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Jagriti Devi v. State of Himachal Pradesh (2009, Supreme Court) – जब मृत्यु का इरादा नहीं, केवल चोट पहुँचाने का इरादा हो:

Jagriti Devi v. State of Himachal Pradesh (2009, Supreme Court) – जब मृत्यु का इरादा नहीं, केवल चोट पहुँचाने का इरादा हो: भारतीय दंड संहिता की धारा 304 का न्यायिक विश्लेषण


भूमिका

भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code, 1860) में मानव जीवन की सुरक्षा को सर्वोच्च महत्व दिया गया है। हत्या (Murder) और मानव वध (Culpable Homicide) से संबंधित प्रावधान इस सिद्धांत को दर्शाते हैं कि कोई व्यक्ति यदि किसी अन्य के जीवन को समाप्त करता है, तो उसकी मानसिक अवस्था (Mens rea) के आधार पर अपराध की गंभीरता तय की जाएगी।

धारा 299 और 300, जो क्रमशः “मानव वध” और “हत्या” की परिभाषा देती हैं, भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र की सबसे जटिल अवधारणाओं में से हैं। इनके बीच का अंतर बहुत सूक्ष्म है, और न्यायालय को प्रत्येक मामले के तथ्यों और अभियुक्त की मनोवृत्ति के आधार पर निर्णय लेना पड़ता है।

इसी संदर्भ में Jagriti Devi v. State of Himachal Pradesh (2009) 14 SCC 771 का निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह स्पष्ट किया कि यदि अभियुक्त का उद्देश्य मृत्यु करने का नहीं था, बल्कि केवल चोट पहुँचाने का था, और उसके परिणामस्वरूप मृत्यु हो गई, तो अपराध धारा 302 (हत्या) के अंतर्गत नहीं बल्कि धारा 304 (मानव वध जो हत्या नहीं है) के अंतर्गत आएगा।


मामले के तथ्य (Facts of the Case)

जागृति देवी हिमाचल प्रदेश की निवासी थीं। एक दिन उनका अपने पति से घरेलू विवाद हुआ। कहा जाता है कि गुस्से के आवेश में उन्होंने अपने पति पर चोट पहुँचाई, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

मृत्यु के बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और जागृति देवी को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत आरोपित किया गया। सत्र न्यायालय (Sessions Court) ने यह मानते हुए कि अभियुक्ता ने जानबूझकर अपने पति की हत्या की है, उसे दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

जागृति देवी ने इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की, परंतु उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत का निर्णय बरकरार रखा। अंततः उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।


मुख्य प्रश्न (Legal Issue)

क्या जागृति देवी ने अपने पति की हत्या करने का इरादा (Intention) रखा था, या यह केवल एक चोट पहुँचाने की क्रिया (Act of causing injury) थी जिससे अनजाने में मृत्यु हो गई?

यदि मृत्यु करने का इरादा सिद्ध नहीं होता, तो क्या अपराध को धारा 304 (Culpable Homicide not amounting to Murder) के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है?


संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provisions)

धारा 299 – मानव वध (Culpable Homicide)

जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है —

  1. मृत्यु करने के इरादे से; या
  2. ऐसी चोट पहुँचाने के इरादे से जो मृत्यु का कारण बन सकती है; या
  3. यह जानते हुए कि उसका कार्य मृत्यु का संभावित कारण बन सकता है —
    तो उसे “मानव वध” कहा जाता है।

धारा 300 – हत्या (Murder)

यदि धारा 299 में उल्लिखित कृत्य कुछ विशेष परिस्थितियों के साथ किया गया हो — जैसे मृत्यु करने का स्पष्ट इरादा, या ऐसी चोट पहुँचाने का इरादा जो मृत्यु का निश्चित परिणाम हो — तो अपराध “हत्या” कहलाता है।

धारा 304 – मानव वध जो हत्या नहीं है (Culpable Homicide not amounting to Murder)

यदि कृत्य धारा 299 के अंतर्गत आता है, परंतु धारा 300 के अपवादों के अंतर्गत आता है, तो अपराध धारा 304 के अंतर्गत दंडनीय है।

  • धारा 304 भाग I: जब कृत्य मृत्यु करने के इरादे से किया गया हो।
  • धारा 304 भाग II: जब कृत्य मृत्यु का कारण बन सकता है यह जानते हुए किया गया हो, पर मृत्यु करने का इरादा न हो।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण (Supreme Court’s Analysis)

सर्वोच्च न्यायालय ने मामले के तथ्यों और साक्ष्यों का गहराई से अध्ययन किया। अदालत ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार किया —

  1. इरादे की अनुपस्थिति (Absence of Intention to Kill):
    अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि जागृति देवी ने अपने पति की हत्या करने का स्पष्ट इरादा रखा था। झगड़ा अचानक हुआ था और यह एक “spur of the moment” क्रिया थी।
  2. घटना की प्रकृति:
    यह घरेलू विवाद था, जिसमें गुस्से के आवेश में अभियुक्ता ने अपने पति को चोट पहुँचाई। यह चोट जानलेवा नहीं थी, परंतु दुर्भाग्यवश मृत्यु हो गई।
  3. हथियार और परिस्थिति:
    उपयोग किए गए हथियार और चोट के स्वरूप से यह नहीं प्रतीत होता कि अभियुक्ता का उद्देश्य हत्या करना था।
  4. इरादा बनाम ज्ञान (Intention vs Knowledge):
    न्यायालय ने कहा कि जागृति देवी को यह ज्ञान अवश्य था कि उसकी क्रिया से मृत्यु हो सकती है, परंतु इरादा मृत्यु करने का नहीं था। अतः यह धारा 304 भाग II के अंतर्गत आएगा।
  5. पूर्व नियोजन का अभाव (Lack of Premeditation):
    कोई साक्ष्य नहीं मिला जिससे यह स्पष्ट हो कि अपराध पूर्व नियोजित था। यह एक आकस्मिक क्रिया थी।

निर्णय (Judgment)

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा —

“जहाँ मृत्यु करने का इरादा नहीं है, बल्कि केवल चोट पहुँचाने का इरादा था और परिणामस्वरूप मृत्यु हो गई, वहाँ अपराध धारा 304 के अंतर्गत आएगा, न कि धारा 302 के।”

अदालत ने जागृति देवी को धारा 302 से दोषमुक्त करते हुए धारा 304 भाग II के तहत दोषी ठहराया।
उन्हें पहले से भुगती गई सजा को पर्याप्त मानते हुए रिहा करने का आदेश दिया गया।


न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation)

इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने हत्या और मानव वध के बीच के अंतर को अत्यंत स्पष्ट किया। अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति (Mental State) अपराध की प्रकृति को निर्धारित करने में निर्णायक भूमिका निभाती है।

  • यदि किसी व्यक्ति का इरादा (Intention) मृत्यु करने का है, तो अपराध हत्या (Section 302) होगा।
  • यदि केवल ज्ञान (Knowledge) है कि क्रिया से मृत्यु हो सकती है, परंतु उद्देश्य मृत्यु करना नहीं है, तो अपराध धारा 304 भाग II के अंतर्गत आएगा।

न्यायालय द्वारा उद्धृत पूर्व निर्णय (Precedents Cited)

  1. Virsa Singh v. State of Punjab (1958 SCR 1495)
    इस मामले में कहा गया कि हत्या सिद्ध करने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं —
    (i) मृत्यु करने का इरादा, और
    (ii) ऐसी चोट पहुँचाने का उद्देश्य जो स्वभाव से जानलेवा हो।
  2. State of Andhra Pradesh v. Rayavarapu Punnayya (1976) 4 SCC 382
    इस निर्णय में न्यायालय ने कहा कि सभी हत्याएँ मानव वध हैं, परंतु सभी मानव वध हत्या नहीं हैं।
  3. Kandaswamy v. State of Tamil Nadu (2008) 11 SCC 97
    इसमें भी यही कहा गया कि यदि मृत्यु करने का इरादा नहीं है, तो अपराध धारा 304 के अंतर्गत आएगा।

इन सभी निर्णयों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि जागृति देवी के मामले में हत्या का इरादा अनुपस्थित था।


कानूनी सिद्धांत (Legal Principle Established)

Jagriti Devi मामले से स्थापित प्रमुख सिद्धांत:

  1. यदि मृत्यु करने का इरादा नहीं, केवल चोट पहुँचाने का इरादा था, तो अपराध धारा 304 (II) के अंतर्गत आएगा।
  2. घरेलू विवादों या अचानक झगड़ों में की गई हिंसा को हत्या की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, यदि उसमें जानबूझकर हत्या का उद्देश्य नहीं हो।
  3. अभियोजन पक्ष पर यह दायित्व है कि वह इरादा (Intention) को ठोस साक्ष्यों द्वारा सिद्ध करे।
  4. न्यायालय को प्रत्येक मामले में परिस्थितियों, हथियार, चोट के स्वरूप और अभियुक्त की मानसिक स्थिति का गहन मूल्यांकन करना चाहिए।

मामले का सामाजिक और विधिक महत्व

यह निर्णय भारतीय समाज की उस यथार्थता को स्वीकार करता है जहाँ घरेलू कलह या भावनात्मक क्षणों में लोग अनजाने में अपराध कर बैठते हैं। यदि ऐसे मामलों में बिना मानसिक इरादे के हत्या करने वालों को आजीवन कारावास या फाँसी की सजा दी जाए, तो न्याय का उद्देश्य – “दंड नहीं, सुधार” – विफल हो जाएगा।

साथ ही, यह निर्णय न्यायपालिका की उस संवेदनशीलता को दर्शाता है जो कानून के कठोर शब्दों के बजाय मानव व्यवहार और परिस्थिति की वास्तविकता को प्राथमिकता देती है।


आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)

कुछ विधिवेत्ताओं ने इस निर्णय की प्रशंसा की क्योंकि इसने “इरादे” और “ज्ञान” के बीच के कानूनी भेद को व्यावहारिक रूप में लागू किया।

हालाँकि, आलोचकों का तर्क है कि इस प्रकार के निर्णय कभी-कभी घरेलू हिंसा या स्त्री-पुरुष संबंधों में हिंसक प्रवृत्ति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित कर सकते हैं। इसलिए न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धारा 304 के अंतर्गत दी गई राहत केवल उन्हीं मामलों में लागू हो जहाँ हत्या का स्पष्ट इरादा सिद्ध रूप से अनुपस्थित हो।


न्यायिक नीति और मानवता का संतुलन (Balance of Justice and Humanity)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस सिद्धांत को बल देता है कि कानून का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं बल्कि न्याय करना है।
हर अपराधी के पीछे एक इंसान होता है, और यदि अपराध आवेश, अज्ञानता या परिस्थितिजन्य गलती से हुआ है, तो न्यायालय को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

यह फैसला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में “Subjective Intention” की अहमियत को पुनः स्थापित करता है।


निष्कर्ष (Conclusion)

Jagriti Devi v. State of Himachal Pradesh (2009) भारतीय दंड संहिता की धारा 299, 300 और 304 की न्यायिक व्याख्या में एक मील का पत्थर है। इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि हर वह मृत्यु हत्या नहीं होती जो किसी व्यक्ति के कार्य से होती है। यदि मृत्यु करने का इरादा नहीं बल्कि केवल चोट पहुँचाने का इरादा हो, और परिणामस्वरूप मृत्यु हो जाए, तो अपराध धारा 304 भाग II के अंतर्गत माना जाएगा।

यह निर्णय न्याय और मानवता के बीच संतुलन स्थापित करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि सजा अपराध की गंभीरता के अनुरूप हो।