– प्रथम सेमेस्टर –
प्रश्न 1. अपराध को परिभाषित करें और उन विभिन्न तत्वों पर विचार-विमर्श करें जो कि अपराध की रचना के लिए आवश्यक हैं।
Define Crime and discuss the various elements which are essential in the constitution of Crime.
अथवा (Or)
अपराध की प्रकृति और परिभाषा दीजिए तथा इसके विभिन्न तत्वों की विवेचना कीजिए।
Describe nature and definition of Crime and discuss its various elements.
उत्तर- अपराध की अवधारणा सदैव लोकमत पर आधारित होती है, अपराध के स्वरूप तथा उसकी अवधारणा को समझने के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि विधि क्या है, क्योंकि अपराध एवं विधि का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि बिना एक को जाने दूसरे को नहीं समझा जा सकता।
“विधि” एक व्यादेश (Command) है जो समाज के सभी सदस्यों द्वारा अनुपालनीय व्यवहार का निर्देशन करता है तथा जो दण्ड द्वारा समर्थित है।” और व्यादेश किसी प्रभुता सम्पन्न का अथवा राजनीतिक दृष्टि से श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा अपने अधीनस्थ व्यक्तियों के लिए। हो सकता है।
विधि की इस परिभाषा के अनुसार विधि को अवज्ञा को अपराध कहा जा सकता है परन्तु विधि की प्रत्येक अवज्ञा अपराध नहीं है क्योंकि संविदा विधि व पारिवारिक विधि का उल्लंघन तब तक अपराध नहीं है जब तक कि ऐसा उल्लंघन विधि द्वारा अपराध न घोषित कर दिया जाए। जबकि एक साधारण व्यक्ति के लिए अपराध वह कार्य है “जिसे समाज में लोग घोर निन्दा के योग्य समझते हैं।” अपराध, विधि द्वारा निषिद्ध भी है तथा समाज की नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध भी है।
जैसे-हत्या, लूट तथा चोरी इत्यादि।
अपराध की परिभाषा – “अपराध विधि द्वारा दण्डनीय कार्य है क्योंकि यह अधिनियम द्वारा निषिद्ध है या लोकहित के लिए हानिकारक है।”
ब्लैकस्टोन के अनुसार, “निषिद्ध या समादेशित करने वाले सार्वजनिक अधिकारी एवं कर्त्तव्यों के उल्लंघन के रूप में किया गया कार्य या लोप अपराध कहलाता है।
” स्टीफेन के अनुसार-“सम्पूर्ण समाज के अधिकारों के अतिक्रमण के रूप में किसी अधिकार का उल्लंघन अपराध है।”
पैटन के अनुसार, “अपराध के सामान्य लक्षण हैं राज्य द्वारा कार्यवाही को नियन्त्रित करना, दण्ड को क्षमा करना तथा दण्ड देना।”
बेन्चम के अनुसार, “अपराध वह है जिन्हें विधि द्वारा अच्छे या बुरे कारणों से निषिद्ध कर दिया गया है।”
अपराध के आवश्यक तत्व – अपराध के निम्नलिखित प्रमुख तत्व हैं –
(1) एक मानव जिसे एक विशेष ढंग से विधिक बाध्यता के अधीन कार्य करना है तथा जो दण्ड आरोपित करने में उपर्युक्त विषय है;
(2) ऐसे मानव के मन में एक दुराशय है;
(3) ऐसे आशय को पूरा करने के लिए किया गया कोई कार्य;
(4) ऐसे कार्य द्वारा किसी दूसरे मानव या सम्पूर्ण समाज को एक क्षति।
(1) मानव-किसी कार्य को अपराध के रूप में विधि द्वारा दण्डनीय होने के लिए किसी मानव द्वारा किया जाना चाहिए।
(2) दुराशय (Mens-rea)– “मांत्र कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता, यदि उसका मन अपराधी न हो।” (Actus non facit reum nisi mens sit rea) अर्थात् कार्य स्वयं किसी को दोषी नहीं बनाता जब तक कि उसका मन (आशय) वैसा न रहा हो।” इसी प्रकार “मेरे द्वारा मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है।” (Actus meinvito factus non est mens actus)। तात्पर्य यह है कि किसी कार्य को दण्डनीय होने के लिए इच्छित होना चाहिए या स्वेच्छा से किया गया कार्य आपराधिक आशय से किया गया होना चाहिए। अतः अपराध को गठित करने के लिए आशय एवं कार्य दोनों का संगामी होना आवश्यक है। (मालान को फाउलर बनाम पैजेट)। जहाँ किसी अपराध को गठित करने के लिए आवश्यक आपराधिक आशय अनुपस्थित होता है वहाँ अभियुक्त दण्डित नहीं किया जा सकता। जब तक कि कृत्य दोषकर्ता के आशय के बिना भी विवक्षित या स्पष्ट रूप से दण्डनीय न हो। (हाडिंग बनाम प्राइस)
आपराधिक कृत्य (Actus réum) – किसी अपराध के लिए एक व्यक्ति तथा उसका दुराशय ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि किसी मनुष्य के आशय को हम नहीं जान सकते। किसी व्यक्ति के विचार विचारणीय नहीं हैं। दण्डनीय होने के लिए आपराधिक आशय को किसी स्वेच्छापूर्ण कार्य या लोप के रूप में अवश्य स्पष्ट होना चाहिए।
केनी के अनुसार, “आपराधिक कृत्य मानव आचरण का वह परिणाम है जिसे विधि रोकना चाहती है, किया गया या लोपित कार्य निश्चिततः किसी विधि द्वारा निषिद्ध या आदेशित होना चाहिए।” रसेल आपराधिक कृत्य को “मानव आचार का भौतिक परिणाम बढ़ाते हैं।” एक कृत्य के अन्तर्गत अवैध लोप भी शामिल है।
मानव की क्षति (Injury to human being)- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 44 द्वारा परिभाषित “क्षति” शब्द किसी इस प्रकार की हानि का द्योतक है, जो किसी व्यक्ति के शरीर, मन, ख्याति या सम्पत्ति को अवैध रूप से कारित हुई हो। क्षति किसी दूसरे व्यक्ति या किसी के शरीर या सम्पूर्ण समाज को अवैध रूप से पहुँचायी गयी होनी चाहिए। इसके अपवाद भी हैं। जैसे-धारा 494 (द्विविवाह), धारा 399, धारा 402 इत्यादि।
प्रश्न 2. यह कहा गया है कि समूचे आपराधिक विधि के क्षेत्र में दुराशय (Mens Rea: मेन्स रिया) से अधिक महत्वपूर्ण और कोई सिद्धान्त नहीं है। वादों की सहायता से स्पष्ट करें। इस सिद्धान्त को भारतीय दण्ड संहिता में किस सीमा तक लागू किया गया है?
“It is said that in the entire field of Criminal Law there is no more important doctrine than that of Mens Rea.”-Explain with the help of cases. Discuss the extent of application of this principle in Indian Penal Code.
अथवा (Or)
आपराधिक दायित्व के एक तत्व के रूप में आपराधिक मनःस्थिति की व्याख्या कीजिए।
Explain ‘Mens Rea’ as an element of Criminal Liability.
उत्तर – अंग्रेजी विधि के विद्वानों द्वारा अनेक बार यह स्पष्ट किया गया है कि कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं माना जाना चाहिए जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाए कि उसके कृत्य के साथ-साथ उनका मन भी दोषी था अर्थात् केवल आपराधिक कृत्य ही एक व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता है जब तक कि उसका मन (आशय) भी दोषी न हो। फ्लावर बनाम पेयर (1798) के वाद में लॉर्ड केनियम ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) का यह सुव्यवस्थापित नियम है कि कृत्य स्वयं किसी मनुष्य को अपराधी नहीं बनाता यदि उसका मन भी अपराधी न हो। आर बनाम लिबरेट, (1629) के बाद में एक व्यक्ति ने अपनी घरेलू नौकरानी (Domestic servant) को चोर समझकर मार डाला था। चूँकि हत्यारे का मन अपराधी नहीं था अतः इस मामले को हत्या का मामला नहीं माना गया। न्यायमूर्ति कोक ने अपनी पुस्तक ‘थर्ड इन्स्टीट्यूट’ में सन्त अगस्ताइन के धर्मोपदेश को आधार लेते हुए एक सूत्र का प्रयोग किया है। यह सूत्र है, “ACTUS NON FECIT REUM NISI MENS SIT REA” (एक्टस नान फेसिट रियम निसी मेन्स सिट रिया) इसका अर्थ है, An act is not a crime unless it is committed with a particular criminal intention. (दुराशय के बिना केवल कार्य किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता) आज यह सूत्र अंग्रेजी आपराधिक विधि का आधार स्तम्भ बन गया है। यह सूत्र उतना ही प्राचीन है जितना अंग्रेजी दाण्डिक विधि।
उपरोक्त सूत्र का विश्लेषण करने से यह सुनिश्चित होता है कि किसी कृत्य को अपराध मानने के लिए दो आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है –
(1) शारीरिक या भौतिक कृत्य (Actus Reus)
(2) मानसिक तत्व या दुराशय (Mens Rea)।
को अपराध
(1) शारीरिक या भौतिक कृत्य (Actus Reus) – शारीरिक या भौतिक कृत्य से तात्पर्य सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों तरह के कार्यों से है। सकारात्मक कृत्य (Positive कृत्य से Action) से तात्पर्य किसी मनुष्य की सकारात्मक गतिविधि से है। जैसे-बोलना, चलना, लिखना, फेंकना या किसी अन्य गतिविधि को करना कृत्य से तात्पर्य मनुष्य का कोई आचरण है। अपराध गठित करने के लिए कर्ता का आचरण ऐसा होना चाहिए जो देश की विधि (Law ( of land) के किसी प्रावधान द्वारा वर्जित या निषिद्ध घोषित हो। किसी ऐसे कार्य को न करना जिसे करने की देश की विधि अपेक्षा करती हो, नकारात्मक (Negative) कार्य है अर्थात् किसी कार्य को करना कर्त्तव्य है, करने से चूक (अकार्य) भी एक कार्य करने के समान हो जाता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 33 में अकृत्य या चूक को कृत्य के समान हो दण्डनीय माना गया है। जैसे-‘क’, ‘ख’ को सामान्य खुराक देने में चूक या व्यतिक्रम करता है जिसके कारण ‘ख’ की मृत्यु हो जाती है तो यह कहा जाएगा कि ‘क’ ने मानव-वध का अपराध किया है। इसी प्रकार यदि ‘अ’ एक रोगी है तथा ‘ब’ उसकी देखभाल के लिए नियुक्त है तथा उसकी उपेक्षा ‘खुराक’ (या दवा न देने) के कारण ‘अ’ मर जाता है तो ‘ब’ का यह कृत्य उसे आपराधिक मानव-वध का दोषी बना देगा।
( 2 ) मानसिक तत्व या दुराशय (Mens Rea) – दुराशय का अर्थ है विद्वेषपूर्ण या बुरा आशय या ‘आपराधिक आशय दुराशय किसी व्यक्ति की आपराधिक मनोवृत्ति का द्योतक है। दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति के पीछे कोई-न-कोई कारण होता है जो ऐसे आशय को जन्म देता है। दुराशय सामान्यतः अपराध के गठित होने की अनिवार्य शर्त है। दाण्डिक विधि की यह मान्यता है कि दोषी मस्तिष्क के अभाव में किसी प्रकार के अपराध को किया ही नहीं जा सकता।
इस प्रकार किसी भी कृत्य को अपराध बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह कृत्य आपराधिक आशय या दुराशय (Mens Rea) से किया गया हो। किसी सद्भावपूर्वक या निष्कपटतापूर्ण ढंग से सम्पन्न कार्य से दायित्व उत्पन्न नहीं होता भले ही उससे किसी व्यक्ति को क्षति हो क्योंकि उसमें दुराशय या आपराधिक आशय का अभाव होता है। इस प्रकार हत्या के मामले में हत्यारे का आपराधिक आशय, चोरी के मामले में चुराई गई वस्तु का बेईमानीपूर्ण प्रयोग तथा बलात्कार के मामले में किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ बलपूर्वक सम्भोग, आपराधिक आशय या दुराशय के उदाहरण हैं।
दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति किसी व्यक्ति को अपराध के लिए दोषी ठहराये जाने की अनिवार्य शर्त है। आर० बनाम कैम्प (1957) क्वीन बेन्च डिवीजन 399 के वाद में एक व्यक्ति को नींद में चलने की बीमारी (Arterio Selerusis) थी। यदि वह नींद में चलने की स्थिति में कोई ऐसा कार्य करता है जो अपराध है तो उसे अपराधी नहीं माना जायेगा क्योंकि यह कार्य न तो उसने स्वेच्छा से किया है, न ही इस परिस्थिति में यह माना जा सकता है कि उसने कार्य दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति के साथ किया है।
यद्यपि दुराशय का अर्थ है आपराधिक मनःस्थिति परन्तु यदि कोई व्यक्ति बिना सोचे समझे कोई कार्य करता है तथा उसके कार्य से किसी को कोई क्षति होती है तो यह माना जाएगा कि उसने कार्य आपराधिक मनःस्थिति के साथ किया है क्योंकि लापरवाहीपूर्ण कार्य के बारे में आपराधिक मनःस्थिति या दुराशय की उपधारणा (Presumption) होती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 इस बिन्दु पर उदाहरण है जिसके अनुसार यदि किसी | व्यक्ति की असावधानी से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे मानव-वध (Culpable Homicide) के अपराध के लिए दण्डित किया जायेगा तथा ऐसी परिस्थिति में आपराधिक मनः स्थिति का प्रश्न नहीं उठता। जैसे यदि दो व्यक्ति मोटर साइकिल की स्पद्धत्मिक दौड़ में सम्मिलित होते हैं तथा एक व्यक्ति की उपेक्षा या असावधानी से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो इस चालक का यह कार्य अपराध माना जाएगा।
कठोर दायित्व (Strict Liability) के मामले में जहाँ कोई व्यक्ति अपनी भूमि या परिसर का अप्राकृतिक उपयोग (unnatural use) करते हुए उस पर खतरनाक वस्तु संग्रहीत करता है तथा यदि किसी प्रकार उस वस्तु का भू-स्वामी के परिसर से पलायन (Escape) हो जाता है तथा उस खतरनाक वस्तु के पलायन से किसी को क्षति होती है तो भू-स्वामी का दायित्व कठोर होता है अर्थात् उसमें दुराशय या आपराधिक मन:स्थिति को महत्व नहीं दिया जाता तथा भू-स्वामी को आपराधिक मनःस्थिति या दुराशय के अभाव में दोषी मानकर दण्डित किया जाता है। (भोपाल गैस काण्ड) इसी प्रकार लोक-अपदूषण (Public Nuisance) एक ऐसा अपराध है जो दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति के अभाव में भी दण्डनीय है।
दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति ( Mens Rea) तथा भारतीय दण्ड संहिता अंग्रेजी दाण्डिक विधि में दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति का महत्वपूर्ण स्थान है। अंग्रेजी दाण्डिक विधि में यह मान्यता है कि दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति के अभाव में कोई अपराध नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्ति झाड़ी के पीछे छिपे किसी व्यक्ति को जानवर समझकर गोली चला देता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है तो यहाँ अपराध होते. हुए भी गोली चलाने वाले को आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है, क्योंकि गोली चलाने वाले के मन में दुराशय का अभाव था परन्तु भारतीय दाण्डिक विधि भारतीय दण्ड संहिता में अन्तर्निहित प्रावधानों से शासित होती है तथा इस संहिता में अपराध की परिभाषा के अनुसार प्रत्येक ऐसा कार्य जो विधि द्वारा वर्जित है अपराध कहलाता है, चाहे उसके पीछे दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति रहो हो अथवा नहीं।
भारतीय दण्ड संहिता में चूँकि प्रत्येक अपराध के साथ ही उसके आवश्यक तत्वों का भी उल्लेख कर दिया गया है अतः अपराध के गठन के लिए दुराशय को पृथक् तत्व के रूप में भारतीय दण्ड संहिता में मान्यता नहीं दी गई है। जहाँ कहीं जिस अपराध के सन्दर्भ में दुराशय आवश्यक माना गया है वहाँ साशय, कपटपूर्वक य बेईमानीपूर्वक जैसे शब्दों का प्रयोग कर दुराशय की आवश्यकता को परिकल्पित किया गया है।
दुराशय (Mens Rea) या आपराधिक मनःस्थिति अंग्रेजी दाण्डिक विधिशास्त्र का मेरुदण्ड है। अंग्रेजी दाण्डिक विधि में यह मान्यता है कि आपराधिक मनःस्थिति के अभाव में कोई अपराध हो पाना सम्भव नहीं है। परन्तु दुराशय दाण्डिक विधि का आवश्यक अंग होते हुए भी भारतीय दण्ड संहिता में विभिन्न धाराओं में विभिन्न अपराधों को परिभाषित करते हुए दुराशय को विभिन्न शब्दों से प्रतिस्थापित किया गया है। भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं में स्वेच्छापूर्वक (Voluntarily), कपटपूर्वक (Fraudulently), बेईमानीपूर्वक (Dishonestly) या साशय (Intentionally) आदि शब्दों का प्रयोग अपराधी की मनःस्थिति को प्रकट करने के लिए किया गया है। भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत भ्रष्ट रूप से (Corruptly), विद्वेषतापूर्वक (Maliciously), उतावलेपन से (Rashly) या उपेक्षापूर्वक (Negligently) शब्दों का प्रयोग कर अपराधी की आपराधिक मनःस्थिति की आवश्यकता को स्पष्ट किया गया है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दुराशय या आपराधिक मनःस्थिति ( Mens Rea) को प्रत्यक्षतः अपराध के आवश्यक तत्व के रूप में समाविष्ट किया गया है। सुप्रसिद्ध भारतीय विधिवेत्ता एम० सी० सीतलवाद ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि चूंकि भारतीय दण्ड संहिता में विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत विभिन्न अपराधों की परिभाषा देते समय आपराधिक मन:स्थिति या ‘दुराशय’ को किसी न किसी समानार्थक शब्दों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है अतः अलग से इसको लागू करने की आवश्यकता नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र राज्य बनाम मेयर इन्स जार्ज, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 722 के बाद में यह विचार व्यक्त किया है कि जब तक किसी विधि के अन्तर्गत आपराधिक मन:स्थिति (Mens Rea) के अपराध का एक आवश्यक तत्व मानने से इंकार नहीं कर दिया जाता तब तक किसी अभियुक्त को किसी अपराध के लिए दुराशय के अभाव में दोषी नहीं माना जा सकता।
अपवाद- निम्नलिखित मामलों में दुराशय का होना आवश्यक नहीं होता- (1) लोक अपदूषण (2) दीवानी प्रक्रिया; तथा (3) कठोर दायित्व आदि।
प्रश्न 3. (i) अपराध किये जाने के विभिन्न स्तर क्या हैं? किस अपराध में मात्र तैयारी ही दण्डनीय होती है? अपने उत्तर को स्पष्ट करें।
What are the different stages in the commission of a crime? In which offences only preparation is punishable? Illustrate Your answer.
उत्तर- किसी भी अपराध को मूर्त स्वरूप देने के लिए या अपराध करने से पूर्व अपराधी विभिन्न स्तरों से होकर गुजरता है। यदि कोई अपराध अचानक या अपरिहार्य दुर्घटना (Intevitable Accident) के रूप में घटित होता है तो उसको उन स्तरों से होकर नहीं गुजरना पड़ता है। इसलिए अपरिहार्य दुर्घटना को एक सफल बचाव या अपवाद माना जाता है। इस प्रकार साशय एवं जानबूझकर किये गये अपराध को करने के लिए एक अपराधी सामान्यतया निम्न स्तरों (Stages) से होकर गुजरता है:
(1) आशय (Intention);
(2) तैयारी (Preparation);
(3) प्रयास या प्रयत्न (Attempt);
(4) अपराध का निष्पादन (Execution) या क्रियान्वयन
( 1 ) आशय (Intention)- प्रत्येक अपराध के पीछे कोई-न-कोई आशय अवश्य होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। कारण, आशय को जन्म देता है। यदि कोई कार्य आशय के अभाव में घटित होता है तो उसे दुर्घटना (Accident) माना जाता है तथा दुर्घटना या दुर्भाग्यवश घटित घटना के फलस्वरूप होने वाली क्षति दायित्व के विरुद्ध एक सफल अपवाद या बचाव है तथा क्षम्य होता है। आपराधिक विधि में आशय से तात्पर्य दुराशय (Mens Rea) से है। आशय की परिभाषा देना कठित है परन्तु यह कहा जा सकता है कि मानव (अपराधी) के मन में किसी कार्य को करने की भावना होना ही आशय है। आशय किसी कार्य को करने की प्रथम अवस्था है जिसके पीछे कोई न कोई कारण (Cause) अवश्य होता है, जैसे वैमनस्य किसी से अपमानित होना या मुकदमेबाजी में पराजय आदि, आशय को जन्म देने के कारण हो सकते हैं।
परन्तु यह स्मरणीय है कि केवल आशय का अस्तित्व होना ही अपराध किये जाने का निश्चयात्मक सबूत नहीं होता तथा आशय का महत्व किसी कार्य के हो जाने या अपराध के घटित हो जाने के पश्चात् ही होता है क्योंकि अपराध किए जाने के पूर्व कोई भी व्यक्ति अपने आशय (इरादे) में परिवर्तन कर सकता है। परन्तु आपराधिक षड्यन्त्र इसका अपवाद है क्योंकि आपराधिक षड्यन्त्र के अपराध में केवल आशय ही दण्डनीय होता है, कार्य किया जाना आवश्यक नहीं होता।
( 2 ) तैयारी (Preparation)–‘तैयारी’ किसी अपराध को किए जाने के लिए द्वितीय स्तर (Stage) है। जब किसी व्यक्ति के मन में कोई कार्य या अपराध करने का आशय या इरादा बनता है तो उस आशय को पूरा करने की करने हेतु वह प्रेरित होता है। परन्तु यह स्मरणीय है कि तैयारी अपने आप में दण्डनीय (Punishable) नहीं है। तैयारी का महत्व अपराध घटित हो जाने के पश्चात् होता है। तैयारी के पश्चात् व्यक्ति प्रयास करता है। तैयारी तथा प्रयास में मुख्य अन्तर यह है कि तैयारी अपराध करने हेतु साधन जुटाने को कहते हैं जबकि प्रयास (Attempt) से अपराधी अपराध करने का प्रारम्भ कर चुका होता है। तैयारी के पश्चात् अपराधी को पश्चाताप करने का अवसर होता है इसीलिए तैयारी अपने आप में दण्डनीय नहीं होती (कुछ अपराध जैसे आपराधिक षड्यन्त्र या जालसाजी के अपराध को छोड़कर) परन्तु प्रयास (Attempt) से चूँकि अपराध का प्रारम्भ हो चुका होता है, अत: प्रयास दण्डनीय होता है।
हत्या के लिए साधन जुटाना, हंगामा करने के आशय से गिरोह एकत्रित करना या गृहभेदन के लिए उपयुक्त औजार एकत्रित करना, आग लगाने के आशय से माचिस, पेट्रोल, केरोसीन, कपड़ों के चीथड़े एकत्रित करना, सभी तैयारी के उदाहरण हैं। आर० बनाम: रामक्का, (1884) के बाद में एक महिला आत्महत्या के प्रयोजन से कुएँ की ओर दौड़ी, परन्तु कुएँ में कूदने के पहले पकड़ ली गई। निर्णीत हुआ कि महिला आत्महत्या के प्रयास की दोषी नहीं थी क्योंकि वह अपना विचार बदल सकती थी।
( 3 ) प्रयास या प्रयत्न (Attempt) –अपराध कारित करने के लिए आशय तथा तैयारी के पश्चात् तीसरा स्तर (Stage) प्रयास या प्रयत्न है। आशय तथा तैयारी स्वयं में दण्डनीय नहीं है। चूँकि आशय तथा तैयारी के पश्चात् भी अपराधी को पश्चाताप के अवसर प्राप्त होते हैं, आशय तथा तैयारी के पश्चात् भी व्यक्ति अपना इरादा बदल सकता है, परन्तु प्रयास या प्रयत्न तैयारी के पश्चात् की स्थिति है तथा यह दण्डनीय है।
कोई कार्य क्या प्रयत्न (प्रयास) या तैयारी है इसकी कसौटी यह है कि यदि अभियुक्त द्वारा आगे कुछ न करने पर कार्य दण्डनीय न होता तो वह अभी तैयारी की स्थिति है। परन्तु यदि परिस्थिति ऐसी है कि आगे कुछ न करने पर भी अभियुक्त द्वारा किया गया कृत्य दण्डनीय है तो यह माना जाएगा कि अभियुक्त द्वारा जो कुछ किया गया है, वह प्रयास या प्रयत्न की स्थिति है।
तैयारी (Preparation) का स्तर ( Stage) पूरा होने के पश्चात् प्रयास या प्रयत्न(Attempt) का स्तर प्रारम्भ होता है। प्रयास या प्रयत्न अपराध करने की दिशा में प्रथम कदम होता है।
यदि प्रयत्न या प्रयास की दिशा में कुछ किया गया है तो अभियुक्त दायित्व से इसलिए मुक्त नहीं हो जायेगा कि उसने प्रयत्न (प्रयास करने के पश्चात् अपराध करने का अपना इरादा बदल दिया था।
भारतीय दण्ड संहिता में प्रयास या प्रयत्न को-धारा 307 में हत्या के प्रयास, धारा 308 में आपराधिक मानव-वध करने के प्रयास में, धारा 309 में आत्महत्या करने के प्रयास तथा धारा 393 में लूट करने के प्रयास में पृथक्-पृथक् अपराध के रूप में मान्यता दी गई है। नारंगराम बनाम राजस्थान राज्य, (1979) के बाद में ‘अ’ ने एक महिला के साथ बलात्कार करना चाहा। इसके लिए ‘अ’ ने उस महिला के साथ बल प्रयोग भी किया परन्तु उस महिला द्वारा प्रतिरोध किये जाने के कारण ‘अ’ इन्द्रिय प्रवेशन न कर सका। निर्णीत हुआ कि ‘अ’ बलात्कार के प्रयत्न का दोषी था।
प्रयास या प्रयत्न (Attempt) तथा तैयारी (Preparation) में अन्तर प्रयास या प्रयत्न तथा तैयारी में अन्तर बहुत सूक्ष्म है तथा इस विषय में अवधारणा प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर की जानी चाहिए। फिर भी इनमें कुछ अन्तरों को निम्न रूप में उल्लिखित किया जा सकता है:
(a) तैयारी का तात्पर्य किसी अपराध को करने हेतु साधनों को एकत्र करना है जबकि प्रयास या प्रयत्न अपराध करने की चेष्टा करना है ।
(b) तैयारी अपने आप में कोई अपराध नहीं है परन्तु प्रयत्न या प्रयास आपराधिक कार्यों के साक्ष्य होने के कारण एक अपराध माना जाता है।
(4) अपराध का निष्पादन (Execution of Crime)-अपराध का निष्पादन या क्रियान्वयन आपराधिक कृत्य का अन्तिम चरण है। अपराध का निष्पादन वह चरण है जिसके पश्चात् कुछ करना शेष नहीं रहता। अपराध के निष्पादन तक अपराध के सभी चरण समाप्त हो जाते हैं तथा अपराध घटित होने पर किसी अन्य व्यक्ति को क्षति होती है तथा इसका पूर्ण दायित्व अपराधी पर होता है। अपराध पूर्ण हो जाने पर अपराधी दण्ड का भागी होता है।
अपराध के चारों चरणों (स्टरों) को समझने के लिए एक उदाहरण लें:
‘क’ तथा ‘ख’ के मध्यं एक खेत को लेकर विवाद चल रहा है। मुकदमेबाजी में ‘क’ की हार हो जाती है तथा खेत पर ‘क’ का कब्जा हटवाने तथा न्यायालय के निर्णय को निष्पादित करवाने हेतु ‘ख’ द्वारा कार्यवाही की जाती है। ‘क’ तथा ‘ख’ के मध्य वैमनस्य तथा दुश्मनी बढ़ जाती है। इससे ‘ख’ को मारने हेतु ‘क’ के मन में आशय जन्म लेता है। इसके पश्चात् ‘क’ के परिवार के सदस्य आपस में राय कर कुछ और व्यक्तियों को ‘ख’ को मारने के लिए योजना बनाते हैं तथा ‘क’ इस दिशा में अग्रसर होकर कुछ हथियार इकट्ठा करता है। वे लोग अवसर तलाशते हैं तथा आपस में हत्या को अंजाम देने के लिए प्रत्येक सदस्य को क्या करना है, इसकी योजना बनाते हैं। यह तैयारी का स्तर है। इसके पश्चात् ‘क’ का एक साथी योजना के अनुसार ‘ख’ को घटनास्थल तक लाने में सफल होता है तथा ‘क’ तथा अन्य कुछ लोग ‘ख’ पर लाठी तथा दण्डों से हमला बोल देते हैं। यह प्रयास या प्रयत्न है। इसी बीच उधर से पुलिस-पेट्रोल कार गुजरता है तथा ‘क’ तथा उसका एक साथी गिरफ्तार होता है तथा कुछ भागने में सफल होते हैं। यदि पुलिस न आती तो ‘क’ तथा उसके साथी ‘ख’ को हत्या करने में सफल हो जाते तथा अपराध का अन्तिम चरण-निष्पादन (Execurion) पूरा हो जाता।
मात्र तैयारी कब दण्डनीय है? (When only preparation in punishable?)- आशय तथा तैयारी सामान्य रूप से दण्डनीय नहीं हैं परन्तु निम् परिस्थितियों में मात्र तैयारी (Preparation) दण्डनीय है :
(1) भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करना; (धारा 122) (2) भारत सरकार के साथ शान्ति रखने वाले राष्ट्र में आतंक मचाने की तैयारी करना (धारा 126)
(3) कूट सिक्के (Counterfeit Coins) बनाने की तैयारी करना; (धारायें 233 235)
(4) डकैती की तैयारी करना; (धारा 399 )
(5) आपराधिक षड्यन्त्र के अपराध के लिए तैयारी की पूर्वस्थिति में आशय-मात्र दण्डनीय है।
प्रश्न 3 (ii) एक अपराध करने का प्रयत्न करने से सम्बन्धित विधि की चर्चा करें। प्रयत्न तथा एक अपराध करने की तैयारी में अन्तर स्पष्ट करें। अपने उत्तर को स्पष्ट करें।
Discuss the law relating to attempt to commit an offence. Distinguish attempt from preparation to commit an offence. Illustrate your answer.
उत्तर – प्रत्येक अपराध को करने के मुख्य चार चरण होते हैं (1) आशय; (2) तैयारी; (3) प्रयत्न तथा (4) अपराध किया जाना (आचरण) ।
आपराधिक आशय के निर्माण के पीछे किसी-न-किसी कारण का होना आवश्यक है, जैसे जमीन का झगड़ा, स्त्री मोह या प्रेम-प्रपंच, किसी का अत्यधिक कर्जदार होना तथा किसी प्रकार का विवाद होना। आशय स्वयं अपने आप में दण्डनीय नहीं है, जब तक कि आशय को अग्रसर करने के लिए कोई कार्य या अवैध कार्यलोप न किया जाय, क्योंकि आशय के पश्चात् भी किसी कारणवश आशय रखने वाला व्यक्ति कार्य से विरत रह सकता है।
आपराधिक कृत्य के लिए आशय जान लेने के पश्चात् व्यक्ति इस आशय को क्रियान्वित करने हेतु साधन जुटाने की दिशा में अग्रसर होते हैं। यह ‘तैयारी’ होती है तथा अपराध की दिशा में यह दूसरा चरण है। सामान्यतः तैयारी स्वतः दण्डनीय नहीं है परन्तु भारतीय दण्ड संहिता में तीन अपराध ऐसे हैं जिनकी तैयारी भी दण्डनीय है। ये अपराध निम्न हैं –
(1) भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करना; (धारा 122)
(2) किसी ऐसी शक्ति के राज्यक्षेत्र में लूटपाट की तैयारी करना जिसका साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध है; (धारा 126)
(3) डकैती की तैयारी करना। (धारा 399)
प्रयास या प्रयत्न अपराध करने की दिशा में तृतीय चरण होता है। तैयारी पूर्ण होने के पश्चात् अपराध का प्रयत्न प्रारम्भ हो जाता है। प्रयास या प्रयत्न (attempt) आपराधिक कृत्य की दिशा में सीधा तथा प्रत्यक्ष कदम है। अभयानन्द मिश्र बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1698 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रयत्न को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रयत्न का अपराध किया गया तब कहा जाता है जब उसका आशय कोई अपराध करना हो तथा उक्त आशय के साथ वह उस अपराध को करने की ओर अग्रसर होकर कोई कदम उठाए यह आवश्यक नहीं है कि अपराध पूर्ण रूप से इसलिए कारित नहीं हो सका क्योंकि अपराधकर्ता के नियन्त्रण से परे किन्हीं परिस्थितियों ने उसे पूरा नहीं होने दिया। अर्थात् प्रयत्न के अन्तर्गत अपेक्षित परिणाम के प्राप्त करने का प्रयास सन्निहित है। किसी अपराध के लिए तैयारी कर लेने के पश्चात् उसे पूरा करने की ओर उन्मुख होना प्रयास या प्रयत्न कहलाता है। न्यायमूर्ति अॅकिन्स के अनुसार कोई कृत्य तैयारी है या प्रयत्न (attempt) यह निर्धारित करने का सर्वोत्तम तरीका यह है कि यह देखा जाना चाहिए कि यदि अपराधी अपना विचार बदल देता है तथा कथित अपराध की ओर अग्रसर होने के लिए कोई कृत्य नहीं करता तो जितना कृत्य उसने किया है उससे जो क्षति हुई है अथवा यदि कोई क्षति नहीं हुई है तो वह तैयारी मात्र होगी परन्तु यदि क्षति हुई है तो वह प्रयत्न या प्रयास होगा अर्थात् यदि किया गया कृत्य ऐसा है कि उसे यदि रोका न जाय तो उसका परिणाम आपराधिक कृत्य होता तो वह प्रयास या प्रयत्न कहलायेगा।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 511 के अन्तर्गत प्रयत्न सिर्फ उन्हीं अपराधों के प्रयत्नों से सम्बन्धित है जो भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दण्डनीय हैं। इसका सम्बन्ध उन प्रयत्नों से नहीं है जो ऐसे अपराध को करने के लिए किये जाते हैं जिनके लिए किसी विशेष स्थानीय विधि में दण्ड का प्रावधान है।
भारतीय दण्ड संहिता में अपराधों को दण्डित किये जाने सम्बन्धी उपबन्धों को तीन उपवर्गों में विभक्त किया जा सकता है –
(1) ऐसे अपराध जिनके लिए तथा जिनके प्रयत्न के लिए एक ही धारा के अन्तर्गत एक समान दण्ड का प्रावधान है। ये धाराएँ हैं- 121, 124, 124 क, 125, 130, 131, 153-, 196, 200, 213, 239, 240, 251, 385, 387, 389, 391, 394, 397, 398 460.
(2) ऐसे अपराध जिनकी गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए उनके ‘प्रयत्न’ को हो स्वतन्त्र अपराध के रूप में दण्डनीय बनाया है। ये अपराध हैं –
(क) हत्या करने का प्रयत्न (धारा 307);
(ख) आपराधिक मानव वध करने का प्रयत्न (धारा 308) :
(ग) आत्महत्या करने का प्रयत्न (धारा 309) ; तथा
(घ) लूट करने का प्रयत्न (धारा 393)।
(3) उपर्युक्त वर्णित अपराधों के प्रयत्न के अलावा यदि किसी अपराध के प्रयत्न के लिए दण्ड संहिता की किसी धारा के अन्तर्गत प्रावधान न हो तो ऐसे अपराध के ‘प्रयत्न’ के लिए धारा 511 के अन्तर्गत दण्ड का प्रावधान है।
प्रयत्न या प्रयास तथा तैयारी में अन्तर
(Distinction between Attempt and Preparation)
प्रयत्न तथा तैयारी में अन्तर कर पाना कठिन है। परन्तु प्रयत्न तथा तैयारी में अन्त प्रत्येक बाद के तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। प्रयत्न तथा तैयारी में अन्तर स्पष्ट करते हुए न्यायमूर्ति जैकिंस ने मत व्यक्त किया है कि यदि अपराधी अपना विचार बदल देते हैं तथा प्रश्नगत अपराध करने में कोई फूल्य नहीं करते हैं तो जितना कृत्य हुआ है उससे यदि क्षति कारित होती है तो वह प्रयत्न या प्रयास माना जायेगा तथा यदि क क्षति कारित नहीं होती है तो उसका कार्य तैयारी होगा।
किसी अपराध को करने के लिए साधन जुटाना या उपायों की व्यवस्था करना तैयारी है जबकि तैयारी के पश्चात् तैयारों को कार्यरूप देने के लिए बढ़ाया गया, सीधा कदम या प्रयत्न या प्रवास माना जायेगा। फगुना भोड़ बनाम उड़ीसा (1992) में उड़ौसा उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी अपराध को कार्यान्वित करने तथा आपराधिक उद्देश्य को साध्य करने की दिशा में अंशतः आगे बढ़ाया गया कदम जो तैयारी मात्र से कुछ अधिक है परन्तु वास्तविक अपराध घटित होने की पूर्वस्थिति है प्रयत्न कहलाता है। प्रयत्न में आपराधिक आशय तथा वास्तविक कार्य दोनों तत्व विद्यमान रहते हैं।
अभयानन्द मिश्रा बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1998 नामक याद में तैयारी तथा प्रयास में अन्तर स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी अपराध की तैयारी पूर्ण करने के पश्चात् जिस आवश्यक आशय से अपराधी आगे कार्यवाही जारी रखता है तो उसी समय से वह अपराध का प्रयत्न कर देता है।
डी० बी० पी० बनाम स्टीन हाउस (1977) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्ट 909 में इंग्लैण्ड के सर्वोच्च न्यायालय, हाउस ऑफ लॉईस, ने तैयारी तथा प्रयास में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा कि प्रयत्न के अपराध में आशय का प्रतीक तथा उसका आचरण महत्वपूर्ण होता है।
किसी अपराध की तैयारी तथा प्रयत्न में अन्तर स्पष्ट करने के लिए दण्ड-शास्त्रियों ने समय-समय पर विभिन्न सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। ये सिद्धान्त निम्न हैं –
(1) निकटस्थता का नियम (Proximity Rule);
(2) असम्भाव्यता का सिद्धान्त (Theory of Impossibility)
(3) विषय-वस्तु सम्बन्धी सिद्धान्त (Object Theory)
(4) आन दि जॉब (कार्य पर) सिद्धान्त (On the Job Theory)।
(1) निकटस्थता का नियम (Proximity Rule)- यदि अपराधी ने आपराधिक कार्य की श्रृंखलाओं की कई कड़ियाँ पूरी कर ली हैं परन्तु अपराध पूरा होने में कुछ श्रृंखलाएं शेष हैं तथा अपराध पूरा नहीं हुआ है तो यह माना जायेगा कि अपराध का प्रयत्न हुआ है। हस के सिद्धान्त के अनुसार, यदि अभियुक्त ने अपराध तो पूरा नहीं किया है परन्तु अपराध पूरा करने के निकट पहुँच गया है तो उसे अपराध के प्रयास के लिए दोषी नहीं माना गया है जैसे, ‘अ’, ‘ब’ की हत्या करने के आशय से बन्दूक का घोड़ा (Trigger) दबाता है परन्तु पता चलता है कि बन्दूक में गोली नहीं थी तथा ‘ब’ बच जाता है तो भी ‘अ’ हत्या के प्रयास का दोषी माना जायेगा क्योंकि उसने अपराध कार्य पूर्ण करने हेतु जो कुछ करना उसके वश में था कर लिया था।
(2) असम्भाव्यता का सिद्धान्त (Theory of Impossibility)- पहले यह माना जाता था कि यदि एक व्यक्ति कोई अपराध करने का प्रयत्न करता है परन्तु अपराध कारित नहीं होता है तो वह व्यक्ति उस अपराध के लिए दोषी नहीं होगा साम्राजी बनाम केलिन्स के बाद में एक व्यक्ति ने चोरी के आशय से एक व्यक्ति की जेब में हाथ डाला परन्तु जेब खाली होने के कारण वह चोरी करने में असमर्थ रहा अत: उसे चोरी के अपराध का दोषी नहीं माना गया। आर० बनाम डेविड (1868) के मामले में यह निर्णय दिया गया कि यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध का प्रयत्न करता है परन्तु वह असम्भाव्यता के कारण अपराध पूर्ण नहीं कर पाता तो उसे दण्डित नहीं किया जा सकता। परन्तु उपरोक्त सिद्धान्त को आर० बनाम रिंग, (1892) के बाद में पलट दिया गया। इस बाद में अभियुक्त को चोरी करने के आशय से एक महिला के हैण्डबैग में हाथ डालने के लिए दण्डित किया गया, भले ही उस हैण्डबैग में कुछ नहीं मिला। अब आशय को महत्वपूर्ण माना गया है। उदाहरण के लिए, यदि ‘अ’, ‘ब’ को भूलवश शक्कर को संखिया समझकर दूध में देता है तो वह हत्या के प्रयत्न का दोषी नहीं होगा परन्तु यदि ‘अ’ ने ‘ब’ की हत्या करने के उद्देश्य से दूध में संखिया ही मिलाया हो परन्तु संख्यिा की अपर्याप्त मात्रा के कारण ‘ब’ न मरा हो तो ऐसी दशा में ‘अ’ हत्या के प्रयत्न के अपराध का दोषी माना जायेगा।
(3) विषय-वस्तु सम्बन्धी सिद्धान्त (Object Theory)- कोई व्यक्ति हत्या के प्रत्यत्न के लिए दोषी होगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इस कृत्य से सम्बन्धित विषय-वस्तु के बारे में कर्ता गलतफहमी या भ्रम के अन्तर्गत था। यदि वह अभियुक्त विषय-वस्तु के बारे में भ्रम में था तो वह प्रयास का दोषी होगा परन्तु यदि विषय-वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था तो वह प्रयास का दोषी नहीं होगा। जैसे यदि एक पाकेटमार किसी की जेब में पैसा चुराने के आशय से हाथ डालता है तो वह चोरी के प्रयत्न का दोषी होगा भले ही उसे जेब में कुछ न मिले। परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति की परछाई (Shadow) को शत्रु समझकर गोली चला देता है तो वह हत्या के प्रयास का दोषी नहीं माना जायेगा क्योंकि यहाँ विषय-वस्तु (शत्रु) अनुपस्थित था। उसी प्रकार यदि ‘अ’ एक महिला को गर्भवती समझकर उसे गर्भपातकारक औषधि खिला दे परन्तु वह स्त्री वास्तव में गर्भवती न हो तो वह गर्भपात के प्रयत्न का दोषी नहीं होगा क्योंकि वह महिला गर्भवती थी ही नहीं।
(4) ‘आन दि जॉब (कार्य पर) का सिद्धान्त (On the Job Theory) आर० बनाम ओस्बोर्न के मामले में अभियुक्त ने एक महिला का गर्भपात कराने के आशय से उसे गुरु गोलियाँ खिला दीं परन्तु वे पूर्णतः प्रभावहीन रहीं। यहाँ यह माना गया कि अपराधी गर्भपात करने की ओर उन्मुख नहीं हुआ, अतः वह अपराध के प्रयत्न का दोषी नहीं था। परन्तु आर० बनाम स्पाइसर (1955) के बाद में इस निर्णय को पलट दिया गया तथा अभियुक्त प्रयास का दोषी माना गया।
यदि ‘अ’, ‘ब’ की हत्या कारित करने के आशय से रात के अंधेरे में ‘ब’ के मकान में प्रवेश करके उसके सोने के कमरे में पहुँचता है और उस बिस्तर पर जहाँ ‘ब’ नित्य सोता है, यह समझकर कि वहाँ वह सो रहा है ‘अ’ उस पर गोली चला देता है परन्तु ‘ब’ उस दिन वहाँ उस बिस्तर पर न सोया होने के कारण अपराध का शिकार होने से बच जाता है. यहाँ ‘अ’ हत्या के प्रयत्न का दोषी होगा।
इसी प्रकार यदि ‘अ’, ‘ब’ के मकान में चोरी के आशय से प्रवेश करता है परन्तु ‘व’ की गरीबों को देखकर वह वहाँ सौ का नोट छोड़कर वापस आता है तो भी ‘अ’ आपराधिय अतिचार के प्रयत्न का दोषी होगा।
प्रश्न 4. (i) आपराधिक विधि में कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व से आप समझते हैं? स्पष्ट करें।
What do you understand by strict liability or absolute llability in criminal Law? Explain?
अथवा (or)
कठोर दायित्व की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
Explain the concept of Strict Liability.
उत्तर- वैसे तो किसी अपराध को नियत करने के लिए दोषी मस्तिष्क का होना आवश्यक है परन्तु कुछ ऐसे अपराध भी हैं जिसमें अभियुक्त के तरफ से किसी प्रकार के विधिक दोष की आवश्यकता नहीं पड़ती। ऐसे अपराध जिसमें अभियुक्त के दोष को आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् किसी अन्य व्यक्ति के दोष की आवश्यकता पड़ती है कठोर दायित्व के अपराध कहे जाते हैं। ये ऐसे अपराध हैं जिसमें दुराशय या उपेक्षा की आवश्यकत को पूर्णत: या आंशिक रूप में अपवर्जित कर दिया जाता है।
कठोर दायित्व के सिद्धान्त के तीन मान्यता प्राप्त अपराध हैं जैसे- लोक उपताप (Public Nuisance), वैयक्तिक अपलेख (Private libel) तथा न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) लोक उपताप (Public Nuisance)- एक नियोजक अपने नियोजित व्यक्ति के कृत्य के लिए जो बिना उसकी आज्ञा के किया गया है. सिद्धदोष हो सकता है। स्टीफेन के अनुसार-“लोक उपताप वैधिक दायित्व के निर्वाह से लोप या विधि द्वारा अनुप्रमाणित एक कार्य है जो कृत्य या लोप में बाधा उत्पन्न करता है या असुविधा उत्पन्न करता है या जनता को उसके अधिकारों जो महारानी की सभी प्रजा के लिए सामान्य है, के प्रयोग में क्षति पहुँचाता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 लोक उपताप का अपराध नियत करती है जिसका वर्णन धारा 269 से 294 (क) तक है। सामूहिक क्षति का सिद्धान्त खतरा सन्ताप रोगों का फैलाना भोज्य पदार्थों, पेय पदार्थों तथा दवाइयों में मिलावट अश्लील पुस्तकों को बेचना, लाटरी कार्यालय का रखना आदि का अधिनियम में प्रयोग सुनहले धागे के समान है। परन्तु भारतीय विधि अपराध के इन प्रकरणों में पुरानी मान्यताओं द्वारा नियन्त्रित होती है। उदाहरण के लिए लगभग एक शताब्दी पूर्व हिकलिन के बाद में प्रतिपादित सिद्धान्त आज भी कार्यवाहियों को नियन्त्रित करता यद्यपि अश्लील पुस्तकों के विक्रय से सम्बन्धित धारा में परिवर्तन हो चुका है। रंजीत डी उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 881 के बाद में न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी अपराध को पूर्ण होने के लिए। साधारण दुराशय की आवश्यकता होती है। मामले की परिस्थितियाँ आपराधिक आशय का निर्धारण करती हैं। धनात्मक साक्ष्य देने की आवश्यकता है। परन्तु यह निर्णय सीमागत धामलों में सन्देह उत्पन्न करता है यहाँ तक कि धारा 212 में किया गया संशोधन हिकलिन के प्रभाव को कम करने में असफल रहा।
वैयक्तिक अपलेख (Private libel)—वैयक्तिक अपलेख का पूर्ण सिद्धान्त अपलेख अधिनियम, 1843 (libel Act 1843) के उपबन्धों द्वारा संकुचित कर दिया गया है जो किसी समाचार पत्र के मालिक को बचाव प्रदान करता था अन्यथा जो पूर्ण दायित्वाधीन था। यदि यह सिद्ध हो जाये कि आरोपित हानिकारक वक्तव्य उसकी तरफ से बिना किसी विद्वेष या उपेक्षा के प्रकाशित हुआ था, उसने उस वक्तव्य के लिए खेद व्यक्त कर दिया है। भारत में समाचार पत्र का मालिक केवल तब दायित्वाधीन है जब यह सिद्ध हो जाये कि अपमानजनक प्रकाशन आशय से किया गया था यद्यपि समाचार पत्र या पत्रिका उसके द्वारा नियुक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा सम्पादित हुई थी। अब यहाँ समाचार पत्र चलाने तथा प्रकाशन की नीति मालिक द्वारा ही तय की जाती है। केवल सम्पादक की गलती ही मालिक को दायित्व से बचा सकती है। भगत सिंह बनाम लक्ष्मण सिंह, आई० आर० 1968 कल० 2961,
मानहानि पर भारतीय विधि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 तथा 500 में वर्णित है। परन्तु भारतीय विधि के उपबन्धों के अधीन लगाया गया आरोप पूर्ण दायित्व का मामला नहीं बनता।
न्यायालय की मानहानि (Contempt of Court)- न्यायालय की मानहानि के प्रकरण में पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त लगभग नया है। आर० बनाम इवनिंग स्टैन्डर्ड, (1954) 1 क्यू० वी 578 के बाद में प्रतिवादी, समाचार पत्र ने एक आपराधिक विचारण में साक्ष्य की एक गलत रिपोर्ट प्राप्त किया तथा जूरी द्वारा उसके अध्ययन के पूर्व ही प्रकाशित कर दिया। सम्पादक की गलतियों का ज्ञान नहीं था फिर भी समाचार पत्र को मानहानि के लिए सजा हो गयी क्योंकि जूरी प्रकाशित गलत तथ्यों से प्रभावित हो सकती थी तथा समाचार पत्र के अधिकारियों को ज्ञात होना चाहिए था कि कार्यवाहियाँ चल रही थीं। इस विषय पर भारतीय विधि न्यायालयों को मानहानि सम्बन्धी अधिनियम, 1952 में वर्णित है।
इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय मानहानि करने वाले व्यक्ति को सजा दे सकता है। इसी प्रकार वह सजा देने का अधिकारी है यदि मानहानि किसी अधीनस्थ न्यायालय की हुई हो। न्यायालय की भानहानि न्यायालय में होने वाले कुप्रभाव से उत्पन्न होती है। न्यायालय को निन्दा का विषय बनाना न्यायालय के सम्मुख दूसरे पक्ष को गाली देना या मनुष्य मात्र को उसके हित के विरुद्ध क्षति पहुँचाना आदि अनेक प्रकार की अधिनियम में कल्पित मानहानियाँ हैं। न्यायालय के विरुद्ध व्यक्तिगत आक्षेप करना या न्यायपालिका के समूचे ताने-बाने का अपमान करना पूर्ण दायित्व को जन्म देता है। न्यायाधीशों पर अनुचित हेतु थोपना उचित एवं सद्भावपूर्ण समीक्षा की सीमा को पार करना घोर मानहानि के तुल्य है। न्यायाधीश की योग्यता पर आक्षेप करना न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम करना है।
अपहरण (Abduction) – कॉमन लॉ में प्रचलित दुराशय के आवश्यक तत्वों जो किसी अपराध के लिए अनिवार्य हैं को समाप्त करने में इंग्लैण्ड की संसद सक्षम नहीं मानी जाती थी। न्यायालय के दृष्टिकोण में पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त में परिवर्तन सन् 1875 में आर० बनाय प्रिंस, 1875 एल० आर० 2 सी० सी० आर० 154 के बाद में हुआ था। इस प्रकरण में अभियुक्त एक लड़की का अपहरण करने के सिलसिले में दोषी पाया गया। यद्यपि दुराशय के सन्दर्भ में वह दोषहीन था। प्रिंस के बाद में अभियुक्त को इसलिए सजा हुई क्योंकि प्रचलित सिद्धान्त यह था कि जो व्यक्ति किसी लड़की का अपहरण करता है वह जहाँ तक लड़की की उम्र का कथन है, अपने को खतरे में डाल कर करता है। भारत में प्रिंस जैसे प्रकरण दण्ड संहिता की धारा 363 के अन्तर्गत विचारणीय हैं और अभियुक्त का यह बचाव कि लड़की की शारीरिक बनावट इस प्रकार की थी कि वह वयस्क दिखती थी इसी कारण अभियुक्त ने विश्वास किया कि वह सहमति देने के योग्य है। किन्तु न्यायालय ने इस अपराध को Male in se (परम्परागत अपराध) मानते हुए उसके तर्क को अस्वीकार करके कठोर दायित्व के सिद्धान्त को अपनाते हुए अभियुक्त को दण्डित किया।
प्रश्न 4 (ii). निम्न में अन्तर स्पष्ट करें –
(a) आशय एवं हेतु;
(b) अपराध एवं अपकृत्य;
(c) अपराध एवं संविदा भंग;
(d) तथ्य की भूल तथा विधि की भूल ।
Distinguish between any two of the following:
(a) Intention and Motive;
(b) Crime and Tort;
(c) Crime and Breach of Contract;
(c) Mistake of Fact and Mistake of law.
उत्तर (a)–आशय तथा हेतु (Intention and Motive) में अन्तर –
आशय (Intention)
(1) आशय इच्छा की वह कार्यवाही है जो किसी प्रत्यक्ष कार्य को निदेशित करता है।
(2) आशय निकटस्थ उद्देश्य को इंगित करता है।
(3) आशय का क्षेत्र विस्तृत है।
हेतु (Motive)
(1) हेतु (प्रयोजन) वह संवेग है जो इच्छा की कार्यवाही को प्रोत्साहित करता है या इच्छुक व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य है।
(2) जबकि हेतु आशय के मूल में स्थित दूरस्थ उद्देश्य को इंगित करता है।
(3) हेतु आशय का एक रूप है।
(b) अपराध तथा अपकृत्य (Crime and Torts) में अन्तर –
अपराध (Crime)
(1) अपराध में कर्त्तव्य राज्य द्वारा निर्धारित होते हैं।
(2) अपराध में जो कार्यवाही की जाती है वह आपराधिक न्यायालय में होती है।
(3) अपराध में अपराधी को शारीरिक दण्ड या जुर्माना या दोनों दिया जाता है।
(4) अपराध का प्रभाव समाज अथवा जनसामान्य पर पड़ता है।
(5) अपराध में कार्यवाही का अधिकार राज्य को होता है।
अपकृत्य (Torts)
(1) अपकृत्य में कर्त्तव्य विधि द्वारा निर्धारित होते हैं।
(2) अपकृत्य में जो कार्यवाही की जाती है वह सिविल न्यायालय में होती है।
(3) अपकृत्य में केवल क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है।
(4) अपकृत्य का प्रभाव किसी व्यक्ति विशेष अथवा व्यक्तियों के समूह पर पड़ता है।
(5) अपकृत्य में कार्यवाही का अधिकार उसी व्यक्ति को होता है जिसके अधिकार का उल्लंघन हुआ है।
(c) अपराध एवं संविदा भंग (Crime and Breach of contract) अपराध एवं संविदा– भंग में अंतर को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है –
(1) अपराध में कर्त्तव्य राज्य द्वारा निर्धारित होते हैं जबकि संविदा में कर्त्तव्यों का निर्धारण संविदा के पक्षकार करते हैं।
(2) अपराध में कार्यवाही आपराधिक न्यायालय में होती है जबकि संविदा भंग में कार्यवाही सिविल न्यायालय में होती है।
(3) अपराध में अपराधी को शारीरिक दण्ड दिया जाता है जबकि संविदा, भंग में क्षतिपूर्ति जिसकी मात्रा पूर्वनिश्चित होती है प्रतिकर के रूप में देनी पड़ती है।
(4) अपराध में कार्यवाही का अधिकार राज्य को होता है जबकि संविदा भंग में कार्यवाही का अधिकार पक्षकारों को होता है।
(5) अपराध में प्रभाव समस्त समाज अथवा जनसामान्य पर पड़ता है जबकि संविदा भंग में केवल व्यक्ति विशेष ही प्रभावित होता है।
(6) अपराध में नुकसानी दण्डात्मक होती है जबकि संविदा भंग में नुकसानी प्रतिकारात्मक होती है।
(d) तथ्य की भूल तथा विधि की भूल (Mistake of Fact and Mistake of Law) में अन्तर –
तथ्य की भूल (Mistake of Fact)
(1) जब कोई व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता है जिसे करने के लिए तथ्य की भूल के कारण अपने को आबद्ध समझता है तो वह अपराध नहीं होता अर्थात् तथ्य की भूल क्षम्य होती है।
उदाहरण- एम्परर बनाम वरियम सिंह, (1929) अभियुक्त जब आधी रात में एक जगह जा रहा था, रास्ते में वहाँ, आस-पास किसी गाँव का कोई अनुमान नहीं किया जा सकता था, कुछ लोगों को रोशनी में नाचते हुए देखा। अभियुक्त ने उन्हें भूत-प्रेत समझकर गोली चला दी जिससे एक व्यक्ति मारा गया। अभियुक्त को तथ्य की भूल का बचाव मिला।
(2) तथ्य की भूल में दुराशय का अभाव होता है इसलिए तथ्य की भूल क्षम्य है।
विधि की भूल (Mistake of Law)
(1) विधि की भूल क्षम्य नहीं होती क्योंकि यदि विधि की भूल को बचाव में स्वीकार कर लिया जाय तो हर अपराधी बचाव का तर्क उठाएगा कि वह नहीं जानता था कि उसके द्वारा किया गया कृत्य अपराध था। इस प्रकार कोई भी अपराधी न्यायालयों द्वारा अपराधी नहीं ठहराया जा सकेगा।
(2) विधि की भूल में भी दुराशय के तत्व का अभाव होता है परन्तु विधि की भूल को बचाव में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 5. (क) सामान्य आशय से आप क्या समझते हैं? सामान्य आशय के आवश्यक तत्वों की विवेचना कीजिए।
What do you understand by common intention? Discuss the essential elements of common intention.
उत्तर – सामान्य आशय- सामान्य आशय से तात्पर्य है चित्त का मिलन, जब कई व्यक्तियों को किसी कार्य को करने में उस कार्य के आशय की जानकारी हो तो कहा जायेगा कि उनके चित्त का मिलन है। अतः सबका सामान्य आशय है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 में प्रावधान किया गया है कि सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गये कार्य अथवा जबकि कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह कार्य अकेले उसी ने किया हो।
धारा 34 सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करती है जहाँ पर कई व्यक्तियों का एक ही सामान्य आशय है तो ऐसे व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति उस सामान्य आशय को आगे बढ़ाने के लिए कोई आपराधिक कार्य करता हो तो ऐसे आपराधिक कार्य के लिए उन अन्य सभी व्यक्तियों में से वह व्यक्ति जिसने वह आपराधिक कार्य किया हो, प्रत्येक व्यक्ति अलग अलग उसी आपराधिक कार्य को करने के लिए उत्तरदायी होगा जैसे वह कार्य अकेले उसी ने किया हो।
महेश तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2012) सु० को० 2172 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 34 के सन्दर्भ में एक बार पुनः स्पष्ट किया कि इस धारा में आपराधिक विधि के अन्तर्गत आन्वयिक दायित्व के सिद्धान्त को समाविष्ट किया गया है जिसके अनुसार जहाँ दो या अधिक व्यक्ति कोई अपराध कृत्य संयुक्त रूप से सामान्य आशय सहित करते हैं, तो यह माना जायेगा कि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति ने वह कृत्य वैयक्तिक रूप से किया है, भले ही वास्तव में वह कृत्य उनमें से एक या कुछ व्यक्तियों ने ही कारित किया हो और उसमें सभी सक्रिय रूप से शामिल न रहे हों।
अतः धारा 34 लागू होने के लिए सभी व्यक्तियों के चित्त का मिलन आवश्यक है। सामान्य आशय के निम्न आवश्यक तत्व हैं-
(1) एक आपराधिक कार्य किया गया हो,
(2) आपराधिक कार्य एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया गया हो,
(3) कार्य करने वाले व्यक्तियों में सामान्य आशय हो,
(4) कार्य सामान्य आशय को अग्रसर (क्रियान्वित) करने के लिए किया गया हो।
1. कोई आपराधिक कार्य- यहाँ केवल आपराधिक कार्य से सीमित नहीं है। कार्य का अर्थ अवैध लोप की तरफ भी इंगित करता है तथा इसमें एक से अधिक कार्य और अवैध लोप भी सम्मिलित हैं। जैसे-यदि ‘अ’ की हत्या करने के सामान्य आशय से ‘क’ दरवाजे पर चौकीदार की तरह खड़ा हो जाता है, ‘ख’ ‘अ’ को दबोच लेता है और ‘ग’, ‘अ’ पर छूरे से कई वार करता है तो इन सभी के कार्यों में भिन्नता तो है पर वे सभी हत्या करने के सामान्य आशय को अग्रसर करने के दोषी है।
2. कई व्यक्तियों द्वारा – यह उपबन्ध संयुक्त दायित्व के सिद्धान्त से सम्बन्धित है, जिसमें कम से कम दो अपराधी अवश्य सम्मिलित रूप से अपराध कारित करें।
3. कार्य करने वाले व्यक्तियों में सामान्य आशय का होना- इस धारा में सामान्य आशय से तात्पर्य है अपराध में सम्मिलित व्यक्तियों के चित्त का मिलन होना। यह तभी “सम्भव होगा जब वे सभी पूर्व नियोजित योजना पर एकमत हों और उसी आशय को अग्रसर करने में कार्य किया गया हो अर्थात् सामान्य आशय के लिए दो बातों का होना आवश्यक है –
(a) पूर्व नियोजित योजना (Pre-arranged Plan)
(b) दिमागों का मेल (Meeting of Minds)
कश्मीरा सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० (1979) मु० को० 1435 के मामले में तीन अभियुक्तों को धारा 302/34 के अन्तर्गत हत्या के लिए सिद्धदोष किया गय क्योंकि साक्ष्य के आधार पर यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका था कि तीनों अभियुक्तों में मृतक जोगेन्दर सिंह की हत्या कारित करने को पूर्व योजना बनाई थी तथा इस हेतु वे तीनो हथियारों से लैस होकर एक साथ घटनास्थल पर आये तथा इनमें से एक ने मृतक पर गोली से वार किया था। उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि उसके विचार से धारा 34 लागू किये जाने का इससे बढ़कर कोई अन्य मामला उद्धृत नहीं किया जा सकता।
मणिक दास तथा अन्य बनाम असम राज्य, ए० आई० आर० (2007) सु० को० 2276 के बाद में परिवादी ने एफ० आई० आर० दर्ज कराई कि दिनांक 27 दिसम्बर, 2000 को दिन के लगभग 11 बजे अभियुक्त मणिकदास ने अपने दो पुत्रों तथा अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर परिवादी के भाई अनिल दास पर भाले से प्राणघातक हमला किया जिसके कारण अनिल दास की अस्पताल ले जाते समय मृत्यु हो गई। अभियुक्तों के विरुद्ध धाग 302/147 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन आपराधिक प्रकरण संस्थित किया गया तथा दिनांक 13 मई, 2002 को उनके विरुद्ध चालान पेश हुआ। दिनांक 13 नवंबर, 2003 को जोरहट के सत्र न्यायाधीश द्वारा अभियुक्तों के विरुद्ध धारा 302/34 के अन्तर्गत विचारण प्रारम्भ किया गया। चूंकि मृतक के शरीर पर पाई गई चोटों तथा पोस्ट मार्टम रिपोर्ट, दोनों ही साक्षियों एवं चक्षुदर्शी गवाहों के बयानों की पुष्टि करती थीं इसलिए विचारण न्यायालय ने पाँच में से चार अभियुक्तों को दोषसिद्धि कर दी जबकि पाँचवें अभियुक्त की घटना स्थल पर उपस्थिति मात्र के सिवाय अपराध में शामिल होने के कोई सबूत न होने के कारण उसे दोषमुक्त कर दिया गया। अपोल में उच्च न्यायालय ने भी विचारण न्यायालय के निर्णय को बहाल रखा गया। उसके विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्तों के अपराध की चक्षुदर्शी गवाहों द्वारा दी गई साक्ष्य से पुष्टि होने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध थे, अतः अपील में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य नहीं था, इस कारण अपील नामन्जूर कर दी गई।
4. कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो – वह आपराधिक कार्य जो अपने सभी के सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया गया हो, उन व्यक्तियों को सामान्य रूप से उत्तरदायी ठहराता है।
अपराध में भाग लेने वाले हर व्यक्ति की उपस्थिति उन सभी के विश्वास को बढ़ाती है। और इसलिए यह उपबन्ध उन सभी अपराधियों के दायित्वों में अन्तर नहीं करता।
महबूब शाह बनाम एम्परर, ए० आई० आर० 1945 पी० सी० 118 के बाद में मृतक ‘क’ और उसके मित्र एक नाव पर सवार होकर उस पर सरकण्डे इकट्ठा करने जा रहे थे। अभियुक्तों में से एक ने रास्ते में आगाह किया लेकिन मृतक व उसके साथी नहीं माने, वापस लौटने पर अभियुक्त ने गोली मारकर उसकी हत्या कर और वहाँ से भाग निकला। न्यायालय ने धारित किया कि वह सामान्य को अग्रसर करने में हत्या का वाद नहीं क्योंकि उनके बीच चित्त का पूर्व मिलन नहीं था।
मुकुन्द मुरारी बनाम एम्परर, (1934) 61 कलकत्ता 190 के मामले में अभियुक्त लूट कारित करने के आशय से एक दुकान में घुसे जब दुकानदार सहायता के लिए चिल्ला या तो कुछ ग्रामीण उसको सहायता के लिए पहुंचे। बगैर लूट कारित किये ही अभियुक्त वहाँ से भाग निकले। कुछ ग्रामीणों ने भागते हुए अभियुक्तों का पीछा किया जिन पर अभियुक्तों ने गोलियाँ चलायीं जिससे पीछा करने वाले एक व्यक्ति को मृत्यु हो गयी। सभी अभियुक्तों को विवक्षित सामान्य आशय के अग्रसर करने में हत्या करने के आधार पर दण्डित किया गया।
सुदीप कुमार सेन उर्फ बिट्टू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य, ए० आई० आर० (2016) सु० को० 310 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने उन दशाओं का पुनः उल्लेख किया जब धारा 34 के प्रावधान आकर्षित होते हैं। न्यायालय के अनुसार जहाँ एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किये गये आपराधिक कृत्य के अनुक्रम में कोई व्यक्ति अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा कारित अपराध के लिए दायित्वाधीन होता है, यदि वह कृत्य उन सभी व्यक्तियों के सामान्य उद्देश्य के अग्रेषण में किया गया हो तो उस दशा में धारा 34 के अधीन उन सभी पर संयुक्त आपराधिक दायित्व अधिरोपित किया जायेगा।
इस मामले में अपीलार्थीगण फ्लेट वासियों से अवैध रूप से धनराशि उद्दापित कर रहे थे। जब मृतक सैकत साहा ने इसका विरोध किया तो सभी अपीलार्थियों से, जो आग्नेय-अस्त्रों से लैस थे, उसकी झड़प हो गई जिस दौरान उनमें से एक ने मृतक पर फायर किया जिससे मृतक की मृत्यु हो गई। सभी साक्षियों ने इस सामूहिक अवैध जैसे उगाही की पुष्टि की तथा अपोलार्थियों में से एक द्वारा मृतक पर गोली चलाई जाने की साक्ष्य को अपील खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने सभी अपीलार्थियों के द्वारा 302/34 के अन्तर्गत दोषसिद्धि को उचित ठहराया।
प्रश्न 5. (ख) निर्णीत वादों की सहायता से आपराधिक दायित्व के सिद्धान्तों की चर्चा करें। जब एक अपराध कुछ व्यक्तियों के समूह द्वारा किया जाता है?
Discuss the principles of criminal liability with the help of decided cases, when an offence is committed by a group of persons?
उत्तर- जब कोई अपराध एक व्यक्ति विशेष द्वारा कारित न होकर व्यक्तियों के एक समूह (Group) द्वारा किया जाता है तो उस समूह का प्रत्येक व्यक्ति उस अपराध के लिए संयुक्त रूप से अन्य अपराधियों के साथ दण्डित किया जाता है। उसे संयुक्त आपराधिक दायित्व का सिद्धान्त कहते हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 संयुक्त दायित्व (Joint Liability) के सिद्धान्त को उपबन्धित करती है। धारा 34 के अनुसार जब अनेक व्यक्ति मिलकर अपने सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए कोई अपराध करते हैं तो उनमें से प्रत्येक उस अपराध कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्वाधीन होता है मानो वह कार्य उसने अकेले ही किया हो। यह धारा उन परिस्थितियों में लागू होती है जहाँ यह साबित हो जाता है कि किसी अपराध को करने में अनेक व्यक्तियों का सामान्य आशय विद्यमान था। धारा 34 से 38 तक उन मामलों में लागू होती है जहाँ कई व्यक्ति संयुक्त रूप से अपराध करने के सामान्य आशय से एकत्रित हुए हों।
धारा 34 से 38 तक जिन संयुक्त आपराधिक दायित्व के सिद्धान्तों को अन्तर्निहित किया गया है, वे सिद्धान्त निम्न हैं –
(1) सामान्य आशय को अग्रसर करने हेतु अनेक व्यक्तियों द्वारा किया गया आपराधिक कार्य (धारा 34);
(2) आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया कार्य (धारा 35 व 36);
(3) अपराध माने जाने वाले कार्य में सहयोग (धारा 37 );
(4) अपराध – कार्य से सम्बन्धित व्यक्ति अलग-अलग दोषी हो सकते हैं (धारा 38)।
चूंकि यदि कोई अपराध कई व्यक्तियों ने मिलकर किया है, अत: यह साबित करना सम्भव नहीं हो पाता कि जिस व्यक्ति ने उस अपराध में क्या और कौन-सा भाग सम्पादित किया है, अतः सभी व्यक्तियों को एक अपराध के लिए संयुक्त रूप से दोषी माना जाता है। दूसरे एक अपराध को संयुक्त रूप से करने वाले सह-अपराधी आपस में एक-दूसरे के अभिकर्ता (agents) माने जाते हैं, अत: इनमें से एक व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य दूसरे व्यक्ति का कार्य माना जाता है।
इस प्रकार धारा 34 किसी अपराध की परिभाषा नहीं देती परन्तु यह संयुक्त दायित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन मात्र करती है। इस धारा में एक नियम प्रतिपादित किया गया है जिसके अनुसार, यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से आशय सहित कोई अपराध कार्य करते हैं तो उस कार्य के परिणाम के बारे में ऐसा माना जायेगा कि मानो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति ने व्यक्तिगत रूप से वह अपराध किया है। यदि अनेक व्यक्ति किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामान्य आशय सहित कार्य करते हैं तो उनमें से प्रत्येक को उस कार्य के लिए दोषी माना जायेगा।
अतः धारा 34 में मामला लाने के लिए यह साबित करना अति आवश्यक है कि अपराध-कार्य में सम्मिलित व्यक्तियों का सामान्य आशय एक ही था तथा सामान्य आशय के अभाव में सामान्य योजना के परिवर्धित भाग के आधार पर किसी अपराध कार्य में सम्मिलित प्रत्येक व्यक्ति को धारा 34 के अन्तर्गत दोषी नहीं माना जा सकता।
धारा 34 के अन्तर्गत दोषी सिद्ध करने हेतु अभियुक्त के विरुद्ध दो बातें साबित की जानी आवश्यक हैं –
(1) यह कि अभियुक्त का अपराध में शामिल अन्य व्यक्तियों के साथ पूर्व नियोजित कार्य में सामान्य आशय विद्यमान था
(2) यह कि अभियुक्त ने अन्य शामिल व्यक्तियों के साथ मिलकर अपराध-कार्य में किसी-न-किसी रूप में योगदान किया था।
अर्थात् धारा 34 के अन्तर्गत संयुक्त दायित्व के लिए समूह में शामिल व्यक्तियों का सामान्य आशय तथा अपराध कर्म में योगदान दोनों तत्व साथ-साथ होने चाहिए।
धारा 34 द्वारा इस सामान्य सिद्धान्त (General Principle) को मान्यता दी गई है कि यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति आशय सहित कोई कार्य संयुक्त रूप से करते हैं यह उसी प्रकार होगा जैसे कि वह कार्य उनमें से प्रत्येक ने व्यक्तिगत रूप से किया हो।
शिवराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1972 सी० 2555 एस० नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि सामान्य आशय के लिए पूर्वनियोजित योजना में शामिल होना या पूर्वनियोजित योजना का ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। सामान्य आशय घटना के दौरान अचानक उत्पन्न हो सकता है। परन्तु जब तक अभियुक्त के विरुद्ध सामान्य आशय के ज्ञान का ठोस सबूत न हो उसे धारा 34 के अन्तर्गत दोषी नहीं माना जा सकता।
धारा 34 के अन्तर्गत सामान्य आशय अपरिहार्य तत्व है। इस सामान्य आशय के निम्न आवश्यक पटक है –
(1) कोई अपराध घटित हुआ हो;
(2) प्रश्नगत अपराध एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया गया हो;
(3) उस अपराध में योगदान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सामान्य आशय हो;
(4) प्रश्नगत अपराध उन व्यक्तियों के सामान्य आशय को अग्रसर किये जाने हेतु किया गया हो।
(1) आपराधिक कार्य घटित होना – सिर्फ एक से अधिक व्यक्तियों का एक समान आशय होने मात्र से धारा 34 का अपराध घटित नहीं होता। यह आवश्यक है कि समूह के जिस कार्य को करने का सामान्य आशय था वह कार्य वास्तविक रूप से घटित हुआ है अर्थात् कई व्यक्तियों ने संयुक्त रूप से मिलकर किसी कार्य को सम्पन्न किया हो। एक कार्य का अर्थ उस कार्य को घटित करने में सहायक आनुषंगिक (Incidental) कार्यों से भी है। यदि एक कार्य करने में कई कार्यों की श्रृंखला का समावेश है तथा समूह के व्यक्तियों ने इस श्रृंखला की किसी-न-किसी कड़ी को सम्पन्न किया है तो वे सम्पूर्ण कार्य के लिए संयुक्त कार्य से उत्तरदायी होंगे।
राज्य बनाम हीरा दूबे, (1951) नामक वाद में यदि एक व्यक्ति एक व्यक्ति पर लाठी से हमला करते हैं तो सभी व्यक्ति उत्तरदायी होंगे, भले ही मृतक एक व्यक्ति की लाठो की चोट से मरा हो।
(2) आपराधिक कार्य में एक से अधिक व्यक्तियों का होना – धारा 34 के अन्तर्गत अपराध एक व्यक्ति द्वारा गठित नहीं हो सकता, इसमें एक से अधिक व्यक्तियों का योगदान होना आवश्यक है।
इस प्रकार नन्दू बनाम धनेश्वर नायक, (1976) के वाद में एक अपराध में सम्मिलित एक को छोड़कर सभी व्यक्तियों को सन्देह का लाभ देकर दोषमुक्त कर दिया गया। इसमें न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक अकेले बच्चे व्यक्ति को धारा 34 के आधार पर सम्पूर्ण अपराध के लिए दोषी नहीं माना जा सकता।
(3) सामान्य आशय का होना- धारा 34 के लागू करने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अपराध सामान्य आशय की अभिवृद्धि (furtherance) के लिए किया गया था।
महबूब शाह बनाम सम्राट् (1945) 72 आई० ए० 148 (पी० वी०) में प्रिवी काउन्सिल ने धारा 34 के सन्दर्भ में सामान्य आशय के विषय में निम्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं –
(1) सामान्य आशय के लिए विचारों को समरूपता होना आवश्यक है।
(2) यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अपराध में सम्मिलित अनेक व्य में से सभी ने उस सामान्य आशय को आगर करने हेतु वह अपराध किया है।
(3) सामान्य आशय के लिए कार्य पूर्ण योजनाबद्ध तरीके से किया गया हो।
(4) अपराधी के आशय के बारे में प्रत्यक्ष साक्ष्य जुटा पाना असम्भव नहीं तो कठिन आवश्यक होता है। अधिकांश मामलों में आशय का अनुमान अपराधी के कृत्य अपराधी के आचरण तथा अन्य सुसंगत परिस्थितियों के आधार पर ही लगाया जा सकता है।
(5) धारा 34 के सन्दर्भ में सामान्य आशय तथा एक ही आशय के मध्य भेद किया जाना आवश्यक है।
सामान्य आशय तथा एक ही आशय – यदि एक से अधिक व्यक्ति बिना पूर्व योजना के एक व्यक्ति को मार डालने के उद्देश्य से हमला करते हैं तो यह कहा जायेगा कि उनका आशय एक ही था परन्तु यदि कई व्यक्ति पूर्व योजना के अन्तर्गत पूर्वनिर्धारित आशय के साथ किसी व्यक्ति पर हमला करते हैं तो यह कहा जायेगा कि वे सामान्य आशय के अन्तर्गत कार्य कर रहे थे विभिन्न व्यक्तियों का उद्देश्य एक ही हो सकता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह सामान्य आशय हो जब तक कि वे पूर्व योजनाबद्ध तरीके से कार्य नहीं करते। परन्तु यह कदापि आवश्यक नहीं है कि इनमें पहले से आपस में योजनाबद्ध तरीके से बातचीत हुई हो। सामान्य आशय के लिए अभिकर्ताओं के मस्तिष्क का पारस्परिक मिलन (meeting of minds) होना आवश्यक है। सामान्य आशय के लिए व्यक्तियों का एकमत होना पर्याप्त है।
इस प्रकार यदि एक परिवार के एक सदस्य के साथ एक व्यक्ति का झगड़ा हो रहा है, और परिवार के अन्य सदस्य भी घटनास्थल पर पहुँच जाते हैं तथा उस व्यक्ति को सभी मिलकर मारने लगते हैं। यहाँ उन सभी का एक ही आशय है, उस व्यक्ति को मारना। परन्तु यदि ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ एक परिवार के सदस्य हैं तथा आपस में मिलकर ‘घ’ को मार डालने का निर्णय लेते हैं तथा इस निर्णय को कार्यान्वित करने हेतु ‘घ’ पर हमला कर देते हैं और ‘घ’ की मृत्यु हो जाती है, यहाँ ‘क’, ‘ख’ तथा ‘ग’ सामान्य निर्णय या सामान्य आशय के अन्तर्गत कार्य करते हैं।
मोहम्मद मूसा मियां बनाम पश्चिम बंगाल (1993) के मामले में एक व्यक्ति ने मृतक को पकड़ रखा था। उसके साथी ने मृतक को छूरा भोंपकर मारा तथा पकड़ने वाले व्यक्ति ने भी मृतक को छूरा मारा। यहाँ दोनों व्यक्ति सामान्य आशय के लिए हत्या के अपराध के लिए धारा 302/34 के अन्तर्गत दण्डित किये गये।
(4) कोई कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो- धारा 34 का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि अपराध कार्य उन व्यक्तियों के सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो जो उस अपराध में शामिल हों।
तेजराम बनाम राज्य, ए० आई० आर 1980 एस० सी० 1496 नामक बाद में एक अभियुक्त के पास तेज धार वाला हथियार था, जबकि दूसरे के पास सिर्फ लाठी थी। मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार मृत्यु धारदार हथियार से हुई थी परन्तु चूँकि दोनों सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए कार्य कर रहे थे, अत: दोनों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अन्तर्गत दण्डित किया गया।
कोई कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करता है या नहीं यह आशय तथा कार्य की प्रकृति पर निर्भर करेगा। यह तथ्य सम्बन्धी प्रश्न है, जो घटना की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
नागराज बनाम कर्नाटक राज्य, ए० आई० आर० (2009) सु० को ० 1522 के मामले में हत्या शराबखाने में हुई थी। ऐसा कोई सबूत नहीं था जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अभियुक्तगण एक साथ वहाँ आये थे और एक साथ भागे। अभियुक्त उस शराबखाने का कर्मचारी था जबकि अभियुक्त-2 शराब बाँटता था। मृतक एक किसान था जिसका मंदिरालय में अभियुक्त-1 से किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया जिसमें अभियुक्त-1 ने मृतक के सिर पर लोहे की छड़ से वार किया। घायल मृतक को अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त 3 जो वहाँ का ग्राहक था ने मृतक को लातों से मारा था। परन्तु ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अभियुक्तगणों का मृतक की हत्या करने का आशय था। अतः उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थी की धारा 302/34 के अधीन की गई दोषसिद्धि को धारा 323 में परिवर्तित कर दिया। न्यायालय ने अभिकथन किया कि अभियुक्तों की मृतक से कोई पुरानी दुश्मनी होने पर भी इतने मात्र पर यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि उनका मृतक की हत्या करने या उसे घोर उपहति कारित करने का सामान्य आशय था।
शंकर लाल बनाम गुजरात राज्य, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 1260 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि धारा 34 में अपराध एक से अधिक व्यक्तियों के मेल से किये गये कार्य का परिणाम होता है। यदि परिणाम की प्राप्ति सामान्य आशय को अग्रसर करने से हुई हो तो प्रत्येक व्यक्ति उसी प्रकार दायित्वाधीन होगा जैसे कि अपराध उसने स्वयं किया हो।
सामान्य आशय (धारा 34 ) एवं सामान्य उद्देश्य (धारा 149) में अन्तर –
सामान्य आशय (धारा 34 )
(1) सामान्य आशय के लिए यह आवश्यक है कि सभी अभियुक्तों ने पूर्वनियोजित योजना के अनुसार मस्तिष्क के मिलन ( एक ही विचार) के अन्तर्गत कार्य किया हो।
(2) सामान्य आशय के लिए आवश्यक है कि समूह के प्रत्येक व्यक्ति ने अपराध करने में सक्रिय योगदान किया हो।
(3) सामान्य आशय के अपराध के लिए यह आवश्यक है कि समूह के सदस्यों की संख्या एक से अधिक हो ।
(4) ‘सामान्य आशय’ शब्द परिभाषित नहीं किया गया है, अत: इसका क्षेत्र अधिक व्यापक है।
(5) सामान्य आशय धारा 34 के अन्तर्गत किसी दण्ड का प्रावधान नहीं करता परन्तु सिर्फ संयुक्त दायित्व के सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है अर्थात् धारा 34 केवल साक्ष्य का एक नियम है।
(6) धारा 34 के अन्तर्गत अभियुक्त का मानसिक तथा शारीरिक सहयोग आवश्यक है।
सामान्य उद्देश्य ( धारा 149 )
(1) सामान्य उद्देश्य तब माना जायेगा जब उस अभियुक्त को उस मृत्यु के स्वाभाविक परिणामों की सम्भावना का ज्ञान रहा हो। यहाँ अपराध करने की प्रबल सम्भावना आवश्यक तत्व है।
(2) सामान्य उद्देश्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सभी सदस्य अपराध में सहभागी हों। अवैध उद्देश्य के लिए इकट्ठा होना पर्याप्त है।
(3) सामान्य उद्देश्य के लिए विधि विरुद्ध जमाव में कम-से-कम पाँच व्यक्ति होना आवश्यक है।
(4) सामान्य उद्देश्य को धारा 149 में परिभाषित किया गया है इसके अन्तर्गत सिर्फ पाँच अवैध उद्देश्य ही होने चाहिए।
(5) सामान्य उद्देश्य धारा 149 के अन्तर्गत एक निश्चित अपराध है जिसके लिए एक निश्चित दण्ड दिया जा सकता है।
(6) सामान्य उद्देश्य के अन्तर्गत एक व्यक्ति का समूह का सहभागी होना ही दण्डनीय है। इसके द्वारा सक्रिय कार्य किया जाना आवश्यक नहीं है।
प्रशन 6. (i) “ऐसा कुछ करना अपराध नहीं होगा, जिसे विधि के अन्तर्गत किसी व्यक्ति के लिए उचित है या जिसने तथ्य की सद्भावपूर्वक इस विश्वास के अन्तर्गत किया है कि ऐसा करना विधि के अन्तर्गत उसके लिए उचित था”- स्पष्ट करें। भूल के अन्तर्गत
अथवा
“तथ्य की भूल” एक अच्छा प्रतिवाद है परन्तु ‘विधि की भूल भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत कोई प्रतिवाद नहीं है”- स्पष्ट करें।
“Nothing is an Offence, which is done by a person who is justified by law or who, by reason of Mistake of Facts, in good faith, believes himself to be justified by law in doing it.”- Explain.
Or
“Mistake of Fact” is good defence. While Mistake of law is no defence under Indian Penal Code. Explain.
उत्तर – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 79 के अन्तर्गत दो प्रकार के कार्यों से होने वालो क्षति या अपराध के दायित्व से उन्मुक्ति प्रदान की गई है। प्रथमतः ‘यदि कोई कार्य करने हेतु विधि के अन्तर्गत कोई व्यक्ति न्यायानुमत है, ऐसा वह सद्भावपूर्वक विश्वास करता है तथा द्वितीयत: ‘ऐसा कार्य जो व्यक्ति तथ्य की भूल के अन्तर्गत न कि विधि की भूल के अन्तर्गत ऐसा विश्वास करता है कि वह ऐसा कार्य करने के लिए न्यायानुमत है। न्यायानुमत का अर्थ उसके अनुसार ऐसा कार्य करना उसके लिए न्याय (विधि) द्वारा अनुमत है।
इस धारा के साथ जुड़ा दृष्टान्त धारा 79 के प्रावधानों को स्पष्ट करता है। ‘क’, ‘ग’ को एक कार्य करते हुए देखता है जिसके बारे में ‘क’ सद्भावपूर्वक विश्वास करता है कि ‘ग’ हत्या का अपराध कर रहा है। अब ‘क’ को यह विश्वास है कि विधि प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्रदान करती है कि किसी भी अपराधी को वह पकड़कर गिरफ्तार कर सकता है। तथा उसे तत्काल सक्षम अधिकारियों के समक्ष ले जा सकता है। ‘क’ इस विश्वास पर सद्भावपूर्वक कार्य करते हुए ‘ग’ को सक्षम अधिकारी के समक्ष ले जाने के उद्देश्य से गिरफ्तार करता है। यहाँ धारा 79 के अनुसार ‘क’ किसी अपराध का दोषी नहीं माना जायेगा। भले ही बाद में पता चलता है कि ‘ग’ जिसे ‘क’ ने गिरफ्तार किया था, आत्मरक्षा में कार्य कर रहा था।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 76 तथा धारा 79 दोनों तथ्य की भूल के अपवाद (बचाव) का उल्लेख करती हैं। इन दोनों धाराओं में मुख्य अन्तर यह है कि धारा 76 में कार्य करने वाला व्यक्ति तथ्य की भूल के अन्तर्गत यह समझता है कि वह प्रश्नगत कार्य करने के लिए बाध्य है अर्थात् यह समझता है कि वह विधि द्वारा आबद्ध है (bound by law)। जबकि धारा 79 के अन्तर्गत बचाव का दावा करने वाला व्यक्ति तथ्य की भूल के अन्तर्गत सद्भावपूर्वक विश्वास करता है कि वह प्रश्नगत कार्य करने के लिए विधि के अन्तर्गत प्राधिकृत था अर्थात् प्रश्नगत कार्य करना विधित: औचित्यपूर्ण (न्यायानुमत- Justified) था अर्थात् (Justified by law) था। दोनों धाराओं में कार्य करने वाले व्यक्ति का आशय सद्भावयुक्त होना चाहिए।
इस प्रकार धारा 76 के अन्तर्गत तथा धारा 79 के अन्तर्गत बचाव का सहारा लेने वाले व्यक्ति को निम्न बातें साबित करनी होंगी-
(1) यह कि वह तथ्य की भूल के अन्तर्गत कार्य कर रहा था।
(2) यह कि वह तथ्य की भूल के अन्तर्गत सद्भावपूर्वक यह विश्वास करता था कि वह प्रश्नगत कार्य करने के लिए बाध्य था (धारा 76) या प्रश्नगत कार्य करना उसके लिए उचित या विधिपूर्ण था जिसे करने की अनुमति उसे विधि के अन्तर्गत प्राप्त थी। (धारा 79)
विधि की भूल क्षम्य नहीं है परन्तु तथ्य की भूल एक बचाव (प्रतिवाद) (Defence) है- विधि का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि विधि की भूल क्षम्य नहीं है। (Ignorance of law is no excuse) प्रत्येक नागरिक से देश की विधि की जानकारी की अपेक्षा की जाती है, यद्यपि विधि की भूल क्षम्य नहीं है परन्तु दण्ड के होती है। लघुकरण में सहायक
राज्य बनाम सिद्धनाथ, (1956) क्रिमिनल लॉ जर्नल 1327 नामक बाद में यह विचार व्यक्त किया गया है कि धारा 79 के अन्तर्गत विधि की भूल के अन्तर्गत किया गया कार्य क्षम्य नहीं है परन्तु अधिकारिक रूप से किये गये कार्य में ईमानदारी तथा सद्भावना का तथ्या साबित करने पर इसे तथ्य सम्बन्धित भूल माना जायेगा।
“विधि को भूल क्षम्य नहीं है परन्तु तथ्य की भूल क्षम्य है” इस कथन को समझने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। ‘क’, ‘ख’ पर चाकू से वार करता है। ‘ख’ को चोट लगती है तथा खून बहता दिखाई देता है। ‘ग’ यह देखता है तथा यह मानते हुए कि ‘क’ ने ‘ख’ पर जानलेवा हमला किया है तथा हत्या के प्रयास का दोषी है, ‘ग’, ‘क’ को गिरफ्तार करता है क्योंकि उसे यह विश्वास है कि ऐसे अपराधी को सक्षम अधिकारी के समक्ष ले जाने हेतु कोर भी व्यक्ति गिरफ्तार कर सकता है। परन्तु पोस्ट मार्टम (Post Mortem) की रिपोर्ट में गत घाव एक साधारण घाव निकलता है जिसके सम्बन्ध में एक साधारण व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है। अब ‘क’, ‘ग’ पर उसे गिरफ्तार करने के लिए धारा 342 के अन्तर्गत सदोष परिरोध के लिए वाद करता है। ‘ग’, को धारा 79 के बचाव का लाभ मिलेगा तथा ‘ग’, ‘क’ के सदोष परिरोध के लिए उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायेगा क्योंकि उसने ‘क’ को सद्भावपूर्वक यह मानते हुए गिरफ्तार किया था कि तथ्य के अन्तर्गत उसे ऐसा करने का अधिकार था।
राजकपूर बनाम लक्ष्मण, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 605 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि धारा 79 ऐसे कृत्य को अपराध नहीं मानती जो अपराधी द्वारा वस्तुतः विधि के अनुसरण में सद्भावपूर्वक इस विश्वास के साथ किया गया हो कि न्यायिक कृत्य करना औचित्यपूर्ण था। भले ही कार्य तथ्य सम्बन्धित किसी भूल के अन्तर्गत किया गया हो। इस बाद में राजकपूर की एक फिल्म को सेंसर बोर्ड द्वारा पारित कर प्रदर्शन की अनुमति दे दो गई थी, अतः उसके पास यह विश्वास करने के पर्याप्त आधार थे कि फिल्म प्रदर्शन योग्य थी भले ही फिल्म अश्लील रही हो तथा निर्माता को धारा 79 का लाभ प्राप्त होगा।
जे० एम० आर० वन बनाम बम्बई राज्य, ए० आई० आर० 1956 एस० सी० 575 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि धारा 79 का लाभ देने से पूर्व अभियुक्त को मानसिक सोच (मन:स्थिति) का पता लगाया जाना आवश्यक है तथा अभियुक्त को यह साबित करना होगा कि प्रश्नगत विधि सम्बन्धित भूल उसकी पर्याप्त सावधानी के बावजूद हुई थी।
यह स्मरणीय है कि यह आवश्यक नहीं है कि तथ्य सम्बन्धित भूल का सम्बन्ध सिर्फ भारतीय दण्ड संहिता तक ही सीमित है। यदि एक व्यक्ति किसी अन्य विधि या अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार भी यह सद्भावपूर्वक विश्वास करता है कि वर्तमान तथ्यों के आधार पर किसी कार्य को करना वह न्यायानुमत या औचित्यपूर्ण समझता था तो भी उसे धारा 79 के अन्तर्गत तथ्य के भूल का बचाव (Defence) प्राप्त होगा। राम ले बनाम राज्य के बाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने इसे वन अधिनियम के अन्तर्गत तथ्य को भूल पर भी लागू किया।
यह उल्लेखनीय है कि यदि कोई कृत्य आपराधिक विधि के किसी प्रावधान के अन्तर्गत अपराध या दण्डनीय घोषित है तो यह विश्वास करना कि वह कृत्य दण्डनीय नहीं है, तथ्य सम्बन्धित भूल नहीं मानी जायेगी। इसे विधि सम्बन्धित भूल मानकार धारा 79 का लाभ उपलब्ध नहीं होगा। धारा 79 का बचाव प्राप्त करने हेतु यह स्पष्टतः साबित करना होगा कि प्रश्नगत कृत्य की प्रकृति के बारे में तथ्य की भूल थी। जैसे यदि किसी हिलती-डुलती आकृति को कोई खतरनाक जानवर समझकर गोली चलाता है तो यह तथ्य की भूल’ मानी जायेगी तथा धारा 79 का बचाव उपलब्ध होगा। उड़ीसा राज्य बनाम रवोटा घासी (1978) क्रिमिनल लॉ जर्नल 1305 उड़ीसा 1 में अभियुक्त ने हिलती-डुलती आकृति को भालू समझकर मार डाला। उसे धारा 79 का लाभ दिया गया तथा दोषी नहीं माना गया।
सत्यवीर सिंह राठी बनाम राज्य, ए० आई० आर० (2011) सु० को० 1748 के मामले में पुलिस ने एक इनामी घोर अपराधी को मार गिराने की नीयत से सड़क पर तेज भाग रही एक कार पर गोलियाँ दागी जिससे उसमें सवार दो निर्दोष व्यक्ति मारे गये। पुलिस की भूलवश खूँखार इनामी अपराधी की गलतफहमी में दो निर्दोष व्यक्ति मारे गए जिन्हें मारने का उनका कोई इरादा नहीं था। परन्तु न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों को धारा 79 की प्रतिरक्षा का बचाव अस्वीकार करते हुए उन्हें धारा 300/307/34 के अधीन दोषी ठहराया। पुलिस की यह दलील भी न्यायालय ने अस्वीकार कर दी कि पहले कार में सवार लोगों ने पुलिस पर फायरिंग की क्योंकि सबूत के अभाव में उसका कोई कारण या औचित्य दिखलाई नहीं देता था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पुलिस निर्दोष व्यक्तियों की हत्या के दोषी हैं।
सबूत का भार (Burden of Proof)– धारा 79 के बचाव हेतु यह साबित करने का भार कि प्रश्नगत कृत्य तथ्य की भूल के अन्तर्गत सद्भावपूर्वक किया गया था, उस व्यक्ति पर होगा जो इस बचाव का प्रतिवाद का लाभ लेना चाहता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि धारा 79 का बचाव प्राप्त करने हेतु उस व्यक्ति द्वारा जो इस बचाव का दावा करता है यह साबित करना अनिवार्य है कि वह सद्भावपूर्वक यह विश्वास करता था कि जो कार्य वह कर रहा है उसे करना विधित उचित है या वह कार्य करना विधि या न्याय द्वारा अनुमत है, यह वह सद्भावपूर्वक यह विश्वास कर रहा था जो कुछ वह कर रहा है वह जानबूझकर या विद्वेषतापूर्वक नहीं किया जा रहा है।
अतीक सरकार एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, ए० आई० आर० (2014) सु० को० 1945 के बाद में अपीलार्थी के विरुद्ध आरोप था कि उसने सुविख्यात टेनिस खिलाड़ी बोरिस बेकर का नग्न फोटोग्राफ उसकी अश्वेत प्रेमिका बरबरा फेल्टिस के साथ अपने मैग्जीन “स्पोर्ट्स वर्ल्ड” में प्रकाशित किया था जो अगले दिन दैनिक समाचार पत्र अमृत बाजार पत्रिका में भी प्रकाशित किया गया था। अतः वह धारा 92 भा० द० सं० के अपराध का दायी था
अपीलार्थी ने अपने बचाव में तर्क प्रस्तुत किया कि उक्त नग्न फोटोग्राफ जो बोरिस बेकर की प्रेयसी फेल्टिस के पिता ने स्वयं लिये थे, बेकर द्वारा जर्मनी से प्रकाशित “स्टर्न” नामक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार पर आधारित थे जिनका विश्व स्तर पर प्रकाशन हो चुका था और बेकर के अनुसार इस प्रकाशन का उद्देश्य जर्मनी में प्रचलित श्वेत-अश्वेत के भेदभाव को समाप्त कर एक-दूसरे से विवाह को प्रोत्साहन देना था। अतः अपीलार्थी को धारा 79 के अधीन प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध है। परन्तु कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी की दलील स्वीकार नहीं की तथा उसके विरुद्ध धारा 292, भा० द० सं० के अधीन आपराधिक कार्यवाही जारी रखे जाने का आदेश पारित किया।
इस आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील में न्यायालय ने विनिश्चित किया कि उक्त प्रकाशन को अश्लीलता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि इसका मूल उद्देश्य जर्मनी के श्वेत और अश्वेतों में आपसी सद्भाव और प्रेम को बढ़ावा तथा विवाह को प्रोत्साहन देना था ताकि रंग आधारित भेदभाव को समूल नष्ट किया जा सके। अतः अपीलार्थी अपोल स्वीकार करते हुए उसकी दोषमुक्ति कर दी गई।
धारा 79 के अन्तर्गत तथ्य की भूल के अन्तर्गत किया गया कृत्य क्षम्य है न कि विधि: भूल के अन्तर्गत किया गया कार्य।
प्रश्न 6. (ii) “कोई बात अपराध नहीं है जो दुर्घटना या दुर्भाग्य से और किसी आपराधिक आशय या ज्ञान के बिना, विधिपूर्ण प्रकार से, विधिपूर्ण साधनों द्वारा उचित सतर्कता और सावधानी के साथ, विधिपूर्ण कार्य करने में हो जाती है।” उक्त कथन पर टिप्पणी करें। “Nothing is an offence which is done by accident or misfortune and without any criminal intention or knowledge, in doing of a lawful act, in lawful manner by lawful means and with proper care and caution” Comment.
उत्तर- प्रश्नगत कथन भारतीय दण्ड संहिता की धारा 80 में प्रावधान हैं। यह धारा अंग्रेजी विधि के आपराधिक विधि के उस महत्वपूर्ण सिद्धान्त को अन्तर्निहित करती है। जिसके अनुसार कोई भी कार्य तब तक अपराध नहीं है जब तक वह कार्य आपराधिक दुराशय (Criminal Mens Rea) के साथ न किया गया हो। इस धारा द्वारा प्रदत्त संरक्षण के पीछे सिद्धान्त यह है कि यदि कोई कार्य आकस्मिक रूप से दुर्घटना के कारण घटित हो जाता है तो ऐसे कार्यों के बारे में यह उपधारणा होती है कि उनके किये जाने के पीछे कोई आपराधिक दुराशय नहीं होता।
इस धारा के साथ लगा दृष्टान्त धारा के प्रावधान को और अधिक स्पष्ट करता है। ‘क’ कुल्हाड़ी से काम कर रहा है। कुल्हाड़ी का फल उसमें से निकलकर उछल जाता है तथा निकट खड़ा हुआ व्यक्ति उससे मारा जाता है। यहाँ यदि ‘क’ की ओर से उचित सावधानी का कोई अभाव नहीं था तो उसका कार्य क्षमा योग्य है और अपराध नहीं है।
एक कार्य को दुर्घटना का परिणाम तब माना जायेगा जब उसमें निम्नलिखित आवश्यक तत्व (Essential Ingredients) हों।
(1) वह कृत्य आकस्मिक रूप से दुर्घटनावश या दुर्भाग्य से कारित हुआ हो;
(2) वह कार्य आपराधिक आशय या जानकारी के बिना किया गया हो;
(3) वह कार्य ऐसे कार्य का परिणाम हो जो वैध रूप से वैध साधनों द्वारा किया गया हो;
(4) वह कार्य उचित सावधानी तथा सतर्कता के साथ किया गया हो। दुर्घटना (Accident) को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा कार्य है जो अनियोजित (Unplanned), अप्रत्याशित (Unexpected) या अकल्पित हो। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 80 दुर्घटनापूर्ण कार्य के अतिरिक्त दुर्भाग्यपूर्ण (unfortunate) कार्य को भी एक बचाव के रूप में मान्यता देती है।
स्टीफेन महोदय ने दुर्घटना को परिभाषित करते हुए कहा कि ऐसा कृत्य जो बिना आशय के किया गया हो तथा जिसका ऐसा परिणाम हो जिसकी कल्पना उस परिस्थिति में सामान्य बुद्धि का व्यक्ति उचित सावधानी व सतर्कता बरतते हुए कभी नहीं करेगा।
शाकिर खान बनाम क्राउन, ए० आई० आर० 1931 लाहौर 54 नामक बाद में शिकारियों का एक दल शिकार पर गया। शाकिर खान भी उस दल का सदस्य था। एक जानवर को मारते समय गोली जानवर को न लगकर पार्टी के एक सदस्य के पैर को बेध गई। न्यायालय ने इस कृत्य को एक दुर्घटना माना तथा अभियुक्त को धारा 80, भारतीय दण्ड संहिता का बचाव स्वीकार किया।
इसी प्रकार सम्राट् बनाम शिवसहाय, ए० आई० आर० 3 कलकत्ता 323 नामक बाद में दो मित्र आपस में कुश्ती लड़ रहे थे। उसी समय अचानक उनमें से एक व्यक्ति के ऊपर पत्थर गिर गया तथा परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी। अभियुक्त को धारा 80 के अन्तर्गत दुर्घटना का बचाव देते हुए हत्या के अपराध से दोषमुक्त कर दिया गया।
कार्य आकस्मिक (Accidental) होने के साथ-साथ अनाशयित (Un intentional) का होना चाहिए – धारा 80 के अन्तर्गत दुर्घटना का बचाव प्राप्त होने के लिए यह आवश्यक है कि प्रश्नगत कृत्य आकस्मिक दुर्घटना होने के साथ-साथ अनाशयित भी होना चाहिए। इस प्रकार यदि एक व्यक्ति ‘क’ को मारने का आशय रखता है परन्तु गलती से भ्रम के अन्तर्गत वह ‘ख’ को मार डालता है। यहाँ ‘क’ को दुर्घटना का बचाव उपलब्ध नहीं होगा क्योंकि ‘क’ का आशय एक अपराध करने का था। यहाँ ‘क’ को यह जानकारी थी कि वह एक अपराध करने जा रहा है तथा उसके कार्य में आपराधिक दुराशय विद्यमान था।
इस प्रकार यदि अभियुक्त कोई विधि-विरुद्ध कार्य कर रहा है तो उसे दुर्घटना का बचाव उपलब्ध नहीं होगा क्योंकि धारा 80 का बचाव उपलब्ध होने के लिए यह आवश्यक है कि कार्य, जिसका परिणाम दुर्घटना थी विधिपूर्ण ढंग से सम्पादित हो रहा था।
मोहन सिंह बनाम राज्य, ए० आई० आर० (1950) इलाहाबाद 95 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के नाजुक भाग में प्रहार किया यद्यपि अभियुक्त का मृतक को जान से मारने का आशय नहीं था परन्तु दुर्भाग्यवश चोटिल व्यक्ति की मृत्यु हो गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 80 के अन्तर्गत उपलब्ध दुर्घटना या दुर्भाग्य के बचाव को अस्वीकार करते हुए कहा कि उसका कृत्य मूलतः विधि-विरुद्ध होने के कारण धारा 80 का संरक्षण दिये जाने योग्य नहीं था।
रंगास्वामी बनाम सम्राट्, ए० आई० आर० 1952 नागपुर 205 के बाद में बम्बई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने निर्णय दिया है कि यदि बगैर लाइसेंस की बन्दूक से गोली चलाई गई है लेकिन परिस्थितियाँ दुर्घटना के बचाव के लिए न्यायोचित हैं तो केवल इस आधार पर अभियुक्त को दुर्घटना के बचाव से वंचित नहीं किया जा सकता कि बन्दूक जिससे गोली चली बगैर लाइसेंस की थी।
जनेश्वर बनाम सम्राट्, 24 क्रिमिनल लॉ जर्नल 789 के मामले में अभियुक्त लाठी से एक व्यक्ति पर वार कर रहा था, जिसे देखकर उसकी पत्नी बीच में आ गई। उसकी गोदी में एक छोटा बच्चा था। लाठी का वार बच्चे पर पड़ा, परिणामस्वरूप बच्चे की मृत्यु हो गई। उस बाद में अभियुक्त का कार्य तथा उसके साधन दोनों अवैध होने के कारण उसे धारा 80 के अन्तर्गत दुर्भाग्य का बचाव नहीं दिया गया।
यह स्मरणीय है कि धारा 80, भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत दुर्घटना तथा दुर्भाग दोनों को एक बचाव के रूप में स्वीकार किया गया है परन्तु दीवानी विधि में सिर्फ दुर्घटना की बचाव (Exception) नहीं माना गया है जब तक कि दुर्भाग्य सम्मिलित न हो।
सबूत का भार – धारा 80 के अन्तर्गत दुर्घटना के बचाव हेतु सबूत का भार अभियुक पर होगा अर्थात् अभियुक्त को यह साबित करना होगा कि उसका कार्य अनाशयित तथा विधिपूर्ण तरीके से किया गया था।
प्रश्न 7. (1) “आवश्यकता कोई विधि नहीं जानती” इस कथन के प्रकाश में उन परिस्थितियों तथा सीमाओं की चर्चा करें जिनके अन्तर्गत किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य उचित माना जाता है जो अन्यथा एक अपराध होता।
‘अ’ तथा ‘व’ समुद्र में जहाज डूबने के पश्चात् तैरते समय एक लकड़ी (काठ ) का टुकड़ा पकड़ते हैं। यह लकड़ी का टुकड़ा दोनों को सहारा देने के लिए पर्याप्त नहीं है। ‘अ’, ‘ब’ को धक्का दे देता है, परिणामस्वरूप ‘ब’ डूब जाता है। क्या ‘अ’ किसी अपराध का दोषी है?
उत्तर- आवश्यकता के कार्य (Act of Necessity) अपकृत्य तथा आपराधिक विधि में एक सफल बचाव या प्रतिवाद (defence) है। इस शीर्षक के अन्तर्गत ऐसे कार्यों के फलस्वरूप होने वाली क्षति के लिए दायित्व से बचाव का प्रावधान है जो परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक है। इस बचाव या अपवाद (Exception) के पीछे सिद्धान्त यह है कि यदि कोई बड़ी हानि को बचाने के लिए कोई छोटी क्षति या हानि कारित की जाती है तो ऐसी क्षति करने बाला उन्मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। भले ही वह यह जानता हो कि जो कार्य वह करने जा रहा है। वह अपराध है। लोकहित ही सर्वोपरि विधि है “Sallus populi Est Suprema lex” यह सूक्ति भी आवश्यकता के कार्य को बचाव के रूप में मान्यता देने का समर्थन करती है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 81 आवश्यकता के कार्य को बचाव (Exception) के रूप में मान्यता देती है। धारा 81 के अन्तर्गत यदि चरम आपात स्थिति में कोई हानि कारित किया जाना अनिवार्य या आवश्यक हो जाय तो ऐसा प्रयत्न किया जाना चाहिए कि हानि कम से कम हो। इसी प्रकार यदि एक बेहोश, घायल व्यक्ति की शल्य क्रिया करना आवश्यक हो तो उसकी सहमति या उसके संरक्षण या रिश्तेदारों की तलाश किये बिना उसको शल्य क्रिया की जा सकती है तथा यह कार्य शल्य क्रिया करने वाले पर किसी दायित्व को अधिरोपित नहीं करेगा।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 81 के अन्तर्गत आवश्यकता के बचाव के निम्न आवश्यक तत्व है –
(1) आवश्यकता के अन्तर्गत किया गया कृत्य आपराधिक मन:स्थिति के या दुराशय के बिना किया गया होना चाहिए, भले हो वह कार्य करने वाला यह जानता था कि जो कार्य वह कर रहा है वह अपराध है।
(2) कृत्य सद्भावपूर्वक (In good faith) किया गया हो,
(3) कृत्य करने के पीछे आशय किसी बड़ी हानि से बचाने का होना चाहिए;
(4) जिस बड़ी हानि से बचाने के आशय से कृत्य किया गया था वह शरीर या सम्पत्ति से सम्बन्धित होनी चाहिए।
यदि किया गया कार्य ऐसी परिस्थितियों में किया गया था जिससे कि किसी बड़ी हानि से बचने के लिए प्रश्नगत कार्य करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था तथा प्रश्नगत कार्य करना अपरिहार्य था तो हो’ आवश्यकता का बचाव’ उपलब्ध होगा।
यदि किसी व्यक्ति के प्राण या उसकी सम्पत्ति किसी गम्भीर संकट में है तो उसे किसी विधिक प्रावधानों का ध्यान नहीं रहता तथा यदि विद्वेषता के अभाव में शरीर या सम्पत्ति पर आसन्न संकट के निवारण हेतु कोई ऐसा कार्य किया जाता है जो करना अपरिहार्य था या जिसे करने के अतिरिक्त अभियुक्त के पास अन्य विकल्प नहीं था तो उसके द्वारा किया गया कार्य कोई दायित्व उत्पन्न नहीं करता तथा वह आवश्यकता के बचाव (Defence of Necessity) का सहारा ले सकता है। इस प्रकार जहाँ दो दुष्परिणाम अपरिहार्य (Inevitable) हो वहाँ ऐसा कार्य करना विधि के अन्तर्गत वैध माना जायेगा जिससे छोटी हानि कारित हो। जब भी कोई व्यक्ति आवश्यकता से पराभूत होकर कोई अवैध कृत्य करता है तो विधि के अन्तर्गत उसे त्यायोचित माना जाता है, क्योंकि ऐसा करने वाला व्यक्ति उसे अपनी इच्छा से नहीं, परन्तु पराभूत या लाचार होकर करता है। रजनीश बनाम यूसुफ खान, ए० आई० आर० 1966 सु० को० 1978 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि गाँव को भयंकर अग्निकाण्ड से बचाने के लिए किसी व्यक्ति की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत क्षम्य है। एक पंक्ति में बने मकानों में से किसी मकान को आग लग जाने पर आग को फैलने से रोकने के लिए आग से ग्रसित मकान के साथ का मकान गिरा देना कोई दायित्व उत्पन्न नहीं करेगा।
मुख्य सिद्धान्त जिस पर यह धारा आधारित है वह यह है कि किसी व्यक्ति या सम्पत्ति को गुरुतर अपहानि से निवारण हेतु लघुत्तर अपहानि का कारित किया जाना उपयुक्त है।
आवश्यकता के अन्तर्गत बचाव को सफलतापूर्वक लेने हेतु दो बातों को साबित किया जाना आवश्यक है –
(i) यह कि ऐसा कार्य विद्वेषपूर्वक या दुराशय के साथ नहीं किया गया था।
(ii) यह कि उस परिस्थिति में एक बड़ी हानि से बचाने के लिए ऐसा कार्य करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था अर्थात् उस परिस्थिति में ऐसा करना अपरिहार्य (Inevitable) था
इस सन्दर्भ में आर० बनाम डडले. (1884) 14 क्वीन्स बेंच डिवीजन 273 नामक बाद उल्लेखनीय है। इस बाद में एक समुद्री दुर्घटना से बचे नाविक तथा एक बच्चा जीवित बचकर एक छोटी सी नाव में जा रहे थे। कई दिनों से कुछ खाने के लिए उपलब्ध न होने पर यात्रा के बीसवें दिन भूख के कारण मरणासन्न होने पर अपनी जान बचाने के उद्देश्य से उन तीनों नाविकों ने बच्चे को मारकर खा लिया तथा इस प्रकार वे जीवित किनारे तक पहुँच गये। अभियुक्तों ने अपने बचाव में आवश्यकता के कार्य का बचाव किया। इस बचाव को अस्वीकार करते हुए लार्ड कोलरिज ने विचार व्यक्त किया कि यह सच है कि एक बड़ी हानि को बचाने के लिए छोटा हानियुक्त कार्य करना क्षम्य है परन्तु इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति की जान लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने अभियुक्तों को दोषी तो करार दिया परन्त परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्हें सिर्फ 6 माह के कारावास से दण्डित किया
कामयोक्थ बनाम होल्पर, (1884) 14 क्यू० बी० डी० नामक बाद में भी एक जहाज के हो जाने पर शेष लोग नाव में जा रहे थे। यह नाव सभी व्यक्तियों का वजन सम्भालने में समर्थ नहीं थी अतः नाविकों ने नाव में वजन कम करने के लिए कुछ यात्रियों को समुद्र में फेंक दिया क्योंकि सभी लोगों को मरने से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। जूरी ने आवश्यकता के बचाव को अस्वीकार कर दिया परन्तु परिस्थितियों को ध्यान में रखते अभियुक्तों को कुछ ही माह के कारावास की सजा दी गई। हुए
इस प्रकार उपरोक्त दो वादों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक बड़ी होति को बचाने के लिए छोटी हानि करना यदि आवश्यक या अपरिहार्य है तो ऐसा करना अपराध नहीं होगा परन्तु ऐसे कार्य के अन्तर्गत किसी को अन्य व्यक्ति की जान लेकर आत्मरक्षा करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा करना बचाव मान लिया जाय तो विधि से नैतिकता पूर्णत: लुप्त हो जायेगी।
माउसिस (Mousis), (1608) के बाद में एक डोंगी वाले ने डॉगी को तूफान से बचाने के लिए एक यात्री का सामान डोंगी से बाहर फेंक दिया जिससे डॉगी का भार कम किया जा सके। उसके विरुद्ध आपराधिक कार्य नहीं किये जाने पर न्यायालय ने आवश्यकता के बचाव को स्वीकार करते हुए कृत्य को आवश्यकता के बचाव के अन्तर्गत औचित्यपूर्ण निर्णीत किया।
विशम्भर बनाम रुमल, ए० आई० आर० 1951 इलाहाबाद 500 नामक बाद में अभियुक्त जो ग्राम-सरपंच था, ने एक व्यक्ति का मुँह काला कर जूतों से पीटते हुऐ गाँव में घुमाने का आदेश दिया। उसके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 तथा 506 के अन्तर्गत अभियोजन चलाया गया। उसने अपने बचाव में कहा कि व्यक्ति ने एक हरिजन लड़की को छेड़ा था तथा गाँव में लगभग 200 लोग लाठी-डण्डे लेकर उस व्यक्ति को मारने के लिए उद्यत थे। उसका मुँह काला कर जूतों से पीटने का आदेश बिना किसी दुराशय के दिया गया था तथा परिवारीगण की जान बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। न्यायालय ने परिस्थितियों के अनुसार अभियुक्त ग्राम सरपंच के आदेश को उचित ठहराया तथा यह निर्णय दिया कि उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 81 के अन्तर्गत आवश्यकता का बचाव उपलब्ध था।
सर जेम्स स्टीफेन एक उदाहरण देते हैं। ‘क’ तथा ‘ख’ नामक दो व्यक्ति जहाज डूब जाने के पश्चात् तैरते हुए एक लकड़ी के तख्ते को पकड़ लेते हैं। जो इतना नहीं है कि दोनों को सहारा दे सके। अतः ‘क’ दूसरे व्यक्ति ‘ख’ को धक्का दे देता है जिसके परिणामस्वरूप ‘ख’ डूब जाता है। स्टीफेन के अनुसार यहाँ ‘क’, ‘ख’ की हत्या कारित करने के लिए दोषी नहीं माना जायेगा क्योंकि हो सकता है कि भाग्य से ‘ख’ को दूसरा सहारा मिल जाय तथा वह बच जाये।
उपरोक्त तथ्य प्रश्न में दी गई समस्या का ही है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि सर स्टीफेन महोदय की राय सही नहीं है। उपरोक्त दो अंग्रेजो वादों में यह निर्णीत किया गया है। कि आवश्यकता के कार्य के अन्तर्गत अपनी जान बचाने के लिए दूसरे की जान लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसी अनुमति देना अनैतिक होगा तथा ऐसा करने से विधि की नैतिकता लुप्त होने की सम्भावना है। परन्तुवाद की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ‘क’ को हत्या का दोषी नहीं मानना चाहिए। चूँकि ‘क’ ने अपराध किया है अत: उसे कम कारावास का दण्ड देना उचित समाधान होगा।
प्रश्न 7. (ii) आपराधिक दायित्व से अल्पवयस्क की मुक्ति से सम्बन्धित भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों की विवेचना कीजिए। अथवा अवयस्कों को आपराधिक दायित्व से छूट के सम्बन्ध में किये गये प्रावधानों की विवेचना कीजिए।
Discuss the provisions in Indian Penal Code relating to minor’s exemption from Criminal Liability. Or Discuss the law relating to minor’s exemption from Criminal Liability.
उत्तर- दण्ड विधि के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, आपराधिक दायित्व के लिए अपराध-भावना एक आवश्यक तत्व है, जब तक कि संविधि द्वारा स्पष्ट रूप से आवश्यक तत्व के रूप में आवश्यक न होना घोषित न कर दिया गया हो। शिशु में कम उम्र के कारण समझ की कमी होती है अर्थात् वह अपने कार्य की प्रकृति समझने में असमर्थ होता है, इसलिए उसे आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा जाता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 82 व 83 अल्पवयस्कों के दायित्वों के सम्बन्ध में उपबन्ध करती हैं। धारा 82 में उपबन्धित मुक्ति जहाँ पूर्णमुक्ति है वहीं धारा 83 में सशर्त है।
धारा 82 के अनुसार, “कोई भी बात अपराध नहीं है जो सात वर्ष से कम आयु के बच्चे द्वारा की गयी हो। यह माना जाता है कि सात वर्ष से कम आयु का बच्चा अपने कार्य की प्रकृति को नहीं समझता। उसे अक्षम गुड़िया (Doli-incapax) माना जाता है। अतः वह उसके परिणामों के लिए भी उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। सात साल से कम उम्र के शिशु पर यदि कोई आरोप लगाया जाता है तो उसके उत्तर में यह पर्याप्त होगा कि वह सात वर्ष से कम है। धारा 82 में प्रयुक्त शब्दावली ‘सात वर्ष से कम’ विवाद का विषय रही है क्योंकि इसके बाद आने वाली धारा 83 सात साल के ऊपर के शिशुओं के सम्बन्ध में उपबन्ध करती है। न्यायालयों और विद्वानों का अब यह निश्चित मत है कि ‘सात साल से कम शब्दावली से ‘तात्पर्य ‘सात साल तक’ से है क्योंकि दण्ड-विधि के अन्तर्गत निर्णय का यह मान्य सिद्धान्त हैं कि सन्देह का लाभ सदा अभियुक्त व्यक्ति को दिया जाना चाहिए।
धारा 83 के अनुसार, “कोई बात अपराध नहीं है जो सात वर्ष से ऊपर तथा बारह वर्ष से कम आयु के ऐसे शिशु द्वारा की जाती है जो समझ की परिपक्वता के अभाव में अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ हो।” धारा 82 में जहाँ शिशु को पूर्ण उन्मुक्ति प्राप्त है वहीं धारा 83 के अन्तर्गत यह उन्मुक्ति सशर्त बना दी गई है, अर्थात् सात साल से ऊपर तथा 12 वर्ष से कम उम्र का शिशु भी आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा जा सकता है, यदि यह साबित कर दिया जाये कि उसमें पूर्णतया समझने की शक्ति का अभाव था, यानी यह अपने कार्य की प्रकृति को समझने में पूर्णतया असमर्थ था।
वस्तुत: धारा 82 तथा 83 दोनों के ही प्रावधान सुधारात्मक है, दण्डात्मक नहीं, जिनका मुख्य उद्देशा बालकों को सुधारने का अवसर प्रदान करना है। यह बात कृष्ण भगवान बनाम स्टेट ऑफ बिहार, ए० आई० आर० 1989 पटना 217 के बाद में कही गये है।।
इंग्लैण्ड में इस प्रकार की उम्र 8 वर्ष से 14 वर्ष तक की मानी जाती है। भारत में भी सिविल विधि के अन्तर्गत बालक की इस प्रकार की सशर्त उन्मुक्ति 8 वर्ष से लेकर 14 वर्षे तक हो मानी जाती है। परन्तु दण्ड विधि में 12 वर्ष के बाद व्यक्ति को परिपक्व समझ का मान लिया जाता है और इसलिए उसके द्वारा किये गये विधि-विरुद्ध कार्यों के लिए उसका पूर्ण दायित्व समझा जाता है।
परिपक्व समझ (Maturity of understanding)-धारा 83 का सार ” परिपक्व समझ” शब्दावली में है अर्थात् यदि बालक अपने द्वारा किये गये कार्य की प्रकृति को समझ सकता है कि उसके द्वारा किया गया कार्य अच्छा या बुरा है या उसके क्या परिणाम हो सकते हैं तो उसे इस धारा का फायदा नहीं दिया जा सकता। इसके विपरीत यह मान लिया जाता है कि वह अपने कार्य को प्रकृति समझने में असमर्थ था जो उसने किया है।
महापाल बनाम एम्परर, ए० आई० आर० 1950 उड़ीसा 261 के मामले में एक लड़का जो 11 वर्ष से 12 वर्ष के बीच की आयु का था, एक तेज धार वाला चालू लेकर यह कहता हुआ बढ़ा कि ‘मार दूंगा’, ‘खत्म कर दूंगा’। उसने वास्तव में चाकू से मृतक को चोट पहुँचायी, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस मामले में न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अभियुक्त के आचरण से यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने कार्य की प्रकृति नहीं जानता था।
मुसम्मात अमीना बनाम एम्परर, आई० डब्ल्यू० आर० 43 के बाद में एक स्त्री को जो लगभग 10 वर्ष की थी उसके पति व ससुर ने गालियाँ दी जिन्हें वह उस समय तो चुपचाप सुनती रही परन्तु रात को जब उसका पति सो रहा था उस स्त्री ने एक तेज धारवाला हथियार लेकर उसके गले पर प्रहार किया जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी। इस घटना के बाद वह भाग गयी और अपने आपको छिपा लिया। पति की हत्या के लिए उसका अभियोजन किया गया जिसमें बचाव पक्ष ने धारा 83 का बचाव दिये जाने की माँग की। परन्तु न्यायालय ने उसके आपराधिक कार्य के बाद भाग जाने व छिप जाने वाले आचरण के आधार पर यह निर्धारित किया कि वह परिपक्व समझ वाली थी।
नाग बनाम एम्परर के बाद में कहा गया कि यदि एक लड़का कम उम्र के कारण बलात्कार के लिए सक्षम नहीं है तो उसे बलात्कार के प्रयत्न के लिए भी दायी नहीं ठहराया जा सकता। परन्तु दुलीचन्द बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1952 अजमेर 54 के मामले में एक 12 वर्ष से कम उम्र के लड़के पर बलात्कार का आरोप लगाया गया। अभियोजन पक्ष को तरफ से लड़की, उसकी माँ व डॉक्टर का साक्ष्य प्रस्तुत किया गया जिस पर विश्वास किया जा सकता था। अतः कम उम्र का होते हुए भी उसे अपराध करने में सक्षम माना गया और इसी आधार पर न्यायालय द्वारा दायी ठहराया गया।
आचरण की प्रकृति– धारा 83 लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि यह अभियुक्त द्वारा साबित किया जाये कि वह अपने द्वारा किये गये कार्य की प्रकृति उसके परिणामों को समझने में असमर्थ था और यह असमर्थता समझ की परत के के कारण थी।
मालिक बनाम बिहार राज्य, (1978) के मामले में अभियुक्त जो 12 वर्ष से कम उम्र का बालक या अपने पिता और भाइयों को पिटता देख लाठियों व तलवारों से बार करने लगा। बचाव में उसके 12 वर्ष से कम आयु के होने का तर्क दिया गया तो न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि 12 वर्ष से कम आयु के बालक के लिए यह उपधारणा होगी कि यह विवेक की आयु तक नहीं पहुंचा है। परन्तु इस उपधारणा को आधारपूर्ण विवेक और सारगर्भित साक्ष्य द्वारा खण्डित किया जा सकता है क्योंकि अपराध करने की क्षमता उसको विवेक शक्ति के आधार पर मापी जाती है।
प्रश्न 8 (i) भारतीय दण्ड संहिता की धारा 84 में वर्णित विकृतचित्तता सम्बन्धी विधि का विवेचन कीजिए। विधिक विकृतचित्तता तथा चिकित्सकीय विकृतचित्तता में अन्तर कीजिए। अथवा
मैकनाटन के नियम से आप क्या समझते हैं? विधिक प्रावधानों की सहायता से अपना उत्तर दीजिए। अथवा विकृतचित व्यक्तियों द्वारा किये गये कार्य के लिए आपराधिक दायित्व से मुक्ति प्रदान करने से सम्बन्धित विधि की विवेचना कीजिए।
Discuss the law relating to insanity as contained in Section 84 of Indian Penal Code. Distinguish between Legal Insanity and Medical Insanity. Or What do you understand by McNaughten rules? Give your reply with the help of Statutory provisions. Or
Discuss the Law relating the exemption from Criminal Liability for the offence committed by a person of unsound mind.
उत्तर- अपराध विधि का यह आधारभूत सिद्धान्त है कि किसी व्यक्ति को विधि के अन्तर्गत उत्तरदायी केवल तभी ठहराया जा सकता है जब यह साबित कर दिया जाय कि अपराध कारित करते समय वह व्यक्ति मानसिक रूप से इतना सक्षम था कि आपराधिक आशय का निर्माण कर सके। अपराध-भावना के अभाव में ही बालक के कार्यों की उन्मुक्ति प्रदान की गयी है। ठीक इसी प्रकार की बात ऐसे व्यक्तियों पर लागू होती है जो विकृतचित्तता के कारण आपराधिक आशय का निर्माण नहीं कर सकते। विकृतचित्तता से सम्बन्धित विधि का सविस्तार विवेचन मैकनाटन के मामले में किया गया है। अभियुक्त व्यक्ति पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सचिव डूमन्ड की हत्या का आरोप लगाया गया। परन्तु उसके तर्क को मानकर कि “उसने ऐसा उन्माद भ्रम में पड़कर किया था” न्यायालय ने अभियुक्त को बरी कर दिया। इस निर्णय की काफी कड़ी आलोचना की गयी जिसके फलस्वरूप न्यायाधीश ने 5 प्रश्न जूरी को भेजे जो मैकनाटन-नियम के नाम से जाने जाते हैं –
(1) व्यक्तधम में रहका कोई अपराध करता है, वह दण्डनीय कार्य है।
(2) पागलपन साबित करने के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि वह –
(अ) उस कार्य की प्रकृति को नहीं जानता
(ब) उसको इस बात की जानकारी नहीं थी कि वह जो कुछ कर रहा है दोषपूर्ण है।
(3) यह जूरों का कार्य है कि वह निश्चित करे कि उस व्यक्ति के पास कार्य को प्रकृति जानने का उचित कारण था।
(4) पूर्णतया पागलपन में किया गया अपराध तो क्षमायोग्य है। परन्तु अन्य स्थिति में किया जाने वाला कार्य दण्डनीय होगा।
(5) ऐसे डॉक्टर का मत जिसने पहले अभियुक्त को कभी नहीं देखा हो परन्तु परीक्षण के दौरान साथ रहा हो, केवल साक्ष्य के लिए होगा।
आधुनिक भारतीय विधि उक्त मामलों के निर्धारित सिद्धान्तों पर आधारित है। धारा 84 के अनुसार, ऐसे व्यक्ति द्वारा की गई कोई बात अपराध नहीं है जो उसे करते समय विकृतचित्तता के कारण उस कार्य की प्रकृति या यह कि वह जो कुछ कर रहा है, वह दोषपूर्ण या विधि-विरुद्ध है, जानने में असमर्थ है। धारा 84 के अन्तर्गत निम्नलिखित आवश्यक बातें कही जा सकती है ।
(i) विकृतचित्तता – धारा 84 के अन्तर्गत सभी प्रकार की विकृतचित्तता को बचाव स्वीकार नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, विकृतचित्तता के सम्बन्ध में विधिक दृष्टिकोण या चिकित्सा विज्ञान द्वारा अपनाये जाने वाले दृष्टिकोण में काफी भिन्नता है। चिकित्सा विज्ञान के अन्तर्गत विकृतचित्तता कितने भी प्रकार की हो सकती है। परन्तु सभी प्रकार की विकृतचित्तता धारा 84 की विषय वस्तु नहीं हो सकती।
(ii) कार्य करने के समय विकृतचित्त हो- धारा 84 के लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपराध-कार्य करने के समय विकृतचित्त हो। पहले अथवा बाद की विकृतचित्तता बचाव का आधार नहीं हो सकती। अपराध कार्य किये जाने के समय व्यक्ति की मानसिक दशा कैसी थी, इसका निर्धारण वाद की परिस्थिति व अभियुक्त के आचरण के आधार पर किया जा सकता है। यदि अभियुक्त की तरफ से यह साबित कर दिया जाता है कि अपराध कार्य किये जाने के समय वह विकृतचित्त था तो धारा 84 का बचाव प्रदान किया जा सकेगा। परीक्षण के समय की विकृतचित्तता धारा 84 के लिए महत्व नहीं रखती।
अमृत भूषण गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1971) एस० सी० सी० 100 के बाद में अमृत भूषण गुप्ता ने तीन बच्चों जिनकी उम्र, 14, 8 एवं 5 वर्ष थी, को जलाकर मार डाला था। दिल्ली सत्र न्यायाधीश ने धारा 303 के अन्तर्गत उसे मृत्युदण्ड प्रदान किया। उच्च न्यायालय ने निर्णय की पुष्टि कर दी। उच्चतम न्यायालय में 5 बार याचिकायें की गयीं पर प्रत्येक बार उसे नामंजूर कर दिया गया। राष्ट्रपति ने भी उसकी दया की याचिका को नामंजूर कर दिया। यह अभिमत व्यक्त किया गया कि दोषसिद्ध व्यक्ति को पागल हो जाने के बाद भी फाँसी दी जा सकती है।
(iii) विकृतचित्तता के कारण- चिकित्सा विज्ञान के अन्तर्गत आने वाली विकृतचित्ता को धारा 84 में स्वीकार नहीं किया गया है। धारा 84 में उपबन्धित विकृतचित्ता स्थायी और अस्थायी हो सकती है, भारतीय दण्ड संहिता के प्रयोजनार्थ विकृतचित्ता का केवल इतना ही महत्व है कि उस विकृतचित्ता के कारण वह व्यक्ति अपने कार्य को प्रकृति को समझने में असमर्थ हो गया हो।
(iv) कार्य की प्रकृति जानने में असमर्थता– किसी व्यक्ति के विकृतचित्त होने मात्र से ही यह आवश्यक है कि उसकी चिकृतचित्तता ऐसी थी जिसके कारण वह अपने कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थ था।
मोहम्मद हुसैन बनाम सम्राट का मामला इस विषय पर महत्वपूर्ण वाद है। उक्त मामले में अभियुक्त ने अपनी पत्नी से पानी माँगा जिसके इंकार करने पर उसने उसको कुल्हाड़ी से हत्या कर दी। इसके तुरन्त बाद वह पुलिस स्टेशन गया और हत्या किये जाने की सूचना दो परीक्षण के दौरान जाँच कराये जाने पर यह पागल पाया गया। विकृतचित्तता के बचाव का तर्क दिये जाने पर न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि मामले की परिस्थितियों एवं अभियुक्त के आचरण को देखकर ऐसा नहीं लगता कि उसने विकृतचित्तता की अवस्था में अपराध कार्य किया था, अतः उसे हत्या के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।
(v) यह समझने में असमर्थ था कि कार्य दोषपूर्ण अथवा विधि के प्रतिकूल है- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 84 में उपबन्धित विकृतचित्तता को निर्धारित करने की एक कसौटी यह है कि वह अपने कार्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ था तथा दूसरी कसौटी यह है कि वह यह नहीं जानता था कि वह जो कुछ कर रहा है वह दोषपूर्ण अथवा विधि-विरुद्ध है। ‘दोषपूर्ण’ शब्द से तात्पर्य भारतीय न्यायालयों के अनुसार, नैतिक दोष है क्योंकि विधिक दोष के लिए धारा द्वारा स्पष्ट रूप से विधि के प्रतिकूल शब्दावली का प्रयोग कर दिया गया है।
सिद्धपाल कमला यादव बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2009) 1 एस० सी० सी० 124 के बाद में अभियुक्त के विरुद्ध आरोप था कि उसने अपने एक सह कैदी हत्या की थी जो खाट से लटकता हुआ पाया गया था। अपीलकर्ता के पैर की चारपाई के साथ बेड़ियों से तालाबन्द कर दिया गया था और खारे बोतलों को लटकाने जाने वाला लोटे का स्टैंड वहाँ पड़ा हुआ पया गया था। चिकित्सीय रिपोर्ट के अनुसार अभियुक्त पर मानसिक रोग से ग्रसित होने का कोई लक्षण नहीं पाया गया था। घटना के पूर्व सायंकाल के समय वह पूर्णत: सहज, शान्त एवं सामान्य था। अतः उसके प्रति धारा 84 के बचाव लागू का प्रश्न ही नहीं उठता अतः हत्या के लिए उसकी दोषसिद्धि एवं सजा न्यायोचित थी।
विधिक विकृतचित्तता तथा चिकित्सीय विकृतचित्तता में अन्तर- विधिक विकृतचित्तता (पागलपन) के अन्तर्गत वे ही पागलपन आते हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने द्वारा किये जाने वाले कृत्यों की प्रकृति को समझने की क्षमता नहीं रखता है, और यदि वह इसे समझता भी है, तो यह नहीं जानता कि उसका कृत्य अनुचित अथवा विधि-विरुद्ध है या नहीं जबकि धारा 84 के अन्तर्गत चिकित्सीय विज्ञान को ज्ञात सभी प्रकार के पागलपन नहीं आते हैं।
विधिक विकृतचित्तता के लिए दण्ड संहिता में मस्तिष्कीय अस्वस्थता’ पदावली का प्रयोग हुआ है न कि पागलपन का। अत: मात्र मस्तिष्कीय अस्वस्थता ही बचाव नहीं है, अपितु इसे ऐसा होना चाहिए जिसके द्वारा व्यक्ति का निर्णय या विवेक प्रभावित हो जबकि चिकित्सीय विकृतचित्तता केवल इसमें पागलपन को ही दर्शाना होता है अतः इसमें अनेको प्रकार के पागलपन आते हैं।
प्रश्न 8. (ii) किसी आपराधिक कार्य के लिए नशे में होना कहाँ तक बचाव है? विवेचना कीजिए। अथवा
नशे में होना किस सीमा तक किसी अपराध का अपवाद माना जा सकता है ?
How far is the drunkenness a defence to a Criminal act Discuss. Or
Discuss the extent to which drunkenness can be pleaded as a defence to a Criminal Charge?
उत्तर– प्राचीन काल में मत्तता (Intoxication) की स्थिति को अपराध की वृद्धि का एक कारण समझा जाता था, जिसके लिए अधिक कठोर दण्ड दिया जाता था। पागलपन जहाँ एक बीमारी थी, जिस पर व्यक्ति का कोई नियन्त्रण नहीं होता, वहीं नशा करना एक बुराई है, जो व्यक्ति स्वेच्छा से करता है। इसलिए विकृतचित्तता के मामले में सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जा सकता है। परन्तु मत्तता के मामले में व्यक्ति को निश्चित रूप से उत्तरदायी ठहराया जाएगा। समता का यह सिद्धान्त इस कहावत पर आधारित था कि ‘नशे में किये गये अपराध कार्य का फल नशा उतर जाने के बाद भोगना पड़ता है।” परन्तु वर्तमान समय में स्थिति में कुछ परिवर्तन हुआ है। इसी बदली हुई स्थिति को भारतीय दण्ड संहिता में उपबन्धित किया गया है –
धारा 85 के अनुसार, “कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो उसे करते समय मत्तता के कारण उस कार्य की प्रकृति या यह कि जो कुछ वह कर रहा है दोषपूर्ण है या विधि के प्रतिकूल है, जानने में असमर्थ है। परन्तु यह तब जबकि वह चीज जिससे उसको नशा हुआ है। उसके अपने ज्ञान के बिना या इच्छा के विरुद्ध दी गयी थी।”
धारा 86 के ,” उन दशाओं में जहाँ कि कोई किया गया कार्य अपराध नहीं होता अनुसार, जब तक कि वह किसी विशिष्ट ज्ञान या आशय से न किया गया हो, कोई व्यक्ति जो वह कार्य मतता की हालत में करता है, इस प्रकार बरते जाने वाले दायित्व के अधीन होगा मानो उसे वही ज्ञान था जो उसे होता यदि वह नशे में होता, जब तक कि वह चीज जिससे नशा हुआ है। उसे उसके ज्ञान के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध न दी गयी हो।”
धारा 85, नशे में अपराध कार्य करने वाले व्यक्ति को आपराधिक उत्तरदायित्व से मुक्ति दिलाती है, यदि अपराध कार्य करते समय नशे के कारण –
(i) वह कार्य की प्रकृति जानने में असमर्थ था; या
(ii) वह यह जानने में असमर्थ था कि जो कुछ वह कर रहा है वह दोषपूर्ण है या विधि के प्रतिकूल है; तथा
(iii) वह चीज जिससे उसको नशा हुआ है उसके बिना ज्ञान या इच्छा के विरुद्ध दी गयी थी।
डाइरेक्टर ऑफ पब्लिक प्रोसीक्यूटर बनाम बीयर्ड, (1920 ए० सो० 479) का बाद इस धारा पर एक महत्वपूर्ण बाद है। इसमें 13 वर्ष की एक लड़की बाजार जाते समय एक मिल के गेट से निकल रही थी जहाँ अभियुक्त बीयर्ड पहरेदार के रूप में ड्यूटी पर तैनात था। अभियुक्त ने बलात्कार करने का प्रयास किया, लड़की ने इसका विरोध किया। इस पर अभियुक्त ने अपना हाथ लड़की के मुँह पर रख दिया तथा दूसरे हाथ का अंगूठा उसके गले पर रखकर दबाया ताकि लड़की शोर न मचा सके, पर अनजाने में लड़की की मृत्यु हो गयी। हाउस ऑफ लाइंस ने अभियुक्त को मृत्युदण्ड से दण्डित किया। इस बाद में मदोन्मत्तता के सम्बन्ध में तीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये थे –
(i) यह कि मदोन्मत्ता का कथन अभियोग के विरुद्ध प्रतिरक्षा के रूप में किया जा रहा है;
(ii) यह कि मदोन्मत्तता का प्रभाव क्या अभियुक्त पर इस सीमा तक था कि वह विचार या इच्छा करने की स्थिति में नहीं था, साथ ही घटना के समय की परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है;
(iii) यह कि केवल इतना कहना कि अभियुक्त के दिमाग पर नशे का प्रभाव होने के कारण उसका दिमाग अपराध की ओर अधिक तेजी से झुक गया, इस मान्यता का उल्लंघन नहीं कर सकता कि प्रत्येक मनुष्य किये गये कार्य के प्रभाव को जानता हैं।
अस्वैच्छिक मत्तता (Involuntary intoxication)–धारा 85 केवल उसी समय बचाव प्रदान करती है जबकि मत्तता उस व्यक्ति की इच्छा का परिणाम न हो अर्थात् यदि मत्तता उस व्यक्ति की स्वयं की इच्छा के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है तो उसे दायी ठहराया जा सकता है। कोई मत्तता स्वैच्छिक या अस्वैच्छिक, इसका मापदण्ड धारा 85 में ही उपबन्धित किया गया है। यदि वह वस्तु जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को नशा होता है उस व्यक्ति के ज्ञान के बिना अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध दी गई है तो वह नशा अस्वैच्छिक माना जायेगा। जैसा कि पहले कहा गया है कि ज्ञान के बिना कोई वस्तु दो गयी है तो उसका विचारण एक स्वस्थ व्यक्ति की भाँति किया जायेगा। इतना ही नहीं इस धारा में यह भी कहा गया है कि यदि व्यक्ति जानबूझकर अपनी इच्छा से नशा ग्रहण करता है तो उसके सम्बन्ध में किये गये कार्यों के दायित्व व उसके ज्ञान के सम्बन्ध में उपधारणा यह होगी मानो उसने वह कार्य नशे का सेवन किये बिना ही किया हो।
वासुदेव बनाम स्टेट ऑफ पेप्सू, 1956 ए० एल० जे० 666 के बाद में अपीलार्थी नशे में चूर था जब वह बारात में भोजन करने गया, उसने मृतक से थोड़ा खिसक कर बैठने के लिए कहा परन्तु मृतक वहाँ से खिसका नहीं। इस पर अपीलार्थी ने पिस्तौल से उसकी हत्या कर दी।
अपीलार्थी हत्या के लिए दोषसिद्धि किया गया क्योंकि अपीलार्थी इतना मदोन्मत्त नहीं था कि वह कार्य की प्रकृति और उसके परिणाम को न समझ सके। न्यायालय ने अभिनिधारित किया कि मदोन्मत्तता के आधार पर बचाव का तर्क तभी स्वीकार किया जा सकता है –
(i) जब नशा स्वेच्छा से न किया गया हो ; और
(ii) नशा के कारण अभियुक्त की सोचने-समझने की क्षमता समाप्त हो गई हो।
सम्मन सिंह बनाम एम्परर, ए० आई० आर० 1941 लाहौर 454 के बाद में यह कहा गया है कि इस उपधारणा को जो प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों के प्राकृतिक परिणामों का आशय रखता है, यह साबित करके खण्डित किया जा सकता है कि जिस समय कार्य किया गया उस समय वह शराब के कारण इतने नशे में था कि वह ऐसा आशय गठित करने में असमर्थ था जो उस अपराध को करने के लिए आवश्यक है।
सारथी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1976 क्रि० लॉ० ज० 594 के मामले में नशे में तीन अभियुक्तों ने मृतक को पकड़कर उसकी बुरी तरह पिटाई की। इस प्रकार यहाँ तक तो उनका मृतक को गम्भीर चोट पहुँचाने का आशय था। लेकिन बाद में अभियुक्तों द्वारा मृतक को छत से लटकाकर टाँग देना तथा देखें बिना कि वह जीवित है या मृत, उसे उसी हाल में छोड देना उन्हें हत्या की कोटि में न आने वाले मानववध के लिए दोषी माने जाने के लिए पर्याप्त माना गया।
प्रश्न 9. (i). भारतीय दण्ड संहिता की धारा 87 में वर्णित सम्मति से किया गया कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति कारित करने का आशय न हो और न उसकी सम्भाव्यता का ज्ञान हो, सम्बन्धी विधि की विवेचना कीजिए।
Discuss the Law relating to act not intended and not known to be liable to cause death or grievous hurt, done by consent in Section 87 of I.P.C.
उत्तर – भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 87 सम्मति के बचाव से सम्बन्धित है। धारा 87 के अनुसार किसी भी 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति को उसकी सम्मति से मृत्यु या गम्भीर चोट को छोड़कर अन्य कोई भी हानि पहुँचाई जाना अपराध नहीं होगा।
भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत “सम्मति” को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है यद्यपि धारा 90 में यह उल्लेख है कि किन परिस्थितियों में सम्मति स्वतन्त्र नहीं मानी जाएगी।
प्रसिद्ध विधिशास्त्री स्टीफेन ने ‘सम्मति’ को परिभाषित करते हुए कहा है कि “यह एक ऐसी स्वत सहमति है जो एक साधारण व्यक्ति द्वारा जिस कार्य के लिए वह सहमति दे रहा है, उसके बारे में युक्तियुक्त विचार करने के पश्चात् दी गई हो अर्थात् सम्मति तब स्वतन्त्र मानी जाएगी यदि वह बलपूर्वक धमकी देकर या कपट द्वारा प्राप्त न की गई हो।”
धारा 87 के अन्तर्गत ‘सम्मति’ के बचाव के लिए अभियुक्त को निम्नलिखित बाते साबित करनी होंगी –
(1) यह कि कृत्य (कार्य) न तो गम्भीर चोट और न मृत्यु कारित करने के आशय से किया गया था और न इस जानकारी के साथ किया गया था कि उससे गम्भीर चोट या मृत्यु कारित होने की सम्भावना है,
(2) उस व्यक्ति को क्षति हुई हो जिसने इसके लिए सम्मति दी थी, (3) सम्मति देने वाले व्यक्ति की आयु 18 वर्ष से अधिक हो, तथा
(4) सम्मति व्यक्त अथवा विवक्षित रूप से दी जा सकती है।
उदाहरण- कुश्ती, मुक्केबाजी, बॉक्सिंग मल्लपुद्ध आदि जैसे खेलों तथा जोखिम भरे व्यायामों आदि के दौरान कारित क्षति के लिए धारा 87 का बचाव लिया जाता है।
हरपाल सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 361 के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्धारित किया कि यौन अपराधों से सम्बन्धित केसों में पीड़िता की सहमति अभियुक्त के लिए अच्छा बचाव सिद्ध होती है।
प्रश्न 9. (ii) सम्मति के बिना किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक किये गये कार्य से सम्बन्धित विधि की विवेचना कीजिए।
Discuss the law relating to act done in good faith for benefit of a person without consent.
उत्तर- सम्मति के बिना किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावनापूर्वक किया गया कार्य (धारा 92) – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 92 यह उपबन्धित करती है कि कोई बात जो किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक, यद्यपि उसको सम्मति के बिना की गई है, ऐसी किसी अपहानि के कारण, जो उस बात से उस व्यक्ति को कारित हो जाए अपराध नहीं है। यहाँ परिस्थितियाँ ऐसी हो कि उस व्यक्ति के लिए यह असम्भव हो कि वह अपनी सम्मति प्रकट करे या वह व्यक्ति सम्मति देने के लिए असमर्थ हो और उसका कोई संरक्षक या उसका विधिपूर्ण भारसाधक कोई दूसरा व्यक्ति न हो जिससे सम्मति अभिप्राप्त की जा सके।
धारा 92 के अन्तर्गत बचाव के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं –
(1) अपहानि प्रभावित व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावनापूर्वक कारित हो,
(2) परिस्थितियाँ ऐसी हो कि जिनमें व्यक्ति की सम्मति प्राप्त करना सम्भव न हो या उसका अभिभावक या विधिक संरक्षक सम्मति देने के लिए उपलब्ध न हो,
(3) कृत्य का आशय मृत्यु कारित करने या मृत्यु कारित करने का प्रयत्न करना न हो,
(4) वह कृत्य मृत्यु या गम्भीर चोट के निवारण या रोग से मुक्ति दिलाने के प्रयोजन से किया गया हो, तथा
(5) हानि या हानि कारित करने का प्रयत्न किसी भिन्न आशय से न किया गया हो।
जैसे– एक शिशु ‘य’ के साथ ‘क’ एक जलते हुए गृह में है। गृह के नीचे लोग एक कम्बल तान लेते हैं। ‘क’ उस शिशु को यह जानते हुए कि सम्भाव्य है कि गिरने से वह शिशु मर जाए, किन्तु उस शिशु को मार डालने का आशय न रखते हुए और सद्भावनापूर्वक दे शिशु के फायदे के आशय से गृह की छत पर से नीचे गिरा देता है। यहाँ, यदि गिरने से शिशु मर भी जाता है, तो भी ‘क’ ने कोई अपराध नहीं किया।
प्रश्न 10. (i) भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत जीवन तथा सम्पत्ति की प्रतिरक्षा से सम्बन्धित विधि को परिभाषित करते हुए वह कौन-स परिसीमायें हैं जिसके अन्तर्गत इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है ?
Define and discuss the law relating to Private Defence of Life and Property under Indian Penal Code. What are limitations under which this right can be exercised?
उत्तर– “प्रकृति व्यक्ति व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है कि वह आक्रमणकारी या त पहुँचाने वाले का विरोध करे तथा उस सीमा तक बल प्रयोग करे जो उन परिस्थितियों में ि को रोकने या आक्रमण की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए पर्याप्त हो”-लार्ड बैरन पार्क
जैसा कि लॉर्ड बैरन पार्क के उक्त कथन से स्पष्ट है कि अपने शरीर तथा सम्पत्ति की रह करना प्रत्येक व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार (Natural Right) है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर तथा सम्पत्ति की रक्षा करते समय उतना हो बल प्रयोग करने की अनुमति है जो उन परिस्थितियों में उचित तथा आवश्यक हो। कुछ परिस्थितियों में अपने शरीर तथा सम्पत्ति को रक्षा करते समय आक्रमणकारी की मृत्यु कारित करने का भी अधिकार प्राप्त हैं। चूँकि राज्य सरकार के लिए यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को शरीर या सम्पत्ति की रक्षा करने की पक्की प्रतिभूति (Guarantee) दे अत: यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को या अधिकार प्रदान किया जाय कि वह स्वयं अपने साधनों से अपनी सम्पत्ति तथा अपने शरीर की रक्षा करने का प्रयत्न करे परन्तु इसकी सीमा यह है कि ऐसा करते समय उतना ही बल प्रयोग किया जाय जितना उस परिस्थिति में उचित तथा आवश्यक हो।
यह उल्लेखनीय है कि विधि एक व्यक्ति को न सिर्फ अपनी सम्पत्ति तथा शरीर को रक्षा करने का अधिकार देती है वरन् इस अधिकार के अन्तर्गत एक व्यक्ति अन्य लोगों के शरीर तथा सम्पत्ति की रक्षा हेतु भी बल प्रयोग कर सकता है। जेरेमी बेन्थम के अनुसार, मानव को यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह किसी दुर्बल या असहाय व्यक्ति को किसी बलवान व्यक्ति के अन्यायपूर्ण आक्रमण का शिकार हुआ देखता है तो वह उस निर्बल व्यक्ति को सहायता के लिए प्रेरित हो जाता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 96 से 106 तक इस सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। धारा 96 के अनुसार, “कोई बात अपराध नहीं है, जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है।” प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा के अधिकार को भली-भाँति समझने के लिए धारा 96 से 106 तक की धाराओं को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। धारा 96 के अन्तर्गत निजो प्रतिरक्षा का बचाव तभी उपलब्ध होगा जब यह साबित कर दिया जाय कि प्रश्नगत कार्य का उद्देश्य शरीर सम्पत्ति की प्रतिरक्षा करना था। यदि कोई कार्य बचाव की दृष्टि से न होका अपराध के रूप में किया गया है तो निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। इस प्रकार एक आक्रमणकारी को प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा।
लक्ष्मण बनाम उड़ीसा राज्य, (1988) क्रि० लॉ० जर्नल 188 सु० को० नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार प्रकट किया है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का बचाव तभी उपलब्ध होगा यदि साबित किया जाय कि कोई अचानक संकट या आसन्न खतरा (Imminent danger) उत्पन्न हो गया था तथा उस आसन्न खतरे को बचाने के लिए जवाबी कार्यवाही आवश्यक हो गई थी। परन्तु यह आवश्यक है कि उक्त खतरा प्रतिरक्षा का बचाव लेने के द्वारा उत्पन्न न किया गया हो।
प्राइवेट या निजी प्रतिरक्षा का बचाव उस व्यक्ति को नहीं मिलेगा यदि आक्रमण की शुरुआत करने का वह स्वयं दोषी हो। उत्तर प्रदेश बनाम पुस्सू, क्रि० लॉ ज० 1356 सु० को० के बाद में ‘प’ तथा ‘स’ ने मिलकर ‘ब’ पर गोली चलाई। कुछ लोगों के हस्तक्षेप के कारण ‘प’ की राइफल छिन गई। इसी समय ‘प’ ने ‘स’ की पिस्तौल छीन ली तथा ‘ब’ पर गोली चलाकर उसे मार डाला। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘प’ को प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा, क्योंकि वह आक्रमण का प्रारम्भ करने के लिए स्वयं दोषी था।
प्राइवेट या निजी प्रतिरक्षा के सम्बन्ध में बूटा सिंह बनाम पंजाब राज्य, (1991) क्रि० लॉ० ज० 1464 सु० को का वाद उल्लेखनीय है। इस बाद में बूटा सिंह ने अपने पुत्र को एक खेत पर ट्रैक्टर चला रहे व्यक्तियों को ऐसा न करने के लिए कहने के लिए भेजा। इसके फलस्वरूप मृतक अपने साथियों सहित बच्चे का पीछा करते-करते उस स्थान पर पहुँचा जहाँ बूटा सिंह अपनी पत्नी तथा माता-पिता के साथ बैठा था तथा इन लोगों पर गम्भीर वार किए। बूटा सिंह ने अपनी आत्मरक्षा में शस्त्रों से जवाबी हमला किया जिसके परिणामस्वरूप हमलावर मारा गया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि बूटासिंह ने आत्मरक्षा के अधिकार की सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया क्योंकि उक्त परिस्थितियों में उसके लिए यह अन्दाज लगाना सम्भव नहीं था कि हमलावरों को निःशस्त्र करने के लिए उन पर कितने वार किए जायें।
निजी प्रतिरक्षा का अधिकार किसी व्यक्ति को उपलब्ध था या नहीं इस पर विचार करते समय निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है –
(1) अभियुक्त को आक्रमणकारियों या आक्रमणकारी से किस सीमा तक खतरा था तथा अभियुक्त को आक्रमण से कितनी चोट लगी या क्षति हुई?
(2) अभियुक्त को अपने बचाव के लिए लोक-अधिकारियों तक पहुँचने का अवसर था या नहीं।
(3) अभियुक्त पर खतरा आसन्न खतरा था या काल्पनिक खतरा था।
(4) उन परिस्थितियों में प्रश्नगत कृत्य का किया जाना किस सीमा तक उचित था?
(5) आत्मरक्षा या निजी प्रतिरक्षा का बचाव आक्रमणकारी को उपलब्ध नहीं है जो आक्रमण करने के लिए स्वयं दोषी है।
भँवर सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2009) सु० को० 768 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि निजी प्रतिरक्षा व्यक्ति को स्वयं आपराधिक दायित्व से बचाने के लिए प्राप्त एक अधिकार है। यह न तो अभ्याकरण का अधिकार है और न प्रत्याघात का। जहाँ स्वयं की जान-माल का कोई खतरा नहीं है वहाँ निजी प्रतिरक्षा क अधिकार भी नहीं होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस अधिकार का प्रयोग निजी बदल लेने या दुर्भावनावश किये गए कृत्य से बचने के लिए नहीं किया जा सकता है।
निर्णीत वादों के आधार पर यह सुस्थापित हो चुका है कि यदि दोनों पक्ष शस्त्रों से लैस होकर शक्ति परीक्षण के आशय से चल प्रयोग करते हुए एक-दूसरे से टकराते हैं तथा परिणामस्वरूप दोनों पक्षों को चोटें पहुँचती हैं तो ऐसी परिस्थिति में किसी भी पक्ष को नि प्रतिरक्षा के बचाव की सुरक्षा देने का प्रश्न ही नहीं उठता।
क्या निजी प्रतिरक्षा के बचाव का दावा किया जाना आवश्यक है? – सामान्यतः निजी प्रतिरक्षा के बचाव का लाभ लेने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त इसे अपर बचाव में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे तथा इसे साबित करे। परन्तु कतिपय परिस्थितियों में। यदि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर भी न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि अभियुक्त का कृत्य निजी प्रतिरक्षा के अन्तर्गत आता है तो न्यायालय स्वयमेव इसे स्वीकार कर अभियुक्त को दोषमुक्त कर सकता है।
गंगदा बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० 1969 ए० सी० 39 के वाद में अभियुक्त ने विचारण- न्यायालय में अपनी ओर से निजी प्रतिरक्षा का बचाव प्रस्तुत नहीं किया परन्तु अपील में उसकी ओर से निजी प्रतिरक्षा का बचाव प्रस्तुत किया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय किया कि अभियुक्त ने विचारण- न्यायालय के सामने निजी प्रतिरक्ष के बचाव का तर्क नहीं प्रस्तुत किया था। इस आधार पर उसे अपीलीय न्यायालय के समक्ष इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यदि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट हो जाता है कि उसके द्वारा किया गया कृत्य निजी प्रतिरक्ष के अधिकार के अन्तर्गत किया गया है तो उसे इस बचाव का लाभ दिया जाना चाहिए।
सबूत का भार– निजी प्रतिरक्षा के बचाव को साबित करने का भार अभियुक्त पर होग परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह इसे सन्देह से परे साबित करे। यदि परिस्थितिजन्य साक्ष के आधार पर इसकी सम्भाव्यता साबित कर दी गई है तो यह पर्याप्त होगा।।
धारा 97 में प्राइवेट (निजी) प्रतिरक्षा का अधिकार शरीर तथा सम्पत्ति की प्रतिरक्षा के लिए प्राप्त है, यह स्पष्ट कर दिया गया है। इसे धारा का प्रथम खण्ड शरीर से सम्बन्धित कृत्य का उल्लेख करता है जो अभियुक्त के शरीर के विरुद्ध या किसी अन्य व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध आसन्न था तथा दूसरा भाग सम्पत्ति के विरुद्ध किये जाने वाले कृत्यों का उल्लेख करता है, जैसे- चोरी, लूट, रिष्टि या आपराधिक अतिचार के मामले।
उत्तर प्रदेश बनाम नियामी, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 1652 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि निजी प्रतिरक्षा का अधिकार न केवल व्यक्ति को स्वयं की प्रतिरक्षा में किये गये कार्यों के विरुद्ध उपलब्ध है परन्तु किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की प्रतिरक्षा के लिए भी उपलब्ध होगा। यही स्थिति अमेरिकी दण्ड विधि में भी है। परन्तु अंग्रेजी दण्ड विधि में यह अधिकार सिर्फ स्वयं के शरीर के बचाव हेतु उपलब्ध है तथा किसी अजनबी के शरीर की प्रतिरक्षा के लिए यह अधिकार उपलब्ध नहीं होगा।
यदि कोई व्यक्ति निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते समय उस परिस्थिति आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग करता है तो यह माना जायेगा कि उसने निजी प्रतिरक्षा के अपने अधिकार की सीमाओं का अतिक्रमण किया है।
देव नारायण बनाम राज्य, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 473 के बाद में मृतक ने अभियुका के पिता को लाठी से मारकर चोट पहुंचाई। जवाब में अभियुक्त ने उसे भाले से मार हाला यह निर्णय दिया गया कि अभियुक्त ने आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग किया है। अत: वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के अन्तर्गत दोषी था।
इसी प्रकार अभियुक्त पर हॉकी-डंडों से हमला किया गया जिसके उत्तर में उसने चाकू द्वारा मृतक की हत्या कर दो, उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के अन्तर्गत दोषी पाया गया अर्थात् अभियुक्त ने आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग किया।
बयादास बावरी बनाम राज्य, (1982) क्रि० लॉ० ज० (215) गौहाटी के बाद में अभियुक्त का एक ही हाथ था। मृतक ने उस पर बाँस से कई वार किये जिससे उसे चोटें आईं। अधिक मार से बचने के लिए उसने मृतक पर अपने छोटे चाकू से हमला किया। दुर्भाग्यवश चोट नाजुक अंग पर लगी तथा उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अभियुक्त की विकलांगता तथा घटना की परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया था, अतः यह किसी भी अपराध का दोषी नहीं है।
निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाएँ (Limitations on exercise of right of Private Defence) – भारतीय दण्ड संहिता की धारा 99 उन परिसीमाओं का उल्लेख करती है जिनके अधीन किसी प्रतिरक्षा के बचाव का प्रयोग किया जा सकता है।
(1) लोक सेवक (Public Servant) द्वारा किये गये कार्य के विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा काबचाव उपलब्ध नहीं है –
धारा 99 का प्रथम उपखण्ड यह प्रावधान करता है कि यदि कोई लोक-सेवक अपने कर्तव्य के अनुपालन में कोई कार्य सद्भावनापूर्वक करता है जिससे मृत्यु या गम्भीर चोट की आशंका नहीं है तथा उस लोक-सेवक द्वारा सद्भावनापूर्वक किए गए कार्य से किसी व्यक्ति को क्षति कारित होती है तो ऐसी परिस्थिति में उस व्यक्ति को लोक-सेवक के कार्य के विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा, भले ही उस लोक सेवक का कार्य पूर्णतः न्यायोचित न हो, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि यदि किसी व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं है या उसे यह विश्वास करने का कोई उचित कारण नहीं है कि सामने वाला लोक सेवक है तो उसे अपने निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध होगा।
इस प्रकार यदि एक पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है तो उस व्यक्ति को निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। परन्तु यदि वह व्यक्ति यह नहीं जानता कि सामने वाला लोक अधिकारी है तो उसे निजी प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध होगा।
(2) लोक-सेवक के निर्देशानुसार किए गए कार्य – धारा 99 का दूसरा उपखण्ड यह कहता है कि कोई कार्य लोक सेवक के निर्देश पर किया जा रहा है तो यह मान लिया जायेगा कि वह कार्य लोक सेवक द्वारा किया जा रहा है। अतः लोक सेवक के निर्देश पर किये जा रहे कार्य के विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। यदि लोक सेवक का निर्देश न्यायसंगत या विधिसम्मत नहीं भी है तो भी लोक-सेवक के निर्देशानुसार सद्भावपूर्वक कार्य करने वाले व्यक्ति के कार्य के विरुद्ध भी निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। परन्तु यदि निजी प्रतिरक्षा का बचाव लेने वाला व्यक्ति यह साबित का दे कि वह यह नहीं जानता था कि सामने वाला व्यक्ति लोक सेवक के निर्देश पर कार्य को रहा है तथा यदि लोक सेवक के निर्देश पर कार्य करने वाला व्यक्ति यह प्रकट न कर दे कि वह लोक सेवक के निर्देश पर कार्य कर रहा है तो उसके विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा का बचाव निश्चित रूप से उपलब्ध होगा।
(3) यदि लोक-सेवक की सहायता किये जाने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध हो तो भी निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब्ध नहीं होगा – धारा 99 के उपखण्ड तीन में स्पष्ट व्यवस्था है कि यदि अपने शरीर या सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए लोक सेवक को सहायता लिया जाना सम्भव हो तो ऐसी परिस्थितियों में लोक सेवक की सहायता ली जानी चाहिए। परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि यदि किसी व्यक्ति पर हमला हो रहा हो तो वह लोक सेवक की सहायता के लिए दौड़े। इस प्रकार तात्कालिक आपात संकट से बचने लोक-सेवक की मदद के लिए दौड़ना अपेक्षित नहीं है। ऐसी दशा में निजी प्रतिरक्षा करना श्रेयस्कर है। हेतु यह
(4) निजी प्रतिरक्षा में की गई क्षति आवश्यकता से अधिक न हो- धारा 99 का चौथा उपखण्ड यह प्रावधान करता है कि निजी प्रतिरक्षा में किया गया कार्य आक्रमणकारी द्वारा किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति के विरुद्ध किये गये कार्य के मध्य एक उचित अनुपात होना आवश्यक है अर्थात् शरीर तथा सम्पत्ति के विरुद्ध किये गये कार्य से होने वाली क्षति की आशंका से अधिक क्षति निजी प्रतिरक्षा के रूप में किये जाने की अनुमति नहीं है। इस विषय पर कोई कठोर नियम प्रतिपादित नहीं किया जा सकता है। यह प्रत्येक मामले के साक्ष्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर निर्णीत किया जाना होगा कि निजी प्रतिरक्षा में कार्य करते हुए आक्रमणकारी को कितनी चोट पहुँचायी जा सकती हैं। इस प्रकार निजी प्रतिरक्षा की आड़ में बदला लेने की अनुमति किसी व्यक्ति को नहीं है।
जयदीप बनाम पंजाब राज्य, (1963) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निजी प्रतिरक्षा में कारित की जाने वाली अपहानि का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है यह सदैव मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। अब्दुल हबीब घनाम राज्य, (1974) के बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि निजी प्रतिरक्षा का अधिकार असीमित नहीं है। इसका प्रयोग धारा 99 की परिसीमाओं के अधीन होना चाहिए।
प्रश्न 10. (ii) कब शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक का होता है? विचार-विमर्श करें और यह भी बतलाएँ कि ऐसा अधिकार कब प्रारम्भ होता है और कब तक बना रहता है?
When the right of Private Defence of Life extends to causing death? Discuss and state also the commencement and continuance of such right.
उत्तर – धारा 100 में उन छः परिस्थितियों का उल्लेख है जिसमें अभियुक्त को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए हमलावर की मृत्यु कारित करने पर भी अपराध नहीं माना जाता क्योंकि उसका कृत्य निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के अन्तर्गत किया गया होता है। यदि अभियुक्त को धारा 100 में उपबन्धित किसी क्षति की युक्तियुक्त आशंका हो, तो वह हमलावर की मृत्यु भी कारित कर सकेगा और ऐसी दशा में यह नहीं माना जाएगा कि उसने निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का उल्लंघन किया है। ये परिस्थितियाँ हैं- यदि आक्रमण के परिणामस्वरूप –
(1) मृत्युः
(2) गम्भीर चोट;
(3) बलात्कार;
(4) अप्राकृतिक अपराध:
(5) व्यपहरण या अपहरण तथा
(6) सदोष परिरोध की युक्तियुक्त आशंका या भय हो।
उल्लेखनीय है कि उक्त आशंका युक्तियुक्त होनी चाहिए न कि केवल काल्पनिक।
(7) अम्ल फेंकने या देने का कृत्य, या अम्ल फेंकने या देने का प्रयास करना जिससे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि ऐसे कृत्य के परिणामस्वरूप अन्यथा घोर उपहति कारित होगी। [इस खण्ड को दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा जोड़ा गया है।
प्राणघातक तथा गम्भीर चोट के हमले की युक्तियुक्त आशंका- धारा 100 में प्रगणित पहली तथा दूसरी परिस्थिति में यह उपबन्धित है कि जब किसी व्यक्ति को मृत्यु या गम्भीर चोट पहुँचने की युक्तियुक्त आशंका हो, तो वह अपनी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए हमलावर की मृत्यु तक कारित कर सकता है। परन्तु खतरे की आशंका तत्काल एवं युक्तियुक्त होनी चाहिए, केवल धमकी के कारण ऐसी आशंका या भय युक्तियुक्त नहीं होगा। मृत्यु या गम्भर चोट की आशंका युक्तियुक्त थी अथवा नहीं इसका निर्धारण मामले की परिस्थितियों, मृतक व्यक्ति की स्थिति का प्रयोग में लाए गए हथियारों आदि के आधार पर किया जायेगा। अभियुक्त द्वारा धारा 100 के अधीन निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का उल्लंघन किया गया है अथवा नहीं, यह अभियुक्त के आचरण एवं मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाना चाहिए, इस सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय द्वारा समय-समय पर महत्वपूर्ण निर्णय दिये गये हैं।
गुरुलिंगप्पा शीद्रामप्पा (ए० आई० आर० 1921 बम्बई 335) के बाद में दो अभियुक्तों पर एक गिरोह ने हमला किया और उन्हें मार डालने की धमकी दी। अभियुक्तों ने मृत्यु की आशंका से भयभीत होकर रसोईघर में शरण ली। गिरोह रसोईघर का दरवाजा तोड़कर अभियुक्तों पर हमला किया।
अभियुक्तों ने हमलावरों में से एक को मार डाला। इस मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि अभियुक्तों ने अपनी निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया था क्योंकि वे अपने जीवन के रक्षणार्थ हिंसक गिरोह से बचने का प्रयास कर रहे थे। जीवन रक्षा के प्रयास में उनसे हमलावरों में से एक की मृत्यु कारित की गई होने के कारण उन्हें धारा 100 के अधीन बचाव दिया जाना उचित था।
घूरेलाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (2008) 10 एस० सी० 450 के बाद में अभियुक की बन्दुक पर लाठी के प्रहार के चिन्ह पाये गये थे। अभियुक्त ने दण्ड प्रक्रिया संहिता का धारा 313 के अन्तर्गत दर्ज कराये गये अपने बयान में कथन किया कि वास्तव में मृतक पक्षकार हो आक्रामक थे और अभियुक्त को गोली चलाने के लिए बाध्य होना पड़ा क्योंकि मृतक (आक्रामक) उससे उसकी बन्दूक छीनने का प्रयास कर रहे थे। न्यायालय ने अभियुक् के निजी प्रतिरक्षा के बचाव को मान्य करते हुए अभिकथन किया कि उक्त परिस्थितियों में अभियुक्त को निजी प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध था और उसके कृत्य को इस अधिकार का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है।
बलात्कार अथवा अप्राकृतिक अपराध करने के आशय से हमला- यदि कोई व्यक्ति किसी लड़की या स्त्री के साथ बलात्कार करने के आशय से या किसी व्यक्ति के साथ अप्राकृतिक अपराध करने के आशय से हमला करे तो ऐसे हमलावर व्यक्ति की मृत्यु तक कारित होने पर भी उसे मारने वाला व्यक्ति धारा 100 के अनुसार हत्या का दोषी नहीं माना जायेगा, मोहम्मद शमी बनाम सम्राट्, ए० आई० आर० 1934 लाहौर 620 के बाद में यह विनिश्चित किया गया कि यदि मृतक ने अभियुक्त की पत्नी के साथ बलात्कार के लिए उस पर हमला किया हो और अभियुक्त ने अपनी पत्नी के शरीर की रक्षा करने के लिए हमलावर की मृत्यु कारित की है, तो उसे धारा 100 के अन्तर्गत निजी प्रतिरक्षा का बचाव उपलब् होगा।
व्यपहरण और अपहरण करने के आशय से किया गया हमला- व्यपहरण अथवा अपहरण करने के आशय से किये गये हमले का प्रतिरोध करते हुए यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित हो जाती है, तो इसे धारा 100 के पांचवें खण्ड के अन्तर्गत बचाव का उचित आधार माना जा सकेगा। इस सन्दर्भ में विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (ए० आई० आर० 1960 सु० को० 67) का बाद उल्लेखनीय है। इस मामले में पति अपनी पत्नी को लेने ससुराल पहुँचा परन्तु उसका ससुर पत्नी को भेजने के लिए सहमत नहीं था। उसकी मर्जी के विरुद्ध पति ने अपनी पत्नी को साथ ले जाने के उद्देश्य से घसीटना आरम्भ कर दिया। जब पत्नी के भाई ने अपनी बहन को इस प्रकार घसीटे जाते देखा तो उसने अपने बहनोई पर चाकू से प्रहार किए जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त (विश्वनाथ) के विरुद्ध हत्या का आरोप लगाकर उसका विचारण किया गया। अभियुक्त ने अपने बचाव में यह तर्क प्रस्तुत किया कि उसे अपने बहनोई द्वारा किये गये पत्नी को उसकी मर्जी के विरुद्ध घसीटने के कार्य के प्रतिरोध में अपनी बहन के शरीर की प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था क्योंकि बहनोई ने अपहरण के लिए हमला किया था। न्यायालय ने अभियुक्त का बचाव मान्य करते हुए उसे दोषमुक्त कर दिया।
सदोष परिरोध के लिए हमला– जब किसी व्यक्ति को यह युक्तियुक्त आशंका हो कि सदोष परिरोध के लिए उस पर हमला किया जा रहा है और उसे लोक-प्राधिकारियों की सहायता उपलब्ध नहीं है, तो वह अपनी निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए हमलावर की मृत्यु कारित कर सकता है। राक बनाम सम्राट्, ए० आई० आर० 1946. सिन्ध (17) के बाद अभियुक्त को गिरफ्तार करके पुलिस स्टेशन ले जाया जा रहा था. उसने गिरफ्तार करने वाले व्यक्ति को चोटें पहुँचाकर उसकी हत्या कर दो तथा अपने बचाव में धारा 100 खण्ड 6 की दलील प्रस्तुत की। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चूँकि यहाँ अभियुक्त को लोक प्राधिकारियों की सहायता उपलब्ध थी, अत: उसका कृत्य ज्यायोचित नहीं था और न यह धारा 100 के अधीन बचाव के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य था।
धारा 102. शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारम्भ और बना रहना- शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण प्रारम्भ हो जाता है जब, अपराध करने के प्रयत्न या धमकी से शरीर के संकट की युक्तियुक्त आशंका पैदा होती है, चाहे वह अपराध किया न गया हो, और वह तब तक बना रहता है जब तक शरीर के संकट की ऐसी आशंका बनी रहती है।
नवीन चन्द्र बनाम उत्तरांचल राज्य, ए० आई० आर० (2007) सु० को० 363 के बाद में दो सगे भाइयों के परिवार के मध्य पारिवारिक विवाद थे अतः दोनों में गाली-गलौज प्रायः होती रहती थी। दिनांक 2 जून, 2001 को जब दोनों परिवारों के सदस्यों के बीच पंचायत में सुलह की बातचीत चल रही थी अभियुक्त, उसकी पत्नी तथा पुत्र ने अपने सगे भाई अर्थात् मृतक, उसकी पत्नी तथा पुत्र तीनों की संघातक हथियारों से प्रहार करके हत्या कर दी। तीनों मृतक निहत्थे होने के कारण न्यायालय ने अभियुक्तों को धारा 300 के अपवाद से 4 से 8 के अधीन प्रतिरक्षा के बचाव को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया क्योंकि यह अचानक भावावेश में किया गया कृत्य नहीं था। अभियुक्तों को हत्या के लिए दोषसिद्ध करते हुए न्यायालय ने इसे एक जानबूझकर दुर्भावना से प्रेरित हत्या का प्रकरण निरूपित किया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जहाँ अभियुक्त मृतकों को निहत्थे देखकर परिस्थिति का समुचित फायदा उठाते हुए उन पर संघात्मक प्रहार करके उनकी मृत्यु कारित करता है, तो ऐसे प्रकरण को अचानक भावावेश में किया गया कृत्य कैसे माना जा सकता है।
प्रश्न 10. (iii) कब सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक होता है?
When the right of Private Defence of Property extends to causing death?
उत्तर -भारतीय दण्ड संहिता की धारा 103 में यह बताया गया है कि कब सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक का होता है। धारा 103 के अनुसार, सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने का अवसर तब आता है जब दोषकर्ता निम्नलिखित अपराधों में से किसी भी भाँति के अपराध में आता हो किन्तु शर्त यह है कि इस अधिकार का प्रयोग करने वाले को धारा 99 की सीमा के अन्दर रहते हुए कार्य करना चाहिए। यह अपराध निम्नलिखित हैं
(1) लूट,
(2) रात्रि गृह भेदन,
(3) अग्नि द्वारा रिष्टि, जो किसी ऐसे निर्माण, तम्बू या जलयान को की गई है, जो मानव आवास के रूप में या सम्पत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग लाया जाता है।
(4) चोरी, रिष्टि या गृह अतिचार जो ऐसी परिस्थितियों में किया गया है, जिनसे युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो कि यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग न किया गया तो परिणाम मृत्यु या घोर उपहति होगा।