा) कार्य (प्रतिफल) के पश्चात् किया जाता है तथा वचन तथा कार्य एक दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं।

      भूतकालीन प्रतिफल भारत में एक विधिपूर्ण प्रतिफल होता है। जैसा कि संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) में दी गई प्रतिफल की परिभाषा से स्पष्ट है।

     जैसे एक व्यक्ति अ, का कुत्ता खो गया। ब अलग कुत्ता ढुंढ कर लाता है। उसके पश्चात् ब उसे 100/- रुपया देने का वचन देता है। यहाँ ब का कुत्ता ढूँढकर लाना एक प्रतिफल है जो 100/- रुपये देने के वचन के पूर्व ही किया जा चुका है यह भूतकालीन प्रतिफल है तथा वैध प्रतिफल है।

     भावी प्रतिफल में भविष्य में कोई कार्य करने या कुछ करने का वचन दिया जाता है। इसमें वचन के बदले वचन दिया जाता है। एक वचन दूसरे वचन का प्रतिफल होता है। जैसे क कहता है कि वह क का घर खरीदेगा तथा 50,000/- रुपये देगा यहाँ क्रय करने का कार्य 50,000/- रुपये देने का वचन दोनों भावी प्रकृति के हैं। यहाँ एक वचन से दूसरा वचन किया जाता है तथा वचनों की अदला-बदली होने पर संविदा का निर्माण होता है।

(4) प्रतिफल कार्य, कार्य करने से विरत रहने (कार्य न करने) या कार्य करने से वि (कार्य न करने) के वचन के रूप में भी हो सकता है।

     प्रतिफल का पर्याप्त होना आवश्यक नहीं– यदि संविदा के पक्षकार अपने इच्छानुसार प्रतिफल तय करते हैं तो प्रतिफल की पर्याप्तता की जाँच करना न्यायालय की जाँच का विषय नहीं है। एन्सन के अनुसार प्रतिफल का संविदा के समरूप होना अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि संविदा को इस आधार पर एक पक्षकार चुनौती देता है कि संविदा के अन्तर्गत उसकी सहमति स्वतन्त्र नहीं थी तो प्रतिफल की पर्याप्तता एक जाँच का विषय हो सकती है।

(ब) अपने विधिक दायित्वों को पूरा करना प्रतिफल नहीं हो सकता। प्रतिफल के अभाव में (संविदा) करार शून्य होते हैं इस नियम के अपवाद– संविदा अधिनियम की धारा 25 यह प्रविधान करती है कि संविदा के अभाव में (संविदा) करार शून्य होते हैं। अंग्रेजी विधि तथा भारतीय विधि में इस बिन्दु पर अन्तर है। अंग्रेजी विधि में प्रतिफल की आवश्यकता के अनुसार संविदा को दो भागों में विभक्त किया गया है। (1) मौखिक संविदा और (2) लिखित संविदा अंग्रेजी विधि के अनुसार मौखिक संविदा प्रतिफल के अभाव में शून्य होती है। परन्तु लिखित संविदा प्रतिफल के अभाव में भी वैध होती है। लिखित संविदा को विलेख द्वारा की गई संविदा (deed contract) या सील (seal) संविदा कहते हैं।

     अंग्रेजी विधि में लिखित संविदा के लिए प्रतिफल की कोई आवश्यकता नहीं होती।

      परन्तु भारतीय विधि में इस प्रकार का भेद नहीं किया गया है। यहाँ धारा 25 स्पष्ट रूप से यह घोषणा करती है कि वैध प्रतिफल के अभाव में सभी करार (संविदा) शून्य होते हैं। यदि कोई संविदा प्रतिफल से समर्थित नहीं होती तो उसका विधिक दृष्टि में कोई अस्तित्व नहीं होता। जैसे ख को किसी प्रतिफल के बिना 100/- रुपये देने का वचन क देता है यह करार प्रतिफल के अभाव में होने के कारण शून्य है।

     संविदा अधिनियम की धारा 25 उक्त नियम के तीन अपवाद प्रतिपादित करती है –

1. प्राकृतिक स्नेह एवं प्रेम के कारण किए गए लिखित एवं पंजीकृत करार (संविदा),

2. भूतपूर्व स्वैच्छिक सेवा (Post Voluntary Service),

3. कालबाधित ऋण देने का करार।

(1) प्राकृतिक स्नेह एवं प्रेम के कारण किए गए लिखित एवं पंजीकृत करार (संविदा)

(Written and Registered contract entered into due to natural love and affection)– धारा 25 के अन्तर्गत प्रतिपादित सिद्धान्त के प्रथम अपवाद के अनुसार निकट रिश्तेदार (near relation) के नैसर्गिक प्रेम एवं स्नेह (Natural love and affection) के कारण की गई संविदा प्रतिफल के अभाव में भी वैध तथा लागू कराने योग्य होती है। नैसर्गिक प्रेम तथा स्नेह को जन्म देने वाले सम्बनधों को परिभाषा की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। परन्तु विवाह, जन्म तथा गोद से उत्पन्न होने वाले सम्बन्ध निश्चय हो निकट सम्बन्ध हैं तथा उनके अन्तर्गत स्नेह तथा प्रेम नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम होगा।

     राजलखी देवी बनाम भूतनाथ मुखर्जी के बाद में पति ने पत्नी को पृथक रहने के लिए खर्च हेतु कुछ धनराशि प्रतिमाह देने का वचन दिया। बाद में यह धनराशि देने से इन्कार कर दिया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार जो पक्षकार एक साथ नहीं रह सके उनके मध्य नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम की उपधारणा नहीं की जा सकती तथा यह मामला धारा 25 के अपवाद के अन्तर्गत नहीं है।

नैसर्गिक स्नेह तथा प्रेम के कारण धारा 25 के अपवाद में आने के लिए संविदा की निम्न आवश्यकताएं हैं –

(अ) करार (संविदा) के पक्षकारों के मध्य निकट सम्बन्ध हो

(ब) करार (संविदा) प्राकृतिक स्नेह एवं प्रेम के कारण हो।

(स) करार (संविदा) लिखित तथा पंजीकृत हो।

(2) पूर्व में की गई स्वैच्छिक सेवा के प्रति कुछ देने का करार (An agreement to give somethimg for services already done in past)- यदि एक पक्षकार ने किसी व्यक्ति की पहले कोई सेवा या कार्य किया है तथा उससे प्रभावित होकर वह कुछ देने का करार (संविदा) करता है तो ऐसी संविदा (करार) प्रतिफल के अभाव में भी प्रवर्तनी होता है।

     ख, की थैली क पड़ी पाता है और उसे उसको (ख को) देता है ख, क को 5 रुपये देने का वचन देता है। यह वैध संविदा है।

     ख के शिशु पुत्र का पालन क करता है। ऐसा करते हुए जो क का खर्च होता है, उसे देने का वचन ख देता है। यह एक वैध संविदा है।

      इस अपवाद को लागू करने हेतु यह आवश्यक है कि पूर्ण सेवा स्वेच्छया की गई हो न कि वचनदाता की इच्छा पर। परन्तु यदि एक अवयस्क की प्रार्थना पर कोई सेवा की गई है तो यह इस अपवाद के अन्तर्गत लागू होगी क्योंकि एक अवयस्क की सहमति, सहमति नहीं मानी जाती।

     यह अपवाद उन मामलों पर भी लागू होगा जहाँ वचनग्रहीता ने वचनदाता के लिए ऐसी सेवा की है जिसे करना उसका विधिक कर्तव्य था।

(3) कालवर्जित या काल अवरोधित ऋण (Time barrred Debt)- कालवर्जित या कालअवरोधित ऋण के भुगतान का करार (संविदा) (1) लिखित तथा (2) हस्ताक्षर युक्त होना चाहिए (3) वचन ऋण के अंशत: या पूर्ण भुगतान का हो (4) यह ऋण परिसीमा अधिनियम के अन्तर्गत काल बाधित (Time barrred) होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि वचन उसी व्यक्ति ने दिया हो जो ऋण देने के दायित्वाधीन रहा हो। (5) ऋण प्रत्यक्ष होना चाहिए, अनुमानित नहीं होना चाहिए। आर० सुरेश चन्द्र एण्ड कं० बनाम वेदनेस केमिकल्स कं०, ए० आई० आर० (1991) में बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि बैलेंस शीट में यदि किसी भागीदार के हस्ताक्षर होंतथा उसमें फर्म का दायित्व उल्लिखित हो तो उसे पूरा करने का वचन इस अपवाद में होगा।

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