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HUMEN RIGHT LAW AND PRACTICE (“मानवाधिकार कानून और व्यवहार”) short answer

HUMEN RIGHT LAW AND PRACTICE (“मानवाधिकार कानून और व्यवहार”) 

प्रश्न 1. मानव अधिकारों की परिभाषा और उनका महत्व समझाइए।

उत्तर:
मानव अधिकार वे मूलभूत अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को केवल मानव होने के नाते प्राप्त होते हैं। ये अधिकार व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता और समानता की रक्षा करते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, “मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो जाति, लिंग, धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता या किसी अन्य स्थिति से स्वतंत्र होकर सभी मनुष्यों को प्राप्त हैं।”
इन अधिकारों का महत्व इस बात में है कि वे व्यक्ति को अमानवीय व्यवहार, दमन, अन्याय और भेदभाव से बचाते हैं। मानव अधिकार सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की नींव हैं। इनके बिना न तो व्यक्ति का विकास संभव है और न ही समाज का।
भारत में संविधान ने मौलिक अधिकारों के रूप में इन्हें कानूनी मान्यता दी है, जैसे — जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21), समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) आदि। अतः मानव अधिकार केवल नैतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि संवैधानिक गारंटी हैं जो राज्य और नागरिक दोनों पर समान रूप से लागू होती हैं।


प्रश्न 2. मानव अधिकारों के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।

उत्तर:
मानव अधिकारों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा गया है —

  1. नागरिक और राजनीतिक अधिकार (Civil & Political Rights):
    इनमें जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निष्पक्ष सुनवाई, धर्म की स्वतंत्रता, यातना से मुक्ति जैसे अधिकार आते हैं।
  2. आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार (Economic, Social & Cultural Rights):
    इनमें शिक्षा, काम, स्वास्थ्य, भोजन, आवास और सांस्कृतिक पहचान का अधिकार शामिल हैं।
  3. सामूहिक अधिकार (Collective Rights):
    जैसे – विकास का अधिकार, पर्यावरण की रक्षा का अधिकार, और आत्मनिर्णय का अधिकार।
    ये सभी अधिकार परस्पर जुड़े हुए हैं। किसी एक का हनन अन्य अधिकारों पर भी प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए, शिक्षा के बिना व्यक्ति अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग भी प्रभावी ढंग से नहीं कर सकता।

प्रश्न 3. संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव अधिकारों की रक्षा के लिए कौन-कौन से दस्तावेज़ बनाए गए हैं?

उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानव अधिकारों की रक्षा हेतु कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बनाए —

  1. Universal Declaration of Human Rights (UDHR), 1948 — यह मानव अधिकारों का वैश्विक संविधान है जिसमें 30 अनुच्छेद हैं।
  2. International Covenant on Civil and Political Rights (ICCPR), 1966 — इसमें राजनीतिक स्वतंत्रता और न्याय के अधिकारों की गारंटी दी गई है।
  3. International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights (ICESCR), 1966 — इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे अधिकारों को मान्यता दी गई है।
  4. Convention on the Elimination of Discrimination Against Women (CEDAW), 1979
  5. Convention on the Rights of the Child (CRC), 1989)
    इन सभी दस्तावेज़ों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक कानूनी ढाँचा तैयार किया। भारत ने इन अधिकांश संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं और उन्हें अपने संविधान व कानूनों में समाहित किया है।

प्रश्न 4. भारत के संविधान में मानव अधिकारों की सुरक्षा कैसे की गई है?

उत्तर:
भारत का संविधान मानव अधिकारों की मजबूत नींव है। भाग III (मौलिक अधिकार) और भाग IV (राज्य के नीति निदेशक तत्व) दोनों मानव अधिकारों को सुनिश्चित करते हैं।

  • मौलिक अधिकार: अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता), अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), अनुच्छेद 23 (बंधुआ मजदूरी का निषेध) और अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचार) नागरिकों को बुनियादी मानव अधिकार प्रदान करते हैं।
  • नीति निदेशक तत्व: राज्य को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए दिशा देते हैं, जैसे समान वेतन, शिक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार।
    इसके अतिरिक्त, न्यायपालिका ने भी अनुच्छेद 21 की व्याख्या कर जीवन के अधिकार को “गरिमामय जीवन” तक विस्तारित किया है, जिससे मानव अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा और सशक्त हुई है।

प्रश्न 5. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) की स्थापना और कार्यों का वर्णन कीजिए।

उत्तर:
NHRC की स्थापना 12 अक्टूबर 1993 को Protection of Human Rights Act, 1993 के तहत की गई। इसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश होते हैं।
मुख्य कार्य:

  1. मानव अधिकार उल्लंघन की शिकायतों की जांच करना।
  2. जेलों और हिरासत स्थलों का निरीक्षण।
  3. मानव अधिकारों के प्रचार-प्रसार हेतु सरकार को सुझाव देना।
  4. अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार संधियों के पालन पर निगरानी रखना।
    हालांकि NHRC की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं, फिर भी यह संस्था मानव अधिकारों की रक्षा में एक प्रभावी प्रहरी के रूप में कार्य कर रही है।

प्रश्न 6. मानव अधिकार अधिनियम, 1993 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

उत्तर:
यह अधिनियम भारत में मानव अधिकारों की रक्षा हेतु एक व्यापक विधिक ढाँचा प्रदान करता है।
मुख्य प्रावधान:

  1. मानव अधिकार की परिभाषा: जीवन, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा से जुड़े वे अधिकार जो संविधान या अंतरराष्ट्रीय संधियों द्वारा संरक्षित हैं।
  2. संस्थागत ढाँचा: NHRC और राज्य मानव अधिकार आयोग (SHRC) की स्थापना।
  3. शक्तियाँ: शिकायतों की जाँच, स्वतः संज्ञान लेना, और सरकार को अनुशंसा देना।
  4. सीमाएँ: आयोग केवल एक वर्ष के भीतर दर्ज मामलों पर विचार कर सकता है।
    यह अधिनियम मानव अधिकार संरक्षण की दिशा में भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

प्रश्न 7. न्यायपालिका की भूमिका मानव अधिकारों की रक्षा में क्या है?

उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका ने मानव अधिकारों की व्याख्या और संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाई है।

  • मनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या करते हुए कहा कि जीवन का अधिकार गरिमामय जीवन को भी समाहित करता है।
  • सुनिल बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1980): कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार को असंवैधानिक ठहराया।
  • ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन (1985): जीविका का अधिकार भी जीवन के अधिकार का हिस्सा है।
    न्यायपालिका ने मानव अधिकारों को केवल संवैधानिक अधिकार नहीं बल्कि “जीवंत सामाजिक सिद्धांत” के रूप में विकसित किया है।

प्रश्न 8. भारत में मानव अधिकारों के कार्यान्वयन में प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?

उत्तर:
भारत में मानव अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान, न्यायपालिका और विभिन्न आयोग कार्यरत हैं, फिर भी व्यवहारिक स्तर पर कई गंभीर समस्याएँ विद्यमान हैं। ये समस्याएँ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर देखने को मिलती हैं।

(1) पुलिस अत्याचार और हिरासत में मौतें:
सबसे गंभीर समस्या पुलिस हिंसा है। कई बार पुलिस पूछताछ या हिरासत के दौरान व्यक्तियों के साथ अमानवीय व्यवहार करती है। यातना, मारपीट, अवैध हिरासत, और झूठे मामलों में फँसाना मानव अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।

(2) महिलाओं और बच्चों पर हिंसा:
बलात्कार, दहेज हत्या, बाल विवाह, बाल मजदूरी, और मानव तस्करी जैसी घटनाएँ आज भी व्यापक रूप से मौजूद हैं। इनसे महिला और बाल अधिकारों का हनन होता है।

(3) जातीय और धार्मिक भेदभाव:
सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग, अनुसूचित जाति, जनजाति और धार्मिक अल्पसंख्यक अब भी भेदभाव और हिंसा का शिकार होते हैं। यह समानता के अधिकार के विरुद्ध है।

(4) पर्यावरणीय उल्लंघन और विस्थापन:
बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं और बांधों के कारण हजारों लोग अपने घरों से विस्थापित हो जाते हैं। उन्हें उचित पुनर्वास नहीं मिलता, जिससे उनके जीवन, आजीविका और पर्यावरण के अधिकार प्रभावित होते हैं।

(5) न्यायिक विलंब:
भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या लाखों में है। न्याय में देरी स्वयं एक अन्याय है। इससे पीड़ित को समय पर राहत नहीं मिलती।

(6) भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप:
कई बार मानव अधिकार आयोगों की सिफारिशें राजनीतिक दबाव में लागू नहीं होतीं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार मानव अधिकार संरक्षण की प्रभावशीलता को कम करता है।

(7) असमान विकास और गरीबी:
गरीबी, बेरोजगारी, और अशिक्षा मानव अधिकारों की जड़ में स्थित समस्याएँ हैं। आर्थिक असमानता के कारण व्यक्ति अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाता।

निष्कर्षतः, भारत में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानून पर्याप्त हैं, परंतु उनका वास्तविक कार्यान्वयन तभी संभव है जब शासन व्यवस्था पारदर्शी, जवाबदेह और संवेदनशील बने।


प्रश्न 9. मानव अधिकार शिक्षा का महत्व और उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
मानव अधिकार शिक्षा (Human Rights Education) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने अधिकारों, कर्तव्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक होता है। यह केवल सैद्धांतिक ज्ञान नहीं, बल्कि एक मूल्य आधारित जीवन दृष्टि है जो समाज में समानता, गरिमा और न्याय को सशक्त बनाती है।

(1) जागरूकता का विकास:
मानव अधिकारों का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञान है। जब लोग अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहते हैं, तब उनका शोषण आसान हो जाता है। शिक्षा व्यक्ति को यह समझने में सक्षम बनाती है कि वह किन अधिकारों का अधिकारी है और उनके उल्लंघन पर क्या उपाय उपलब्ध हैं।

(2) सामाजिक परिवर्तन:
मानव अधिकार शिक्षा समाज में सहिष्णुता, भाईचारा और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देती है। यह जातीय, धार्मिक और लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का माध्यम बनती है।

(3) कानूनी सशक्तिकरण:
शिक्षा से नागरिक अपने संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों को जानकर कानूनी उपायों का उपयोग कर सकता है। यह व्यक्ति को केवल अधिकारों का धारक नहीं बल्कि एक सजग नागरिक बनाती है।

(4) लोकतंत्र की मजबूती:
लोकतांत्रिक शासन तभी सफल हो सकता है जब नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत हों। मानव अधिकार शिक्षा लोकतंत्र की आत्मा है।

(5) संस्थागत भूमिका:
विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, मीडिया, और गैर सरकारी संगठनों को मानव अधिकार शिक्षा के प्रसार में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। सरकार को इसे शिक्षा नीति में अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए।

निष्कर्षतः, मानव अधिकार शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं बल्कि मानवता की चेतना है। यह एक ऐसे समाज की नींव रखती है जहाँ हर व्यक्ति का जीवन सम्मान, समानता और स्वतंत्रता पर आधारित हो।


प्रश्न 10. भारत में मानव अधिकारों की प्रभावी सुरक्षा के लिए क्या सुधार आवश्यक हैं?

उत्तर:
भारत में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानून और आयोग तो हैं, परंतु इनकी प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु कई सुधार आवश्यक हैं।

(1) आयोगों को बाध्यकारी शक्तियाँ:
वर्तमान में NHRC और SHRC केवल अनुशंसा कर सकते हैं। इनकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं। इन्हें कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने से इनकी प्रभावशीलता बढ़ेगी।

(2) पुलिस और जेल सुधार:
पुलिस अत्याचार और कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार को रोकने के लिए प्रशिक्षण, निगरानी और पारदर्शिता जरूरी है। स्वतंत्र निगरानी समितियाँ गठित की जानी चाहिए।

(3) न्यायिक सुधार:
न्याय में देरी को दूर करने के लिए विशेष मानव अधिकार न्यायालय स्थापित किए जा सकते हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट और ऑनलाइन न्याय प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिए।

(4) शिक्षा और जागरूकता:
मानव अधिकार शिक्षा को विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य विषय बनाया जाए। मीडिया को भी जन-जागरूकता में शामिल किया जाए।

(5) सामाजिक-आर्थिक सुधार:
गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा मानव अधिकारों के हनन की जड़ हैं। इन पर नियंत्रण से मानव अधिकार स्वतः सशक्त होंगे।

(6) महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा:
विशेष रूप से महिला और बाल आयोगों को अधिक शक्तियाँ दी जाएँ ताकि वे जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें।

निष्कर्ष:
मानव अधिकारों की रक्षा केवल सरकारी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि नागरिक समाज और प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी है। कानून तभी प्रभावी होंगे जब समाज संवेदनशील और जागरूक बनेगा।


प्रश्न 11. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (NHRC) की सीमाएँ और चुनौतियाँ क्या हैं?

उत्तर:
NHRC की स्थापना 1993 में मानव अधिकारों की रक्षा हेतु की गई थी, परंतु इसकी कार्यप्रणाली में कई व्यावहारिक सीमाएँ हैं।

(1) अनुशंसा मात्र की शक्ति:
NHRC केवल सुझाव या अनुशंसा दे सकता है। उसके आदेश बाध्यकारी नहीं हैं। सरकार चाहे तो उन पर अमल करे या न करे।

(2) समय सीमा की बाध्यता:
यह आयोग केवल उन मामलों की जाँच कर सकता है जो एक वर्ष के भीतर दर्ज किए गए हों। इससे पुराने गंभीर मामलों की जांच नहीं हो पाती।

(3) जांच एजेंसियों पर निर्भरता:
NHRC के पास स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं है। उसे पुलिस या अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे निष्पक्षता प्रभावित होती है।

(4) राजनीतिक हस्तक्षेप:
कई बार राजनीतिक कारणों से आयोग की रिपोर्टें सार्वजनिक नहीं की जातीं या उन पर कार्रवाई नहीं होती।

(5) सीमित संसाधन:
कर्मचारियों, विशेषज्ञों और वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण आयोग की कार्यक्षमता प्रभावित होती है।

निष्कर्ष:
NHRC को अधिक शक्तियाँ, संसाधन और स्वतंत्रता देकर ही उसे प्रभावी बनाया जा सकता है ताकि वह मानव अधिकारों की वास्तविक संरक्षक संस्था बन सके।


प्रश्न 12. न्यायपालिका की भूमिका मानव अधिकारों की रक्षा में कैसे महत्वपूर्ण है?

उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका मानव अधिकारों की रक्षा की सबसे प्रभावी संस्था है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने अनेक ऐतिहासिक निर्णयों से मानव अधिकारों को व्यावहारिक रूप दिया है।

(1) अनुच्छेद 21 की विस्तारित व्याख्या:
“जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” को केवल अस्तित्व नहीं बल्कि गरिमामय जीवन, स्वास्थ्य, पर्यावरण और शिक्षा का अधिकार भी माना गया।

(2) प्रमुख निर्णय:

  • मनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): अनुच्छेद 21 के तहत गरिमामय जीवन का अधिकार।
  • सुनिल बत्रा केस (1980): कैदियों के अधिकारों की रक्षा।
  • ओल्गा टेलिस केस (1985): जीविका का अधिकार भी जीवन का हिस्सा।

(3) जनहित याचिका (PIL):
न्यायपालिका ने PIL के माध्यम से समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा की।

(4) पर्यावरणीय अधिकार:
कोर्ट ने स्वच्छ पर्यावरण को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है।

निष्कर्ष:
न्यायपालिका ने मानव अधिकारों को सैद्धांतिक नहीं बल्कि जीवंत अधिकार बनाया है। यह नागरिकों के लिए आशा का स्तंभ है।


प्रश्न 13. भारत की मानव अधिकार नीति में अंतरराष्ट्रीय योगदान का वर्णन कीजिए।

उत्तर:
भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों के संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाता रहा है।

(1) UDHR का समर्थन:
भारत ने 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में “Universal Declaration of Human Rights” का समर्थन किया था।

(2) प्रमुख संधियाँ:
भारत ने ICCPR (1966), ICESCR (1966), CEDAW (1979) और CRC (1989) पर हस्ताक्षर किए हैं।

(3) अंतरराष्ट्रीय सहयोग:
भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) में सक्रिय भागीदारी की है और कई बार सदस्य भी रहा है।

(4) संवैधानिक प्रतिबद्धता:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(c) के अनुसार राज्य का कर्तव्य है कि वह अंतरराष्ट्रीय शांति और मानव अधिकारों को बढ़ावा दे।

निष्कर्ष:
भारत न केवल अपने देश में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी मानव अधिकारों के संवर्धन में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। यह उसकी लोकतांत्रिक और मानवीय नीति का प्रतीक है।


प्रश्न 14. मानवाधिकारों की न्यायिक प्रवर्तन प्रणाली (Judicial Enforcement Mechanism) क्या है?

मानवाधिकारों की रक्षा और प्रवर्तन का सबसे प्रभावी माध्यम न्यायपालिका है। न्यायपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षक मानी जाती है। भारत में संविधान का भाग III नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, और भाग V में उच्चतम न्यायालय तथा भाग VI में उच्च न्यायालयों को इन अधिकारों की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है।
संविधान की धारा 32 और 226 के तहत व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जा सकता है यदि उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो। सर्वोच्च न्यायालय “संविधान का रक्षक” कहलाता है। न्यायालय विभिन्न प्रकार की रिट जारी कर सकता है — हेबियस कॉर्पस, मांडमस, प्रोहीबिशन, क्वो वारंटो, सर्टिओरारी — जो नागरिक अधिकारों के संरक्षण का सशक्त माध्यम हैं।
इसके अतिरिक्त, भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) और राज्य मानवाधिकार आयोग (SHRC) भी न्यायिक प्रवर्तन में सहायक भूमिका निभाते हैं। यद्यपि इन आयोगों के निर्णय न्यायालय की तरह बाध्यकारी नहीं होते, फिर भी वे मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों में जांच, सिफारिश और रिपोर्ट देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इस प्रकार, न्यायपालिका भारत में मानवाधिकारों की रक्षा का अंतिम और सर्वोच्च साधन है।


प्रश्न 15. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की शक्तियाँ और कार्य बताइए।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना 12 अक्तूबर 1993 को मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के अंतर्गत की गई। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में मानवाधिकारों की रक्षा, संवर्धन और उल्लंघन की रोकथाम है।
मुख्य कार्य और शक्तियाँ निम्नलिखित हैं:

  1. मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच करना।
  2. पुलिस, सेना, जेल प्रशासन या किसी सरकारी संस्था द्वारा किए गए उल्लंघन की समीक्षा।
  3. सरकार को सिफारिश देना कि पीड़ित को उचित मुआवज़ा दिया जाए या दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
  4. जेलों और अन्य निरोधक संस्थानों का निरीक्षण करना ताकि बंदियों के अधिकारों का उल्लंघन न हो।
  5. मानवाधिकार शिक्षा और अनुसंधान को बढ़ावा देना।
  6. अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ समन्वय स्थापित करना।
    NHRC के पास स्वतः संज्ञान (suo moto) लेने की शक्ति है, और यह केंद्र या राज्य सरकार से रिपोर्ट मांग सकता है।
    हालांकि, इसके निर्णय बाध्यकारी नहीं हैं, फिर भी इसका नैतिक प्रभाव और सार्वजनिक दबाव सरकारों को सुधारात्मक कार्रवाई करने के लिए बाध्य करता है। NHRC ने मानवाधिकारों की रक्षा को जनचेतना का मुद्दा बना दिया है।

प्रश्न 16. राज्य मानवाधिकार आयोग (SHRC) की भूमिका क्या है?

राज्य मानवाधिकार आयोगों की स्थापना मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत राज्यों में की जाती है। इनका उद्देश्य राज्य स्तर पर मानवाधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना है।
राज्य आयोग के अध्यक्ष आमतौर पर उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश होते हैं। इनके मुख्य कार्य हैं:

  1. राज्य के भीतर मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच करना।
  2. सरकार और पुलिस को सिफारिश देना कि उल्लंघनकर्ताओं के विरुद्ध क्या कार्रवाई होनी चाहिए।
  3. जेलों, बाल गृहों, वृद्धाश्रमों और पुनर्वास केंद्रों का निरीक्षण।
  4. मानवाधिकारों के प्रचार-प्रसार हेतु शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन।
    राज्य आयोग मानवाधिकार शिकायतों को सीधे प्राप्त कर सकता है या NHRC को रिपोर्ट भेज सकता है।
    हालांकि, SHRC के पास न्यायिक शक्ति सीमित होती है, परन्तु इसके निर्णय और रिपोर्ट राज्य सरकार पर नैतिक दबाव डालते हैं।
    SHRC की भूमिका स्थानीय स्तर पर न्याय दिलाने में अत्यंत उपयोगी है क्योंकि यह जनता की पहुंच में होता है और क्षेत्रीय मुद्दों पर तत्काल संज्ञान ले सकता है।

प्रश्न 17. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की भूमिका क्या है?

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC), ह्यूमन राइट्स कमिटी, यूनिसेफ, यूएनडीपी, एमनेस्टी इंटरनेशनल, और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाएँ विश्व स्तर पर मानवाधिकारों के पालन की निगरानी करती हैं।
UNHRC सदस्य राष्ट्रों की मानवाधिकार स्थिति की समीक्षा करती है, शिकायतें स्वीकार करती है और सिफारिशें देती है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच स्वतंत्र संगठन हैं जो रिपोर्ट प्रकाशित कर सरकारों पर दबाव बनाते हैं कि वे मानवाधिकार उल्लंघन रोके।
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियाँ जैसे यूनिसेफ बच्चों के अधिकारों पर, UN Women महिलाओं के अधिकारों पर, और ILO श्रमिक अधिकारों पर काम करती हैं।
इन संस्थाओं ने वैश्विक मानवाधिकार मानक तैयार किए हैं — जैसे यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (UDHR, 1948), ICCPR (1966) और ICESCR (1966) — जिन्हें सभी देशों को पालन करना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की यह भूमिका वैश्विक स्तर पर एक “मानवाधिकार संस्कृति” विकसित करने में अहम रही है।


प्रश्न 18. मानवाधिकार और विकास (Human Rights and Development) के बीच संबंध स्पष्ट कीजिए।

मानवाधिकार और विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। विकास का वास्तविक उद्देश्य तभी पूरा होता है जब उसमें मानवीय गरिमा, समानता और स्वतंत्रता का समावेश हो।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, “विकास का अर्थ है—मानव की स्वतंत्रता, अवसर और क्षमताओं का विस्तार।”
यदि किसी समाज में गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव या बेरोजगारी है, तो वहां मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।
मानवाधिकारों के बिना विकास केवल आर्थिक वृद्धि तक सीमित रह जाता है, जबकि मानव-केंद्रित विकास व्यक्ति को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक बनाता है।
भारतीय संविधान भी इस संबंध को स्वीकार करता है — अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार), अनुच्छेद 39, 41, 43, और 47 में आर्थिक-सामाजिक न्याय के निर्देश दिए गए हैं।
समान अवसर, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य, रोजगार, और सम्मानजनक जीवन — ये सब विकास और मानवाधिकारों की साझा नींव हैं।
अतः विकास और मानवाधिकार एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।


प्रश्न 19. पर्यावरण संरक्षण और मानवाधिकारों का आपसी संबंध बताइए।

स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण मानव का मौलिक अधिकार है। “जीवन का अधिकार” (अनुच्छेद 21) में पर्यावरण संरक्षण भी निहित है।
यदि किसी व्यक्ति को प्रदूषण, जल संकट, वनों की कटाई या औद्योगिक अपशिष्टों से नुकसान पहुंचता है, तो उसका मानवाधिकार उल्लंघन होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह कहा है कि “स्वस्थ पर्यावरण के बिना जीवन का अधिकार अधूरा है” — जैसे Subhash Kumar v. State of Bihar (1991) और MC Mehta Cases
संयुक्त राष्ट्र ने भी 1972 का स्टॉकहोम डिक्लेरेशन और 1992 का रियो डिक्लेरेशन पारित कर यह स्पष्ट किया कि पर्यावरणीय अधिकार, मानवाधिकार का अभिन्न हिस्सा हैं।
भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, जल अधिनियम, 1974, और वायु अधिनियम, 1981 पर्यावरणीय अधिकारों की रक्षा करते हैं।
इस प्रकार, पर्यावरण संरक्षण और मानवाधिकार आपस में गहराई से जुड़े हैं — एक का उल्लंघन दूसरे का भी हनन है।


प्रश्न 20. भारत में मानवाधिकारों की चुनौतियाँ और उनके समाधान बताइए।

भारत में मानवाधिकारों की सुरक्षा के बावजूद अनेक चुनौतियाँ हैं। प्रमुख चुनौतियाँ हैं — गरीबी, बेरोजगारी, जातिवाद, लैंगिक असमानता, बाल श्रम, पुलिस अत्याचार, आतंकवाद, और भ्रष्टाचार।
अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं, और विकलांगों के अधिकारों का हनन अभी भी समाज में देखा जाता है।
प्रमुख समाधान:

  1. शिक्षा और जागरूकता: लोगों को अपने अधिकारों की जानकारी होनी चाहिए।
  2. न्यायिक सुधार: अदालतों में मामलों का शीघ्र निपटारा हो ताकि पीड़ितों को न्याय मिल सके।
  3. प्रशासनिक जवाबदेही: पुलिस, जेल और सरकारी संस्थानों में पारदर्शिता बढ़ाई जाए।
  4. महिला और बाल संरक्षण कानूनों का सख्ती से पालन।
  5. मानवाधिकार आयोगों को अधिक शक्तियाँ और संसाधन प्रदान करना।
    यदि ये सुधार लागू किए जाएँ, तो भारत एक सशक्त मानवाधिकार-सम्मत लोकतंत्र बन सकता है जहाँ हर नागरिक गरिमा, समानता और स्वतंत्रता के साथ जीवन व्यतीत कर सके।