प्रश्न 11. दुष्प्रेरण क्या है? दुष्प्रेरण किन-किन तरीकों द्वारा सम्भव है?
What is Abatement? What are the various methods by which abatement is possible?
उत्तर- दुष्प्रेरण का अर्थ है, ‘उकसाना’ या ‘प्रोत्साहित करना’। यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य को स्वयं न करके दूसरे व्यक्ति को उस कार्य को करने हेतु उकसाता है या प्रोत्साहित करता है तो उसे उत्प्रेरक कहा जाता है तथा उसके कार्य को उत्प्रेरण कहते हैं। उत्प्रेरण अपने आप में अपराध नहीं है परन्तु यदि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कोई अपराध करने के लिए उत्प्रेरित करता है, उकसाता है या प्रोत्साहित करता है तो उसका उत्प्रेरण दुष्प्रेरण हो जाता है तथा ऐसा करना एक अपराध माना गया है।
कुछ विधिशास्त्री दुष्प्रेरण को एक अपूर्ण अपराध मानते हैं। परन्तु प्रोफेसर केनौ (Kenny) इसे पूर्ण अपराध मानते हैं। कुछ विद्वानों ने इसे प्रारम्भिक अपराध माना है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107 से 120 तक दुष्प्रेरण के अपराध से सम्बन्धित है। धारा 107 दुष्प्रेरण की परिभाषा देती है। धारा 107 के अनुसार दुष्प्रेरण तीन प्रकार से किया जा सकता है-
(1) उकसाने की क्रिया से
(2) षड्यन्त्र में सम्मिलित होकर और
(3) आशयपूर्ण ढंग से किसी अपराध को करने में सहायता करके।
(1) उकसाने की क्रिया से दुष्प्रेरण (Abetment by Instigation) – उकसाने का अर्थ है, प्रेरणा देना, मन्त्रणा देना या आदेश देना। उकसाने की क्रिया एक सक्रिय क्रिया है। सिर्फ मौन स्वीकृति दुष्प्रेरण नहीं हो सकती। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को किसी कार्य को करने के लिए बढ़ावा देता है, प्रोत्साहित करता है या भड़काता है तो यह कहा जायेगा कि उसने उस व्यक्ति को उकसाया है। यदि एक सलाह या परामर्श इस उद्देश्य से दिया जाता है कि कोई व्यक्ति आपराधिक कार्यवाही करें तो इसे दुष्प्रेरण माना जायेगा, परन्तु सिर्फ अनुमति देना दुष्प्रेरण नहीं माना जाता।।
यदि मौन स्वीकृति के परिणामस्वरूप भी कोई व्यक्ति किसी अपराध को करने के लिए प्रेरित हो जाता है तो मौन स्वीकृति भी दुष्प्रेरण माना जायेगा। साम्राज्ञी बनाम मोहित पाण्डेय (1871) के बाद में एक स्त्री सती होने के उद्देश्य से अपने पति की चिता पर बैठी। दो व्यक्ति उसकी चिता के पास ‘राम-राम’ जपने लगे तथा स्त्री को भी ऐसा करने को कहा। वहाँ उन्होंने उस स्त्री से कुछ नहीं कहा, परन्तु उन परिस्थितियों में उनकी मौन स्वीकृति को दुष्प्रेरण माना गया।
दुष्प्रेरण यदि पत्र के माध्यम से किया जाता है तो दुष्प्रेरण का अपराध तब पूर्ण होता है। जब पत्र की विषय-वस्तु पत्र प्राप्त करने वाले की जानकारी में आ जाये। अतः यदि पत्र प्रेषिती या प्राप्त करने वाले को प्राप्त ही नहीं होता है तो दुष्प्रेरण का अपराध पूर्ण नहीं माना जायेगा तथा इसे दुष्प्रेरण का प्रयत्न मात्र माना जायेगा।
यह स्मरणीय है कि ज्यों ही दुष्प्रेरक किसी व्यक्ति को अपराध करने के लिए उकसाता त्यों हो उसका दुष्प्रेरण का अपराध पूर्ण हो जाता है चाहे दुष्प्रेरित व्यक्ति वह अपराध करने के लिए सहमत हो या नहीं या सहमत होने के पश्चात् वह अपराध करे या न करें। अतः दुरण का अपराध तब भी पूर्ण माना जाता है, भले ही दुष्प्रेरित अपराध घटित न हुआ हो।
उहाहरण के रूप में अ की हत्या करने के लिए क, ख को उकसाता है। ख वैसा करने से इन्कार कर देता है। क, ख को हत्या के लिए उत्प्रेरित करने का दोषी होगा। भले ही ख हत्या करने के लिए सहमत नहीं होता। इसी प्रकार घ की हत्या करने के लिए ख को क उकसाता है। ख इसके फलस्वरूप घ को चोट पहुँचाता है। परन्तु घ का घाव अच्छा हो जाता है तथा घ जीवित बच जाता है। यहाँ के हत्या करने के लिए ख को उकसाने के लिए दुष्प्रेरण का दोषी है।
(2) षड्यन्त्र द्वारा दुष्प्रेरण (Abetment by conspiracy)– धारा 107 का दूसरा उपखण्ड षड्यन्त्र द्वारा रण के बारे में है। इस उपखण्ड के अनुसार दुष्प्रेरण के अपराध के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि दुष्प्रेरक अपराध के षड्यन्त्र में सम्मिलित था। षड्यन्त्र में अभियुक्त की हिस्सेदारी ही इस बात का प्रमाण होगी कि अभियुक्त को अपराध का ज्ञान था तथा अभियुक्त अपराध का आशय रखता था। चूँकि षड्यन्त्र को अपराध को तैयारी माना जाता है अतः केवल षड्यन्त्र के लिए किसी व्यक्ति को तब तक दण्डित नहीं किया जा सकता जब तक कि षड्यन्त्र के अनुसार कोई कार्य या कार्य का लोप (चूक) न किया गया हो।
षड्यन्त्र द्वारा दुष्प्रेरण के निम्न आवश्यक तत्व हैं –
(1) दो या दो से अधिक व्यक्तियों ने मिलकर अपराध के षड्यन्त्र की रचना की हो।
(2) षड्यन्त्र के अनुसरण में कोई कार्य या अवैध कार्य या लोप (चूक) किया गया हो।
(3) वह कार्य या अवैध कार्य-लोप षड्यन्त्र से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए किया गया हो।
जयमंगल बनाम सम्राट्, ए० आई० आर० 1936 इला० 437 के प्रकरण में चार अभियुक्त लाठियाँ लेकर एक व्यक्ति पर हमला करने गये जिससे इन चारों की शत्रुता थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन चारों में से प्रत्येक का आचरण एक-दूसरे को दुष्प्रेरित कर रहा था, अतः उन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107 के अन्तर्गत दुष्प्रेरण का दोषी पाया गया। षड्यन्त्रकारी एक-दूसरे के अभिकर्ता माने जाते हैं इसलिए एक षड्यन्त्रकारी का आचरण तथा कथन दूसरे षड्यन्त्रकारी के विरुद्ध एक साक्ष्य होगा।
षड्यन्त्र अकेले सम्भव नहीं है। इसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सहभागिता अति आवश्यक है। अतः एक षड्यन्त्रकारी का आचरण या कथन दूसरे षड्यन्त्रकारी के विरुद्ध एक पर्याप्त साक्ष्य माना जाता है। इसी प्रकार यदि एक षड्यन्त्रकारी के विरुद्ध आरोप असफल होता है तो सभी षड्यन्त्रकारियों को दोषमुक्त कर दिया जायेगा। इस बिन्दु पर हरधन चक्रवर्ती बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1990 एस० सी० 1210 का मामला उल्लेखनीय है। इस बाद में तथ्यों के अनुसार सेना के एक अधिकारी मेजर त्रिलोक चन्द्र को नौ अन्य व्यक्तियों के साथ चोरी के लिए अभियोजित किया गया था। सेना न्यायालय ने मेजा त्रिलोक चन्द्र को दोषी पाया परन्तु अन्य आठ व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया। उच्च न्यायालय में अपील करने पर उच्च न्यायालय ने त्रिलोक चन्द्र को दोषमुक्त कर दिया तथा त्रिलोक चन्द्र को सेवा में वापस लिया गया। शेष बचे हुए दुष्प्रेरक षड्यन्त्रकारी ने उच्चतम न्यायालय में याचिका के माध्यम से माँग की कि उसे अकेले दुष्प्रेरण के षड्यन्त्र के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता क्योंकि मूल अभियुक्त तथा उसके आठ दुष्प्रेरक साथियों को न्यायालय द्वारा दोषमुक्त किया जा चुका है। उच्चतम न्यायालय ने याचिका स्वीकार करते। अभिमत व्यक्त किया कि चूँकि मुख्य अभियुक्त को सारभूत (मौलिक) अपराध के लिए दोषमुक्त किया जा चुका है अतः केवल एक व्यक्ति को दुष्प्रेरण के षड्यन्त्र के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा षड्यन्त्र का अपराध किया जाना सम्भव नहीं है। हुए
(3) सहायता द्वारा दुष्प्रेरण (Abetment by Aid) — भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107 का तृतीय उपखण्ड ‘सहायता’ द्वारा दुष्प्रेरण के बारे में है। सहायता द्वारा दुष्प्रेरण तीन प्रकार से किया जा सकता है –
(अ) आशय के साथ सहायता प्रदान करके;
(ब) अवैध कार्यलोप (चूक) द्वारा; तथा
(स) कार्य किये जाने को सुगम (आसान) बनाकर परोक्षत (Indirectly) सहायता करना।
(अ) आशय के साथ सहायता करना- यदि कोई व्यक्ति अपराध किये जाने के पूर्व या अपराध किये जाते समय कोई ऐसा कार्य करता है जिससे मुख्य अपराधी को अपराध करने में सहायता पहुँचती है या मदद पहुँचती है तो यह कहा जायेगा कि उस व्यक्ति ने सहायता द्वारा अपराध करने में दुष्प्रेरण किया है।
उमी बनाम सम्राट् (1882) नामक बाद में एक पण्डित ने द्विविवाह (Bigamy) कराने में पुरोहित का कार्य किया जबकि वह यह जानता था कि द्विविवाह एक दण्डनीय अपराध है। उसे धारा 107 के अधीन द्विविवाह के दुष्प्रेरण के अपराध के लिए दोषी पाया गया क्योंकि उसने द्विविवाह का अपराध करने में सहायता या सक्रिय योगदान किया था।
यह उल्लेखनीय है कि सहायता द्वारा दुष्प्रेरण अपराध-कार्य घटित होने के पूर्व या अपराध-कार्य किये जाते समय पहुँचाई गई हो। अपराध-कार्य घटित हो जाने के पश्चात अपराधकर्ता को पहुँचाई गई सहायता इस धारा के अन्तर्गत दुष्प्रेरण नहीं मनी जायेगी।
धारा 107 के तीसरे उपखण्ड के साथ इस धारा से जुड़ा हुआ स्पष्टीकरण (2) साथ-साथ पढ़ा जाना चाहिए। इस स्पष्टीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो अपराध घटित न हुआ उसके लिए सहायता करने वाले व्यक्ति को दुष्प्रेरण के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकेगा क्योंकि सिर्फ अपराध किये जाने की प्रक्रिया को आसान बना देना ही दुष्प्रेरण नहीं होता जब तक कि आशयित (Intentional) अपराध जिसके लिए सहायता पहुँचाई गई हो। वास्तव में घटित नहीं हो जाता।
यदि कोई चौकीदार अपने स्वामी के भवन का फाटक इस आशय से खुला छोड़ देता है कि चोर उसमें प्रवेश कर जायें परन्तु चोर नहीं आते तो नौकर को चोरी के दुष्प्रेरण के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता परन्तु यदि यही चौकीदार फाटक खुला छोड़कर या उससे पहले चोरी करने वाले सम्भावित अपराधियों को इस बात की सूचना दे आता है कि वह फाटक खुला छोड़ देगा तो यह माना जायेगा कि वह चोरी के अपराध को प्रोत्साहित कर रहा है तथा इस कारण दुष्प्रेरण के लिए वह उत्तरदायी होगा।
उदाहरण के रूप में क एक पुड़िया जहर रखकर ख को देते हुए उससे कहता है कि वह इस विष को ग के भोजन में मिला दे परन्तु अचानक उसका विचार बदल जाता है तथा वह ख को ऐसा न करने के लिए कहता है। यहाँ के दुष्प्रेरण के लिए दोषी माना जायेगा।
(ब) कोई कार्य करने में अवैध (असफलता) लोप या चूक द्वारा सहायता (Aid by omission)– यदि किसी व्यक्ति पर कोई विधिक कर्तव्य (Legal duty) है तथा वह व्यक्ति उस दायित्व या कर्त्तव्य को पूरा करने के स्थान पर उस कर्त्तव्य को पूरा न करके अपराधकर्ता को अपराध करने में परोक्षतः (Indirectly) सहायता पहुँचाता है तो उसे धारा 107 के तीसरे उपखण्ड के अन्तर्गत दुष्प्रेरण के लिए दोषी माना जायेगा।
सम्राज्ञी बनाम काली चरण, (1875) नामक बाद में एक पुलिस हेड कॉन्स्टेबिल जो यह जानता था कि गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों से जबरन संस्वीकृति (confession) प्राप्त करने के लिए उसके अधीनस्थ साथी उसे यातना पहुँचाने वाले हैं तो वह उस अवैध कार्य से अपने आपको अनुपस्थित कर लेता है। स्पष्टीकरण (2) के अनुसार, उस अपराध (संस्वीकृति के लिए यातना देना) को करने में उसका अनुपस्थित होना सुगम बना देता है, चूँकि उसका विधिक कर्त्तव्य था कि वह वहाँ उपस्थित रहे तथा ऐसा न करके वह उस अपराध को किये जाने के लिए सहायता पहुँचाता है अतः वह एक दुष्प्रेरक के रूप में उत्तरदायी होगा।
(स) सुविधा प्रदान कर सहायता द्वारा दुष्प्रेरण– चूँकि कोई व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता है जो किसी अपराध करने के लिए एक सुविधा के रूप में मान्य हो तो वह कार्य करने वाला दुष्प्रेरण का दोषी होगा। यह कार्य ऐसा होना चाहिए जो प्रश्नगत अपराध करने के लिए आवश्यक हो ।
सम्राट् बनाम फैयाज हुसैन के वाद में एक जमींदार यह जानता था कि एक पुलिस अधिकरी जिसे वह अपना मकान उपलब्ध करा रहा है, कुछ संदिग्ध चोरों को यन्त्रणा देने के लिए उपयोग करेगा। उसने अपना मकान पुलिस अधिकारी को इस अवैध कार्य को सम्पन्न करने हेतु उपलब्ध कराया। जमींदार को दुष्प्रेरण के लिए दोषी पाया गया।
प्रश्न 12 दुष्प्रेरक से आप क्या समझते हैं ? दुष्प्रेरक के दायित्वों का उल्लेख कीजिए।
What do you understand by Abettor? Explain the liability of Abettor.
उत्तर- दुष्प्रेरक वह व्यक्ति होता है जो प्रत्यक्ष रूप से कोई कार्य नहीं करता फिर 45 अपराध से उसका बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है और यह सम्बन्ध अपराध के पहले और अपराध करने के समय होता है। एक दुष्प्रेरक के अपराधों के तीन स्वरूपों को देखा जा सकता है –
(i) एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को कोई अवैध कार्य करने के लिए उकस (instigate) सकता है या अपराध कार्य करने में सहायता कर सकता है।
(ii) दो या दो से अधिक व्यक्ति एक विधि-विरुद्ध कार्य करने को राजी होते हैं या कोई विधिसंगत कार्य विधि-विरुद्ध साधनों से करने का समझौता करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि दुष्प्रेरक उस व्यक्ति के साथ उस कार्य में शामिल हो जो वास्तविक अपराध करता है। वह सिर्फ अपने आप को उस षड्यंत्र में लगाये रह सकता है जिसके अनुसरण में आपराधिक दायित्व होता है।
(iii) दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी अवैध कार्य के करने में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा ले सकते हैं।
धारा 108 दुष्प्रेरक की परिभाषा करती है। धारा 108 के अनुसार, दुष्प्रेरक वह व्यक्ति होता है जो किसी अपराध के करने में या किसी कार्य के करने में या किसी कार्य के किये जाने में जो अपराध करने के लिए विधि द्वारा समर्थ व्यक्ति द्वारा उसी आशय या ज्ञान से जैसा कि दुष्प्रेरक का है किया जाता तो अपराध होता, दुष्प्रेरण करता है। धारा 108 दुष्प्रेरक की परिभाषा के लिए पाँच स्पष्टीकरण देती है जिसमें
स्पष्टीकरण (1) के अनुसार – किसी कार्य के अवैध कार्यलोप का दुष्प्रेरण अपराध हो सकता है यद्यपि दुष्प्रेरक उस कार्य को करने के लिए स्वयं बाध्य न हो।
स्पष्टीकरण (2) के अनुसार- दुष्प्रेरण का अपराध गठित होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दुष्प्रेरित कार्य किया जाय या अपराध निर्मित करने के लिए अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न हो।
उदाहरणस्वरूप- ‘क’, ‘ख’ को ‘ग’ की हत्या करने के लिए उकसाता है। ‘ख’ यह अस्वीकार कर देता है। यहाँ ‘क’ हत्या करने के लिए ‘ख’ के दुष्प्रेरण का दोषी है।
स्पष्टीकरण (3) के अनुसार यहाँ यह आवश्यक नहीं कि दुष्प्रेरित व्यक्ति अपराध करने के लिए विधि द्वारा समर्थ हो या उसका वही दूषित आशय या ज्ञान हो जो कि दुष्प्रेरक का है या कोई भी दूषित आशय या ज्ञान हो जैसे-‘ग’ की हत्या करने के आशय से ‘क’ ‘ख’ को उकसाता है। दुष्प्रेरण के फलस्वरूप कार्य एक सात वर्ष के बालक से उस समय करवाता। है जब ‘क’ अनुपस्थित रहता है। ‘ख’ सात वर्ष से कम उम्र का होने के कारण विधि की दृष्टि में अपराध करने में समर्थ नहीं था फिर भी ‘क’ उसी प्रकार से दण्डनीय होगा मानो ‘ख’ अपराध करने के लिए विधि की दृष्टि से समर्थ हो और उसने हत्या की हो। ‘क’ मृत्युदण्ड का भागी होगा।
स्पष्टीकरण (4) के अनुसार – किसी अपराध का दुष्प्रेरण अपराध है इसलिए ऐसे दुष्प्रेरण का दुष्प्रेरण भी अपराध है। जैसे-‘क’, ‘ख’ को उकसाता है कि यह ‘ग’ को उकसाकर ‘घ’ की हत्या करा दे। ‘क’ के उकसाने पर ‘ख’, ‘ग’ को ‘पकी हत्या के लिए उकसाता है। ‘ग’, ‘घ’ की हत्या कर देता है। ‘क’ और ‘ख’ दोनों दुष्प्रेरक होने के कारण दण्ड के भागी हैं।
स्पष्टीकरण (5) के अनुसार- पड़यन्त्र द्वारा दुष्प्रेरण के अपराध को करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दुष्प्रेरक उस अपराध को करने वाले व्यक्ति के साथ मिलकर उस अपराध की योजना बनाये। यह पर्याप्त है कि वह उस षडयन्त्र में सम्मिलित हो जिसके में अनुसरण में वह अपराध किया गया।
उदाहरणस्वरूप- ‘क’ और ‘ख’ योजना बनाते हैं कि ‘प’ को जहर देकर मारना है। ‘क’ ‘ग’ से यह बताकर कि ‘घ’ को जहर देकर मारना है किसी की मदद से ‘ग’ से जहर प्राप्त करता है। ‘ग’ षडयन्त्र में शामिल नहीं है। फिर भी उसके जहर देने से कार्य पूरा हुआ इसलिए ‘ग’ बतौर दुष्प्रेरक दण्ड का भागी होगा।
दुष्प्रेरक का दायित्व – भारतीय दण्ड संहिता के दुष्प्रेरण के अध्यायों में धारा 109 से 120 तक दुष्प्रेरक के दायित्व का वर्णन किया गया है। धारा 109 के अनुसार यदि कोई कार्य दुष्प्रेरक के दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप किया जाता है और ऐसे दुष्प्रेरण के लिए भारतीय दण्ड संहिता में अलग से कोई उपबन्ध नहीं किया गया है तो दुष्प्रेरक को उसी दण्ड से दण्डित किया जायेगा जो उस अपराध के लिए उपबन्धित है। जैसे ‘ख’ को जो एक लोक सेवक है, ‘ख’ के पदीय कृत्यों के प्रयोग में ‘क’ पर कुछ अनुग्रह दिखाने के लिए लोक सेवक है, ‘ख’ के पदीय कृत्यों के प्रयोग में ‘क’ पर कुछ अनुग्रह दिखाने के लिए इनाम के रूप में रिश्वत की प्रस्थापना करता है। ‘ख’ वह रिश्वत प्रतिग्रहीत कर लेता है। ‘क’ ने धारा 161 में परिभाषित अपराध का दुष्प्रेरण किया है।
धारा 110 दुष्प्रेरक के दायित्व की इस प्रकार से व्याख्या करती है कि जो कोई व्यक्ति किसी अपराध के किये जाने का दुष्प्रेरण करता है यदि दुष्प्रेरित व्यक्ति ने दुष्प्रेरक के आशय या ज्ञान से वह कार्य किया हो तो वह उसी दण्ड से दण्डित किया जायेगा जो उस अपराध के लिए उपबन्धित है जो किया जाता यदि वह कार्य दुष्प्रेरक के ही आशय या ज्ञान से न कि किसी अन्य आशय या ज्ञान से किया जाय।
धारा 111 में दुष्प्रेरक के दायित्व के लिए यह व्यवस्था दी गयी है कि दुष्प्रेरक द्वारा किसी एक कार्य के लिए दुष्प्रेरित किया जाय और कार्य दुष्प्रेरित कार्य से भिन्न किया जाय तो दुष्प्रेरक उस किये गये कार्य के लिए उसी प्रकार और उसी सीमा तक भागी है मानों कि उसने प्रत्यक्ष रूप से उसे दुष्प्रेरित किया है। किन्तु यह तब सम्भव होगा जबकि दुष्प्रेरण के सम्भव परिणामों के कारण कार्य हुआ हो और उकसाहट के प्रभाव के अधीन या उस सहायता से या षड़यंत्र के अनुसरण में किया गया हो जिससे वह दुष्प्रेरण निर्मित हो। इसको इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि ‘क’ एक शिशु को ‘य’ के भोजन में विष डालने के लिए उकसाता है। और इसलिए उसे विष भी देता है परन्तु वह शिशु ‘क’ के उकसाने के प्रभाव के अधीन भूल से ‘म’ के भोजन में जो ‘य’ के भोजन के पास रखा हुआ है, विष डाल देता है। यहाँ, यदि वह शिशु’क’ के दाने के असर के अधीन उसे कार्य को कर रहा था और किया गया कार्य उस परिस्थिति में उस दुष्प्रेरण का अधिसम्भाव्य परिणाम है तो ‘क’ उसी प्रकार और उसी विस्तार तक दायित्व के अधीन है मानों उसने उस शिशु को ‘म’ के भोजन में ही विथ डालने के लिए उकसाया हो।
गिरिजा प्रसाद बनाम एम्परर (1934) इलाहाबाद 717 के बाद में एक व्यक्ति को सोच-समझकर लाठियों से पीटने को उकसाया गया था परन्तु हमलावरों में से एक ने अपनो जेब से भाले की नोक निकालकर उससे वादी पर हमला कर दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी तो उसके द्वारा किये गये कार्य से अन्य सभी को हत्या या हत्या के दुष्प्रेरण के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि किया गया कार्य हत्या उकसाहट का अधिसम्भाव्य परिणाम नहीं था।
धारा 112 यह प्रावधान करती है कि यदि वह कार्य जिसके लिए दुष्प्रेरक धारा 111 के अनुसार, दायित्व के अधीन है दुष्प्रेरित कार्य के अतिरिक्त किया जाता है और वह कोई भिन्न अपराध गठित करता है तो दुष्प्रेरक उन अपराधों में से हर एक के लिए दण्ड का भागी होगा से-‘क’ ‘ख’ को उकसाता है कि वह एक लोक सेवक द्वारा किये गये करस्थम (distress) का बलपूर्वक प्रतिरोध करे। ‘ख’ परिणामस्वरूप उस करस्थम का प्रतिरोध करता है। करस्थम का प्रतिरोध करने के दौरान लोक सेवक को गम्भीर चोट पहुंचती है। यहाँ ‘क’ ने सिर्फ करस्थम का प्रतिरोध करने का दुष्प्रेरण किया था जो कि एक अपराध है और उसी दुष्प्रेरण के फलस्वरूप गम्भीर चोट भी पहुँची है जिसके बारे में ‘क’ को जानकारी थी कि ऐसा हो सकता है। अत: ‘क’ दोनों अपराधों के दण्ड पाने का भागी होगा।
धारा 113 में दुष्प्रेरक का दायित्व इस प्रकार होता है कि जब कार्य का दुष्प्रेरण दुष्प्रेरक की ओर से किसी विशेष प्रभाव के पैदा करने के आशय से किया जाता है और दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप दण्ड का भागी उसी दशा में होगा जबकि वह यह जानता रहा हो कि दुष्प्रेरित कार्य से ऐसा प्रभाव पैदा होना सम्भव है। इसके उदाहरण में-‘य’ को घोर उपहति करने के लिए ‘ख’ उकसाता है। ‘ख’ उकसाहट के परिणामस्वरूप ‘य’ को घोर उपहति कारित करता है। परिणामस्वरूप ‘य’ की मृत्यु हो जाती है। यहाँ यदि ‘क’ यह जानता था कि दुष्प्रेरित घोर उपहति से मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है तो ‘क’ हत्या के लिए दण्ड से दण्डित होगा।
धारा 114 में दुष्प्रेरक का दायित्व– जब कोई व्यक्ति जो किसी कार्य का दुष्प्रेरण करता है और अपराध करते समय वह उपस्थित भी होता है तब यह समझा जायेगा कि जैसे उसने स्वयं अपराध किया हो।
राज्य बनाम हेमा रेड्डी, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 1417 के बाद में अभियुक्त ने वास्तविक स्वामी का प्रतिरूपण कर एक बन्धकित सम्पति के सन्दर्भ में एक विक्रय विलेख रजिस्ट्रीकृत करवा लिया। इस कार्य में उसे उस व्यक्ति से सहायता प्राप्त हुई जिसके पक्ष में विक्रय किया गया था जब बन्धककर्ता ने मोचन के लिए बाद और अभियुक्त तथा अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध आपराधिक परिवाद दाखिल किया तो मोचन के बाद में प्रतिरक्षा में विक्रय विलेख नहीं रखा गया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संहिता की धारा 193 के अधीन अपराध गठित नहीं हुआ क्योंकि गढ़ा हुआ विक्रय विलेख मोचन बाद मे साक्ष्य में नहीं रखा गया परन्तु अभियुक्त और वे अन्य व्यक्ति संहिता की धारा 467/114 के अधीन क्रमश: कूट रचना के दोषी ठहराये गये।
देवधर सिंह बनाम सम्राट, आई० एल० आर० 27 कलकत्ता 144 के बाद में कहा गया कि रिश्वत देते समय तक व्यक्ति को घटनास्थल पर उपस्थिति तथा बाद में यह तथ्य प्राधिकारियों को न बताने मात्र से उसे इस धारा के अन्तर्गत दायित्वाधीन नहीं माना जा सकता जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय, कि उसने रिश्वत देने वाले को पहले दुष्प्रेरित किया था।
धारा 115 के अधीन दुष्प्रेरक का दायित्व- जो कोई मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय जुर्म करेगा यदि यह अपराध दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप न किया गया हो और भारतीय दण्ड संहिता में दुष्प्रेरण के लिए अलग से दण्ड की व्यवस्था नहीं है तो दुष्प्रेरक को सात वर्ष की अवधि तक के लिए कारावास व आर्थिक दण्ड दिया जा सकेगा और यदि कोई ऐसा कार्य कर दिया जाय जिसके लिए दुष्प्रेरक उस दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप दायित्व के अधीन हो जिससे व्यक्ति को चोट पहुँचे तो दुष्प्रेरक साधारण या कठोर कारावास से जो 14 वर्ष तक का हो सकता है और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
धारा 116 के अधीन दुष्प्रेरक का दायित्व – यदि कारावास से दण्डनीय अपराध दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप नहीं किया जाता और ऐसे दुष्प्रेरण के लिए भारतीय दण्ड संहिता में कोई उपबन्ध नहीं है तो दुष्प्रेरक उस अपराध के लिए उपबन्धित दण्ड के 1/4 दण्ड का भागी होगा या जुर्माने से दण्डित किया जायेगा, परन्तु यदि दुष्प्रेरक लोक सेवक हो और उसका कार्य अपराध निवारक हो तब ऐसे अपराध के लिए वह दुष्प्रेरक आधे भाग तक दण्ड का भागी होगा। जैसे-‘अ’ ने एक पुलिस अफसर को घूस देने की कोशिश की कि वह ‘अ’ के मनमाफिक कार्य कर दे। अफसर घूस लेना अस्वीकार कर देता है। ‘अ. दण्डनीय होगा।
धारा 117 के अधीन दुष्प्रेरक का दायित्व- ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण जो जनसाधारण या कम-से-कम दस व्यक्तियों को उकसाता है किसी अपराध को करने के लिए तब दुष्प्रेरक को 3 वर्ष के साधारण या कठोर कारावास या जुर्माने से दण्डित किया जायेगा।
धारा 118, 119 के अधीन दुष्प्रेरक का दायित्व- ऐसा लोक सेवक, जिसका कार्य अपराध को रोकना है, किसी मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध की परिकल्पना को छिपाता है तो वह ऐसे अपराध के दण्ड से दण्डनीय होगा। उदहारणस्वरूप-‘क’ यह जानते हुए कि ‘ख’ स्थान पर डकैती पड़ने वाली है मजिस्ट्रेट को यह मिथ्या इत्तिला देता है कि डकैती ‘ख’ के बजाय ‘ग’ स्थान पर पड़ने वाली है जो विपरीत दिशा में है तो उसके द्वारा अपराध के कार्य को सुगम बनाने और मजिस्ट्रेट को बहलाने का कार्य इस धारा के अधीन दण्डनीय होगा।
धारा 120 के अधीन दुष्प्रेरक का दायित्व– जो कोई उस अपराध का दुष्प्रेरण करेगा जो कारावास से दण्डनीय है या उसे छिपाता है या सुगम बनाता है तो इस धारा के अधीन दायित्वाधीन होगा।
बाबूराम बनाम मोहम्मद अली, 1977 क्रि० लॉ० ज० 117 इलाहाबाद के बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 466, 469 एवं 120 के अधीन दाखिल किया गया और दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन किया गया परिवाद जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अस्तित्व में आने के समय लम्बित था के नई संहिता के उपबन्धों के आधार पर वारण्ट मामले की तरह पुरानी संहिता के अधीन दि गये सेशन जाँच की तरह नहीं निपटाना चाहिए। इस प्रकार से उपरोक्त सभी स्थितियों में एक दुष्प्रेरक का दायित्व मुख्य अपराधी के साथ-साथ ही होता है।
प्रश्न 13. आपराधिक षड्यन्त्र से आप क्या समझते हैं? आपराधिक षड्यन्त्र में दण्ड के सम्बन्ध में किये गये प्रावधानों की विवेचना कीजिए।
What do you understand by criminal conspiracy? Discuss the Law relating to punishment of Criminal Conspiracy.
उत्तर- आपराधिक षड्यन्त्र (Criminal Conspiracy)- आपराधिक षड्यन्त्र को सन् 1913 से पूर्व धारा 107 में परिभाषित दुष्प्रेरण का एक तरीका माना जाता था तथा अपराधी को धारा 109 के अन्तर्गत दण्डित किया जाता था परन्तु सन् 1913 में भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन कर एक नवीन अध्याय 5-क जोड़ा गया है। इस अध्याय में 120-क तथा 120-ख दो धाराएँ जोड़ी गई हैं। धारा 120-क आपराधिक षड्यंत्र के अपराध को परिभाषित करती है तथा धारा 120-ख आपराधिक षड्यंत्र के लिए दण्ड का प्रावधान करती है।
धारा 120-क में दी गई परिभाषा के अनुसार, जब दो या दो से अधिक व्यक्ति (1) क अवैध कार्य अथवा (2) कोई ऐसा कार्य जो अवैध नहीं है, अवैध साधनों द्वारा करने व करवाने को सहमत होते हैं तब ऐसी सहमति आपराधिक षड्यंत्र कहलाती है। परन्तु किस अपराध को करने की सहमति के सिवाय कोई सहमति आपराधिक षड्यंत्र तब तक नहीं होग जब तक कि सहमति के अतिरिक्त कोई कार्य उसके अनुसरण में उस सहमति के एक अधिक पक्षकारों द्वारा नहीं कर दिया जाता, उद्देश्य तत्वहीन है।
न्यायमूर्ति विलिस ने मुल्व बनाम रेम्स, (1868) 3 एच० एल० 306 नामक वाद में आपराधिक षड्यंत्र की परिभाषा देते हुए कहा है कि “पड्यंत्र दो या दो से अधिक व्यक्तियों के अवैध कार्य करने या किसी वैध कार्य को अवैध साधनों द्वारा करने की सहमति से उत्पन्न होता है न कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के आशय से। जब तक ऐसी सहमति आशय तक सीमित रहती है, वह दण्डनीय नहीं है परन्तु जब दो या दो से अधिक व्यक्ति उस षड्यंत्र (योजना) को क्रियान्वित करने के लिए सहमत हो जाते हैं तो यदि वह कोई अवैध कार्य करने या कोई वैध कार्य अवैध साधनों से करने के लिए है तो आपराधिक षड्यंत्र का रूप धारण कर लेती है।”
यह उल्लेखनीय है कि षड्यंत्र अपने आप में पृथक् अपराध है तथा उस अपराध से पृथक तथा भिन्न है जिसको करने का षड्यंत्र किया गया है। षड्यंत्र एक निरन्तर चलने वाला अपराध है तथा यह तब तक चलता रहता है जब तक षड्यंत्रकारी उसे विफल या निष्पादित न कर दें।
षड्यंत्र के अपराध के निम्न आवश्यक तत्व हैं –
(1) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना;
(2) दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य सहमति,
(3) दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य सहमति, जो कोई अवैध कार्य करने या किसी वैध कार्य को अवैध साधनों से करने के लिए हों;
(4) सहमति या समझौते के अनुसार किसी कार्य का किया जाना; तथा
(5) षड्यंत्र का सबूत।
(1) दो या दो से अधिक व्यक्ति- सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा आपराधिक षड्यंत्र का अपराध हो पाना सम्भव नहीं है। अतः षड्यंत्र के अपराध के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सहमति आवश्यक है। इस विषय में तीन बातें उल्लेखनीय हैं- प्रथम तो यह कि सिर्फ दो या दो से अधिक व्यक्तियों के होने मात्र से षड्यंत्र का अपराध गठित नहीं होता जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि उनके किसी अवैध कार्य को करने या किसी वैध कार्य को अवैध साधनों से करने हेतु सहमति नहीं हुई थी। दूसरे, यदि तोन व्यक्ति आपराधिक षड्यंत्र के लिए आरोपित किये जाते हैं तथा विचारण के उपरान्त दो व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया जाता है तो शेष बचे व्यक्ति को भी दोषमुक्त कर दिया जायेगा, क्योंकि एक व्यक्ति द्वारा षड्यंत्र का अपराध सम्भव नहीं है। परन्तु यदि यह साबित कर दिया जाए कि अभियुक्त अन्य अज्ञात या फरार व्यक्तियों के साथ षड्यंत्र में शामिल था तो उस दशा में अकेले भी सिद्धदोष किया जा सकता है ऐसा फखरुद्दीन बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० में कहा गया है। तीसरे यदि पति-पत्नी को षड्यंत्र का आरोपी बनाया गया है तो अंग्रेजी विधि के अनुसार षड्यंत्र का अभियोजन नहीं चल सकता क्योंकि पति पत्नी विधि की दृष्टि में एक हैं, परन्तु भारतीय विधि में यह प्रतिबन्ध नहीं है।
उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद अमीन उर्फ अमीन कोरेली रहीम मियाँ शेख बनाम केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (CBI), (2009) 1 सी० सी० एस० सी० 217 के बाद में विनिश्चित किया कि षड्यंत्र का आरोप साबित करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सभी षड्यंत्रकारी षड्यंत्र के प्रारम्भ होने से लेकर समाप्त होने तक की अवधि में सतत् उसके भागीदार बने रहे। यदि षड्यंत्र का उद्देश्य या उसके प्रयोजन में एकता है तो षड्यंत्र के विभिन्न प्रक्रमों पर उसमें सहभाग लेने वाले सभी व्यक्तियों को षड्यंत्र का दोषी माना जाएगा।
(2) दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य समझौता या सहमति– अवैध कार्य करने या वैध कार्य को अवैध साधनों द्वारा करने का समझौता षड्यंत्र के अपराध का सार है। मोहम्मद हुसैन बनाम दिलीप सिंह, (1970) नामक बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के होने मात्र से ही षड्यंत्र रचित नहीं हो जाता जब तक कि उनके मध्य किसी अवैध कार्य को करने की सहमति न हो। दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य आशय होना ही पर्याप्त नहीं है। उनके मध्य आपराधिक सहमति भी आवश्यक तत्व है।
(3) यह सहमति अवैध कार्य करने या वैध कार्य को अवैध साधन से करने के लिए होनी चाहिए – षड्यंत्र के अपराध का तत्व विधि-विरुद्ध कार्य करने की सहमति में है। यदि ‘अ’ तथा ‘ब’, ‘स’ की हत्या करने को सहमत हो जाते हैं तथा वे इसके लिए योजना तैयार करते हैं, इससे अधिक कुछ करें उससे पूर्व उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है तो इस मामले में वे षड्यंत्र के लिए दोषी होंगे क्योंकि षड्यंत्र के अपराध के लिए आपराधिक सहमति हो पर्याप्त है, भले ही उसके आगे कुछ न किया जा सका हो।
(4) सहमति या समझौते के अनुसार किसी कार्य का किया जाना – षड्यंत्रकारियों द्वारा किसी आपराधिक कार्य के लिए सहमति के पश्चात् कुछ न किया गया हो तो वे षड्यंत्र के अपराध के लिए दायी नहीं होंगे परन्तु यह आवश्यक है कि सहमति को कार्यान्वित करने हेतु कोई प्रकट कार्य किया गया हो क्योंकि सहमति या आशय को साबित करने के लिए ऐसे कार्य को साबित किया जाना आवश्यक है। जैसे सहमति संज्ञापित करना तैयारी करना, आपराधिक कृत्य करना आदि।
(5) षड्यंत्र का सबूत – षड्यंत्र को प्रत्यक्ष साक्ष्यों द्वारा साबित किया जाना कठिन है. अत: उसे आनुषंगिक कार्यों तथा पक्षकारों के आचरण के आधार पर साबित किया जा सकता है, विभिन्न कार्यों शृंखलाबद्धता तथा सुसंगतता साबित की जानी चाहिए। परमहंस यादव बनाम बिहार राज्य, (1987) क्रि० लॉ० ज० 789 सु० को० ।
आपराधिक षड्यन्त्र तथा दुष्प्रेरण
(Criminal Conspiracy and Abetment)
आपराधिक षड्यन्त्र [ धारा 120 (क) ]
1. आपराधिक षड्यन्त्र स्वयं में एक सारभूत अपराध है।
2. आपराधिक षड्यन्त्र में ऐसे भी कार्य आते हैं, जो धारा 107 के अर्थ में षड्यन्त्र द्वारा दुष्प्रेरण की कोटि में नहीं आते हैं अर्थात् इसका क्षेत्र अधिक विस्तृत है।
3. आपराधिक षड्यन्त्र (धारा 120 क) के मामले में यदि कोई अपराध कारित करने का षड्यन्त्र हो, तो दो या दो से अधिक व्यक्तियों का सहमत होना मात्र पर्याप्त है।
दुष्प्रेरण [ धारा 107 ]
1. दुष्प्रेरण स्वयं अपने आप में नहीं है। सारभूत
2. दुष्प्रेरण का क्षेत्र आपराधिक षड्यन्त्र की अपेक्षा सीमित है।
3. दुष्प्रेरण यानि धारा 107 के अन्तर्गत षड्यन्त्र द्वारा दुष्प्रेरण में विभिन्न व्यक्तियों में सहमति या समझौता होना मात्र पर्याप्त नहीं है, इसके अनुसरण में कोई कार्य या अवैध लोप किया जाना चाहिए ताकि . षड्यन्त्र कार्य पूरा हो सके।
प्रश्न 14. निम्नलिखित की विवेचना कीजिए –
(i) विधि-विरुद्ध जमाव
Unlawful Assembly
(iii) सद्भावपूर्वक दी गयी संसूचना
Communication made in good faith.
उत्तर (i) – विधि-विरुद्ध जमाव– पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव विधि-विरुद्ध जमाव कहलाता है। विधि-विरुद्ध जमाव को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 141 में परिभाषित किया गया है इस परिभाषा के अनुसार पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव विधि-विरुद्ध जमाव कहा जाता है। यदि उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उद्देश्य हो
(1) केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को या संसद को या किसी राज्य के विधान मण्डल को या किसी लोक सेवक को जबकि वह ऐसे विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना या
(2) किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का प्रतिरोध करना या
(3) किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का करना था
(4) किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के अधिकार के उपभोग से या जल का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका वह कब्जा रखता हो या उपभोग करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार को प्रवर्तित करना, अथवा
(5) आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए, जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो, या उसका लोप करने के लिए, जिसे करने के लिए वह वैध रूप से हकदार हो, विवश करना।
स्पष्टीकरण- कोई जमाव, जो इकट्ठा होते समय विधि-विरुद्ध नहीं था, बाद में विधि-विरुद्ध जमाव हो सकेगा। परिभाषा में निम्न आवश्यक तत्व सम्मिलित हैं –
(1) पाँच या अधिक व्यक्ति होने चाहिए।
(2) विधि-विरुद्ध जमाव का गठन सामान्य उद्देश्य के लिए होना चाहिए। (3) जमाव में उपस्थिति होनी चाहिए।
(4) सामान्य उद्देश्य को निम्न रूपों में होनी चाहिए –
(i) केन्द्र या राज्य सरकार को किसी कर्मचारी को आपराधिक बल द्वारा आतंकित करना,
(ii) विधि आदेशिका के निष्पादन का प्रतिरोध करना,
(iii) रिष्टि, अतिचार या अन्य अपराध करना,
(iv) किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या जबरदस्ती, बल का प्रयोग कर किसी सम्पत्ति का कब्जा लेना,
(v) आपराधिक बल द्वारा किसी व्यक्ति को विधि-विरुद्ध कार्य करने को विवश करना।
1. पाँच या अधिक व्यक्ति विधि– विरुद्ध जमाव को गठित करने के लिए न्यूनतम पाँच व्यक्तियों का होना अनिवार्य है अतः चार व्यक्तियों तक का जमाव विधि-विरुद्ध जमाव नहीं हो सकता परन्तु यह जमाव तभी विधि-विरुद्ध जमाव बनता है जब उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है सामान्य उद्देश्य इस धारा के अन्तर्गत उल्लिखित पाँच खण्डों में से किसी न किसी में पड़ता हो।
मोहन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1787 के बाद में कहा गया कि यदि विधि-विरुद्ध जमाव के दोषी आरोपियों में से कुछ का नाम या पता न होने के कारण या पहचान के अभाव में उन्हें आरोपित करना सम्भव न हो, तो इसमें शामिल शेष व्यक्तियों को विधि-विरुद्ध जमाव का सदस्य माना जा सकेगा तथा दोषी पाये जाने पर दण्डित किया जा सकेगा चाहे उनकी संख्या 5 से घटकर कम क्यों न रह गयी हो।
2. सामान्य उद्देश्य – भारतीय दण्ड संहिता में सामान्य उद्देश्य को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है परन्तु जमाव के सदस्यों के बीच उद्देश्य वही होना चाहिए। चार-पाँच व्यक्तियों के जुट जाने से यह साबित नहीं हो जाता कि वह विधि-विरुद्ध जमाव था और लोक शान्ति भंग करने के आशय से किया गया था। अरविन्द बनाम राज्य, 1983 क्रि० एल० जे० 1259 (केरल) के वाद में यह कहा कि केवल पाँच, छः व्यक्तियों के इकट्ठा हो जाने से लोक शान्ति भंग होने की बात नहीं कही जा सकती और न ही उसे विधि-विरुद्ध जमाव ही कहा जा सकता है।
3. जमाव में उपस्थिति– न्यायालयों के समक्ष उन व्यक्तियों के दायित्व के प्रश्न आते रहे हैं जो उस स्थान पर उपस्थित रहे हैं, जहाँ पर कोई विधि-विरुद्ध जमाव विद्यमान था। बालादीन बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1956 एस० सी० 181 के मामले में गाँव के मूल “निवासियों को उस गाँव में सरकार द्वारा बसाये गये कुछ विस्थापितों की हत्या करने के आरोप में दोषसिद्ध किया गया। दोषसद्धि का आधार यह था कि ग्रामीण, सरकार द्वारा विस्थापितों को अपने गाँव में बसाये जाने के विरुद्ध थे, अत: उन्होंने उनकी हत्या करने का सामान्य उद्देश्य बना लिया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आपराधिक विधि का सिद्धांन्त यह होने के कारण कि अभियोजन पक्ष के द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध आरोप को सन्देह से परे साबित किया जाना आवश्यक है। केवल इस तथ्य के आधार पर कि कुछ अपीलार्थी जमाव के स्थान पर विद्यमान थे। स्वतः ही यह साबित नहीं हो पाता कि अन्य व्यक्तियों के साथ उनका भी सामान्य उद्देश्य विस्थापितों की हत्या करना था।
मसालती बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 202 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने वालादीन के मामले में कही गयी उपरोक्त बातों को आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि यह साबित हो जाय कि कुछ व्यक्ति किसी विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्यों के साथ निष्क्रिय दर्शकों की तरह मिश्रित हो गये हैं तो उन्हें विधि-विरुद्ध जमाव के सदस्यों के रूप में दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।
इस धारा में दिये गये खण्डों में से प्रथम खण्ड के अनुसार- पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव तब विधि-विरुद्ध जमाव कहा जायेगा जब जमाव गठित करने वाले ॐ व्यक्तियों का सामान्य उद्देश्य केन्द्र सरकार को राज्य सरकार, संसद या विधान मण्डल को या किसी लोक सेवक को जब तक वह अपने विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना है। अत: इस खण्ड में आपराधिक बल का होना आवश्यक है। बिना आपराधिक बल के आतंकित करना इस खण्ड में नहीं आ सकेगा।
द्वितीय खण्ड के अनुसार– पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव तय विधि-विरुद्ध मा कहा जायेगा जब जमाव गठित करने वाले व्यक्तियों का उद्देश्य किसो विधि के या आदेशिका का निष्पादन का प्रतिरोध करना है।
रामबाबू बनाम एम्परर, (1945) 25 पटना 125 के मामले में एक जुलूस में सम्मिलित लोगों ने जिन रास्तों पर से होकर जाने और जहाँ तक जाने की अनुज्ञप्ति प्राप्त थी उनकी शर्तों की अवहेलना की और जब पुलिस के द्वारा उन्हें आगे जाने से रोकने का प्रयत्न किया गया तब उन्होंने पुलिस के घेरे से आगे जाने का दृढ़ प्रयास किया तो उन्हें विधि-विरुद्ध जमाव का सदस्य अभिनिर्धारित किया गया।
राज्य बनाम नियामा, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 1652 में मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि पुलिस के अवैध विरोध से किसी मित्र की रिहाई पर उसके स्वागत के लिए किसी स्थान पर एकत्र होना विधि-विरुद्ध जमाव नहीं है।
तृतीय खण्ड के अनुसार- पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव तब विधि-विरुद्ध होगा जब जमाव गठित करने वाले व्यक्तियों का सामान्य उद्देश्य किसी रिष्टि आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का करना हो।
मोहनलाल बनाम राज्य, (1982) क्रि० लॉ० ज० 1998 के बाद में एक शिशु के व्यपहरण के मामले में अभिकथित प्रधान अपराधी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उसके द्वारा बतलाये गये स्थान से उस शिशु का मृत शरीर बरामद किया गया। इसके पश्चात् भी इस मामले में अभियुक्त के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही प्रारम्भ करने में पुलिस की ओर से कोई विशेष प्रगति नहीं हो पायी। अत: पुलिस की निष्क्रियता के विरुद्ध विरोध प्रकट करने के लिए पुलिस चौकी पर भीड़ एकत्रित हो गयी। भीड़ को विधि-विरुद्ध जमाव कहे जाने के प्रश्न पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उस भीड़ का सामान्य उद्देश्य रिष्टि, आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध करना नहीं था और इसलिए यदि भीड़ के किसी सदस्य द्वारा हिंसा या आगजनी की गयी तो केवल उसे ही इसके लिए आरोपित किया जाना चाहिए।
चौथे खण्ड के अनुसार – पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव तब विधि-विरुद्ध होगा जब उस जमाव का सामान्य उद्देश्य किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति की किसी वर्ग के अधिकार के उपभोग से या बल का उपयोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से, जिसका वह कब्जा रखता हो या उपयोग करता हो, वंचित करना है।
पाँचवें खण्ड के अनुसार- पाँच या अधिक व्यक्तियों का जमाव विधि-विरुद्ध कहा जाता है यदि उन व्यक्तियों का सामान्य उद्देश्य आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए, जिसे करने हेतु वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप करने के लिए जिसे करने के लिए वह वैध रूप से हकदार हो, विवश करना हो।
इस धारा के स्पष्टीकरण के अनुसार, ऐसा जमाव जो इकट्ठा होने के समय विधि-विरुद्ध नहीं था। बाद में हो सकेगा क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जमाव का प्रारम्भ से ही विधि-विरुद्ध होना अनिवार्य है।
शिवाजी सिंह तथा अन्य बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० (2009) सु० को 417 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि यह आवश्यक नहीं है कि कोई जमाव प्रारम्भ से ही विधि-विरुद्ध हो, वह कि विशिष्ट परिस्थिति के कारण घटनास्थल पर अचानक ही अवैध जमाव का रूप धारण कर सकता है जैसा कि धारा 141 के स्पष्टीकरण में उल्लिखित है।
इस धारा के लागू होने के लिए यह तात्विक नहीं है कि जमाव का आशय विधि-विरुद्ध कब हो गया। जमाव के प्रकट कृत्य तथा उसके सदस्यों की भागीदारी से यह दर्शित हो सकता। है कि उनका किसी अपराध के कार्यान्वित करने का सामान्य आशय का तथ्य ऐसी दशा में विधि विरुद्ध जमाव में किसी व्यक्ति की उपस्थिति मात्र उस पर धारा 149 के अधीन प्रतिनिहित दायित्व अधिरोपित करने के लिए पर्याप्त कारण मानी जा सकती है।
बघारीकला भीखा बनाम गुजरात राज्य, 1985 क्रि० लॉ० ज० 237 के मामले में एक विधिक जमाव कहाँ पर ‘परिक्रमा’ के लिए जा रहा था जब इसके एक सदस्य जिसके विरुद्ध आपराधिक आरोप लम्बित थे, को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में जमाव ने उग्र होकर पुलिस पर पत्थर आदि फेंकना आरम्भ कर दिया और उस कांस्टेबिल को छुरा घोंप दिया जिसने उसे गिरफ्तार किया था। यह निर्धारित किया गया कि प्रारम्भ में तो जमाव विधिक था परन्तु बाद में वह विधि-विरुद्ध जमाव में परिवर्तित हो गया।
उच्चतम न्यायालय ने मोतीदास बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 657 में इसी सिद्धान्त का अनुमोदन किया कि कोई जमाव पूर्व में शान्तिपूर्ण होने के बावजूद बाद में अपने सदस्यों की बिना पूर्व योजना के विधि-विरुद्ध बन सकता है परन्तु जमाव के कुछ सदस्यों के द्वारा अवैध कार्य के करने से आवश्यक रूप से वह जमाव विधि-विरुद्ध नहीं बन जाता जब तक कि उसका कोई सामान्य उद्देश्य न हो।
(ii) सद्भावनापूर्वक दी गई संसूचना- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 93 के अन्तर्गत ऐसे व्यक्तियों को दण्डित होने से संरक्षण प्रदान किया गया है जो किसी व्यक्ति को सदभावनापूर्वक, उस व्यक्ति के हित के लिए सूचना देता है और ऐसी सूचना के कारण उस व्यक्ति को कोई अपहानि हो जाती है। इस धारा का प्रयोग प्रायः चिकित्सकों द्वारा रोगी को सम्भावित मृत्यु के बारे में सूचना दिये जाने के प्रकरणों में लागू होती है। के
उदाहरण के लिए यदि कोई डॉक्टर कैंसर जैसे गम्भीर रोग से पीड़ित किसी रोगी को सद्भावना से यह सूचना देता है कि उसकी राय में वह दो-चार महीने से अधिक जीवित नहीं रहेगा और इस सूचना से रोगी को मानसिक आघात पहुँचता है और वह मर जाता है, तो ऐसी दशा में उस डॉक्टर को रोगी की मृत्यु के लिए दोषी नहीं माना जाएगा।
श्रीमान ‘क्ष’ बनाम ‘वाय’ अस्पताल, ए० आई० आर० (2003) सु० को० 664 के बाद में प्रत्यर्थी अस्पताल ‘वाय’ के चिकित्सकों ने श्रीमान ‘क्ष’ की होने वाली भावी पत्नी को बताया कि उसका भावी पति ‘क्ष’ जिससे कि वह विवाह करने जा रही है, एड्स (HIV+IVE) से ग्रसित है। इस सूचना के परिणामस्वरूप भावी दुल्हन ने श्रीमान् ‘क्ष’ से विवाह करने से इंकार कर दिया और इस प्रकार विवाह रद्द हो गया। श्रीमान ‘क्ष’ ने प्रत्यर्थी अस्पताल ‘वाय’ के विरुद्ध धारा 269 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अभियोजन चलाया। प्रत्यर्थी अस्पताल द्वारा अपने बचाव में धारा 93 के संरक्षण की दलील प्रस्तुत की गई। सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यर्थी की दलील को मानते हुए अभिकथन किया कि अस्पताल द्वारा भावी वधू को दी गई सूचना से न तो गोपनीयता भंग हुई थी और न ही निजता (Privacy) के अधिकार का ही उल्लंघन हुआ था क्योंकि यदि यह बात श्रीमान ‘क्ष’ की होने वाली भावी पत्नी को न बताई जाती तो विवाह के पश्चात् संसर्ग के कारण उसे भी एड्स जैसे घातक रोग का शिकार होना पड़ता। अतः अस्पताल द्वारा दी गई सूचना सदभावनापूर्वक थी।
प्रश्न 15 (क) आपराधिक मानव-वध क्या है? उन परिस्थितियों का वर्णन करें जब आपराधिक मानव वध हत्या तुल्य नहीं हो? अपने उत्तर को इस विषय पर निर्णीत वादों की मदद से समझाइए।
What is Culpable Homicide. Enumerate the circumstances in which Culpable Homicide does not amount to Murder. Illustrate your answer with the help of leading cases on the subject.
अथवा (or)
भारतीय दण्ड संहिता में अन्तर्विष्ट तीव्र एवं अचानक प्रकोपन की विधि का विवेचन कीजिए तथा उल्लिखित कीजिए कि यह हत्या के अपराध में दायित्व का प्रशमन किस सीमा तक करती है ?
Discuss the law relating to grave and sudden provocation as contained in Indian Penal Code and state the extent to which it mitigates the responsibility of an accused for the offence of murder?
(ख) हत्या को परिभाषित कीजिये। प्रत्येक हत्या सदोष मानव वध है, लेकिन प्रत्येक सदोष मानव वध हत्या नहीं है। निर्णीत वादों की सहायता से वर्णन कीजिए।
Difine Murder. Every murder is culpable homicide but every culpable homicide is not murder. Discuss with the help of case laws.
उत्तर (क) – आपराधिक मानव-वध (Culpable Homicide) मानव-वध का सरल-सा अर्थ है, मानव जीवन को समाप्त कर देना। मानव-वध अंग्रेजी शब्द होमीसाइड (Homicide) दो लेटिन शब्दों Home तथा cide से बना है। Home का अर्थ है मानव तथा Cide का अर्थ है Cut या काटना या वध करना। इस प्रकार मानव-वध का अर्थ है मानव का वध करना तथा उसमें पशु या अन्य जीव-जन्तु का वध भी सम्मिलित नहीं है। आपराधिक मानव-वध का अर्थ है आपराधिक मनःस्थिति के साथ किया गया मानव-वध आपराधिक मानव-वध तथा हत्या दोनों एक नहीं हैं। इनमें आपराधिक मनःस्थिति की तीव्रता या गम्भीरता भेद करती है तथा उनके मामले में अपराधी को दिये जाने वाले दण्ड में भी अन्तर है।
आपराधिक मानव-वध (Cutpable Homicide) को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 299 में परिभाषित किया गया है। यदि धारा 299 का विश्लेषण किया जाय तो हम पायेंगे कि आपराधिक मानव-वध के अपराध-गठन के लिए निम्न आवश्यक तत्वों का विद्यमान होना आवश्यक है
(1) अभियुक्त द्वारा मानव की मृत्यु कारित की गई हो न कि पशु या किसी अन्य जीव की,
(2) मृत्यु अभियुक्त के किसी कृत्य द्वारा की गई हो,
(3) वह कृत्य किसी मनुष्य की मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो या वह कृत्य कोई ऐसी क्षति कारित करने के आशय से किया गया हो जिसके द्वारा मृत्यु हो जाना सम्भाव्य हो या वह कृत्य इस जानकारी के साथ किया गया हो कि यह सम्भाव्य है कि उस कृत्य से अभियुक्त मृत्यु कारित कर देगा।
(1) मानव की मृत्यु (Death of Human being)- मानव-वध के लिए यह आवश्यक है कि किसी मनुष्य की मृत्यु कारित की गई हो न कि किसी पशु या जीव-जन्तु की मानव में गर्भस्थ शिशु सम्मिलित नहीं है, परन्तु यदि गर्भस्थ शिशु का कोई अंग गर्भ के बाहर आ गया हो तो उसकी मृत्यु कारित करना मानव-वध होगा भले ही बच्चे ने गर्भ के बाहर एक भी साँस न ली हो (स्पष्टीकरण 3, धारा 299) परन्तु अंग्रेजी विधि में आपराधिक मानव-वध तभी होगा यदि बच्चे ने जन्म ले लिया हो तथा बच्चे को मृत्यु कारित की जाय।
(2) कोई कृत्य या चूक (कार्यलोप) (Act or Omission) – आपराधिक मानव वध के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त के किसी कार्य द्वारा या अवैध कार्यलोप (चूक) द्वारा किसी मानव की मृत्यु कारित की गई हो। उदाहरण के लिए, यदि कोई जेलर अपने अधीनस्थ कैदी को भोजन देने में चूक करता है तथा उसके परिणामस्वरूप कैदी की मृत्यु हो जाय या एक नर्स अपनी अभिरक्षा में रखे शिशु को भूखा रखकर उसकी मृत्यु कारित करे तो यह चूक एक अवैध चूक है तथा यह एक सकारात्मक कार्य माना जाता है। इसी प्रकार मृत्यु कारित करने के विभिन्न तरीकों को अपनाकर किसी मानव की मृत्यु कारित की जाय, जैसे विष देकर, पानी में डुबोकर मार-पीटकर या गोली चलाकर या चाकू या लाठी-डण्डों जैसे किसी साधन द्वारा भी मानव की मृत्यु कारित की जा सकती है। यह सभी मानव-वध करने के कार्य होंगे।
(3) आशय या आपराधिक मनःस्थिति (Criminal Intention)— आशय या आपराधिक मनःस्थिति को मानव-वध के मामले में अधिक महत्व दिया जाता है। आपराधिक मनःस्थिति का निर्धारण प्रत्येक मामले के विभिन्न तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर किया जायेगा। मृत्यु कारित करने का आशय होना आवश्यक है। मानव-वध के अपराध के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अभियुक्त ने जानबूझकर तथा मृत्यु कारित करने के आशय से मृतक पर हथियार का प्रयोग किया था। यदि किसी से किसी दुर्घटना के अन्तर्गत मृत्यु कारित हो जाय तो उसे आशयपूर्ण ढंग से नहीं माना जाता। अभियुक्त द्वारा प्रयोग में लाये गये हथियार की प्रकृति तथा पहुँचाई गई क्षति या चोट के आधार पर अभियुक्त के आशय का अनुमान लगाया जा सकता है।
जोगिन्दर सिंह बनाम राज्य, (1979) क्रि० लॉ लर्नल 1406 सु० को० नामक बाद मे अभियुक्त मृतक का पीछा खुले मैदान में कर रहे थे। उन्होंने उसके साथ जा रहे उसके एक रिश्तेदार की हत्या कर दी। अभियुक्तों से अपनी जान बचाने के लिए मृतक ने कुएँ में छलाँग लगा दी जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि अभियोजन संदेह से परे यह साबित कर दे कि मृतक को अपनी जान बचाने के लिए कुएँ में छलांग लगाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं था तो अभियुक्तों को सदोष मानव-वध के लिए अवश्य ही दोषी ठहराया जा सकता था।
आर० बनाम गणेश डूले, आई० एल० आर० कलकत्ता 351 नामक बाद में अभियुक्त एक सँपेरा था। यह जानते हुए भी कि साँप के जहरीले दाँत नहीं निकाले गये हैं, उसने अपना करतब दिखाते हुए साँप को युवक के सिर पर रख दिया। सर्प दंश के कारण उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई। सँपेरे को मानव-वध के लिए दोषी माना गया।
बोले गये शब्दों का प्रभाव (Effect of Spoken Words)- यदि कोई व्यक्ति अपने शब्दों द्वारा किसी व्यक्ति को अपनी मृत्यु के लिए उकसाता है जिसके परिणामस्वरूप वह आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी दशा में शब्दों द्वारा आत्महत्या के लिए उत्प्रेरित करने वाले व्यक्ति को धारा 299 के अन्तर्गत मानव-वध के लिए दोषी माना जायेगा। बोले गये शब्दों का प्रभाव आत्महत्या के लिए प्रेरणा था या नहीं इसका निर्धारण करने के लिए उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति एवं परिपक्वता को विचार में लेना होगा जिस पर अभियुक्त के शब्दों का प्रभाव पड़ा है।
(4) अभियुक्त के कार्य या अवैध कार्यलोप (चूक) से अभियुक्त का आशय मृत्यु कारित करना या ऐसी क्षति उत्पन्न करना हो जिससे मृत्यु की सम्भावना हो या अभियुक्त को इस बात की जानकारी (ज्ञान) हो कि उस क्षति या उसके कार्य द्वारा मृत्यु कारित हो सकती है – अभियुक्त के द्वारा किये गये कार्य या अवैध कार्यलोप की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए जिससे अभियुक्त की जानकारी में मृत्यु कारित होना सम्भाव्य था। यह तत्व अभियुक्त की आपराधिक मनःस्थिति का द्योतक है। यदि अभियुक्त किसी व्यक्ति को इस प्रकार की चोट या क्षति पहुँचाता है जिसके द्वारा अभियुक्त के ज्ञान या जानकारी में मृत्यु की सम्भावना है तो इससे अभियुक्त के आशय का पता चलता है। चोट या में क्षति को गम्भीरता से भी अभियुक्त की मनःस्थिति का पता चलता है। यदि अभियुक्त किसो व्यक्ति को जानबूझकर इतनी गम्भीर चोट पहुँचाता है तथा उसे यह ज्ञान है कि उसके द्वारा पहुँचाई गई चोट से किसी मानव की मृत्यु होना सम्भाव्य है तो वह सदोष मानव-वध का दोषी होगा।
सम्राट बनाम चतुरानाथ, (1919) नामक बाद में एक अंधेरी रात में झगड़े में अभियुक्त ने फरियादी के सिर पर वार करने की नियत से उस पर निशाना साधा परन्तु फरियादी को वार से बचाने के लिए उसकी पत्नी बीच में आ गई, जिसकी गोद में उसका बच्चा था। अभियुक्त का वार बच्चे के सिर पर आ लगा जिसके परिणामस्वरूप बच्चे की मौत हो गई। विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को गम्भीर चोट के लिए दोषी माना परन्तु अपील में यह निर्णय दिया गया कि यदि चोट फरियादी पर पड़ती तो साधारण चोट थी। यह एक बच्चे के लिए घातक थी। अतः उसे केवल साधारण चोट पहुँचाने के लिए दोषी माना गया।
सम्राट बनाम फलानी के मामले में अभियुक्त ने अपनी पत्नी पर मामूली फाल से वार किया। यद्यपि उस वार से मृत्यु की सम्भावना नहीं थी। उसकी पत्नी बेहोश हो गई। लेकिन अभियुक्त ने उसे मृत समझा तथा मामले को आत्महत्या का रूप देने के लिए उसने अपने पत्नी को रस्सी से बांधकर लटका दिया जिससे दम घुटने के फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने अभियुक्त को सदोष मानव-वध के लिए दोषी माना।
एक वाद में अभियुक्त ने एक लड़की को इस कारण मारा कि लोग समझते थे कि उस पर किसी प्रेतात्मा का प्रभाव है। इसके परिणामस्वरूप लड़की की मृत्यु हो गई। अभियुक्त को सदोष मानव-वध के लिए दोषी माना गया।
(5) इस ज्ञान या जानकारी के साथ कोई कार्य करना कि उस कार्य से मृत्यु होना सम्भाव्य है- सदोष मानव-वध के अपराध के लिए कार्य की प्रकृति अपराध-निर्धारण की एक कसौटी है। यदि अभियुक्त जानता है कि वह जो कार्य कर रहा है उससे मानव की मृत्यु सम्भाव्य है तो वह सदोष मानव-वध के लिए दोषी होगा। धारा 299 का उदाहरण (ग) मामले को स्पष्ट करता है। ‘क’, एक मुर्गे को मार डालने तथा उसे चुराने के आशय से उस पर गोली चलाकर ‘ख’ जो एक झाड़ी के पीछे है, को मार डालता है। किन्तु ‘क’ यह नहीं जानता था कि ‘ख’ झाड़ी के पीछे हैं। चूँकि ‘क’ विधिविरुद्ध कार्य कर रहा था तथा वह आपराधिक मानव-वध का दोषी नहीं है क्योंकि उसका आशय ‘ख’ को मार डालने का या कोई ऐसा कार्य करके ‘ख’ की मृत्यु कारित करने का नहीं था जिससे मृत्यु कारित होना वह सम्भाव्य जानता था।
राम प्रसाद बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 326 के मामले में अभियुक्त ने एक भीड़ पर गोली चलाई जो भीड़ के पीछे खड़े ‘ख’ नामक व्यक्ति को लगी जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय के अनुसार यद्यपि अभियुक्त का आशय ‘ख’ की मृत्यु कारित करना नहीं था फिर भी उसे इस बात का ज्ञान अवश्य था कि भीड़ पर चलाई गई गोली किसी-न-किसी व्यक्ति को लगकर उसकी मृत्यु अवश्य कारित करेगी। अतः अभियुक्त को सदोष मानव-वध के लिए दोषी माना गया।
‘क’ यह जानता था कि ‘च’ झाड़ी के पीछे है। लेकिन ‘ख’ यह नहीं जानता था। ‘च’ की मृत्यु कारित करने के आशय से या यह जानते हुए कि उससे ‘च’ की मृत्यु कारित होना सम्भाव्य है, ‘क’, ‘ख’ को उस झाड़ी पर गोली चलाने के लिए उत्प्रेरित करता है। ‘ख’ गोली चलाकर ‘च’ को मार डालता है। यहाँ यह हो सकता है कि ‘ख’ किसी अपराध का दोषी न हो परन्तु ‘क’ ने आपराधिक मानव-वध का अपराध किया है।
चोट या क्षति मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त थी, इसका ज्ञान या आकलन अभियुक्त को होना चाहिए न कि किसी अन्य व्यक्ति को ।
यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु अभियुक्त के केवल एक लाठी के प्रहार से हो जाती है तो प्रायः यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि अभियुक्त को यह ज्ञान नहीं था कि एक ही प्रहार से मृत्यु सम्भाव्य थी। इस विषय में कोई कठोर नियम नहीं है। यह मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
राज्य बनाम इन्दू बेग (1881) नामक बाद में अभियुक्त ने अपनी पत्नी को वाक् युद्ध के दौरान शरीर के बाईं ओर एक जोरदार मुक्का मारा जिससे उसकी प्लीहा (Spleen) फट गयी तथा उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त को आपराधिक मानव-वध का दोषी नहीं माना गया परन्तु उसे गम्भीर चोट कारित करने के आरोप में दण्डित किया गया। परन्तु आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम आर० पुनैय्या, 1977 ( क्रि० लॉ ज० 1 सु० को०) नामक बाद में अभियुक्त को
ज्ञान था कि मृतका की प्लीहा-तिल्ली (Spleen) बढ़ी हुई है तथा वह उस पर एक मुक्का भारता है जिससे मृतक की मृत्यु हो जाती है, अभियुक्त को आपराधिक मानव-वध के लिए दोषी माना गया।
धारा 299 के स्पष्टीकरण 2 में यह स्पष्ट किया गया है कि अभियुक्त का यह तर्क कि उसके द्वारा कारित चोट के पश्चात् यदि पीड़ित व्यक्ति का उचित उपचार या कौशलपूर्ण चिकित्सा की जाती तो उसकी मृत्यु रोकी जा सकती थी, आपराधिक मानव-वध के अपराध में एक बचाव के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है।
अन्तराम बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2008) सी० सी० एस० सी० 373 के बाद में न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि मृत्यु अभियुक्त के कृत्य का सीधा परिणाम है, तो उसके द्वारा अपने बचाव में यह कहा जाना व्यर्थ होगा कि उचित उपचार या चिकित्सा से पीड़ित व्यक्ति की जान बचाई जा सकती थी।
परन्तु यदि अभियुक्त द्वारा पहुँचाई गई साधारण चोट से सेप्टिक हो जाने के कारण एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी परिस्थिति में अभियुक्त को आपराधिक मानव-वध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस प्रकार यदि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति पर, यह जानते हुए कि किसी विशिष्ट चोट से मानव-वध कारित किया जाना सम्भाव्य है, चोट या क्षति पहुंचाता है तथा उससे किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो चोट पहुँचाने वाला व्यक्ति आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा। इसी प्रकार यदि कोई कार्य करना किसी का कर्तव्य है तथा वह व्यक्ति उस कार्य को करने में चूक करता है तो जानबूझकर चूक करने वाला व्यक्ति यदि उसकी चूक से किसी की मृत्यु हो जाती हैं तो आपराधिक मानव-वध का दोषी होगा।
आपराधिक मानव-वध कब हत्या नहीं है? (When culpable homicide is not murder?)- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 दो खण्डों में विभाजित है: प्रथम खण्ड यह दर्शाता है कि किन परिस्थितियों में एक आपराधिक (सदोष) मानव-वध (Culpable homicide) हत्या का अपराध हो जाता है तथा द्वितीय खण्ड उन परिस्थितियों का उल्लेख करता है जिनमें एक हत्या सदोष (अपराध) मानव-वध का अपराध माना जाता है।
धारा 300 के द्वितीय खण्ड में पाँच अपवादित परिस्थितियों (Exceptional (circumstances) का उल्लेख किया गया है जिनके अन्तर्गत मानव-वध को हत्या का अपराध नहीं मानकर सदोष मानव-वध का अपराध माना जाता है।
ये पाँच अपवादित परिस्थितियाँ निम्न हैं –
(1) गम्भीर एवं अचानक प्रकोपन (Grave and Sudden Provocation);
(2) वैयक्तिक निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण (Exceeding Right of (Private Defence);
(3) लोकसेवक द्वारा अपनी अधिकार-शक्ति का अतिक्रमण (Exceeding the Right by Public Servant);
(4) आकस्मिक लड़ाई (Sudden fight);
(5) मृतक की सहमति से कारित मृत्यु (Death caused by consent of the deceased)।
(1) गम्भीर एवं अचानक प्रकोपन (Grave and Sudden Provocation) – मृत्यु धारा 300 के द्वितीय खण्ड में दिये गये अपवाद 1 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को अचानक तथा गम्भीर प्रकोपन दिलाया जाता है तथा उसके कारण वह अन्य व्यक्ति अपना आत्म-संयम खो देता है तथा प्रकोपन दिलाने वाले व्यक्ति को कारित कर देता है या यदि कोई व्यक्ति भूल या दुर्घटनावश किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित कर देता है तो मृत्यु कारित करने वाला व्यक्ति हत्या का दोषो नहीं माना जाता तथा उसे सदोष (आपराधिक) मानव-वध का दोषी माना जाता है, क्योंकि गम्भीर प्रकोपन के अन्तर्गत किया गया कार्य आशयपूर्ण कार्य की तुलना में कम गम्भीर माना जाता है।
के० एम० नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1962 एस० सी० 604 नामक प्रसिद्ध वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिमत व्यक्त किया है कि प्रकोपन अचानक तथा गम्भीर तभी माना जायेगा यदि निम्न शर्तें पूरी हों –
(1) अभियुक्त युक्तियुक्त परिस्थितियों (Reasonable circumstances) में अपना आत्म-संयम खो बैठा हो।
(2) प्रकोपन कारित करने वाले व्यक्ति ने संकेतों या शब्दों के माध्यम से कोई ऐसा कार्य किया हो जो प्रकोपन या गम्भीर उत्तेजना का कारण हो, अर्थात् अभियुक्त को प्रकोपन या गम्भीर उत्तेजना मृतक द्वारा ही दिलाई गई हो।
(3) वाद या मामले की परिस्थितियों में मृतक द्वारा किया गया कार्य या बोले गये शब्द किसी युक्तियुक्त व्यक्ति को प्रकोपन के लिए पर्याप्त कारण हों।
(4) मृत्यु का कारण प्रकोपन ही हो, प्रकोपन के अतिरिक्त कोई कारण मृत्यु या हत्या का कारण न हो।
के० एम० नानावती बनाम महाराष्ट्र राज्य के बाद में अभियुक्त भारतीय नौ सेना का अधिकारी था। उसने सिल्विया नामक अंग्रेज युवती से विवाह किया था जिससे उसके तीन सन्तानें थीं। अभियुक्त की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी सिल्विया का अवैध सम्बन्ध अभियुक्त के मित्र आहूजा से हो गया। एक दिन अभियुक्त ने अपनी पत्नी को मृतक के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा। उसकी पत्नी द्वारा अवैध सम्बन्धों की स्वीकृति कर लिए जाने पर अभियुक्त अपने कार्यालय गया। वहाँ से रिवाल्वर लेकर आया तथा अपनी पत्नी के प्रेमी आहूजा की हत्या कर दी। अभियुक्त ने अपने बचाव में धारा 300 के अपवाद (1) – प्रकोपन तथा गम्भीर उत्तेजना का बचाव प्रस्तुत किया। उच्चतम न्यायालय ने यह बचाव अस्वीकार करते हुए कहा, “प्रकोपन तथा गम्भीर उत्तेजना के अन्तर्गत ही कार्य किया गया होना चाहिए। उनके मध्य कार्य तथा प्रभाव का सम्बन्ध होना चाहिए। अभियुक्त ने दृश्य देखने के पश्चात् उत्तेजित होकर तुरन्त कार्य नहीं किया था। दृश्य देखने के पश्चात् वह अपने कार्यालय गया तथा रिवाल्चर लाया, इस मध्य उसे इतना समय अन्तराल (Time Interval) मिल गया कि गम्भीर उत्तेजना तथा प्रकोपन का प्रभाव समाप्त हो गया। धारा 300 के अपवाद (1) अन्तर्गत मामला आने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त के कार्य तथा प्रकोपन एवं के गम्भीर उत्तेजना के मध्य कम-से-कम अन्तराल हो जिससे आशय या मनःस्थिति का अभाव स्पष्ट परिलक्षित होता हो प्रकोपन तथा कृत्य के मध्य कितना समय अन्तराल आवश्यक है जिसमें एक व्यक्ति अपना संयम खोये रहता है, इस बारे में न्यायालयों में मतभेद है फिर भी अभियुक्त से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह यह निर्धारित कर सके कि उसे किस सीमा तक कार्य करना चाहिए या उसे किस हथियार का चयन करना चाहिए। यदि प्रकोपन के लिए किये गये कार्य या शब्दों की अभिव्यक्ति तथा मृत्यु करने की घटना के बीच पर्याप्त समयावधि बीत चुकी है तो यह उपधारणा की जा सकेगी कि मृत्यु प्रकोपन के प्रभाव में नहीं की गई है।”
धारा 300 के अपवाद (1) के अन्तर्गत मामला आने के लिए अभियुक्त के समाज तथा उस समाज के रीति-रिवाज तथा मृतक द्वारा बोले गये शब्दों की भाषा पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। आत्माराम बनाम राज्य, 1967 पंजाब 588 में जहाँ पत्नी ने अभियुक्त के प्रति कहा था कि अभियुक्त को अपनी बहन के साथ सम्भोग करके अपनी काम-वासना शान्त कर लेनी चाहिए, अचानक तथा गम्भीर प्रकोपन का कारण माना गया तथा अभियुक्त को अपनी पत्नी की हत्या के मामले में सदोष मानव-वध के लिए दण्डित किया गया। यहाँ यह देखा जाना चाहिए कि अन्य परिस्थितियों में एक सामान्य व्यक्ति को अचानक गम्भीर प्रकोपन उत्पन्न होता है या नहीं।
अजीत सिंह बनाम पंजाब, ए० आई० आर० 1991 एस० सी० 1738 नामक बाद में अभियुक्त ने अपनी पत्नी को पड़ोसी के साथ सम्भोग करते हुए रंगे हाथ पकड़ा था तथा अचानक प्रकोपन के कारण उन दोनों को गोली चलाकर मार डाला। उच्चतम न्यायालय के अनुसार अभियुक्त का मामला धारा 300 के प्रथम अपवाद के अन्तर्गत आयेगा।
हत्या गम्भीर तथा अचानक प्रकोपन के प्रभाव से की गई थी या नहीं, यह मृतक द्वारा बोले गए शब्द, मृतक द्वारा गम्भीर प्रकोपन हेतु किए गए कार्य तथा प्रकोपन एवं कार्य के मध्य समयावधि पर विचार किया जाना आवश्यक है। यह देखा जाना चाहिए कि कार्य को प्रकृति इस प्रकार की होनी चाहिए कि उन स्थितियों में एक साधारण विचारशील व्यक्ति को प्रकोपन कारित करने हेतु ये पर्याप्त थे तथा समयावधि इतनी नहीं थी कि अभियुक्त यह निर्णय कर सके कि किस हथियार से मृत्यु की जानी चाहिए।
मुथु बनाम राज्य, (2008) 1 सी० सी० एस० सी० 299, के मामले में मृतक द्वारा अभियुक्त की दुकान में कचरा फेंके जाने के कारण अभियुक्त क्रोधवश आपा खो बैठा तथा दोनों के बीच हुए वाद-विवाद के दौरान अपीलार्थी ने दुकान की मेज पर रखा अपना चाकू उठाकर मृतक के सीने में भोंक दिया। यह सब कुछ बिना किसी पूर्व चिन्तन के अचानक घटित हो गया जिसमें अपीलार्थी द्वारा न तो कोई असम्यक् फायदा उठाया गया और न कार्य क्रूरतावश किया गया था। अतः अपीलार्थी को 300 के प्रथम अपवाद का प्रकरण मानते हुए उसे धारा 304 (2) के अधीन दण्डादिष्ट किया गया।
(2) वैयक्तिक प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण (Exceding the Right of Private Defence)– यदि एक व्यक्ति अपने शरीर या सम्पत्ति की रक्षा में अपने इस अधिकार का अतिक्रमण करके किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित कर देता है तो उसे धारा 302 के अन्तर्गत हत्या के लिए दण्डित नहीं किया जायेगा परन्तु उसे धारा 300 के अपवाद (2) के अनुसार धारा 304 के भाग-1 के अन्तर्गत सदोष मानव-वध के लिए दण्डित किया जायेगा।
बलवीर सिंह बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1957 पंजाब 332 नामक वाद में पंजाब उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि किसी व्यक्ति को धारा 300 के अपवादों का साथ देने के लिए निम्न शर्तें पूर्ण होनी आवश्यक हैं –
(1) लड़ाई या आक्रमण की शुरुआत अभियुक्त द्वारा स्वयं न की गई हो।
(2) अभियुक्त को प्राणों या घोर शारीरिक क्षति का संकट हो।
(3) ऐसे आसन्न संकट से बचने के लिए उसके पास प्रत्युत्तर में प्रश्नगगत हमले के अतिरिक्त कोई अन्य युक्तियुक्त उपाय उपलब्ध न हो।
(4) अन्य व्यक्ति की मृत्यु तक कारित किया जाना वर्तमान परिस्थितियों में अपरिहार्य हो।
योगेन्द्र सिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 660 नामक बाद में अभियुक्त को घायल करने के आशय से मृतक ने अपने साथियों के साथ अभियुक्त की जीप को घेर लिया जिसके प्रत्युत्तर में अभियुक्त ने तीन फायर किये। न्यायालय के अनुसार यद्यपि अभियुक्त ने किसी व्यक्ति विशेष को मार डालने के आशय से फायर नहीं किये थे लेकिन उसे घेरने वाली भीड़ के पास कोई हथियार आदि न होने के कारण अभियुक्त ने अपनी निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा का अतिक्रमण किया था अतः उसे धारा 300 के अपवाद 2 का लाभ दिया जाना चाहिए।
(3) लोक सेवक द्वारा अपनी अधिकार-शक्ति का अतिक्रमण (Exceeding of Power by Public Servant) धारा 300 का तीसरा अपवाद उस परिस्थिति में लागू हो जाता है जब किसी लोक-सेवक (Public Servant) या उसको सहायता पहुँचाने वाले व्यक्ति द्वारा अपनी अधिकार-शक्ति का आवश्यकता से अधिक प्रयोग कर किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित कर दी जाती है। इस अपवाद के अन्तर्गत प्रयुक्त लोक सेवक पदावली के अन्तर्गत प्राय: पुलिस, सेना या सुरक्षा बल के अधिकारी आते हैं।
इस अपवाद के अन्तर्गत मामला आए, इसके लिए निम्न आवश्यक शर्तें पूरी करनी होंगी –
(1) अधिकार-शक्ति का प्रयोग उस व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो या तो लोक सेवक हो या लोक सेवक की सहायता करने वाला कोई व्यक्ति हो ।
(2) अपनी अधिकार शक्ति का प्रयोग करते हुए लोक-सेवक या उसकी सहायता करने वाले व्यक्ति ने स्वयं अपनी अधिकार शक्ति की सीमाओं का उल्लंघन (अतिक्रमण) किया हो।
(3) लोक-सेवक या उसकी सहायता करने वाले व्यक्ति ने जिस अधिकार का प्रयोग किया हो वह अधिकार विधि द्वारा प्रदत्त हो।
(4) लोक सेवक या उसकी सहायता करने वाले व्यक्ति द्वारा किये गये कार्य के फलस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो।
(5) अधिकार-शक्ति का अतिक्रमण वैमनस्यता या दुर्भाव के अन्तर्गत न होकर सद्भावनापूर्वक कार्य करते हुए किया गया हो।
एक वाद में पुलिस संदिग्ध अपराधी को पकड़कर रेलमार्ग से ले जा रही थी। वह अपराधी चलती ट्रेन से कूद कर भागने लगा। एक सिपाही ने ट्रेन से कूद कर उस भागते हुए अपराधी का पीछा किया। अपराधी को अपनी गिरफ्त से निकलता देख सिपाही ने उस पर गोली चला दी जो रेल इंजन के एक फायरमैन को लगी तथा फायरमैन की मृत्यु हो गई। सिपाही को हत्या से न दण्डित कर यह निर्णय दिया गया कि उसका मामला धारा 300 के अपवाद (3) के अन्तर्गत आता है।
(4) आकस्मिक लड़ाई (Sudden Fight)- धारा 300 के चौथे अपवाद के अन्तर्गत वे मामले आते हैं जिनके अन्तर्गत आकस्मिक लड़ाई के दौरान आवेश में आकर किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति की मृत्यु कारित कर दी जाती है। इस अपवाद के लिए आवश्यक है कि लड़ाई या झगड़ा पूर्वनियोजित न होकर आकस्मिक हो। इस प्रकार यदि दो दल जानबूझकर हथियारों से लैस होकर आपस में लड़ते हैं तो उनका मामला धारा 300 के चौथे अपवाद के अन्तर्गत नहीं आयेगा तथा यह भी आवश्यक है कि आकस्मिक झगड़ा उसी व्यक्ति के साथ प्रारम्भ हुआ हो जो मारा गया हो न कि किसी अन्य व्यक्ति के साथ।
सुन्नुगुदली बनाम सम्राट, (1946) में पटना उच्च न्यायाल ने मत व्यक्त किया कि धारा 300 के अपवाद 4 के अन्तर्गत लड़ाई से तात्पर्य शाब्दिक कहा-सुनी से लेकर अधिक गम्भीर झगड़े से लगाया जाना चाहिए। उसमें शस्त्रों का प्रयोग न हुआ हो बल्कि मुक्कों तथा घूंसों के आदान-प्रदान से लड़ाई हुई हो।
कर्नाटक राज्य बनाम शिवलिंगैया, ए० आई० आर० 1988 एस० सी० 115 के बाद में अभियुक्त ने लड़ाई के दौरान सम्भावित परिणामों की जानकारी के अभाव में मृतक के फोतों (Testicles) को जोर से मसल दिया जिसके परिणामस्वरूप हृदय गति रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अभियुक्त को धारा 300 के स्थान पर धारा 325 के अन्तर्गत गम्भीर चोट कारित करने के लिए दण्डित किया जाना चाहिए।
मैथ्यू बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1991 एस० सी० 1376 नामक बाद में अभियुक्त तथा उसकी तलाकशुदा पत्नी पृथक् रहते थे। उनमें बच्चे के कारण विवाद था। पत्नी बच्चे के साथ अपने पिता के साथ रहती थी। एक शाम को अभियुक्त अपने श्वसुर से अचानक बाजार में मिला। उनके बीच छीना-झपटी होने लगी। अभियुक्त ने आवेश में आकर छुरा मारकर अपने श्वसुर की हत्या कर दी। यह निर्णय दिया गया कि मामले को धारा 300 के चौथे अपवाद में होने के कारण अभियुक्त आपराधिक मानव-वध का दोषी था।
पाण्डुरंग बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1968 क्रि० लॉ ज० 955 सु० को० नामक वाद में दो व्यक्तियों के मध्य झगड़ा हो रहा था। एक वृद्ध व्यक्ति ने बीच-बचाव का प्रयास किया। अभियुक्त ने उस बीच-बचाव कर रहे बूढ़े व्यक्ति के सिर पर लोहे की राड से घातक वार किया जिसके कारण बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि अभियुक्त धारा 300 के चौथे अपवाद का सहारा नहीं ले सकता क्योंकि उसने बीच-बचाव करने वाले व्यक्ति एक वृद्ध व्यक्ति की निर्मम हत्या की थी तथा लड़ाई अभियुक्त तथा मृतक के मध्य नहीं हुई थी। मृतक बीच-बचाव करने वाला तीसरा व्यक्ति था।
कीकर सिंह बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 2426 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने धारा 300 के चौथे अपवाद को लागू होने के लिए निम्न आवश्यक शर्तों का निर्धारण किया है:
(1) मृत्यु कारित करने वाला कार्य बिना किसी पूर्वचिन्तन या नियोजन के आकस्मिक रूप से आवेश के वेग में किया गया हो।
(2) लड़ाई अचानक झगड़े (Sudden quarrel) के कारण हुई हो।
(3) अभियुका ने लड़ाई के दौरान अनुचित लाभ न उठाया हो।
(4) अभियुक्त ने अस्वाभाविक रूप से क्रूरतापूर्वक कार्य न किया हो अर्थात् मृत्यु करने वाला अभियुक्त का कार्य उन परिस्थितियों में अस्वाभाविक या अबाधित करता न हो।
(5) हत्या उसी व्यक्ति की हुई हो जिससे अभियुक्त का झगड़ा हुआ हो अर्थात् मृतक बीच-बचाव करने वाला या अन्य व्यक्ति न हो।
गोपाल बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० (2008) सु० को० 216 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि धारा 300 के चौथे अपवाद के अन्तर्गत हत्या के अपराध को आपराधिक मानव-वध जो हत्या नहीं है, माने जाने के लिए केवल यह साबित कर देना मात्र पर्याप्त नहीं है कि अपराध बिना किसी पूर्व-चिन्तन के अचानक उत्पन्न हुए झगड़े के परिणामस्वरूप हुआ है, अपितु यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक होता है कि अभियुक्त ने स्थिति का कोई अनुचित फायदा नहीं उठाया है या क्रूरतापूर्ण या अप्रत्याशित आचरण नहीं किया है।
(5) मृतक की सहमति से कारित मृत्यु (Death by Consent)- यदि मृतक ने मृत्यु के लिए अपनी सहमति दी हो तब मामला धारा 300 के अपवाद संख्या (5) के अन्तर्गत आने के कारण अभियुक्त हत्या के लिए दोषसिद्ध न किया जायेगा बल्कि उसे आपराधिक मानव-वध के लिए दोषी माना जायेगा। मृतक वयस्क अर्थात् अट्ठारह वर्ष से अधिक उम्र का होना चाहिए।
धारा 300 के पाँचवें अपवाद के अन्तर्गत मामले को आने के लिए निम्न आवश्यक साचित करनी आवश्यक हैं –
(1) मृतक ने अपनी मृत्यु कारित करने के लिए सहमति स्वयं दी हो।
(2) सहमति देने वाला व्यक्ति 18 वर्ष से कम आयु का नहीं होना चाहिए।
(3) सहमति स्वतन्त्र हो अर्थात् सहमति उत्पीड़न, कपट या अनुचित प्रभाव के अन्तर्गत प्राप्त न की गई हो।
यदि दो व्यक्ति आपस में मल्ल युद्ध करने के लिए सहमत होते हैं तथा इनमें से मल्ल युद्ध के दौरान एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो यहाँ व्यक्तियों की सहमति विवक्षित सहमति (Implied consent) मानी जायेगी तथा दूसरा व्यक्ति इसके लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
पुन्नई कतेमा बनाम सम्राट, (1869) में एक सपेरे ने दर्शकों को सर्प दंश के प्रभाव से छुटकारा दिलवाने का आश्वासन देते हुए साँप से कटवाने के लिए दर्शकों को आमन्त्रित किया। इसके उत्तर में कुछ व्यक्ति स्वयं को सौंप से कटवाने के लिए सहमत होते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनमें से तीन व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। यहाँ न्यायालय ने निर्णय दिया कि संपेरा धारा 300 के पाँचवें अपवाद का लाभ पाने का अधिकारी होगा तथा उसे हत्या के स्थान पर आपराधिक मानव-वध के लिए दण्डित किया जायेगा।
उत्तर (ख)- हत्या (Murder) – मानव जीवन के विरुद्ध किए जाने वाले अपराधों में हत्या का अपराध एक गम्भीरतम अपराध है। हत्या की परिभाषा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 में दी गई है जबकि इसके लिए दण्ड धारा 302 में निर्धारित किया गया है। यह स्मरणीय है कि प्रत्येक हत्या में सदोष मानव-वध सम्मिलित होता है परन्तु प्रत्येक सदोष मानव-वध हत्या नहीं होता।
यदि सदोष मानव-वध धारा 300 में वर्णित आवश्यकताओं को पूरा करता है तो वह हत्या की कोटि में आता है। परन्तु यदि एक कार्य हत्या का अपराध है तो वह सदोष मानव वध पहले होगा। हत्या सदोष मानव-वध से एक कदम बढ़कर है। कोई अपराध तब तक हत्या नहीं होगा जब तक वह सदोष मानव-वध की परिभाषा में न आता हो। धारा 300 के अपवाद 1 से 5 तक में उन परिस्थितियों उल्लेख है जब आपराधिक मानव-वध हत्या की कोटि में नहीं आता।
एक कृत्य हत्या का अपराध है अथवा नहीं इसका निर्धारण निम्न तीन कसौटियों के आधार पर किया जायेगा –
(1) यह कि क्या अभियुक्त का कार्य धारा 299 में दी गई आपराधिक मानव-वध की परिभाषा में आता है? यदि हाँ तो यह देखना होगा कि,
(2) क्या यह कृत्य आपराधिक मानव-वध की कोटि में आने के साथ-साथ धारा 300 में उपबन्धित प्रथम चार दशाओं में से किसी एक के अन्तर्गत आता है। यदि उसका उत्तर भी हाँ में है तो यह देखना होगा कि,
(3) यह कृत्य धारा 300 में उपबन्धित किसी अपवाद के अन्तर्गत तो नहीं है। यदि ऐसा नहीं है तो उपर्युक्त परिस्थितियों में अभियुक्त का कृत्य निश्चित रूप से हत्या का अपराध होगा।
कब सदोष मानव-वध हत्या का अपराध होगा?
(When Culpable Homicide is Murder?)
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अनुसार, एतस्मिन् पश्चात् अपवादित दशाओं को छोड़कर आपराधिक मानव-वध हत्या है, यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कारित की गयी हो, मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो; अथवा
दूसरा- यदि वह ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से किया गया हो जिससे अपराधी जानता हो कि उस व्यक्ति की मृत्यु कारित करना सम्भाव्य है जिसको वह अपहानि कारित की गई है; अथवा
तीसरा- यदि वह किसी व्यक्ति को शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से किया गया हो और वह शारीरिक क्षति जिसके कारित करने का आशय हो, प्रकृति के मामूली अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त हो, अथवा
चौथा- यदि कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो कि यह कार्य इतना आसन्न संकर है कि पूरी अधिसम्भाव्यता है कि वह मृत्यु कारित कर ही देगा या ऐसी शारीरिक क्षति कारित कर ही देगा जिससे मृत्यु कारित होना सम्भाव्य हो और वह मृत्यु कारित करने या पूर्वोक्त रूप को क्षति कारित करने या पूर्वोक्त रूप की क्षति कारित करने की जोखिम उठाने के लिए किसी प्रतिहेतु के बिना ऐसा कार्य करे।
हत्या के अपराध के आवश्यक तत्व (Essential elements of crime of Murder)- हत्या के अपराध की जो परिभाषा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के अन्तर्गत दी गई है। उसका विश्लेषण करने पर हत्या के अपराध के लिए निम्न आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है –
(1) वह कार्य मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो।
(2) वह कार्य किसी ऐसी शारीरिक क्षति पहुँचाने के आशय से किया गया हो जिससे अभियुक्त को मृत्यु कारित होने की सम्भावना का ज्ञान हो।
(3) ऐसी शारीरिक क्षति कार्य की प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त हो।
(4) वह कार्य करने वाला व्यक्ति यह जानता हो कि वह कार्य इतना खतरनाक है कि उससे मृत्यु होने की पूर्ण सम्भावना है।
(1) मृत्यु कारित किये जाने के आशय से किया गया कार्य – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के प्रथम खण्ड के अनुसार कोई आपराधिक मानव-वध तब हत्या माना जायगा जब वह कार्य मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया हो। धारा 299 के आपराधिक मानव-वध के अपराध के लिए अभियुक्त द्वारा प्रयुक्त हथियार के आधार पर अपराधी के आशय का पता लगाया जाता है। धारा 300 में जैसे ही यह साबित कर दिया जाय कि अपराधी का आशय मृत्यु कारित करने का था, वह कृत्य हत्या का अपराध माना जायगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सकारात्मक कार्य के साथ-साथ किसी कर्तव्य का लोप यां अवैध कार्य-चूक के द्वारा यदि किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो अभियुक्त को धारा 300 के अन्तर्गत हत्या के दोष के लिए दण्डित किया जायगा।
आर० बेकाकू बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1956 एस० सी० 171 नामक वाद में अभियुक्त ने मृतक को झोपड़ी के अन्दर देख कर बाहर से दरवाजा बंद करके झोपड़ी में आग लगा दी जिससे मृतक बाहर के लोगों से सहायता प्राप्त न कर सके। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि वाद की परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अभियुक्त का आशय मृतक को जला कर मार डालने का था। अतः वह हत्या का दोषी होगा न कि आपराधिक मानव-वध का।
बासप्पा बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1960 मैसूर 22 नामक बाद में मृतक अभियुक्त के मकान की छत पर खड़ा था। अभियुक्त ने अपने तीन साथियों के साथ मृतक को घेर लिया तथा घातक हथियारों से वार किए। अभियुक्त क्रमांक 1 तथा 2 ने मृतक की गरदन पर कुल्हाड़ी से वार किये। दो घाव लगने के पश्चात् मृतक अपनी जान बचाने हेतु छत से नीचे कूद गया जिसके कारण नीचे गिरते ही उसकी मृत्यु हो गई। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर मैसूर उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अभियुक्त का आशय मृतक की हत्या करना था अतः उन्हें हत्या के अपराध के लिए दण्डित किया गया।
ब्रजेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2012) सु० को० 1552 के मामले में अभियुक्त को अपनी पत्नी का पड़ोसी व्यक्ति के साथ मेल-जोल एवं वार्तालाप पसन्द नहीं था और इस बात को लेकर पति-पत्नी में आये दिन विवाद भी होता था। एक रात उसने अपनी पत्नी के दुराचरण से तंग आकर चाकू से उसके गले पर वार कर उसकी हत्या से कर दी तथा साथ ही साथ अपने तीनों बच्चों की भी हत्या कारित की। अभियुक्त ने पत्नी की हत्या करना स्वीकार किया लेकिन उसका कहना था कि उसके तीन बच्चों की हत्या मृतका (पत्नी) ने की थी। घटना का कोई प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण प्रकरण पूर्णत: परिस्थितिकीय साक्ष्य के आधार पर निर्णीत किया जाना था। न्यायालय ने अभियुक्त के इस कथन को मनगढन्त एवं अविश्वसनीय माना कि उसकी पत्नी ने तीन बच्चों की हत्या की थी क्योंकि यदि वास्तव में पत्नी बच्चों की हत्या करने का प्रयत्न करती तो अभियुक्त, जो कि उन बच्चों का पिता था, उन्हें बचाने का प्रयत्न अवश्य करता और कम से कम दो बच्चे तो हत्या का शिकार होने से बच जाते उन परिस्थितियों में अभियुक्त का मूक दर्शक बने रहकर पत्नी को हत्या करते देखते रहना पूर्णतः अविश्वसनीय था। इसके अतिरिक्त तीनों बच्चों की हत्या भी उनके गले पर चाकू से वार करके ही की गयी होना इस ओर इंगित करता था कि उन सभी का हत्यारां अभियुक्त ही था। उक्त सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 300 के अधीन दोषसिद्धि को उचित ठहराया परन्तु हत्या के कारणों को ध्यान में रखते हुए अभियुक्त के मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करना उचित समझा तथा तद्नुसार आदेश पारित किए।
पन्ना लाल तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2015) सु० को० 3298 के बाद में अपीलार्थी जो कि रणछोड़दास के पुत्र थे। जिनका नाम पन्ना लाल, आनन्दी लाल एवं उदय सिंह था। उनका एक और भाई था जिसका नाम भयंकर था और जिसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उसकी पत्नी रामकुँवर बाई से अपीलार्थियों का जमीन में हिस्सेदारी को लेकर विवाद चल रहा था। 10 अक्टूबर, 1995 को जब रामकुंवर बाई अपने कुछ साथियों के साथ अपने सोयाबीन के क्षेत्र पर उपज इकट्ठा करने जा रही थी, तीनों अपीलार्थियों ने एक अवयस्क मृतक के साथ मिलकर लाठी तथा तलवार से रामकुंवर बाई पर हमला किया जिससे वह बुरी तरह घायल हुई और उसको तत्काल घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई।
अपीलार्थियों ने अपने बचाव में निजी प्रतिरक्षा की दलील प्रस्तुत करते हुए कहा कि उक्त खेत पर उनका कब्जा था तथा परिवादिनी खेत पर पैदा की गई सोयाबीन को अवैध रूप से ले जाना चाही थी और उसने ही अपीलार्थियों पर पहले हमला किया परन्तु विचारण न्यायालय ने तीनों अभियुक्तों की दलील को खारिज करते हुए उन्हें मृतका की हत्या के लिए दण्ड संहिता की धारा 302/149 के अन्तर्गत दोषसिद्धि करके आजीवन कारावास तथा 100/ जुर्माने से दण्डित किये जिसे अपील में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इन्दौर पीठ ने यथावत् रखा।
अपील में उच्चतम न्यायालय ने भी अपीलार्थियों के निजी प्रतिरक्षा के बचाव को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि घटना के समय मृतका विवादित खेत से 300 फीट दर थी, अतः अपीलार्थियों द्वारा निजी प्रतिरक्षा में मृतका पर वार किये जाने का कोई औचित्य नही था। उनके द्वारा कारित घोर उपहति के कारण मृतका का सिर कट गया था। अतः व हत्या कारित करने के दोषी को इसलिए निचली अदालतों द्वारा उन्हें उक्त दण्ड से दण्डित किया जाना उचित था। इसलिए अपील खारिज कर दी गई।
(2) वह कार्य ऐसी शारीरिक क्षति या चोट कारित करने के आशय से किया गया हो जिससे मृत्यु होना सम्भाव्य हो– कभी-कभी ऐसा होता है कि एक चोट या घाव की प्रकृति सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त नहीं होती परन्तु यहाँ घाव यदि एक ऐसे व्यक्ति पर किया जाय जो किसी विशेष बीमारी, रोग या अंग शैथिल्य में पीड़ित है जिससे कि उपरोक्त घाव उसकी मृत्यु कारित कर दे तथा अभियुक्त को इस तथ्य की जानकारी है कि जिस व्यक्ति पर घाव किया जा रहा है वह विशिष्ट बीमारी या रोग में पीड़ित है तो यदि अभियुक्त मृतक की ऐसी विशिष्ट परिस्थितियों की जानकारी होते हुए हल्का सा वार करता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह धारा 300 के उपखण्ड (2) के प्रावधानों के अनुसार हत्या के अपराध का दोषी माना जायगा।
आर बनाम ग्रे (R v. Gray) नामक अंग्रेजी बाद में अभियुक्त ने जो एक लुहार था, अपने एक प्रशिक्षु के सिर पर लोहे की छड़ से वार करके उसे मार डाला था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक खतरनाक औजार से वार किया जाना तलवार से वार करने के समान था तथा अभियुक्त को हत्या के लिए दोषी पाया गया न कि आपराधिक मानव-वध के लिए।
(3) ऐसी शारीरिक क्षति, जो कृत्य की प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त हो- सामान्य नियम यह है कि किसी भी व्यक्ति को यह छूट नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को ऐसी चोट पहुँचाये जो सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त है। यही सिद्धान्त धारा 300 के उपखण्ड तीन में अन्तर्निहित है। यहाँ अभियुक्त के आशय पर विशेष बल न देकर अभियुक्त द्वारा किसी व्यक्ति को कारित क्षति या चोट की प्रकृति से महत्वपूर्ण माना जाता है।
कीकर सिंह बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 2426 के मामले में अभियुक्त ने मृतक पर कांसी से संघातक वार किये जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा तथा अभियुक्त ने तीसरे वार में मृतक की गर्दन धड़ से अलग कर दी जिससे स्पष्ट था कि अभियुक्त द्वारा कारित चोट की प्रकृति ऐसी थी जिससे सामान्य अनुक्रम में मृत्यु हो जाना सुनिश्चित था। अतः अभियुक्त को हत्या के अपराध के लिए दोषी माना जायगा क्योंकि यदि क्षति से मृत्यु होने की सम्भावना अत्यधिक हो तो धारा 300 के खण्ड तीन की पूर्ति हो जाती है तथा अभियुक्त को हत्या के अपराध के लिए दोषी माना जायगा।
बी० एन० कवटकर बनाम कर्नाटक राज्य, (1994) के बाद में अभियुक्त ने मृतक को घातक शस्त्र से चोट पहुँचाई जिससे पाँच दिन बाद घाव में सेप्टिक होने के कारण मृतक की मृत्यु हो गई। घटना के तथ्य तथा परिस्थितियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 300 के उपखण्ड (3) के अन्तर्गत हत्या का दोषी नहीं माना तथा धारा 326/34 के अन्तर्गत अभियुक्त को दोषी माना गया।
धारा 300 के तीसरे खण्ड के अन्तर्गत अभियुक्त द्वारा की गई हत्या के अपराध के निर्धारण के लिए इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्या अभियुक्त द्वारा मृतक को कारित शारीरिक क्षति सामान्य अनुक्रम में उसकी मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त थी? इसके विचारण हेतु अभियुक्त द्वारा प्रयुक्त हथियार की प्रकृति तथा मृतक के शरीर के किस भाग पर कितने प्रहार किए गए हैं। इस पर विचार करना चाहिये।
(4) अभियुक्त को मृत्यु के सन्निकट संकट का ज्ञान होना- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के खण्ड (4) के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि अभियुक्त को यह ज्ञान था कि उसके कार्य द्वारा उत्पन्न होने वाला संकट इस प्रकार का था जिससे मृत्यु कारित होना प्रायः निश्चित सा था तो अभियुक्त हत्या का दोषी माना जायेगा भले ही उसका आशय चाहे जो भी रहा हो। यहाँ भी अभियुक्त द्वारा कारित चोट की प्रकृति अपराध के निर्णय के लिए कसौटी होती है न कि अभियुक्त का आशय
गुजरात राज्य बनाम मोहन लाल, (1975) में अभियुक्त ने तीन पार्सल डाक द्वारा भेजे जिनमें हथगोले छिपाये गए थे। पार्सल प्राप्तकर्ता के खोलते ही हथगोला फट गया जिसके परिणामस्वरूप पार्सल प्राप्तकर्ता की मृत्यु हो गई। अभियुक्त को धारा 300 उपखण्ड (4) के अन्तर्गत दोषी सिद्ध किया गया।
सम्राट बनाम नगवातू, (1921) के मामले में अभियुक्त एक सँपेरा था। लोगों को सर्प दंश से निरापद करने का दावा करते हुए ‘र’ नामक व्यक्ति को साँप से डँसवाया जिसके परिणामस्वरूप ‘र’ की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 300, खण्ड (4) के अन्तर्गत हत्या का दोषी माना।
सम्राट बनाम भरत तिवारी (1912) के वाद में अभियुक्त ने एक बच्चे को मगर को समर्पित किया क्योंकि वह विश्वास करता था कि मगर बच्चे को खायेगा नहीं, बल्कि मगर बच्चे को लौटा देगा। अभियुक्त को यह अंधविश्वास सद्भावपूर्वक होते हुए भी मगर (crocodile) के कारण बालक की मृत्यु के लिए अभियुक्त को हत्या का दोषी माना गया।
धारा 300 का खण्ड (4) उन्हीं मामलों पर लागू होगा जो इस धारा के खण्ड (1) (2) तथा (3) के अन्तर्गत न आते हों। धारा 300 खण्ड (4) से यह स्पष्ट है कि भले ही अभियुक्त का आशय मृतक की मृत्यु कारित करना न हो फिर भी यदि उसके कार्य से किसी की मृत्यु के खतरे की सम्भावना हो तो उसे हत्या के अपराध के लिए दोषी माना जाएगा।
धीरजिया बनाम सम्राट (1940) इला० 647 में एक महिला तथा उसके पति के मध्य झगड़ा हुआ, पति ने पत्नी को पीटने की धमकी दी। अतः महिला अपने छ: माह के बच्चे को लेकर घर से चल दी। कुछ दूर जाने के पश्चात् उसने पीछे मुड़कर देखा, उसका पति उसका पीछा कर रहा था। अतः आशंकित होकर भयवश उसने एक कुएँ में बच्चे सहित छलांग लगा दी जिससे वह तो बच गई परन्तु बच्चा मर गया। इस महिला को बच्चे की मृत्यु तथा स्वयं की आत्महत्या के लिए अभियोजित किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया कि महिला पर बच्चे की हत्या का आशय अधिरोपित नहीं किया जा सकता। यद्यपि उसे यह ज्ञान था कि उसके इस कार्य द्वारा बच्चे की मृत्यु हो सकती है। उस पर इसका ज्ञान होने का आरोप लगाया जा सकता है, चाहे वह कितनी भययुक्त क्यों न हो, उसे यह ज्ञान होना चाहिए था कि बच्चे सहित कुएं में कूदने से बच्चे की मृत्यु का संकट प्रायः सन्निकट था तथापि न्यायालय ने उसे धारा 300 के खण्ड (v) के अन्तर्गत दोषी नहीं माना क्योंकि वह घबराई हुई तथा भययुक्त थी तथा उसे फेंकने के लिए उसके पास उचित बचाव था। अतः महिला को सदोष मानव-वध के लिए दोषसिद्ध (convict) किया गया।
प्रश्न 16 निम्नलिखित की विवेचना कीजिए –
(i) उपेक्षापूर्ण एवं उतावलेपन कार्य से मृत्यु कारित
(ii) उपहति एवं घोर उपहति
(iii) आपराधिक बल एवं हमला करना
(iv) महिला के सतीत्व का शीलभंग करने के आशय से हमला या
आपराधिक बल।
Discuss the following –
(1) Causing death by negligent
(ii) Hurt and Grievous Hurt
(ili) Criminal Force and Assault and rash act
(iv) Assault or Criminal Force to women with intent to outrage her modesty.
उत्तर- (i) उपेक्षापूर्ण एवं उतावलेपन द्वारा किये गये कार्य से मृत्यु कारित करना- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 को धारा 304 (क) में उपेक्षापूर्ण कार्य द्वारा मृत्यु कारित करने पर दण्ड के प्रावधान की व्यवस्था की गई है। यह धारा सन् 1870 के अधिनियम संख्या 27 की धारा 12 द्वारा अन्तःस्थापित की गई है।
धारा 304 (क) के अनुसार, “जो कोई उतावलेपन से या उपेक्षापूर्ण किसी ऐसे कार्य से किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित करेगा, जो आपराधिक मानव-वध की कोटि में नहीं आता, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जायेगा।”
इस धारा का मूल उद्देश्य उन अपराधों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना है जो दण्ड संहिता की धारा 299 और 300 की परिधि के बाहर हैं अर्थात् आपराधिक मानव वध और हत्या की कोटि में नहीं आते और जिनमें मृत्यु कारित करने का आशय या मृत्यु की सम्भावना के ज्ञान का तत्व विद्यमान नहीं रहता है, किन्तु जिनके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित होती है।
उपेक्षा और उतावलापन, दोनों एक ही बात नहीं हैं। मात्र उपेक्षा को उतावलेपन से किया गया कार्य नहीं कहा जा सकता है। दोनों का स्वरूप एक होते हुए भी इनको अवस्थाएँ भिन्न हैं। उपेक्षापूर्वक किया गया कार्य उतावलेपन में उस समय परिवर्तित हो जाता है जब वह इतनी अधिक मात्रा में हो कि संकटमय अवस्था में पहुँच गया हो जिससे क्षति कारित होने की सम्भावना हो।
सुलेमान रहमान बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० (1968) एस० सी० 829 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि किसी अभियुक्त को धारा 304-क के अन्तर्गत सिद्धदोष ठहराने के लिए यह आवश्यक है कि उसके द्वारा कारित मृत्यु और अविवेकपूर्वक तथा उपेक्षापूर्वक किए गए कृत्य में सीधा सम्बन्ध स्थापित किया जाए। यदि यह साबित किया जा चुका हो कि अभियुक्त बिना लाइसेंस के वाहन चला रहा था, तो विधि में यह उपधारणा नहीं की जा सकती है कि वह व्यक्ति वाहन चलाना ही नहीं जानता था। अतः प्रस्तुत बाद में स्पष्टत: उसके द्वारा अविचारपूर्वक पूर्ण उपेक्षा से वाहन चलाए जाने के कारण ही मृत्यु हुई थी अतः वह धारा 304-क के अन्तर्गत दोषी माना गया।
डॉ० सुरेश गुप्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली, ए० आई० आर० (2004) सु० को० 4091 के प्रकरण में डाक्टर द्वारा प्लास्टिक सर्जरी के जरिये रोगी की नाक की विकृति हटाने के लिए शल्य चिकित्सा की गई। शल्य क्रिया के दौरान रोगी की मृत्यु हो गई। डाक्टर को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के अन्तर्गत आरोपित किया गया। डाक्टर की ओर से धारा 80 तथा 88 के अन्तर्गत संरक्षण का तर्क प्रस्तुत किया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि रोगी के चिकित्सीय उपचार अथवा शल्य क्रिया के दौरान प्रत्येक दुर्घटना या मृत्यु के मामले में डॉक्टर को दण्डित करने के लिए आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि बिना किसी उपयुक्त चिकित्सीय विशेषज्ञ के परामर्श के यदि आपराधिक मामला चलाया जायेगा तो समाज के लिए यह हितकर नहीं होगा क्योंकि यदि न्यायालयों द्वारा अस्पताल और डाक्टरों की होने वाली प्रत्येक त्रुटि के लिए आपराधिक जिम्मेदारी थोपी जाने लगेगी तो डाक्टर अपनी प्रतिरक्षा के लिए अधिक चिन्तित रहने लगेंगे और रोगियों को सर्वोत्तम इलाज नहीं दे सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तुत मामले में सभी चिकित्सीय दस्तावेजों की जाँच करने के पश्चात् उपेक्षा के कारण रोगी की मृत्यु होने की बात नहीं पायी, अतः डाक्टर को उपेक्षा द्वारा मृत्यु कारित करने के आरोप में आपराधिक मामले का सामना करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है। अपराध सिद्ध होने के लिए अपेक्षित उपेक्षा का स्तर इतना उच्च होना चाहिए कि वह “घोर उपेक्षा” अथवा “असावधानी” के रूप में वर्णित की जा सकती हो। मात्र आवश्यक सावधानी, मनोयोग तथा कौशल के अभाव के कारण डाक्टर को आपराधिक मामले के लिए दायी नहीं ठहराया जा सकता है।
गुजरात राज्य बनाम हैदर अली, (1976) क्रि० लॉ ज० 732 (सु० को०) के मामले में अभियुक्त बिना लाइसेंस के हेडलाइट जलाकर पूरी गति से ट्रक चला रहा था। सड़क से कच्चे मार्ग पर ले जाने हेतु ट्रक को मोड़ते समय वह वाहन पर से अपना नियन्त्रण खो बैठा और ट्रक ने होटल के सामने पड़ी एक खाट को टक्कर मार दी जिसके परिणामस्वरूप खाट पर आराम कर रहे व्यक्ति की मृत्यु हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि इस मामले में धारा 299 या 300 लागू नहीं होती थी क्योंकि मृत्यु न तो साशय कारित की गई थी और न इस ज्ञान के साथ कि मृत्यु सम्भाव्य है। अतः अभियुक्त का कार्य स्पष्टतः अविचारपूर्वक उतावलेपन और उपेक्षा से किये गये कृत्य की कोटि में आने के कारण उसको दोषसिद्धि धारा 304 के भाग 2 से बदलकर धारा 304 क के अन्तर्गत कर दी गई।
उत्तर- (ii) उपहति- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 319 में उपहति की परिभाषा दी गई है। धारा 319 के अनुसार, “जो कोई किसी व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा, रोग या अंग शैथिल्य कारित करता है, वह उपहति करता है, यह कहा जाता है। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा, रोग या अंग शैथिल्य कारित करने को उपहति (चोट) कहते हैं।
इस धारा को लागू होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि चोट स्थायी प्रकृति की हो अर्थात् चोट कितने भी कम समय के लिए क्यों न हो परन्तु यदि वह शरीर के पीडादायक है या उसके परिणामस्वरूप शरीर के किसी अंग में स्थायी या अस्थायी रूप से शिथिलता आ जाती है तो उपहतिया घोट कहलाएगी।
भारतीय दण्ड संहिता के अनुरसगर, उपहति दो प्रकार की होती है- (1) उपहति (धारा 319), तथा (2) गम्भीर उपहति (धारा 320)।
प्रश्नानुसार कच उपहति घोर उपहति हो जाती है। इसके बारे में भारतीय दण्ड संहित साधारण की धारा 320 में बताया गया है –
धारा 320-घोर उपहति-उपहति (चोट) की निम्नलिखित किस्में हो घोर उपहति कहलाती हैं जो इस प्रकार हैं –
(1) पुंसत्वहरण
(2) दोनों में से किसी नेत्र की दृष्टि का स्थायी विच्छेद
(3) दोनों में से किसी भी कान की श्रवण शक्ति का स्थायी बिच्छेद
(4) किसी भी अंग या जोड़ का विच्छेद
(5) किसी भी अंग या जोड़ की शक्तियों का नाश या स्थायी हास
(6) सिर या चेहरे का स्थायी विद्रूपीकरण
(7) अस्थि या दाँत का भंग या विसंधान
(8) कोई उपहति जो जीवन को संकटापन्न करती है या जिसके कारण चोटिल व्यक्ति 20 दिन तक तीव्र पीड़ा में रहता है या अपने मामूली काम-काज को करने के लिए असमर्थ रहता है।
(1) पुंसत्वहरण- यदि किसी पुरुष को चोट कारित करने के परिणामस्वरूप पीड़ित व्यक्ति पुरुषत्व या मर्दानेपन से वंचित हो जाता है यानी नपुंसक हो जाता है तो ऐसी चोट गम्भीर उपहति कहलाएगी।
(2) दोनों में से किसी नेत्र की दृष्टि का स्थायी विच्छेद– यदि किसी व्यक्ति को दोनों आंखों में से किसी भी एक आँख की दृष्टि उपहति के कारण स्थायी रूप से खराब हो जाती है तो ऐसी चोट गभीर उपहति कहलाएगी।
(3) दोनों में से किसी भी कान की श्रवण शक्ति का स्थायी विच्छेद – यदि किसी व्यक्ति को उपहति (चोट) कारित करने के परिणामस्वरूप पीड़ित व्यक्ति के किसी कान की श्रवण शक्ति का स्थायी रूप से हास हो जाता है, तो ऐसी चोट गम्भीर उपहति कहलाएगी।
(4) किसी भी अंग या जोड़ का विच्छेद- यदि किसी व्यक्ति को चोट कारित करने के परिणामस्वरूप पीड़ित व्यक्ति के किसी भी अंग या हड्डियों का जोड़ टूटता है तो ऐसी चोट गम्भीर उपहति कहलाएगी।
(5) किसी भी अंग या जोड़ की शक्तियों का नाश या स्थायी हास-यदि किसी व्यक्ति को चोट कारित करने के परिणामस्वरूप पीड़ित व्यक्ति के किसी भी अंग या हड्डियों को शक्तियों का नाश या स्थायी रूप से ह्रास हो जाता है तो ऐसी चोट गम्भीर चोट कहलाती है।
(6) सिर या चेहरे का स्थायी विद्रूपीकरण – विद्रूपीकरण से आशय ऐसी चोट पहुँचाई जाने से है जिसके फलस्वरूप चोटग्रस्त व्यक्ति के चेहरे या सिर का प्राकृतिक आकार बिगड़कर विकृत हो जाता है, परन्तु उसमें दुर्बलता नहीं आती। गंगाराम बनाम राजस्थान राज्य, 1984 क्रि० लॉ ज० 180 (एस० सी०) के मामले में अभियुक्त रेजर लेकर नर्तकी के घर गया और उसने रेजर से नर्तकी की नाक का ऊपरी भाग काट दिया। डॉक्टरी रिपोर्ट के अनुसार उक्त महिला का चेहरा स्थायी रूप से विदूषित हो गया था। अतः इसे उच्चतम न्यायालय ने गम्भीर उपहति माना और अभियुक्त को गम्भीर उपहति कारित करने का दोषी ठहराया गया।
(7) हड्डी या दाँत का टूटना- हड्डी या दाँत का टूटना गम्भीर उपहति माना जाता है। इस प्रकार की गम्भीर चोट स्थायी स्वरूप की होना आवश्यक नहीं है। अतः यदि टूटी हुई हड्डियाँ चिकित्सा द्वारा जोड़ा भी दी जाएं या विसंधित (Dislocated) हड्डी अपनी जगह पुनः बैठा भी दी जाए, तो भी इस अपराध के स्वरूप में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह गम्भीर चोट का अपराध बना रहेगा।
(8) कोई अन्य चोट जो- (1) व्यक्ति के जीवन को संकट में डाल दे या (2) जिसके कारण चोटग्रस्त व्यक्ति को 20 दिनों तक तीव्र शारीरिक पीड़ा सहन करनी पड़ी हो, या (3) जिसके कारण 20 दिन तक चोटग्रस्त व्यक्ति अपना सामान्य काम काज करने में असमर्थ खा हो, तो इस प्रकार की चोट धारा 320 में 8वीं प्रकार की गम्भीर चोट मानी जाएगी। कर्नाटक राज्य बनाम शिवलिंगया, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 115, इस मामले में अभियुक्त और परिवादी के बीच झड़प के दौरान परिवादी ने अभियुक्त का कंधा पकड़कर उसे बिठाना चाहा, इस पर उत्तेजित होकर अभियुक्त ने परिवादी का गुप्तांग खींचकर उसे मसल दिया जिसके कारण वह बेहोश होकर गिर पड़ा और उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि अभियुक्त का कृत्य मानव जीवन के लिए खतरनाक होने के कारण अभियुक्त धारा 320 की पाँचवीं और आठवीं प्रविष्टि के अन्तर्गत गम्भीर चोट कारित करने के अपराध का दोषी है।
मिट्ठू सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1980 पंजाब लॉ रि० 639 के बाद में कहा गया कि मात्र यह तथ्य कि पीड़ित व्यक्ति या रोगी 20 दिन तक अस्पताल में रहा, धारा 320 के अधीन गम्भीर उपहति माने जाने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह भी प्रमाणित किया जाना वश्यक होता है कि उस अवधि में वह व्यक्ति अपना सामान्य काम-काज करने में असमर्थ था।
(iii) आपराधिक बल (Criminal Force)—इसकी परिभाषा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 350 के अन्तर्गत दी गई है। इस धारा में दी गई परिभाषा के अनुसार आपराधिक बल से तात्पर्य किसी व्यक्ति से कोई आपराधिक कार्य कराने के आशय से उसके प्रति बल प्रयोग किये जाने से है। बल उस स्थिति में आपराधिक हो जाता है जब उसका प्रयोग करके किसी व्यक्ति को कोई अपराध करने हेतु विवश किया जा रहा है या उससे उस व्यक्ति को भय या क्षोभ (खीझ) होने की सम्भावना हो। आपराधिक बल प्रयोग के गठन हेतु बल की कितनी मात्रा पर्याप्त है इसके बारे में कोई उल्लेख धारा 350 में नहीं है। यह प्रत्येक मामले के त परिस्थितियों पर निर्भर करेगा यदि बल प्रयोग किसी व्यक्ति की सहमति के बिना किसी मानव के प्रति किया गया हो तो वह आपराधिक बल कहा जायेगा।।
आपराधिक बल प्रयोग में चोट लगना या व्यक्ति व्यक्ति को पीड़ा होना आवश्यक नहीं है। यदि व्यक्ति व्यक्ति को भय या क्षोभ (खोन) उत्पन्न होती है तो यही पर्याप्त है।
धारा 350 के अन्तर्गत आपराधिक बल प्रयोग के अपराध के लिए अभियुक्त द्वारा जनस्वेच्छया बल प्रयोग किया जाना आवश्यक है। यदि बल प्रयोग अनैच्छिक आकस्मिक या असावधानी के कारण हो तो उसे धारा 350 के प्रयोजन के लिए अपर्याप्त नहीं माना जायेगा। इस प्रकार यदि एक स्नानगृह का परिचालक असावधानीवश ठंडे स्नान करने वाले व्यक्ति को क्षोभ या भय उत्पन्न होता है तो उसे आपराधिक बल प्रयोग नहीं मान जाएगा।
आपराधिक बल प्रयोग के आवश्यक तत्व धारा 350 के अन्तर्गत आपराधिक बल प्रयोग के निम्नलिखित आवश्यक तत्व है –
(1) किसी व्यक्ति के प्रति साशय बल का प्रयोग किया गया हो।
(ii) इस प्रकार का बल प्रयोग उस व्यक्ति की सहमति के बिना किया गया हो।
(iii) ऐसा बल प्रयोग किसी अपराध-कार्य के करने के उद्देश्य से या किसी व्यक्ति के प्रति उसका उपयोग किया जाय उसको क्षति, भय या क्षोभ (खीझ) कारित करने के आशय से किया गया हो।
यदि कोई व्यक्ति किसी महिला का घूँघट साशय हटा देता है या अपने कुत्ते को किसी व्यक्ति पर दौड़ा देता है तो ये कृत्य उस महिला या उस व्यक्ति की सहमति के बिना तथा भय या क्षोभ (खीझ) उत्पन्न करने वाले होने के कारण धारा 350 के अन्तर्गत आपराधिक बल प्रयोग का अपराध गठित करते हैं। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति पर थूकता है तो वह भी धारा 350 के अन्तर्गत आपराधिक बल प्रयोग होगा क्योंकि इससे भी किसी व्यक्ति को क्षोभ होना स्वाभाविक है।
हमला (Assault)—यह आपराधिक बल प्रयोग की पूर्व अवस्था है। इसे धारा 351 में परिभाषित किया गया है कि जो कोई, कोई अंगविक्षेप या कोई तैयारी इस आशय से या यह सम्भाव्य जानते हुए करता है कि ऐसे अंगविक्षेप या तैयारी करने से उपस्थित व्यक्ति को यह आशंका हो जायेगी कि वह उस व्यक्ति पर आपराधिक बल का प्रयोग करने ही वाला है, वह हमला करता है, यह कहा जायेगा। जैसे कि-‘हर्ष’ पर अपना मुक्का ‘शिवांश’ इस आशय से या यह सम्भाव्य जानते हुए हिलाता है कि उसके द्वारा ‘हर्ष’ को यह विश्वास हो जाय कि ‘शिवॉश’, ‘हर्ष’ को मारने ही वाला है। ‘शिवांश’ ने हमला किया हमला आपराधिक बल प्रयोग तथा उपहति (चोट) तीनों एक ही प्रकार के अपराध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। बल प्रयोग के पूर्व की अवस्था में हमला कहा जाता है जबकि आपराधिक बल प्रयोग का परिणाम उपहति (चोट) हो सकते हैं। आपराधिक बल प्रयोग में हमला सन्निहित होता है।
आपराधिक बल प्रयोग
(1) आपराधिक बल प्रयोग में अपराधी किसी अन्य व्यक्ति पर बल प्रयोग करता है।
(2) आपराधिक बल प्रयोग हमले की अपेक्षा अधिक उत्तेजक एवं गम्भीर होते हैं।
(3) आपराधिक बल प्रयोग में हमला सम्मिलित होता है।
हमला (Assault)
(1) हमले में अपराधी अपने हावभाव, तैयारी या धमकी से अन्य व्यक्ति के मन में आपराधिक बल प्रयोग की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न करता है
(2) हमला आपराधिक बल प्रयोग की पूर्व-अवस्था है।
(3) हमले में आपराधिक बल प्रयोग सम्मिलित नहीं होता।
(Iv) महिला के सतीत्व का शीलभंग करने के आशय से हमला या आपराधिक बल- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 354 के अन्तर्गत महिलाओं के प्रति किये गये अश्लील हमले या आपराधिक बल प्रयोग को गंभीर अपराध माना गया है। धारा 354 उसी दशा में लागू होगी जब हमला या आपराधिक बल प्रयोग किसी स्त्री की सजा भंग करने के आशय से किया गया हो और अभियुक्त को यह ज्ञान हो कि उसके द्वारा किये गये कृत्य से उस स्त्री की लजा भंग होने की सम्भावना है।
इस धारा के अनुसार जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से या यह सम्भाव्य जानते हुए कि तद्द्वारा वह उसकी लज्जा भंग करेगा, उस स्त्री पर हमला करेगा या आपराधिक बल का प्रयोग करेगा, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से दण्डित किया जायेगा। दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा अब दण्ड को बढ़ाकर यह प्रतिस्थापित किया गया है कि-“वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो पाँच वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
पंजाब राज्य बनाम मेजर सिंह, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 63 के बाद में अभियुक्त ने एक साढ़े सात वर्षीया बालिका की योनि में उंगली डालकर उस पर अश्लील हमला किया अपने बचाव में अभियुक्त ने तर्क दिया कि धारा 354 के अपराध के लिए स्त्री की लज्जा भंग होना आवश्यक है और प्रस्तुत मामले में बालिका को स्त्री की लज्जा- भंग किये जाने की अनुभूति उत्पन्न न हुई होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता है कि बालिका की लज्जा भंग हुई थी। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इसे अस्वीकार करते हुए अभियुक्त को धारा 354 के अन्तर्गत दोषसिद्ध किया तथा कहा कि महिला की लज्जा का सार उसका ‘स्त्री’ होना है। महिला स्त्री की आयु कुछ भी क्यों न हो, चाहे वह बुद्धिमान हो या मंदबुद्धि, जाग रही हो या सो रही हो, उसकी लज्जा सदैव उसके ‘स्त्री देह’ के साथ रहती है और जिसे भंग किया जा सकता है। धारा 354 के अपराध का सार अभियुक्त का आशय है तथा यदि उसका आशय स्त्री को लज्जा भंग करना है, तो यह महत्वहीन है कि उसके कृत्य की व्यथित महिला पर क्या प्रतिक्रिया हुई।
विद्याधरन बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 526 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि धारा 354 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध के लिए एकमात्र आशय ही नहीं है तथा यह व्यक्ति द्वारा किसी स्त्री पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करके भी किया जा सकता है, यदि वह जानता हो कि ऐसे कृत्य से स्त्री को लज्जा प्रभावित होने की सम्भावना है।
रूपन देवल बजाज बनाम के० पी० एस० गिल, ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 3011 के बाद में अभियुक्त के० पी० एस० गिल जो पंजाब राज्य के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक थे। इन्होंने एक डिनर पाटी में अभियोक्त्री श्रीमती रूपन देवल बजाज की कमा के निचले भाग को थपथपाया जिससे विक्षुब्ध होकर श्रीमती बजाज ने श्री गिल के विरुद्ध धारा 354/294 के अन्तर्गत उनकी लज्जा भंग करने के आशय से आपराधिक बल प्रयोग का आरोप लगाते हुए आपराधिक मुकदमा चलाया। उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त को उक्त अपराध के लिए दोषी मानते हुए उसके कारावास के दण्डादेश को उचित ठहराया।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम बबलू, ए० आई० आर० (2015) सु० को० 102 के बाद में अभियुक्त की पत्नी के शीलभंग के अपराध के लिए धारा 354 के अन्तर्गत दोषसिद्ध कारित कर छः माह के सक्षम कारावास से दण्डित किया गया था। उसने उच्च न्यायालय में अपनी दोषसिद्धि को चुनौती न देते हुए केवल दण्ड के लघुकरण हेतु याचिका प्रस्तुत की। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर उसका दण्ड भोगी गई कारावास की सजा में लघुकरण कर दिया क्योंकि अभियुक्त प्रथम अपराधी था और वह 24 दिन जेल में कारावास का दण्ड भोग चुका था तथा उसका प्रकरण विगत दस वर्षों से चल रहा होने के कारण वह पर्याप्त मानसिक यातना भोग चुका था।
उच्च न्यायालय के उक्त दण्ड लघुकरण आदेश के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में आपत्ति दायर की गई। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त करते हुए अभिकथन किया कि दण्ड के औचित्य तथा दाण्डिक सिद्धान्तों की अनदेखी करते हुए उच्च न्यायालय ने यन्त्रवत गम्भीरता से विचार किये बिना अभियुक्त के दण्ड में ढील दे दी केवल इस कारण कि वह प्रथम अपराधी था, जो न केवल अनुचित था अपितु इससे अपराधों की पुनरावृत्ति करने हेतु अपराधियों का साहस बढ़ना सम्भाव्य था। अतः न्यायालय ने अभियुक्त को आदेशित किया कि वह दो सप्ताह के भीतर न्यायालय के समक्ष स्वयं को शेष कारावास का दण्ड भोगने के लिए समर्पित करे और न्यायालय उसे पुनः कारावास भेजे।
धारा 354 (क) में लैंगिक उत्पीड़न के लिए दण्ड का प्रावधान किया गया है। धारा 354 (ख) के अनुसार- ऐसा कोई पुरुष, जो किसी स्त्री को किसी सार्वजनिक स्थान पर विवस्त्र करने या निर्वस्त्र होने के लिए बाध्य करने के आशय से उस पर हमला करेगा या ऐसे कृत्य का दुष्प्रेरण करेगा वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि 3 वर्ष से कम नहीं होगी किन्तु जो 7 वर्ष तक की हो सकेगी तथा जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। [दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा प्रतिस्थापित]
प्रश्न 17. सदोष अवरोध एवं सदोष परिरोध के आवश्यक अवयों की न कीजिए। सदोष अवरोध और सदोष परिरोध में अन्तर समझाइए।
Discuss the essential ingredients of Wrongful Restraint and Wrongful confinement. Explain the difference between Wrongful Restraint and Wrongful Confinement.
उत्तर – सदोष अवरोध (धारा 339 ) – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 339 सदीप अवरोध को निम्नलिखित रूप से परिभाषित करती है, “जो कोई किसी व्यक्ति को स्वेच्छया ऐसी बाधा में डालता है कि उस व्यक्ति को उस दिशा में, जिसमें उस व्यक्ति को जाने का अधिकार है, जाने से निवारित कर दे. यह उस व्यक्ति का सदोष अवरोध करता है, यह कहा जाता है।”
इसके कुछ अपवाद है जैसे- भूमि के या जल के ऐसे प्राइवेट मार्ग में बाधा डालना जिसके सम्बन्ध में किसी व्यक्ति को सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वहाँ बाधा डालने का उसे विधिपूर्ण अधिकार है, इस धारा के अर्थ के अन्तर्गत अपराध नहीं है।
उदाहरण– ‘क’ एक मार्ग में, जिससे होकर जाने का ‘य’ का अधिकार है, सद्भावपूर्वक यह विश्वास न रखते हुए कि उसको मार्ग रोकने का अधिकार प्राप्त है, बाधा डालता है। ‘थ’ को जाने से तद्वारा रोक दिया जाता है। ‘क’, ‘य’ का सदोष अवरोध करता है।
आवश्यक तत्व- सदोष अवरोध के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं –
(1) अपराधकर्ता ने मार्ग में कोई बाधा उत्पन्न की हो।
(2) ऐसी बाधा स्वेच्छा से उत्पन्न की गई हो।
(3) बाधा किसी व्यक्ति को जाने से रोकने के लिए की गई हो।
(4) पीड़ित व्यक्ति को रोकी गई दिशा में जाने का अधिकार हो।
मद्रास उच्च न्यायालय ने अब्राहिम (1950) मद्रास 858 के मामले में बस ड्राइवर को सदोष अवरोध के लिए दोषी ठहराया क्योंकि बस ड्राइवर ने अपनी बस सड़क पर तिरछी करके इस प्रयोजन से खड़ी कर दी जिससे कोई और बस वहाँ से आगे न जा सके।
सदोष परिरोध (धारा 340)- जब किसी व्यक्ति का सदोष अवरोध इस प्रकार किया गया हो कि वह निश्चित परिसीमा से परे जाने से प्रतिबन्धित कर दिया गया हो तो उक्त व्यक्ति को इस प्रकार रोका जाना सदोष परिरोध कहा जाता है।
धारा 340 के अनुसार– “जो कोई किसी व्यक्ति का इस प्रकार सदोष अवरोध करता है कि उस व्यक्ति को निश्चित परिसीमा से परे जाने से निवारित कर दे वह उस व्यक्ति का ‘सदोष परिरोध’ करता है, यह कहा जाता है।
उदाहरण–’य’ को दीवार से घिरे हुए स्थान में प्रवेश कराकर के उसमें ताला लगा देता है। इस प्रकार ‘य’ दीवार की परिसीमा से परे किसी भी दिशा में नहीं जा सकता। ‘क’ ने ‘य’ का सदोष परिरोध किया है।
आवश्यक तत्व- उड़ीसा उच्च न्यायालय ने रवि नरायन बनाम राज्य, (1992) क्रि० लॉ ज० 269 उड़ीसा के मामले में सदोष परिरोध के निम्नलिखित दो आवश्यक तत्व बताये हैं –
(i) अभियुक्त ने परिवादी का सदोष अवरोध किया हो; और
(ii) अभियुक्त ने परिवादी को निश्चित परिसीमा से परे जाने से रोक दिया हो।
सदोष अवरोध और सदोष परिरोध में अन्तर – यद्यपि सदोष अवरोध और सदोष परिरोध की प्रकृति एक ही जैसी है फिर भी दोनों में निम्नलिखित अन्तर है –
सदोष अवरोध
(1) सदोष अवरोध में किसी व्यक्ति को केवल एक निश्चित दिशा में जाने से रोका जाता है। इस दिशा में जाने के अलावा वह कहीं भी जा सकता है अर्थात् आंशिक अवरोध होता है।
(2) सदोष अवरोध में कोई व्यक्ति उस दिशा में जाने से रोका जाता है जिस दिशा में उसे जाने का अधिकार है।
(3) सदोष अवरोध एक जाति है।
(4) सदोष अवरोध कम गम्भीर अपराध व कम दण्ड से दण्डनीय है
सदोष परिरोध
(1) जबकि सदोष परिरोध में व्यक्ति एक निश्चित परिसीमा से कहीं बाहर नहीं जा सकता है अर्थात् उस पर निश्चित परिसीमा से बाहर जाने पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध होता है।
(2) जबकि सदोष परिरोध में कोई व्यक्ति एक निश्चित परिसीमा या चहारदीवारी में बन्द कर दिया जाता है जहाँ से निकलने का उसका अधिकार है।
(3) जबकि सदोष परिरोध उसकी उपजाति है अर्थात् हर सदोष परिरोध में सदोष अवरोध उपस्थित रहता है।
(4) सदोष परिरोध अधिक गम्भीर अपराध व अधिक दण्ड से दण्डनीय है।
प्रश्न 18. (क) व्यपहरण को परिभाषित करते हुए स्पष्ट करें। यह अपहरण में किस प्रकार भिन्न है? उदाहरण द्वारा समझाइए।
Explain and define Kidnapping and distinguish Kidnapping with that of Abduction with examples.
उत्तर– व्यपहरण (Kidnapping) का शब्दिक अर्थ है उठाकर ले जाना। परन्तु भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत व्यपहरण को बालचोरी (Child Stealing) के अर्थ में लिया गया। है। व्यपहरण मानव शरीर के विरुद्ध अपराध है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 359 से 369 तक व्यपहरण तथा अपहरण (Abduction) के बारे में हैं।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 359 सिर्फ व्यपहरण (Kidnapping) के प्रकार बताती है। इस धारा के अनुसार व्यपहरण (Kidnapping) दो प्रकार का होता है (1) भारत की सीमा से बाहर व्यपहरण; (2) विधिपूर्ण संरक्षकता (Legal guardianship) से व्यपहरण।
भारत की सीमा से बाहर व्यपहरण– धारा 360 भारत में से व्यपहरण (Kidnapping from India) से सम्बन्धित प्रावधान करती है। इस धारा के अनुसार जब किसी व्यक्ति को, उसकी सहमति के बिना या किसी ऐसे व्यक्ति की सहमति के बिना, जो उसकी ओर से सहमति देने के लिए वैध रूप से प्राधिकृत (authorised) है. भारत की सीमाओं के बाहर ले जाया जाता है तो भारत से व्यपहरण का अपराध गठित हो जाता है। इस धारा के अन्तर्गत जिस व्यक्ति को भारत की सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है, यह आवश्यक नहीं कि वह बच्चा हो हो। यह व्यक्ति बच्चा, जवान, वृद्ध, स्त्री पुरुष हो अथवा वह भारतीय नागरिक हो या विदेशी इस धारा के अन्तर्गत अपराध गठित करने के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है –
(1) जिस व्यक्ति का व्यपहरण किया गया है, अपराध के समय वह भारत में हो,
(2) अभियुक्त द्वारा उस व्यक्ति को भारत की सीमा के परे ले जाया गया हो; तथा
(3) अभियुक्त ने यह कृत्य उस व्यक्ति की सम्मति के बिना, या उस व्यक्ति की ओर से सम्मति देने के लिए वैध रूप से प्राधिकृत व्यक्ति की सम्मति के बिना किया है।
सन् 1949 में किए गए संशोधन के अनुसार यदि सोलह वर्ष से कम आयु का लड़का या अट्ठारह वर्ष से कम आयु की लड़की को उसकी सहमति के बिना भारत की सीमाओं के बाहर ले जाया गया हो तो भी व्यपहरण (Kidnapping) का अपराध गठित हो जायेगा। [हरि भाई बनाम सम्राट (1918) 20 बम्बई लॉ रि० 372]
(2) विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण (Kidnapping from lawful guardianship)— विधिपूर्ण संरक्षकता से व्यपहरण के अपराध को धारा 361 के अन्तर्गत परिभाषित किया गया है। इस धारा के पीछे प्रमुख सिद्धान्त यह है कि प्रथमतः एक विधिपूर्ण संरक्षकता को सुरक्षा प्रदान की जाए तथा द्वितीय कम आयु के बच्चों को बहला-फुसलाकर अनुचित प्रयोजनों से व्यपहरण करने की घटनाओं की रोकथाम को जाय।
यह धारा सोलह वर्ष से कम आयु के लड़के तथा अट्ठारह वर्ष से कम आयु की लड़की को या किसी विकृचित्त (पागल) व्यक्ति को, उसके विधिक संरक्षक की अनुमति के बिना संरक्षकता से दूर करने (व्यपहरण) को अपराध घोषित करती है। नाबालिग बच्चे तथा विकृतचित्त व्यक्ति सहमति देने में अक्षम माने जाते हैं तथा यदि उन्हें (बहला-फुसलाकर) उनकी सहमति से भी विधिक संरक्षकता से पृथक् कर दिया जाता है तो भी व्यपहरण (Kidnapping) का अपराध गठित होगा, क्योंकि इन व्यक्तियों द्वारा दी गई सहमति अपराधी कृत्य को वैध नहीं बना सकती धारा 361 में प्रयुक्त शब्दावली ‘बहला-फुसला कर ले जाना’ से आशय अवयस्क की आशा या इच्छा जागृत करने के लिए प्रभोलन देने से है जिसके कारण अवयस्क अभियुक्त के साथ जाने को तैयार हो जाय
अपवाद – इस धारा का विस्तार किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य पर नहीं है, जिसे सद्भावपूर्वक यह विश्वास है कि वह किसी अधर्मज शिशु का पिता या जिसे सद्भावपूर्वक यह विश्वास है कि वह ऐसे शिशु की विधिपूर्ण अभिरक्षा का हकदार है, जब तक किं ऐसा कार्य दुराचारिक या विधिविरुद्ध प्रयोजन के लिए न किया जाए।
इस धारा के आवश्यक तत्व
(1) किसी अवयस्क व्यक्ति या विकृचित्त (पागल) व्यक्ति को ले जाना या बहला-फुसलाकर ले जाना—यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस अपराध के गठन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि व्यपहरण के लिए अभियुक्त ने बल प्रयोग किया। हो या कपट का प्रयोग किया हो तथा यह भी कि अभियुक्त अपने बचाव में यह तर्क नहीं है। सकता कि वह यह नहीं जानता था कि जिसका व्यपहरण किया गया है, वह नाबालिग या विकृतचित्त है। इस प्रकार किसी अवयस्क को उसकी इच्छा के बिना साथ-साथ चलने के लिए मार्गदर्शित करना भी धारा 361 के अन्तर्गत अपराध का गठन करेगा। बालक या बालिका की आयु निर्धारण के लिए हाईस्कूल का प्रमाण-पत्र निर्णायक माना जायेगा। (शचीन्द्र नाथ बनाम विष्णुपाद दास, 1978 क्रि० लो ज० 1494)। यह स्मरणीय है कि किसी अवयस्क बालिका को आश्रय देकर सहायता करना या उपचार हेतु अस्पताल ले जाना, इस धारा के अन्तर्गत व्यपहरण का प्रयत्न नहीं माना जायेगा।
हरियाणा राज्य बनाम राजाराम, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 819 नामक बाट में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि अभियुक्त के अनुनय-विनय (request) के कारण अवयस्क बालक या बालिका उसके साथ जाने को स्वयं तैयार हो जाते हैं तो भी अभियुक्त धारा 361 के अन्तर्गत व्यपहरण का दोषी माना जायेगा।
रसूल बनाम राज्य, (1976) क्रि० लॉ ज० 363 नामक वाद में एक अवयस्क लड़को लैंगिक सम्भोग की आदी थी तथा अपनी स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ गई थी अतः अभियुक्त को धारा 361 के अन्तर्गत व्यपहरण का दोषी नहीं माना गया।
(2) विधिपूर्ण संरक्षक की संरक्षकता- इस धारा के प्रयोजन के लिए ‘विधिपूर्ण संरक्षकता’ से तात्पर्य अनिवार्य रूप से अवयस्क के माता-पिता से नहीं है, अपितु उस व्यक्ति से है जिसकी विधिपूर्ण संरक्षकता में अवयस्क विधिक रूप से है। हिन्दू विधि के अनुसार यदि एक विवाहिता स्त्री पन्द्रह वर्ष की आयु पूर्ण कर लेती है तो उसका पति ही उसका विधिपूर्ण संरक्षक माना जाता है तथा उस विवाहिता स्त्री के माता-पिता भी उसे उसके पति की संरक्षकता से उसके पति की सहमति के बिना नहीं ले जा सकते।
बलदेव बनाम सम्राट (1870) में एक लड़की चौदह वर्ष की थी। अनाथ होने के कारण एक स्त्री के साथ भीख माँगकर अपना निर्वाह करती थी। उसे एक व्यक्ति बहला फुसलाकर ले गया तथा उसकी शादी अपने पुत्र से कर दी। कुछ समय पश्चात् अभियुक्त ने उसे उसके पति की संरक्षकता से अपने साथ चलने को राजी कर लिया। अभियुक्त को व्यपहरण के लिए दोषी सिद्ध नहीं किया गया क्योंकि लड़की को उसके पति को संरक्षकता में विधिपूर्ण ढंग से नहीं सौंपा गया था। अत: उसकी संरक्षकता वैध नहीं थी।
वरदराजन बनाम मद्रास राज्य, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 942 नामक बाद में एक लड़की जो वयस्कता पूर्ण करने वाली थी, ने स्वेच्छा से अभियुक्त को फोन करके एक विशिष्ट स्थान पर बुलाया। उसके पहुँचते ही लड़की कार में घुस गई तथा उसके साथ कई स्थानों पर रहने के पश्चात् रजिस्ट्रार के कार्यालय में अभियुक्त से विवाह कर लिया। न्यायालय ने अभियुक्त को दोषी नहीं माना क्योंकि धारा 361 के अन्तर्गत व्यपहरण के अपराध का गठन होने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त ने अवयस्क के मन में घर ने छोड़ने के इरादे (आशय) का निर्माण किया हो तथा अवस्यक के साथ विधिक संरक्षकता से बाहर ले जाने में सक्रिय योगदान किया हो
(3) संरक्षक की सहमति के बिना – इस अध्याय के अन्तर्गत अवयस्क की सहमति महत्वहीन है। संरक्षक की सहमति महत्वपूर्ण है, यदि संरक्षक ने सहमति दे दी है। तो धारा 361 के अन्तर्गत अपराध गठित नहीं होगा। परन्तु यह साबित किया जाना आवश्यक है कि संरक्षक की सहमति स्वतन्त्र रूप से प्राप्त की गई हो न कि बलपूर्वक या कपट द्वारा।
करण सिंह बनाम सम्राट, (1916) नामक वाद में सोलह वर्ष से कम आयु की विवाहित महिला अपनी सास के व्यवहार से तंग आकर स्वयं अपने मामा के घर जाने के लिए अपनी ससुराल से निकल पड़ती है। रास्ते में अभियुक्त उसे बहला-फुसलाकर अपने घर ले जाता है तथा विवाह की इच्छा प्रकट करता है। गाँव वालों ने जब स्त्री से परिचय प्राप्त करना चाहा तो अभियुक्त गाँव से भाग गया तथा अभियुक्त का भाई उसे अपने घर ले गया जहाँ स्त्री एक माह तक रही। न्यायालय ने अभियुक्त को धारा 361 के अन्तर्गत दोषी माना क्योंकि स्त्री पर से उसके पति की विधिक संरक्षकता, स्त्री के स्वेच्छया पति गृह त्याग देने से समाप्त नहीं हो जाती। परन्तु अभियुक्त का भाई दोषमुक्त कर दिया गया।
(4) विकृतचित्त (पागल) व्यक्ति का व्यपहरण– यहाँ यह आवश्यक है कि व्यक्ति नसिक विकृति क्षणिक न होकर प्राकृतिक कारणों से थी। यदि विकृति मादक या विषाक्त पदार्थ के सेवन से है तो वह इस धारा के अन्तर्गत विकृतचित्त नहीं माना जायेगा। एक स्त्री को धतूरे का बीज खिलाकर बेहोश कर दिया गया था। उसे विकृतचित्त होना नहीं माना गया तथा अभियुक्त धारा 361 के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जायेगा।
अपहरण (Abduction) – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 362 में अपहरण (Abduction) की परिभाषा दी गई है। इस धारा के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को किसी स्थान से जाने के लिए बल द्वारा विवश करता है या किन्हीं प्रवंचनापूर्ण (मिथ्याकथन या कपटपूर्ण) उपायों द्वारा किसी स्थान से जाने के लिए उत्प्रेरित करता है तो वह व्यक्ति अपहरण (Abduction) का अपराध करता है। अपहरण में कपट या छल का तत्व विद्यमान रहना आवश्यक है।
यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी विधि में व्यपहरण नामक कोई पृथक् अपराध नहीं है परन्तु व्यपहरण ही अपहरण का अपराध है जैसा कि धारा 361 में परिभाषित है।
अपहरण का अपराध निरन्तर जारी रहने वाला अपराध होने के कारण जब किसी का सार्वजनिक स्थान से अपहरण कर लिया जाता है तो वह अपराध उस सम्पूर्ण अवधि तक जारी रहता है जिसमें उस व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जाता रहा है।
व्यपहरण तथा अपहरण में अन्तर –
(Distinction between Kidnapping and Abduction)
व्यपहरण (Kidnapping)
(i) व्यपहरण सिर्फ अवयस्क या विकृतचित्त व्यक्ति का होता है। अवयस्क का अर्थ 16 वर्ष से कम आयु का लड़का तथा 18 वर्ष से कम आयु की लड़की से है।
(ii) व्यपहरण में एक व्यक्ति को किसी व्यक्ति के विधिक संरक्षण से उसे हटाया जाता है।
(iii) व्यपहरण में अभियुक्त द्वारा व्यपहरित व्यक्ति को बहला फुसलाकर विधिक संरक्षक से बाहर आने को प्रेरित किया जाता है। यहाँ बल प्रयोग आवश्यक नहीं है
(iv) व्यपहरण में व्यपहरित व्यक्ति की सहमति का कोई महत्व नहीं होता।
(v) व्यपहरण में अभियुक्त के आशय का महत्व नहीं होता।
(vi) व्यपहरण का अपराध उसी समय पूर्ण हो जाता है जब व्यपहरित व्यक्ति विधिक संरक्षकता से बाहर ले जाया जाता है।
अपहरण (Abduction)
(i) अपहरण के लिए कोई आयु सीमा नहींहै।
(ii) अपहरण में विधिक संरक्षकता का प्रश्न नहीं होता है। अपहृत व्यक्ति का विधिक संरक्षकत्व में होना आवश्यक नहीं है।
(iii) अपहरण के अपराध में बल प्रयोग, प्रवंचना या कपटपूर्ण आशय का होना आवश्यक है।
(iv) अपहरण में अपहरित व्यक्ति की सहमति ही अपराध का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण होती है।
(v) अपहरण में अपहर्ता का आशय महत्वपूर्ण होता है।
(vi) अपहरण का अपराध निरन्तर चलने वाला अपराध है।