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Judicial Officers’ Experience Greater Than That Of Practising Advocates: Supreme Court In District Judge Recruitment Case

🏛️ Judicial Officers’ Experience Greater Than That Of Practising Advocates: Supreme Court In District Judge Recruitment Case

भूमिका

भारतीय न्यायपालिका के ढांचे में जिला न्यायाधीश (District Judge) का पद अत्यंत प्रतिष्ठित और निर्णायक माना जाता है। यह न्यायिक प्रणाली की रीढ़ का वह स्तंभ है जहाँ से न्याय का वितरण प्रारंभिक स्तर पर प्रभावी रूप से होता है। जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रश्न संविधान के अनुच्छेद 233 के अधीन आता है। वर्षों से इस पद पर नियुक्ति के दो रास्ते रहे हैं — (1) सेवा से पदोन्नति (Promotion from Judicial Service) और (2) प्रत्यक्ष भर्ती (Direct Recruitment from Advocates)

लेकिन यह बहस लंबे समय से जारी थी कि क्या न्यायिक सेवा में कार्यरत अधिकारी, जिन्होंने पहले अधिवक्ता के रूप में कार्य किया हो, उन्हें भी इस “बार क्वोटा” (Bar Quota) के अंतर्गत प्रत्यक्ष भर्ती के लिए योग्य माना जा सकता है या नहीं।

इस संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला दिया है — Rejanish K.V. v. K. Deepa (Civil Appeal No. 3947 of 2020) — जिसमें कहा गया कि “न्यायिक अधिकारियों का अनुभव अधिवक्ताओं की प्रैक्टिस के अनुभव से किसी भी दृष्टि से कम नहीं, बल्कि अधिक समृद्ध और व्यावहारिक है।”

यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के ढांचे और जिला न्यायाधीश भर्ती प्रक्रिया दोनों के लिए एक नयी दिशा निर्धारित करता है।


संवैधानिक और विधिक पृष्ठभूमि

अनुच्छेद 233 – जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 233 राज्यपाल को अधिकार देता है कि वह हाईकोर्ट की सलाह से जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति करे। इसका उपखंड (2) कहता है —

“ऐसा कोई व्यक्ति जिला न्यायाधीश पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकेगा, जब तक कि उसने कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता या वकील के रूप में कार्य न किया हो।”

इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति अधिवक्ता रहा है और सात वर्षों तक वकालत की है, वह प्रत्यक्ष भर्ती के लिए योग्य है।

परंतु विवाद इस बात पर था कि यदि कोई व्यक्ति पहले अधिवक्ता था और बाद में न्यायिक अधिकारी बन गया, तो क्या वह अब भी “अधिवक्ता के रूप में सात वर्ष का अनुभव” गिना सकता है?


पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत

इस विषय पर कई महत्वपूर्ण निर्णय हुए, जिनसे यह विवाद और गहराता गया।

(1) Satya Narain Singh v. High Court of Allahabad (1985)

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रत्यक्ष भर्ती का कोटा (Bar Quota) केवल उन अधिवक्ताओं के लिए है जो वर्तमान में प्रैक्टिस कर रहे हैं। जो व्यक्ति न्यायिक सेवा में है, वह अधिवक्ता नहीं माना जा सकता, इसलिए वह इस कोटे में शामिल नहीं होगा।

(2) Dheeraj Mor v. High Court of Delhi (2020)

तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह पुनः स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति न्यायिक सेवा में प्रवेश कर चुका है, तो वह “Practising Advocate” नहीं रह जाता। इसलिए वह District Judge के लिए Direct Recruitment के पात्र नहीं है।

इन निर्णयों से यह स्थिति बन गयी कि न्यायिक अधिकारियों को, भले ही उनके पास अधिवक्ता के रूप में अनुभव हो, “बार क्वोटा” के अंतर्गत अवसर नहीं मिल पाता था। इससे न्यायिक सेवाओं में एक असमानता और निराशा उत्पन्न हुई।


वर्तमान मामला: Rejanish K.V. v. K. Deepa (2024)

विवाद का केंद्र

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि वे पहले अधिवक्ता थे और फिर न्यायिक सेवा में आए। उनके पास कुल मिलाकर सात वर्ष से अधिक का अनुभव है — कुछ वर्षों का अधिवक्ता अनुभव और कुछ का न्यायिक सेवा अनुभव। फिर भी, उन्हें “Practising Advocate” न मानते हुए भर्ती प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया।

सवाल यह था — क्या “सात वर्षों का अनुभव” केवल अधिवक्ता के रूप में होना चाहिए, या अधिवक्ता + न्यायिक सेवा के अनुभव को मिलाकर देखा जा सकता है?


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

संविधान पीठ (Justices Surya Kant, A.S. Bopanna, S.V.N. Bhatti, M.M. Sundresh, and Manoj Misra) ने गहन विचार-विमर्श के बाद कहा कि —

1️⃣ अनुभव का स्वरूप महत्वपूर्ण है, न कि पदनाम

कोर्ट ने कहा कि “अनुभव” की परिभाषा को केवल अधिवक्ता या अधिकारी के पदनाम से नहीं बाँधा जा सकता। न्यायिक अधिकारी भी रोज़ अदालतों में जिरह, निर्णय-लेखन और कानून-प्रयोग करते हैं। उनका अनुभव व्यावहारिक दृष्टि से अधिवक्ताओं से कहीं अधिक व्यापक है।

“A Judicial Officer’s experience in handling evidence, recording testimonies, and interpreting law is qualitatively richer than that of a practising advocate.”

2️⃣ संविधान का उद्देश्य समान अवसर देना है

Article 233(2) का उद्देश्य योग्य और अनुभवी व्यक्तियों को जिला न्यायाधीश के पद पर लाना है। यदि कोई व्यक्ति सात वर्ष तक न्यायिक या अधिवक्ता सेवा में सक्रिय रहा है, तो वह इस उद्देश्य को पूरा करता है।

3️⃣ आवेदन की तिथि निर्णायक होगी

कोर्ट ने कहा कि पात्रता का निर्धारण “application date” के आधार पर होगा, नियुक्ति की तिथि पर नहीं। इससे उन उम्मीदवारों को लाभ मिलेगा जो आवेदन के समय सात वर्ष का अनुभव रखते हैं।

4️⃣ न्यायिक अधिकारियों को बाहर रखना अनुचित भेदभाव

न्यायालय ने कहा कि न्यायिक अधिकारियों को बाहर करना अनुच्छेद 14 और 16 के समान अवसर सिद्धांत के विपरीत है। ऐसा भेदभाव न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि संविधान के मूल उद्देश्य — “योग्यता और न्यायसंगत अवसर” — के विरुद्ध है।

5️⃣ पूर्व निर्णयों का पुनर्विचार (Overruling of Dheeraj Mor)

कोर्ट ने कहा कि Dheeraj Mor का निर्णय इस दृष्टि से सही नहीं था कि उसने न्यायिक सेवा के अनुभव को कमतर आँका। अतः उसे आंशिक रूप से ओवररूल किया गया।


न्यायिक अनुभव बनाम अधिवक्ता अनुभव

सुप्रीम कोर्ट ने अपने विस्तृत आदेश में यह स्पष्ट किया कि न्यायिक अधिकारी का अनुभव, अधिवक्ता के अनुभव से केवल भिन्न नहीं बल्कि अधिक संगठित और व्यावहारिक है।

पहलू अधिवक्ता का अनुभव न्यायिक अधिकारी का अनुभव
कार्य-प्रकृति मुवक्किल का प्रतिनिधित्व, दलीलें, जिरह न्यायिक प्रक्रिया का संचालन, आदेश-निर्णय, साक्ष्य परीक्षण
न्यायशास्त्रीय गहराई एक पक्षीय दृष्टिकोण निष्पक्ष, समग्र और विवेचनात्मक दृष्टिकोण
प्रशिक्षण वकालत कौशल, दलील-लेखन निर्णय-लेखन, प्रक्रिया प्रबंधन, न्यायिक नैतिकता
प्रभाव क्षेत्र सीमित (client-centric) व्यापक (justice-centric)
अनुभव की प्रकृति तर्कात्मक न्यायनिर्णयात्मक

कोर्ट ने कहा कि न्यायिक अधिकारी कानून के हर पहलू — आपराधिक, दीवानी, प्रशासनिक, पारिवारिक — से प्रतिदिन जुड़ा रहता है। अतः उसका अनुभव “कानूनी सेवा का जीवंत अनुभव” है।


संवैधानिक दर्शन: समानता और न्याय

यह फैसला केवल पात्रता की तकनीकी व्याख्या नहीं है, बल्कि यह भारतीय संविधान के मूल दर्शन — समानता (Equality) और न्याय (Justice) — को मूर्त रूप देता है।

अनुच्छेद 14 — समानता का अधिकार

राज्य किसी व्यक्ति के साथ अनुचित भेदभाव नहीं कर सकता। यदि दो व्यक्ति समान योग्यता रखते हैं, तो केवल “पदनाम” के आधार पर भेदभाव संविधान के विरुद्ध है।

अनुच्छेद 16 — सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर

यह अनुच्छेद कहता है कि प्रत्येक नागरिक को सरकारी सेवाओं में समान अवसर मिलना चाहिए। अतः न्यायिक अधिकारियों को केवल इस आधार पर बाहर करना कि वे “Practising Advocate” नहीं हैं, अनुच्छेद 16(1) का उल्लंघन है।

कोर्ट ने कहा कि “प्रत्यक्ष भर्ती” का उद्देश्य विविध अनुभव वाले प्रतिभाशाली उम्मीदवारों को न्यायपालिका में लाना है, न कि अधिवक्ताओं को विशेषाधिकार देना।


न्यायालय का अवलोकन – अनुभव की “गहराई”

फैसले में कोर्ट ने यह गहन टिप्पणी की —

“Judicial Officers, by virtue of their role, acquire a deeper understanding of law, facts, and procedure. Their exposure to courtroom management and decision-making equips them with skills indispensable for District Judges.”

इसका तात्पर्य यह है कि अदालतों में रोज़-रोज़ फैसले सुनाना, गवाहों की जिरह करना, आदेश लिखना, और निष्पक्ष रूप से न्याय करना — ये सब कार्य व्यक्ति को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। अतः ऐसा अनुभव अधिवक्ता के अनुभव से कम नहीं हो सकता।


आयु, अनुभव और पात्रता की व्याख्या

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि –

  • न्यूनतम आयु: 35 वर्ष होनी चाहिए आवेदन की तिथि पर।
  • न्यूनतम अनुभव: सात वर्ष का कुल अनुभव आवश्यक, चाहे वह अधिवक्ता के रूप में हो या न्यायिक सेवा में।
  • निरंतरता: अनुभव “सतत” (continuous) होना चाहिए, अर्थात लंबे अंतराल के बिना।
  • योग्यता का मूल्यांकन: आवेदन की तिथि पर की जाएगी, नियुक्ति की तिथि पर नहीं।

यह व्याख्या भविष्य की सभी भर्ती प्रक्रियाओं पर लागू होगी।


प्रशासनिक और व्यावहारिक प्रभाव

  1. भर्ती नियमों का पुनर्लेखन:
    राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों को अपने “District Judge (Recruitment) Rules” को संशोधित करना होगा ताकि न्यायिक अधिकारियों को भी बार क्वोटा में सम्मिलित किया जा सके।
  2. अधिक प्रतिस्पर्धा और पारदर्शिता:
    इस निर्णय से भर्ती प्रक्रिया में अधिक प्रतिस्पर्धा आएगी और चयन का दायरा व्यापक होगा।
  3. सेवा में मनोबल में वृद्धि:
    न्यायिक अधिकारियों के लिए यह निर्णय आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है। अब उन्हें यह आश्वासन है कि उनका वर्षों का अनुभव व्यर्थ नहीं जाएगा।
  4. प्रशिक्षण और उन्नयन की आवश्यकता:
    अब जब न्यायिक अधिकारी प्रत्यक्ष भर्ती में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, तो उन्हें नेतृत्व, प्रशासनिक कौशल और निर्णय-निर्माण प्रशिक्षण और अधिक गहनता से दिया जाना चाहिए।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

हालाँकि यह निर्णय न्यायोचित और प्रगतिशील माना जा रहा है, पर कुछ विद्वानों ने कुछ व्यावहारिक प्रश्न उठाए हैं —

  • अधिवक्ताओं का अनुभव अधिक विविध और गतिशील होता है; वे अनेक विषयों में काम करते हैं, जबकि न्यायिक अधिकारी अपने अधिकार-क्षेत्र तक सीमित रहते हैं।
  • न्यायिक अधिकारियों को सेवा में रहते हुए प्रत्यक्ष भर्ती परीक्षा की अनुमति देने से “दोहरी प्रविष्टि” (dual entry) की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  • भर्ती आयोगों को अनुभव की गणना के लिए स्पष्ट मानदंड बनाने होंगे ताकि दुरुपयोग न हो।

इन आलोचनाओं के बावजूद, बहुसंख्यक विधि-विशेषज्ञ इस निर्णय को न्यायिक समानता की दिशा में मील का पत्थर मान रहे हैं।


नीतिगत महत्व

यह फैसला केवल भर्ती की परिभाषा नहीं बदलता, बल्कि न्यायिक सुधारों के मार्ग को भी प्रभावित करता है। इससे —

  • न्यायिक सेवा में पारदर्शिता बढ़ेगी।
  • योग्य अधिकारियों को उच्च न्यायिक पदों तक पहुँचने के समान अवसर मिलेंगे।
  • न्यायपालिका में “Merit and Experience Balance” स्थापित होगा।

यह निर्णय भविष्य में जिला न्यायाधीशों की गुणवत्ता और प्रशासनिक दक्षता को भी बढ़ाएगा।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय भारतीय न्यायपालिका के लिए एक नई दृष्टि लेकर आया है। यह निर्णय कहता है कि —

“Merit alone shall matter — not mere designation.”

न्यायिक अधिकारी जो वर्षों से न्याय-प्रक्रिया में जुटे हैं, उनके अनुभव को कमतर आंकना न केवल अन्याय है बल्कि न्यायपालिका की आत्मा के साथ अन्याय है। अब उन्हें भी वही अवसर प्राप्त होंगे जो अधिवक्ताओं को मिलते आए हैं।

यह फैसला न केवल Article 233 की न्यायसंगत व्याख्या है, बल्कि यह Equality before Law के सिद्धांत की भी सजीव अभिव्यक्ति है।

इस निर्णय से यह संदेश स्पष्ट है कि भारत की न्यायपालिका अब “पदनाम” से नहीं, बल्कि “अनुभव और योग्यता” से संचालित होगी।