DK Basu बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (1997): पुलिस गिरफ्तारी और हिरासत में आरोपी के अधिकारों के लिए दिशा-निर्देश
प्रस्तावना
भारत का संविधान नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) प्रदान करता है। परंतु, व्यवहार में अक्सर पुलिस द्वारा गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान आरोपियों के साथ अमानवीय और क्रूर व्यवहार किया जाता रहा है। पुलिस ज्यादातर मामलों में शक्ति का दुरुपयोग करती है, जिससे न केवल आरोपी के मौलिक अधिकारों का हनन होता है बल्कि न्यायपालिका और विधि व्यवस्था की गरिमा भी प्रभावित होती है। इस परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय ने DK Basu बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (1997) मामले में ऐतिहासिक निर्णय सुनाया और गिरफ्तारी एवं हिरासत के दौरान पुलिस की जिम्मेदारियों तथा आरोपी के अधिकारों को स्पष्ट करने वाले दिशा-निर्देश जारी किए। यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया और मानवाधिकार संरक्षण के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले की शुरुआत 1986 में हुई, जब डॉ. डी.के. बसु, जोकि लीगल एड सर्विसेज वेस्ट बंगाल के कार्यकारी अध्यक्ष थे, ने सर्वोच्च न्यायालय को एक पत्र लिखा। पत्र में बताया गया कि देशभर में पुलिस हिरासत के दौरान अत्याचार और मौतों की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह पत्र लोकहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) के रूप में स्वीकार किया गया।
इसके साथ ही आशा रमचंद्रा दाभोलकर नामक एक अन्य व्यक्ति ने भी इसी मुद्दे पर याचिका दायर की। दोनों याचिकाओं को मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस गंभीर प्रश्न पर विचार करना शुरू किया।
मूल प्रश्न था –
- पुलिस हिरासत और गिरफ्तारी के दौरान आरोपियों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए?
- क्या मौजूदा कानून पर्याप्त हैं या अतिरिक्त दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है?
मुख्य मुद्दे
- क्या पुलिस हिरासत और गिरफ्तारी के दौरान आरोपियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है?
- संविधान का अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 22 (गिरफ्तारी और निरोध के समय अधिकार) का पालन कैसे सुनिश्चित किया जाए?
- क्या पुलिस को गिरफ्तारी और हिरासत की प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए कुछ विशेष दिशा-निर्देश दिए जाने चाहिए?
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने 18 दिसंबर 1996 को न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस और न्यायमूर्ति ए.एस. आनंद की पीठ के माध्यम से ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि –
- पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौतें अनुच्छेद 21 का प्रत्यक्ष उल्लंघन हैं।
- किसी भी सभ्य समाज में यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता कि कानून-व्यवस्था के रक्षक ही मानवाधिकारों का हनन करें।
- चूँकि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) में गिरफ्तारी की सामान्य प्रक्रिया का प्रावधान है, लेकिन उसमें हिरासत के दौरान सुरक्षा उपायों का विस्तार से उल्लेख नहीं है, इसलिए न्यायालय को विशेष दिशा-निर्देश जारी करने पड़ रहे हैं।
डी.के. बसु मामले में जारी दिशा-निर्देश
सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस गिरफ्तारी और हिरासत में आरोपी के अधिकारों के लिए निम्नलिखित 11 दिशा-निर्देश जारी किए:
1. पुलिस पहचान
गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारियों को स्पष्ट और सही पहचान (नाम और पद सहित) वाले बैज पहनना अनिवार्य होगा।
2. गिरफ्तारी का रिकॉर्ड
गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी का नाम और विवरण पुलिस डायरी में दर्ज किया जाएगा।
3. गवाह की मौजूदगी
गिरफ्तारी के समय आरोपी के साथ रहने वाले गवाह का नाम दर्ज किया जाएगा। गवाह आरोपी का परिवार का सदस्य या पड़ोसी हो सकता है।
4. परिवार/दोस्त को सूचना
गिरफ्तारी के तुरंत बाद पुलिस आरोपी के परिवारजन, रिश्तेदार या दोस्त को गिरफ्तारी की सूचना देगी।
5. गिरफ्तारी की सूचना नोटिस बोर्ड पर
गिरफ्तारी की सूचना स्थानीय पुलिस स्टेशन में नोटिस बोर्ड पर भी लगाई जाएगी।
6. गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार
गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकारों के बारे में जानकारी दी जाएगी, विशेष रूप से किसी रिश्तेदार या वकील को सूचना देने का अधिकार।
7. गिरफ्तार व्यक्ति की डायरी प्रविष्टि
गिरफ्तार व्यक्ति की गिरफ्तारी से संबंधित सभी विवरण (समय, स्थान, सूचना किसे दी गई, किस अधिकारी ने गिरफ्तारी की) पुलिस डायरी में लिखे जाएंगे।
8. मेडिकल जांच
गिरफ्तार व्यक्ति की 48 घंटे के भीतर एक योग्य डॉक्टर से मेडिकल जांच कराना अनिवार्य होगा। इसके बाद हर 48 घंटे में मेडिकल जांच करानी होगी।
9. गिरफ्तार व्यक्ति की मेडिकल रिपोर्ट
मेडिकल जांच की रिपोर्ट पुलिस डायरी और न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास प्रस्तुत की जाएगी।
10. गिरफ्तार व्यक्ति का दस्तखत
गिरफ्तार व्यक्ति को सभी रजिस्टर प्रविष्टियों पर हस्ताक्षर करने का अधिकार होगा।
11. न्यायिक मजिस्ट्रेट को सूचना
गिरफ्तारी के तुरंत बाद आरोपी को नजदीकी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा।
निर्णय का महत्व
- मानवाधिकार संरक्षण – यह फैसला भारत में हिरासत के दौरान मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए बुनियादी स्तंभ बन गया।
- पुलिस की जवाबदेही – पुलिस की मनमानी और शक्ति के दुरुपयोग पर रोक लगाने के लिए यह दिशा-निर्देश महत्वपूर्ण साबित हुए।
- अनुच्छेद 21 की व्याख्या – अदालत ने अनुच्छेद 21 को व्यापक रूप से व्याख्यायित करते हुए कहा कि ‘जीवन का अधिकार’ केवल अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि गरिमा और सुरक्षा भी इसका हिस्सा है।
- न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) – यह मामला भारतीय न्यायपालिका की सक्रियता और नागरिक अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता का उदाहरण है।
आलोचना और सीमाएँ
हालाँकि इस निर्णय की व्यापक प्रशंसा हुई, लेकिन कुछ सीमाएँ भी सामने आईं:
- दिशा-निर्देशों का पालन न करने पर दंडात्मक प्रावधान नहीं था।
- कई बार निचली अदालतें और पुलिस इन निर्देशों को गंभीरता से नहीं लेतीं।
- आज भी पुलिस हिरासत में मौत और उत्पीड़न की घटनाएं जारी हैं।
- मानवाधिकार आयोग की रिपोर्टें बताती हैं कि जमीनी स्तर पर इन निर्देशों का पालन कमजोर है।
आगे का विकास
DK Basu मामले के बाद कई अन्य मामलों और विधायी कदमों ने इस दिशा को और मजबूत किया:
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को ऐसे मामलों पर निगरानी और रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया।
- कई राज्यों ने पुलिस मैनुअल में इन दिशा-निर्देशों को शामिल किया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने Prakash Singh बनाम Union of India (2006) में पुलिस सुधारों को और मजबूती दी।
निष्कर्ष
DK Basu बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (1997) का निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसने यह स्पष्ट किया कि पुलिस को कानून लागू करने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार किसी भी स्थिति में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकता। गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान आरोपी भी संवैधानिक संरक्षण और गरिमा का अधिकारी है।
हालाँकि व्यवहारिक स्तर पर इन दिशा-निर्देशों के पूर्ण अनुपालन में अभी भी चुनौतियाँ हैं, फिर भी यह निर्णय मानवाधिकारों की रक्षा और पुलिस सुधारों की दिशा में ऐतिहासिक कदम माना जाएगा।