(1) भारत में औद्योगिक विधान का विकास
(Evolution of Industrial Legislation in India)
प्रश्न 1. औद्योगिक विधिशास्त्र क्या है? विश्लेषण कीजिये। What is Industrial Jurisprudence? Analyse.
अथवा
भारत में औद्योगिक विधिशास्त्र के उदय की विवेचना कीजिये। Discuss the evolution of Industrial Jurisprudence in India.
उत्तर– 20वीं शताब्दी के दौरान हमारे देश में एक नये विधिशास्त्र का जन्म औद्योगिक विधिशास्त्र के रूप में हुआ। यद्यपि इसकी उत्पत्ति के लक्षण औद्योगिक विकास के प्रारम्भिक वर्षों में भी मौजूद थे परन्तु भारत में विधिशास्त्र की इस शाखा का विकास मुख्यतः स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् के काल में हुआ। स्वतन्त्रता के पूर्व विधिशास्त्र की यह शाखा हमारे देश में अल्पविकसित रूप में ही थी।
औद्योगिक विधिशास्त्र के रूप में विधिशास्त्र की इस शाखा के विकास एवं विस्तार का अनुमान संसद द्वारा पारित विधानों तथा न्यायालयों द्वारा निर्णीत वादों से लगाया जा सकता है। आज देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग उद्योगपति, कर्मकार तथा उनके परिवार के रूप में औद्योगिक विधि एवं इस विधिशास्त्र से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है। यद्यपि परोक्ष (Indirect) रूप से प्रभावित लोगों की संख्या इससे कहीं अधिक है।
विधिशास्त्र की इस नई शाखा ने स्वामी एवं सेवक सम्बन्धों की पारस्परिक अवधारणा को उपान्तरित कर दिया है तथा संविदा की स्वतन्त्रता (Freedom of Contract) पर आधारित महत्व क्षेत्र की नीति के पुराने सिद्धांत को समाज के वृहत हित में प्रभावहीन बना दिया है क्योंकि प्राचीन एवं परम्परागत सिद्धांत नियोजक एवं नियोजित के बीच मैत्रीपूर्ण एवं सौहार्द्रपूर्ण संबंधों के विकास में अपर्याप्त साबित पाया गया। इस कारण विधानों एवं न्यायिक निर्वचनों द्वारा व्यक्तिगत संविदाओं के स्थान पर मानक संविदाओं (Standard form of Contracts) को स्थापित किया गया।
नियोजक के पुरातन एवं परम्परागत अधिकार की अपनी इच्छानुसार कर्मकार को भाड़े पर लेना तथा मनमाने ढंग से निकाल देना अब परम्परागत रूप में मान्य नहीं है और अब आज इस पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये हैं। औद्योगिक न्यायाधिकरण अपने विनिर्णयों द्वारा दोनों पक्षकारों पर बाध्यकारी नये अधिकारों एवं दायित्वों का सृजन कर सकते हैं और नियोजक उनके द्वारा आरोपित दायित्वों से आबद्ध होगा चाहे वे उसे पसंद आये या न आये। कर्मकार भी न्यायाधिकरणों के निर्णयों से आबद्ध होगा। इस प्रकार औद्योगिक विधि के क्षेत्र में ऐसा कदम अत्यन्त नवीन, क्रांतिकारी एवं अद्भुत है।
औद्योगिक विधिशास्त्र की इस नवीन अवधारणा के अभ्युदय ने स्वामी एवं सेवक की परम्परागत अवधारणा को भी बदल दिया है। इस नवीन तथा परिवर्तित अवधारणा के अनुसार धन लगाने वाला व्यक्ति ही अब स्वामी नहीं है और न ही श्रम करने वाला मात्र सेवक है। यद्यपि स्वामी अपनी इच्छानुसार कर्मकार की नियुक्ति का हकदार तो है परन्तु वह कर्मकार को अपनी इच्छानुसार जब चाहे काम से निकाल नहीं सकता क्योंकि अनेक नये विधानों द्वारा कर्मकारों की काम की सुरक्षा के अनेक प्रावधान किये गये हैं।
किसी भी उपक्रम में अब स्वामी एवं सेवक दोनों ही भागीदार हैं, दोनों ही सह-साझीदार हैं क्योंकि पूंजीपतियों के तमाम विरोधों के बावजूद भी श्रमिकों को प्रबंध में भागीदारों के अधिकारों को वैधानिक मान्यता दे दी गयी है। कर्मकारों को मिलने वाले लाभ उन्हें किसी सौदेबाजी अथवा संविदा के परिणामस्वरूप नहीं बल्कि उनके प्रतिष्ठा, पद अथवा हैसियत के कारण प्राप्त होते हैं। बीती बीसवीं शताब्दी के दौरान सम्पूर्ण विश्व में औद्योगिक समाज संविदा से हैसियत की ओर अग्रसर हुआ और आज भी हो रहा है और आज यह स्थिति एवं सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं विधिशास्त्र के कारण है जिसे हम औद्योगिक विधिशास्त्र के रूप में जानते हैं।
प्रश्न 2. औद्योगीकरण क्या है? इसकी बुराइयों की व्याख्या कीजिये। What is Industrialization? Explain its demerits.
अथवा
औद्योगीकरण से उत्पन्न आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालिये। Throw light on the economic and social problems created by industrialization.
उत्तर– कई अन्य देशों की भाँति भारत में भी औद्योगीकरण का तात्पर्य कारखाना पद्धति के विकास हैं। इस पद्धति में कुछ अन्तर्निहित बुराइयाँ थीं जिसका सामना कर्मकारों को प्रारम्भ से ही करना पड़ा। ये बुराइयाँ दो प्रकार की थीं
(1) आर्थिक बुराइयाँ (Economic demerits) तथा
(2) सामाजिक बुराइयाँ (Social evils or demerits)
(1) आर्थिक बुराइयाँ (Economic Demerits) इस कारखाना पद्धति में कर्मकारों को दी जाने वाली मजदूरी उनके नये वातावरण में जोकि उनके ग्रामीण जीवन से बिल्कुल अलग था। उनको आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि अपर्याप्त थी। अत: कर्मकारों का जीवन स्तर और भी निम्न होता गया। (2) हथकरघा पद्धति में शिल्पकारों को वस्तुओं को बनाते समय अपने हुनर पर गर्व होता था जिससे उनको एक मनोवैज्ञानिक संतुष्टि प्राप्त होती थी परन्तु कारखाना पद्धति के आगमन से वह मशीन का पुर्जा मात्र बनकर रह गया। यहाँ वह मशीनों की सहायता से कच्चे माल से बाजारोपयोगी वस्तुओं को बनाता था जो एक ही प्रकार की होती थीं। एक ही वस्तु के अलग-अलग भाग अलग-अलग कर्मकारों द्वारा बनाये जाते थे जिससे कर्मकारों को अपनी सोच तथा हुनर का प्रयोग करने का मौका नहीं मिलता था और उसके मस्तिष्क का पूरा विकास नहीं हो पाता था।
(3) इस पद्धति के प्रारम्भ में कर्मकारों की नियुक्ति भी सुरक्षित नहीं थी। मालिक द्वारा मनमाने तरीके से निकाल दिया जाना एक आम बात थी जिसके कारण उन्हें समय-समय पर बेरोजगारी का सामना करना पड़ता था और भविष्य के प्रति डरे हुए रहते थे।
(2) सामाजिक बुराइयाँ (Social Demerits) यह निम्न प्रकार हैं –
(1) कारखाना पद्धति के आगमन से ग्रामीण उद्योगों का विनाश हो गया जिसके परिणामस्वरूप शिल्पियों एवं अन्य कर्मकारों का पलायन शहरों की तरफ होने लगा और शहरों की आबादी तीव्रगति से बढ़ने लगी और आवास तथा अन्य सुविधायें अपर्याप्त साबित होने लगीं। इसके कारण झुग्गी-झोपड़ियों तथा गंदी बस्तियों का विकास हुआ जिसका बुरा प्रभाव लोगों के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक जीवन पर भी पड़ा।
(2) कारखानों में मशीनों के खुला होने तथा पर्याप्त संरक्षा उपायों के न होने के कारण आये दिन दुर्घटनाओं का होना एक आम बात थी। दुर्घटना को नियोजन का एक अन्तर्निहित भाग माना जाता था जिसके कारण जो कर्मकार दुर्घटना का शिकार होता था उसे अपनी नियुक्ति एवं काम से तो हाथ धोना ही पड़ता था, साथ ही साथ उसे क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का भी कोई अधिकार नहीं होता था।
(3) कर्मकारों को मिलने वाली मजदूरी भी बहुत कम थी जबकि यह मजदूरी ही उनकी आमदनी का एकमात्र साधन था। फलस्वरूप कर्मकारों का जीवन निर्वाह एवं न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी दुसा हो गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि या तो यह साहूकारों के चंगुल में फैसला चला गया या फिर आमदनी को बढ़ाने के लिए उनकी पत्नियाँ एवं बच्चे भी कारखानों में काम करने लगे। मालिकों ने इस मौके का फायदा उठाया तथा बहुत अधिक संख्या में कर्मकारों को बहुत कम पारिश्रमिक पर काम रख लिया। इस स्थिति के कारण बच्चों की शिक्षा तथा शारीरिक एवं बौद्धिक विकास प्रभावित हुआ और कर्मकारों को संतानें भी सदा के लिए सस्ते कर्मकार बन गयीं।
(4) कारखाना पद्धति की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत मजदूरों को बहुत लम्बे समय तक काम करना पड़ता था। काम बहुत खतरनाक तथा शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से थका देने वाला होता था। उनके लिए विश्राम एवं मनोरंजन की कोई भी व्यवस्था नहीं थी। कर्मकारों की सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय कारखाना मालिक अपने कारखानों का उत्पादन एवं संख्या बढ़ाने पर ज्यादा जोर देते थे। कर्मकों के लिए ये परिस्थितियाँ अमानवीय थी जिससे समझौता कर पाना उनके लिए कठिन हो रहा था। औद्योगीकरण की इस आर्थिक एवं सामाजिक बुराइयों के परिणामस्वरूप समन्वय के अभाव में नई समस्यायें उत्पन्न हुई जिन्हें कालान्तर में’ श्रम समस्या’ का नाम दिया गया।
प्रश्न 3. औद्योगिक संबंध क्या है? इसके महत्व पर प्रकाश डालिये। What is industrial relation? Throw light on it’s importance.
उत्तर – वस्तुतः उद्योग सूक्ष्म रूप में एक सामाजिक संसार है। यह उत्पादन करने के साथ-साथ लोगों को रोजगार के साधन प्रदान करके उनके जीवन निर्वाह का साधन भी प्रदान करता है। उद्योग के विभिन्न स्तरों से विभिन्न प्रकार के लोग जुड़े रहते हैं। इनके बीच का पारस्परिक संबंध ही औद्योगिक विधि का विषय होता है। यह औद्योगिक संबंध औद्योगिक प्रजातंत्र के निर्माण एवं विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
औद्योगिक संबंध का केन्द्र-बिन्दु आर्थिक क्रियाकलाप होता है। आज के औद्योगिक युग में किसी भी देश की आर्थिक दशा उसके औद्योगिक संबंध से प्रभावित होती है और इसके परिणामस्वरूप आदेश की सामाजिक व्यवस्था भी प्रभावित होती है। मानव को अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपनी रोजी-रोटी की व्यवस्था हेतु अपने आस-पास के वातावरण से संघर्ष करना पड़ता है। औद्योगिक क्रांति मानव की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मात्र है परन्तु यह सामाजिक असंतुलन भी पैदा करती है क्योंकि यह समाज के एक वर्ग के हितों एवं आवश्यकताओं को बुरी तरह से प्रभावित करती है। ऐसे लोग उद्योगों में काम तो करते हैं परन्तु उसको नियंत्रित करने का अधिकार उन्हें नहीं होता है। यह धन के वितरण के बजाय संकेन्द्रण के लिए ज्यादा जिम्मेदार होती है क्योंकि उत्पादन के संसाधनों पर समाज के कुछ प्रमुख लोगों का ही स्वामित्व एवं नियंत्रण होता है। ऐसे लोगों द्वारा श्रम को अपने अधिकतम लाभ के लिये प्रयोग करते हैं। इस प्रकार औद्योगिक संबंधों में असंतुलन की स्थिति बनी रहती है।
औद्योगिक संबंधों में असंतुलन तथा अव्यवस्था से शीघ्र ही यह महसूस किया जाने लगा कि समाज के विरोधी तथा रक्षक हितों के विवाचक के रूप में राज्य का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। अतः राज्य में औद्योगिक प्रकरणों में सामाजिक शांति तथा नै कता बनाये रखने हेतु हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया क्योंकि स्वस्थ सामाजिक नैतिकता बनाये रखने हेतु सामाजिक नैतिकता आवश्यक है। आर्थिक उन्नति औद्योगिक शांति से जुड़ी हुई है। इस कारण औद्योगिक संबंध नियोजक एवं नियोजित के बीच हो महत्वपूर्ण नहीं है अपितु समाज के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। ऐसे मामलों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप को इसलिए भी महत्वपूर्ण ठहराया गया क्योंकि कारखाना मालिकों जैसे सशक्त एवं प्रभावी लोगों से कमजोर वर्ग के शोषण को रोकने में वही सक्षम है। औद्योगिक असाम्यपूर्ण व्यवस्था के लिए केवल उद्योगपति ही दोषी नहीं है बल्कि राज्य भी समान रूप से दोषी है क्योंकि उपयुक्त सामाजिक व्यवस्था बनाये रखना उसका भी कर्तव्य है। राज्य का यह भी दायित्व है कि वह गरीब तथा अमीर के बीच खाई को कम करे। इन उद्देश्यों की पूर्ति एवं क्रियान्वयन के लिए विधिक विनियमों एवं कानूनों की आवश्यकता पड़ी।
औद्योगिक संबंधों के लिए राजकीय विनियमों का महत्व उस सामाजिक, आर्थिक उद्देश्य जिसे राज्य प्राप्त करना चाहता है, पर निर्भर करता है जो कि सरकार की सामाजिक-आर्थिक योजना तथा राष्ट्रीय श्रम नीति पर निर्भर करता है। यह वर्तमान सामाजिक संतुलन जिसे पुनः व्यवस्थित करना है तथा दिये गये सामाजिक-आर्थिक दशा में सामाजिक न्याय के लिए निर्धारित योजनाओं तथा कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के तरीकों पर निर्भर करता है। हमारे देश में औद्योगिक एवं तकनीकी उन्नति पर ही अधिक बल दिया जा रहा है जबकि तकनीकी उन्नति सामाजिक असंतुलन को और अधिक बढ़ाती है। इस कारण सामाजिक संबंधों के पुनर्भवधारण हेतु सामाजिक विज्ञान की उन्नति भी अति आवश्यक है। अतः सामाजिक संबंधों के पुनर्भवधारण हेतु यह अति आवश्यक है। कि सरकार सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन तथा अनुसंधान को भी बढ़ावा दे।
प्रश्न 4. भारत में श्रम विधियों के विकास की विवेचना कीजिये । Discuss the evolution of labour law in India.
अथवा
“आज के औद्योगिक उपक्रमों में कर्मकार एक महत्वपूर्ण भागीदार है। ” व्याख्या कीजिये। “Worker is an important partner of today’s industrial enterprizes.” Explain.
अथवा
भारतवर्ष में औद्योगिक विधायन की ऐतिहासिक प्रगति को विस्तार से समझाइए । Describe in detail the Historical development of Industrial Legislation in India.
उत्तर– उद्योगों के विकास के साथ-साथ भारत में श्रम विधियों का भी विकास हुआ। 18वीं शताब्दी में भारत एक कृषि प्रधान देश नहीं रह गया बल्कि एक बड़ा निर्माता भी बन गया था। यूरोप तथा एशिया के बाजारों में भारतीय हथकरघा उद्योग द्वारा निर्मित वस्तुओं एवं वस्त्रों की भरमार थी। परन्तु अंग्रेजी सरकार ने भारतीय विनिर्माण कर्ताओं को सदैव ही निरुत्साहित किया ताकि इंग्लैण्ड का माल भारत में बेचा जा सके। ब्रिटिश सरकार अंग्रेजी उद्योगों की संयोजक थी जबकि इसी अनुपात में भारतीय विनिर्माताओं को उसने सदैव हतोत्साहित किया। ब्रिटिश सरकार भारत को केवल कच्चे माल के उत्पादक के रूप में देखना चाहती थी जो ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल आपूर्ति कर सके। भारत ब्रिटिश अधिराज्य का लम्बे समय तक आपूर्तिकर्ता बना रहा है।
19वीं शताब्दी के अन्त में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत होने लगी और विदेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलनों का दौर प्रारम्भ हुआ। राष्ट्रीयता का एक आर्थिक पक्ष भी होता है जो हमारे देश में औद्योगीकरण के क्षेत्र में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता के रूप में प्रकट हुआ।
20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में राष्ट्रीय आन्दोलन ने एक नया रूप धारण किया और सार्वजनिक रूप से स्वदेशी वस्तुओं की माँग बढ़ गयी। इसी समय प्रारम्भ हुये स्वदेशी आन्दोलन ने लोगों से विदेशी माल के बहिष्कार तथा स्वदेशी माल को अपनाने की स्पष्ट अपील की जिसके परिणामस्वरूप एक आर्थिक संकट ने जन्म लिया और स्वदेशी वस्तुओं की माँग बढ़ गयी, परिणामत: देश में औद्योगीकरण को एक नई दिशा मिली। यही नहीं बल्कि निजी क्षेत्रों के भी उद्योगों ने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारतीय वाणिज्य एवं व्यापार की स्वतन्त्रता का समर्थन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने भी किया। परन्तु उन्होंने स्थानीय निर्मित माल के मुक्त व्यापार पर विशेष जोर दिया। इस प्रकार देश के आर्थिक विकास एवं अर्थ योजना को देश के विकास के अनुकूल बनाने का प्रयास किया गया।
आर्थिक विकास की इस नई योजना के परिणामस्वरूप योजनाबद्ध औद्योगीकरण हमारा मुख्य उद्देश्य बन गया। इसमें नये-नये उद्योगों की शुरूआत हुई और इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में नई-नई समस्याओं का भी जन्म हुआ। इन समस्याओं के समाधान हेतु नये विधानों की आवश्यकता महसूस की गयी।
भारत में सर्वप्रथम असम का रोपण उद्योग विधायी नियंत्रण के अधीन आया क्योंकि इस उद्योग में मजदूरों को नियुक्त करने तथा उनसे काम लेने का ढंग बहुत ही अमानवीय था। इन कर्मकारों की नियुक्तियाँ व्यावसायिक भर्ती करने वाले लोगों द्वारा की जाती थीं और उन्हें काम के लिए चाय बागानों से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। इस कारण कर्मकारों की नियुक्ति पद्धति को विनियमित करने की दिशा में 1863 में (और आगे भी) अनेक कानून बनाये गये। परन्तु इसका परिणाम कुछ उल्टा हुआ और मजदूरों की अपेक्षा नियोजकों के हितों का ही अधिक संवर्धन हुआ।
देश की स्वतन्त्रता के बाद उपर्युक्त कमियों के सुधार की ओर ध्यान दिया गया और संविधान में कर्मकारों के हितों के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए राज्य के विशेष कर्तव्यों को निर्दिष्ट किया गया। आज का भारतीय श्रमिक उद्योगों के क्षेत्र में नियोजकों की भाँति ही अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है तथा उत्पादन के क्षेत्र में श्रम शक्ति को पूँजी शक्ति के समान ही महत्ता प्रदान की गयी है। हमारे संविधान में समाज के सभी वर्गों के लिए समान सामाजिक न्याय की व्यवस्था की गयी है। श्रमिकों को सामाजिक न्याय तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से बहुत से कानूनों का निर्माण किया गया है तथा पुराने अधिनियमों में आवश्यक परिवर्तन किये गये हैं।
भारत में कई प्रकार की विधियाँ बनाई गयी हैं जिनका उद्देश्य उद्योगों के विकास तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना है। नवीन औद्योगिक संसृष्टि के लिए यह सर्वथा आवश्यक है कि उद्योग के सभी भागीदार अपनी कमियों का सुधार करें तथा नवीन तकनीक को अपनाने हेतु तत्पर रहें। देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् विधि तथा सार्वजनिक संपत्ति दोनों में कर्मकारों की दशा में सुधार का प्रबल समर्थन किया है परन्तु नियोजक का इस दिशा में प्रयास नकारात्मक रहा है और उन्होंने अभी तक सरकारी विधानों तथा लोक संपत्ति को यथोचित सम्मान प्रदान नहीं किया है। उद्योगपतियों को यह महसूस करना चाहिए कि देश का संभ्रान्त नागरिक होने के कारण देश को एक नया भविष्य देकर उन्हें एक आदर्श उपस्थित करना है। साथ ही साथ कर्मकारों तथा उनके संगठनों का भी यह दायित्व है कि वे अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाकर उत्पादन में वृद्धि के जरिये देश एवं समाज की प्रगति में अधिकतम योगदान दें। इसी के परिणामस्वरूप उनकी आमदनी तथा देश के विकास में वृद्धि हो सकती है और कर्मकार तथा उद्योग मालिक के साथ-साथ समाज को आनुपातिक लाभ मिल सकता है।
आज के औद्योगिक उपक्रमों में कर्मकार एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक भाग है और उसके सहयोग, अच्छे काम, अनुशासन, प्रतिष्ठा तथा चरित्र के वित्त उद्योगों में प्रभावशाली परिणाम या लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी उद्योग या उपक्रम में कितना ही अधिक निवेश कर दिया जाये मानवीय तत्व के समुचित सहयोग के बिना न तो उसका यथोचित संचालन ही किया जा सकता है और न ही यथोचित उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। अत: उद्योग के लाभ में नियोजकों, कर्मकारों तथा समाज का अंश अवश्य ही होना चाहिए। वस्तुतः कर्मकार का अंश सबसे अधिक होना चाहिए क्योंकि वास्तविक रूप में वे ही धन के निर्माता हैं।
प्रश्न 5. औद्योगिक न्याय निर्णयन क्या है? इसके मुख्य सिद्धांतों पर प्रकाश डालिये। What is Industrial Adjudication? Throw light on its main principles.
उत्तर– औद्योगिक न्याय निर्णयन न्यायालय का ऐसा निर्णय होता है जो औद्योगिक मामलों से संबंधित होता. है तथा कुछ आधारों को ध्यान में रखकर दिया जाता है। सामान्यत: यह निर्णय औद्योगिक अधिकारों द्वारा दिया जाता है। औद्योगिक शांति तथा आर्थिक न्याय इसके दो उद्देश्य होते हैं। इसका मुख्य कार्य औद्योगिक विवादों का समाधान ढूँढ़कर राज्य को सहायता देना है। यह मुख्यत: राज्य द्वारा निर्धारित आर्थिक एवं सामाजिक नीति पर निर्भर करता है। भारत में औद्योगिक न्याय निर्णय के निम्न मुख्य सिद्धांत हैं –
1. लोकहित
2. औद्योगिक सामंजस्य एवं सद्भावना
3. औद्योगिक न्याय का विकास
4. विशेष सहायता
5. सामाजिक आर्थिक अभाव
6. प्रत्येक प्रकरण के तथा परिस्थितियों का निदेश
7. न्यायिक ढंग से कार्य
8. कालोचितता कोई कारण नहीं 9. निर्णयों की स्वीकार्यता
10. प्राकृतिक न्याय
इन सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार से है-
(1) लोकहित (Public Interest) क्योंकि औद्योगिक न्याय निर्णयन का मुख्य उद्देश्य सामाजिक तथा आर्थिक न्याय की प्राप्ति है और यह सामाजिक हितों पर आधारित होता है, अत: सामाजिक हितों को ध्यान में रखना औद्योगिक न्याय निर्णयन के लिए आवश्यक है।
लोकहित की यद्यपि विधि में कोई परिभाषा नहीं दी गयी है परन्तु सामान्यतः लोकहित वह हित होता है जो किसी भी राजनीतिक दृष्टि से व्यवस्थित राजनीतिक समाज में लोगों की इच्छाओं तथा माँगों को अभिव्यक्त करता है।
(2) औद्योगिक सामंजस्य तथा सद्भाव (Industrial Co-operation and Good Faith) आर्थिक प्रणाली किसी भी प्रकार की हो, सभी का मुख्य उद्देश्य उत्पादन में वृद्धि ही होता है। इस कारण उद्योग में शांति एवं कार्य तत्परता आवश्यक है। क्योंकि उत्पादन में बढ़ोत्तरी कर्मकार तथा उद्योग मालिक के बीच सामंजस्य तथा सद्भावपूर्ण माहौल पर आधारित है। शांति तथा सद्भाव उद्योग में केवल विवाद की स्थिति को ही समाप्त नहीं करते बल्कि सहयोग की भावना को भी मजबूत करते हैं। औद्योगिक सामंजस्य केवल नकारात्मक ही नहीं बल्कि सकारात्मक तथ्य भी हैं। इस कारण किसी भी औद्योगिक विवाद का हल ढूँढ़ते समय इस सबका प्रयोग आवश्यक है।
(3) औद्योगिक न्याय का विकास (Development of Industrial Justice) उद्योगों में कर्मकार तथा मालिक के संबंध संविदा पर आधारित होते हैं। इस कारण उनके दावे भी संविदा की स्वतन्त्रता के आधार पर किये जाते हैं। परस्पर विरोधी दावों को समायोजित करना आसान नहीं होता। सामान्य सिद्धांत भी भविष्य के दावों के प्रति उचित प्रतीत नहीं होते हैं। अत: इस प्रकार के सिद्धांतों का प्रतिपादन भी उचित प्रतीत नहीं होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मैसूर राज्य बनाम वर्कर्स आफ गोल्ड माइन AIR 1958 S.C. के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “सामाजिक न्याय देने के प्रयास में औद्योगिक न्याय निर्णयन को नियोजक तथा कर्मकारों के बीच परस्पर विरोधी दावों को समायोजित करना आवश्यक है और इस उद्देश्य को प्रत्येक प्रश्न के तथ्य तथा दशाओं को जो उनकी उत्पत्ति के समय विद्यमान थे, ध्यान में रखकर ही प्राप्त किया जा सकता है।”
(4) विशेषज्ञों की सहायता (Help of Experts) यदि औद्योगिक न्यायाधिकरण के समक्ष कोई ऐसा मामला आता है तथा न्यायाधिकरण का ऐसा विचार है कि इस विवाद को किसी विशेषज्ञ की राय लेकर अच्छी प्रकार से निपटाया जा सकता है तो वह विशेषज्ञ की राय लेकर मामले को निपटा सकता है। फिर भी अंतिम निर्णय न्यायाधिकरण को ही लेना होता है परन्तु आवश्यक तथ्यों को छानबीन के लिए जहाँ कहीं पर भी आवश्यक हो विशेषज्ञ को राय लेना चाहिए।
(5) सामाजिक-आर्थिक अभाव (Social Economic Lackness) यद्यपि अधिकरण न तो सामाजिक और न ही आर्थिक विधिनांग है फिर भी यह कहना उपयुक्त नहीं होगा कि पंचाट का इससे कोई सरोकार नहीं है। यदि कोई निर्णय उसके सामाजिक तथा आर्थिक प्रभाव को दृष्टिगत रखे बिना दिया जाता है तो उसका प्रभाव शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। ऐसे निर्णय का स्थायी प्रभाव नहीं होता है।
(6) परिस्थितियों का निर्देश (Direction as to Conditions)- औद्योगिक न्याय निर्णयन में जहाँ तक सम्भव हो लचीले नियमों का ही प्रतिपादन किया जाना चाहिए। इसके लिए सबसे समुचित तरीका यही है कि उपयुक्त तथ्यों को ध्यान में रखा जाये और निर्णय सभी तथ्यों के समुचित छान-बीन के बाद ही दिया जाये।
(7) न्यायिक ढंग से कार्य (Act in Judicial Manner) औद्योगिक न्यायाधिकरण के लिए यह भी आवश्यक है कि उसे न्यायिक ढंग से ही कार्य करना चाहिए। अतः न्यायाधिकरण के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी साक्ष्यों को एकत्र करें तथा सभी तथ्यों के प्रति परीक्षण के जरिये सत्य को साबित करने का प्रयास करें।
(8) कालोचितता कोई कारण नहीं है (Expediency is no Consideration) दोनों पक्षों को निर्णय के जरिये संतुष्ट कर पाना कभी भी आसान नहीं होता। सही निर्णय देने में शीघ्रता को अति महत्व देना सर्वथा उचित नहीं होता और साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक नहीं है कि निर्णय असफल पक्ष को संतुष्ट करने में असमर्थ होगा।
(9) निर्णयों की स्वीकार्यता (Acceptability of Decisions)- औद्योगिक विवादों का निबटारा करते समय न्यायाधिकरण को शैक्षिक विधिक प्रश्नों द्वारा अनुचित रूप से प्रभावित नहीं होना चाहिए और जहाँ तक संभव हो सके उसे प्रत्येक विवाद के तथ्य तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखकर गुण तथा दोष के आधार पर उसका निर्णय करना चाहिए।
(10) प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice) सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरांचल राज्य तथा अन्य बनाम सुनील कुमार सिंह नेगी (2008) II LL.J. 874 (S.C.) के वाद में यह अवधारित किया है कि कारण जानने का अधिकार एक युक्तियुक्त न्यायिक प्रणाली का अविवादित अंग है। सरल शब्दों में, न्यायालय के समक्ष लम्बित मामलों में कम से कम मस्तिष्क के यथेष्ट उपयोग को स्पष्ट करने वाले कारण का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। दूसरा मुख्य कारण यह है कि प्रभावित पक्षकार यह जान सके कि निर्णय उनके विरुद्ध किन कारणों से दिया गया है। इस प्रकार प्राकृतिक न्याय का सर्वाधिक आवश्यक तत्व किये गये आदेश के कारणों का उल्लेख करना है। उच्च न्यायालय द्वारा आदेश करने में कारणों का उल्लेख न होना आदेश को गैर पोषणीय बना देता है।
(2) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947
(Industrial Disputes Act, 1947)
प्रश्न 1. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के विस्तार तथा उद्देश्यों का विश्लेषण कीजिये। Analyse scope and objects of Industrial Disputes Act, 1947.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम का क्षेत्र क्या है? इसके मुख्य उद्देश्य बताइये। What is scope of Industrial Disputes Act ? State it’s main objects.
अथवा
औद्योगिक विवाद क्या है? औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 किस पर लागू होता ? What is Industrial Dispute ? On whom it does apply ?
उत्तर –
औद्योगिक विवाद क्या है? (What is Industrial Dispute)
औद्योगिक विवाद की संरचना हेतु निम्न तत्वों की उपस्थिति आवश्यक है –
(i) नियोजक और नियोजकों या नियोजक तथा कर्मकारों या कर्मकार अथवा कर्मकार के बीच कोई विवाद या मतभेद ।
(ii) उपर्युक्त विवाद या मतभेद नियोजन या अनियोजन, नियोजन के निबंधनों अथवा श्रम की शर्तों से संबंधित होना चाहिए।
(iii) विवाद किसी कर्मकार या कर्मकारों अथवा किसी अन्य व्यक्ति के संबंध में हो सकता है जिनमें कि वे सामूहिक रूप से रुचि रखते हों।
इस प्रकार औद्योगिक विवाद की परिभाषा अनिवार्यत: उद्योग से संबंधित नहीं है परन्तु यह आवश्यक है कि ऐसा विवाद किसी उद्योग में उठा हो। औद्योगिक विवाद की परिभाषा में प्रयुक्त ‘नियोजक तथा ‘कर्मकार’ शब्द अपनी परिभाषा के कारण इस परिभाषा हेतु भी उद्योग को आवश्यक बना देते हैं।
औद्योगिक विवाद की यह परिभाषा केवल नियोजक तथा कर्मकारों की बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली यूनियनों तक भी सीमित नहीं है बल्कि यूनियन ऐसी भी हो सकती है जो बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व न भी करती हो क्योंकि औद्योगिक विवाद को मात्र कर्मकारों तथा नियोजकों के बीच विवाद होना आवश्यक है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 का क्षेत्र (Scope of Industrial Dispute Act, 1947) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 संपूर्ण भारत पर लागू होता है। यह अधिनियम 1 अप्रैल, 1947 को प्रवृत्त हुआ। सामाजिक विधानों के क्षेत्र में यह एक प्रगतिशील कदम है। इसका उद्देश्य औद्योगिक विवाद के शोध तथा निबटारे के लिए व्यवस्था करना है। वर्तमान आर्थिक दशाओं में व्यापक रूप से एक असंतोष दिखायी देता है और यही असंतोष औद्योगिक विवादों का मूल कारण है। मजदूरों के संघर्ष का समूचा इतिहास श्रम के न्यायोचित प्रतिदान (return) की निरन्तर माँग की एक कहानी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह माँग- (क) मजदूरी में वृद्धि,
(ख) मजदूरी कम करने का विरोध,
(ग) भत्ते एवं लाभ में अंश की स्वीकृति, आदि से संबंधित रहती है।
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 का उद्देश्य (Objects of Industrial Dispute Act, 1947)- इस अधिनियम के मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
(1) श्रमिक तथा सेवायोजक के मध्य सौहार्दपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना तथा उन्हें बनाये रखने का प्रयास करना।
(2) जाँच पड़ताल, विवाद निवारण तथा समझौते के उद्देश्य से अधिक एवं सेवायोजक के बीच श्रमिक एवं श्रमिक के बीच, सेवायोजक एवं सेवायोजक के बीच संगठन बनाने का अधिकार प्रदान करते हुए ऐसी प्रणाली का निर्माण करना जिससे वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।
(3) औद्योगिक बुराइयों, जैसे अवैधानिक हड़ताल एवं ताला बन्दियों पर रोकथाम लगाना।
(4) श्रमिकों की जबरी छुट्टी अथवा छँटनी से उत्पन्न स्थिति से मुक्ति प्रदान करने का प्रयास।
(5) श्रमिकों में अशान्ति के कारण औद्योगिक उत्पादन को न गिरने देना।
(6) श्रमिकों को सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार प्रदान करना एवं उनको इसके लिए प्रोत्साहन देना।
(7) देश में औद्योगिक शान्ति स्थापित करना।
भारत में श्रम एपीलेट ट्रिब्यूनल ने एक विवाद में निर्णय देते हुये औद्योगिक विवाद अधिनियम के निम्न उद्देश्य बताये थे –
(1) नियोक्ताओं एवं श्रमिकों के बीच झगड़ों को दूर करना। (2) हड़तालें एवं तालेबन्दियाँ न होने देना।
(3) देश में औद्योगिक शान्ति को स्थापित करना।
(4) श्रमिकों के मध्य अशान्ति के कारण देश के औद्योगिक उत्पादन में कमी न होने देना।
प्रश्न 2. औद्योगिक विवाद अधिनियम के मुख्य लक्षणों का विवेचन कीजिये। Discuss main features of Industrial Disputes Act.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम की मुख्य विशेषतायें बताइये। कब कोई विवाद औद्योगिक विवाद बन जाता है ? State main characteristics of Industrial Disputes Act. What a dispute becomes Industrial Dispute?
अथवा
कब’ व्यक्तिगत विवाद’, ‘औद्योगिक विवाद’ बन जाता है ? समझाइए । Describe when an Individual dispute’ becomes an ‘Industrial dispute’,
उत्तर –
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की विशेषतायें
(Characteristics of Industrial Disputes Act, 1947)
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की मुख्य विशेषतायें निम्न प्रकार से हैं –
(1) कोई औद्योगिक विवाद औद्योगिक न्यायाधिकरण को तो –
(i) विवाद से आबद्ध उभय पक्ष करने की सहमति पर या
(ii) राज्य सरकार द्वारा ऐसा करना न्यायोचित समझे जाने पर विचार हेतु औद्योगिक न्यायाधिकरण को सौंपा जायेगा, अन्यथा नहीं।
(2) उक्त न्यायाधिकरण द्वारा दिये गये पंचाट को –
(i) अधिक से अधिक एक वर्ष, या
(ii) इसके भीतर की निश्चित अवधि तक के लिए ही दोनों पक्षकारों पर बंधनकारी माना जायेगा, और
(iii) इसका प्रवर्तन सामान्यतया सरकार द्वारा किया जायेगा।
(3) निम्न दशाओं में हड़ताल एवं तालाबंदी को प्रतिषिद्ध घोषित कर दिया गया है
(i) जब तक कि सुलह और अधिनिर्णय की कार्यवाही चल रही हो,
(ii) जब तब कि सुलह की कार्यवाहियों में किये गये समझौते लंबित हों,
(iii) जब तक न्यायाधिकरण द्वारा दिया गया ऐसा पंचाट लंबित हो जिसके बंधनकारी होने की उपयुक्त मान्यता सरकार द्वारा दी जा चुकी है।
(4) लोकहित अथवा आयात की दशा में उपयुक्त सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए 6 मास से अधिक अवधि के लिए प्रमुख उद्योगों को लोकोपयोगी सेवा के अन्तर्गत घोषित करने के लिए प्राधिकृत है।
कब कोई विवाद औद्योगिक विवाद बन जाता है? (When a Dispute becomes Industrial Dispute)- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (K) में औद्योगिक विवाद की परिभाषा दी गयी है जिसके अनुसार, औद्योगिक विवाद का तात्पर्य नियोक्ताओं एवं नियोक्ताओं और श्रमिकों या श्रमिकों एवं श्रमिकों के बीच किसी विवाद या मतभेद से है, जो किसी भी व्यक्ति के सेवायोजन या गैरसेवा योजन या रोजगार की शर्तों या श्रम की दशाओं से सम्बन्धित है।
लेकिन अधिनियम की धारा 2 (K) के प्रावधान निर्दिष्ट किये जाने तक सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि कोई भी व्यक्तिगत विवाद स्वतः औद्योगिक विवाद नहीं है, परन्तु सेन्ट्रल प्रॉविन्स ट्रांसपोर्ट सर्विस बनाम रघुनाथ गोपाल परवर्धन के मामले में निर्णय लिया गया कि कोई भी व्यक्तिगत विवाद उस स्थिति में एक औद्योगिक विवाद हो सकता है, जब उसको श्रमिक संघ का पर्याप्त संख्या में समर्थन प्राप्त हो, जिसकी पुष्टि न्यूज पेपर बनाम औद्योगिक न्यायाधिकरण के मामले में भी की गई थी। दिमाकच चाय बागान के श्रमिक बनाम दिमाकुची चाय बागान के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति’ से सम्बन्धित विवाद, औद्योगिक विवाद हो, ऐसा जरूरी नहीं है, बल्कि विवाद में कई व्यक्तियों का हित संलग्न होना चाहिये। कोई भी विवाद प्रारम्भ में तो निजी विवाद हो सकता है परन्तु श्रमिक इस आधार पर कि उसमें उसका हित सम्मिलित है, कह कर औद्योगिक विवाद का रूप दे सकते हैं। अधिनियम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि यदि श्रमिक की बर्खास्तगी की तिथि पर कोई संघ न हो, तो वह विवाद औद्योगिक विवाद नहीं हो सकता। किसी निजी विवाद को श्रमिकों की पर्याप्त संख्या का समर्थन प्राप्त है या नहीं, यह प्रत्येक वाद के तथ्यों पर निर्भर करता है। यदि किसी व्यक्तिगत विवाद को पहले तो श्रम संघ या श्रमिकों की पर्याप्त संख्या समर्थन प्रदान करती है, परन्तु बाद में समर्थन वापस ले लेता है तो अधिनिर्णयन अधिकारी के निर्णय को प्रभावित नहीं करता है। हालांकि, अधिनिर्णयन के लिए संदर्भ करने के समय, निजी विवादों को समर्थन प्राप्त होना चाहिये अन्यथा वह एक औद्योगिक विवाद नहीं होगा तथा उस विवाद का सन्दर्भ अविधि मान्य हो जायेगा।
प्रश्न 3. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के संदर्भ में उद्योग के अर्थ एवं परिभाषा की व्याख्या कीजिये। Explain meaning and definition of ‘industry’ in context of Industrial of Disputes Act.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत उद्योग क्या है ? What is industry within the meaning of industrail Dispute Act, 1947 ?
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अर्न्तगत ‘उद्योग’ क्या है ? न्यायिक निर्णयों के आलोक में समझाइए कि क्या’ अस्पताल’ उद्योग है ? What is ‘Industry’ within the meaning of Industrial Disputes Act, 1947? Discuss in light of judicial decision, whether a ‘Hospital’ is an industry
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तंगत ‘उद्योग’ निणांत वादों की सहायता से समझाइए। क्या एक ‘शैक्षणिक संस्था’ उद्योग है ? Explain ‘Industry’ with the help of decided cases under Industrial Disputes Act, 1947. Whether a Educational Institution’ is an industry ?
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के अन्तर्गत ‘उद्योग’ को समझाइये। न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समझाइये कि क्या एक अस्पताल उद्योग है। Explain ‘Industry’ within the meaning of Industrial Disputes Act, 1947. Describe whether a Hospital is an industry with the help of decided cases.
उत्तर- ‘उद्योग’ का अर्थ एवं परिभाषा
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(ञ) में उद्योग को मूलत: निम्न शब्दों में परिभाषित किया गया था
“उद्योग से कोई कारोबार, व्यापार, उपक्रम, अधिनिर्माण या नियोजकों की आजीविका अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत कर्मकार की कोई, आजीविका, सेवायोजन हस्तशिल्प या औद्योगिक उपजीविका या उपव्यवसाय है।”
औद्योगिक विवाद अधिनियम में दी गयी इस परिभाषा के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में ‘उद्योग’ शब्द की व्याख्या अपने कई निर्णयों में की है। उदाहरण के लिए बंगलौर वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड बनाम ए. राजप्पा तथा अन्य AIR 1978 S.C. 548 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में एक SLP (Special Leave Petition विशेष अनुमति याचिका) संविधान के अनु. 136 के अन्तर्गत कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध दाखिल की गयी थी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि धारा 2 (ज) के अन्तर्गत इसे एक उद्योग के रूप में ही माना जायेगा। इस निर्णय के परिणामस्वरूप उद्योग जगत में एक खलबली सी मच गयी क्योंकि इसने बहुत से ऐसे उपक्रमों को उद्योग की परिभाषा के अन्तर्गत ला दिया जोकि अब तक उद्योग की परिभाषा से बाहर माने जाते थे।
उद्योग क्या है ?
उपर्युक्त वाद में दिये गये अपने पूर्व निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय ने पुनर्वासित करते हुए बंगलौर वाटर सप्लाई AIR 1978 S.C. 548 के प्रकरण में ‘उद्योग’ शब्द के प्रति व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए इसकी व्याख्या निम्न प्रकार से की है।
(1) न्यायालय के अनुसार धारा 2(ञ) में परिभाषित उद्योग का विस्तृत अर्थ है, अर्थात्- (क) जहाँ पर कोई सुव्यवस्थित क्रियाकलाप-
(i) जो कि नियोजक तथा नियोजित के बीच सहयोग संगठित है।
(ii) जो मानवीय आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरूपित वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन तथा वितरण के लिए (भौतिक वस्तुओं तथा सेवाओं के संदर्भ में) चलाया जाता है, वहाँ पर उद्यम को उद्योग माना जायेगा।
(ख) लाभ का लक्ष्य एवं लाभदायक उद्देश्य का अभाव, उद्योग की परिभाषा के लिए असंगत है। चाहे वह उद्यम सार्वजनिक, संयुक्त निजी या अन्य क्षेत्र में हो।
(ग) वास्तविक केन्द्र कार्यपदक (Functional) है तथा निर्णायक कसौटी नियोजक नियोजित संबंधों पर विशेष अवधारणा के साथ उस कार्यकलाप की प्रकृति है।
(घ) यदि संगठन कोई व्यापार या कारोबार है तो वह उद्योग होने से मात्र इसलिए नहीं रुकेगा कि उस उपक्रम का ध्येय परोपकार है।
(2) सभी संगठित क्रियाकलाप जिसमें पैरा (1) में वर्णित तीन तत्वों; अर्थात् –
(क) वह एक सुव्यवस्थित क्रियाकलाप हो,
(ख) वह नियोजक तथा नियोजित के बीच सहयोग द्वारा संगठित हो, तथा
(ग) वह मानवीय जरूरतों की तुष्टि के लिए निरूपित वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन और वितरण हेतु चलाया जाता हो –
उद्योग हो सकते हैं चाहे भले ही वे व्यापार या कारोबार न हो, बशर्ते कि उस संगठित कार्य-कलाप की प्रकृति व्यापार या कारोबार की तरह की हो।
बम्बई उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त के आधार पर अब्दुल रशीद बनाम इंडियन सैलोरस होम सोसायटी एवं अन्य (1989) L.C.J. 6 Bom के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने ‘सोसायटी’ को भी ‘उद्योग’ माना है। इससे उद्योग की परिधि में निम्न भी आ जाते हैं-
(i) आजीविका तथा सेवाओं को संचालित करने वाले उपक्रम, तथा
(ii) साहसिक कार्य जो व्यापार या कारोबार संचालन के समान है।
यदि शब्दों के प्रयोग में समानता है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि अन्य सभी स्वरूप भिन्न हैं।
(3) यदि पूर्व कसौटियाँ विद्यमान हैं तो निम्न को भी उद्योग विस्तार क्षेत्र से मुक्त नहीं किया जा सकता है-
(i) फलतः व्यवसाय तथा क्लब,
(ii) शैक्षणिक संस्थायें (Educational institutes)
(iii) सहकारी संस्थायें,
(iv) धर्मार्थ, प्रकल्प तथा अन्य सजातीय प्रकार के साहसिक कार्य ।
दिल्ली विश्वविद्यालय बनाम रामनाथ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तथा कई अन्य वादों में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया था कि शिक्षण संस्थायें उद्योग की परिभाषा में नहीं आती परन्तु बंगलौर वाटर सप्लाई के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय ने इन वादों के निर्णयों को आही भावित (Overuled) कर दिया। इस मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने जोर देकर कहा कि “ये शिक्षण संस्थायें उद्योग है क्योंकि ये शिक्षा मात्र ही नहीं बल्कि समस्त उद्योगों की जननी हैं।”
स्पष्टतः इस निर्णय ने शिक्षण संस्थाओं को भी उद्योग की परिधि में ला दिया था परन्तु इस निर्णय को प्रभावहीन बनाने के लिए 1982 में औद्योगिक अधिनियम, 1947 में संशोधन करके पूर्व निर्णयों को प्रभावी कर दिया गया तथा शिक्षण संस्थाओं को उद्योग की परिधि से बाहर कर दिया गया।
व्यवसायी क्लबों, सहकारी क्लबों, गुरुकुल और छोटी प्रयोगशालाओं का एक वर्ग निर्बन्धित वर्ग मुक्ति के लिए अर्ह है। यदि साधारण उद्यमों में सारवान रूप से तथा अभिभावी प्रकृति के सिद्धांतों के द्वारा चलते हुए सारवान रूप से कोई कर्मचारी उन न्यूनतम बातों के सिवाय जिनमें सीमान्त कर्मचारी, संस्थान के कर्मचारी विहीन प्रकृति को नष्ट किये बिना भाड़े पर रखे जाते हैं, ग्रहण नहीं किये जाते हैं।
उ.प्र. वित्त निगम बनाम नीलम शर्मा (2000) (87) F.L.R. 532 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि वित्त निगम (Finance Corpora tion) एक उद्योग है और उसमें कार्य करने वाली नीलम शर्मा को एक लम्बे समय तक कार्य करने के बावजूद भी नियमित न करना अनुश्रित श्रम व्यवहार के तहत् छंटनी है।
यदि किसी पवित्र तथा परोपकारी मिशन में बहुत से लोग स्यंम निःशुल्क या बहुत कम मानदेय पर अथवा इसी तरफ के प्रतिफल के लिये, जिसे वे प्रयोजन अथवा हेतुक के अंश के रूप में प्राप्त करते हैं जिसमें वे पारिश्रमिक के लिए अथवा मालिक और सेवक के संबंध के आधार पर सेवारत नहीं हैं, तो ऐसी दशा में वह संस्था ‘उद्योग’ की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आयेगी चाहे भले ही छुटपुट सेवक, श्रमिक या तकनीकी व्यक्ति भाड़े पर रखे गये हों। परन्तु केवल ऐसे ही तथा इसी प्रकार के उपक्रम उद्योग की परिभाषा में आने से अभियुक्त है अन्य उदारता, दयालुता, विकासमयी भाव या प्रकल्प के किसी आधार पर नहीं।
न्यायिक निर्णयों के आलोक में अस्पताल उद्योग हैं- चिकित्सालय उद्योग है या नहीं इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिये है और इस विषय पर हास्पिटल मजदूर सभा के मामले से लेकर बंगलौर वाटर सप्लाई बनाम ए. राजप्पा के बाद के निर्णय तक बराबर परस्पर विरोधी निर्णयों के कारण विधिक स्थिति बदलती रही है।
सफदरजंग हास्पिटल (1970) के मामले में कुर्जी होली फैमिली हास्पिटल को उद्योग इसलिए नहीं माना गया क्योंकि वह पूर्णरूपेण धर्मार्थ औषद्यालय था जिसमें केवल प्रशिक्षण, शोध और उपचार का कार्य किया जाता था। इसके विपरीत केरल आयुर्वेदीय समाज हास्पिटल और नर्सिंग होम शोरनपुर बनाम कर्मकारण (1979) के बाद में संस्थान को उद्योग माना गया क्योंकि यहाँ पर कर्मचारी नियोजित थे, दवा बनाने वाला विभाग, कारखाना अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत था, रोगियों से फीस ली जाती थी और यह संस्थान व्यापार या कारोबार के रूप में संगठित किया गया था।
अतः सारतः यह कहा जा सकता है कि ऐसे चिकित्सालय सरकार द्वारा अपने संप्रभु कार्यों के अंग के रूप में संचालित किये जा रहे और जिनका एकमात्र उद्देश्य बीमारी की मुफ्त सेवा करना हैं जो उद्योग की श्रेणी में नहीं आते परन्तु ऐसे अन्य चिकित्सालय चाहे वे पब्लिक हो प्राइवेट हो या धर्मार्थ या वाणिज्यिक हो उद्योग की श्रेणी में आते हैं यदि वे ए. राजप्पा के मामले में प्रतिपादित कसौटी की शर्तों को पूरा करते हो।
प्रश्न 4. औद्योगिक विवाद के अर्थ एवं परिभाषा का विश्लेषण कीजिये। Analyse meaning and definition of Industrial Disputes.
उत्तर के लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न संख्या 1 देखें।
प्रश्न 5. व्यक्तिगत विवाद क्या है? यह औद्योगिक विवाद से किस प्रकार भिन्न हो सकता है ? What is Personal Dispute? How it may be Industrial Dispute?
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (क) से यह स्पष्ट है कि मात्र एक व्यक्ति से संबंधित विवाद भी हो सकता है। परन्तु इस धारा में पहले कोई व्यक्तिगत विवाद औद्योगिक विवाद तभी हो सकता था जबकि उसे कर्मकारों अथवा यूनियन का समर्थन प्राप्त हो। अतः यह आवश्यक है कि कर्मकार एक निकाय के रूप में यथेष्ट संख्या में ऐसे व्यक्तिगत विवाद को सर्वसाधारण प्रयोजन का विवाद बनाये।
इस प्रकार अधिनियम में धारा 2 (क) को सम्मिलित किये जाने के पूर्व केवल सामूहिक विवाद को ही औद्योगिक विवाद हो सकता था। परन्तु “सामूहिक विवाद” का तात्पर्य यह नहीं है कि ऐसा विवाद किसी पंजीकृत यूनियन द्वारा या कर्मकारों की बहुसंख्या द्वारा अथवा कर्मकारों के बहुमत द्वारा समर्थित हो अथवा सभी उसमें पक्षकार भी हों।
किसी गैर श्रमसंघ द्वारा समर्पित विवाद भी औद्योगिक विवाद हो सकता है बशर्त श्रम संघ उसी नियोजक तथा उद्योग से संबंधित हो जिससे कि वह कर्मकार, जिसके बारे में विवाद उठा है, संबंधित है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जिस व्यक्ति के संबंध में विवाद उठाया गया है वह उस ट्रेड यूनियन का सदांच हो जो कि उसका समर्थन कर रही है जैसा कि वेस्टन इंडिया वाच कम्पनी लि. बनाम वेस्टन इंडिया वाच कम्पनी कर्मकार संघ AIR 1970 S.C. के वाद में अवधारित किया गया है।
परन्तु यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि किसी ऐसे व्यक्ति के अनियोजन के प्रश्न से संबंधित औद्योगिक विवाद नहीं उठाया जा सकता जो व्यक्ति कर्मकार की परिभाषा में नहीं आता है-चाहे ऐसे व्यक्ति तथा अन्य कर्मकारों के हित समान ही क्यों न हों।
श्रीमती पी. रामासुन्दरम् बनाम श्रम न्यायालय (1970) L.C.J. 568 (A.P.) मामले में यह निर्णीत किया गया है कि किसी व्यक्तिगत विवाद को औद्योगिक विवाद मानने के लिए कर्मकारों द्वारा उसके समर्थन में प्रस्ताव पारित किया जाना आवश्यक नहीं है परन्तु यथेष्ट संख्या में कर्मकारों द्वारा उस व्यक्तिगत विवाद के समर्थन में किसी न किसी प्रकार से उनकी सामूहिक इच्छा की अभिव्यक्ति का होना आवश्यक है। ऐसे समर्थन प्राप्त होने के बाद जब कभी किसी व्यक्तिगत विवाद को संदर्भित कर दिया जाता है और इस प्रकार के संदर्भ के बाद कर्मकारगण अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो इसके बाद भी वह विवाद औद्योगिक विवाद ही माना जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स लि. के कर्मकारगण बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स के प्रबंधकगण AIR 1970 S.C. के मामले में यह इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स लि. के दो कर्मकारों के संबंध में दिल्ली संवाददाता संघ ने एक संग्रथित किया जबकि वह उन कर्मकारों से संबंधित न थे। एक्सप्रेस के करीब 25% संवाददाता उस गंध के सदस्य थे परन्तु इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाताओं की अपनी कोई यूनियन नहीं थी। उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया कि दिल्ली के संवाददाताओं के संघ के संबंध में कहा जा सकता है कि इसे इंडियन एक्सप्रेस में नियुक्त संवाददाताओं का एक प्रतिनिधिक स्वरूप प्राप्त था और इस विवाद को औद्योगिक विवाद की कोटि में रखा जा सकता है।
प्रश्न 6. औद्योगिक विवाद क्या होता है ? व्यक्तिगत विवाद से इसका क्या अन्तर है ? व्यक्तिगत विवाद कब औद्योगिक विवाद में परिणत हो जाता है ? What is an Industrial Dispute? Distinguish it From and Industrial dispute when does an dispute become an Industrial dispute.
अथवा
‘औद्योगिक विवाद’ क्या है ? कब व्यक्तिगत विवाद, औद्योगिक विवाद में परिणत हो जाता है ? समझाइये। What is ‘Industrial Dispute’? When individual dispute may become industerial dispute?
उत्तर – के लिए दीर्घ उत्तरीय प्रश्न सं. 1, 5 तथा 2 देखें।
प्रश्न 7. औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत औद्योगिक विवादों को विभिन्न प्राधिकारियों को निर्देशित करने के सम्बन्ध में प्रावधानों की व्याख्या कीजिए।Explain provisions relating to reference of industrial disputes to various authorities under the Industrial Disputes Act, 1947.
अथवा
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में औद्योगिक विवाद के निस्तारण के लिये क्या तंत्र है ? What is machinery for settlement of Industrial Dispute under the I.D. Act, 1947?
अथवा
‘जाँच न्यायालय’ को समझाइए। Describe ‘Courts of Inquiry ?
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम के अन्तर्गत निम्न पाँच प्राधिकारियों का उल्लेख ऐसे प्राधिकारियों के रूप में किया गया है जिन्हें किसी औद्योगिक विवाद के विषय में अथवा उससे संबंधित या अनिवार्य मामले में निर्देशन किया जा सकता है –
1. समझौता बोर्ड (Conciliation Board)
2. जाँच न्यायालय (Inquiry Court)
3. श्रम न्यायालय (Labour Court)
4. औद्योगिक न्यायाधिकरण (Industrial Tribunal) तथा
5. राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (National Tribunal)
(1) समझौता बोर्ड के निर्देशन (Reference to the Conciliation) – यदि अधिनियम की धारा 10 (1) (अ) के अन्तर्गत उचित सरकार का यह मत है कि कोई ऐसा औद्योगिक विवाद –
(i) वर्तमान है, अथवा
(ii) इसकी प्रबल संभावना है,
तो वह किसी भी समय अपने लिखित आदेश द्वारा विवाद के समझौते का प्रवर्तन कराने के लिए उसे समझौता बोर्डको निर्देशित कर सकती है।
ऐसा निर्देशन कर दिये जाने पर उचित सरकार अपने आदेश द्वारा विवाद से संबंधित उस हड़ताल या बंदी को जारी रखने का निषेध कर सकती है जो निर्देशन की तिथि पर अस्तित्व में है। यदि औद्योगिक विवाद के पक्षकार चाहें तो संयुक्त रूप से या अलग-अलग विवाद को समझौता बोर्ड को निर्देशित किये
जाने के लिए उचित सरकार को निर्धारित रीति से प्रार्थना पत्र भेजकर याचना कर सकते हैं और यदि समुचित सरकार इस बात से संतुष्ट हो जाये कि इस प्रकार प्रार्थना करने वाले व्यक्ति प्रत्येक पक्ष के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं तो उचित सरकार विवाद को बोर्ड को निर्देशन हेतु बाध्य होगी। उचित सरकार ऐसे मामले में अपने सकारात्मक विवेक का प्रयोग करेगी नकारात्मक विवेक का नहीं।
(2) जाँच न्यायालय को निर्देशन (Reference to Enquiry Court) – इस अधिनियम की धारा 10 (1) (बी) के अन्तर्गत जहाँ उचित सरकार की यह राय है कि कोई औद्योगिक विवाद वर्तमान है अथवा इसकी आशंका है तो वह किसी समय अपने लिखित आदेश द्वारा विवाद से संबंधित मामले या विवाद से उत्पन्न हो सकने वाले ऐसे अनिवार्य मामले की जाँच करने के लिए मामले को जाँच न्यायालय को निर्देशित कर सकती है। जाँच मामले की पूर्ण रूप से जाँच करके अपना प्रतिवेदन 6 मास में समुचित सरकार को सौंप देगा।
ऐसा निर्देशन पक्षकारों द्वारा सम्यक् रूप से प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत करने पर भी हो सकता है। यदि उचित सरकार इस बात से संतुष्ट है। इस प्रकार प्रार्थना-पत्र देने वाले व्यक्ति प्रत्येक पक्ष के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
(3) श्रम न्यायालय को निर्देशन (Reference to Labour Court) अधिनियम की धारा 10 (1) (सी) के अनुसार जहाँ उचित सरकार की यह राय है कि कोई औद्योगिक विवाद –
(i) वर्तमान है, अथवा
(ii) इसकी आशंका है-
तो वह लिखित आदेश द्वारा किसी समय-
(क) उस विवाद को, अथवा
(ख) उससे संबंधित मामले को, या
(ग) उस मामले के अनिवार्य प्रसंग को
यदि वह द्वितीय अनुसूची में निर्धारित कोई मामला है, विनिर्णय हेतु श्रम न्यायालय को सौंप सकती है।
ऐसा निर्देशन किये जाने पर उचित सरकार को यह अधिकार है कि वह विवाद से संबंधित उस हड़ताल या तालाबंदी का निषेध कर दें जो कि निर्देश की तिथि पर वर्तमान था।
(4) औद्योगिक न्यायाधिकरण को निर्देशन (Reference to Industrial Tribunal) – अधिनियम की धारा 10 (1) (D) में औद्योगिक न्यायाधिकरण को निर्देशन के बारे में प्रावधान किया गया है। इस धारा के अनुसार जहाँ उचित सरकार को यह राय है कि कोई-
(i) औद्योगिक विवाद वर्तमान है, अथवा
(ii) उसकी संभावना है-
तो वह किसी समय अपने लिखित आदेश द्वारा-
(क) उस विवाद को, या
(ख) ऐसे मामले को जो उससे संबंधित है, अथवा
(ग) विवाद के किसी अनिवार्य विषय को
विनिर्णय के लिए औद्योगिक न्यायाधिकरण के निर्देशित कर सकता है। यदि मामला तृतीय अनुसूची से संबंधित है तो समुचित सरकार यदि वह आवश्यक समझती है तो वह-
(अ) खण्ड (सी) के अन्तर्गत, और यदि –
(ब) इसका प्रभाव 100 से अधिक कामगारों पर पड़ना संभव नहीं है तो वह मामले को श्रम न्यायालय को निर्देशित कर सकती है।
यदि मामला सेवा से संबंधित है और धारा 22 के अन्तर्गत सूचना दी जा चुकी है तो उचित सरकार का जब तक यह विचार न हो कि वह विद्वेषपूर्ण अथवा तंग करने वाली रीति से दी गयी है अथवा ऐसा करना आवश्यक होगा तो वह औद्योगिक विवाद का निर्देशन इस उपधारा के अधीन कर सकती है, चाहे इस अधिनियम के अन्तर्गत विवाद की कोई कार्यवाही आरम्भ क्यों न की जा चुकी हो।
एल. एच. सुगर फैक्ट्रीज बनाम उ.प्र. राज्य AIR 1962 Alld. के मामले में यह निर्णीत किया गया है कि जहाँ पर समुचित सरकार ने किसी विषय को न्यायाधिकरण को निर्देशित कर दिया है, वहाँ पर वह न्यायाधिकरण अपने पूर्व निर्णय व्यय का भी पुनर्विलोकन कर सकता है और ऐसे मामले में प्राङ्न्याय का सिद्धांत भी लागू नहीं होगा। स्पष्ट किया है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा वाद को निर्देशित करने सर्वोच्च न्यायालय में अपने निर्णय में का अधिकार दो बातों पर निर्भर करता है-
प्रथम – वह उद्योग नियंत्रित उद्योग हो, तथा
द्वितीय- उस विवाद के परिप्रेषण के लिए केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचना जारी कर दी गयी हो।
(5) राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को निर्देशन (Reference to National Tribunal)- यदि केन्द्रीय सरकार की राय है कि कोई औद्योगिक विवाद-
(i) वर्तमान है, अथवा
(ii) उसके उठने की प्रबल संभावना है और
(iii) इसमें राष्ट्रीय महत्व का प्रश्न अन्तर्विष्ट है, अथवा
(iv) विवाद इस प्रकार का है कि औद्योगिक व्यवस्थापन एक से अधिक राज्यों में प्रस्थापित है और
(v) वे ऐसे विवाद से हितबद्ध है, अथवा
(vi) जहाँ इस विवाद से लोग प्रभावित होंगे, और
(vii) यह कि इस विवाद का निपटारा राष्ट्रीय न्यायाधिकरण द्वारा होना चाहिए-
तो केन्द्रीय सरकार चाहे इस विवाद से संबंधित उचित सरकार हो या न हो –
अपने लिखित आदेश द्वारा किसी समय कोई विषय जो-
(क) इस विवाद से संबंधित है, अथवा
(ख) जो विवाद का महत्वपूर्ण विषय है, चाहे वह (ग) द्वितीय अनुसूची में, या
(घ) तृतीय अनुसूची में निर्धारित हो –
राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को विनिर्णय के लिए निर्देशित कर सकती है और जहाँ पर ऐसा कोई निर्देशन किसी राष्ट्रीय न्यायाधिकरण को किया गया है तो इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए कोई श्रम न्यायालय या न्यायाधिकरण किसी ऐसे मामले में विनिर्णय का क्षेत्राधिकार नहीं रखेगा।
प्रश्न 8. विवादों को विवाचन के लिए स्वेच्छया निर्देशन करने के बारे में अधिनियम के प्रावधानों पर प्रकाश डालिये। Throw light on the provisions of the Act about voluntry of dispute to Arbitration. reference
अथवा
क्या औद्योगिक विवाद का न्याय निर्णयन हेतु संदर्भित किया जाना विवेकाधिकार है या ‘समुचित सरकार’ के लिए कुछ मापदण्ड बाध्यकारी है ? यदि हाँ, तो कौन ? Whether the reference of an Industrial Dispute for adjudication is mere discretionary or the appropriate government is bound with any criteria ? If so, what are they ?
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10क एक मायने में अपनी पूर्ववर्ती धारा 10 भिन्न है। धारा 10 के अन्तर्गत किसी औद्योगिक विवाद को सरकार द्वारा न्याय निर्देशित करने का प्रावधान किया गया है चाहे वह –
(i) अपने विवेक पर ऐसा करें, अथवा
(ii) औद्योगिक विवाद से संबंधित पक्षकारों द्वारा आवेदन के आधार पर ऐसा करें।
परन्तु धारा 10 के के विवाद से आबद्ध पक्षकारों को स्वयं इस बात के लिए प्राधिकृत करती है कि अपना विवाचक स्वयं अपनी ओर से चुनें जिसमें श्रम न्यायालय या राष्ट्रीय अधिकरण भी सम्मिलित माना जायेगा।
“इस अधिनियम की धारा 10 के (1) के अनुसार जहाँ-
(i) कोई औद्योगिक विवाद अस्तित्व में है, या
(ii) ऐसे किसी विवाद के उत्पन्न होने की आशंका है, तथा (iii) नियोजन एवं कर्मकारगण विवाद को विवाचन को सुपुर्द करने के लिये सहमत है तो ये इस विवाद को विवाचन हेतु निर्देशित कर सकते हैं।
इस प्रकार का निर्देश विवाद को धारा 10 के अन्तर्गत श्रम न्यायालय या राष्ट्रीय अधिकरण को नाम निर्देशित करने के पूर्व किया जा सकता है। यह निर्देश ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के नाम किया जायेगा (जिसमें इन न्यायालयों के अध्यक्ष भी सम्मिलित हैं) जिन्हें विवाचन समझौते में विवाचक नियुक्त करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है।
धारा 10 के (1-क) के अनुसार जहाँ विवाचन समझौते में विवाद को समसंख्या के विवाचक के पास सुपुर्द करने का विनिश्चय किया गया है वहाँ पर उस समझौते में निर्णायक के रूप में कार्य करने वाले एक अन्य व्यक्ति की भी नियुक्ति की जायेगी और ऐसा व्यक्ति विवाचन में उस समय प्रविष्ट होगा जब कि विवाचन के निर्णय में मत बराबर हो जाते हैं। ऐसी दशा में उस निर्णायक द्वारा दिया गया पंचाट प्रभावी माना जायेगा और उसे इस अधिनियम प्रयोजनों के लिये एक विवाचन पंचाट को मान्यता दी जायेगी।
इस अधिनियम की धारा 10 क (2) के अनुसार उपधारा (1) के अन्तर्गत निर्देशित औद्योगिक विवाद यथाविहित प्राच्य ग में तथा यथाविहित हस्ताक्षरित रूप में प्रस्तुत किया जायेगा। निर्देशन के समझौते के साथ लिखित रूप में विवाचक की सहमति का संलग्न किया जाना भी आवश्यक है।
धारा 10 क (3) के अन्तर्गत विवाचन अनुबंध की एक प्रति समुचित सरकार को तथा एक समझौता अधिकारी को अग्रसरित किया जाना आवश्यक है। समुचित सरकार इस प्रति को प्राप्त करने के एक मास के भीतर उसे राजपत्र में अधिसूचित कर देगी।
उपधारा 3 के के अनुसार जहाँ पर कोई औद्योगिक विवाद विवाचन को सुपुर्द किया गया है और समुचित सरकार इस बात से संतुष्ट है कि निर्देशन करने वाले व्यक्ति विवाद से संबंधित पक्षकारों की बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं तो समुचित सरकार अनुबंध की ऐसी प्रति प्राप्त करने के एक मास के भीतर इस संबंध में यथा विहित रीति से एक अधिसूचना जारी करेगी।
ऐसी अधिसूचना जारी किये जाने के पश्चात् ऐसे नियोजक या कर्मकारों को जो कि इस विवाचन अनुबंध के पक्षकार नहीं हैं परन्तु विवाद से संबंधित हैं, विवाचक या विवाचकों के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर दिया जायेगा।
धारा 10 के (4) के अधीन विवाचक या विवाचकगण विवाद के मामले में जाँच करेंगे और विज्ञचक या सभी विवाचकों द्वारा दिये गये पंचाट को हस्ताक्षरित और लिखित रूप से समुचित सरकार के पास समर्पित किया जायेगा।
उपधारा 4 के के अन्तर्गत जहाँ कोई औद्योगिक विवाद विवाचन को सुपुर्द कर दिया गया है तथा उपधारा 8 क के अधीन अधिसूचना जारी कर दी गयी है वहाँ समुचित सरकार ऐसे विवाद के चालू रहने की अवधि तक हड़ताल या कारखानाबंदी प्रतिषेधित कर सकती है जो कि निर्देश की तिथि को अस्तित्व में रहा हो और समुचित सरकार ऐसा एक आदेश जारी करने के द्वारा करेगी।
उपधारा 5 के अनुसार इस धारा के अन्तर्गत उल्लिखित विवाचन के संबंध में विवाचन अधिनियम 1940 की कोई भी बात लागू नहीं होगी।
रोहतास इण्डस्ट्री बनाम उसकी यूनियन AIR 1976 S.C. के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अवधारित किया है कि धारा 10 के के अन्तर्गत विवाचन एक सांविधिक अभिकरण है। विवाचन द्वारा दिये गये पंचाट में यदि स्पष्टतः विधि संबंधी त्रुटि दिखायी पड़ती है तो उसे परिवर्तित किया जा सकता है।
राजिन्दर कुमार किन्ड्रा बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया है। कि इस धारा के अन्तर्गत नियुक्त विवाचक घरेलू छानबीन के दौरान प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों का पुनर्विलोकन कर अपने आपको संतुष्ट कर सकता है कि क्या नियोजक द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों से कर्मकार का अवचार साबित होता है। यह अधिकार उसे इस अधिनियम की धारा 11 के द्वारा प्रदान किया गया है।
प्रश्न 9. व्यवसाय संघ अधिनियम 1926 के अन्तर्गत पंजीकृत व्यवसाय संघ के अधिकारों एवं दायित्वों की विवेचना कीजिए। Examine the rights and liabilities of registered Trade Union under Trade Union Act, 1926.
अथवा
व्यवसाय संघ अधिनियम, 1926 के अन्तर्गत रजिस्ट्रीकृत व्यवसाय संघ के अधिकार और कर्तव्यों की व्याख्या कीजिए। Explain the rights and duties of registered Trade Union under Trade Union Act, 1926.
उत्तर- व्यवसाय संघ अधिनियम 1926 की धाराओं 15, 16 तथा 17 में पंजीकृत व्यवसाय संघों के अधिकारों एवं दायित्वों का वर्णन किया गया है जो निम्न प्रकार से हैं-
(1) उद्देश्य जिन पर सामान्य निधियाँ व्यय की जा सकती हैं- व्यवसाय संघ अधिनियम की धारा 15 व्यवसाय संघ निधि के व्यय पर एक प्रकार का प्रतिबन्ध प्रस्तुत करती है। पंजीकृत व्यवसाय संघ की सामान्य निधियाँ निम्न उद्देश्यों के अतिरिक्त किन्हीं अन्य उद्देश्यों के लिए व्यय नहीं की जायेगी –
(क) व्यवसाय संघ के पदाधिकारियों के वेतन, भत्ता तथा तत्सम्बन्धी अन्य खर्चे,
(ख) व्यवसाय संघ के प्रशासन पर किये गये खर्चों का भुगतान जिसमें व्यवसाय संघ के लेखा परीक्षण के खर्चे भी शामिल हैं,
(ग) किसी वैधानिक कार्यवाही से सम्बन्धित अभियोजन या बचाव जिसमें व्यवसाय संघ या कोई सदस्य पक्षकार हो,
(घ) व्यवसाय संघ या उसके किसी सदस्य की ओर से व्यवसाय विवादों का संचालन,
(ङ) बीमारी, दुर्घटनाओं अथवा अभियोजन की स्थिति में उनके आश्रितों के लिए भत्ते आदि का प्रावधान,
(च) व्यवसाय संघ के सदस्यों को औद्योगिक विवाद से उत्पन्न हानि की क्षतिपूर्ति,
(छ) सदस्यों अथवा सदस्यों के आश्रितों के शैक्षणिक, सामाजिक एवं धार्मिक हेतु किये गये व्यय
(ज) मुख्यतया नियोजकों या कर्मकारों पर उनकी उस हैसियत में प्रभाव डालने वाले प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए पत्रिकाओं के प्रकाशन तथा उनके अनुरक्षण के सम्बन्ध में किये गये व्यय,
(झ) उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले किसी भी कार्य के अंशदान के लिए किया गया भुगतान परन्तु यह अनिवार्य है कि इससे सामान्य श्रमिक का लाभ होता हो,
(ञ) अधिसूचना में निर्दिष्ट शर्तों के अतिरिक्त किसी ऐसे अन्य उद्देश्य पर किया गया व्यय जो समुचित सरकार के माध्यम से राजपत्र में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित किया गया हो।
व्यवसाय संघ की सामान्य निधियों को किसी अवैध हड़ताल या अवैध तालाबंदी के सम्बन्ध में व्यय करना अवैध है।
अपने किसी सदस्य के प्रति व्यवसाय संघ का क्या कर्त्तव्य है, इसका निर्धारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा क्रास बनाम ब्रिटिश आयरन स्टील एण्ड किण्डर्ड ट्रेड एसोसियेशन (1968) लेबर रेडियन केसेज 1926 (सी.ए.) नामक वाद में किया है।
इस मामले में संघ का एक सदस्य दुघर्टनाग्रस्त हो गया जिसकी पूरी जानकारी संघ के सचिव को दी गयी थी। संघ ने मामले के सभी तथ्य विधिक परामर्शदाता को प्रेषित कर दिये जिससे नियोजक के प्रति कोई कार्यवाही करने सम्बन्धी हेतुक नहीं होने के कारण न्यायालय में वाद न प्रस्तुत करने सम्बन्धी परामर्श प्रदान किया।
सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निर्णीत किया कि सालिसिटर से परामर्श प्राप्त हो जाने के बाद संघ का अपने सदस्य के प्रति मामले को न्यायालय में प्रस्तुत करने का दायित्व समाप्त हो जाता है।
(2) राजनीतिक प्रयोजनों के लिए पृथक् निधि का गठन (Creation of Separate Political Fund)- व्यवसाय संघ अधिनियम की धारा 16 द्वारा व्यवसाय संघों को ऐसे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कार्य करने हेतु अधिकृत किया गया है जोकि उसके प्राथमिक उद्देश्यों से असंगत न हो। इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पृथक् निधि का गठन किया जा सकता है। धारा 16(2) में इस प्रयोजन हेतु कुछ व्यवहारों तथा राजनीतिक उद्देश्यों का वर्णन किया गया है जो संघ के प्राथमिक उद्देश्यों से संगत माने गये है।
(3) व्यवसाय विवादों में आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy in Trade Disputes) – व्यवसाय संघ अधिनियम की धारा 17 आपराधिक षड्यंत्र के सम्बन्ध में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख) के अन्तर्गत एक पंजीकृत व्यवसाय संघ के पदाधिकारी या सदस्य द्वारा किये गये अपराध के सम्बन्ध में उन्मुक्ति प्रदान करती है। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि श्रमिक संघ के उद्देश्यों की अभिवृद्धि हेतु कोई ठहराव आपराधिक क्रिया को करने हेतु किया गया हो।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख) में आपराधिक षड्यंत्रों का उल्लेख किया गया है जो किसी अपराध को करने के लिए षड्यंत्र नहीं है।
आपराधिक षड्यंत्र के चार मुख्य शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है –
1. अपराध करने हेतु ठहराव,
2. किन्हीं दुष्कृतिपूर्ण कार्यों को करने सम्बन्धी ठहराव,
3. न्याय प्रक्रिया में बाधा पहुँचाने सम्बन्धी ठहराव,
4. सामाजिक नैतिकता के विरोधस्वरूप किसी कार्य को करने का ठहराव । उपरोक्त ठहरावों पर संख्या 1 पर वर्णित अपराध को किसी प्रकार की उन्मुक्ति प्रदान नहीं की जा सकती। इसी प्रकार संख्या 3 तथा 4 में वर्णित अपराधों को भारतीय दण्ड संहिता में सम्मिलित किया गया है तथा इनके अन्तर्गत किये गये षड्यंत्रों को भी धारा 17 में उन्मुक्ति नहीं प्रदान की गयी है।
(4) कतिपय मामलों में दीवानी वादों से छूट (Immunity from Civil Suits in certain matters)- इस अधिनियम की धारा 18 के अन्तर्गत पंजीकृत व्यवसाय संघ अथवा उसके | किसी सदस्य या पदाधिकारी के विरुद्ध किसी ऐसे कार्य के सम्बन्ध में जो औद्योगिक विवाद के सम्बन्ध में अथवा उसके उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया हो, जिसमें श्रमिक संघ का कोई सदस्य अथवा पदाधि कारी पक्षकार हो, कोई वाद या अन्य विधिक कार्यवाही निम्न किसी आधार पर नहीं चलायी जा सकती (1) इस कार्य ने किसी अन्य व्यक्ति को नियोजन अनुबंध भंग करने के लिए प्रेरित किया है, अथवा
(2) वह कार्य किसी अन्य व्यक्ति के व्यापार, व्यवसाय अथवा नियोजन में हस्तक्षेप करता है, अथवा
(3) वह कार्य किसी अन्य व्यक्ति के उस अधिकार में हस्तक्षेप है कि वह अपनी पूँजी पर उसके श्रम को स्वेच्छा से उपयोग में ला सकें।
परन्तु यह छूट केवल सीमित मामलों में ही प्राप्त है और यदि व्यवसाय संघ अथवा उसके सदस्य अथवा प्राधिकारी अपनी कथित कार्यवाही में धमकी, हिंसा अथवा किसी अन्य अवैध साधन का उपयोग करते हैं तो उन्हें धारा 18(1) की यह उन्मुक्ति प्राप्त नहीं होगी।
धारा 18(2) के अन्तर्गत पंजीकृत व्यवसाय संघ को उसके अपकृत्यपूर्ण कार्यों के लिए भी उन्मुक्ति प्रदान की गयी है।
(5) लेखा पुस्तकों के निरीक्षण का अधिकार (Inspection of Account Books) – इस अधिनियम की धारा 20 के अन्तर्गत पंजीकृत व्यवसाय संघ के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को संघ को समस्त लेखा पुस्तिकाओं एवं सदस्यों की सूची के परीक्षण का अधिकार दिया गया है। इसके लिए उपनियमों द्वारा वह समय निश्चित किया जा सकता है जबकि उक्त दस्तावेज निरीक्षण के लिए उपलब्ध करवाये जायेंगे। इस प्रावधान का ध्येय यह है कि जो व्यक्ति व्यवसाय संघ के लेखे से सम्बन्धित हों, वह उस व्यवसाय के लेखे उपयुक्तता से अपने आपको स्पष्ट कर सकें।
(6) अवयस्कों को व्यवसाय संघ की सदस्यता का अधिकार (Right of Minor’s to become member of the Trade Union) – व्यवसाय संघ अधिनियम 1926 की धारा 21 के अन्तर्गत अव्यस्कों को व्यवसाय संघ की सदस्यता प्रदान करने का अधिकार दिया गया है।
धारा 21 के अनुसार जिस व्यक्ति ने 15 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है वह व्यवसाय संघ की सदस्यता प्राप्त कर सकता है, यदि व्यवसाय संघ ने इसके विपरीत कोई नियम न बनाया हो। अवयस्क सदस्य उस व्यवसाय संघ के नियमों के अधीन रहते हुए एक सदस्य के सभी अधिकारों का प्रयोग करेगा तथा सभी प्रलेखों का निरीक्षण कर सकेगा परन्तु धारा 21 (क) में यह उल्लेख किया गया है कि अवयस्क सदस्य तब तक व्यवसाय संघ का पदाधिकारी नहीं बन सकता जब तक कि वह 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं कर लेता।
प्रकाश सी. दास बनाम प्रकाश के भांजा (2001) S. L. T. 275 के मामले में यह निर्णीत किया है कि जब व्यवसाय संघ के वर्ष 1997-98 तथा वर्ष 1998-99 के चुनाव घोषित किये जा चुके हैं तो ऐसी दशा में व्यवसाय संघ के वर्ष 1996-97 के चुनाव सम्बन्धी विवाद पर न्यायालय द्वारा कोई भी सुनवाई नहीं की जा सकती। ध्यातव्य है कि 1998-99 वर्ष के चुनाव भी उच्च न्यायालय के एक निर्णय के आदेश के अधीन आयोजित किये गये थे। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तुत मामले में 2001-02 वर्ष के चुनाव शीघ्रातिशीघ्र आयोजित किये जाने के निर्देश प्रदान किये थे।
प्रश्न 10. प्रतिवेदन, पंचाट प्रारूप तथा पंचाटों के प्रकाशन के विषय में अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या कीजिये। Expalin the law of the Act relating to report, form of award and it’s publication.
अथवा
पंचाटों के प्रकाशन तथा प्रारम्भ होने से संबंधित विधि का विवेचन कीजिये । Discuss the law relating to publication and begining of award.
अथवा
पंचाट के प्रकाशन के वैध परिणामों पर प्रकाश डालिये।Throw light on the legal consequences of publication of award.
उत्तर- औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा प्रतिवेदन तथा पंचाट के प्रारूप के बारे में प्रावधान करती है जिसमें किसी औद्योगिक विवाद से संबंधित कोई प्रतिवेदन अथवा पंचाट लिखा जाता है।
इस धारा के अनुसार बोर्ड या न्यायालय एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा गठित किया जा सकता है। इसलिए बोर्ड या न्यायालय की रिपोर्ट पर उसके सभी सदस्यों का हस्ताक्षर होना चाहिए। श्रम न्यायालय, औद्योगिक अधिकरण तथा राष्ट्रीय अधिकरण द्वारा दिये गये पंचाट पर उसके पीठासीन अधिकारी का हस्ताक्षर होना चाहिए।
धारा 16 (1) के परन्तुक में यह उपबंधित है कि बोर्ड अथवा न्यायालय का कोई सदस्य की गयी सिफारिशों से असहमति व्यक्त कर सकता है पर ऐसे असहमति व्यक्ति करने वाले व्यक्ति को भी अपना हस्ताक्षर करना होगा। जब तक प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर नहीं कर दिया जाता तब तक उसे वैध नहीं माना जा सकता।
समझौता बोर्ड या जाँच न्यायालय का प्रतिवेदन या किसी श्रम न्यायालय, औद्योगिक या राष्ट्रीय अधिकरण का प्रतिवेदन लिखित रूप में होगा।
प्रतिवेदन तथा पंचाटों का प्रकाशन (Publication of Report and Award)
इस संबंध में प्रावधान अधिनियम की धारा 17 किया गया है।
इस धारा के अनुसार बोर्ड या न्यायालय का प्रतिवेदन असहमति सूचक टिप्पणी के उल्लेख के साथ धारा 16 के उपबंधों के अनुसार समुचित सरकार द्वारा उक्त प्रतिवेदन के प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर प्रकाशित कर दिया जायेगा। यथाविहित रीति से प्रकाश के बाद पंचाट अंतिम माना जायेगा और किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकेगा।
ध्यातव्य है कि धारा 17 आदेशात्मक प्रकृति की है तथा समुचित सरकार पर यह दायित्व अधिरोपित करती है कि वह पंचाट का प्रकाशन उक्त 30 दिनों के भीतर अवश्य कर दें।
अपवाद (Exception)- परन्तु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में समुचित सरकार को यह शक्ति प्राप्त है कि वह धारा 17 (1) के अधीन किसी पंचाट को प्रकाशित न करें। ऐसी परिस्थिति में जहाँ पर पक्षकारों के बीच अधिकरण द्वारा सरकार को पंचाट भेजने के बाद समझौता हो गया है परन्तु उक्त समझौते तक पंचाट का प्रकाशन नहीं हुआ है, वहाँ पर ऐसी परिस्थिति में एक अपवाद स्वरूप होगी और धारा 18(1) तथा धारा 18(3) के बीच समझौते में एक संघर्ष 36 खड़ा हो सकता है। ऐसी दशा में इन दोनों प्रावधानों के बीच मध्यम मार्ग यही है कि पंचाट के प्रकाशन को रोक दिया जाये क्योंकि वाह्यकारी समझौता पहले ही प्रवर्तन में आ चुका है। इससे संभाव्य संघर्ष समाप्त हो जायेगा।
एस. एस. मुजीब बनाम लेबर कोर्ट अनन्तपुर एवं अन्य (1980) II LL.J. 535 (A.P.) के बाद में विवाद की सुनवाई एक आफीसर ने किया था परन्तु पंचाट पर हस्ताक्षर, अधिकरण के उत्तराधिकारी पीठासीन अधिकारी द्वारा किया गया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पंचाट अवैध और दूषित है क्योंकि यह एक सारवान अनियमितता है। पंचाट श्रम न्यायालय द्वारा उसी दिन, विमा गजट में इसके प्रकाशन की तारीख तक प्रतीक्षा किये ही घोषित किया जा सकता है।
पंचाट का प्रारम्भ होना (धारा 17 क)- धारा 17क के अनुसार कोई पंचाट जिसमें कि – विवाचन पंचाट भी सम्मिलित है-
धारा 17 के अन्तर्गत उसके प्रकाशन के 30 दिन के भीतर लागू हो जायेगा। उपधारा (1) के परन्तुक में ऐसी के बारे में बताया गया है जिसमें पंचाट का प्रवर्तन समाप्त किया जा सकता है। पंचाट 30 दिन के बाद प्रवर्तनीय हो जायेगा।
पंचाट उस तारीख को प्रवर्तन में आ जायेगा जो पंचाट में निर्दिष्ट की गयी है। यदि पंचाट में ऐसी कोई तारीख निश्चित नहीं की गयी है तो पंचाट उस तारीख से प्रवर्तन में आयेगा जिससे वह अनुपालनीय होगा। परन्तु किसी भी पंचाट की प्रवर्तनीयता उपधारा (1) और 3 में पंचाट की अनुपालनीयता संबंधी उपबंधों के अध्यधीन है। यदि पंचाट में प्रवर्तन की कोई तारीख निर्दिष्ट नहीं की गयी है तो वह प्रकाशन की तारीख से 30 दिन बाद प्रवर्तनीय हो जायेगा परन्तु पंचाट के प्रवर्तन की तारीख निश्चित करना विवेकाधीन होता है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि पंचाट को निर्देश की तारीख से ही प्रभावी बनाया जाये।
यदि औद्योगिक न्यायाधिकरण की राय में किसी पंचाट को निर्देश की तारीख के पहले से प्रभावी बनाना न्यायोचित है तो पंचाट को भूतलक्षी रूप में प्रभावी बनाने का प्राधिकार है, परन्तु जब तक इस बात का समुचित कारण न हो कि अधिकरण द्वारा अपने विवेक का प्रयोग समुचित ढंग से किया गया है तो मात्र इसी कारण की पंचाट का प्रवर्तन भूतलक्षी है, पंचाट में हस्तक्षेप का आधार नहीं हो सकता है।
वर्कमैन आफ मेट्रो थियेटर लि. बम्बई बनाम मेट्रो थियेटर लि. बम्बई (1981) II L. Id. 948 (S.C.) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया है कि अधिकरण को यह निर्णय करने का विवेकाधिकार प्राप्त है कि उसके द्वारा दिया पंचाट वास्तव में कब से लागू होगा। ऐसा निर्णय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर विचार करते हुए दिया जायेगा परन्तु इस मामले में कोई सामान्य नियम निर्धारित करन संभव नहीं है जब तक कि अधिकरण द्वारा दिये गये किसी निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाता है और जब तक कि अधिकरण द्वारा युक्ति संगत रूप में अपनी शक्ति का उपयोग किये जाने का तात्विक आधार विद्यमान होना साबित नहीं कर दिया जाता है।
पंचाट के प्रकाशन के वैध परिणाम (Loyal Consequences of Publication of Award)
सामान्यतः पंचाट के प्रकाशन के दो निम्न परिणाम होते हैं-
(1) सरकार पंचाट को संशोधित या अमान्य कर सकती है (Government may Amend or discard award) – प्रकाशन के वाद रूपान्तरण किये जाने के कुछ उपबंधों के प्रतिबंध के साथ प्रकाशन के बाद पंचाट अंतिम होगा और फिर किसी न्यायालय द्वारा किसी रीति से उस पर विचार नहीं किय जायेगा। इसके विरुद्ध केवल संवैधानिक उपचार, यथा संविधान के अनु. 226 तथा 227 के अधीन उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जा सकती है।
(2) अपने प्रकाशन के 30 दिन की अवधि के अन्दर पंचाट प्रवर्तनीय होगा परन्तु इसके लागू किये जाने के बारे में कुछ प्रतिबंध हैं और ऐसा तब होगा जब पंचाट के लागू होने की तिथि निर्धारित नहीं हो।
प्रश्न 11. उन परिस्थितियों का विवेचन कीजिये जिनमें पंचाट अप्रवर्तनीय तथा प्रवर्तनीय घोषित किया जा सकता है ?