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Interpretation of Statutes & Legislative Process (कुछ विश्वविद्यालयों में) part-2

🔶 51. व्याख्या में ‘Interpretation post Constitutional Amendment’ का क्या तात्पर्य है?

संविधान संशोधन के बाद किसी प्रावधान की व्याख्या करते समय न्यायालय को यह देखना होता है कि संशोधन का उद्देश्य क्या था और उसने मौलिक अधिकारों, विधायी शक्ति या अन्य मूलभूत संरचनाओं को कैसे प्रभावित किया।
न्यायालय इस दौरान संविधान की प्रस्तावना, संसदीय बहस, विधायी उद्देश्य आदि की सहायता से यह तय करता है कि संशोधन से संबंधित प्रावधानों का अब क्या प्रभाव है।
यह विशेष रूप से उन मामलों में महत्वपूर्ण होता है जहाँ मूल प्रावधान और संशोधित प्रावधान में विरोध उत्पन्न हो।


🔶 52. व्याख्या में ‘Legal Maxims’ की भूमिका क्या होती है?

Legal Maxims लैटिन या अंग्रेज़ी में प्राचीन विधिक सिद्धांत होते हैं, जो व्याख्या में न्यायालयों को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
उदाहरण:

  • Expressio unius est exclusio alterius
  • Ejusdem generis
  • Noscitur a sociis
    इनका प्रयोग तब किया जाता है जब विधि अस्पष्ट हो और न्यायालय को व्याख्या हेतु स्थापित सिद्धांतों का सहारा लेना पड़े। ये मैक्सिम विधिक स्थिरता, तर्क और न्यायसंगत निर्णय सुनिश्चित करते हैं।

🔶 53. व्याख्या में ‘Doctrine of Implied Repeal’ क्या है?

इस सिद्धांत के अनुसार, यदि कोई नया कानून पुराने कानून से स्पष्ट रूप से टकराता है और दोनों को एक साथ लागू करना असंभव है, तो माना जाता है कि नया कानून पुराने कानून को अप्रत्यक्ष रूप से निरस्त कर देता है।
हालांकि, न्यायालय इस सिद्धांत का प्रयोग सावधानी से करते हैं और यदि दोनों को सामंजस्यपूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है, तो Implied Repeal स्वीकार नहीं किया जाता।


🔶 54. व्याख्या में ‘Social Context Theory’ का क्या महत्व है?

Social Context Theory कहती है कि कानून की व्याख्या समाज की वर्तमान परिस्थितियों, मूल्यों और आवश्यकताओं के अनुसार की जानी चाहिए।
इस सिद्धांत के अनुसार न्यायालय केवल शब्दों तक सीमित न रहकर सामाजिक न्याय, समानता, और संवैधानिक मूल्यों को प्राथमिकता देता है।
यह दृष्टिकोण विशेष रूप से सामाजिक कल्याण, महिला सशक्तिकरण और मानवाधिकार मामलों में अपनाया जाता है।


🔶 55. व्याख्या में ‘Constitutional Morality’ का क्या तात्पर्य है?

Constitutional Morality का अर्थ है – संविधान के मूल सिद्धांतों जैसे – स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय के अनुरूप विधियों की व्याख्या करना।
न्यायालय यह देखता है कि कोई कानून या उसकी व्याख्या संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन न करे।
यह सिद्धांत न्याय को विवेक, करुणा और मानवाधिकारों की भावना से जोड़ता है और विधिक व्याख्या को लोकहित में परिवर्तित करता है।


🔶 56. व्याख्या में ‘Doctrine of Severability’ का क्या महत्व है?

यदि किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, लेकिन शेष भाग स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकता है, तो केवल असंवैधानिक भाग को हटाकर बाकी अधिनियम को वैध माना जाता है।
यह सिद्धांत Severability कहलाता है।
यह सिद्धांत न्यायपालिका को कानून का अधिकतम भाग प्रभावी रखने की अनुमति देता है और विधायिका के प्रयासों का सम्मान करता है।


🔶 57. व्याख्या में ‘Purposeful Construction’ क्या है?

Purposeful Construction या Purposive Interpretation वह तरीका है जिसमें न्यायालय विधि के शब्दों से अधिक उसके उद्देश्य (purpose) पर ध्यान देता है।
इसमें यह देखा जाता है कि विधायिका ने कानून क्यों बनाया और उसका सामाजिक प्रभाव क्या होना चाहिए।
यह व्याख्या विधेयक के उद्देश्य, प्रस्तावना, Objects and Reasons तथा सामाजिक संदर्भ पर आधारित होती है। यह विधियों को न्यायोचित और प्रभावी बनाती है।


🔶 58. व्याख्या में ‘Golden Mean’ या मध्य मार्ग क्या है?

यह एक संतुलित दृष्टिकोण है जहाँ न्यायालय Literal और Purposive Interpretation के बीच संतुलन बनाता है।
जहाँ शाब्दिक अर्थ न्याय को आघात पहुँचाए, वहाँ न्यायालय उद्देश्य के आधार पर अर्थ निकालता है; और जहाँ उद्देश्य अस्पष्ट हो, वहाँ शाब्दिक अर्थ अपनाया जाता है।
यह सिद्धांत व्यावहारिक न्याय और विधिक स्पष्टता के बीच संतुलन लाता है।


🔶 59. व्याख्या में ‘Judicial Activism’ और ‘Judicial Restraint’ में अंतर बताएं।

  • Judicial Activism में न्यायालय विधायिका या कार्यपालिका की निष्क्रियता पर सक्रिय भूमिका निभाकर विधिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान करता है।
  • Judicial Restraint में न्यायालय विधायिका की मंशा और सीमाओं का सम्मान करता है और कानून निर्माण की भूमिका नहीं निभाता।
    Interpretation में न्यायिक सक्रियता तब प्रबल होती है जब विधि अस्पष्ट, मौन या अन्यायपूर्ण हो।

🔶 60. व्याख्या में ‘Doctrine of Pith and Substance’ क्या है?

यह सिद्धांत संविधान की अनुसूचियों में केंद्र और राज्य की विधायी शक्तियों के टकराव को सुलझाने हेतु प्रयोग होता है।
यदि कोई विधि किसी विषय पर मुख्य रूप से वैध है, लेकिन उसमें अन्य विषयों का आंशिक प्रभाव है, तो उसका मूल्यांकन मुख्य उद्देश्य (Pith) और सार (Substance) के आधार पर किया जाता है।
यह सिद्धांत संविधान की संघीय संरचना में संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।


🔶 61. व्याख्या में ‘Doctrine of Colourable Legislation’ क्या है?

इस सिद्धांत के अनुसार यदि कोई विधायिका किसी विधायी शक्ति के बाहर जाकर, लेकिन वैध रूप धारण कर, कानून बनाती है, तो वह Colourable Legislation कहलाता है।
“जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता, वह परोक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता।”
न्यायालय ऐसे कानूनों की व्याख्या करते हुए उसकी वास्तविक मंशा को देखकर निर्णय करता है। यह संविधान की सीमाओं की रक्षा करता है।


🔶 62. व्याख्या में ‘Doctrine of Eclipse’ क्या है?

यदि कोई कानून किसी समय संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है, लेकिन बाद में संविधान में संशोधन के कारण वैध हो जाता है, तो माना जाता है कि वह कानून निष्क्रिय था लेकिन संशोधन के बाद पुनः प्रभाव में आ गया
यह Eclipse सिद्धांत न्यायिक व्याख्या में उन कानूनों के पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त करता है जो अस्थायी रूप से असंवैधानिक थे।


🔶 63. व्याख्या में ‘Principle of Legality’ का क्या महत्व है?

इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी प्रशासनिक कार्य या विधायिका का अधिनियम नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकता जब तक कि वह स्पष्ट रूप से वैसा कहता न हो।
न्यायालय व्याख्या करते समय यह सुनिश्चित करता है कि मौलिक अधिकारों की अवहेलना न हो।
यह सिद्धांत स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और गोपनीयता जैसे अधिकारों की सुरक्षा में सहायक होता है।


🔶 64. व्याख्या में ‘Doctrine of Express Provision’ क्या है?

यदि विधायिका ने किसी विशेष विषय को कानून में स्पष्ट रूप से शामिल किया है, तो यह माना जाता है कि अन्य विषयों को जानबूझकर बाहर रखा गया है।
यह सिद्धांत Expressio Unius Est Exclusio Alterius से जुड़ा हुआ है।
इससे न्यायालय यह निष्कर्ष निकालता है कि किसी अतिरिक्त विषय की व्याख्या करके कानून का दायरा बढ़ाना अनुचित होगा।


🔶 65. व्याख्या में न्यायालय की भूमिका का मूल्यांकन करें।

न्यायालय विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या, स्पष्टता और प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है।
जब कोई कानून अस्पष्ट होता है, तो न्यायालय उसके शब्दों, उद्देश्य, विधायी मंशा और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखकर व्याख्या करता है।
न्यायालय का कार्य केवल कानून लागू करना नहीं, बल्कि उसमें न्याय और तर्कसंगतता सुनिश्चित करना भी है।
इस भूमिका में न्यायालय विधायिका की सीमाओं का सम्मान करते हुए नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।


🔶 66. ‘Ejusdem Generis’ नियम का क्या तात्पर्य है?

Ejusdem Generis एक लैटिन सिद्धांत है, जिसका अर्थ है – “उसी प्रकार की चीज़ें।”
जब किसी विधिक प्रावधान में कुछ विशेष शब्दों के बाद एक सामान्य शब्द आता है, तो उस सामान्य शब्द की व्याख्या उन्हीं विशेष शब्दों की श्रेणी में की जाती है।
उदाहरण: “कुत्ते, बिल्ली, घोड़े और अन्य जानवर” – यहाँ “अन्य जानवर” का अर्थ केवल पालतू जानवरों तक सीमित रहेगा।
यह नियम विधि को अनावश्यक रूप से व्यापक होने से रोकता है।


🔶 67. ‘Noscitur a Sociis’ सिद्धांत का क्या अभिप्राय है?

Noscitur a Sociis का अर्थ है — “किसी शब्द का अर्थ उसके साथ प्रयुक्त अन्य शब्दों से जाना जाता है।”
यदि कोई शब्द अस्पष्ट है, तो उसका अर्थ उसके आस-पास प्रयुक्त शब्दों के संदर्भ में देखा जाता है।
यह सिद्धांत न्यायालयों को विधायी मंशा समझने में सहायता करता है और शब्दों को उनके सही संदर्भ में परिभाषित करता है।
उदाहरण: “bank, insurance, and other institutions” – यहाँ “other institutions” को भी वित्तीय संस्थानों के रूप में देखा जाएगा।


🔶 68. ‘Expressio Unius Est Exclusio Alterius’ क्या है?

इस लैटिन सिद्धांत का अर्थ है — “किसी एक को स्पष्ट रूप से उल्लेख करना, अन्य को बाहर करना है।”
यदि कोई अधिनियम किसी एक विशेष विषय या व्यक्ति का स्पष्ट उल्लेख करता है और अन्य का नहीं, तो माना जाता है कि वे जानबूझकर बाहर रखे गए हैं।
उदाहरण: यदि किसी कानून में “सरकारी शिक्षक” को लाभ दिया गया है और निजी शिक्षकों का उल्लेख नहीं है, तो इसका लाभ केवल सरकारी शिक्षकों को मिलेगा।


🔶 69. व्याख्या में ‘Beneficial Construction’ का क्या महत्व है?

Beneficial Construction वह सिद्धांत है जिसमें कानून की व्याख्या उस रूप में की जाती है जिससे वंचित वर्गों, श्रमिकों, महिलाओं या पीड़ितों को अधिकतम लाभ मिल सके।
यह सिद्धांत सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देता है।
विशेष रूप से श्रम कानून, उपभोक्ता संरक्षण, और कल्याणकारी अधिनियमों की व्याख्या करते समय न्यायालय इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं।
यह व्याख्या कानून की आत्मा के अनुरूप होती है।


🔶 70. व्याख्या में ‘Strict Construction’ सिद्धांत कब लागू होता है?

Strict Construction का उपयोग तब किया जाता है जब कानून दंडात्मक (penal) या कर (taxation) से संबंधित हो।
इस नियम के अनुसार कानून के शब्दों को उनकी सीमित और स्पष्ट परिभाषा में समझा जाता है।
यदि कानून अस्पष्ट है, तो नागरिक के पक्ष में निर्णय दिया जाता है और राज्य को लाभ नहीं दिया जाता।
यह सिद्धांत नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है और विधायिका को स्पष्ट कानून बनाने के लिए बाध्य करता है।


🔶 71. ‘Presumption Against Retrospectivity’ का क्या अर्थ है?

सामान्यतः यह माना जाता है कि कोई भी कानून पूर्व प्रभाव (retrospective) में लागू नहीं होता जब तक कि विधायिका स्पष्ट रूप से ऐसा न कहे।
न्यायालय इस सिद्धांत का पालन करते हैं ताकि नागरिकों को उनके पहले किए गए कार्यों के लिए नए कानून से दंडित न किया जाए।
यह विधिक निश्चितता और न्यायिक निष्पक्षता को बढ़ावा देता है।


🔶 72. व्याख्या में ‘Interpretation in Favor of Constitutionality’ क्या है?

यदि किसी अधिनियम की दो व्याख्याएँ संभव हैं — एक जो उसे असंवैधानिक बनाती है और दूसरी जो उसे वैध रखती है, तो न्यायालय वह व्याख्या अपनाता है जिससे कानून संवैधानिक बना रहे।
यह सिद्धांत विधायिका की मंशा का सम्मान करता है और न्यायिक प्रणाली में स्थिरता बनाए रखता है।


🔶 73. व्याख्या में ‘Use of External Aids’ क्यों आवश्यक होता है?

जब किसी अधिनियम की भाषा अस्पष्ट होती है, तो न्यायालय बाह्य साधनों (External Aids) का प्रयोग करता है, जैसे –

  • विधायी बहस
  • विधेयक के उद्देश्य और कारण (Objects and Reasons)
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • संबंधित अधिनियम
    इन साधनों से विधायिका की मंशा और कानून की भावना स्पष्ट होती है।

🔶 74. व्याख्या में ‘Doctrine of Legislative Competence’ क्या है?

यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 245 व 246 पर आधारित है, जो केंद्र और राज्य की विधायी शक्तियों को विभाजित करता है।
यदि कोई विधायिका उस विषय पर कानून बनाती है जिस पर उसे अधिकार नहीं है, तो वह कानून असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
न्यायालय व्याख्या करते समय यह देखता है कि क्या विधायिका उस विषय पर कानून बनाने की संवैधानिक शक्ति रखती थी।


🔶 75. व्याख्या में ‘Interpretation in Case of Conflict’ कैसे की जाती है?

यदि दो कानूनों में टकराव होता है, तो न्यायालय निम्न सिद्धांत अपनाता है:

  • विशेष कानून को सामान्य पर प्राथमिकता दी जाती है।
  • नया कानून पुराने पर वरीयता प्राप्त करता है।
  • दोनों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ने का प्रयास किया जाता है।
    यह विधियों को परस्पर पूरक बनाने और न्यायिक स्पष्टता बनाए रखने का प्रयास है।

🔶 76. ‘Interpretation of Taxing Statute’ का क्या सिद्धांत है?

कर कानूनों की व्याख्या करते समय Strict Interpretation अपनाई जाती है।
कोई कर तभी लगाया जा सकता है जब वह स्पष्ट शब्दों में लिखा गया हो। यदि कोई संशय हो, तो वह करदाता के पक्ष में जाएगा।
न्यायालय कर कानूनों को विस्तार से नहीं पढ़ते बल्कि उसी सीमा तक समझते हैं जितना कानून कहता है।


🔶 77. ‘Interpretation of Remedial Statutes’ कैसे की जाती है?

Remedial Statutes वे होते हैं जो किसी सामाजिक समस्या का समाधान करते हैं या अधिकार प्रदान करते हैं।
इनकी व्याख्या liberal और purposive ढंग से की जाती है ताकि अधिकतम लाभ प्रदान किया जा सके।
उदाहरण – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, श्रमिक कानून, आदि।
यह दृष्टिकोण समाज के कमजोर वर्गों की सहायता के लिए अपनाया जाता है।


🔶 78. व्याख्या में ‘Doctrine of Accrued Rights’ क्या है?

यह सिद्धांत कहता है कि यदि किसी व्यक्ति को कानून द्वारा कोई अधिकार मिल गया है, तो नया कानून (जब तक स्पष्ट रूप से न कहा जाए) उस अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकता
न्यायालय पुराने कानूनों के अधीन अर्जित अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें हटाने की अनुमति तभी देता है जब नया कानून विशेष रूप से ऐसा कहे।


🔶 79. व्याख्या में ‘Interpretation to Avoid Injustice’ क्यों आवश्यक है?

यदि किसी अधिनियम की शाब्दिक व्याख्या से अन्याय हो रहा हो, तो न्यायालय उस व्याख्या को नकार सकता है और वैसी व्याख्या अपनाता है जिससे न्याय हो
यह सिद्धांत “law is for justice, not injustice” के आधार पर काम करता है।
न्यायालय विधायिका की मंशा को देखते हुए उस व्याख्या को चुनता है जिससे सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर न्याय सुनिश्चित हो।


🔶 80. विधि व्याख्या में न्यायालय की रचनात्मक भूमिका क्या है?

न्यायालय विधायिका द्वारा बनाए गए अधिनियमों की न केवल व्याख्या करता है, बल्कि उन शब्दों को सामाजिक संदर्भ, तर्क और संवैधानिक मूल्यों के साथ जोड़कर न्याय की भावना को उभारता है।
जब कानून मौन हो, अस्पष्ट हो, या अन्यायपूर्ण परिणाम उत्पन्न करे, तब न्यायालय रचनात्मक व्याख्या (Creative Interpretation) के माध्यम से समाधान प्रदान करता है।
यह लोकतंत्र में न्यायालयों की संवैधानिक भूमिका का परिचायक है।


🔶 81. व्याख्या में ‘Purposive Rule of Interpretation’ क्या है?

Purposive Rule यह कहता है कि कानून की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए जिससे उस कानून के उद्देश्य (purpose) की पूर्ति हो सके।
इस नियम के तहत शब्दों की शाब्दिक व्याख्या के बजाय उसके पीछे की विधायी मंशा, सामाजिक उद्देश्य और जनहित को प्राथमिकता दी जाती है।
यह सिद्धांत न्यायालय को विवेकपूर्वक कार्य करने और विधि को जीवंत बनाए रखने में सहायक है।


🔶 82. व्याख्या में ‘Golden Rule’ और ‘Mischief Rule’ में अंतर बताएं।

  • Golden Rule: जब शाब्दिक अर्थ से विरोधाभास या अन्याय उत्पन्न हो, तो उसका वह अर्थ निकाला जाता है जो ऐसा प्रभाव न डाले।
  • Mischief Rule: यह देखा जाता है कि पुराने कानून में क्या कमी (mischief) थी जिसे नया कानून दूर करना चाहता है, और फिर व्याख्या उसी अनुसार की जाती है।
    Golden Rule न्यायिक संतुलन पर आधारित है, जबकि Mischief Rule विधायी उद्देश्य पर।

🔶 83. व्याख्या में ‘Contextual Interpretation’ क्यों आवश्यक होती है?

किसी शब्द या वाक्य का अर्थ उस पूरे अधिनियम के प्रसंग (context) में देखा जाना चाहिए, न कि उसे अलग-थलग करके।
Contextual Interpretation यह सुनिश्चित करता है कि अधिनियम की धाराएं आपस में सामंजस्यपूर्ण रूप से काम करें और किसी एक धारा की गलत व्याख्या से अधिनियम का उद्देश्य बाधित न हो।


🔶 84. व्याख्या में ‘Interpretation of Penal Statutes’ कैसे की जाती है?

दंडात्मक विधियों की व्याख्या सख्ती (strictly) से की जाती है, ताकि किसी को बिना स्पष्ट कानूनी प्रावधान के दंडित न किया जाए।
यदि प्रावधान अस्पष्ट हो, तो संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाता है।
यह सिद्धांत नागरिक स्वतंत्रता और विधिक निश्चितता की रक्षा करता है।


🔶 85. व्याख्या में ‘Interpretation of Constitution’ कैसे की जाती है?

संविधान की व्याख्या liberal और purposive दृष्टिकोण से की जाती है क्योंकि यह एक जीवंत दस्तावेज़ है।
न्यायालय इसे समय, सामाजिक परिवर्तन और मूलभूत अधिकारों के संदर्भ में व्याख्यायित करते हैं।
यह व्याख्या संविधान की आत्मा, प्रस्तावना और बुनियादी संरचना को ध्यान में रखते हुए की जाती है।


🔶 86. व्याख्या में ‘Harmonious Construction’ का क्या महत्व है?

यदि किसी अधिनियम की दो धाराएं परस्पर विरोध में प्रतीत होती हैं, तो न्यायालय ऐसा अर्थ निकालता है जिससे दोनों का अस्तित्व बना रहे
Harmonious Construction अधिनियम को संपूर्णता में समझने का प्रयास करता है और प्रत्येक धारा को अर्थपूर्ण बनाए रखता है।
यह विधायी मंशा के सम्मान और विधिक स्थिरता के लिए आवश्यक है।


🔶 87. व्याख्या में ‘Doctrine of Repugnancy’ क्या है?

यह सिद्धांत तब लागू होता है जब केंद्र और राज्य कानून एक ही विषय पर हों और उन दोनों में टकराव हो।
यदि दोनों में सामंजस्य संभव नहीं है और केंद्र का कानून संसद द्वारा संविधान की सूची-III में बनाया गया है, तो राज्य का कानून अमान्य हो सकता है।
यह सिद्धांत भारतीय संघीय ढांचे को संतुलित रखने में सहायक है।


🔶 88. व्याख्या में ‘Mandatory और Directory Provisions’ की पहचान कैसे की जाती है?

यह न्यायालय पर निर्भर करता है कि वह विधायी मंशा, उद्देश्य, शब्दों के प्रयोग (shall/will/may) और संभावित प्रभावों को देखकर यह तय करे कि कोई प्रावधान अनिवार्य (mandatory) है या निर्देशक (directory)
यदि किसी प्रावधान की अनदेखी से अधिनियम का उद्देश्य बाधित होता है, तो वह अनिवार्य माना जाता है।


🔶 89. व्याख्या में ‘Internal and External Aids’ का तुलनात्मक विश्लेषण करें।

  • Internal Aids: अधिनियम के भीतर दिए गए उपकरण जैसे – शीर्षक, प्रस्तावना, व्याख्या खंड, व्याख्याएं, परिशिष्ट आदि।
  • External Aids: अधिनियम के बाहर के स्रोत जैसे – संसदीय बहस, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, न्यायिक निर्णय, अन्य अधिनियम आदि।
    दोनों प्रकार के साधन विधायिका की मंशा स्पष्ट करने में उपयोगी होते हैं।

🔶 90. व्याख्या में ‘Interpretation of Welfare Legislation’ कैसे की जाती है?

कल्याणकारी कानूनों जैसे – श्रमिक, महिला, बच्चों, या वंचितों से संबंधित अधिनियमों की व्याख्या liberal और expansive तरीके से की जाती है ताकि उनका उद्देश्य पूरा हो सके।
न्यायालय सामान्यतः इन कानूनों में संदेह की स्थिति में लाभार्थी के पक्ष में निर्णय देता है।
यह सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का उपकरण है।


🔶 91. व्याख्या में ‘Effect of Repeal’ पर न्यायालय का दृष्टिकोण क्या है?

यदि कोई अधिनियम निरस्त कर दिया गया हो, तो सामान्यतः उससे प्राप्त अधिकार या दायित्व समाप्त हो जाते हैं।
लेकिन यदि कोई कार्यवाही पहले शुरू हो चुकी थी, तो उसे जारी रखा जा सकता है – जब तक कि नया कानून स्पष्ट रूप से उसे रोक न दे।
यह General Clauses Act की धारा 6 पर आधारित है।


🔶 92. व्याख्या में ‘Interpretation of Subordinate Legislation’ कैसे की जाती है?

उपविधियाँ (rules, regulations) तब तक वैध मानी जाती हैं जब तक वे मूल अधिनियम की सीमाओं के भीतर हैं।
यदि उपविधि मुख्य अधिनियम का उल्लंघन करती है या उसकी शक्ति से बाहर है, तो वह व्यर्थ हो जाती है।
व्याख्या करते समय न्यायालय उपविधियों को मुख्य अधिनियम के अनुसार ही पढ़ता है।


🔶 93. व्याख्या में ‘Legislative History’ का क्या उपयोग है?

Legislative History अर्थात विधेयक से अधिनियम बनने तक की प्रक्रिया – जैसे मसौदा विधेयक, संसदीय बहस, समितियों की रिपोर्ट – से न्यायालय को विधायिका की मंशा समझने में सहायता मिलती है।
हालांकि भारत में इसका उपयोग सीमित है, लेकिन जटिल या अस्पष्ट मामलों में यह सहायक हो सकता है।


🔶 94. व्याख्या में ‘Doctrine of Reasonable Classification’ का प्रयोग कैसे होता है?

अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार यह कहता है कि समान को समान और भिन्न को भिन्न व्यवहार मिलना चाहिए।
यदि कोई कानून वर्गीकरण करता है, तो वह उचित और तर्कसंगत होना चाहिए।
इस सिद्धांत के तहत कानून की व्याख्या करते समय देखा जाता है कि क्या भेदभाव अनुचित या मनमाना है।


🔶 95. व्याख्या में ‘Interpretation of Fiscal Statutes’ कैसे की जाती है?

Fiscal Statutes यानी कर संबंधी कानूनों की व्याख्या सख्ती से की जाती है।
यदि कर लगाने वाला प्रावधान अस्पष्ट है, तो वह करदाता के पक्ष में व्याख्यायित किया जाएगा।
जब छूट या राहत की बात हो, तो उसकी व्याख्या संकीर्ण रूप से की जाती है।


🔶 96. व्याख्या में ‘Interpretation of Deeming Provisions’ क्या होती है?

Deeming Provisions वे प्रावधान होते हैं जो किसी वस्तु या स्थिति को माना जाता है कि वैसी है, भले ही वास्तविकता कुछ और हो।
न्यायालय इसे स्पष्ट और सीमित रूप में व्याख्यायित करता है – इसका विस्तार नहीं करता।
यह कल्पित धारणाओं (legal fictions) के रूप में प्रयोग होते हैं।


🔶 97. व्याख्या में ‘Interpretation to Promote Rule of Law’ का क्या अर्थ है?

न्यायालय व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान रखता है कि उसका निर्णय कानून के शासन (Rule of Law) की भावना को बढ़ावा दे।
यह सुनिश्चित करता है कि सभी व्यक्ति कानून के अधीन हों, अधिकारों की रक्षा हो, और न्याय प्रणाली पारदर्शी और निष्पक्ष हो।


🔶 98. व्याख्या में ‘Construction to Avoid Redundancy’ का सिद्धांत क्या है?

न्यायालय यह मानकर चलता है कि विधायिका ने किसी भी शब्द को व्यर्थ नहीं लिखा है।
इसलिए किसी भी शब्द या वाक्यांश को अनावश्यक मानकर त्यागने के बजाय उसका अर्थ निकालने की कोशिश की जाती है।
यह सिद्धांत कानून को प्रभावी और उद्देश्यपूर्ण बनाए रखता है।


🔶 99. व्याख्या में ‘Doctrine of Prospective Overruling’ क्या है?

इस सिद्धांत के अनुसार, यदि न्यायालय कोई पूर्व निर्णय असंवैधानिक घोषित करता है, तो वह निर्णय भविष्य से लागू होता है, न कि पिछली घटनाओं पर।
यह सिद्धांत भारत में पहली बार Golaknath v. State of Punjab में प्रयोग किया गया।
यह न्यायिक स्थिरता और व्यावहारिकता को सुनिश्चित करता है।


🔶 100. विधि व्याख्या की आवश्यकता क्यों होती है?

कई बार अधिनियमों की भाषा अस्पष्ट, जटिल या बहुव्याख्यायोग्य होती है।
ऐसी स्थिति में न्यायालयों को विधायिका की मंशा, उद्देश्य, सामाजिक संदर्भ और संवैधानिक मूल्य देखते हुए व्याख्या करनी होती है।
व्याख्या से कानून स्पष्ट, सुसंगत और न्यायोचित बनता है। यह न्यायपालिका की एक बुनियादी जिम्मेदारी है।