IndianLawNotes.com

Doctrine of Separation of Powers “शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत”

Doctrine of Separation of Powers “शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत”

प्रस्तावना

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ राज्य की अवधारणा भी विकसित होती रही है। किसी भी संगठित राज्य का संचालन करने हेतु शासन के विभिन्न कार्यों को वर्गीकृत कर तीन मुख्य अंगों – विधायिका (Legislature), कार्यपालिका (Executive) और न्यायपालिका (Judiciary) – में विभाजित किया गया है। इन अंगों का स्वतंत्र और संतुलित कार्य संचालन ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की नींव है। इस सिद्धांत को ही “शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत” (Doctrine of Separation of Powers) कहा जाता है। इसका मूल उद्देश्य यह है कि राज्य के सभी अधिकार एक ही संस्था या व्यक्ति में केंद्रित न हो जाएँ, अन्यथा सत्ता का दुरुपयोग और निरंकुशता उत्पन्न हो सकती है।


शक्ति पृथक्करण की परिभाषा

“Separation of Powers” का तात्पर्य यह है कि शासन के तीनों प्रमुख कार्य–

  1. विधि निर्माण (Law-making) – विधायिका का कार्य
  2. विधि का कार्यान्वयन (Law enforcement) – कार्यपालिका का कार्य
  3. विधि की व्याख्या व विवाद निवारण (Law interpretation & adjudication) – न्यायपालिका का कार्य

– आपस में स्वतंत्र रहकर संपादित हों और किसी एक अंग को दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार न हो।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

शक्ति पृथक्करण का विचार प्राचीन काल से ही विद्यमान है।

  • अरस्तू (Aristotle) ने अपनी कृति Politics में शासन के तीन कार्य बताए – विचारमूलक, कार्यकारी और न्यायिक।
  • रोमन दार्शनिक सिसरो (Cicero) ने भी सत्ता संतुलन और शक्ति विभाजन की आवश्यकता को रेखांकित किया।
  • किंतु इस सिद्धांत का व्यवस्थित प्रतिपादन मॉन्टेस्क्यू (Montesquieu) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Spirit of Laws (1748) में किया। उन्होंने कहा –
    “There can be no liberty, if the judiciary power be not separated from the legislative and executive.”
  • इंग्लैंड में जॉन लॉक (John Locke) ने भी Two Treatises of Government (1690) में शक्तियों के पृथक्करण की बात की थी।

मॉन्टेस्क्यू का दृष्टिकोण

मॉन्टेस्क्यू का मत था कि –

  • यदि विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ एक ही संस्था में होंगी तो वह संस्था निरंकुश हो जाएगी।
  • यदि न्यायिक शक्ति भी उसी संस्था में होगी तो व्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्णतः नष्ट हो जाएगी।
    इसलिए राज्य के तीनों अंगों के बीच स्पष्ट पृथक्करण आवश्यक है।
    उनके अनुसार –
  1. विधायिका केवल कानून बनाए।
  2. कार्यपालिका केवल कानून को लागू करे।
  3. न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या करे और विवादों का निपटारा करे।

सिद्धांत के प्रमुख उद्देश्य

  1. सत्ता का केंद्रीकरण रोकना
  2. व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना
  3. लोकतंत्र एवं विधि के शासन की स्थापना करना
  4. निरंकुशता और सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना
  5. संतुलित शासन व्यवस्था सुनिश्चित करना

शक्ति पृथक्करण का कठोर और लचीला रूप

  • कठोर पृथक्करण (Strict Separation): इसमें तीनों अंग पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
  • लचीला पृथक्करण (Flexible Separation): इसमें सहयोग, नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था रहती है। आधुनिक राज्यों ने इसी रूप को अपनाया है।

अमेरिका में शक्ति पृथक्करण

संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में इस सिद्धांत को सर्वाधिक प्रभावी रूप से अपनाया गया है।

  • संविधान के अनुच्छेद I, II और III क्रमशः विधायिका (Congress), कार्यपालिका (President) और न्यायपालिका (Supreme Court) की शक्तियों को परिभाषित करते हैं।
  • तीनों अंग स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, किंतु Checks and Balances की प्रणाली भी विद्यमान है।
    • राष्ट्रपति (Executive) कानूनों पर वीटो लगा सकता है।
    • कांग्रेस (Legislature) राष्ट्रपति के वीटो को दो-तिहाई बहुमत से अस्वीकार कर सकती है।
    • सुप्रीम कोर्ट (Judiciary) कानून या कार्यपालिका के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
      इस प्रकार अमेरिका में शक्ति पृथक्करण कठोर रूप से लागू होते हुए भी आपसी नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित है।

ब्रिटेन में शक्ति पृथक्करण

ब्रिटेन में शक्ति पृथक्करण का कठोर रूप लागू नहीं है।

  • ब्रिटेन में संसदीय संप्रभुता का सिद्धांत मान्य है।
  • विधायिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध है क्योंकि प्रधानमंत्री और मंत्रीगण संसद के सदस्य होते हैं।
  • न्यायपालिका स्वतंत्र है, किंतु ऐतिहासिक रूप से House of Lords न्यायिक कार्य भी करता रहा है।
    इसलिए ब्रिटेन में शक्ति पृथक्करण लचीले रूप में विद्यमान है और इसे Fusion of Powers भी कहा जाता है।

भारत में शक्ति पृथक्करण

भारतीय संविधान में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत प्रत्यक्ष रूप से नहीं लिखा गया, किंतु इसकी भावना सर्वत्र निहित है।

संवैधानिक प्रावधान

  1. अनुच्छेद 50 – न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने का निर्देश।
  2. विधायिका – संसद एवं राज्य विधानमंडल को विधि निर्माण की शक्ति।
  3. कार्यपालिका – राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं मंत्रिपरिषद को कानून लागू करने की शक्ति।
  4. न्यायपालिका – सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को कानून की व्याख्या व न्यायिक समीक्षा की शक्ति।

व्यावहारिक स्थिति

  • भारत में पूर्ण पृथक्करण नहीं है।
  • राष्ट्रपति और राज्यपाल विधायी कार्यों (जैसे अध्यादेश जारी करना, संसद को संबोधित करना) में भी भूमिका निभाते हैं।
  • संसद न्यायिक शक्तियाँ (जैसे महाभियोग) भी प्रयोग करती है।
  • न्यायपालिका कानून की व्याख्या करते समय विधायी और कार्यकारी कार्यों को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

न्यायालय के दृष्टांत

  • केशवानंद भारती केस (1973) – न्यायपालिका ने शक्ति पृथक्करण को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना।
  • इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण केस (1975) – न्यायपालिका ने चुनाव संबंधी विवादों के निर्णय में अपनी भूमिका पर बल दिया।
  • राम जवया कपूर बनाम पंजाब राज्य (1955) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में शक्ति पृथक्करण का कठोर रूप लागू नहीं है, बल्कि तीनों अंगों के बीच आपसी सहयोग और संतुलन की व्यवस्था है।

शक्ति पृथक्करण की विशेषताएँ

  1. प्रत्येक अंग को अपने-अपने कार्य तक सीमित रखना।
  2. किसी अंग को दूसरे अंग के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोकना।
  3. प्रत्येक अंग की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को मान्यता देना।
  4. राज्य की शक्तियों का विकेंद्रीकरण।
  5. निरंकुशता की रोकथाम और नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा।

सिद्धांत की आलोचना

  1. अव्यावहारिकता – आधुनिक राज्यों में तीनों अंगों का पूर्ण पृथक्करण संभव नहीं।
  2. अधिकारी तंत्र का टकराव – यदि तीनों अंग पूर्णतः स्वतंत्र हों तो उनके बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  3. लचीलापन की कमी – कठोर पृथक्करण शासन की दक्षता और त्वरित निर्णय प्रक्रिया में बाधक है।
  4. भारत एवं ब्रिटेन का अनुभव – इन देशों में शक्ति पृथक्करण के लचीले रूप ने ही सफलता प्राप्त की है।

शक्ति पृथक्करण और Checks and Balances

आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों ने शक्ति पृथक्करण के साथ-साथ Checks and Balances की व्यवस्था विकसित की है।

  • इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक अंग दूसरे पर नियंत्रण रखे और कोई भी अंग निरंकुश न बने।
  • अमेरिका इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
  • भारत में भी न्यायिक समीक्षा, महाभियोग, मंत्रिपरिषद की सामूहिक उत्तरदायित्व जैसी व्यवस्थाएँ इसी का रूप हैं।

निष्कर्ष

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत राज्य व्यवस्था का आधारभूत सिद्धांत है, जिसका मूल उद्देश्य नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा और सत्ता के केंद्रीकरण को रोकना है। यद्यपि आधुनिक समय में इसका कठोर रूप व्यवहारिक नहीं माना जाता, तथापि इसकी मूल भावना– सत्ता का संतुलन और निरंकुशता की रोकथाम– आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। भारत में संविधान निर्माताओं ने इसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं अपनाया, परंतु इसके लचीले रूप को समाहित किया। यही कारण है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था संतुलित और स्थायी है।

अतः कहा जा सकता है कि –
“Separation of Powers is not merely a constitutional doctrine but the very soul of democratic governance.”