Introduction to Legal Language:
(विधिक भाषा का परिचय) :
प्रश्न 1. भाषा से आप क्या समझते हैं? भाषा का विधि के अध्ययन में क्या महत्व है ? स्पष्ट करें। What do you understand by Language? What is theimportance of language in study of Law? Explain.
उत्तर- भाषा – व्यक्ति की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अनोखा माध्यम भाषा है। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी बातों को, विचारों को एवं भावनाओं को एक- दूसरे तक पहुँचाता है।
भाषा के परिप्रेक्ष्य में प्लेटो ने कहा है कि भाषा, प्रतीक, अर्थ और संसूचना, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। शब्दों में अनिश्चितता की उपछाया होती है। फिर भी भाषा विधि का माध्यम है। प्रमाणवाद के प्रवर्तक जेरेमी बेन्थम ने भाषा एवं विधि के पारस्परिक सम्बन्ध के प्रति जागरूकता जगाने का प्रयास किया। बेन्थम ने अट्ठारहवीं शताब्दी में प्रचलित अति विस्तार, व्यतिरिक्तता और जटिलता से बोझिल आरेखण कला से ग्रसित संविधि की आलोचना की। बेन्धम के विचारों से भाषा संक्षेपण एवं सरलीकरण को प्रोत्साहन मिला।
विधि के अध्ययन में भाषा का महत्व– विधि को भाषा के माध्यम से निर्मित किया जाता है और तर्क इससे नियन्त्रित होता है। अधिवक्ताओं का कार्य शब्दों के साथ जुड़ा है। शब्द विचारों के उपकरण ही नहीं हैं बल्कि वे उन्हें नियन्त्रित भी करते हैं। अधिवक्ता भाषा संरचना की योजना के अनुसार ही सोचता है। विधि के वाहक के रूप में शब्दों का प्रयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। शब्द अपने आप में उद्देश्य नहीं हैं बल्कि वे उद्देश्यों की पूर्ति के साधन हैं। शब्द के अर्थ विधिक वास्तविकता को ज्यादा निश्चित अन्तर्वस्तु प्रदान करते हैं।
भाषा के माध्यम से विधि अपने क्रियात्मक संसाधनों द्वारा सामाजिक नियन्त्रण कायम करती है। उदाहरण के लिए ‘अधिकार’, ‘कर्तव्य’ और ‘अपकृत्य’ जैसे शब्द सामाजिक – नियन्त्रण के वाहक हैं। भाषा के प्रयोग का दायरा विस्तृत है। विधि उसका केवल एक विशेषीकृत अंश है। विधि के क्षेत्र में भाषा दो उद्देश्यों को पूरा करती है-
प्रथम, भाषा नियम या तथ्य सम्बन्धी कथन में सहायक है। द्वितीय, भाषा का प्रयोग समझा-बुझाकर प्रभावित करने के लिए किया जाता है। विधि भाषा द्वारा और भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। विधि का स्थिर रूप संविधि, रिपोर्ट्स एवं पाठ्य पुस्तकों में प्रयुक्त शब्दों में प्राप्त होता है, तो इसका प्रगतिशील रूप निर्णयों, दलीलों एवं प्रारूप लेखन में प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है।
विधि में भाषा की भूमिका के अध्ययन की दिशा में विशेष रुचि बीसवीं शबाब्दी में दिखाई दी। इंग्लैण्ड में ग्लैनविल विलियम्स और संयुक्त राज्य अमेरिका में वाल्टर प्राबर्ट ने अपने अध्ययन में विधि में भाषा की भूमिका पर विशेष बल दिया। विलियम्स का अध्ययन। प्रमुखतः और विस्तृत तौर पर दो बिन्दुओं पर अवलम्बित है-
प्रथम यह कि शब्दों में स्वतः अस्पष्ट और सन्दिग्धार्थकता है और द्वितीय, यह कि अनेक शब्दों या पदों की प्रकृति संवेगात्मक या मनोभाव उत्पन्न करने वाली है। विलियम्स का विचार है कि शब्दों में अनिश्चितता की खण्ड छाया है। भिन्न-भिन्न अर्थों वाली विधिक संकल्पनाओं के प्रयोग के कारण विभ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं। दूसरी तरफ न्याय, अपकृत्य और विधि का शासन जैसे मूल्य अन्तर्विष्ट शब्द युक्तिसंगत कार्य पूरा करने के बजाय मनोभाव उत्पन्न करते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या शब्दों में कोई जादू है? विभिन्न न्यायाधीशों ने अनेक मामलों में यह विचार व्यक्त किया है कि शब्दों में कोई जादू नहीं है। ग्लेनविल विलियम्स ने इसका प्रतिवाद किया है। उन्होंने डीन बनाम डीन, (1891) चान्स 150 (155) के बाद में न्यायाधीश चिट्टी के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने यह स्वीकार किया है कि शब्दों में जादू है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “बहुत से मामलों में मात्र शब्दों के स्वरूप में अन्तर विधि में अन्तर उत्पन्न करता है।” उदाहरण के लिए यदि ‘अ’, ‘ब’ को बन्धक पर धन उधार देता है और शर्त लगाता है कि ब्याज 5 प्रतिशत होगा। परन्तु यदि तत्काल भुगतान नहीं किया जाता है तो 6 प्रतिशत देय होगा। दण्ड या शास्ति के रूप में बाद वाला भाग शून्य है। यदि ‘ब’ तत्परता से भुगतान नहीं करता तो भी उसे 5 प्रतिशत भुगतान करने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ यदि ‘अ’ ने शर्त रखी होती कि ब्याज 6 प्रतिशत होगी परन्तु यदि तत्परता से भुगतान किया जाता है तो 5 प्रतिशत ही देय होता तो पूरा प्रावधान वैध होता।
वलिंग फोर्ड बनाम म्युचुअल सोसाइटी, (1830) अपील केसेज 685 (702) में लॉर्ड हैचलों ने इसे सीधे बेकार ठहराने के बजाय विधिक विशेषित मस्तिष्क लगाकर इसे सूक्ष्म अन्तर कहा। परन्तु यथार्थ में यह अन्तर शब्दों में अन्तर के साथ विधिक परिणामों में अन्तर है।
प्रश्न 2. विधिक भाषा से आप क्या समझते हैं? भारत में विधिक भाषा की क्या समस्या है? स्पष्ट करें। What do you understand by Legal Language? What is the problem of Legal Language in India? Explain.
उत्तर—विधिक भाषा (Legal Language) – विधिक भाषा से तात्पर्य भाषा के उस अंश से है जो विधि वृत्ति से जुड़े विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न क्षमताओं में किया जाता है। विधि एक प्राविधिक विषय है। प्रत्येक प्राविधिक विधाओं की तरह विधि की अपनी विशिष्ट भाषा है जिसे विधि रजिस्टर कहा जाता है। प्रत्येक विधि की तरह विधि अपनी विशिष्ट भाषा रजिस्टर के माध्यम से व्यक्त होता है।
‘विधिक भाषा’ में भाषा के साथ ‘विधिक’ विशेषण जुड़ा है। इस तरह एक विशेषीकृत भाषा का द्योतक है। परन्तु अन्य विधियों की विशेषीकृत भाषा से विधि की विशेषीकृत भाषा का कार्यक्षेत्र एवं प्रभाव थोड़ा सा भिन्न है। अन्य विधाओं की विशेषीकृत भाषा का प्रयोग उतने विस्तृत दायरा में नहीं होता है जितना कि विधि की विशेषीकृत भाषा का प्रयोग होता है। विधिक भाषा का सम्बन्ध साधारण लोगों से भी होता है। विधि का शासन या न्यायालय के निर्णय साधारण लोगों को प्रभावित करते हैं। विधिक भाषा के बारे में सामान्य मान्यता है कि इस भाषा को साधारण लोग समझने में असमर्थ होते हैं। विधिक भाषा विधिवेत्ता ही समझ पाते हैं।
विधिक भाषा सबसे भिन्न होती है। भाषा का प्रयोग तीन तरह से किया जाता है। प्राविधिक भाषा प्रयोग, साधारण भाषा प्रयोग और रीतिबद्ध या शैलीबद्ध भाषा का प्रयोग। तकनीकी या प्राविधिक भाषा प्रयोग भाषा से स्वतन्त्र होने का प्रयास करता है। यह अवशिष्ट भाव बिना अनुवाद की अनुमति देता है, मूलपाठ की अधीनता को कम करता है और उसके लागू होने के दायरे पर नियन्त्रण रखता है। विधि की प्राविधिक भाषा विधिक भाषा है। भाषा के विभिन्न प्रयोगों में विधिक भाषा शायद सबसे कम संसूच्य है। विधिक भाषा का प्रयोग करने वाला भाषा का इतना परिष्कृत प्रयोग नहीं कर पाता कि वह दूसरे को आसानी से सन्देह संसूचित कर दे। वृत्तिक अभिविन्यास (Orientation) के कारण विधि का एक विलक्षण शब्द • जाल (Jargon of Law) उत्पन्न हो जाता है।
जी० विलयम्स ने विधिक भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट किया है कि विधिक भाषा सहित तकनीकी भाषा का अर्थ विशेष वर्ग के लोगों में प्रचलित भाषा है। विधिक अर्थ विधिवेत्ताओं की ओर से विनिश्चय का भी द्योतक है जो शब्दों को एक विशेष प्रकार से यह जानते हुए पढ़ते हैं कि उनका प्रयोग करने वाले वह अर्थ संसूचित नहीं करना चाहते थे जो अर्थ विधिवेत्ता निकाल रहे हैं। विधिक वृत्ति में भाषा संसूचना का मात्र माध्यम न होकर विधि का माध्यम और इससे भी आगे वह स्वयं विधि बन जाती है। अतः विधिक भाषा इतनी सरल एवं स्पष्ट होनी चाहिए कि वह बौद्धिक पहुँच के करीब हो सके।
विधिक भाषा, साधारण भाषा और शैलीबद्ध भाषा से भिन्न है। विधिक भाषा की तरह ही इसके एक अंग के रूप में सांविधानिक भाषा का प्रयोग होता है। सांविधिक भाषा मूल मानक की भाषा होती है जिससे अन्य विधियाँ अपनी वैधानिकता प्राप्त करती हैं। विधिक भाषा का प्रभाव – विधिक भाषा के सम्पर्क अथवा प्रभाव में विभिन्न तरह के लोग सम्मिलित हैं। इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो अनिवार्यतः विधिज्ञ हैं और कुछ ऐसे लोग हैं। जो अनिवार्यतः विधिज्ञ न होकर विधि के ज्ञान का अभाव रखते हैं।
विधि के क्षेत्र में संसूचनाएँ पंच आयामी है-
प्रथम आयाम विधि के निर्माताओं द्वारा विधि का निर्वचन कर उसे लागू करने वाले न्यायाधीशों और उसमें सहायक विधि सलाहकारों को संविधि संसूचित करता है। विधि निर्माता अनिवार्यतः विधि के लोग न होने के कारण विधि के रहस्यों में पहल नहीं कर सकते हैं। इसे एकतरफा संसूचना माना गया है जो संविधि कहा जाता है। संविधि की भाषा तकनीकी होती है जिस पर विधि निर्माताओं का वश नहीं रहता है। विधि निर्माताओं का आशय क्या है, यह प्रारूप, लेखकों द्वारा तकनीकी भाषा में संसूचित करने का प्रयास किया जाता है।
संसूचना का दूसरा आयाम न्यायाधीशों और विधि सलाहकारों के बीच होने वाले संव्यवहार हैं। ये अनौपचारिक या औपचारिक हो सकते हैं। न्यायालय में न्यायाधीश और अधिवक्ता के बीच विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है, न्यायाधीश के सम्बोधन के माध्यम से दो अधिवक्ताओं में विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है। ये विचारों के आदान-प्रदान ज्यादा तकनीकी नहीं होते और इसलिए भाषा थोड़ी सरल होती है। परन्तु अधिवक्ताओं द्वारा दाखिल वादसार और न्यायाधीशों द्वारा लिखित निर्णय ज्यादा प्रारूपिक होते हैं। अतः उनकी भाषा ज्यादा तकनीकी होती है।
संसूचना का तीसरा आयाम अनौपचारिक विचार-विमर्श का है जिसमें न्यायाधीश कक्ष में दो या दो से अधिक न्यायाधीशों के बीच विचार-विमर्श अथवा दो या दो से ज्यादा अधिवक्ताओं के बीच उनके दफ्तर में किया गया विचार-विमर्श अथवा विधियों के बीच विधिशास्त्रीय विचार-विमर्श सम्मिलित हैं। संसूचना का यह प्ररूप कम अनौपचारिक होते हुए भी प्रमुखतः तकनीकी होता है।
संसूचना का चौथा आयाम सामान्य नागरिक और विधि सलाहकार के बीच होने वाला विचार-विमर्श है। सामान्य मुवक्किल की भाषा साधारण होती है। विधि सलाहकार यथासम्भव स्पष्ट और यथार्थ भाषा का प्रयोग करता है क्योंकि स्पष्टता की कमी सूझबूझ की कमी उत्पन्न कर सकता है और यथार्थ का अभाव गलतफहमी उत्पन्न कर सकता है। संसूचना का अन्तिम और पाँचवां आयाम सामान्य नागरिकों के बीच संव्यवहार है जो संविदा, वसीयत, उपविधि और संसूचनाओं में व्यक्त होते हैं।
भारत में विधिक भाषा की विशेष समस्या- भारतीय विधिक व्यवस्था देशज विकास पर आधारित न होकर ब्रिटिश ऐंग्लोसेक्शन विधिक व्यवस्था पर अवलम्बित है।
भारत में विधिक भाषा की एक समस्या या यों कहें कि सबसे बड़ी समस्या इस कारण है। कि संविधान निर्माण करने वालों ने शब्दों के विधिक अर्थों में निश्चितता सुनिश्चित करने के बजाय राजनीतिक संरचना पर ज्यादा ध्यान दिया। संविधान किसी भी देश की मूल विधि है। जॉन ब्रिघम ने कहा कि, ‘संविधान को इसके शब्दशास्त्र और एकल परिपाटी के आधार पर एक भाषा के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसे मात्र एक विशिष्ट संस्थापन में अंग्रेजी का प्रयोग नहीं कहा जा सकता है। संविधान में वर्तमान शब्दशास्त्रीय सम्बन्ध एक वृत्तिक भाषा चित्रित करते हैं, जो कम से कम सर्वोच्च अपीलीय स्तर पर प्रारूपिक भाषा की जगह स्वाभाविक गुण रखता है। भारतीय संविधान में कुछ विश्वजनीन शब्दावलियाँ प्रयुक्त की गईं। जैसे- अन्तर्राज्यीय व्यापार या आयात या निर्यात की चर्चा में माल आदि। कुछ शब्द अस्पष्ट अर्थ वाले सम्मिलित किये गये, जैसे-लोक व्यवस्था, लोकहित, युक्तियुक्त निर्बन्धन, शालीनता और नैतिकता, प्रतिकर आदि। कुछ भावार्थ ऐसे हैं जिनकी व्याख्या निश्चित नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग, विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया आदि कुछ भावार्थ ऐसे प्रयुक्त हुए हैं जिनका शाब्दिक अर्थ राजनीतिक अर्थ है।
लेडी चैटरले ‘स लवर नामक पुस्तक का बुक स्टाल पर रखना आपराधिक कृत्य माना गया।
परन्तु राजकुमार बनाम स्टेट, (1980) नामक वाद में ‘प्रजापति’ उपन्यास को अश्लील नहीं माना गया और इसी भाँति सत्यम् शिवम् सुन्दरम फिल्म को कलात्मक माना गया और बॉबी आर्ट इण्टरनेशनल बनाम ओमपाल सिंह हून, (1996) 4 एस० सी० सी० 1 के मामले में ‘वैण्डिट क्वीन’ फिल्म को अश्लीलता की बजाय जुगुप्सा और वितृष्णा उत्पन्न करने वाला माना गया।
भारत में विधिक भाषा की समस्या किसी एक निश्चित भाषा को अनन्य विधिक भाषा न बना पाने की कमी में अन्तर्निहित है। कहना न होगा कि भाषा की समस्या भारत वर्ष के लिए एक बहुत बड़ी समस्या रही है, वर्तमान में है और इक्कीसवीं शताब्दी में भी इसके बने रहने की सम्भावना है। संविधान निर्माण सभा के सामने यह एक अन्यन्त संवेदनशील समस्या थी और अन्ततः बहुत सन्तोषप्रद समाधान नहीं हो पाया। विधिक भाषा की समस्या दो तरफा है। आंग्ल विधिक व्यवस्था पर आधारित होने के कारण भारत की विधिक भाषा सामान्यतः अंग्रेजी है जिसमें अब भी लैटिन के ipso, facto, suo moto, ab initio आदि शब्दों का प्रयोग एवं मुहावरों तथा सूत्रों का प्रचलन है। तकनीकी भाषा होने के कारण विधिक अंग्रेजी भाषा भारतीयों के लिए असहज है। परन्तु इसका प्रयोग छोड़ा नहीं जा सकता है। कारण स्पष्ट है।
कुछ शब्दों में समरूपता के कारण समस्या हो सकती है। उदाहरण के लिए, ‘अवमान’ (Contempt) और ‘अपमान’ दोनों शब्द समानार्थी हैं। परन्तु अवमान का प्रयोग न्यायालय अनुच्छेद 185 और 194 में प्रदत्त संसदीय या विधायिका के विशेषाधिकार के हनन का अवमान माना जाता है या संसद के किसी सदन के अपमान के लिए किया जाता है जबकि अपमान का प्रयोग सामान्य अनादर के लिए किया जाता है। भारतीय संविधान का प्राधिकारिक हिन्दी पाठ 23-08-1988 से प्राप्त है। अब संविधान के दो प्राधिकारिक मूल पाठ उपलब्ध हैं- एक अंग्रेजी में और दूसरा हिन्दी में संविधान सभा द्वारा 17-09-1949 को चेयरमैन डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को संविधान का हिन्दी अनुवाद एवं प्रकाशन के लिए अधिकृत किया गया था। तद्नुसार संविधान का हिन्दी अनुवाद तैयार हुआ और 24-01-1950 की बैठक में संविधान सभा के सदस्यों ने अंग्रेजी और हिन्दी दोनों पाठों पर हस्ताक्षर किया। यह महसूस किया गया कि संविधान का मात्र अनुवाद की जगह, प्राधिकारिक हिन्दी पाठ का होना आवश्यक है क्योंकि अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी राजकाज की भाषा घोषित हुई और यह अपेक्षित हुआ कि न्यायालय केवल संविधान के प्राधिकारिक मूलपाठ के आधार पर ही निर्वाचन एवं निर्णय देंगे, केवल अनुवाद के आधार पर नहीं। इसलिए संविधान का हिन्दी पाठ प्राधिकारिक तौर पर लागू नहीं हुआ। संविधान 58वें संविधान अधिनियम, 1987 द्वारा अनुच्छेद 394-(A) जोड़कर राष्ट्रपति को अधिकृत किया गया कि वर्तमान समय में केन्द्रीय प्राधिकारिक हिन्दी अधिनियम के मूल पाठ में संगत भाषा, शैली और पारिभाषिक शब्दावली की आश्यकतानुसार संविधान सभा द्वारा हस्ताक्षरित संविधान के हिन्दी अनुवाद में संशोधन कर प्रकाशित करायें तथा सभी पश्चात्वर्ती संशोधन भी प्रकाशित करायें। यह भी उपबन्धित किया गया कि राष्ट्रपति की प्राधिकारिता के अन्तर्गत प्रकाशित संविधान का हिन्दी पाठ प्राधिकारिक माना जायेगा तथा शब्दों के संगत अर्थ निकालने के लिए अंग्रेजी और हिन्दी दोनों पाठों को एक साथ पढ़ा जायेगा।
प्रश्न 3. ‘विधि के लिए भाषा का महत्व’ से आप क्या समझते हैं? What do you understand by the importance of language for law’
उत्तर – विधि के लिए भाषा का महत्व (Importance of language for law) — विधि भाषा से बनायी जाती है तथा तर्क इससे नियन्त्रित होता है। अधिवक्ताओं का काम शब्दों के साथ संलग्न रहता है। अधिवक्ताओं के लिए शब्द शिल्प की कच्ची सामग्री होती है। शब्द मात्र विचारों के औजार ही नहीं हैं, बल्कि शब्द उनको नियन्त्रण में भी रखते हैं। वकील भाषा संरचना की योजना के अनुसार ही विचार करता है। विधि के वाहक के तौर पर शब्दों का इस्तेमाल अलग उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है। शब्द अपने आप में कोई प्रयोजन या उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि वे प्रयोजनों को पूरा करने के साधन मात्र हैं। शब्द का तात्पर्य विधिक वास्तविकता को अधिक निश्चित अन्तर्वस्तु देता है। भाषा के माध्यम से विधि अपने क्रियात्मक संसाधनों के द्वारा सामाजिक नियन्त्रण को कायम रखती है। जैसे कि ‘अधिकार’, ‘कर्तव्य’ तथा ‘ अपकृत्य’ की तरह शब्द सामाजिक नियन्त्रण के वाहक होते हैं। भाषा के इस्तेमाल का क्षेत्र बहुत बड़ा है। विधि उसका मात्र एक विशेषीकृत भाग है।
विधि में भाषा दो तरह के प्रयोजनों को पूरा करती है। पहला यह कि यह नियम या तथ्य से सम्बन्धित कथन में मददगार होती है एवं दूसरा यह कि इसका इस्तेमाल सोच- समझकर प्रभावित करने के लिए होता है। विधि भाषा द्वारा एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त की जाती है। विधि का स्थिर स्वरूप संविधि, रिपोर्ट्स और पाठ्यपुस्तकों में इस्तेमाल हुए शब्दों से मिलता है, तो इसका प्रगतिशील स्वरूप न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित निर्णयों, दलीलों और प्रारूप लेखन में इस्तेमाल किये गये शब्दों के माध्यम से प्राप्त होता है। विद्वान विधिवेत्ता कार्ल ओलाइबक्रोला ने स्पष्ट करते हुए कहा कि नियमानुकूल भाषा कामचलाऊ विधिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है।
यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या शब्दों में कोई जादू है ? अनेकों न्यायाधीशों ने कई वादों में यह विचार व्यक्त किया है कि शब्दों में किसी भी प्रकार का कोई जादू नहीं है। इसके लिए निम्न वाद उदाहरण स्वरूप हैं। आर० बनाम इनहैबिटेन्स ऑफ नार्थ निबली, (1792) 5 टी० आर० 94 (मुख्य न्यायाधीश लार्ड केन्यन द्वारा), लार्ड बनाम जेफकिन्स, (1865) 35 बोव० 16 (लार्ड रोमली एम० आर०) और री कैप लेन्स इस्टेट बुल्बेक बनाम सिल्वेस्टर (1876) 45 एल० जे० चान्सरी 280 (जेसेल, एम० आर०) ।
क्लेन बिले विलियम्स ने इस बात का विरोध किया था। इन्होंने डीन बनाम डीन, (1891) 3 चान्स 150 (155) के वाद में न्यायाधीश चिट्टी के विनिश्चय का हवाला देते हुए कहा कि इस वाद में इन्होंने यह स्वीकार किया है कि शब्दों में जादू होता है। न्यायाधीश चिट्टी ने यह स्पष्ट किया कि “बहुत से वादों में केवल शब्दों के रूप में भिन्नता विधि में भिन्नता उत्पन्न करती है।” जैसे कि अगर ‘क’, ‘ख’ को बन्धक पर धन उधार देता है तथा यह शर्त रखता है कि ब्याज 5% होगा, किन्तु अगर इसका तुरन्त संदाय नहीं किया जाता है तो यह 6% पर देय होगा। दण्ड के रूप में बाद वाला अंश शून्य होगा। अगर ‘ख’ तत्परता से संदाय नहीं कर पाता है तब भी उसे 5% संदाय करने की जरूरत है। दूसरी ओर अगर ‘क’ ने यह शर्त रखी होती कि ब्याज 6% हो, किन्तु अगर तुरन्त भुगतान किया जाता है तब 5% ही देय होगा, तब पूर्ण उपबन्ध वैध माना जाता। यह कथन स्ट्रोड बनाम पार्कर, (1642) 2 बर्न0 316 के मामले में किया गया था।
बालिंगफोर्ड बनाम म्युचुअल सोसाइटी, (1830) अपील केसेज 685 (702) के बाद में लाई हैथल ने इसको सीधे बेकार करार देने के बजाय विधिक विशेषित मस्तिष्क लगाकर इसे ‘सूक्ष्म भिन्ना’ कहा है, किन्तु यथार्थ में यह भिन्नता शब्दों में भिन्नता के साथ- साथ विधिक परिणामों में भिन्नता है।
इसका अन्य उदाहरण परन्तु यदि’ और ‘जब तक’ के इस्तेमाल में लिया जा सकता है। अगर ‘अ’ व्यास में ‘च’ के लिए सम्पत्ति प्रदान करता है परन्तु यदि ‘ब’ शादी करता है त ‘क’ के लिए प्रदान करता है। इस मामले में ‘क’ को प्रदान किया गया दान अभिखण्डित हो जायेगा क्योंकि यह ‘ब’ को अविवाहित करने के लिए उत्प्रेरित करने वाला है, जबकि वैध बच्चों को उत्पन्न करना लोकहित या लोक कल्याण में है। इसी वजह से इस मामले में ‘ब’ को सम्पत्ति पूरी प्राप्त हो जायेगी परन्तु यदि इस प्रकार के शब्दों का इस्तेमाल होता है कि ‘अ’ न्यास में ‘ब’ के वास्ते सम्पति उस समय के लिये प्रदान करता है जब तक कि ‘ख’ शादी नहीं कर लेता है तथा उसके पश्चात् ‘क’ के वास्ते प्रदान करता है। इस मामले में ‘क’ को किया गया दान वैध माना जायेगा तथा ‘ब’ सम्पति को खो देगा यदि वह शादी कर लेता है। दोनों मामलों में उद्देश्य यह है कि ‘ब’ सम्पत्ति का उस समय तक इस्तेमाल करेगा जब तक कि वह शादी नहीं कर लेता है तथा उसके शादी करने के पश्चात् ‘क’ उस सम्पत्ति का प्रयोग करेगा। परन्तु शब्दों में भिन्नता होने के साथ इसके विधिक परिणामों में भिन्नता हो गयी। आयरिश न्यायाधीश एम० आर० पोर्टर ने री किंग्स ट्रस्ट्स, (1892) एल० आर० आयरिश 401 के वाद में उपरोक्त ‘परन्तु यदि ‘but if तथा जब तक (Until) में भिन्नता के बारे में कहा कि यह हमारे विधिशास्त्र के लिए कलंकास्पद अथवा अपयशकर व्यवहार से ज्यादा कम नहीं है।
स्वीडन के निवासी स्कैण्डोनेवियन और यथार्थवादी एक्सेल हेगरस्ट्रोम में रोमन विधि का अध्ययन करके यह प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया कि किस प्रकार से पारम्परिक विधि प्ररूपों में कर्तव्य तथा बंधन की भावना को उभारने के लिए ‘शब्द-जादू’ का इस्तेमाल किया गया था। इसके अनुसार यह कहना है कि विधि में बंधनकारी नियम होते हैं, सच्चाई को रहस्यमय बनाता है क्योंकि बन्धनकारिता के गुण का अनुभव अनुभूति में किसी भी प्रकार का समानार्थी नहीं हो सकता है। विधि का अनुपालन लोगों के इस विश्वास में निश्चित होता है। कि अनुपालन करने का उनका कर्त्तव्य है। कल्पित विधि कर्तव्य वास्तविक बंधन की अनुभूति है। शुरू में यह बन्धन प्राथमिक जादू से उद्भूत होता है। ज्यों-ज्यों विधि का विकास होता गया, जादुई इकाइयों में विश्वास खत्म होता गया फिर भी लोगों ने प्रयोग जारी रखा। विधि की शुरुआत धर्म से जुड़ी हुई थी जैसे मोजेज का विधि तथा पादरी वर्ग और पोन्टिफस का शुरुआती विधियों पर एकाधिकार था। यह स्वयं इस बात का प्रमाण है कि विधि शब्द जादू अथवा जादू पर निर्भर है।
मैक कार्मिक ने शुद्धतः शब्द जादू के आधार पर रोमन विधि की व्याख्या को आपत्तिजनक माना है। डायस ने यह कहा है कि सम्भवतः यह यथार्थ है कि प्ररूप तथा अनुष्ठान की जड़ें शब्द जादू में ही थीं। शुरू में आवाज के साथ जादू था तथा उसी के अनुसार क्रिया-कलाप सम्भव हो पाते थे। ऐसा माना जा सकता है कि विधि जब सम्पत्ति नियन्त्रण और दूसरे के क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण की ताकत देती थी तब शब्द जादू का असर था। यह सत्य है कि शुरू में विधि की व्याख्या पादरी अथवा पुजारी करते थे तथा विधि के उपकरण को सक्रिय करने के लिए अनुष्ठान होता था और उचित मंत्रों का उच्चारण होता था। यह प्रवृत्ति प्रत्येक जगह प्रचलित थी। धीरे-धीरे समय के व्यतीत होने के साथ-साथ जादू के असर को कम करने का प्रयत्न किया गया था। किन्तु शास्त्रीय अवधि में रोमन विधि की व्याख्या इस दृष्टिकोण से किये जाने के बारे में स्पष्ट विचार नहीं व्यक्त किया जा सकता है। विधि के लिए भाषा का महत्व हमेशा से था और आगे भी रहेगा। भाषा पर उसके इस्तेमाल करने वाले का जितना अधिक अधिकार होगा उतना विधि ग्राह्य होगी। इसी प्रकार से विधि के विषय में भी विधिवेत्ताओं के विचारों की स्पष्टता के परिणामस्वरूप भाषा सरलतापूर्वक सूचित कर सकेगी।
प्रश्न 4. भारतीय संविधान के अनुसार कौन-सी भाषा संघ की राजभाषा है? राजभाषा के विकास के लिए किये गये प्रयासों का विवरण दीजिए। Which language is official language of Union according to Indian Constitution? Give details of the efforts made for the development of official language.
उत्तर- संघ की राजभाषा तथा उसकी व्यापक ग्राह्यता हेतु प्रयास- (1) संघ की राजभाषा – अनुच्छेद 343 (1) “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।”
संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा।
(2) खण्ड (1) में किसी बात के होते हुए भी इस संविधान के प्रारम्भ से पन्द्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उनका ऐसे प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था। परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
(3) इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात् विधि द्वारा-
(क) अंग्रेजी भाषा का; या
(ख) अंकों के देवनागरी रूप का
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग का उपबन्ध कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किये जाएँ।
राजभाषा के लिए आयोग और संसद की समिति – अनुच्छेद 344 – (1) – “राष्ट्रपति इस संविधान के प्रारम्भ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात् ऐसे प्रारम्भ से दस वर्ष की समाप्ति पर, आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुका करें और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जायेगी।”
(2) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को-
(क) संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग;
(ख) संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बंन्धनों ;
(ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा;
(घ) संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयोग किये जाने वाले अंकों के रूप में
(ङ) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्दिष्ट किए किसी अन्य विषय के बारे में सिफारिश करे।
(3) खण्ड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के सम्बन्ध में हिन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक् ध्यान रखेगा।
(4) एक समिति गठित की जायेगी जो तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी जिनमें से बीस लोक सभा के सदस्य होंगे और दस राज्यसभा के सदस्य होंगे जो क्रमश: लोकसभा के सदस्यों और राज्यसभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।
(5) समिति का यह कर्तव्य होगा कि वह खण्ड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में रिपोर्ट दे।
(6) अनुच्छेद 343 में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति खण्ड (5) में निर्दिष्ट रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् उस सम्पूर्ण रिपोर्ट के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश जारी कर सकेगा।
अनुच्छेद 343, 344 और 351 के अन्तर्गत किये गये प्रयास – भारतीय भाषा वैविध्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की राजभाषा के रूप में पूर्ण स्थापना तथा सम्यक् भाषा के रूप में विकास के सन्दर्भ में समन्वयकारी एवं सम्यक् दृष्टि अपेक्षित रही है। 1940 के दशक में यह विचार था कि भाषायी राज्यों का गठन विलगाववादी होगा। परन्तु महात्मा गाँधी सहित एक वर्ग की मान्यता थी कि भाषा पर आधारित राज्यों के पुनर्गठन से मातृभाषा के प्रोत्साहन एवं प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से राजकाज करने में सहजता होगी। कांग्रेस की प्रतिबद्धता के फलस्वरूप भाषायी राज्यों के गठन को हवा मिली। सन् 1953 में श्री रामूलू ने तेलगू भाषियों के लिए अलग आन्ध्र प्रदेश की माँग करते हुए आत्माहुति दे दी। आन्ध्र प्रदेश अधिनियम, 1953 की धारा 3 के अन्तर्गत आन्ध्र प्रदेश राज्य बना राज्य पुनर्गठन आयोग दिसम्बर, 1953 में गठित हुआ। इसने 30 सितम्बर, 1955 को रिपोर्ट दी। सन् 1956 में राज्यों का पुनर्गठन हुआ।
इसके तीन उद्देश्य थे-
(1) आर्थिक जीवन क्षमता (Viability);
(2) प्रशासकीय सुविधा; और
(3) भाषायी ठोस आधार ।
समय-समय पर तमिलनाडु, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा अन्य छोटे- छोटे राज्यों, नागालैण्ड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, सिक्किम, मिजोरम, अरुणांचल प्रदेश, गोवा आदि का प्रादुर्भाव हुआ। जहाँ भाषायी राज्यों के निर्माण से भाषायी तथा सांस्कृतिक एकसूत्रता का क्षेत्रवार विकास की गति बढ़ी वहीं क्षेत्रीय उन्मादवाद बढ़ा जिसमें भाषायी आधार का प्रमुख योगदान रहा। हिन्दी की प्रगति में इस भाषायी सत्यता का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। गति तीव्र नहीं हो सकी। कई समझौते करने पड़े और सहूलियतें स्वीकार करनी पड़ीं।
(क) राजभाषा आयोग, 1955– अनुच्छेद 344 (1) की अपेक्षानुसार 7 जून, 1955 को राष्ट्रपति द्वारा श्री बाल गंगाधर खेर की अध्यक्षता में 21 सदस्यीय आयोग गठित किया गया। खेर आयोग ने हिन्दी की उन्नति की दिशा में निम्नलिखित सुझाव दिया-
(1) भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दी जाय।
(2) पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में गतिशीलता लायी जाय।
(3) 14 वर्ष तक के प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी का सम्यक् ज्ञान कराया जाय।
(4) माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक पूरे देश में हिन्दी का शिक्षण अनिवार्य किया जाय।
(5) प्रशासनिक कर्मचारियों को समयबद्ध हिन्दी का कार्यसाधन ज्ञान कराया जाय।
(6) सन् 1965 तक भारत सरकार के राजकाज की प्रधान भाषा अंग्रेजी होगी तथा हिन्दी गौण होगी।
(ख) राजभाषा के सन्दर्भ में राष्ट्रपति का आदेश, 1960- संसदीय समिति द्वारा राजभाषा आयोग की सिफारिशों के अध्ययन के पश्चात् राष्ट्रपति को दी गई रिपोर्ट के आलोक में राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 344 (6) के अन्तर्गत 27 अप्रैल, 1960 को निम्न बिन्दुओं वाला आदेश जारी किया गया-
(1) अखिल भारतीय सेवाओं तथा उच्चतर केन्द्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहे और कुछ समय बाद हिन्दी को वैकल्पिक माध्यम चुना जाय।
(2) हिन्दी एवं दूसरी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के निर्माण एवं उसके समन्वय पर विशेष बल दिया जाय।
(3) पहली जनवरी, 1961 को 45 वर्ष से कम आयु के कर्मचारियों के लिए हिन्दी का प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाय।
(4) सभी प्रशासनिक साहित्य का अनुवाद किया जाय।
(5) ‘टंकको’ एवं आशुलिपिकों को हिन्दी टंकड़ तथा आशुलेखन में प्रशिक्षित किया जाय।
(6) प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रवेश हेतु अंग्रेजी तथा हिन्दी दोनों ही परीक्षा के माध्यम हाँ।
(7) एक मानक विधिकोश बनाया जाय तथा विधि सम्बन्धी साहित्य का हिन्दी में अनुवाद किया जाय।
(ग) राजभाषा अधिनियम, 1963 एवं संशोधित अधिनियम, 1967 – अंग्रेजी की जगह हिन्दी को स्थानापन्न करने की अवधि सन् 1965 ज्यों-ज्यों नजदीक आने लगी, दक्षिण भारत के राज्यों द्वारा इसका प्रबल विरोध प्रारम्भ किया गया। प्रधानमन्त्री नेहरू ने आश्वासन दिया कि अंग्रेजी की जगह हिन्दी तब तक स्थानापन्न नहीं की जायेगी और यथास्थिति कायम रहेगी जब तक गैर हिन्दी भाषी लोग इस परिवर्तन को नहीं चाहेंगे। सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम, 1963 पारित कर अंग्रेजी को 26 जनवरी, 1965 के बाद भी बरकरार रखा गया।
(घ) राजभाषा नियम, 1976 – राजभाषा अधिनियम की धारा 8 में दिये गये अधिकार के अधीन 1976 में कुछ नियम निर्धारित किये गये। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अन्तर्गत एक राजभाषा अनुभाग बनाया गया जो राजभाषा हिन्दी विषयक राष्ट्रपति के आदेशों, संसद की सिफारिशों एवं राजभाषा अधिनियम के उपबन्धों को कार्यान्वित करने का उत्तरदायी होता है। अब इस अनुभाग को स्वतन्त्र राजभाषा विभाग के रूप में मान्यता मिल चुकी है। 1976 में राजभाषा अधिनियम के अन्तर्गत जो नियम बनाये गये, उनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-
(1) पूरे देश के केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों को तीन वर्गों में बाँटा गया है-
‘क’ वर्ग के क्षेत्र – उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली (सभी हिन्दी क्षेत्र)
‘ख’ वर्ग के क्षेत्र – पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र तथा केन्द्र शासित चण्डीगढ़ एवं अंडमान एवं निकोबार ।
‘ग’ वर्ग के क्षेत्र – आवशेष सभी राज्य अर्थात् पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तरपूर्वी क्षेत्र, द्रविण भाषी राज्य ।
(2) केन्द्रीय सरकार के एक मंत्रालय या विभाग से दूसरे मंत्रालय या विभाग को भेजे जाने वाले पत्र आदि हिन्दी या अंग्रेजी में हो सकते हैं। लेकिन हिन्दी में प्राप्त पत्रों का उत्तर केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से हिन्दी में ही दिया जायेगा।
(3) राजभाषा अधिनियम, 1963 की उपधारा 3 में निर्दिष्ट सभी दस्तावेजों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग किया जायेगा और ऐसे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति का यह दायित्व होगा कि वह हस्ताक्षर करने के पूर्व यह सुनिश्चित कर ले कि दस्तावेज हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में जारी किया जा रहा है।
(ङ) राजभाषा संशोधन नियम, 1987- सन् 1976 के राजभाषा नियम में 1987 में संशोधन किया गया। इसके मुख्य बिन्दु निम्न हैं-
(1) तमिलनाडु को नियमों की परिधि से बाहर किया गया।
(2) केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों से राज्यों अथवा केन्द्र शासित प्रदेशों को भेजी जाने वाली संसूचनाएँ हिन्दी में होंगी, अंग्रेजी में संसूचना भेजे जाने की दशा में उसके साथ हिन्दी में अनुवाद भेजा जायेगा। परन्तु वर्ग ‘ग’ के राज्यों को अंग्रेजी में संसूचनाएँ दी जायेंगी।
(3) केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में आपस में संसूचनाएँ हिन्दी अथवा अंग्रेजी में होंगी। परन्तु ऐसी संसूचनाओं का अनुवाद संलग्न होगा।
(4) हिन्दी में प्राप्त संसूचना का उत्तर हिन्दी में दिया जायेगा।
(5) सभी दस्तावेजों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का प्रयोग होगा।
(6) एक कर्मचारी अपनी दरख्वास्त, अपील या अभ्यावेदन दोनों में जमा कर सकता है।
(7) किसी फाइल पर नोटिंग हिन्दी या अंग्रेजी किसी माध्यम में होगी, परन्तु केन्द्रीय सरकार आदेश द्वारा ऐसे दफ्तरों को अधिसूचित कर सकेगी जहाँ नोटिंग, प्रारूपण या निर्दिष्ट अन्य उद्देश्यों के लिए केवल हिन्दी का प्रयोग हो सकेगा।
प्रश्न 5. संघ की राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा पर आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिए। Write critical note on Official Language v. National Langwage.
उत्तर- संघ की राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा- संघ की राजभाषा हिन्दी है। अनुच्छेद 343 में हिन्दी को राजभाषा तथा देवनागरी को संघ की लिपि का दर्जा दिया गया है।
भाषा सम्बन्धी प्रावधान इस बात को इंगित करता है कि इस बारे में काफी हद तक समझौता करना पड़ा है। ग्रेनविल ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक “इण्डियन कांस्टीट्यूशन कार्नरस्टोन ऑफ ए नेशन” में भाषा सम्बन्धी प्रावधान को आधे दिल से अपनाया गया समझौता कहा है। भारत की अहम् आवश्यकता देश की एकता है। प्रभावकारी ढंग से एकबद्ध होने के लिए सामान्य भाषा की आवश्यकता होती है। भारत में संविधान निर्माण करते समय कोई एक सामान्य देशज भाषा नहीं थी जो पूरे भारत वर्ष में बोली जा रही हो। इसलिए संविधान निर्माताओं ने यह प्रावधान नहीं बनाया कि कोई एक भाषा पूरे देश में बोली जायेगी। सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली एक क्षेत्रीय भाषा को विशेष हैसियत दी गई।
सबसे बड़े वर्ग द्वारा बोली जाने के कारण हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में घोषित किया गया। परन्तु यह भी माना गया कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी राष्ट्रीय प्रास्थिति दिया। जाय और हिन्दी को मात्र समानों में प्रथम माना जाय इसलिए हिन्दी को “राष्ट्रभाषा” का नाम न देकर “राजभाषा का दर्जा दिया गया।
प्रसिद्ध सांविधानिक विधिशास्त्री एच० एम० सिरवई ने टिप्पणी करते हुए कहा कि, यद्यपि हिन्दी राजभाषा के रूप में चुनी गई, इसे राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं वर्णित किया जा सका। सिरवई ने दो कारण दिये हैं-
प्रथम यह कि हिन्दी यद्यपि लोगों के सबसे बड़े अकेले समूह द्वारा बोली जाती थी परन्तु न तो सामान्यतः भारत के सभी हिस्सों में बोली जाती थी और न ही पूरे देश के बहुमत द्वारा बोली जाती थी। द्वितीय यह कि हिन्दी के अतिरिक्त बंगाल में बोली जाने वाली बंगाली, मद्रास में बोली जाने वाली तमिल तथा बम्बई में बोली जाने वाली मराठी और गुजराती आंचलिक भाषाएँ थीं जो बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बोली जाती थीं और उनका दावा था कि वे हिन्दी से ज्यादा विकसित थीं।
राष्ट्रभाषा अधिकांश लोगों द्वारा व्यवहार में लायी जाती है। यह राष्ट्रीय स्वर-शक्ति- सम्पन्न भाषा होती है। राष्ट्रभाषा राजभाषा से भिन्न हो सकती है। भारत में मुगल साम्राज्य काल में फारसी न्यायालय और राज्य कार्य की भाषा थी। ब्रिटिश काल में अंग्रेजी राजभाषा थी। परन्तु वे राष्ट्रभाषाएँ नहीं थीं स्वतन्त्र राष्ट्र की अपनी राष्ट्रभाषा होती है और वह राष्ट्रभाषा भी हो सकती है।
प्रश्न 6. ‘राजभाषा आयोग’ की संरचना और कार्यप्रणाली सम्बन्धी सांविधानिक प्रावधानों की विवेचना कीजिए। Discuss the constitutional provisions relating to constitution and functioning of commission of official language.
अथवा
राजभाषा आयोग की संरचना, कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए। Discuss the composition, functions and powers of the commission of official language.
अथवा
“राजभाषा आयोग” की संरचना और कार्य प्रणाली सम्बन्धी सांविधानिक प्रावधानों की विवेचना कीजिए। Discuss the constitutional provisions relating to constitution and functioning of “commission of official language.”
उत्तर- राजभाषा के सम्बन्ध में आयोग और संसद की समिति (अनुच्छेद 344) (Commission and Committee of Parliament of Official Language)
(1) राष्ट्रपति, इस संविधान के प्रारम्भ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर और तत्पश्चात् ऐसे प्रारम्भ से 10 वर्ष की समाप्ति पर आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा-
जो ‘एक अध्यक्ष’ और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिसको राष्ट्रपति नियुक्त करें और आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।
(2) आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को-
(क) संघ के शासकीय प्रयोजन के लिए हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग,
(ख) संघ के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बन्धनों,
(ग) अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा,
(घ) संघ के किसी एक या अधिक विनिर्दिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयोग किये जाने वाले अंकों के रूप,
(ङ) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनमें प्रयोग के सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किये गये किसी अन्य विषय के बारे में सिफारिश करें।
(3) खण्ड (2) के अधीन अपनी सिफारिशें करने में, आयोग भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के सम्बन्ध में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक् ध्यान रखेगा।
(4) एक समिति गठित की जायेगी जो ‘तीस सदस्यों से मिलकर बनेगी, जिनमें से 20 लोक सभा के सदस्य होंगे और 10 राज्य सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित होंगे।
(5) समिति का यह कर्तव्य होगा कि वह खण्ड (1) के अधीन गठित आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे तथा राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के बारे में प्रतिवेदन दे।
(6) अनुच्छेद 343 (संघ की राजभाषा) में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति खण्ड (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात् उस सम्पूर्ण प्रतिवेदन के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश दे सकेगा।
हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार, प्रयोग और उसके द्वारा राजकार्य में अंग्रेजी का स्थान ग्रहण करने आदि के विषय में राष्ट्रपति की सिफारिश करने के लिए एक आयोग का उपबन्ध किया गया है। दयाभाई बनाम नटवरलाल, ए० आई० आर० 1957 एम० पी० के बाद में कहा गया कि अनुच्छेद 344 हिन्दी की प्रगति हेतु दो तन्त्रों की व्यवस्था करता है प्रथम आयोग का गठन और द्वितीय संसदीय समिति का गठन। आयोग के गठन में भाषायी समरसता का ध्यान रखा जाता है। अनुच्छेद 344 (1) के अन्तर्गत राष्ट्रपति से संविधान लागू होने के 5 वर्ष की समाप्ति पर तथा ऐसी अवधि के बाद 10 वर्ष की समाप्ति पर आयोग गठित करने की अपेक्षा है।
इस प्रकार अनुच्छेद 344 (1) से यह स्पष्ट है कि राजभाषा आयोग गठित करने की शक्ति राष्ट्रपति की है। राजभाषा आयोग में ‘एक अध्यक्ष’ तथा उतने सदस्य होंगे जितना कि राष्ट्रपति आठवीं अनुसूची की भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वालों को नियुक्त करे।
राष्ट्रपति आयोग के सदस्यों की नियुक्ति आदेश द्वारा कर सकेगा। इस आदेश में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया को परिनिश्चित किया जायेगा।
राजभाषा के सम्बन्ध में एक संसदीय समिति के गठन की बात अनुच्छेद 344 (4) में की गई है। संसदीय समिति के कुल सदस्यों की संख्या 30 बतायी गयी है। इन 30 सदस्यों में 20 लोकसभा से तथा 10 राज्य सभा से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार निर्वाचित किये। जायेंगे।
संसदीय समिति का कर्तव्य क्या होगा, इसके बारे में अनुच्छेद 344 (5) में बताया गया है। इसके अनुसार यह कहा गया है कि खण्ड (1) के अधीन गठित आयोग राजभाषा आयोग की सिफारिशों की परीक्षा करे और राष्ट्रपति को उन पर अपनी राय के सम्बन्ध में प्रतिवेदन दे। अनुच्छेद 344 (6) में बताया गया है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 343 के किसी बात के बावजूद भी अनुच्छेद 344 (5) में निर्दिष्ट प्रतिवेदन पर विचार करने के बाद प्रतिवेदन के अनुसार या प्रतिवेदन के किसी भाग के अनुसार निर्देश दे सकेगा। इस प्रकार संसदीय समिति द्वारा राजभाषा आयोग के सम्बन्ध में की गई सिफारिश पर निर्देश देने या न देने का राष्ट्रपति का विवेकाधिकार होगा।
राजभाषा आयोग का कर्तव्य अनुच्छेद 344 (2) में बताया गया है कि- आयोग संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिये अंग्रेजी का निर्बन्धन, अनुच्छेद 348 में उल्लिखित सभी या किन्हीं प्रयोजन की भाषा, संघ में प्रयुक्त अंक, संघ की राजभाषा और किसी राज्य के बीच या एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्रादि की भाषा और उनके प्रयोग के सम्बन्ध में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्देशित किए गये किसी अन्य विषय के सम्बन्ध में सिफारिश करें।
इस प्रकार राजभाषा के विकास के लिये राजभाषा आयोग सिफारिश करता है। ऐसी सिफारिश करने में अनुच्छेद 344 (3) की शर्तों का पालन करना उसका कर्त्तव्य है। अनुच्छेद 344 (3) में कहा गया है कि आयोग राष्ट्रपति को सिफारिश करने में भारत की औद्योगिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोक सेवाओं के सम्बन्ध में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।
प्रश्न 7. भारतीय संविधान के अनुसार कौन सी भाषा संघ एवं राज्यों की राज भाषा है? राजभाषा के विकास के लिये किये गये प्रयासों का विवरण दीजिए। Which language is official language of Union and Statesaccording to Indian Constitution? Give details of the efforts made for the development of official language.
उत्तर- राजभाषा (Official Language)- भारतीय संविधान का भाग 17 अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा से सम्बन्धित हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।
संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिये प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार हिन्दी को ही संघ की राजभाषा स्वीकार किया गया है।
राज्यों की राजभाषा (अनुच्छेद 345)
अनुच्छेद 345 से 347 का सम्बन्ध प्रादेशिक भाषाओं से है। अनुच्छेद 345 कहता है कि-
“अनुच्छेद 346 और अनुच्छेद 347 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए किसी राज्य का विधानमण्डल विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिये प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा :
परन्तु जब तक राज्य का विधानमण्डल विधि द्वारा, अन्यथा उपबन्ध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिये अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिये इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”
एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (अनुच्छेद 346) – संघ में शासकीय प्रयोजनों के लिये प्रयोग किये जाने के लिए तत्समय प्राधिकृत भाषा एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा होगी।
परन्तु यदि दो या अधिक राज्य यह करार करते हैं कि उन राज्यों के बीच पत्रादि की राजभाषा हिन्दी होगी तो ऐसे पत्रादि के लिए उस भाषा का प्रयोग किया जा सकेगा।
किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध (अनुच्छेद 347 ) (Special provisions relating to language spoken by a section of the population of state) – यदि इस निमित्त माँग किये जाने पर राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त भाग यह चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता दी जाए तो वह निदेश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में सर्वत्र या उसके किसी भाग में ऐसे प्रयोजन के लिए जो विनिर्दिष्ट करे, शासकीय मान्यता दी जाए।
राजभाषा के विकास के लिए किये गये प्रयास
भारतीय संविधान में ‘हिन्दी’ को ‘राजभाषा’ स्वीकार किये जाने के बावजूद भी आज तक ‘अंग्रेजी मानसिकता’ के लोगों ने हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ नहीं बनने दिया। आज अपने निजी स्वार्थ के चलते हिन्दी की जगह अंग्रेजी हमारे देश के नागरिकों के ऊपर कुतर्क के आधार पर जबर्दस्ती थोपी जा रही है। हमारे देश के निवासियों में से अधिक लोग हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। शायद इसीलिये संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को संघ की ‘राजभाषा’ स्वीकार किया है।
अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिये निर्देश दिया गया है। इस अनुच्छेद में यह कहा गया है कि-
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसमें हस्तक्षेप किये बिना आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृति से और अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। इस प्रकार हिंदी भाषा के विकास के लिए अनुच्छेद 351 को भी एक नीति निदेशक तत्व कहा जा सकता है।
आर० आर० डलवाई बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1559 के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार की उस पेन्शन योजना को असंवैधानिक करार दे दिया जो मुख्य रूप से हिन्दी विरोधी आन्दोलनकारियों के लिये थी। उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यदि कोई राज्य हिन्दी या किसी अन्य भाषा के विरुद्ध मनोभाव को उत्तेजित करने में लगा हुआ है तो ऐसी मनोवृत्ति को प्रारम्भ में ही नष्ट कर देना उचित है, क्योंकि ये राष्ट्र विरोधी एवं प्रजातन्त्र विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। चूँकि हिन्दी भाषा का विरोध करने वालों को प्रोत्साहन देने से हिन्दी के उत्थान में गतिरोध उत्पन्न होता है और विघटनकारी तथा अलगाववादी तत्वों को बल मिलता है, अतः पेंशन योजना अवैध एवं असंवैधानिक है।
अनुच्छेद 348 में भी उच्च न्यायालयों में राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से राज्यपाल के आदेश द्वारा हिन्दी भाषा के प्रयोग की बातें कही गयी हैं। यह अलग बात है कि इसको निर्णय, डिक्री और आदेशों की भाषा पर लागू नहीं किया गया है। इस प्रकार निर्णय, डिक्री और आदेशों के सम्बन्ध में अंग्रेजी भाषा को कायम रखा गया है।
उच्चतम न्यायालय ने ‘बहस’ की भाषा के सम्बन्ध में मधु लिमये बनाम देवमूर्ति, (1970) एस० सी० सी० के बाद में पक्षकार को हिन्दी में बहस करने की अनुमति नहीं दी। यही स्थिति नियमों, विनियमों, अधिनियमों एवं विधेयकों के प्राधिकृत पाठ की है। इनकी भाषा अंग्रेजी निर्धारित की गई है। राज्यों में हिन्दी या किसी अन्य भाषा का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन उसके साथ अंग्रेजी पाठ लगाना आवश्यक है और उसे ही प्राधिकृत माना गया है।
सन्तोष कुमार बनाम सेक्रेटरी, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, (1994) 6 एस० सी० सी० 574 के बाद में C.B.S.E. के पाठ्यक्रम में संस्कृत को एक विषय के रूप में चुनने के निर्णय को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह पत्थनिरपेक्षता की भावना के प्रतिकूल है। उच्चतम न्यायालय ने इन तर्कों को अमान्य घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने संस्कृत को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने को उचित ठहराते हुए कहा कि यह भारत की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 351 और अर्थी अनुसूची में सम्मिलित किये जाने के कारण संस्कृत को विशेष प्रोत्साहन देना आवश्यक है।
राजभाषा अधिनियम, 1963 – वास्तव में यह अधिनियम संवैधानिक प्रावधानों को कार्यक्रम में परिणित करने के लिए बनाया गया है-इसका धारा 3 में प्रावधान किया गया है। कि ‘संविधान के प्रवर्तन में आने के पन्द्रह वर्ष बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग यथावत होता रहेगा”। साथ ही यह भी व्यवस्था की गई है कि संघ और राज्य के बीच पत्र-व्यवहार की भाषा अंग्रेजी तब तक बनी रहेगी जब तक वह राज्य हिन्दी को राजभाषा के रूप में अंगीकृत नहीं कर लेते अधिनियम की धारा 7 में भी न्यायालयों की भाषा के बारे में वही प्रावधान किये गये हैं जो संविधान में मिलते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि राजभाषा अधिनियम, 1963 से हिन्दी के विकास को कोई विशेष बल नहीं मिला है।
डॉ० अशोक बनाम लक्ष्मी बाई नेशनल कॉलेज ऑफ फिजिकल एजूकेशन ग्वालियर, (ए० आई० आर० 1997 एम० पी०) का वाद – लक्ष्मीबाई केन्द्रीय संस्थान में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती है। डॉ० अमरेश कुमार ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर संस्थान में प्रशिक्षण का माध्यम अंग्रेजी के साथ- साथ हिन्दी भी रखे जाने की माँग की। उन्होंने यह कहा है कि विद्यार्थियों को अपनी परीक्षा का माध्यम हिन्दी रखने की छूट दी जानी चाहिए। उसने केन्द्रीय सरकार के कई परिपत्रों का हवाला भी दिया। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी माध्यम भी रखे जाने का निदेश दिया। इसी वाद में उच्च न्यायालय ने कहा कि-” भारत को स्वतन्त्र हुए पचास वर्ष पूरे हो गये हैं, लेकिन हमारी मानसिक दासता अभी भी यथावत है। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को हमारी राजभाषा घोषित किया गया है, लेकिन अंग्रेजी के बल पर उच्च पदों पर आसीन होने की आकांक्षा रखने वाले मुट्ठी भर लोग इसे अपना यथोचित स्थान दिलाने में कंटक बने हुए हैं। भारत में अंग्रेजी जानने वाले लोगों का प्रतिशत नगण्य है फिर भी अंग्रेजी के बल पर वे अपने-आप को अन्य लोगों से ऊपर मानते हैं। यह सुस्थापित है कि बालक अपने विचारों की अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में अधिक अच्छी तरह कर सकता है। ऐसे बालकों पर अंग्रेजी थोपना उनके मानसिक एवं बौद्धिक विकास को अवरुद्ध करना है।
इंग्लिश मीडियम पैरेन्ट्स बनाम कर्नाटक राज्य, ए० आई० आर० 1994 एस० सी० के मामले में संविधान के अनुच्छेद 350-क की व्याख्या करते हुए न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि-
“प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधायें उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा।”