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“Hamid Raza बनाम State of NCT of Delhi: नाबालिग विवाह, पोक्सो प्रावधान और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के बीच टकराव

“Hamid Raza बनाम State of NCT of Delhi: नाबालिग विवाह, पोक्सो प्रावधान और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के बीच टकराव — शासन एवं न्याय की एक जटिल परीक्षा”


प्रस्तावना

भारत में मानवाधिकार, बच्चों की सुरक्षा और व्यक्तिगत धर्मनिरपेक्ष कानूनों का संतुलन हमेशा संवेदनशील न्यायवैधानिक मुद्दा रहा है। जब ये तीन दृष्टिकोण — POCSO अधिनियम, भारतीय दंड संहिता, और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरियत) — आपस में टकराते हैं, तो न्यायालयों को न सिर्फ कानूनी दृष्टिकोण बल्कि सामाजिक, नैतिक और संवैधानिक कारकों का समन्वय करना पड़ता है। Hamid Raza बनाम State of NCT of Delhi (Delhi High Court का आदेश, सितंबर 2025) एक ऐसा मामला है जिसमें इस टकराव को सामने लाया गया है:

— पुलिस का तर्क है कि Raza की पत्नी (prosecutrix) उस समय नाबालिग (minor) थी जब उनके बीच वैवाहिक संबंध हुए, इसलिए उसकी सहमति कानूनी रूप से अनुपयुक्त है।
— दूसरी ओर, पक्ष ने यह तर्क दिया कि उन्होंने वैवाहिक जीवन स्थापन किया है, दोनों एक दूसरे की सहमति से जुड़े हैं, और विवाह के बाद उनका एक पुत्र भी है।
— सबसे जटिल बिंदु यह है कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में बाल विवाह पर विशेष दृष्टिकोण हो सकता है, और वह POCSO व BNS (Bare Acts, कानून नियमावली) से कैसे टकराता है?

इस लेख में हम इस मामले की पृष्ठभूमि, न्यायालय की तर्क-गतिकी, संवैधानिक एवं दंडप्रक्रियात्मक चुनौतियाँ एवं व्यापक निहितार्थों पर विचार करेंगे।


I. पृष्ठभूमि एवं तथ्यत्रुटि (Factual Matrix)

  1. मूल FIR और आरोप
    — रिपोर्ट के अनुसार, 15 जून 2024 को पुलिस को शिकायत मिली (FIR No. 390/2024) कि prosecutrix (नीचे कहा जाता है A) घर से गायब हो गई।
    — जांच में पता चला कि A की जन्मतिथि 05.02.2011 (13 वर्ष 7 महीने) दर्ज थी।
    — बाद में, आरोप जोड़े गए कि A ने अवैध संबंध बनाए, और उसके साथ संभोग किया गया — यह संबंध कथित रूप से consent-based था, लेकिन पुलिस का तर्क है कि क्योंकि वह नाबालिग थी, उसकी सहमति कानूनी दृष्टि से कोई प्रभाव नहीं रखती।
    — इस संदर्भ में, आरोपों के तहत IPC धारा 376, POCSO अधिनियम की धारा 6 आदि लागू किए गए।
  2. परिवारिक/पार्श्व घटनाएँ
    — prosecutrix का आरोप है कि उसके सौतेले पिता ने उसके साथ बलप्रयोग किया, जिससे वह गर्भवती हुई और एक बच्ची को जन्म दिया।
    — उस बच्ची का डीएनए परीक्षण उसके step-father से मैच पाया गया।
    — prosecutrix ने दावा किया कि maltreatment की वजह से वह अपने घर से निकल गई और आरोपी (Raza) से संपर्क किया।
    — Raza और prosecutrix ने 04 जून 2024 को इस्लामिक कानूनानुसार विवाह किया।
    — इस बीच, दोनों के बीच एक संतान हुई।
    — prosecutrix और उसका पुत्र वर्तमान में Child Welfare Centre (Nirmal Chhaya) में हैं — prosecutrix का कहना है कि यह “क़ैद” जैसा है।
  3. न्यायालयीन प्रक्रिया एवं interim bail
    — Raza को 06.10.2024 को गिरफ्तार किया गया।
    — Raza ने न्यायालय में अंतरिम जमानत (interim bail) का आवेदन किया। हाई कोर्ट ने 19 सितंबर 2025 को आदेश दिया कि वह ₹10,000 की व्यक्तिगत बाध्यता (personal bond) प्रदान करे और जमानत दिए जाए।
    — आदेश यह था कि दोनों (Raza एवं prosecutrix) अगले सुनवाई पर अदालत में उपस्थित हों, और वह प्रतिदिन दो घंटे वेलफ़ेयर सेंटर में prosecutrix और पुत्र से मिल सकें।
    — आगे सुनवाई 23 सितंबर 2025 के लिए तय की गई।
    — कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि यह एक “असामान्य मामला” है — जहाँ न तो स्पष्ट पीड़ित है, न ही पीड़ितकर्ता; विवाद की प्रकृति ऐसी है कि न्यायालय को संवेदनशील तरीके से विचार करना चाहिए।

यह पृष्ठभूमि हमें यह दिखाती है कि यह मामला सिर्फ दंडात्मक प्रक्रिया का नहीं, बल्कि व्यक्तिगत कानून, सहमति सिद्धांत, सुरक्षित सहमति (consent) और संवैधानिक युक्तियों का संगम है।


II. मुख्य प्रश्न एवं विवाद बिंदु

इस मामले में निम्नलिखित मुख्य कानूनी और न्याय-सिद्धांतात्मक प्रश्न उठते हैं:

  1. नाबालिग और सहमति (Minor & Consent) का प्रश्न
    — POCSO अधिनियम और अन्य प्रावधानों के अंतर्गत, यदि किसी व्यक्ति नाबालिग है, तो उसकी सहमति को वैध नहीं माना जाता। यह एक non-derogable safeguard है।
    — इसलिए, यदि prosecutrix नाबालिग थी, तो सम्बंध या विवाह की सहमति — चाहे वह कथित रूप से स्वैच्छिक हो — कानूनन अवांछित हो सकती है।
    — लेकिन, यदि वह सचमुच तब वयस्क थी, तो सहमति की शक्ति स्वीकारनी चाहिए — तर्क यह है कि व्यक्ति को उसकी सहमति का सम्मान करना चाहिए, यदि तथ्यतः वयस्क हो।
  2. व्यक्तिगत कानून (Muslim Personal Law) और POCSO / BNS (Bare Statutes) के बीच टकराव
    — मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरियत) में एक अवधारणा है कि यदि लड़की ने पयुप्सू पुरुषत्व प्राप्त कर लिया हो, तो वह विवाह कर सकती है — “puberty” आधारित विवाह की स्वीकृति।
    — परंतु, POCSO अधिनियम और भारतीय कानून (BNS) यह निर्धारित करते हैं कि विवाह की संवैधानिक या दंडात्मक मान्यता राज्य द्वारा दी जानी चाहिए, और व्यक्तिगत कानून इसको override नहीं कर सकता।
    — क्या मुस्लिम व्यक्तिगत कानून इस दायरे में POCSO या BNS को अधिस्थापित कर सकता है? क्या इसे विशेष संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है?
  3. बेल (Bail / Interim Bail) प्रदान करने की प्रक्रिया एवं विचार
    — बेल देने या न देने का निर्णय एक विवेकाधीन निर्णय है, जिसे न्यायालय को पक्षपाती, तर्कहीन या capricious नहीं होना चाहिए।
    — इस मामले में, न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी — किन्तु क्या यह तर्कसंगत था? न्यायालय ने किन वैधानिक और संवैधानिक दृष्टिकोणों का अनुसरण किया?
    — गिरफ्तारी प्रक्रिया, गिरफ्तारी के लिखित कारण, अधिसूचनाएँ इत्यादि का पालन हुआ या नहीं — यदि नहीं, तो क्या यह गिरफ्तारी / निरुद्धता अवैध थी और बेल का आधार बन सकती है?
  4. न्यायालय की टिप्पणी: “No Victim, No Victimiser”
    — हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि इस मामले में न तो स्पष्ट पीड़ित है, न आरोपी; दोनों स्वैच्छिक रूप से जुड़े हुए हैं।
    — इस दृष्टिकोण पर क्या तर्क संगत है? क्या न्यायालय बेल चरण में इतनी दूर तक दूसरे पक्ष की स्थिति जान सकता है?
  5. संवैधानिक एवं नीतिगत प्रश्न: क्या व्यक्तिगत कानून और धर्मनिरपेक्ष कानूनों का अनुपालन संभव है?
    — यदि व्यक्तिगत कानून को राष्ट्रीय कानूनों से ऊपर रखा जाए, तो उसके दुष्परिणाम क्या होंगे?
    — विधानमंडल (Parliament) की भूमिका क्या है? क्या इस तरह के मामलों के समाधान हेतु सामान्य नागरिक कानून (Uniform Civil Code) आवश्यक है?

III. न्यायालय की तर्क-क्षमता एवं विश्लेषण

नीचे हम मुख्य अंशों पर गौर करते हैं जिनसे न्यायालय ने अंतरिम जमानत दी और किन मानदर्शकों को अपनाया:

  1. अदालत की टिप्पणी और विश्लेषण
    — न्यायालय ने कहा कि यह मामला “असामान्य” है — दोनों पक्षों ने बताया कि वे एक-दूसरे की सहमति से जुड़े हैं, उन्होंने विवाह किया है, और अब एक संतान है।
    — यह तथ्य विचारणीय था कि prosecutrix खुद उपस्थित थीं और उन्होंने कहा कि उन्हें यह स्थिति स्वीकार नहीं है कि वे “कैद” में हैं।
    — कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि निर्णय पारदर्शी और संवेदनशील दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए, न कि यांत्रिक।
  2. गिरफ्तारी प्रक्रिया और अधिकारों का उल्लंघन
    — आदेश के अनुसार, Raza को 04 अक्टूबर 2024 को गिरफ्तार किया गया, लेकिन केवल 07 अक्टूबर को विशेष न्यायाधीश के सामने पेश किया गया, जो 24 घंटे की सीमा का उल्लंघन है।
    — न्यायालय ने यह सवाल उठाया कि क्या गिरफ्तारी के लिखित कारणों की सूचना देने का प्रावधान पालन हुआ था? यानी, क्या Section 47 BNSS आदि का पालन हुआ? ऐसा न किया जाना गिरफ्तारी को अवैध कर सकता है।
    — यदि गिरफ्तारी विधिक रूप से अवैध हुई है, तो निरुद्धता (detention) को चुनौती देना संभव है और यह बेल के आधार बन सकती है।
  3. सापेक्षता और गैर-दोष सिद्धांत
    — बेल निर्णय करते समय सामान्यतः यह देखा जाता है: अपराध की गंभीरता, अपराधी की पृष्ठभूमि, मृत्यु की आशंका, गवाह प्रभावित करने की संभावना, और विधिक औचित्य।
    — इस मामले में, अदालत ने यह देखा कि Raza का कोई आपराधिक पूर्व रिकॉर्ड नहीं है, गवाहों को प्रभावित करने का कोई ठोस इरादा नहीं दिख रहा, और न ही भागने का व्यवहार।
    — इसके अतिरिक्त, FIR की लैंगिक / तथ्यात्मक विश्वसनीयता और अभियोजन के दायित्वों की भी समीक्षा की गई। यह देखा गया कि FIR की पृष्ठभूमि विवादित हो सकती है।
  4. पूर्व न्यायनिर्णय और मुस्लिम कानून संदर्भ
    — पक्षकारों ने कई पूर्व मामलों का हवाला दिया (Mulla, Tyabji आदि) कि मुस्लिम कानून के अंतर्गत puberty-based विवाह वैध माना गया है।
    — लेकिन न्यायालय ने यह कहा कि भाजपा Sheer निजता कानूनों को POCSO व BNS अधिनियमों से ऊपर नहीं रखा जा सकता — व्यक्तिगत कानून POCSO या BNS को override नहीं कर सकता।
    — कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि इस प्रश्न का निर्णय बेल आरोपी पर नहीं किया जा सकता; वह विषय अंतिम परीक्षण और तथ्य-जांच से तय होना चाहिए।
  5. अंतरिम जमानत का आदेश
    — न्यायालय ने Raza को ₹10,000 की व्यक्तिगत बाध्यता पर अंतरिम जमानत देने का निर्देश दिया।
    — साथ ही, आदेश दिया कि दोनों पक्ष अगली सुनवाई में उपस्थित हों; और Raza को प्रतिदिन दो घंटे Welfarm Centre में prosecutrix और पुत्र से मिलने की अनुमति हो।
    — कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह इस आदेश में कोई अंतिम निहितार्थ निर्णय (on merits) नहीं दे रहा, विशेष रूप से विवाह की वैधता पर।

इस प्रकार, कोर्ट ने इस विवादित विषय में नीतिगत सावधानी बरती, गिरफ्तारी प्रक्रिया की संवैधानिक त्रुटियों को गौर किया, और पक्ष-तुल्य न्याय की दृष्टि से अंतरिम राहत दी।


IV. आलोचनाएँ, चुनौतियाँ एवं संवेदनशील बिंदु

यह निर्णय जहां प्रशंसनीय पहलू प्रस्तुत करता है, वहीं कुछ आलोचनात्मक बिंदु और चुनौतियाँ भी सामने आती हैं:

  1. बेल स्तर पर गहन तथ्य-निर्णय करना
    — कुछ आलोचक कह सकते हैं कि अंतरिम जमानत स्तर पर अदालत ने बहुत दूर तक तथ्य-निर्णय किया — जैसे कि विवाह की स्वेच्छा, सहमति, और FIR की विवादित पृष्ठभूमि। BEL स्तर पर यह सावधानी से करना अपेक्षित था।
    — यदि अदालत कम विचारों के साथ आगे बढ़े, तो यह अपीलीय समीक्षा के दौरान विवाद का कारण बन सकता है।
  2. “No Victim, No Victimiser” दृष्टिकोण का जोखिम
    — यह दृष्टिकोण संवेदनशील है — क्योंकि यदि कानून यह कहे कि कोई पीड़ित नहीं है, तो अन्य मामलों में अपराधों का दायित्व कमजोर हो सकता है।
    — विशेष रूप से तब जब बाल-उत्पीड़न (child sexual offences) जैसे जटिल अपराध हों, हमेशा इस तरह की टिप्पणी सुरक्षित नहीं होती।
  3. व्यक्तिगत कानून का सीमित स्थान
    — न्यायालय ने सही कहा कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून POCSO व BNS को override नहीं कर सकता। इस सीमा को स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे लागू करना न्यायालय के लिए कठिन हो सकता है जब व्यक्तिगत विश्वासों और कानूनों का टकराव हो।
    — कई मुस्लिम पक्षों या समुदायों में यह निर्णय विरोधी लग सकता है कि व्यक्तिगत धार्मिक कानून को राष्ट्रीय कानूनों से नीचा माना जाए।
  4. विधायिका की देरी और नीति अधूरापन
    — इस मामले ने यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका इस तरह के संवेदनशील मामलों का समाधान करने की भूमिका तो निभा सकती है, लेकिन बेहतर समाधान विधायिका (Parliament/State Legislature) द्वारा कानून-निर्माण है।
    — यदि संसद समय रहते व्यक्तिगत और नागरिक कानूनों को सामंजस्य नहीं देती, तो ऐसी जटिलताएं बार-बार सामने आएंगी।
  5. प्रभाव और भविष्य की दिशा
    — यह निर्णय एक महत्वपूर्ण प्रेक्षण बिंदु बन सकता है कि न्यायालय ऐसे मामलों में संवेदनशीलता और संवैधानशील दृष्टिकोण अपनाए — लेकिन इसके आधार पर व्यापक पूर्वाग्रह निर्माण न हो।
    — साथ ही, यह संभावना है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे और उच्च न्यायालयों में अनुसरण किया जाए।

V. निहितार्थ एवं सुझाव

इस निर्णय से हमें कई महत्वपूर्ण सीख और नीतिगत संकेत मिलते हैं जिन पर आगे विचार करना चाहिए:

  1. न्यायालयों को बेल स्तर पर भी संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना चाहिए
    — जब मामले में व्यक्तिगत जीवन, सहमति और संवैधानिक दृष्टिकोण टकराते हों, तो न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बेल निर्णय न्यायसंगत, तथ्य-उत्तरदायी और तर्कसंगत हो।
    — गिरफ्तारी प्रक्रिया की संवैधानिक बाधाओं (जैसे लिखित कारण, सूचना, समय पर पेशी) का पालन न होने पर तत्काल संज्ञान लिया जाना चाहिए।
  2. व्यक्तिगत कानूनों और राष्ट्रीय कानूनों की संगति आवश्यक है
    — यदि व्यक्तिगत कानून (मुस्लिम, हिन्दू, अन्य) इस तरह व्याख्यायित हों कि वे POCSO, BNS आदि से ऊपर माने जाएँ, तो यह न्याय-मानदंडों और समानता के सिद्धांतों से टकराएगा।
    — ऐतिहासिक रूप से, भारत में व्यक्तिगत कानूनों के संचालन को सीमित करने या उन्हें राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप करना आवश्यक हो गया है।
  3. विधायिका को तेजी से हस्तक्षेप करना चाहिए
    — संसद/राज्य विधानमंडलों को एक सामान्य नागरिक कानून (Uniform Civil Code) की दिशा में गंभीर रूप से विचार करना चाहिए, ताकि धर्मनिरपेक्ष, समान और न्यायसंगत नियम पूरे देश में लागू हो सकें।
    — विशेष रूप से, बाल विवाह, सहमति आयु, विवाहीय अधिकार और दायित्वों को एक समेकित कानून में स्पष्ट करना चाहिए।
  4. साक्ष्य-आधारित न्याय
    — अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि निर्णयों में सिर्फ विधिक दलीलों पर निर्भर न हों, बल्कि तथ्यों, साक्ष्यों, परीक्षणों और प्रतिवादात्मक सुनवाई पर आधारित हों।
    — BEL स्तर पर इतना गहरा परीक्षण न करें कि तथ्य-जांच को प्रभावित करें, लेकिन आवश्यक समीक्षा अवश्य हो।
  5. संवेदनशीलता एवं न्यायकर्म संचालन
    — इस और ऐसे अन्य मामलों में न्यायाधीशों को संवेदनशील बनना चाहिए — विशेषकर, प्रभावित पक्षों (जैसे महिलाएँ, नाबालिग व्यक्ति) की सुरक्षा और गरिमा को ध्यान में रखना चाहिए।
    — “No Victim, No Victimiser” जैसे अभिव्यक्ति उपयोग करते समय सतर्क रहना चाहिए, ताकि इससे न्याय प्रक्रिया की गंभीरता न कम हो।

निष्कर्ष

Hamid Raza बनाम State of NCT of Delhi मामला भारत के न्यायालय प्रणालियों के लिए एक महत्वपूर्ण कैलिबर परीक्षण है। इसने प्रदर्शित किया कि व्यक्तियों के बीच सहमति, व्यक्तिगत कानून और दंडात्मक संरचना कैसे टकरा सकते हैं।

न्यायालय ने संतुलन बनाने की कोशिश की: गिरफ्तारी प्रक्रिया में संवैधानिक पक्षों की अनदेखी को देखा; पक्षों की सहमति एवं पारिवारिक स्थिति का ध्यान रखा; और अंततः अंतरिम जमानत दी। लेकिन इस निर्णय में यह स्पष्ट भी किया गया कि विवाह की वैधता या सहमति की सत्यता का निर्धारण बेल स्तर पर नहीं हो सकता — यह तथ्यात्मक परीक्षण का विषय है।

इस प्रकार, यह मामला न केवल एक अदालती निर्णय है, बल्कि एक नीति एवं विधिलक्षण अगुआई संकेत भी है — यह संकेत है कि भारतीय न्याय निकायों को व्यक्तिगत कानूनों एवं राष्ट्रीय कानूनों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए, और विधायिका को समय रहते राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट, समेकित और न्यायसंगत कानून बनाना चाहिए।