Labour Law II Long Answer

-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

(I) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 (Employees State Insurance Act, 1948)

प्रश्न 1. (क) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के परिक्षेत्र और उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए। Explain the scope and objectives of the Employee’s State Insurance Act, 1948.

(ख) कर्मचारी राज्य बीमा निगम एवं उसके कार्यों की विवेचना कीजिए। Discuss about the Employee’s State Corporation and its functions.

उत्तर (क) – अधिनियम का उद्देश्य – इसकी उद्देशिका इसके उद्देश्य की ओर पर्याप्त संकेत करती है। इससे यह स्पष्ट है कि अधिनियम में रुग्णावस्था और नियोजन सम्बन्धी क्षतियों तथा इसी प्रकार के अन्य मामलों में कर्मचारियों के लिए कतिपय सुविधायें उपबन्धित हैं। अतः कर्मचारियों के लिए यह एक हितकारी विधेयक है।

     “चूंकि कर्मकारों की अस्वस्थता, प्रसूति एवं नियोजन क्षति की स्थिति में हित लाभों का उपबन्ध करने के लिए यह अभीष्ट है। यह तद्द्वारा निम्न प्रकारेण अधिनियमित किया गया। है। “प्रो० बी० पी० अडारकर द्वारा “वेल्थ इन्श्योरेन्स फार इण्डस्ट्रियल वर्क्स” पर दी गयी रिपोर्ट में सभी कर्मकारों के अनिवार्य बीमा की प्रबल संस्तुति के परिणामस्वरूप ही यह अधिनियम पास किया गया था क्योंकि उनके मतानुसार, “प्रतिकर अधिनियम” बहुत उपयोगी नहीं रह गया था। इससे स्पष्ट है कि कर्मकारों के उन दिनों को ध्यान में रखकर उनके लाभार्थ यह अधिनियम पारित किया गया, जब वे अस्वस्थ रहने या काम पर न आने की विवशता में हों। जैसे प्रसूति काल में नियोजित महिलायें काम पर नहीं आ सकतीं, नियोजन क्षतिपूर्ति भी इसके उद्देश्य का एक प्रमुख अंग है। इससे दो प्रकार के लाभ मिलते हैं। एक तो धन संचय की आदत बनती है और दूसरे फण्ड की संचित आय देश के आर्थिक विकास के काम आती है। असमय में कर्मकार अपने को पूर्णतः निःसहाय नहीं पाता। इससे बीमाकृत होने का तात्कालिक लाभ भी मिल सकता है, हित-लाभों के किसी भी रूप में इस अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी भी उद्योग में, छोटे या बड़े कोई भी विनिर्माण करने में व्यस्त, काम करने वाले कर्मकारों को समान रूप में लाभान्वित करता है। इसका महत्व इसका राष्ट्रव्यापी होना है। कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं बचता, जहाँ किसी प्रतिष्ठान में काम करने वालों की संख्या विहित संख्या के बराबर है। इसके उद्देश्य से संविधान में उपबन्धित “राज्य के नीति-निदेशक तत्व की सार्थकता की पुष्टि होती है, दुर्दिन में इससे प्रदत्त लाभ कर्मकारों के लिए महान सम्बल का कार्य करते हैं। यह कर्मचारियों को भिन्न-भिन्न लाभ उपलब्ध कराता है।

    ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन, ए. आई० आर० 2000 एस० सी० 1190 के बाद में विनिश्चित किया गया है कि “Object of the Act is to provide certain benefits to employees”

      मार्च 1943 में प्रो० सी० पी० अडारकर को औद्योगिक कर्मकारों के स्वास्थ्य बीमा पर रिपोर्ट दोने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किया गया। उन्होंने 1944 में रिपोर्ट पेश की। मौरिस स्टाक और रघुनाथ राव जो कि अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सदस्य थे, ने उनमें और भी सुधार किये। श्रमिकों की स्थिति में सुधार लाने के लिए समुचित उपायों की संस्तुति देने के प्रयोजन से भारत सरकार द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (I.L.O.) के उन दो नामोल्लेखनीय आमन्त्रित विशेषज्ञों के सुझावों को ध्यान में रखकर ही स्कीम में सामान्य हित की बातें शामिल की गई। 6 नवम्बर, 1946 को रखा गया विधेयक सन् 1948 में अधिनियम के रूप में पारित हुआ।

     यह अधिनियम भारत सहित दक्षिणी-पूर्वी एशिया का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी प्रोग्राम माना जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक न्याय तथा श्रमिकों के कल्याण हेतु सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी उपबन्ध प्रस्तुत करना है। इस अधिनियम की कुछ धारायें कर्मचारी राज्य (संशोधन) अधिनियम, 1989 द्वारा संशोधित की गई है।

     अधिनियम का विस्तार – यह अधिनियम, 19 अप्रैल, 1948 से लागू माना गया वैसे विभिन्न क्षेत्रों के लिए भिन्न तिथियाँ भारत सरकार निर्दिष्ट कर सकती है। पहले यह जम्मू- कश्मीर को छोड़कर समस्त भारत में लागू था। 1970 से वहाँ भी लागू हो गया हैं।

     इस स्कीम का पूर्णत: कार्यान्वयन पूरे देश में एकदम नहीं किया गया बल्कि इसे प्रक्रमों पर ही क्रियान्वित करने का कार्य अमल में लाना शुरू किया गया। इसलिए 1951 में अस्थायी उपबन्ध संशोधन द्वारा अध्याय 5-क जोड़ा गया जिसमें नियोजकों द्वारा विशेष संदाय कराने की व्यवस्था की गयी। एक साथ अधिनियम न लागू करने के कारणों का उल्लेख सन्त कुमार बनाम ईगल रोलिंग मिल्स, (1989) के वाद में संविधान न्यायपीठ द्वारा दिये गये निर्णय में निम्न प्रकार है-“. ‘यह विषय ही ऐसा था कि विधानमण्डल के लिए यह विनिश्चय करना असम्भव था कि किन क्षेत्रों में किन-किन कारखानों की बाबत कर्मचारी राज्य बीमा निगम स्थापित किया जाय। इस प्रकार की स्कीम हालांकि बहुत लाभप्रद है फिर भी इसे एकदम पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता था। विधान मण्डल सामाजिक आर्थिक कल्याण की स्कीम बनाता है, उसकी बाबत विस्तृत उपबन्ध करता है और यह विनिश्चय करना सम्बन्धित सरकार पर छोड़ देता है कि कब, कैसे और किस रीति से स्कीम चलाई जाय।”

     इसका संक्षिप्त नाम कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम है। इसके अन्त में दिये गये विवरणों से यह स्पष्ट है कि स्कीम को कई चरणों में कार्यान्वित किया गया है। जो भी हो इसको लागू करने का पूर्ण अधिकार केन्द्रीय सरकार को ही है।

    सर्वप्रथम यह सभी कारखानों में लागू होगा, जिसमें सरकार से सम्बन्धित कारखाने भी सम्मिलित रहेंगे, किन्तु मौसमी कारखाने इससे अछूते रहेंगे। नागपुर इलेक्ट्रिक पावर लाइट एण्ड पावर कम्पनी लिमिटेड बनाम रीजनल डाइरेक्टर, ई० एस० आई० कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1348 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट निर्णय दिया कि यह अधिनियम केवल फैक्ट्री तक ही सीमित नहीं है। फैक्ट्री के कार्य से सम्बन्धित कर्मचारी भी धारा 2 (9) के अन्तर्गत इस श्रेणी में आयेंगे। चाहे वह फैक्ट्री या उसके परिसरों में काम करते हों। 28 जनवरी, 1968 को इस धारा के संशोधन से मजदूरी पर काम करने वाले सभी व्यक्ति इसमें आ गये।

     संशोधित धारा 1 की उपधारा (5) के अनुसार कोई फैक्ट्री जिसमें यह अधिनियम लागू होता है इस अधिनियम द्वारा शासित होता रहेगा, भले ही किसी समय कर्मकारों की निर्दिष्ट संख्या कम हो गई है या शक्ति की सहायता से उसमें विनिर्माण प्रक्रिया होना बन्द हो गई है।

     लोटार्डेज चैरीटेबल अर्सिलिन सोसाइटी बनाम भारत संघ, (2008) 1 एल. एल. जे० 354 झारखण्ड के बाद में नर्स और सिस्टर्स को अस्पताल में सेवा करने के नाते उन्हें कर्मचारियों में सम्मिलित करने पर अपीलकर्ता ने इस आधार पर आपत्ति की कि वे कर्मचारी नहीं है और कर्मचारियों की संख्या उन्हें छोड़कर 20 से कम है। अतः अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे। प्रत्युत्तरदाता का यह तर्क कि नर्स को वेतन देने सम्बन्धी कोई संदाय पेश नहीं किया गया, न्यायालय ने अस्वीकार करते हुए पिटीशनर को धारा 17 के अधीन मुक्त किये जाने हेतु सरकार को आवेदन करने की स्वतन्त्रता प्रदान किया।

      अनुसूचित वर्ग के अन्दर आवृत्त सभी श्रेणी के प्रतिष्ठानों में संविधान के प्रावधान 4.7.2009 से प्रभावी माने जायेंगे।

      समुचित सरकार कारपोरेशन के परामर्श से राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अपने ऐसा करने के आशय की 1 माह पूर्व सूचना देकर इस अधिनियम के उपबन्धों को किसी औद्योगिक, वाणिज्य, कृषि प्रतिष्ठान या प्रतिष्ठान-समूह में या अन्य प्रकार के उद्योगों में भी लागू कर सकती है]

     इन्टरनेशनल एण्ड फर्टिलाइजर्स इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन (1987) II एस० सी० सी० 234 के वाद में अधिनियम को विस्तारित करने वाले नोटिफिकेशन को वैध माना गया। इसे दुकान पर लागू करने से सम्बन्धित विवाद में निर्णीत हुआ कि दुकान पर माल विक्रय से सम्बन्धित क्रिया-कलाप किये जाने चाहिए। माल का स्टोर या डिलिवर करना आवश्यक नहीं है।

     कर्मचारी राज्य बीमा निगम बनाम आर० के० स्वामी, (1994) एस० सी० सी० 445 के विनिश्चय में कहा गया कि विज्ञापन करने वाली एजेन्सी तथा स्टीमशिप कम्पनी इसके द्वारा आवृत्त होते हैं क्योंकि सम्बन्धित समुचित सरकार ने धारा 1 (5) के तहत अधिसूचना जारी करके शाप को इस अधिनियम की परिधि में ला दिया है। “Shop is a place where services are sold on retail basis. ” इसमें बम्बई, मद्रास तथा केरल उच्च न्यायालय ने एडवर्टाजिंग एजेन्सी को शाप की परिधि से बाहर माना था। विशेष अनुमति द्वारा की गई अपील को उच्चतम न्यायालय ने अपास्त कर दिया। परिणामस्वरूप उक्त तीनों उच्च न्यायालयों के निर्णय निष्प्रभावी हो गये हैं।

     कर्मचारी राज्य बीमा निगम बनाम एम० एम० सूरी एण्ड एसोसियेट्स लिमिटेड, (1998) 8 एस० सी० सी० 9 में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि नियोजित व्यक्तियों की संख्या स्टैच्यूटरी मिनियम तक पहुँचने पर ही अधिनियम लागू होगा केवल इसी आधार पर नहीं कि अधिनियम बेनीफिशियल ऐक्ट है। इसमें दिल्ली प्रशासन ने एक नोटीफिकेशन द्वारा अधिनियम का विस्तार उन दुकानों तक कर दिया जिनमें मजदूरी एक नियत संख्या में नियोजित व्यक्ति थे। ऐसे लोगों को उसी श्रेणी का होना चाहिए जैसा कि धारा 2 (9) में परिभाषित है दूसरे ढंग का नहीं। यदि परिभाषित श्रेणी के समान व्यक्ति दुकानों में नियोजित हैं तो उन्हें ध्यान में रखना होगा।

    क्रिश्चियन मेडिकल कालेज बनाम ई० स्टेट इनस० कारपोरेशन, ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 916 के बाद में धारा 1 (2) 12 की अभी हाल में ही व्याख्या करते हुए अधिनिश्चय प्रदान किया है कि मैन्युफैक्चरिंग प्रासेस में मरम्मत भी सम्मिलित होती है। अस्पताल का इक्विपमेन्ट मैन्टीनेन्स डिपार्टमेन्ट जो कि मेडिकल कालेज का एक अंग है, जिसमें, अस्पताल में इक्विपमेन्ट की मरम्मत होती है एक फैक्ट्री है, और अधिनियम लागू होगा ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम ई० एस० ई० कारपोरेशन, में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि जब अधिसूचना द्वारा किसी प्रतिष्ठान को हेड आफिस अधिनियम के अन्तर्गत ला दिया जाता है तो ‘फंक्शनल इन्टिग्रिटी’ रखने वाली उसकी शाखाओं पर स्वतः लागू हो जायेगा। भले ही वह शाखा दूसरे राज्य में स्थित है।

उत्तर (ख ) – कर्मचारी राज्य बीमा निगम – कर्मचारी राज्य बीमा निगम अधिनियम के उपबन्धों के अधीन अधिनियमों के प्रयोजनों हेतु धन प्रदान करने की तथा अन्य व्यापक हितों और अपेक्षाओं को पूरा तथा सामाजिक तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए गठित एवं स्थापित किया गया है।

निगम का गठन – अधिनियम की धारा 3 के अनुसार निगम की स्थापना केन्द्र सरकार द्वारा शासकीय राजपत्र में अधिसूचना जारी कर निम्न प्रकार की जायेगी-

(1) एक अध्यक्ष जो केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त तथा

(2) एक उपाध्यक्ष केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त

(3) 5 से अनधिक ऐसे व्यक्ति जिन्हें केन्द्र सरकार नियुक्त करेगी।

(4) सम्बन्धित सरकारों द्वारा नामित एक-एक व्यक्ति जो कि अपने-अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करेंगे जहाँ कि यह अधिनियम लागू होता है।

(5) संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक व्यक्ति जो केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त होगा।

(6) नियोजकों का प्रतिनिधित्व करने वाले 10 व्यक्ति जिन्हें केन्द्र सरकार उनके ऐसे संगठनों के परामर्श से नियुक्त करेगी, जैसा कि वह प्रयोजन के लिए मान्यता प्रदान करे।

(7) कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 10 व्यक्ति जिन्हें केन्द्र सरकार उनके ऐसे संगठन के परामर्श से नियुक्त करेगी जिनको कि इस निमित्त वह मान्यता प्रदान करे।

(8) केन्द्रीय सरकार द्वारा नामित चिकित्सा व्यवसाय का प्रतिनिधित्व करने वाले 2 व्यक्ति जिन्हें सरकार उनके संगठनों के परामर्श से नियुक्त करेगी, इन्श्योरेन्स मेडिकल अफसर जो इस स्कीम के अन्तर्गत कार्य करते हैं वह राज्य सरकार के नियोजिती नहीं माने जायेंगे।

(9) संसद के तीन सदस्य जो दो लोकसभा एवं एक राज्यसभा से चुने जायेंगे।

(10) निगम का महानिदेशक, लेकिन पदेन सदस्य होगा।

कर्मचारी राज्य बीमा निगम के कर्तव्य – निगम के कर्तव्य निम्नलिखित है-

(1) निगम का प्रमुख कर्तव्य बीमा फण्ड को प्रशासित करना है। धारा 26 के अधीन प्राप्त सभी योगदान और निगम के लिए प्राप्त सभी धनराशि एक फण्ड में जमा होगी जिसे ‘कर्मचारी राज्य बीमा’ फण्ड कहा जायेगा।

(2) निगम फण्ड में आने वाली राशि रिजर्व बैंक या केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित बैंक में जमा करेगा।

(3) निगम का कर्तव्य है कि वह अपनी बुक में सभी खर्चे का हिसाब-किताब रखे।

(4) धारा 33 के अनुसार अपनी आय-व्यय का लेखा-जोखा रखेगा। आडिट का खर्च निगम फण्ड से प्रदान करेगा।

(5) इसके अलावा निगम अपने वार्षिक क्रिया-कलापों का प्रतिवेदन केन्द्रीय सरकार के पास प्रेषित करेगा।

(6) धारा 7 के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद निगम अपनी आस्तियों और दायित्वों का मूल्यांकन किसी मूल्यांकनकर्ता द्वारा करायेगा जिसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार के अनुमोदन पर की जायेगी। लेकिन इस प्रकार का मूल्यांकन केन्द्रीय सरकार के ऐसे समय सम्बन्धी निर्देश पर किया जा सकता है जैसा कि वह आवश्यक एवं उचित समझे।

     कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अधिकार- बीमाकृत व्यक्तियों के स्वास्थ्य सम्बन्धी उपायों को प्रोत्साहन देने की शक्ति निगम के पास है। धारा 19 के उपबन्धों के अनुसार इस अधिनियम में निर्दिष्ट लाभों की स्कीम के अन्तर्गत निगम बीमाकृत व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं कल्याण को प्रोत्साहन देने हेतु उपायों के साथ असमर्थ क्षतिग्रस्त व्यक्तियों के पुनर्वास एवं पुनर्नियुक्ति के लिए निम्नलिखित अतिरिक्त उपाय कर सकता है-

(1) वह अपनी बैठकें बुला सकता है।

(2) फण्ड के प्रशासन का अधिकार निगम को प्राप्त है।

(3) वह ग्राण्ट्स, दान और उपहार केन्द्र तथा राज्य सरकारों से एवं उसके अतिरिक्त स्थानीय निकायों या किसी व्यक्ति या किसी निगमित निकायों से भी स्वीकार कर सकता है।

(4) स्थायी समिति द्वारा फण्ड के आपरेशन तथा नियुक्ति के लिए अनुमोदन देने का अधिकार निगम को प्राप्त है।

(5) सम्पत्ति रखने का एक महत्वपूर्ण अधिकार निगम को प्राप्त है। केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्धारित शर्तों के अधीन निगम चल एवं अचल सम्पत्ति अर्जित एवं धारण करने तथा अपने में निहित किसी भी सम्पत्ति का विक्रय एवं हस्तान्तरण कर सकता है। उन सभी कार्यों एवं प्रयोजनों के लिए जो आवश्यक है और जिनके लिए निगम की स्थापना हुई है।

(6) निगम केन्द्र सरकार की अनुमति से कर्ज ले सकता है और उनके भुगतान के लिए उचित उपायों को अपना सकता है। [ धारा 29 (3) ]

(7) निगम अपने स्टाफ या उनके किसी वर्ग के लिए फण्ड की व्यवस्था करने में सक्षम है जैसा कि उचित समझे।

(8) स्थापना के पूर्व अर्जित सम्पत्ति निगम में निहित होगी।

(9) सभी किये गये अंशदान निगम में निहित होंगे।

(10) अंशदानों की अदायगी की दर निश्चित करने का अधिकार भी उसे है।

(11) नियोजकों द्वारा रिटर्न प्राप्त करने और उसके प्ररूप आदि के सम्बन्ध में निर्देश देने का अधिकार है।

(12) धारा 45 के अन्तर्गत निगम को निरीक्षकों की नियुक्ति करने का अधिकार है एवं उनके कार्यों तथा क्षेत्राधिकार को भी निगम निर्दिष्ट करें।

(13) इसके अलावा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर आदेश द्वारा किसी कारखाने के कर्मचारी के सम्बन्ध में अंशदान की राशि निश्चित करने का निगम को अधिकार है, जैसा कि धारा 45-अ में उपबन्धित किया गया है।

(14) जहाँ कोई नियोजक अंशदान की अदायगी में विफल रहता है या असावधानी बरतता है, जिसे देने के लिए वह अधिनियम के अनुसार उत्तरदायी है, इस बात से सन्तुष्ट होकर कि अंशदान मुख्य नियोजक द्वारा किया जाना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को विहित दर पर लाभ प्रदान करेगा जिसे उसे पाने का अधिकार था और इसके लिए निगम वह रकम नियोजक से वसूल सकता है या उस अन्तर को जिससे कोई कर्मचारी अधिक पाता।

(15) धारा 70 के अनुसार जहाँ किसी व्यक्ति ने गलत ढंग से लाभ प्राप्त कर लिया है वहाँ पर वह प्राप्त लाभ को निगम को लौटा देगा।

(16) धारा 70 के अनुसार निगम को अभ्यावेदन करने का अधिकार है। इस अधिनियम के सभी या कुछ प्रावधानों से किसी व्यक्ति, स्थापना या उद्योग वा उनके समूह को केन्द्रीय सरकार तब तक मुक्ति प्रदान नहीं करेगी, जब तक निगम को प्रतिनिधित्व करने का उचित अवसर प्रदान नहीं किया गया है।

(17) धारा 97 के अनुसार इस अधिनियम और निगम के कार्य-कलापों के प्रशासन के सम्बन्ध में पूर्व प्रकाशन के अधीन ऐसे नियम बनाने के अधिकार का प्रयोग कर सकता है जो इस अधिनियम या उसके अधीन नियमों के प्रतिकूल नहीं होंगे।

    निगम द्वारा बनाये गये विनिमय भारत के राजपत्र में प्रकाशित किये जायेंगे और प्रकाशित होने पर वे उसी प्रकार प्रभावशाली होंगे, मानो वे इस अधिनियम के अन्तर्गत ही बनाये गये। हों ।

प्रश्न 2. (क) कर्मचारी राज्य बीमा योजना, 1948 के प्रमुख प्रावधानों के अन्तर्गत एक बीमित कर्मचारी अथवा उसके आश्रितों को कौन- कौन से लाभ प्राप्त होते हैं? Under the provisions of Employee’s State Insurance Scheme, 1948. what benefits have been provided to an employee or his dependent?

(ख) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम के अन्तर्गत नियोजक और कर्मचारियों द्वारा ‘अभिदाय की अदायगी सम्बन्धी प्रावधानों की विवेचना कीजिए। Discuss briefly the Provisions relating to the Payment of ‘Contributions’ by Employers and Employees under the Employee’s State Insurance Act.

उत्तर (क) — कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों एवं कर्मचारियों को आर्थिक लाभ व स्वतन्त्रता की स्थिति में लाना है और कर्मचारियों को शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक भय से मुक्ति प्रदान करना है। इस सम्बन्ध में कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम की धारा 46 से 73 तक में कर्मचारी व आश्रित को विभिन्न प्रकार से लाभों का प्रावधान किया गया है।

     इस सम्बन्ध में विभिन्न लाभ जैसे बीमारी लाभ, प्रसूति लाभ, अयोग्यता लाभ, आश्रित – लाभ, चिकित्सा एवं दाह संस्कार व परिवार चिकित्सा लाभ मुख्य हैं। इन लाभों का पृथक्- पृथक् विवेचन इस प्रकार किया गया है-

(1) बीमारी लाभ (Sickness benefit)— बीमित कर्मचारी के बीमार पड़ने पर नियुक्त चिकित्सक या अन्य अनुभवी व्यक्ति के प्रमाणित करने पर वह बीमारी लाभ प्राप्त कर सकेगा। बीमारी लाभ का भुगतान निश्चित अवधि अथवा समयान्तर पर किया जाता है। बीमित कर्मचारी को बीमारी लाभ उस दशा में प्राप्त होगा यदि अंशदान की अवधि में साप्ताहिक अंशदान कम से कम 13 सप्ताह के लिए देव हो। प्रथम लाभावधि के अन्तर्गत अंशदान अवधि में कुल अंशदानों के आधे अंशदान देय हो जाने पर ही बीमारी लाभ प्राप्त करने का हकदार होगा। (धारा 47 )

      बीमित व्यक्ति को बीमारी की समयावधि में उसे अनुसूची प्रथम में निर्दिष्ट दरों पर बीमारी लाभ प्राप्त होगा। बीमारी के प्रथम दो दिनों का उसे लाभ नहीं मिलेगा। बीमारी 15 दिनों के समयान्तर में पुनः शुरू होने पर प्रथम दो दिन का लाभ व कुल मिलाकर 56 दिन तक का ही लाभ प्राप्त होगा। (धारा 49 )

(2) प्रसूति लाभ (Maternity Benefit) — एक बीमित महिला को प्रसूति के पूर्व 12 सप्ताह का प्रसूति लाभ प्राप्त करने का अधिकार है। अधिनियम की प्रथम अनुसूची में दी गई दरों के अनुसार 12 सप्ताह के लिए सम्भावित प्रसूतावस्था से 6 सप्ताह पूर्व तथा 6 सप्ताह प्रसूतावस्था के बाद लाभ प्राप्त होगा। प्रसवकाल में मृत्यु हो जाने पर और शिशु के जीवित रहने पर 12 सप्ताह के लिए लाभ प्राप्त होगा। शिशु भी अगर मर जाता है तो यह लाभ बीमित महिला द्वारा नामांकित व्यक्ति को प्राप्त होगा। समय से पूर्व अथवा अकाल प्रसव की दशा में घटना के बाद 6 सप्ताह के लिए प्राप्त होगा। गर्भावस्था, गर्भपात, समय से पूर्व जन्म के कारण उत्पन्न बीमारी के लिए प्रसव काल के अवधि लाभ के अलावा एक माह तक का अतिरिक्त लाभ दिया जायेगा। (धारा 50 )

(3) अयोग्यता या अशक्तता लाभ (Disablement benefit)— दुर्घटना घटित होने के बाद तीस दिन तक कर्मचारी काम करने की स्थिति में न होने पर अयोग्यता अवधि में सामाजिक भुगतान के रूप में लाभ प्रदान किया जायेगा। असमर्थता चाहे पूर्ण या आंशिक या स्थायी अथवा अस्थायी ही क्यों न हो प्रथम अनुसूची में निर्दिष्ट दरों के अनुसार लाभ प्राप्त होगा। (धारा 51 )

      धारा 51-A नियोजन के दौरान दुर्घटना विपरीत साक्ष्य के अभाव में नियोजन से उत्पन्न मानी जायेगी। धारा 51-B नियोक्ता द्वारा नियमों का यथासम्भव पालन करते हुये दुर्घटना, धारा 51-C नियोक्ता के परिवहन में यात्रा के समय दुर्घटना, धारा 51-D आकस्मिक संकट से दुर्घटना, संकट में पड़े हुए व्यक्तियों की रक्षा, सम्पत्ति की रक्षा के कार्य में हुई दुर्घटना आदि मामलों में हुई अथवा अयोग्यता की क्षतिपूर्ति के रूप में लाभ पाने का अधिकार कर्मचारी को होगा।

(4) आश्रित लाभ (Dependent’s Benefit)—धारा 52 के अनुसार कर्मचारी की नियोजन में दुर्घटना हो जाने पर उसके आश्रितों को आश्रित लाभ प्रथम अनुसूची में दी गई निर्धारित दरों के अनुसार प्राप्त होगा।

      धारा 53 के अनुसार बीमित व्यक्ति कर्मचारी के रूप में कार्य करते समय लगी चोट के कारण मर जाता है तो इसका लाभ उसके आश्रितों को दिया जायेगा अथवा उसके कोई आश्रित नहीं है तो प्रथम अनुसूची के उपबन्धों के अनुसार मृत व्यक्ति के अन्य आश्रित को आश्रित लाभ दिया जायेगा।

    धारा 52-A के अनुसार बीमित कर्मचारी को कोई व्यावसायिक रोग हो जाता है तो उसे लाभ प्राप्त होगा, अन्य रोग होने की दशा में लाभ प्राप्त नहीं होगा।

    धारा 53 के अनुसार बीमित व्यक्ति या आश्रित को कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1926 के अन्तर्गत किसी चोट का लाभ जो इस अधिनियमानुसार लगी है प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा।

      धारा 54-A के अनुसार अयोग्यता स्थायी या अस्थायी है, पूर्ण या आंशिक है, अयोग्यता है अथवा नहीं, का निर्धारण चिकित्सा मण्डल करेगा तथा चिकित्सा मण्डल के निर्णय से नियोक्ता अथवा कर्मचारी के सन्तुष्ट न होने पर पहले चिकित्सा अपील न्यायाधिकरण तथा बाद में कर्मचारी बीमा न्यायालय में अपील कर सकता है।

     धारा 55 के अनुसार चिकित्सा मण्डल तथा चिकित्सा अपील न्यायाधिकरण अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है।

     धारा 55-A के अनुसार निगम सन्तुष्ट हो जाने पर किसी भी समय पुनर्विचार कर सकता है। दावेदार की मृत्यु, जन्म, विवाह, पुनर्विवाह, अशक्तता, समाप्ति आदि निर्णय को प्रभावित करते हैं तो निगम आश्रित लाभ की मात्रा को यथावत, कम या अधिक कर सकता है।

(5) चिकित्सा लाभ (Medical Benefit) – धारा 56 के अनुसार, “बीमित व्यक्ति या उसके आश्रित को, बाहरी रोगी के नाते (out patient) अस्पताल, डिस्पेन्सरी आदि में उपचार करके, घर पर इलाज करके आन्तरिक रोगी (in patient) के रूप में यह सुविधा या लाभ प्रदान किया जायेगा।” बीमित को चिकित्सा लाभ अंशदायी सप्ताह में ही पाने का अधिकार है। बीमित कर्मचारी या आश्रित को राज्य सरकार या निगम द्वारा दी गई सुविधाएँ अथवा खर्च निर्धारित नियमानुसार प्राप्त करने का अधिकार होगा। (धारा 57 )

    राज्य सरकार द्वारा डाक्टरी इलाज की व्यवस्था — निगम व राज्य सरकार की स्वीकृति पर शल्य व प्रसव सम्बन्धी चिकित्सा कर्मचारी व उसके परिवार के लिए निजी डाक्टरों द्वारा क्लीनिकों पर उपलब्ध की जायेगी। औसत से अधिक चिकित्सा भार आने की दिशा में राज्य सरकार व निगम आनुपातिक रूप से तय करेगी।

    राज्य सरकार इस अधिनियम के अन्तर्गत निगम के अलावा केन्द्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी या अनुमोदन से ऐसे संस्थान जो नियोजन क्षति की दशा में कर्मचारी को प्रसूति प्रसुविधा और कतिपय परिचालक पहुँचाने हेतु चाहे किसी भी लाभ से हो, स्थापित कर सकते हैं। [ कर्मचारी राज्य बीमा (संशोधन) अधिनियम 2010 द्वारा अन्तःस्थापित ]

     चिकित्सा की स्थापना व उसे चालू रखना– धारा 59 के अनुसार बीमित व उसके आश्रितों के लिए चिकित्सालय, औषधालय, शल्य चिकित्सा व अन्य सुविधाओं के लिए संस्थाओं अथवा स्थानीय अधिकारी या निजी संस्थाओं की स्थापना निगम कर सकता है।

       लाभ अभिहस्तांकन या कुर्की योग्य नहीं होगा। (धारा 60)

      धारा 61 के अनुसार, इस अधिनियम द्वारा प्राप्त लाभ अन्य अधिनियमों के अन्तर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता।

    धारा 62 के अनुसार, नकद लाभों को कोई व्यक्ति एकमुश्त राशि में परिवर्तित नहीं कर सकता है।

      धारा 63 के अनुसार, काम के या मजदूरी प्राप्त करने वाले दिन मातृत्व या बीमारी लाभ प्राप्त नहीं होगा।

     धारा 64 के अनुसार, बीमारी या असमर्थता लाभ के लिए कुछ शर्तों का पालन करना पड़ता है जैसे- अस्पताल या अन्य संस्था में जाना, इलाज चालू रखना, चिकित्साधिकारी के समक्ष जाँच के लिए उपस्थित होना आदि।

    धारा 65 के अनुस्वार, बीमित की बीमारी व प्रसूति असमर्थता चाहे वह स्थायी हो या अस्थायी एक साथ सभी लाभ प्राप्त नहीं होंगे।

     धारा 68 के अनुसार, यदि कोई नियोक्ता कर्मचारी को देय अंशदान का भुगतान नहीं करता है तो निगम सन्तुष्ट हो जाने पर निगम द्वारा दी गई लाभ राशि व नियोक्ता द्वारा प्रदत्त अंशदानों के अनुसार प्राप्त राशि का अन्तर नियोक्ता द्वारा व दी गई रकम के दुगनी राशि दोनों मैं से जो भी ज्यादा हो भू-राजस्व की तरह वसूल की जा सकती है।

     धारा 69 के अनुसार, कारखाना, परिभोगी द्वारा स्वास्थ्य नियमों के उल्लंघन पर बीमित व्यक्तियों को अतिरिक्त या अत्यधिक बीमारी की दशा में अतिरिक्त खर्च व जाँच के सम्बन्ध में निर्धारण का अधिकार निगम को होगा।

     धारा 70 के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा अनुचित रूप से भुगतान लेने पर उसे वापस करना  पड़ेगा।

     धारा 71 के अनुसार, मृत्यु के दिन तक तथा मृत्यु का दिन शामिल करते हुए लाभ का भुगतान किया जायेगा।

   धारा 72 के अनुसार, नियोक्ता अंशदान के दायित्व के कारण मजदूरी में कमी नहीं कर सकेगा।

   धारा 73 के अनुसार, किसी कर्मचारी को बीमारी, प्रसूता, अयोग्यता अवस्था में पदच्युत (dismiss) नहीं किया जायेगा और न ही लाभों में कमी आदि करके दण्डित किया जायेगा।

(6) दाह संस्कार लाभ (Funeral Benefit ) बीमित व्यक्ति की मृत्यु पर उसके दाह संस्कार व्ययों के लिए, मृतक परिवार के बड़े सदस्य को या मृतक परिवार के साथ नहीं रहने की दशा में उसके परिवार में कोई व्यक्ति न हों तो अन्त्येष्टि क्रिया हेतु खर्च करने वाले व्यक्ति को यह लाभ 100 रुपये तक दिया जायेगा। किन्तु यह माँग बीमित व्यक्ति की मृत्यु की तारीख से तीन माह के अन्दर की जानी चाहिए।

उत्तर (ख) – अभिदाय (Contributions ) — धारा 39 के अनुसार इस अधिनियम के अधीन किसी कर्मचारी के लिए देय अंशदान में नियोजक द्वारा संदेय अंशदान (इसे बाद में नियोजक का अंशदान कहा जायेगा) और कर्मचारी द्वारा देय अभिदाय (जिसे इसके बाद कर्मचारी का अभिदाय या अंशदान कहा जायेगा) दोनों सम्मिलित होगा तथा निगम के पास जमा होगा। मेसर्स यूनियन कारविडे (इण्डिया) लिमिटेड बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन और अन्य, (1978) 2 एल० एल० सी० 194 के बाद में स्पष्ट किया गया कि अंशदान केवल फैक्ट्री के कर्मचारी ही नहीं करेंगे। यह ऐसे कर्मचारियों पर भी लागू होगा जो कच्चे माल की खरीद, तैयार माल के विक्रय या प्रशासनिक कार्य से सम्बन्धित जोनल या ब्रांच आफिस में काम करते हैं। इस प्रकार फैक्ट्री तक ही अधिनियम सीमित न होकर विस्तृत क्षेत्र रखता है और अन्य सम्बन्धित अधिकारियों को भी लाभान्वित करता है। इस वाद में दिये गये उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार ऐसे व्यक्तियों का बीमा किया जाना चाहिए जो कारखाने से सम्बन्धित कार्यों को चाहे कम्पनी में करते हों या उसकी सीमा के बाहर, इन सबके लिए अभिदाय आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय के ही वाद श्री नरकेशरी प्रकाशन लिमिटेड और अन्य बनाम कर्मचारी राज्य बीमा निगम और अन्य, (1985) उ० नि०, पo 478 में कहा गया कि नियोजक सम्पादकीय और प्रशासनिक अनुभागों में कार्यरत कर्मचारी अभिसूचना के पूर्व भी कर्मचारी माने जायेंगे, जिन्हें 19 नवम्बर, 1976 से कर्मचारी की परिभाषा के अन्तर्गत रखा गया है। नियोजक को ऐसे कर्मचारियों के लिए अभिदाय करना होगा। और अधिसूचना की पूर्व अवधि के लिए भी

     ध्यान रहे कि ‘प्रमुख नियोजक’ में दखलकारों के सम्मिलित किये जाने से नियोजक के हिस्से के अंशदान के लिए दखलकार को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता। जब कोई कम्पनी प्रतिष्ठान को मालिक होती है, तो कम्पनी हो अकेले अंशदान के लिए जिम्मेदार होगी दखलकार, प्रबन्ध निदेशक या निदेशक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होंगे। मालिक तथा दखलकार दोनों अलग-अलग हैं।

     से० रेलवे लि० बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन और अन्य, ए० आई० आर० (1977) कलकत्ता 165 के बाद में पूर्णपीठ ने निर्णय दिया कि अधिनियम के लागू हो जाने पर नियोजक का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अंशदान जमा करे। उसका यह तर्क अमान्य होगा कि हेड आफिस से दूरी पर फैक्ट्री है। इसमें हेड ऑफिस कलकत्ता तथा फैक्ट्री आसनसोल में श्री नियोजक से अंशदान की माँग उचित बताई गई। अभिदाय की कटौती नहीं होती, जैसा कि नाधूमल पोद्दार बनाम ललित कुमार चक्रवर्ती, ए० आई० आर० 1970 कलकत्ता 73 के निर्णय में स्पष्ट कहा गया है।

     नियोजक द्वारा अभिदाय – अधिनियम की धारा 40 के अनुसार नियोजक अपने सभी कर्मचारियों के अंशदान पहले स्वयं जमा करेगा। चाहे भले ही वह किसी तात्कालिक नियोजक द्वारा नियोजित है। बाद में वह कर्मकारों की मजदूरी से उसके अंशदान प्राप्त करेगा।

      अंशदान की विशेषता धारा 94 में दी गई है। इसके अनुसार निगम को अदा किये जाने वाले अंशदान आदि को अन्य ऋणों पर प्राथमिकता दी जायेगी जैसे किसी व्यक्ति के दिवालिया हो जाने पर या कम्पनी के समापन पर आस्तियों या धनों के वितरण में निगम को देय अंशदान आदि प्राथमिक ऋण समझे जायेंगे। अंशदान का भुगतान प्रथम अनुसूची में दी गयी दरों पर किया जायेगा। ऐसे कर्मचारी किसी कारखाने आदि में हैं और इस ढंग से कि वे अधिनियम के कुछ प्रलाभों से वंचित कर दिये गये हैं, तो उनका अंशदान ऐसी दर पर होगा, जैसा कि निगम निर्धारित करे।

     एक सप्ताह एक इकाई, जिसके सम्बन्ध में सभी अंशदान होते हैं। प्रत्येक सप्ताह के अन्तिम दिन देय होते हैं। इस प्रकार की कटौती अनुच्छेद 31 के अन्तर्गत सम्पत्ति की कटौती नहीं मानी जायेगी, बिना वेतन के अधिकृत छुट्टी के दिनों की मजदूरी से कटौती अवैध होगी।

     किसी दूसरे नियम के अन्यथा रहने पर, किन्तु इस अधिनियम और नियमों के अधीन, मुख्य नियोजक प्रत्यक्षतः अपने द्वारा नियोजित (जो छूट प्राप्त कर्मचारी नहीं है) कर्मचारी की मजदूरी से कटौती करके कर्मकार के अंशदान को वसूल सकता है। किसी अन्य प्रकार से नहीं, वसूल सकता। लेकिन यह कटौती देय अवधि के लिए की जा सकती है, अन्य भूतियों से नहीं।

     निकटतम नियोजक से अंशदान की वसूली– किसी अनुबन्ध के प्रतिकूल रहते हुए भी मुख्य नियोजक और निकटतम नियोजक नियोजिती को देय किसी भी भूति से कटौती या अन्य प्रकार से कोई वसूली नहीं कर सकता। इस अधिनियम के अन्तर्गत कोई भी कटौती की रकम ऐसी मानी जायेगी, मानो वह नियोजित द्वारा नियोजक को सौंपी गई हो। प्रमुख नियोजक ही अंशदानों को निगम के पास भेजने का खर्च वहन करेगा।

      यदि प्रमुख नियोजक ने नियोजिती का जो किसी अन्य नियोजक के अधीन कार्य करता है अंशदान जमा कर दिया है, तो वह निकटतम नियोजक से अंशदान वसूल करने का धारा 41 में अधिकारी होगा। वह ऐसा अपने द्वारा देय रकम या निकटतम नियोजक द्वारा ऋण के रूप में दिय रकम से कटौती करके कर सकता है। इस प्रकार का निकटतम नियोजक भी कर्मकार की मजदूरी से कटौती करके अपने द्वारा दी गई रकम प्राप्त कर सकता है। 1989 में संशोधन करके सम्मिलित की गयी धारा 41 की उपधारा (1) के बाद यह भी शामिल किया गया जो इस प्रकार है-

    “वर्तमान सेवायोजक नियमानुसार उसके द्वारा या उसके माध्यम से नियोजित कर्मचारी का रजिस्टर बनायेगा तथा उपधारा (1) के अन्तर्गत देय किसी राशि के निस्तारण से पूर्व प्रधान सेवायोजक के पास प्रस्तुत करेगा।”

    धारा 44 के अनुसार निगम या उसके द्वारा निर्दिष्ट पदाधिकारी को मुख्य नियोजक या निकटतम नियोजक अपने द्वारा नियुक्त कर्मकारों के या उस प्रतिष्ठान के सम्बन्ध में, जिसका वह प्रधान नियोजक है, ऐसे रिटर्न भेजेगा, जो विनियमों में उल्लेख किया जाय। वहीं धारा 143 में अंशदान की अदायगी सम्बन्धी उपबन्ध के अनुसार इस अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत निगम अंशदानों के भुगतान, एकत्रीकरण तथा उससे सम्पृक्त अन्य मामलों के लिए निम्न नियम बना सकता है जो-

(अ) अंशदानों की अदायगी का समय तथा ढंग ।

(ब) तिथि, जिस दिन तक अंशदान की अदायगी के सम्बन्ध में साक्ष्य निगम द्वारा ग्राह्य होगा।

(स) काईस और बुक्स के जारी किये जाने, बिक्री, अभिरक्षा, उत्पादन, निरीक्षण आदि के सम्बन्ध में खो जाने या खराब हो जाने पर फिर से जारी किये जाने सम्बन्धी नियम।

      क० रा० वी० निगम बनाम सेण्ट्रल प्रेस और अन्य, (1987) 2 उम० नि० प० 240 के बाद में धारा 44 के साथ पठित धारा 45 क के अधीन देय रकम की वसूली के लिए उठाया गया था। निर्णय हुआ कि ऐसा मामला धारा 75 के अधीन कर्मचारी बीमा न्यायालय के समक्ष वह पेश कर सकता है। वहाँ नियोजक ने अभिलेख बनाये रखने में लोप किया था निगम ने स्वयं अभिदाय की रकम का अवधारण किया और धारा 45- क के अन्तर्गत माँग पेश किया और नियोजक ने इन्कार कर दिया।

     धारा 45- क कुछ विवादास्पद मामलों के अभिनिश्चय का उपाय सुझाती है। जब किसी प्रतिष्ठान के सम्बन्ध में कोई रिटर्न, विवरण या रिकार्ड जमा किये गये या धारा 44 के अनुसार रखे गये हैं और धारा 45 (2) में नियोजक निरीक्षकों या निगम के पदाधिकारियों के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न करता है, तो प्राप्त सूचनाओं के आधार पर उसे कारखाने या प्रतिष्ठान के कर्मकारों के सम्बन्ध में दिये जाने वाले अंशदानों की राशि का आदेश द्वारा निर्णय करेगा।

     धारा 45-ख के अनुसार इस अधिनियम द्वारा विहित कोई भी देय अंशदान भू-राजस्व की भाँति वसूला जा सकेगा। वैसे अंशदान की देनगी का भार नियोजक के ऊपर होगा। नियोजक तथा नियोजिती दोनों के अभिदाय को अदा करना नियोजक का दायित्व है।

प्रश्न 3. कर्मचारी बीमा न्यायालय के गठन, कार्य एवं शक्तियों की विवेचना कीजिए। Discuss the Constitution, Functions and Powers of Employee’s Insurance Court.

उत्तर – कर्मचारी बीमा न्यायालय का गठन – कर्मचारी बीमा न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा ऐसे क्षेत्र के लिए कर सकती है, जैसा कि उससे निर्दिष्ट किया जायेगा। जियाजी राव काटन मिल्स लिमिटेड बनाम ई० एस० आई० सी०, (1962) एम० पी० 340 के बाद में स्पष्ट किया गया है कि बोमा न्यायालय का पहले गठन तथा बाद में ही उसके कार्य के लिए जज नियुक्त करना राज्य सरकार के लिए आवश्यक नहीं है। उसे धारा 96 में अधिकार है कि बीमा न्यायालय के न्यायाधीश की अर्हता और उनकी सेवा शर्तों के सम्बन्ध में नियम बनाये। उसमें उतनी संख्या में न्यायाधीश होंगे, जितनी कि राज्य सरकार उचित समझे। उपधारा (3) में न्यायाधीशों की अर्हता सम्बन्धी निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए-

(1) वह व्यक्ति, जुडिशियल ऑफिसर है या रह चुका है; या

(2) वह पाँच वर्ष का अनुभव प्राप्त विधि व्यवसायी है। जहाँ तक पहली योग्यता का सम्बन्ध है कोई भी व्यक्ति जो एक बार जुडिशियल पद पर रह चुका है, उस कोर्ट के न्यायाधीश पद के लिए अर्ह है बशर्ते अन्यथा अनर्ह नहीं है।

(3) राज्य सरकार दो या दो से अधिक लोक एरिया के लिए या एक ही क्षेत्र के लिए एक या दो न्यायालय (बीमा) स्थापित कर सकती है और जहाँ एक ही क्षेत्र में एक से अधिक बीमा न्यायालय गठित किये गये हैं, वहाँ राज्य सरकार सामान्य या विशेष आदेश द्वारा उनके कार्यों के वितरण के निमित्त नियम बना देगी। इससे क्षेत्राधिकार और कार्य सम्बन्धी विवाद उतपन्न होने की सम्भावना कम रहेगी।

      बीमा न्यायालय की सक्षमता – अधिनियम की धारा 75 में दिये गये मामले दीवानी। अदालत में उठाना अभीष्ट नहीं होगा। इसकी पुष्टि नीली बिरला जूट मिल्स कम्पनी बनाम कर्मचारी राज्य बीमा निगम, (1962-63) 20 एफ० जे० आर० 495 के बाद में स्पष्ट किया गया है-” धारा 74 तथा 75 संकेत करती हैं कि जहाँ अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत विवाद उत्पन्न होता है, मामला कर्मकार बीमा न्यायालय द्वारा निर्णीत होना चाहिए न कि सिविल कोर्ट द्वारा अधिनियम में कोई ऐसी बात नहीं है जो क्रिमिनल कोर्ट को अभियोजन स्वीकार करने से मना करती हो, अलावा बीमा न्यायालय द्वारा न्याय निर्णयन के बाद।”

      ‘धारा 75 विवादों के निस्तारण का उपबन्ध करती है और यह तभी लागू होगी जब इन लाभों के सम्बन्ध में विवाद होते हैं। यह धारा इन कटौतियों से सम्बन्धित विवाद के अस्तित्व की पूर्व कल्पना करती है।” बीमा न्यायालय के मामले देखने का दीवानी अदालत को क्षेत्राधिकार नहीं होगा। 1989 में किये गये संशोधन द्वारा धारा 75 में उपधारा 2 (ख) जोड़ी गयी जो इस प्रकार है-

     किसी भी अंशदान या किसी अन्य बकाये के सन्दर्भ में प्रधान सेवायोजक निगम के मध्य कोई भी विवादास्पद मामला कर्मचारी बीमा न्यायालय में नहीं उठाया जायेगा जब तक वह निगम द्वारा दावा की गई उसके अनुसार बकाया धनराशि का पचास प्रतिशत राशि जमा नहीं कर देता है बशर्ते कि अदालत लिखित कारणों को देते हुए उपधारा (2 बी) के अन्तर्गत उस राशि के भुगतान करने की छूट दे दे या कम कर दे।

निम्न मामले बीमा न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित होंगे-

(1) क्या कोई व्यक्ति इस अधिनियम के अर्थों में नियोजित है या नहीं, और क्या यह कर्मचारी अंशदान देने के लिए उत्तरदायी है या नहीं, या

(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए किसी कर्मचारी की भृत्तियों की दर या दैनिक मजदूरियों की औसत, या

(3) किसी कर्मचारियों की बाबत मुख्य नियोजक द्वारा देव अंशदान की दर, या

(4) वह व्यक्ति जो किसी कर्मकार की बाबत मुख्य नियोजक है या था, या

(5) किसी लाभ के प्रति किसी व्यक्ति का अधिकार और उसकी राशि और अवधि या

(6) आश्रितों के लाभ की किसी अदायगी के पुनर्विलोकन पर धारा 55- क के अन्तर्गत निगम द्वारा जारी किया गया कोई निदेश या

(7) कोई अन्य बात, जो मुख्य नियोजक और निगम, या एक मुख्य नियोजक और एक निकटतम नियोजक या एक व्यक्ति और निगम, या एक कर्मचारी और मुख्य नियोजक और एक निकटतम नियोजक के बीच अंशदान, कोई लाभ या अन्य देय रकमें, या कोई अन्य मामला, जो कर्मचारी बीमा न्यायालय द्वारा अपेक्षित हो, या अभिनिर्धारित किया जा सकता हो।

     रीड कोआपरेटिव टिम्बर वर्क्स बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1970 मद्रास 439 के बाद के निर्णय के अनुसार बीमा न्यायालय ‘इन्टेरेस्ट ऐक्ट’ के अन्तर्गत निगम को सूद देने सम्बन्धी दायित्व पर निर्णय देने में सक्षम है, जिसके भुगतान के लिए मुख्य नियोजक दायी होगा।

      पूर्वोक्त किसी भी विवाद या प्रश्न को निर्णीत करने का दीवानी अदालत को ऐसी बात या दायित्व के न्याय निर्णयन का अधिकार न होगा, जिसका निर्णय इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी मेडिकल बोर्ड या मेडिकल अपील ट्रिब्यूनल या कर्मचारी बीमा न्यायालय द्वारा निर्णीत होना है।

     कार्यवाही का संस्थापन (Institution of Proceedings) –

(1) राज्य सरकार द्वारा बनाये गये किसी नियम और इस अधिनियम के अधीन कर्मचारी बीमा न्यायालय के समक्ष सभी कार्यवाहियों उस स्थानीय क्षेत्र के लिए गठित न्यायालय में प्रस्तुत की जायेंगी, जिस क्षेत्र में बीमाकृत व्यक्ति उस समय काम कर रहा था, जबकि वह प्रश्न उत्पन्न हुआ।

(2) यदि न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि किसी कार्यवाही से उठने वाला कोई मामला, जो इसके सामने लम्बित है, उसी राज्य में स्थित किसी अन्य बीमा न्यायालय द्वारा अधिक ‘सुगमता से निर्णीत हो सकता है, तो वह इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा बनाये गये किसी भी नियम के अधीन अभिनिश्चय के लिए मामले को हस्तान्तरित करने का आदेश दे सकता है। आदेश के बाद शीघ्रातिशीघ्र उस मामले से सम्बन्धित सभी कागजातों को उस न्यायालय के पास भेज देगा।

(3) राज्य सरकार अपने राज्य में स्थित किसी भी कर्मचारी को बीमा न्यायालय के समक्ष लम्बित कार्यवाही को दूसरे राज्य में स्थित बीमा न्यायालय के समक्ष दूसरे राज्य की सलाह से हस्तान्तरित कर सकती है।

     कार्यवाहियों का प्रारम्भ (Initiation of Proceedings) – किसी भी बीमा न्यायालय के समक्ष कार्यवाही का प्रारम्भ आवेदन-पत्र प्रस्तुत करने पर होगा, जिसे वाद कारण के उत्पन्न होने की अवधि से तीन साल की अवधि तक दिया जा सकता है। निश्चित अवधि के बाद आवेदन को स्वीकार करना न्यायालय का विवेकाधिकार है लेकिन यह न्यायिक होता है और इसका उपयोग मान्य सिद्धान्तों पर किया जाना चाहिए। [आर० के० बेरी एण्ड कम्पनी बनाम ई० एस० आई० कारपोरेशन, (1962) 1 एल० एल० जे० 579] सरकारी कार्यालय में हुए विलम्ब को माफ कराने का यथेष्ट कारण मानना सर्वमान्य नियम नहीं है। प्रस्तुत कारणों से सन्तुष्ट होने पर न्यायालय विलम्ब को माफ कर सकता है। दी इम्पलाइज स्टेट इक्योरेन्स कारपोरेशन, भोपाल बनाम दी सेन्ट्रल प्रेस और अन्य (1977) 2 एस० सी० सी० 581 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट बताया कि बीमा न्यायालय अंशदान की प्रत्युद्धरण कार्यवाही मात्र इस आधार पर नहीं रोक देगा कि नियोजक उचित रिकार्ड रखने में विफल रहा है। इस दशा में स्वयं ही धारा 54-अ के अन्तर्गत कारपोरेशन को एकत्रित सूचना के आधार पर निर्णय करना होगा। राज्य बीमा न्यायालय एक सिविल न्यायालय होने के कारण ऐसे अंशदान पर ब्याज देने का निर्णय दे सकता है, यद्यपि कि अधिनियम में ऐसा कोई उपबन्ध नहीं है, जिसके अन्तर्गत अंशदान के बकाये के सम्बन्ध में ब्याज का दावा किया जा सके। [ ए० आई० आर० 1970 मद्रास 439]

       कर्मचारी बीमा – न्यायालय का अधिकार- धारा 78 से स्पष्ट है कि कर्मचारी बीमा न्यायालय को सी-आर० पी० सी० की धारा 195 और अध्याय XXVI के अर्थान्तर्गत सिविल कोर्ट माना जायेगा ( 1984 के संशोधन द्वारा स्थानापन्न) निम्नलिखित मामलों के सम्बन्ध में सिविल अदालत की समस्त शक्तियाँ प्राप्त होंगी, जैसे-

(i) गवाहों को बुलाना एवं उनकी उपस्थिति बाध्य करना;

(ii) शपथ दिलाना एवं साक्ष्य का अभिलेख प्रस्तुत करना (iii) अभिलेखों एवं सारवान् वस्तुओं की खोज और प्रस्तुतीकरण को बाध्य करना; और

      ऐसा न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 और अध्याय 35 के अर्थ में एक दीवानी अदालत होगा।

      बीमा न्यायालय को शक्ति प्राप्त है कि वह मेडिकल बोर्ड द्वारा जारी प्रमाण पत्र की सत्यता की जाँच करे। [ वासुदेवन नैय्यर बनाम रीजनल डायरेक्टर, (1991) 1 एल० एल० जे० 359 (केरल)] रीजनल डायरेक्टर ई० एस० आई० कारपोरेशन बनाम सारवनम् (1991) 1 एल० एल० जे० 494 कर्नाटक में स्पष्ट किया गया कि यदि बीमाकृत व्यक्ति को प्राप्त चोट अनुसूची में निर्दिष्ट चोटों में नहीं है तो मेडिकल बोर्ड मेडिकल अपील ट्रिब्यूनल या बीमा न्यायालय निर्योग्यता लाभ के भुगतान के प्रयोजन के लिए यह निर्धारित कर सकता है कि अर्जन क्षमता में क्या कमी या ह्रास हुआ है।

      सभी कार्यवाहियों से सम्बन्धित परिव्यय के लिए निर्णय देने का अधिकार बीमा- न्यायालय का, राज्य सरकार द्वारा बनाये गये नियमों के अधीन विवेकाधिकार होगा। कर्मचारी बीमा न्यायालय का आदेश उसी प्रकार निष्पादित होगा, मानो वह निर्णय दीवानी न्यायालय द्वारा दिया गया हो। अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि वह मामले को मेडिकल बोर्ड को सन्दर्भित करे। यही न्यायालय यह निर्धारित करने में सक्षम है कि क्या कर्मकार लाभ पाने का अधिकारी है यदि हाँ, तो कितनी राशि और कितनी अवधि के लिए।

      उच्च न्यायालय को निर्देश- धारा 81 में कर्मचारी बीमा न्यायालय किसी विधि सम्बन्धी प्रश्न को उच्च न्यायालय को विनिश्चित करने के लिए भेज सकता है ऐसा करने पर वह अपने समक्ष लम्बित प्रश्न को ऐसे विनिश्चय के अनुसार निर्णीत करेगा।

      अपील – (1) इस धारा में अभिव्यक्त रूप से बताई गई किसी बात को छोड़कर अन्य किसी भी दशा में कर्मचारी बीमा न्यायालय द्वारा दिये गये आदेश पर कोई अपील नहीं हो सकेगी।

(2) कर्मचारी बीमा न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में की जा सकेगी बशर्ते उसमें विधि का कोई सारवान् प्रश्न मौजूद हो (सारवान् प्रश्न में साधारण महत्व के प्रश्न नहीं आते।)

       न्यायालय की शक्तियाँ  – धारा 78 से स्पष्ट है कि कर्मचारी बोमा न्यायालय को सी० आर० पी० सी० की धारा 195 और अध्याय XXVI के अर्थान्तर्गत सिविल कोर्ट माना जायेगा।

      इसे निम्नलिखित मामलों में सिविल अदालत की समस्त शक्तियाँ प्राप्त होंगी, यथा-

(i) गवाहों को बुलाना और उनकी उपस्थिति बाध्य करना; (ii) शपथ दिलाना एवं साक्ष्य का अभिलेख प्रस्तुत करना;

(iii) अभिलेखों और सारवान् वस्तुओं की खोज और प्रस्तुतीकरण को बाध्य करना; और

    ऐसा न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 795 और अध्याय 35 के अर्थ में एक दीवानी अदालत होगा।

     बीमा न्यायालय को शक्ति प्राप्त है कि वह मेडिकल बोर्ड द्वारा जारी प्रमाण पत्र की सत्यता की जाँच करे।

     सभी कार्यवाहियों से सम्बन्धित परिव्यय के लिए निर्णय देने का अधिकार बीमा न्यायालय का राज्य सरकार द्वारा बनाये गये नियमों के अधीन विवेकाधिकार होगा।

    कर्मचारी बीमा न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश उसी प्रकार निष्पादित होगा, मानो वह दीवानी अदालत द्वारा दिया गया निर्णय हो।

    अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो बीमा न्यायालय पर आभार लादता हो कि वह मामले को मेडिकल बोर्ड को सन्दर्पित करे। यही न्यायालय यह निर्धारित करने में सर्वथा सक्षम है कि क्या कर्मकार लाभ पाने का अधिकारी है और यदि हाँ तो कितनी राशि और कितनी अवधि के लिए।

    विधि-व्यवसायियों द्वारा उपसंजात होना (Appearance of legal practioners) – कर्मचारी बीमा न्यायालय के समक्ष आवेदन-पत्र देने, उपस्थित होने या अन्य कोई कार्य करने के लिए वकील या रजिस्ट्रीकृत संघ के किसी पदाधिकारी या अन्य व्यक्ति जिसे न्यायालय ने अनुमति दी हो, और जिसे आवेदक ने लिखित रूप से प्राधिकृत किया हो, को नियुक्त किया जा सकता है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष गवाह के रूप में परीक्षा के लिए उपस्थित होना हो, तो ऐसी दशा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं किया जा सकेगा। उस दशा में गवाह को स्वयं उपस्थित होना पड़ेगा।

     धारा 81 में कर्मचारी बीमा न्यायालय किसी विधि सम्बन्धी प्रश्न को उच्च न्यायालय को विनिश्चय के लिए सन्दर्पित कर सकता है। ऐसा करने पर वह अपने समक्ष लम्बित प्रश्न को ऐसे विनिश्चय के अनुसार निर्णीत करेगा।

अपील

(1) इस धारा में अभिव्यक्त रूप से बतायी गयी किसी बात को छोड़कर अन्य किसी भी दशा में कर्मचारी बीमा न्यायालय द्वारा दिये गये आदेश पर कोई अपील नहीं हो सकेगी।

(2) कर्मचारी बीमा न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में की जा सकेगी बशर्ते कि उसमें कोई विधि का सारवान् प्रश्न अन्तर्विष्ट हो। सारवान् विधि के प्रश्न पर अपील करने की मियाद 60 दिनों की होगी।

अपील अन्तिम और अन्तर्वती दोनों प्रकार के आदेशों के विरुद्ध की जा सकेगी।

प्रश्न 4. उन प्रयोजनों की व्याख्या कीजिए जिनके लिए कर्मचारी राज्य बीमा कोष का उपयोग कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के अन्तर्गत किया जा सकता है। Explain the purpose for which the funds of the employees state insurance may be utilised under The Employees State Insurance Act, 1948.

उत्तर- कर्मचारी राज्य बीमा कोष – सम्पूर्ण बीमा निधि निगम के अधीक्षण में रिजर्व बैंक या अन्य प्राधिकृत बैंक में जमा होगी। सभी कर्मचारियों का फण्ड अलग खाते और नाम पर अवश्य रहेगा; किन्तु रिजर्व बैंक में उसे जमा कर दिया जाता है और उसका विनियोजन होता रहता है। कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम की धारा 28 के अनुसार निम्न मदों पर फण्ड से खर्च किया जा सकता है-

(1) लाभों का भुगतान और चिकित्सा, सेवा सुश्रूषा और दवा तथा जहाँ चिकित्सा- लाभ बीमाकृत व्यक्तियों के परिवारों को दिये जाने की व्यवस्था कर ली गई है, तो ऐसे कुटुम्ब के लिए चिकित्सा सम्बन्धी प्रावधान इस अधिनियम के अनुसार उसके चार्ज और खर्च का भुगतान।।

(2) निगम, स्थायी समिति तथा चिकित्सा लाभ परिषद के सदस्यों के शुल्क तथा भत्ते की अदायगी। लेकिन कमेटीज और रीजनल और मेडिकल बेनिफिट कौंसिल के सदस्यों के भी शुल्क एवं भत्ते उसी से देय होंगे।

(3) निगम के पदाधिकारियों और कर्मचारियों को छुट्टी और कार्यग्रहण की अवधि (joining time allowances), यात्रा के भत्तों तथा प्रतिकरात्मक भसे, उपदानों,. पेन्शन्स, भविष्य निधि या अन्य हित लाभ निधि में अंशदान के भुगतान के लिए।

(4) अस्पतालों, दवाखानों और अन्य संस्थाओं की स्थापना और पोषण के लिए बीमाकृत व्यक्तियों और उनके परिवारों के लाभ के लिए, अन्य सहायक सेवाओं के लिए।

(5) किसी राज्य सरकार को या स्थानीय प्राधिकारी को या किसी प्राइवेट निकाय को और या किसी व्यक्ति में, चिकित्सा सम्बन्धी उपचार और परिचर्या के परिक्रम को, जो उपचार और दिनचर्या बीमाकृत व्यक्तियों को उपलब्ध की गयी है, वापस करने के विचार से अंशदानों के भुगतान के लिए।

(6) निगम के एकाउन्ट की जाँच तथा उसके दायित्व एवं आस्तियों (Assets) के मूल्यांकन के परिव्यय और खर्चों के भुगतान के लिए।

(7) कर्मचारी बीमा – न्यायालयों के परिव्यय और खर्चों को अदा करने के लिए।

(8) किसी संविदा के अनुसार, जो निगम या स्थायी समिति द्वारा दी गयी है, किन्हीं रकमों के भुगतान के लिए।

(9) निगम या उसके किसी पदाधिकारी या सेवक के खिलाफ उसके कर्तव्य के निष्पादन में किये गये कार्य या निगम के खिलाफ दायर किसी मुकदमे या अन्य कानूनी कार्यवाही या दावे के समझौते या निपटारे के अधीन किये गये किसी कार्य के लिये न्यायाधिकरण द्वारा दी गयी आज्ञप्ति, आदेश या निर्णय के अनुसार रकमों के भुगतान के लिए।

(10) अधिनियम के अनुसार की गई कार्यवाही से उत्पन्न होने वाली किन्हीं दीवानी या फौजदारी कार्यवाहियों को चलाने या उन्हें अभिनिश्चित करने के परिव्यय और अन्य प्रकारों के भुगतान के लिए।

(11) बीमाकृत व्यक्तियों के स्वास्थ्य और कल्याण की उन्नति के लिये, उपायों पर विहित सीमाओं के अन्दर खर्च को चुकाने और बीमाकृत व्यक्तियों के पुनर्वास और पुनर्नियोजन के लिए, जो अंशहीन या क्षतिग्रस्त हो गये हैं, खर्च के भुगतान के लिए।

(12) ऐसे दूसरे अन्य प्रयोजनों के लिए जैसा कि निगम द्वारा केन्द्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी से प्राधिकृत किया जा सकेंगे।

[II] न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948

(The Minimum Wages Act, 1948)

प्रश्न 5. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के उद्देश्य एवं विस्तार पर एक निबन्ध लिखिये। Write an essay on the objects and scope of the Minimum Wages Act, 1948.

उत्तर – सन् 1928 में जेनेवा में Minimum Wages Fixing Machinery Convention हुआ था और उसमें पारित प्रस्तावों को कार्यरूप में परिणित करने हेतु प्रयास होते रहे। इन पारित प्रस्तावों को इण्टरनेशनल लेबर कोड में समाविष्ट किया गया।

     इस अधिनियम के 1948 में पारित किये जाने से पूर्व गठित एक आयोग को मजदूरों, उनकी अन्य सुसंगत परिस्थितियों तथा आवश्यक सुधार लाने की दिशा में उठाये जाने वाले प्रभावी कदमों के अध्ययन का भार सौंपा गया था। उसने अपने प्रतिवेदन में बड़ी गहराई तक के विचार-विमर्शों को रखा। इस आयोग की संस्तुतियों के फलस्वरूप ही यह अधिनियम सामने आया। इसका संक्षिप्त नाम न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 रखा गया।

      अधिनियम का प्रवर्तन – अधिनियम का प्रवर्तन ऐसे नियोजनों पर लागू होता है जो असंगठित हैं और अनुसूची में वर्णित हैं तथा समुचित सरकार के विवेक के अधीन यह अधिनियम किन्हीं अन्य नियोजनों पर भी लागू किया जा सकता है। यद्यपि कि यह केन्द्रीय सरकार द्वारा पारित किया गया है लेकिन इसे राज्य सरकारें लागू कर सकती हैं केवल उन अनुसूचित नियोजनों को छोड़कर जो केन्द्रीय सरकार के प्राधिकार द्वारा संचालित होते हैं।

     उद्देश्य – इसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों की दयनीय दशा में समुचित सुधार लाना, न्यूनतम मजदूरी प्रदान करने की सुरक्षा प्रदान करना तथा उन्हें अपनी कार्य क्षमता बनाये रखने के अनुकूल अवसर देना है। अधिनियम की उद्देशिका से ही इस उद्देश्य का आभास मिलता है, जिसके अनुसार कुछ नियोजनों में न्यूनतम मजदूरी दरों को लागू करने के निमित्त ही इसे अधिनियमित किया गया, जैसा करना अभीष्ट था। इससे स्वामी तथा कर्मचारियों के बीच आर्थिक विषमता पूर्णतः दूर तो नहीं होती, फिर भी प्राचीन काल की शोषण प्रवृत्ति पर विधिक ढंग से प्रतिषेध लगा दिया गया है। अब इस अधिनियम के पारित हो जाने से कोई नियोजक किसी कर्मचारी से वैयक्तिक संविदा न्यूनतम मजदूरी लेने के लिए बाध्य और मनमाने ढंग से उसका शोषण नहीं कर सकता। इसका उद्देश्य पूँजीपतियों, मिल मालिकों आदि से कम संगठित, कम सुविधा प्राप्त, समाज के कमजोर वर्ग के लोगों को शोषण से बचाना है। न्यूनतम मजदूरी तय करने के दो उद्देश्य हैं-

(1) कर्मचारी अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण करने में समर्थ हो,

(2) वह अपनी कार्यक्षमता बनाये रख सके।

      एक कल्याणकारी राज्य के रूप में सरकार को अनुसूचित सभी नियोजनों के सम्बन्ध में न्यूनतम मजदूरी नियत करने की शक्ति प्रदान की गई है और आशा की जाती है कि वह कमजोर वर्गों को शोषण से बचायेगी, उनके जीवन-निर्वाह तथा जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए भी यथासम्भव आवश्यक ठोस कदम उठायेगी क्योंकि मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देना एक वैधानिक अनिवार्यता है। इसके उद्देश्य में यह बात अन्तर्निहित है कि कर्मचारियों को अपने परिश्रम का समुचित पारिश्रमिक दिया जाना कई दृष्टियों से अभीष्ट तथा श्रेयस्कर है। “This Act and Industrial Disputes Act are not pari materia. ” सन् 1969 में जस्टिस गजेन्द्र गड़कर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय श्रम आयोग ने संस्तुति की कि नियोक्ता की देय क्षमता, मजदूरों की आर्थिक तथा गणना की व्यावहारिक कठिनाई को ध्यान में रखकर आवश्यकता पर आधारित मजदूरी पर जोर दिया जाना चाहिए, ताकि न्यूनतम मजदूरी का नारा हर जाए, जो न तो बांछनीय है और न ही व्यावहारिक है। यह अधिनियम भारतीय संविधान की प्रस्तावना एवं नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन की दिशा में एक उपयुक्त एवं मील का पत्थर है।