(1) भारत में औद्योगिक विधान का विकास
(Evolution of Industrial
Legislation in India)
प्रश्न 1. औद्योगिक विधिशास्त्र का महत्व बताइये। State importance of industrial jurisprudence.
उत्तर– औद्योगिक विधिशास्त्र विकसित एवं विकासशील प्रकार के देशों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अन्तर्गत कारखाना पद्धति (Factory System) द्वारा उत्पन्न मानवीय समस्याओं के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन होता है। किसी भी समाज, चाहे वह विकसित हो या विकासशील, के लिए यह आवश्यक है कि नियोजक एवं नियोजित के बीच अच्छे तथा सामंजस्यपूर्ण संबंध हों। औद्योगिक कर्मकार एवं उसके परिवार इससे प्रत्यक्षतः सम्बद्ध है। इस कारण औद्योगिक विधिशास्त्र का महत्व और बढ़ गया है।
प्रश्न 2. “औद्योगिक विधिशास्त्र सामाजिक न्याय का अनुगमन करता है।” टिप्पणी लिखिये।
“Industrial jurisprudence follows social justice.” Comment.
उत्तर– औद्योगिक विधिशास्त्र मुख्यतः सामाजिक न्याय पर आधारित है। सामाजिक न्याय समाज के साथ-साथ एक परिवर्तनशील अवधारणा है। यह समय के साथ-साथ गतिशील एवं परिवर्तनीय अवधारणा है। अतः यह भी सदैव विकासशील है। यद्यपि अपने ऊँचे आदर्शों के बावजूद भी औद्योगिक विधिशास्त्र अपने अंतिम स्वरूप को अभी प्राप्त नहीं कर पाया है। यह सामान्य विधि शास्त्र को स्थानापन्न करने में अभी तक असफल रहा है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सामाजिक न्याय विधिक न्याय को अभी तक स्थानापन्न नहीं कर पाया है क्योंकि सामाजिक न्याय के संबंध में अपना विचार व्यक्त करते समय न्यायालय न्यायाधिकरण तथा विवाचक विधि का त्याग नहीं कर पा रहे। अतः अभी यही कहना उपयुक्त होगा कि औद्योगिक विधिशास्त्र सामान्य विधिशास्त्र की एक शाखा मात्र है और यह औद्योगिक समाज से उसी प्रकार संबंधित है जिस प्रकार सामान्य विधिशास्त्र पूरे समाज से संबंधित है।
प्रश्न 3. भारतीय श्रम नीति के मुख्य घटक क्या हैं? What are main Constituents of Indian Labour Policy?
उत्तर – भारतीय श्रम नीति के मुख्य तत्व या अवयव निम्न प्रकार से हैं –
1. राज्य को सामूहिक हितों के अभिरक्षक तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों के उत्प्रेरक के रूप में मान्यता प्रदान करना।
2. अन्याय के विरुद्ध कर्मकारों को शांतिपूर्ण ढंग से अपने विरोध को प्रकट करने के अधिकार को मान्यता प्रदान करना।
3. कमजोर पक्ष को उचित उपचार दिलाने के लिए राज्य द्वारा हस्तक्षेप।
4. आपसी समझौते, सामूहिक सौदेबाजी तथा ऐच्छिक विवाचन को प्रोत्साहित करना।
5. औद्योगिक शांति बनाये रखने को प्राथमिकता।
6. कर्मकार एवं नियोजक के बीच भागीदारी को बढ़ावा देना। 7. उचित मजदूरी मापदण्डों तथा सामूहिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना।
8. कर्मकारों की जीवन स्थिति को समुन्नत करना।
9. उत्पादन तथा उत्पादकता, दोनों को बढ़ावा देना।
10. श्रम विधानों का उचित प्रवर्तन।
11. त्रिपक्षीय (Tri-parte) सलाह-मशविरा को बढ़ावा देना।
प्रश्न 4. औद्योगिक न्याय निर्णयन के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
What are main objectives of industrial judicial adjudications.
उत्तर- औद्योगिक न्याय निर्णयन का मुख्य उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक न्याय है जिसके मुख्य आधार सामाजिक कल्याण, लोकहित तथा राज्य के नीति निदेशक तत्व हैं।
औद्योगिक न्याय निर्णयन का मुख्य कार्य औद्योगिक विवादों का समाधान ढूँढ कर राज्य को सहायता देना है जो राज्य द्वारा निर्धारित आर्थिक एवं सामाजिक नीति पर निर्भर करता है।
औद्योगिक न्याय निर्णय का उद्देश्य औद्योगिक शांति तथा आर्थिक न्याय है। औद्योगिक न्याय निर्णयन के संबंध में तत्कालीन सामाजिक दर्शन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त ने अहस्तक्षेप के सिद्धांत को पीछे छोड़ दिया है।
प्रश्न 5. “सामाजिक सुरक्षा उपायों का दोहरा महत्व है।” टिप्पणी कीजिये।
“Social security measures has dual importance.” Comment.
उत्तर– सामाजिक सुरक्षा उपायों का दोहरा महत्व है क्योंकि एक ओर तो वे एक लोक कल्याणकारी राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति की दशा में महत्वपूर्ण कदम है और दूसरे यह कि वे कर्मकारों को इस योग्य बनाते हैं कि वे अपने काम तथा कौशल से अधिक सक्षम हो सकें।
सामाजिक सुरक्षा का अभाव उत्पादन में बाधक होता है और एक स्थायी और कुशल श्रमबल के गठन को रोकता है और इसलिये यह कोई भार नहीं अपितु धन को एक ऐसे कार्य में लगाना है जिससे कि और भी अच्छे लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। राष्ट्रीय श्रम आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार सामाजिक सुरक्षा जीवन के एक तथ्य के रूप में बदल गई है और इन उपायों ने आज के कठिन जीवन में स्थिरता और सामाजिक सुरक्षा की एक भावना उत्पन्न कर दी है।
(2) औद्योगिक विवाद अधिनियम,1947 (Industrial Disputes Act, 1947)
प्रश्न 1. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के संदर्भ में’ कर्मकार ‘ शब्द को परिभाषित कीजिये। Define term Workman’ in context of Industrial Dispute Act, 1947.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तर्गत कर्मकार कौन है? निर्णित वादों की सहायता से समझाइए । Who is ‘workman’ under Industrail Disputes Act, 19472 Explain it with the help of decided cases.
उत्तर– औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2(ध) में कर्मकार या कामगार अथवा कर्मचारी शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-
“कोई व्यक्ति प्रशिक्षु सहित जो कि उद्योग में किराये या इनाम पर कौशलपूर्ण या कौशल रहित, शारीरिक, पर्यवेक्षी प्राविधिक अथवा लिपिकीय कार्य करता है, चाहे नौकरी की शर्त प्रत्यक्ष या अन्तर्निहि हो तथा औद्योगिक विवाद से संबंधित इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी कार्यवाही के निमित्त उस व्यक्ति के लिए कोई ऐसा व्यक्ति इसके अन्तर्गत आता है जो कि ऐसे विवाद के संबंध में ऐसे विवाद के परिणामस्वरूप पदच्युत किया गया. अलग किया गया, छाँट दिया गया है अथवा जिसकी पदच्युति, बर्खास्तगी या छँटनी होने के कारण ऐसा विवाद उत्पन्न हुआ है।”
अर्कल गोविन्द राजराव बनाम सीवा गीजी आफ इंडिया लि. मुम्बई (1885) M. N. P. 677 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘कर्मकार’ शब्द के अवधारण की कसौटियों का निरूपण किया है। न्यायालय के अनुसार कोई कर्मचारी कर्मकार है अथवा नहीं, इस बात का अवधारण करके उसके कर्त्तव्यों के मुख्य आधारभूत या प्रमुख प्रकृति की सहायता से उसके द्वारा किये गये अतिरिक्त कर्तव्यों की प्रकृति का वेतन की अन्तर की सहायता से किया जायेगा। जहाँ पर किसी कर्मचारी के पास अनेक प्रकार के काम हैं। वहाँ पर न्यायालय को यह पता लगाना होगा कि उसके प्राथमिक तथा आधारभूत कर्त्तव्य क्या है और यदि कभी-कभी उससे अन्य कार्य करने को कहा जाता है जिसका उसके मूलभूत कर्त्तव्यों के अनुरूप होना जरूरी नहीं है तो ये अतिरिक्त कार्य उस व्यक्ति के स्वस्थ और प्रस्थिति को बदल नहीं सकते। सरल शब्दों में, उस व्यक्ति के स्वस्थ तथा प्रस्थिति का अवधारण करने में सर्वप्रथम उसके नियोजन के प्रमुख उद्देश्यों को ध्यान में रखना होगा और कुछ अतिरिक्त कर्त्तव्यों को अस्वीकार करना होगा।
बी. एस. ओ. एस. एण्ड डी कम्पनी बनाम मैनेजमेन्ट स्टाफ एसोसिएशन AIR 1871 S.C.922 के बाद में यह निर्णय दिया कि वह व्यक्ति उस आधार पर कामगार नहीं माना जाएगा कि वह धारा 2 (घ) के चारों अपवादों में नहीं आता है। पदयुक्त व्यक्ति भी तब तक कामगार नहीं माना जाएगा जब तक उसके संबंध में कोई अंतिम निर्णय नहीं हो जाता। कोई नियोजक या उसका नियोजिती कर्मकार की परिभाषा में नहीं आता पर्यवेक्षणीय कार्य करने के लिए नियुक्त लेखा परीक्षक कर्मकार ही माना जाएगा।
एस के वर्मा बनाम महेश चन्द्र के (1983) के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी को उसके कार्य तथा उसकी अधिकार शक्तियों को ध्यान में रखते हुए उसे कर्मकार माना है। न्यायालय ने पक्षकार के इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि विकास अधिकारी का कार्य शासकीय अथवा प्रबन्धकीय प्रकृति का होता है।
टी.सी. श्रीवास्तव बनाम नेशनल टोबेको कम्पनी ऑफ इण्डिया (1992) 1LL.J. 86 (S.C.) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कम्पनी के द्वारा नियोजित बिक्रीकर्ता कर्मकार की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आता है क्योंकि इस मामले में अपीलकर्ता का कर्तव्य अकौशलपूर्ण, कौशलपूर्ण, लिपिकीय अथवा शारीरिक प्रकृति का नहीं है।
प्रश्न 2. कर्मकार किसे कहते हैं ? क्या ठेकेदार कर्मकार होता है ? समझाइए (कानपुर 2016) Who is Workman ? is Contractor, a workman ? Explain.
अथवा
कर्मकार पर टिप्पणी लिखिये। Write note workman.
उत्तर – कर्मकार (Workman) – इस शीर्षक के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न सं. 1 देखें।
क्या ठेकेदार कर्मकार होता है ? (Is Contractor, a Workman) – कर्मकार तथा ठेकेदार में मूलभूत अन्तर है। कर्मकार अपने आप काम करने का वादा करता है, वह सेवक के प्रत्य नियंत्रण और निर्देशन के अधीन होता है। मालिक ही उसे बताता है कि कोई कार्य किस प्रकार से तथा कैसे किया जाना है जबकि स्वतन्त्र ठेकेदार इस प्रकार के नियंत्रण तथा निर्देशों से मुक्त होता है और किये जाने वाले कार्य के सम्बन्ध में वह अपनी युक्ति का प्रयोग स्वयं करता है। अतः स्वतन्त्र ठेकेदार को कर्मकार की परिभाषा में नहीं रखा जा सकता।
प्रश्न 3. नियोजक को परिभाषित कीजिये।
Define Employer.
अथवा
नियोजक कौन होता है? इसके मुख्य लक्षण क्या हैं? Who is Employer ? What are it’s characteristics ?
उत्तर– इस अधिनियम की धारा 2 (इ) के अनुसार नियोजक अथवा मालिक शब्द का अर्थ उन उद्योगों के संबंध में किया गया है जो कि
(i) केन्द्रीय सरकार,
(ii) राज्य सरकार, और
(iii) स्थानीय प्राधिकारियों के द्वारा, या
(iv) प्राधिकार के अन्तर्गत चलाये जाते हैं।
अतः नियोजक का तात्पर्य केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या स्थानीय प्राधिकारी से ऐसे उद्योग के संबंध में है जो कि क्रमशः उसके द्वारा या उसके प्राधिकार से संचालित किये जाते हैं।
परन्तु यह परिभाषा न तो सर्वांगपूर्ण है और न ही तत्ववेशी ऐसे उद्योगों के संबंध में जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा संचालित किये जाते हैं नियोजक का तात्पर्य इस शब्द के साधारण अर्थानुसार लिया जायेगा। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इस अधिनियम के अन्तर्गत नियोजक का अर्थ केवल केन्द्रीय या राज्य सरकार या एक स्थानीय प्राधिकारी से है और यह भी कि जहाँ पर किसी उद्योग का संचालन किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा किया जाता है वहाँ ऐसा प्राधिकारी नियोजक नहीं होगा।
‘नियोजक’ शब्द की परिभाषा ऐसे उद्योगों के संबंध में जो कि केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा संचालित है, स्पष्टतः दी गयी है क्योंकि ऐसे प्रकरणों में इस बात की खोज करना सरल नहीं है कि उक्त प्रकार का प्राधिकारी या व्यक्ति निश्चित रूप से कौन है। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार अथवा स्थानीय प्राधिकारियों से भिन्न के द्वारा संचालित उद्योग भी इस परिभाषा के अन्तर्गत सम्मिलित है।
हुसैन भाई बनाम अलाथ फैक्ट्री तेझी लाली यूनियन AIR 1978 S.C. के मामले में यह धारित किया गया है कि जहाँ कोई कर्मकार अथवा कर्मकारों का वर्ग माल अथवा सेवाओं के उत्पादन हेतु कार्य करता है और ये माल अथवा सेवायें किसी अन्य के व्यवसाय हेतु रहती हैं तो ऐसा अन्य व्यक्ति भी वस्तुतः “नियोजक’ की परिभाषा में आयेगा और तद्नुसार नियोजक होगा।
प्रश्न 4. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत निम्न शब्दों की परिभाषा दीजिये, Define following terms under Industrial Disputes Act, 1947:
(1) उपयुक्त सरकार, या समुचित प्रकार
(2) सेवायोजक
(3) स्वतन्त्र व्यक्ति,
(4) औसत वेतन।
उत्तर– औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत प्रमुख शब्दों की परिभाषायें –
(1) उपयुक्त सरकार या समुचित सरकार – औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 की धारा 2 (a) के अन्तर्गत उपयुक्त सरकार से आशय-
(अ) ऐसे औद्योगिक विवाद के सम्बन्ध में जो किसी ऐसे उद्योग से सम्बन्धित हो जो कि केन्द्रीय सरकार, रेलवे कम्पनी, बैंकिंग कम्पनी, जीवन बीमा निगम, खान, तेल क्षेत्र या किसी बड़े बन्दरगाह से सम्बन्धित है तो केन्द्रीय सरकार ही उपयुक्त सरकार होगी।
(ब) किसी अन्य औद्योगिक विवाद के सम्बन्ध में राज्य सरकार ही उपयुक्त सरकार होगी।
(2) सेवायोजक – अधिनियम की धारा 2 (G) के अनुसार-
(अ) जहाँ केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार के किसी विभाग द्वारा या अधिकारी के अधीन ट चलाया जा रहा है तो निर्धारित अधिकारी या विभाग का अध्यक्ष सेवायोजक या नियोक्ता होगा।
(ब) जहाँ कोई उद्योग स्थानीय प्राधिकारी द्वारा चलाया जा रहा है, वहाँ उसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी सेवायोजक होगा।
(3) स्वतन्त्र व्यक्ति – अधिनियम की धारा 2(1) के अनुसार, स्वतन्त्र व्यक्ति से आशय ऐसे व्यक्ति से है जो ऐसे बोर्ड, न्यायालय या ट्रिब्यूनल को सौंपे गये औद्योगिक विवाद से सम्बन्धित न हो या किसी ऐसे उद्योग से सम्बन्धित न हो, जिस पर ऐसे झगड़े का प्रभाव पड़ता हो।
(4) औसत वेतन – अधिनियम की धारा 2(b) के अनुसार, औसत वेतन से आशय है-
(i) मासिक वेतन पाने वाले श्रमिकों की दशा में पूरे तीन कलेण्डर महीनों में दी जाने वाली मजदूरी का औसत।
(ii) साप्ताहिक वेतन पाने वाले श्रमिकों की दशा में पूरे चार सप्ताहों में दी जाने वाली मजदूरी का औसत।
(iii) दैनिक वेतन पाने वाले श्रमिकों की दशा में 12 कार्यशील दिनों में दी जाने वाली मजदूरी का औसत। महीनों, सप्ताह या दिनों की गणना उस दिन के पूर्व से मानी जायेगी जिस दिन श्रमिक को औसत मजदूरी प्राप्त करने का अधिकार हो ।
प्रश्न 5. ‘समुचित सरकार’, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत। ‘Appropriate Government’ under Industrial Disputes Act, 1947.
उत्तर– ‘समुचित सरकार’ की परिभाषा औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (क) में दी गयी। है। धारा 2 (क) के अनुसार निम्नलिखित से संबंधित किसी औद्योगिक विवाद के संबंध में केन्द्रीय सरकार समुचित सरकार है-
1. केन्द्रीय सरकार के प्राधिकार के द्वारा या अधीन संचालित उद्योग, अथवा
2. रेलवे कम्पनी के द्वारा संचालित कोई उद्योग,
3. किसी ऐसे नियंत्रित उद्योग से संबंधित कोई औद्योगिक विवाद जिसे कि इस संबंध में केन्द्रीय सरकार द्वारा उल्लिखित किया गया हो या इस धारा में नागित 24 अन्य उद्योगों या संस्थानों के संबंध में अन्य सभी प्रकरणों में समुचित सरकार वह सरकार है जिसके राज्य क्षेत्र के भीतर औद्योगिक विवाद उत्पन्न होता है।
समुचित सरकार केन्द्रीय सरकार है या राज्य सरकार, यह विवाद विषय वस्तु पर निर्भर करता है। टाटा मेमोरियल हास्पिटल वर्क्स यूनियन बनाम टाटा मेमोरियल सेंट एवं अन्य (2010) IV L.L.J. 830 (S.C) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया है कि समुचित सरकार राज्य सरकार थी या केन्द्र सरकार, दो बिन्दुओं पर निर्भर करता है-
1. प्रत्यर्थी केन्द्र की संपत्ति किस प्रकार निहित थी, तथा
2. क्या अस्पताल और रिसर्च केन्द्र का प्रबंधन और नियंत्रण अभ्यर्थी के पास स्वतन्त्र रूप में था या नहीं।
प्रश्न 6. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत क्या आप निम्नलिखित को श्रमिक मानेंगे?
(i) फॅक्टरी मैनेजर (Works Manager)
(ii) पर्यवेक्षक जो ₹ 2000 प्रतिमाह से अधिक मजदूरी लेता है।
(iii) अध्यापक ।
(iv) जेल का कर्मचारी।
Will you consider if following as workman under Industrial Disputes Act, 1947?
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत उद्योग क्या है ? क्या राज्य का पुलिस विभाग एक उद्योग है ? कारण बताइए।
उत्तर – औद्योगिक विवाद अधिनियम के अधीन श्रमिक
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (s) के अन्तर्गत श्रमिक में ऐसा व्यक्ति शामिल नहीं होता जो
(अ) वायु सेना अधिनियम, 1950 या थल सेना अधिनियम, 1960 या नौसेना अधिनियम 1967 के अधीन हो, या
(ब) जो पुलिस सेवा या जेल के अधिकारी या अन्य कर्मचारी के रूप में नियुक्त हो, या
(स) प्रबन्धकीय या प्रशासनिक पद पर नियुक्त हो, या
(द) पर्यवेक्षी पद पर नियुक्त हो तथा प्रतिमाह ₹ 1600 से अधिक मजदूरी प्राप्त करता रहा हो, या
(ल) जो मुख्यतः किसी प्रबन्धकीय चरित्र के दायित्वों का निर्वाह कर रहा हो। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि
(i) उपरोक्त वाक्यांश (स) के अन्तर्गत फैक्टरी मैनेजर श्रमिक नहीं है।
(ii) उपरोक्त वाक्यांश
(द) के अन्तर्गत ₹ 2000 प्रतिमाह से अधिक मजदूरी लेने वाला पर्यवेक्षक श्रमिक नहीं है।
(iii) अध्यापक सुन्दरमबल बनाम गोवा सरकार के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि शैक्षिक संस्था द्वारा नियुक्त किये गये शिक्षकों को इस अधिनियम की धारा 2(S) के अन्तर्गत श्रमिक नहीं माना जा सकता है क्योंकि उनकी नियुक्ति कुशल या अकुशल हस्थन (manual) कार्य या पर्यवेक्षक कार्य या तकनीकी या लिपिकीय कार्य करने के लिए नहीं की जाती।
(iv) उपरोक्त वाक्यांश (स) के अनुसार जेल का कर्मचारी श्रमिक नहीं है।
प्रश्न 7. X नामक एक श्रमिक को अपने नियोक्ता Y द्वारा अपने संस्थान के किसी अन्य भाग में हड़ताल के कारण काम देने से इन्कार किया गया। क्या X औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तर्गत काम बन्दी के लिए प्रतिफल का अधिकारी है?
उत्तर– नहीं। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 25-E में व्यवस्था की गई है कि यदि संस्थान के किसी दूसरे भाग के श्रमिकों द्वारा हड़ताल करने या उत्पादन मन्द गति से करने के कारण श्रमिकों को काम देने से इन्कार किया गया है तो वह श्रमिक इसके बदले प्रतिफल का अधिकारी नहीं होगा। कोई भा संस्थान किसी अन्य संस्थान का हिस्सा है या नहीं। यह कई कारकों पर निर्भर करता है।
प्रश्न 8. अधिक काम को निपटाने के लिए तेज को आलसी निगम द्वारा 30 दिन की नियत अवधि के लिए टाइपिस्ट के रूप में रखा गया। उसकी अवधि बार-बार बढ़ायी जाती रही। क्योंकि आधिक्य कार्य निपट ही नहीं रहा था। उसकी सेवाएँ अंततः निलंबित कर दी गई. जब उनकी आगे आवश्यकता नहीं रही तेज ने दलील दी कि उसने आलसी निगम की सेवा में 240 दिन से अधिक दिन पूरे किये हैं तथा छँटनी के सम्बन्ध में औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के प्रावधानों को बिना लागू किये उसकी सेवाओं को समाप्त नहीं किया जा सकता है। निर्णय करें।
उत्तर– दिये गये मामले में तेज की नियुक्ति टाइपिस्ट के रूप में केवल कुछ अतिरिक्त कार्यों के निष्पादन के लिए ही की गई है जो ठेके के काम की आम प्रवृत्ति होती है एवं छँटनी की परिभाषा में अपवादात्मक श्रेणी के अन्तर्गत आती है। मामले में तेज का यह कहना कि उसने औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 25- F के अर्थों में 240 दिनों के लिये काम किया है तथा छँटनी के सम्बन्ध में अधिनियम के प्रावधानों को लागू किये बिना उसकी सेवा समाप्त नहीं की जा सकती. बिल्कुल तर्कहीन बात है क्योंकि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (00) के अर्थों में यह छँटनी नहीं है।
अतः तेज की सेवा की समाप्ति के सन्दर्भ में औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के प्रावधानों के पालन के लिए मजबूर करने हेतु उचित नहीं ठहराया जा सकता।
प्रश्न 8. हड़ताल तथा तालाबन्दी में अन्तर स्पष्ट कीजिये। Differentiate between Strike and Lockout.
उत्तर– हड़ताल व तालाबन्दी में निम्नलिखित अन्तर है-
हड़ताल (Strike)
1) हड़ताल श्रमिकों द्वारा की जाती है।
2)हड़ताल श्रमिकों के हित के लिए होती है।
3) हड़ताल में श्रमिक यह प्रयत्न करते हैं कि कोई भी श्रमिक काम पर न जाये।
4)हड़ताल में प्राय: श्रमिक उत्तेजित हो जाते हैं।
5) हड़ताल में श्रमिकों के काम करने की इच्छा नहीं होती जबकि सेवायोजक चाहते कि श्रमिक काम करें।
6)हड़ताल की सूचना श्रमिकों द्वारा नियोक्ताओं को दी जाती है।
7) हड़ताल का उद्देश्य प्रायः कार्य करने की सुविधाओं का विकास करना व पारिश्रमिक में वृद्धि करना है।
8) हड़ताल की प्रकृति आक्रामक होती है।
9) हड़ताल आंशिक व पूर्ण हो सकती है।
10) जब हड़ताल अवैधानिक होती है तो प्रत्येक हड़ताली श्रमिक को ₹50 जुर्माना या एक माह की कैद अथवा दोनों हो सकती हैं।
तालाबन्दी (Lockout)
1) तालाबन्दी नियोक्ताओं द्वारा की जाती है।
2) तालाबन्दी नियोक्ताओं के हित के लिये होती है।
3) तालाबन्दी में श्रमिक यह कोशिश करते हैं। कि सभी श्रमिक काम पर जायें।
4) तालाबन्दी में प्राय: नियोक्ता उत्तेजित नहीं होते।
5) तालाबन्दी में श्रमिकों के काम करने की इच्छा होती है परन्तु नियोक्ता नहीं चाहते कि श्रमिक काम करें।
6) तालाबन्दी की सूचना नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों व निर्धारित अधिकारी को दी जाती है।
7) तालाबन्दी का उद्देश्य प्राय: श्रमिकों की माँगों को पूरा करने में असमर्थता प्रकट करना या काम करने में असमर्थता प्रकट करना होता है।
8) तालाबन्दी की प्रकृति सुरक्षात्मक होती है।
9) तालाबन्दी पूर्ण होती है।
10) जब तालाबन्दी अवैधानिक होती है तो नियोक्ता को ₹ 1000 जुर्माना या एक माह की कैद अथवा दोनों दण्ड दिये जा सकते हैं।
प्रश्न 10. क्या एक शैक्षणिक संस्था उद्योग है ? Whether, an Educational Institution is an Industry ?
उत्तर – शिक्षण संस्थायें उद्योग है अथवा नहीं, इस विषय पर प्रमुखबाद दिल्ली विश्वविद्यालय बनाम रामनाथ AIR 1963 S.C. 1873 है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(छ), 2 (ञ) तथा 2 (घ) को एक साथ पढ़ते हुए यह निर्णय दिया कि शिक्षा प्रदान करने का कार्य जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा संचालित किया जाता है, एक उद्योग नहीं है क्योंकि शिक्षा प्रदान का करना अधिक अंश में एक मिशन और व्यवसाय प्रदान करने का कार्य है न कि स्वयं एवं व्यवसाय या व्यापार या कारबार है। चाहे भले ही इस अधिनियम में प्रयुक्त व्यापार और कारवार शब्दों में कितनी ही व्यापकता क्यों न निहित हो । परन्तु बंगलौर वाटर सप्लाई कम्पनी A/R 1978 S.C548 के मामले में उच्चत्तम न्यायालय ने यह अवधारित किया है कि विश्वविद्यालय भी उद्योग कहा जाएगा, यद्यपि कि उसके वे कर्मचारी जो कर्मकार की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आते हैं, उन लाभों के अधिकारी नहीं होंगे जिन लाभों को धारा 2 (घ) के अन्तर्गत कर्मकार कहे जाने वाले कर्मचारी पाते हैं।
इस प्रकार वर्तमान स्थिति यह है कि शिक्षण संस्थायें जिनमें विश्वविद्यालय भी है. एक सीमित अर्थ में उद्योग है।
प्रश्न 11. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? What are main objects of Industrial Disputes Act, 1947?
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।Describe the objects of Industrial Disputes Act.
उत्तर – औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947 के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है –
(1) श्रमिक तथा सेवायोजक के मध्य सौहार्द्रपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना तथा उन्हें बनाये रखने का प्रयास करना।
(2) जाँच-पड़ताल, विवाद निवारण तथा समझौता करने के उद्देश्य से अधिक एवं सेवायोजक के बीच, श्रमिक एवं अमिक के बीच, सेवायोजक एवं सेवायोजक के बीच संगठन बनाने का अधिकार प्रदान करते हुये ऐसी प्रणाली का निर्माण करना जिससे वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।
(3) औद्योगिक बुराइयों, जैसे अवैधानिक हड़ताल व तालाबन्दी पर रोक लगाना।
(4) श्रमिकों की जबरन छुट्टी अथवा छँटनी से उत्पन्न स्थिति से मुक्ति दिलाने का प्रयास।
(5) देश में औद्योगिक शान्ति करना।
प्रश्न 12. उद्योग की संक्षिप्त परिभाषा दीजिये। State briefly definition of Industry.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत उद्योग क्या हैं ? What is Industry within the meaning of Industrial Disputes Act, 1947.
उत्तर– उद्योग की परिभाषा (Definition of Industry)
अधिनियम की धारा 2 (1) के अनुसार, उद्योग का अर्थ सेवायोजक के किसी कारोबार, व्यापार, उपक्रम, निर्माण अथवा अन्य धन्धों से है। इसके अन्तर्गत श्रमिक की कोई भी सेवा, रोजगार, हस्त उद्योग अथवा औद्योगिक धन्धा या कार्य को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है।
उद्योग में निम्नलिखित सम्मिलित नहीं है –
(1) कृषि सम्बन्धी कोई क्रिया
(2) चिकित्सा सम्बन्धी कोई क्रिया।
(3) शैक्षणिक, वैज्ञानिक अनुसन्धान या संस्थायें
(4) खादी या ग्रामोद्योग।
(5) सरकार की कोई भी किया जो सार्वभौमिक कार्यों से सम्बन्ध रखती हो।
(6) कोई घरेलू सेवा।
(7) ऐसी संस्थायें जो उस संगठन के स्वामित्व एवं प्रबन्ध में हैं जोकि पूर्णतः अथवा अधिकांशतः किसी सामाजिक या लोकोपयोगी सेवा में संलग्न हो।
(8) कोई क्रिया-कलाप जो सहकारी समिति या क्लब या उसी प्रकार के समूहों के निकाय द्वारा किया जा रहा हो।
प्रश्न 13. औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तर्गत उद्योग किसे कहते हैं ? क्या नगर निगम उद्योग है ? What is Industry under Industrial Dispute Act 1947 ? Is Nagar Nigam an Industry ?
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तर्गत उद्योग– इस शीर्षक के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न सं. 6 देखें।
क्या नगर निगम उद्योग है ?
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेमचन्द बनाम देहरादून नगर पालिका एवं अन्य (2004) / ILR.J. 135. S.C. के मामले में यह अवधारित किया है कि नगर पालिका के चुंगी तथा गृहकर एकत्रित करने के विभाग को छोड़कर उसके सभी विभाग उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अधीन उद्योग की परिभाषा में आएंगे। अतः नगर पालिका को भी इस निर्णय तथा ‘उद्योग’ की परिभाषा के अनुसार उद्योग माना जाएगा।
प्रश्न 14. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत पंचाट’ की परिभाषा दीजिए। Define ‘Award’ under Industrial Disputes Act, 1947.
अथवा
पंचाट औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत। ‘Award’ under Industrial Disputes Act, 1947.
उत्तर– औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(ख) में ‘पंचाट’ को परिभाषित किया गया है। धारा 2 (ख) के अनुसार ‘पंचाट’ से अभिप्राय किसी औद्योगिक विवाद के-
(क) अंतरिम (interim) या
(ख) अंतिम (Final) या
(ग) उससे सम्बन्धित किसी प्रश्न अथवा
(घ) विचार बिन्दु के निपटारे से है।
यह निर्णय किसी
(i) श्रम न्यायालय (Labour court),
(ii) औद्योगिक न्यायाधिकरण (Industrial Tribunal) या
(iii) राष्ट्रीय औद्योगिक अधिकरण द्वारा दिया जाना चाहिए।
ध्यातव्य है कि इस अधिनियम की धारा 10-क में वर्णित ‘पंच’ द्वारा दिया गया निर्णय भी पंचाटकी उपर्युक्त परिभाषा में सम्मिलित है।
“निर्धारण’ शब्द का अभिप्राय ऐसे औद्योगिक विवाद से सम्बद्ध किसी प्रश्न के निर्धारण में दिये गये ‘आदेश’ अथवा ‘निर्णय’ से है जो अंतिम रूप से या किसी अंतरिम अवधि के लिए किया जाता है। इसी आदेश अथवा विनिश्चय को पंचाट कहा जाता है। अतः ‘पंचाट’ शब्द में अन्तरिम तथा अंतिम दोनों प्रकार के पंचाट सम्मिलित माने जायेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने मेसर्स काक्स एण्ड किंग्स लि. बनाम उनके कर्मकारगण (1994) IS.c.c. -572 में यह अभिनिर्णीत किया है कि ‘पंचाट’ की परिभाषा दो भागों में विभाजित है। पहला भाग किसी औद्योगिक विवाद के अन्तरिम तथा अंतिम निर्णय से सम्बन्ध रखता है जबकि दूसरा भाग औद्योगिक विवाद से सम्बन्धित किसी प्रश्न के निर्णय से सम्बन्धित है। दोनों भागों में जो मूल तत्व देखने को मिलता है, वह है संभावित तथा वास्तविक औद्योगिक विवाद। पंचाट की परिभाषा द्वारा यह स्पष्ट आशय समझ लेना चाहिए कि औद्योगिक विवाद के किसी प्रश्न का निर्णय इसके गुण-दोष के आधार पर लिया जाये। अतएव, श्रम न्यायालयों को पंचाट की परिभाषा सदैव अधिनियम की धारा 19 तथा अन्य प्रावधानों के सन्दर्भ में विचारार्थ प्रस्तुत करनी चाहिए।
प्रश्न 15. ‘श्रमिक’ शब्द में कौन सम्मिलित नहीं है? Who are not included in term ‘Workman’?
उत्तर -श्रमिक (Workman) – श्रमिक से अभिप्राय किसी भी व्यक्ति (जिसमें काम सीखने वाला व्यक्ति भी शामिल है) से है जो किसी उद्योग में रोजगार की स्पष्ट अथवा गर्भित शर्तों के अन्तर्गत मजदूरी या पुरस्कार के बदले शारीरिक, अकुशल, कुशल, तकनीकी संचालन सम्बन्धी, लेखा सम्बन्धी या निरीक्षण सम्बन्धी कार्य के लिये नियुक्त किया गया हो। औद्योगिक विवाद के सम्बन्ध में इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी कार्यवाही के उद्देश्य से ऐसा व्यक्ति भी शामिल है जो विवाद के सम्बन्ध में निकाल दिया गया हो या अलग कर दिया गया हो या जिसकी छँटनी कर दी गयी हो या जिसके निकालने, अलग करने या छँटनी करने से उक्त विवाद उत्पन्न हुआ हो किन्तु श्रमिक में निम्नलिखित व्यक्ति सम्मिलित नहीं हैं-
(1) जो वायु सेना अधिनियम, 1950 या थल सेना अधिनियम, 1950, या नौ सेना अधिनियम, 1957 के अधीन हो, या
(2) पुलिस सेवा या कारोबार के अधिकारी या अन्य कर्मचारी के रूप में नियुक्त हो, अथवा
(3) मुख्यतः प्रबन्धकीय या प्रशासकीय अधिकारी के रूप में नियुक्त हो अथवा
(4) जो सुपरवाईजर क्षमता में नियोजित होते हुए र 1600 मासिक से अधिक मजदूरी प्राप्त करता हो।
प्रश्न 16. औद्योगिक विवाद तथा व्यापारिक विवाद में क्या अन्तर है? What is distinction between Industrial Dispute and Commercial Dispute?
उत्तर – व्यवस्था संघ अधिनियम, 1926 की धारा 2(g) के अनुसार, व्यापारिक विवाद है-
(क) नियोजक तथा कर्मचारियों,
(ख) श्रमिकों एवं श्रमिकों
(ग) नियोजकों तथा नियोजकों के बीच कोई विवाद जो,
(i) रोजगार या गैर-रोजगार,
(ii) रोजगार की शर्तों, या
(iii) किसी व्यक्ति की श्रम की शर्तों में सम्बन्धित हो।
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (k) के अनुसार, औद्योगिक विवाद से आशय नियोजकों तथा श्रमिकों के बीच रोजगार नियोजन की शर्तों या किसी व्यक्ति की श्रम की शर्तों सम्बन्धित विवाद से है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही समान हैं तथा दोनों की परिभाषाओं में भी किसी विशेष प्रकार का अन्तर नहीं है।
प्रश्न 17. तालाबन्दी का अर्थ स्पष्ट कीजिये। Clarify meaning of Lockout.
अथवा
‘कारखाना बंदी’ क्या है ? समझाइए। Explain, what is ‘Lockout’.
उत्तर- तालाबन्दी का अर्थ (Meaning of Lockout ) तालाबन्दी से आशय किसी उद्योग के नियोक्ता द्वारा कार्य के स्थान को बन्द कर देने अथवा काम पर आने वाले कर्मचारी वर्ग को काम न देने से है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2(L) के अनुसार, “किसी सेवायोजक द्वारा नौकरी के स्थान को बन्द कर देने या कार्य के लिये नियुक्त व्यक्तियों की किसी संख्या को काम देने से मना कर देना तालाबन्दी कहलाती है। तालाबन्दी को कारखाना बन्दी भी कहते हैं।
निम्नलिखित तालाबन्दी नहीं है –
(1) सदैव के लिए संस्थान बन्द किया जाना।
(2) अवैध हड़ताल के कारण तालाबन्दी ।
(3) अनियन्त्रित परिस्थितियों के कारण कार्य का बन्द हो जाना।
(4) आवश्यकता से अधिक श्रमिकों की छँटनी।
(5) विलम्ब से आने वाले के प्रवेश पर रोक लगाना।
(6) नई मशीनों की स्थापना के कारण विलम्ब होना।
प्रश्न 18. हड़ताल तथा तालाबन्दी कब अवैध हो जाती है ?When strike and lockout become illegal?
अथवा
किन परिस्थितियों में हड़ताल गैर कानूनी होगी Under what circumstances a strike is illegal ?
उत्तर – औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 24 के अनुसार, निम्नलिखित दशाओं में हड़ताल अवैध होती है।
(i) यदि वह अधिनियम की धारा 22 या 23 के विरुद्ध कार्यवाही हो।
(ii) यदि वह धारा 10 (3) के अन्तर्गत निर्गमित आदेशों का उल्लंघन करती हो।
निम्नलिखित दशाओं में हड़ताल व तालाबन्दी अवैधानिक नहीं है-
(i) यदि किसी अवैधानिक हड़ताल के उपरान्त कोई अवैधानिक तालाबन्दी कर दी जाती है अथवा अवैधानिक तालाबन्दी के प्रत्युत्तर में कोई अवैधानिक हड़ताल कर दी जाती है।
(ii) यदि कोई हड़ताल या तालाबन्दी निर्णय के लिये वाद प्रस्तुत करने से पूर्व प्रारम्भ होती है तथा मामले को बोर्ड या श्रम न्यायालय या किसी ट्रिब्यूनल में भेजने तक चलती है।
कोई भी हड़ताल न्यायपूर्ण है या नहीं यह पूरी तरह से श्रमिकों की माँग पर निर्भर करती है। सभी अवैध हड़ताल अन्यायपूर्ण होती हैं। बकिंघम एण्ड कर्नाटक कम्पनी लि. बनाम श्रमिक के मामलों में निर्णय दिया गया कि उपादेयता उद्योग में बिना सूचना के कुछ घंण्टों के लिये भी काम रोक देना अवैध हड़ताल माना जायेगा।
लेकिन श्रमिकों के निम्नलिखित कार्य “अवैध हड़ताल” नहीं माने जायेंगे-
(1) नार्थ ब्रुक जूट कम्पनी लि. बनाम कर्मचारी के मामले में निर्णय दिया गया कि विवेकीकरण की योजना के अन्तर्गत नियोजक द्वारा कर्मचारी पर थोपे गये अतिरिक्त काम की मनाही जो धारा 33 के उल्लंघन के कारण अवैध है, अवैध हड़ताल नहीं है।
(2) स्वदेशी इण्डस्ट्रीज लि. बनाम उसके कर्मचारी के मामले में कहा गया कि नियोजक को प्रभावित करने के उद्देश्य से करनी पड़ी एक हड़ताल ताकि माँगों के प्रति समझौते का मार्ग खुले; बशर्तें की धारा 22 एवं 23 के प्रावधानों की अवमानना नहीं हो, अवैध हड़ताल नहीं है।
प्रश्न 19. छँटनी की आवश्यक शर्तों को स्पष्ट कीजिये। Clarify essential conditions of Layoff.
उत्तर- छँटनी से सम्बन्धित प्रावधान (Provision Regarding Layoff)
धारा 25 (F) के अनुसार, किसी भी श्रमिक को जो किसी भी उद्योग में किसी सेवायोजक के अधीन कम-से-कम एक वर्ष तक लगातार कार्य करता रहा हो, छँटनी निम्नलिखित शर्तों के आधार पर ही की जा सकती है-
(i) श्रमिक को एक माह की लिखित सूचना दी जाये अथवा नोटिस काल के लिये मजदूरी का भुगतान अग्रिम कर दिया जाये।
(ii) कर्मचारी को पूर्ण वर्ष की सेवाओं के लिये प्रति वर्ष 15 दिन का क्षतिपूर्ति वेतन दिया जाये।
(iii) श्रमिकों को नोटिस देने अथवा भुगतान करने की सूचना 3 दिन के अन्दर सरकार को भेज दी जाये।
जिस श्रमिक ने एक वर्ष में 40 दिन कार्य किया है उसे एक वर्ष की सेवा माना जायेगा।
छंटनी की कार्यविधि – धारा 25(G) के अनुसार, यदि छँटनी के सम्बन्ध में श्रमिकों व सेवायोजकों – के बीच कोई समझौता न हुआ हो तो सेवायोजक सबसे बाद में आने वाले व्यक्ति की छँटनी पहले करेगा। यदि सेवायोजक किसी दूसरे श्रमिक की छँटनी करता है तो उसे लिखित में कारण बताने होंगे।
छँटनी किये गये श्रमिकों की पुनर्नियुक्ति -धारा 25 (H) के अनुसार, छँटनी के उपरान्त जब कभी रिक्त स्थान घोषित किये जायेंगे तो सेवायोजक छँटनी किये गये श्रमिकों को पुनः विनियोजित करने में प्राथमिकता प्रदान करेंगे।
प्रश्न 20. ‘अन्त में आएँ, पहले पाएँ’ क्या है ? समझाइए। Explain the principle of Last come, first go. ‘
उत्तर– ‘अन्तिम आओ, पहले पाओ’ का नियम छँटनी के सम्बन्ध में लागू होता है। जहाँ कामगारों की छँटनी की जा चुकी है और मालिक उनमें से कुछ व्यक्तियों को अपनी सेवा में फिर से रखने का प्रस्ताव करता है। तो वह निर्धारित रीति से छँटनी किये गये कर्मकारों को एक अवसर देगा कि वे पुनर्नियुक्ति के लिए अपना प्रस्ताव करें और छाँटे गये व्यक्ति जो इस प्रकार प्रतिनियुक्ति के लिए प्रस्ताव करते हैं को अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा प्राथमिकता मिलेगी। परन्तु इसके लिए निम्न शर्तों को पूरा करना आवश्यक है-
(1) प्रार्थना पत्र देने वाला छँटनीशुदा कर्मकार है।
(2) वह भारत का नागरिक है।
(3) वह काम पर आने का इच्छुक है।
(4) वह मानसिक तथा शारीरिक रूप से काम करने में सक्षम है तथा
(5) आवश्यकता उसी श्रेणी के कर्मकार की है जिसकी छँटनी हुई थी।
एक महीने से कम की रिक्तता भरने के लिए पुनर्नियुक्ति की बाध्यता कर्मकार के लिए नहीं होती। नियोजक का यह कर्तव्य होता है कि नियुक्ति करके उक्त स्थानों की भर्ती करने के कम से कम 10 दिन पहले अपने स्थापना के किसी सुगम स्थान के सूचना पट्ट पर इस हेतु नोटिस लगा दें ताकि छँटनीशुदा कर्मकारों को भी इसकी जानकारी हो जाये।
प्रश्न 21. कामबंदी तथा छँटनी में अन्तर स्पष्ट कीजिये। Clarify between layoff and retrenchment.
उत्तर- कामबंदी तथा छँटनी में अन्तर
कामबन्दी (Layoff)
1) कामबन्दी का कारण नियोक्ता के नियन्त्रण से बाहर होता है।
2) कामबन्दी में श्रमिक की सेवा समाप्त नहीं की जाती है बल्कि अस्थायी रूप से कार्य देने में असमर्थता प्रकट की जाती है।
3) कामबन्दी की दशा में श्रमिकों को काम पर अनिवार्य रूप से उपस्थित होना पड़ता है।
4) कामबन्दी की दशा में श्रमिक को थोड़े समय के लिए काम से वंचित होना पड़ता है।
5) कामबन्दी की दशा में सभी श्रमिक प्रभावित होते हैं।
6) कामबन्दी की दशा में संस्थान का कार्य बन्द रहता है।
छँटनी (Retrenchment)
1) छँटनी का कारण संस्थान में श्रमिकों का आवश्यकता से अधिक उपलब्ध होना होता है।
2) छँटनी में अतिरिक्त श्रमिकों की सेवा अस्थायी रूप से समाप्त कर दी जाती है।
3) छँटनी में श्रमिकों को काम से निकाल दिया जाता है।
4) छँटनी में श्रमिकों को लम्बे समय तक काम नहीं मिल पाता ।
5) छँटनी की दशा में संस्थान के कुछ ही श्रमिक प्रभावित होते हैं।
6) छँटनी की दशा में संस्थान का कार्य निर्बाध रूप से चलता है।
प्रश्न 22. तालाबंदी और छँटनी में अन्तर । Difference between Lockout and Retrenchment.
उत्तर – तालाबंदी और छँटनी में निम्नलिखित अन्तर है-
तालाबंदी (Lockout)
1) तालाबंदी अधिनियम की धारा 2 (ठ) में परिभाषित है।
2) “तालाबंदी” अस्थायी तौर पर किया जाता है।
3) तालबंदी की सूचना नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों तथा निर्धारित अधिकारियों को दी जाती है।
4) तालाबंदी के दौरान श्रमिक काम नहीं करते हैं ।
5) तालाबंदी में नियोजक एवं कर्मकार के सम्बन्ध सदैव के लिए समाप्त नहीं होते हैं।
6) तालाबंदी नियोक्ताओं द्वारा की जाती है।
7) ‘तालाबंदी’ नियोक्ताओं के हित के लिए होती है।
8) तालाबंदी की प्रकृति सुरक्षात्मक होती है।
9) तालाबंदी सदैव कर्मकारों के साथ प्रतिशोध की भावना से की जाती है।
10) ‘तालाबंदी’ सदैव कार्य-स्थान से संबंधित होती है।
छँटनी (Retrenchment)
1) जबकि छँटनी को अधिनियम की धारा 2 (ट-ट-ट) में परिभाषित किया गया है।
2) जबकि छँटनी स्थायी तौर पर हमेशा के लिए की जाती है।
3) जबकि छँटनी की सूचना श्रमिकों को अधिकारियों द्वारा दी जाती है।
4) जबकि छँटनी के दौरान श्रमिकों से काम नहीं करवाया जाता है।
5) जबकि छँटनी के बाद नियोजक एवं कर्मकारों के सम्बन्ध सदैव के लिए समाप्त हो जाते हैं।
6) जबकि छँटनी अधिकारियों द्वारा की जाती है।
7) जबकि ‘छँटनी’ श्रमिकों के अहित के लिए होती है।
8) जबकि छँटनी की प्रकृति सुरक्षात्मक नहीं होती है।
9) जबकि छँटनी कर्मकार की उद्देश्य कार्यभार से अधिक कर्मकारों की छँटनी करना है।
10) जबकि ‘छँटनी’ कर्मकार की सेवाओं से संबंधित होती है।
प्रश्न 23. किसी अवैध हड़ताल को उत्साहित करने वाले का दायित्व पर टिप्पणी लिखिये। State liability of a person inducing a strick.
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 27 के अनुसार, जो व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन अवैध हड़ताल या तालाबन्दी में भाग लेने के लिए दूसरों को उकसायेगा या उद्दीप्त करेगा या उसे अग्रसर करने में कोई कार्य करेगा तो वह 6 माह का कारावास या ₹1000 का जुर्माना या दोनों से दण्डनीय होगा।
धारा 25 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी अवैध हड़ताल या तालाबन्दी को प्रत्यक्षतः अग्रसर करने या उसका समर्थन करने में किसी धन या व्यय या उपयोजन जानते हुए नहीं करेगा। धारा 28 के अनुसार, जो व्यक्ति किसी अवैध हड़ताल या तालाबन्दी को प्रत्यक्षतः अग्रसर करने या उसके समर्थन में जाते हुए धन का व्यय या उपयोजन करेगा, वह कारावास से जिसकी अवधि 6 माह या ₹ 1000 जुर्माना या दोनों से दण्डनीय होगा।
प्रश्न 24. जनोपयोगी सेवाओं में हड़ताल एवं तालाबंदी पर प्रतिबन्ध कब लगाया जा सकता है ? When ban may be imposed on the strick and layoff on public beneficial services.
उत्तर- जनोपयोगी सेवाओं में हड़ताल पर प्रतिबन्ध
(Strike in Public Utility Services)
अधिनियम की धारा 22 (1) के अनुसार, जनोपयोगी सेवा में कार्यरत कोई भी व्यक्ति अनुबन्ध के भंग होने पर तब तक हड़ताल नहीं करेगा जब तक कि –
(i) हड़ताल करने से 6 सप्ताह पूर्व हड़ताल की सूचना सेवायोजकों को न दी गई हो, या
(ii) ऐसी सूचना देने के बाद 14 दिन समाप्त हो गये हों।
(iii) ऐसी किसी सूचना में निर्दिष्ट हड़ताल आरम्भ करने की तिथि न समाप्त हो गई हो।
(iv) किसी समझौता अधिकारी के समक्ष कोई समझौता कार्यवाही विचारधीन हो तथा ऐसी समझौता कार्यवाही की समाप्ति के बाद कम से कम 7 दिन की अवधि समाप्त न हो जाये।
जनोपयोगी सेवा में तालाबन्दी पर प्रतिबन्ध अधिनियम की धारा 22 (2) के अनुसार, जनोपयोगी सेवा का संचालन करने वाला कोई भी व्यक्ति तब तक तालाबन्दी नहीं करेगा जब तक कि –
(i) तालाबन्दी करने के 6 माह पूर्व तालाबन्दी की सूचना श्रमिकों को न दे दी गयी हो।
(ii) ऐसी सूचना देने के पश्चात् 14 दिन समाप्त हो गये हों।
(iii) ऐसी सूचना में निर्दिष्ट तालाबन्दी प्रारम्भ करने की तिथि समाप्त न हो गयी हो।
(iv) किसी समझौता अधिकारी के समक्ष कोई समझौता कार्यवाही विचारधीन हो तथा ऐसी समझौता कार्यवाही की समाप्ति के पश्चात् 7 दिन की अवधि समाप्त न हो जाये।
प्रश्न 25. ‘जनोपयोगी सेवा’ को परिभाषित कीजिये। Define Public Utility Services’.
उत्तर- ‘जनोपयोगी सेवा’ (Public Untility Services)
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा (N) के अनुसार, जनोपयोगी सेवाओं से आशय निम्नलिखित सेवाओं से है-
(1) रेलवे सेवा या वायुसेवा जो यात्रियों या माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाती ले जाती है।
(2) डाक तार एवं टेलीफोन सेवायें।
(3) औद्योगिक संस्थान का वह अनुभाग जिसकी कार्यशीलता पर संस्थान अथवा श्रमिकों की सुरक्षा का भार हो।
(4) कोई भी उद्योग जी जनता की जल, शक्ति एवं बिजली सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो।
(5) सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु कोई भी मल वाहन या सफाई व्यवस्था।
(6) प्रथम अनुसूची में उल्लेखित कोई भी उद्योग जो जनोपयोगी घोषित किया गया हो, ऐसे उद्योग के अन्तर्गत-
(i) बैंकिंग,
(ii) कोयला,
(iii) सूती वस्त्र उद्योग,
(iv) सीमेन्ट,
(v) खाद्य सामग्री,
(vi) लोहा एवं इस्पात,
(viii) शासकीय टकसाल,
(viii) प्रतिरक्षा संस्थान
(ix) भारत सुरक्षा प्रेस,
(x) तेल सेवा क्षेत्र,
(xi) अग्निशमन सेवायें,
(xii) ताँबा, सीसा, जस्ता, खदान
(xiii) अस्पताल एवं चिकित्सालय में होने वाली सेवायें।
(xiv) परिवहन (रेलवे के अतिरिक्त) जो यात्रियों अथवा सामान को जल स्थल मार्ग से लाते एवं ले जाते हैं।
प्रश्न 26. औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत् छंटनी की कार्यविधि पर संक्षिप्त में प्रकाश डालिए। Throw light on the procedurs of Layoff (Retrenchment) under Industrial Disputes Act.
उत्तर- छँटनी से सम्बन्धित प्रावधान
(Provisions Regarding Layoff)
धारा 25(F) के अनुसार, किसी भी श्रमिक को जो किसी भी उद्योग में किसी सेवायोजक के अधीन कम-से-कम एक वर्ष तक लगातार कार्य करता रहा हो, छँटनी निम्नलिखित शर्तों के आधार पर की जा सकती है-
(i) श्रमिक को एक माह की लिखित सूचना दी जाये अथवा नोटिस काल के लिये मजदूरी का भुगतान अग्रिम कर दिया जाये।
(ii) कर्मचारी को पूर्ण वर्ष की सेवाओं के लिये प्रतिवर्ष 15 दिन का क्षतिपूर्ति वेतन दिया जाये।
(iii) श्रमिकों को नोटिस देने अथवा भुगतान करने की सूचना 3 दिन के अन्दर सरकार को भेज दी जाये।
जिस श्रमिक ने एक वर्ष में 40 दिन कार्य किया है उसे एक वर्ष की सेवा माना जायेगा।
छँटनी की कार्यविधि – धारा 25 (G) के अनुसार, यदि छँटनी के सम्बन्ध में श्रमिकों व सेवायोजकों के बीच कोई समझौता न हुआ हो तो सेवायोजक सबसे बाद में आने वाले व्यक्ति की छँटनी पहले करेगा। यदि सेवायोजक किसी दूसरे श्रमिक की छँटनी करता है तो उसे लिखित में कारण बताने होंगे।
छंटनी किए गए श्रमिकों की पुनर्नियुक्ति – धारा 25 (H) के अनुसार, छैंटनी के उपरान्त जब कभी रिक्त स्थान घोषित किए जायेंगे तो सेवायोजक अँटनी किए गए श्रमिकों को पुनः विनियोजित करने में प्राथमिकता प्रदान करेंगे।
प्रश्न 27. औद्योगिक विवाद के क्या कारण हैं? What are causes of Industrial Disputes?
उत्तर- औद्योगिक संघर्षो के कारण
(Causes of Industrial Disputes)
औद्योगिक संघर्ष के कारणों का अध्ययन निम्नांकित तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(A) आर्थिक कारण (Economic Causes) औद्योगिक संघर्ष के प्रमुख आर्थिक कारण निम्नलिखित है-
(1) अधिक मजदूरी की माँग – महँगाई में निरन्तर वृद्धि के कारण श्रमिकों की क्रय शक्ति लगातार गिरती जा रही है। अत: श्रमिक अपनी मजदूरी में वृद्धि कराने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाते हैं।
(2) बोनस की माँग – श्रमिक उद्योगों के लाभ में से अधिक से अधिक भाग प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बोनस न मिलने अथवा बोनस कम मिलने के कारण भी हड़ताल हो जाती है।
(B) प्रबन्धक एवं व्यवस्था सम्बन्धीकरण – इस सम्बन्ध में औद्योगिक संघर्ष के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) विवेकीकरण – औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने या मितव्ययिता की दृष्टि से कारखाने में विवेकीकरण की योजनायें लागू करने के कारण भी हड़ताल होती हैं।
(2) प्रबन्धकों का दुर्व्यवहार – जब प्रबन्धक एवं निरीक्षक श्रमिकों के साथ अनुचित एवं असम्मानपूर्ण व्यवहार करते हैं तो वे इसके प्रतिरोध में हड़तालें कर देते हैं।
(3) सामूहिक सौदेबाजी का अभाव – भारतीय श्रमिकों व संयोजकों के बीच प्रायः सम्पर्क का अभाव रहता है। परिणामस्वरूप छोटी-छोटी बातों पर हड़तालें हो जाती हैं।
(4) छुट्टियों के लिये दबाव देना – जब श्रमिकों को धार्मिक व सामाजिक अवसरों पर वेतन सहित अवकाश नहीं दिया जाता, तो वे हड़ताल कर देते हैं।
(C) राजनैतिक कारण – भारत में श्रम संघों का नेतृत्व बाह्य नेताओं के हाथ में है। भारतीय श्रमिक अशिक्षित होने के कारण बहकावे में आ जाता है। स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी सरकार की अन्यायपूर्ण नीति और स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप, मुख्य रूप से औद्योगिक संघर्षों के लिए उत्तरदायी रहा है।
प्रश्न 28. उद्योग की परिभाषा में क्या सम्मिलित नहीं है?What is not included in definition of Industry?
उत्तर- अधिनियम की धारा 2 (I) के अनुसार उद्योग का तात्पर्य सेवायोजक के किसी कारोबार, व्यापार, उपक्रम, निर्माण अथवा अन्य धंधों से है। इसके अतिरिक्त श्रमिक की कोई भी सेवा, रोजगार, हस्त उद्योग अथवा औद्योगिक धंधा या कार्य को भी इसमें सम्मिलित किया जा सकता है।
परन्तु उद्योग में निम्न सम्मिलित नहीं है –
(1) कृषि से संबंधित कोई भी क्रिया,
(2) चिकित्सा संबंधी कोई क्रिया,
(3) शैक्षणिक वैज्ञानिक अनुसंधान या प्रशिक्षण संस्थायें,
(4) खादी और ग्रामोद्योग,
(5) सरकार की कोई भी क्रिया जो सार्वभौमिक कार्यों से संबंध रखती है।
(6) कोई घरेलू सेवा,
(7) ऐसी संस्थायें जो उस संगठन के स्वामित्व एवं प्रबंध में हैं जो कि पूर्णतः अथवा अधिकांशतः किसी सामाजिक अथवा लोकोपयोगी सेवा में संलग्न हैं।
(8) कोई क्रियाकलाप जो सहकारी समिति या क्लब या उसी प्रकार के समूहों के निकायों द्वारा किया जा रहा हो।
प्रश्न 29. औसत वेतन क्या है? टिप्पणी लिखिये। What is Average Pay? Comment.
उत्तर– औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 (अअ) द्वारा औसत वेतन को परिभाषित करने के उद्देश्य से कामगारों को तीन वर्गों में रखा गया है जो निम्न प्रकार से हैं –
(1) मासिक भुगतान पाने वाले कामगार,
(2) साप्ताहिक भुगतान पाने वाले कामगार,
(3) दैनिक भुगतान पाने वाले कामगार ।
मासिक भुगतान पाने वाले कामगारों के संबंध में औसत वेतन’ का तात्पर्य है तीन पूर्ण कैलेण्डर – मास की औसत मजदूरी जो उसे देय हो।
साप्ताहिक भुगतान पाने वाले कामगार के मामले में चार सप्ताह की मजदूरी का औसत जो उसे देय हो ।
दैनिक मजदूरी पाने वाले कामगार के मामले में 12 पूर्ण काम के दिनों की मजदूरी का औसत जो उसे देय हो।
प्रश्न 30. समझौता अधिकारी तथा समझौता बोर्ड में क्या अन्तर है? What is distinction between Conciliation Officer and Board?
उत्तर- समझौता अधिकारी तथा समझौता बोर्ड में निम्न अन्तर हैं-
(1) समझौता अधिकारी स्वयं अपनी पहल पर धारा 12 (2) के अधीन किसी विवाद में हस्तक्षेप कर सकता है और दोनों पक्षों में समझौता करवाता है परन्तु समझौता बोर्ड समुचित सरकार द्वारा कोई विवाद उसे सौंपे जाने पर ही कार्यवाही प्रारम्भ कर सकता है।
(2) समझौता अधिकारी एकल निकाय होता है जबकि समझौता बोर्ड बहुसदस्यीय होता।
(3) समझौता अधिकारी 14 दिन में अपनी रिपोर्ट समुचित सरकार को भेजता है जबकि बोर्ड को इस हेतु 2 माह का समय दिया गया है।
(4) समुचित सरकार को भेजी गई बोर्ड की रिपोर्ट द्वारा धारा 17 के अधीन पंचाटों द्वारा प्रकाशित की जाती है जबकि समझौता अधिकारी की रिपोर्ट इस प्रकार प्रकाशित नहीं की जाती है।
प्रश्न 31. न्यायिक न्यायालय एवं न्यायाधिकरण में अन्तर बताइये। State distinction between Judicial Court and Tribunals.
उत्तर – (1) न्यायिक न्यायालयों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वे देश की सामान्य विधि प्रशासन के रूप के अंग के रूप में दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व सभी मामलों का परीक्षण कर सकते हैं। इनके अधिकार एवं क्षेत्राधिकारी का निर्धारण देश सामान्य कानून द्वारा किया जाता है परन्तु न्यायाधिकरणों का गठन औद्योगिक विवाद अधिनियम के अधीन समुचित सरकार द्वारा किया जाता है। इसका क्षेत्राधिकार सरकार द्वारा सौंपे गये औद्योगिक विवाद तक ही सीमित है।
(2) न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपील न्यायालय में की जा सकती है परन्तु न्यायालय के निर्णय से अपील किसी न्यायाधिकरण में नहीं की जा सकती है।
(3) न्यायिक न्यायालयों की एक क्रमबद्ध श्रृंखला होती है जिसके शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय तथा सबसे नीचे अधीनस्थ न्यायालय होते हैं परन्तु न्यायाधिकरणों की ऐसी कोई श्रृंखला नहीं होती है।
(4) न्यायिक न्यायालय देश के विधानमंडलों द्वारा बनाये गये कानूनों को वैधता/अवैधता का निर्वचन करते हैं। इन्हें न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है परन्तु न्यायाधिकरणों के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं होती है।
(5) न्यायिक न्यायालयों के निर्णय से पक्षकार तथा सरकार सभी वाध्य होते हैं और उनकी अवमानना करने पर पक्षकारों को दंडित किया जा सकता है परन्तु न्यायाधिकरणों के पंचाों से केवल पक्षकार बाध्य होते हैं और वह भी तभी जबकि उनका प्रकाशन सरकारी गजट में कर दिया जाता है।
(6) न्यायिक निर्णय में सरकार को परिवर्तन नहीं कर सकती। सरकार को मूलरूप में ही इन निर्णयों को लागू करना होता है जबकि न्यायाधिकरणों के पंचाट में सरकार संशोधन भी कर सकती है और उसे अस्वीकार भी कर सकती है।
प्रश्न 32. पंच निर्णय तथा न्यायाधिकरण में अन्तर स्पष्ट कीजिये। Clarify distinction between Arbitration and Adjudication.
उत्तर – उक्त दोनों में अन्तर निम्न सारणी द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
पंचनिर्णय
1-पंच निर्णय की उत्पत्ति पक्षकारों के समझौते पर आधारित होती है।
2- पंच निर्णय बहुसदस्यीय होता है जिसमें नियोजक तथा कर्मकारों के प्रतिनिधि समान संख्या में रहते हैं।
3- पंच निर्णय में एक अम्पायर भी होता है।
4- पंचों की योग्यता का निर्धारण नहीं किया गया है।
5- पंच निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं होती है।
6- पंच निर्णय में सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करती है।
न्यायाधिकरण निर्णय
1- न्याय निर्णय प्रार्थना-पत्र दिये जाने या निर्देशन करने पर किया जा सकता है।
2- न्याय निर्णय एक सदस्यीय होता है। इसमें केवल एक ही पीठासीन अधिकारी होता है।
3- न्याय निर्णयन में अम्पायर नियुक्ति की व्यवस्था नहीं होती है।
4- न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी अर्हता निश्चित होती है।
5- न्याय निर्णयन के विरुद्ध अपील का प्रावधान होता है।
6- न्याय निर्णय के पंचाट को सरकार संशोधित कर सकती है, उसे रद्द भी कर सकती है। इसका प्रवर्तन सरकार पर निर्भर करता है।
प्रश्न 33. जबरन छुट्टी तथा तालाबंदी में विभेद कीजिये। Distinguish between Layoff and Retrenchment.
उत्तर- जबरन छुट्टी तथा तालाबंदी में विभेद निम्न प्रकार से हैं-
(1) जबरन छुट्टी की कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं होती है। तात्कालिक कारणों से भी जबरन छुट्टी की जा सकती है जबकि ईंटनी की प्रक्रिया निर्धारित होती है तथा नियोजक को ‘Last Come and First Go’ सिद्धांत का अनुपालन करना पड़ता है।
(2) जबरन छुट्टी एक साल में 45 दिन से अधिक नहीं हो सकती जबकि छँटनी की कोई निश्चित समय सीमा नहीं है।
(3) जबरन छुट्टी की दशा में नियोजक को देय वेतन तथा महँगाई भत्ते का 50% नियोजिती को देय होता है परन्तु छँटनी के मामले में सेवा की अवधि वर्ष से संगणित की जाती है।
(4) छँटनी के मामले में नियोजक के लिए वरीयता सूची का रखना आवश्यक है। वही छँटनी का आधार बनाता है जबकि जबरन छुट्टी का आधार वरीयता सूची नहीं होती है।
(5) जबरन छुट्टी में किसी कर्मकार को नियोजन देने में नियोजक की असफलता, असमर्थता/इंकारी धारा 2 (टटट) में उल्लिखित कारणों पर आधारित होता है परन्तु छँटनी में किसी कर्मकार की सेवा समाप्ति का कारण मुख्यतः कर्मकारों का नियोजन में आवश्यकता से अधिक संख्या में लगे रहना होता है।
(6) जबरन छुट्टी के मामले में नियोजक एक अस्थायी अवधि के लिए किसी कर्मकार को नियोजन देने में असफल/असमर्थ रहता है या नियोजन देने से इंकार कर देता है परन्तु छँटनी के मामलों में नियोजक किसी कर्मकार या कर्मकारों को उसके उनके नियोजन से स्थायी रूप से वंचित कर देता है।
(7) श्रम शक्ति का आधिक्य जबरी छुट्टी का कारण कभी भी नहीं होता जबकि छँटनी का यह मुख्य कारण होता है।
(8) नियोजक तथा कर्मकार के बीच विद्यमान नियोजन का संबंध जबरी छुट्टी में समाप्त नहीं होता बल्कि निलंबित रहता है परन्तु छँटनी में यह सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
(9) छँटनी में पुन: नियुक्ति का अवसर विद्यमान रहता है परन्तु जबरी छुट्टी में नहीं।
(10) जबरी छुट्टी तथा छँटनी की धारणाओं की न केवल प्रकृति एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है बल्कि इनकी प्रक्रिया तथा प्रतिकर संबंधी परिणामों में भी अन्तर होता है।
प्रश्न 34. तालाबंदी क्या नहीं है? What is not Lockout?
उत्तर- निम्न कार्य तालाबंदी की श्रेणी में नहीं आते हैं-
(1) सदैव के लिए संस्थान बन्द किया जाना।
(2) अवैध हड़ताल के कारण तालाबंदी।
(3) अनियन्त्रित परिस्थितियों के कारण कार्य का बन्द हो जाना।
(4) आवश्यकता से अधिक श्रमिकों की छँटनी।
(5) विलम्ब से आने वाले के प्रवेश पर रोक लगाना।
(6) नई मशीनों की स्थापना के कारण विलम्ब होना।
प्रश्न 35. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत दण्डनीय अपरायों के संबंध में न्यायालयों का क्षेत्राधिकार क्या है?What is jurisdiction of courts about punishable offences and Industrial Disputes Act, 1947.
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 34 के अनुसार कोई न्यायालय इस अधिनियम अधीन दण्डनीय-
(1) किसी अपराध का, या
(2) ऐसे किसी अपराध के दुष्प्रेरण विषयक किसी अपराध का,
(3) उचित सरकार द्वारा, या
(4) उसके द्वारा प्राधिकृत अधिकारी द्वारा किये परिवाद – को छोड़कर संज्ञान नहीं करेगा।
निम्न श्रेणी के मजिस्ट्रेटों के न्यायालय को छोड़कर कोई अन्य इस अधिनियम के अधीन किये गये अपराध का परीक्षण नहीं करेगा अर्थात् –
(1) प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट न्यायालय, या
(2) प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट का न्यायालय।
धारा 34 के अन्तर्गत समुचित सरकार को निम्न दो अधिकार
(क) परिवाद करने का, तथा प्रदान किये गये हैं-
(ख) परिवाद के लिए किसी को प्राधिकृत करने का।
इस प्रकार उचित सरकार परिवाद करने हेतु किसी को भी प्राधिकृत कर सकती है।
प्रश्न 36. अवैध हड़ताल तथा तालाबंदी में भाग लेने से इंकार करने वालों को अधिनियम क्या संरक्षण प्रदान करता है? What protection is provided to persons by the Act not participating in illegal strick and lockout?
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 35 (i) द्वारा निम्न किसी बात से उन व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करती है जो अवैध हड़ताल तथा तालाबंदी में भाग लेने से इंकार करते हैं-
(क) ट्रेड यूनियन से निष्कासन के विरुद्ध,
(ख) किसी सोसायटी से निष्कासन के विरुद्ध,
(ग) किसी अधिकार या प्रलाभ से वंचित होने से जिसे पाने के उसके विधिक प्रतिनिधि अन्यथा
(घ) संघ अथवा सोसायटी के दूसरे सदस्यों की तुलना में प्रत्यक्षतः या परोक्षत: किसी निर्योग्यता हकदार होते। के अधीन रखे जाने से।
प्रश्न 37. अधिनियम द्वारा अवैध हड़तालों तथा कारखाना बंदियों को आर्थिक सहायता पहुँचाने पर क्या प्रतिबंध लगाये गये हैं? What restrictions have been imposed by the Act on providing economic assistance to illegal stricks and layoff?
उत्तर- इस अधिनियम की धारा 28 द्वारा अवैध हड़तालों तथा कारखाना बंदी, दोनों को आर्थिक सहायता पहुँचाने को प्रतिबंधित किया गया है। इस धारा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जान-बूझकर किसी अवैध हड़ताल या कारखाना बंदी को प्रत्यक्ष बढ़ावा देने या समर्थन करने में किसी धन का व्यय या प्रयोग नहीं करेगा। इस प्रकार, इस धारा के आवश्यक तत्व निम्न हैं-
1. धन का व्यय करना अथवा लगाना,
2. किसी अवैध हड़ताल या कारखाना बंदी के प्रत्यक्ष अग्रसरण में धन का व्यय करना या लगाना।
3. हड़ताल अथवा कारखाना बंदी यथार्थतः अवैध हो, तथा
4. जो व्यक्ति धन का व्यय कर रहा हो, उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि उक्त हड़ताल या कारखाना बंदी अवैध है।
प्रश्न 38. अवैध हड़तालों तथा कारखाना बंदियों के प्रति अधिनियम में शास्ति की क्या व्यवस्था है? What sanctions have been provided by the Act for illegal stricks and layoff?
उत्तर- अधिनियम की धारा 26 (1) में अवैध हड़तालों तथा कारखाना बंदियों के लिए शास्ति का प्रावधान किया गया है। परन्तु इस धारा के अधीन किसी कर्मकार को दण्डित करने हेतु दो शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
(1) कोई कर्मकार –
(i) हड़ताल को प्रारम्भ करें,
(ii) निरन्तरित बनाये रखें, या
(iii) अन्य तरीकों से उस हड़ताल को अग्रसारित करने हेतु कार्य करें, तथा
(2) ऐसी हड़ताल इस अधिनियम के अन्तर्गत अवश्य ही अवैध होनी चाहिए।
कोई भी कर्मकार जो इस प्रकार की अवैध हड़ताल में शामिल होने का दोषी पाया जाता है वह ऐसी अवधि के कारावास के दण्ड के दायित्वाधीन होगा जो कि एक मास के विस्तार तक हो सकता है या पचास के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
जब कोई नियोजक अवैध तालाबंदी का दोषी होता है तो वह एक मास तक के कारावास से या र 100 के जुमनि से या दोनों से दंडित किया जा सकता है। जबकि ऐसा नियोजक –
(क) कारखाना बंदी को प्रारम्भ करता है,
(ख) निरन्तरित बनाये रखता है, या
(ग) अन्य तरीकों से उसको अग्रसारित करने हेतु कार्य करता है, तथा
(घ) ऐसा कारखाना बंदी इस अधिनियम के अन्तर्गत अवैध है।
प्रश्न 39. पंचाट भंग की दशा में शास्ति का क्या प्रावधान है? What sanction is provided in case of breach of Award.
उत्तर- पंचाट अथवा निपटाय भंग हेतु शास्ति के संबंध में निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
(1) कोई पंचाट या निपटारा, भंग के समय प्रवर्तन में हो,
(2) मुक्त पंचाट या निपटारा वैध हो,
(3) पंचाट या निपटारे से अभियुक्त आवद्ध हो,
(4) अभियुक्त व्यक्ति अवश्य हो ऐसे पंचाट तथा निपटारे के भंग हेतु दायी हो, तथा
(5) भंग की शिकायत समुचित सरकार द्वारा की गयी है। उपर्युक्त शर्तों की पूर्ति पर अभियुक्त व्यक्ति 6 मास के कारावास अथवा जुर्माने अथवा दोनों से दण्डनीय होगा।
यदि भंग निरन्तर जारी रहता है तो प्रथम सिद्ध दोष के उपरान्त ऐसे प्रत्येक दिन के लिए ₹ 200 तक जुर्माना किया जा सकता है जब तक कि वह भंग निरन्तरित रहता है।
प्रश्न 40. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में औद्योगिक विवाद के निस्तारण के लिए क्या तंत्र है ? What is the machinery for settlement of industrial dispute under the Industrial Dispute Act, 1947?
उत्तर-
औद्योगिक विवाद के निस्तारण के लिए तंत्र
(Mechanism to Solve Industrial Disputes)
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 (i) एवं 10 (1-क) में औद्योगिक विवाद के निस्तारण के लिए निम्न तंत्र है-
(1) समझौता बोर्ड,
(2) जाँच न्यायालय,
(3) श्रम न्यायालय,
(4) औद्योगिक न्यायाधिकरण तथा
(5) राष्ट्रीय न्यायाधिकरण।
अधिनियम की धारा 10 के अनुसार यदि समुचित सरकार का यह समाधान हो जाता है कि कोई औद्योगिक विवाद अस्तित्व में है अथवा उसकी आशंका उत्पन्न हो गयी है तो वह लिखित रूप में आदेश द्वारा निम्न कार्यवाही कर सकती है-
(1) कथित औद्योगिक विवाद को निपटाने हेतु समझौता बोर्ड को निर्देशित कर सकती है.
(2) विवाद से संबंधित किसी विषय की जाँच हेतु किसी जाँच न्यायालय को निर्देशित कर सकता है।
(3) यदि कोई औद्योगिक विवाद अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में वर्णित किये गए है तो विवाद से संबंधित या उसकी सुसंगति में प्रतीत होने वाले किसी विषय को न्याय निर्णयन हेतु श्रम न्यायालय को सुपुर्द किया जा सकता है,
(4) यदि कोई औद्योगिक विवाद द्वितीय या तृतीय अनुसूची में वर्णित किया गया है तो उस विवाद को या उसकी सुसंगति में प्रतीत होने वाले उस विषय को न्याय निर्णयन हेतु किसी औद्योगिक अधिकरण को निर्देशित किया जा सकता है।
(5) अधिनियम की धारा 10(1- क) के अनुसार केन्द्रीय सरकार किसी औद्योगिक विवाद को न्याय निर्णयन हेतु राष्ट्रीय अधिकरण को निम्न परिस्थितियों में निर्देशित कर सकती है-
(क) यदि कोई औद्योगिक विवाद अस्तित्व में हो या उसके उत्पन्न होने की आशंका हो,
(ख) उस विवाद में कोई राष्ट्रीय महत्व का प्रश्न अन्तर्निहित हो,
(ग) विवाद इस प्रकृति का होना चाहिए कि उसके एक से अधिक राज्यों में स्थित औद्योगिक प्रतिष्ठानों का हित निहित हो अथवा ऐसे संस्थान उस विवाद से प्रभावित हो।
(घ) यदि केन्द्रीय सरकार यह आवश्यक समझती है कि उक्त विवाद का न्यायनिर्णयन राष्ट्रीय अधिकरण द्वारा किया जाना उपयुक्त होगा।
ऐसी स्थिति में समुचित सरकार किसी भी समय लिखित आदेश द्वारा किसी विवाद को राष्ट्रीय अधि करण को निर्देशित कर सकती है चाहे वह विवाद द्वितीय अनुसूची में निर्दिष्ट किया गया हो अथवा तृतीय “अनुसूची में।
प्रश्न 41. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत ‘पंचाट’ की परिभाषा दीजिए। Define “Award” under the Industrial Dispute Act, 1947.
उत्तर- पंचाट (Award) – पंचाट शब्द औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 2 (ख) में परिभाषित है। किसी औद्योगिक विवाद के निपटारे में दिये गए अंतिम या अंतरिम विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 क में उल्लिखित निकायों जैसे श्रम न्यायालय, औद्योगिक न्यायाधिकरण अथवा राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण के द्वारा दिये गए विवाचन को पंचाट के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। इन निकायों द्वारा औद्योगिक मामलों’ का निर्धारण किया जाता है। यहाँ निर्धारण से तात्पर्य एक औद्योगिक विवाद या ऐसे विवाद से संबंधित किसी प्रश्न के निर्धारण के संबंध में दिये गए आदेश या निर्णय से है जोकि अंतिम रूप में या एक अंतरिम अवधि के लिए किया गया है। इस आदेश या निर्णय को ही पंचाट कहते है। यहाँ पर यह स्पष्ट है कि न्यायाधिकरण केवल ऐसे अंतरिम पंचाट दे सकते है जिन्हें कि वे अंतिम पंचार के समय देने के लिए सक्षम हों क्योंकि जिस अनुतोष को वह न्यायाधिकरण अंतिम निर्धारण प्रदान करने में सक्षम न हो वहाँ पर यदि वह स्वीकृत भी कर देता है तो वह कार्यवाहियों के बीच किसी भी स्तर पर उसके प्राधिकार से बाहर कहा जायेगा। इस प्रकार पंचाट की परिभाषा से स्पष्ट है कि इसके अन्तर्गत अंतिम एवं अंतरिम दोनों प्रकार के पंचाट आते है।
प्रश्न 42. पंच निर्णय से आप क्या समझाते हैं ? पंचों की नियुक्ति के संबंध में नियम एवं शर्तें क्या हैं ? What do you know about Arbritration? What are the rules conditions to the appointment of Arbitrators ?
उत्तर – पंच निर्णय तथा इसकी नियुक्ति से संबंधित उपबंध श्रमिक विधियों में वर्णित नहीं है। पंच निर्णय से संबंधित उपबंध मध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम 1996 में किये गए है। इसकी धारा 2(क) के अनुसार किसी भी पंच निर्णय से अभिप्रेत है चाहे स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा प्रशासित किया जाये या न किया जाय।
पंचनिर्णय की नियुक्ति एवं शर्ते – जब तक पक्षकार अन्यथा करार न करें तब तक किसी भी राष्ट्र का व्यक्ति पंच नियुक्ति किया जा सकता है।
पंच को नियुक्त करने के लिए पक्षकार स्वतंत्र होते है अर्थात् पक्षकारों द्वारा पंचों की नियुक्ति की जाती है। यदि पक्षकार पंच की नियुक्ति नहीं कर पाते है तब प्रत्येक पक्षकार एक पंच की नियुक्ति करेगा तथा इस प्रकार नियुक्ति पंच एक तीसरे पंच की नियुक्ति करेंगे जो उस मामले में पीठासीन पंच के रूप में कार्य में करेगा। इनकी नियुक्ति की निम्न प्रक्रिया होगी और
(i) एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से वैसा करने के लिए एक अनुरोध की प्राप्ति से 30 दिन के अन्दर एक पंच की नियुक्ति करने में असफल हो जाता है या
(ii) नियुक्ति किये गए दो पंच उनकी नियुक्ति की तारीख से 30 दिनों के भीतर तीसरे पंच के साथ करार करने में असफल हो जाते है।
तब इनकी नियुक्ति उसके द्वारा निर्दिष्ट संस्था या किसी भी व्यक्ति या मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा एक पक्षकार के अनुरोध पर की जायेगी।
पंच के साथ एक पंच निर्णय में यदि पक्षकार पंचों की नियुक्ति नहीं कर पाते हैं तथा यदि पक्षकारगण इस प्रकार से सहमत होने के लिए दूसरे पक्षकार से एक पक्षकार द्वारा एक अनुरोध की प्राप्ति से 830 दिनों के भीतर पंचों पर सहमत होने में असफल हो जाते है तो नियुक्ति उसके द्वारा नाम निर्दिष्ट किसी व्यक्ति या संस्था या मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा एक पक्षकार के अनुरोध पर की जायेगी।
प्रश्न 43. अवैध हड़ताल के परिणाम बताइये। Consequences of illegal strike.
उत्तर- अवैध हड़ताल के परिणाम कर्मकारों को श्रमिक विधि के अन्तर्गत हड़ताल करने का मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है फिर भी उन्हें एक अधिकार प्राप्त है। यदि कोई हड़ताल स्पष्ट रूप से अवैध है तो उसकी अवैधता के लिए दोषी पक्षकार अधिनियम की धारा 26 के अन्तर्गत दण्ड का भागी होगा। यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि अवैध हड़तालों के संबंध में भी एक वर्गीकरण है-
(1) अवैध किन्तु न्यायोचित हड़ताल तथा
(2) अवैध और अन्याययुक्त हड़ताल।
परन्तु इस वर्गीकरण को न्यायसंगत नहीं माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंडिया जनरल नेवीगेशन एण्ड रेलवे कम्पनी लि. तथा अन्य बनाम कर्मकारगण 1960 S.C. के मामले में अवैध हड़ताल के परिणाम पर निर्णय देते हुए कहा है कि यदि हड़ताल अवैध है तो कर्मकारगण मजदूरी या प्रतिकर प्राप्त करने के हकदार नहीं हैं और वे कार्य से हटा दिये जाने या पदच्युत कर दिये। जाने जैसे दण्ड के भागी हैं।
रोहतास इण्डस्ट्रीज बनाम कर्मचारी संघ AIR 1976 S.C. के मामले में यह अवधारित किया गया है कि अवैध हड़ताल के अनुतोष केवल धारा 26 के अन्तर्गत ही प्राप्त किया जाना चाहिए। किसी पंचाट के द्वारा अवैध हड़ताल के फलस्वरूप हुई हानि के लिए कोई प्रतिकर प्रदान करना अवैध है।