Failure To Serve S.80 CPC Notice Nullifies Decree; Executing Court Bound To Consider Plea Of Nullity – सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय
भूमिका
भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code – CPC) की धारा 80 एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो राज्य या उसके अधिकारियों के विरुद्ध किसी भी वाद (Suit) को दायर करने से पहले अनिवार्य रूप से नोटिस देने की बाध्यता निर्धारित करता है। इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य को मुकदमे की सूचना पहले से मिल जाए, ताकि वह आवश्यक कार्रवाई कर सके और अनावश्यक मुकदमों से बचा जा सके। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया कि यदि धारा 80 का नोटिस दिए बिना मुकदमा दायर किया जाता है और डिक्री प्राप्त की जाती है, तो वह डिक्री ‘Nullity’ यानी शून्य मानी जाएगी, और निष्पादन (Execution) की अवस्था में भी इसकी वैधता पर आपत्ति उठाई जा सकती है।
प्रकरण की पृष्ठभूमि
इस मामले में, एक राज्य वित्तीय निगम (State Financial Corporation) के विरुद्ध वाद दायर किया गया था, लेकिन वादी (Plaintiff) ने धारा 80 CPC के तहत अनिवार्य नोटिस नहीं भेजा। ट्रायल कोर्ट ने बिना नोटिस की आवश्यकता की जांच किए ही डिक्री पारित कर दी। डिक्री के आधार पर वादी ने निष्पादन कार्यवाही शुरू की, लेकिन प्रतिवादी ने आपत्ति उठाई कि डिक्री अमान्य है क्योंकि मुकदमा धारा 80 CPC का उल्लंघन करके दायर किया गया था।
निष्पादन अदालत ने आपत्ति को खारिज कर दिया और उच्च न्यायालय ने भी इस आदेश को बरकरार रखा। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार हुआ कि — क्या निष्पादन अदालत को ऐसे मामलों में ‘Nullity’ की दलील सुननी चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 80 CPC का पालन न करना केवल एक तकनीकी दोष नहीं है, बल्कि यह ट्रायल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) को ही प्रभावित करता है। यदि धारा 80 के नोटिस के बिना वाद दायर किया जाता है, तो यह न्यायिक प्रक्रिया के मूलभूत सिद्धांत का उल्लंघन है।
प्रमुख टिप्पणियाँ
- धारा 80 CPC की अनिवार्यता
- राज्य या उसके अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा दायर करने से पहले कम से कम दो महीने का नोटिस देना अनिवार्य है।
- इसका उद्देश्य राज्य को मुकदमे की सूचना देकर उसे विवाद को मुकदमे से पहले सुलझाने का अवसर देना है।
- नोटिस न देने का परिणाम
- नोटिस न देने से डिक्री शून्य (Nullity) हो जाती है।
- ऐसी डिक्री को किसी भी अवस्था में, यहां तक कि निष्पादन की प्रक्रिया के दौरान भी, चुनौती दी जा सकती है।
- निष्पादन अदालत का कर्तव्य
- जब ‘Nullity’ की दलील उठाई जाए, तो निष्पादन अदालत को उस पर विचार करना और निर्णय देना अनिवार्य है।
- सुप्रीम कोर्ट ने Brakewel Automotive Components (India) Pvt. Ltd. v. P.R. Selvam Alagappan (2017) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि डिक्री की वैधता पर प्रश्न निष्पादन के दौरान भी उठाया जा सकता है।
- न्यायालय की अधिकार सीमा पर प्रभाव
- धारा 80 CPC का उल्लंघन ट्रायल कोर्ट की अधिकार सीमा को प्रभावित करता है।
- अधिकार क्षेत्र के बिना पारित डिक्री, विधिक दृष्टि से शून्य होती है और इसे लागू नहीं किया जा सकता।
निर्णय का महत्व
(क) प्रक्रिया की पवित्रता की पुष्टि
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि कानूनी प्रक्रिया का पालन करना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि न्याय के लिए आवश्यक है। धारा 80 CPC जैसे प्रावधान न्यायालय की कार्यवाही को वैध और निष्पक्ष बनाते हैं।
(ख) ‘Nullity’ की अवधारणा का सशक्तीकरण
‘Nullity’ का अर्थ है कि कोई आदेश या डिक्री शुरुआत से ही अमान्य है। यह निर्णय इस अवधारणा को और मजबूत करता है कि ऐसी डिक्री को किसी भी समय और किसी भी मंच पर चुनौती दी जा सकती है।
(ग) निष्पादन अदालत की भूमिका
पहले कई बार यह बहस होती रही है कि निष्पादन अदालत सिर्फ आदेश लागू करने के लिए है और वैधता पर विचार नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने इस धारणा को खत्म कर दिया और स्पष्ट कर दिया कि निष्पादन अदालत को भी वैधता की जांच करनी होगी।
व्यावहारिक असर
- वाद दायर करने से पहले सावधानी
- वकीलों और पक्षकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि यदि प्रतिवादी राज्य या उसके अधिकारी हैं, तो धारा 80 CPC के तहत नोटिस भेजना अनिवार्य है।
- निष्पादन में भी आपत्ति संभव
- प्रतिवादी निष्पादन की प्रक्रिया के दौरान भी ‘Nullity’ की आपत्ति उठा सकते हैं और अदालत को उस पर निर्णय देना होगा।
- राज्य संस्थाओं के लिए संदेश
- राज्य संस्थाओं को मुकदमों का प्रबंधन करते समय नोटिस प्राप्त करने और उसका समय पर जवाब देने के लिए एक प्रभावी तंत्र स्थापित करना चाहिए।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की गंभीरता और विधिक प्रावधानों की पवित्रता की पुनः पुष्टि करता है। धारा 80 CPC का पालन न केवल एक कानूनी आवश्यकता है, बल्कि यह न्यायालय की अधिकार सीमा और मुकदमे की वैधता का भी मूल आधार है। इस फैसले से यह सिद्ध होता है कि “कानून में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है और इसके उल्लंघन से प्राप्त डिक्री शुरुआत से ही अमान्य होती है”।