🔶 1. केंद्र-राज्य संबंधों के प्रकार क्या हैं?
भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है – विधायी, कार्यकारी और वित्तीय संबंध।
विधायी संबंध अनुच्छेद 245 से 255 में वर्णित हैं, जहाँ तीन सूचियाँ (केन्द्रीय, राज्य, समवर्ती) दी गई हैं।
कार्यकारी संबंधों में अनुच्छेद 256 से 263 तक केंद्र द्वारा राज्यों को दिशा देने, और समन्वय स्थापित करने की व्यवस्था है।
वित्तीय संबंध अनुच्छेद 268 से 293 तक हैं, जिनमें करों का वितरण, अनुदान, और वित्त आयोग की भूमिका शामिल है।
यह संघात्मक ढांचे की पहचान तो कराते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से केंद्र को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं, विशेषकर समवर्ती सूची और अनुच्छेद 356 के माध्यम से।
🔶 2. विधायी क्षेत्र में केंद्र और राज्य के संबंधों को समझाइए।
भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची तीन सूचियों – केंद्र, राज्य और समवर्ती – में विभाजित है।
केंद्र सूची में 97 विषय हैं जिन पर केवल संसद कानून बना सकती है।
राज्य सूची में 66 विषय हैं जिन पर सामान्यतः केवल राज्य विधानसभाएं कानून बना सकती हैं।
समवर्ती सूची में 47 विषय हैं जिन पर दोनों बना सकते हैं, लेकिन टकराव की स्थिति में संसद का कानून प्रभावी रहेगा (अनुच्छेद 254)।
आपातकाल, राष्ट्रीय हित अथवा राज्य की सहमति से भी संसद राज्य सूची पर कानून बना सकती है।
इस व्यवस्था से संघात्मक प्रणाली होते हुए भी केंद्र को व्यावहारिक रूप से वरीयता प्राप्त होती है।
🔶 3. कार्यकारी शक्तियों में केंद्र और राज्य का संबंध क्या है?
अनुच्छेद 256 से 263 तक कार्यकारी संबंधों की व्यवस्था की गई है।
राज्यों को यह अनिवार्य है कि वे संसद के कानूनों का पालन करें और कार्यपालिका केंद्र की सहायता करे।
अनुच्छेद 257 केंद्र को राज्यों को आवश्यक दिशा-निर्देश देने का अधिकार देता है।
अनुच्छेद 258 के तहत राष्ट्रपति राज्य सरकारों को कार्य सौंप सकते हैं।
अनुच्छेद 263 एक अंतरराज्यीय परिषद की स्थापना की अनुमति देता है जिससे समन्वय और विवाद समाधान संभव हो सके।
हालांकि यह व्यवस्था सहयोगात्मक संघवाद को बढ़ावा देती है, पर केंद्र को अधिशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं।
🔶 4. संविधान में वित्तीय संबंधों की व्यवस्था क्या है?
अनुच्छेद 268 से 293 तक केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों की व्यवस्था दी गई है।
कुछ कर जैसे आयकर केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाते हैं और कुछ राज्यों को वितरित किए जाते हैं (अनुच्छेद 270)।
अनुच्छेद 280 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग नियुक्त किया जाता है जो करों के बंटवारे की सिफारिश करता है।
राज्यों को केंद्र से अनुदान भी दिए जाते हैं (अनुच्छेद 275)।
हालाँकि राज्यों को सीमित संसाधन प्राप्त होते हैं, जिससे उनका आर्थिक स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
🔶 5. भारतीय संविधान में न्यायपालिका की विशेषताएँ बताइए।
भारतीय संविधान में न्यायपालिका स्वतंत्र, निष्पक्ष और एकीकृत है।
अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था है, जबकि अनुच्छेद 214 से 231 तक उच्च न्यायालयों की।
न्यायपालिका को संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा करने वाला माना गया है।
इसमें न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review), मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine), और लोक हित याचिका (PIL) जैसी शक्तियाँ हैं।
न्यायपालिका संसद और कार्यपालिका के नियंत्रण में न होकर स्वतंत्र रूप से कार्य करती है, जिससे लोकतंत्र सुरक्षित रहता है।
🔶 6. न्यायिक पुनरावलोकन क्या है और यह क्यों आवश्यक है?
न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) वह प्रक्रिया है जिसमें न्यायालय यह जांचता है कि कोई विधायी या कार्यकारी निर्णय संविधान के अनुरूप है या नहीं।
यह अधिकार भारत के सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों को प्राप्त है (अनुच्छेद 13 और 32)।
यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है या संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने यह सिद्धांत स्पष्ट किया कि संविधान का मूल ढांचा नहीं बदला जा सकता।
यह सिद्धांत नागरिक अधिकारों की सुरक्षा और विधायिका पर नियंत्रण के लिए आवश्यक है।
🔶 7. भारत में आपातकालीन उपबंधों के प्रकार बताइए।
भारतीय संविधान में तीन प्रकार के आपातकालीन उपबंध हैं –
- राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) – युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में।
- राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356) – संवैधानिक तंत्र की विफलता होने पर।
- वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) – वित्तीय स्थिरता को खतरा होने पर।
आपातकालीन स्थिति में केंद्र सरकार को विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, और राज्यों की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है।
इन प्रावधानों का उद्देश्य आपात स्थिति में राष्ट्र की सुरक्षा और शासन का संचालन सुनिश्चित करना है।
🔶 8. अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग और इसके प्रभाव क्या हैं?
अनुच्छेद 356 केंद्र सरकार को राज्य में संवैधानिक विफलता की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देता है।
हालांकि इसका व्यापक रूप से दुरुपयोग हुआ है, विशेषकर राजनीतिक कारणों से निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त करने हेतु।
एस. आर. बोम्मई केस (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने इसके दुरुपयोग पर रोक लगाई और कहा कि राष्ट्रपति की सिफारिश न्यायिक समीक्षा के अधीन होगी।
अब यह अनिवार्य है कि संसद दोनों सदनों में इस प्रस्ताव को पारित करे, अन्यथा यह दो महीने में समाप्त हो जाएगा।
इस निर्णय से अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर अंकुश लगा।
🔶 9. एस. आर. बोम्मई बनाम भारत मामला क्यों महत्वपूर्ण है?
एस. आर. बोम्मई बनाम भारत (1994) केस में सर्वोच्च न्यायालय ने संघवाद और राष्ट्रपति शासन के संबंध में ऐतिहासिक निर्णय दिया।
इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति की सिफारिश पूर्ण न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
केंद्र सरकार मनमाने तरीके से राज्य सरकारों को नहीं बर्खास्त कर सकती।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि संघीय ढांचा संविधान का मूल हिस्सा है, जिसे बदला नहीं जा सकता।
इस निर्णय ने केंद्र-राज्य संबंधों को संतुलित किया और संघवाद की रक्षा की।
🔶 10. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान में कैसे सुनिश्चित की गई है?
संविधान ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कई प्रावधान किए हैं।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है लेकिन परामर्श की प्रक्रिया में उच्च न्यायालयों की भी भूमिका होती है (कोलेजियम प्रणाली)।
- कार्यकाल सुरक्षा – उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को केवल संसद द्वारा महाभियोग के माध्यम से ही हटाया जा सकता है।
- वेतन और सुविधाएं संविधान द्वारा संरक्षित हैं।
- कार्यपालिका का हस्तक्षेप वर्जित है।
इन व्यवस्थाओं के कारण न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती है और लोकतंत्र का प्रहरी बनी रहती है।
🔶 11. क्या भारत में सच्चा संघीय ढांचा है?
भारत एक अर्ध-संघात्मक (quasi-federal) देश है। संविधान में संघीय विशेषताएँ जैसे – दोहरी सरकार, लिखित संविधान, शक्तियों का विभाजन, स्वतंत्र न्यायपालिका हैं। लेकिन इसमें एकात्मक झुकाव भी है – जैसे केंद्र को अधिक शक्तियाँ (अनुच्छेद 356, समवर्ती सूची पर वरीयता, वित्तीय नियंत्रण आदि)।
केशवानंद भारती केस और एस. आर. बोम्मई केस में न्यायपालिका ने संघवाद को संविधान की मूल संरचना माना।
इसलिए भारत में संघवाद है, परंतु यह कनाडा की तरह लचीला और केंद्र के पक्ष में झुका हुआ है।
🔶 12. संविधान में न्यायपालिका की एकीकृत व्यवस्था क्यों है?
भारत में एकीकृत न्यायिक प्रणाली है – मतलब सभी अदालतें एक ही न्याय प्रणाली का हिस्सा हैं, चाहे केंद्र या राज्य द्वारा स्थापित हों।
इसका उद्देश्य है –
- एकरूप न्याय सुनिश्चित करना,
- सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता को बनाए रखना,
- संविधान की व्याख्या में एकरूपता लाना।
इस व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय सभी अदालतों पर बाध्यकारी होते हैं (अनुच्छेद 141)।
यह भारत के एकीकृत राज्य संरचना और संविधान की सर्वोच्चता की भावना को मजबूत करता है।
🔶 13. उच्चतम न्यायालय के मुख्य कार्य क्या हैं?
भारतीय उच्चतम न्यायालय के मुख्य कार्य हैं:
- संवैधानिक व्याख्या करना,
- मौलिक अधिकारों की रक्षा करना (अनुच्छेद 32),
- न्यायिक पुनरावलोकन,
- विशेष अपील अधिकार (अनुच्छेद 136),
- सलाहकार मत (अनुच्छेद 143) देना,
- विधान और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना,
- राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा करना।
इस प्रकार यह न केवल अपीलीय अदालत है, बल्कि संविधान की आत्मा और लोकतंत्र का रक्षक भी है।
🔶 14. संविधान के अनुच्छेद 32 का महत्व क्या है?
अनुच्छेद 32 को “मौलिक अधिकारों का संरक्षक” कहा गया है। इसके अंतर्गत, यदि किसी नागरिक का मौलिक अधिकार उल्लंघित होता है, तो वह सीधे उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
इसमें पाँच रिट्स की व्यवस्था है – Habeas Corpus, Mandamus, Prohibition, Certiorari और Quo Warranto।
डॉ. आंबेडकर ने इसे संविधान की ‘आत्मा और हृदय’ कहा। यह नागरिकों को त्वरित न्याय प्राप्त करने और अत्याचार से रक्षा करने का शक्तिशाली माध्यम है।
🔶 15. संविधान में वित्त आयोग की भूमिका क्या है?
वित्त आयोग (Finance Commission) की स्थापना अनुच्छेद 280 के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसका कार्य है –
- केंद्र और राज्यों के बीच करों के वितरण की सिफारिश करना,
- राज्यों को अनुदान देना,
- केंद्र द्वारा राज्यों को मिलने वाली सहायता की शर्तों को तय करना।
यह हर पांच वर्ष में गठित होता है।
यह संघीय वित्तीय संतुलन और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
🔶 16. अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल की व्यवस्था क्या है?
अनुच्छेद 352 में राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की व्यवस्था है। यह तब लगाया जाता है जब देश पर युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का खतरा हो।
आपातकाल के दौरान –
- केंद्र को राज्यों पर पूर्ण नियंत्रण मिल जाता है,
- मौलिक अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है (अनुच्छेद 19 निलंबित),
- राज्यों की शक्तियाँ सीमित हो जाती हैं।
यह अधिकतम 6 महीने तक चलता है, लेकिन संसद की अनुमति से इसे बढ़ाया जा सकता है।
आपातकाल के लिए राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की लिखित सिफारिश आवश्यक है (44वाँ संशोधन, 1978)।
🔶 17. वित्तीय आपातकाल की प्रक्रिया और प्रभाव बताइए।
अनुच्छेद 360 वित्तीय आपातकाल की अनुमति देता है जब देश की वित्तीय स्थिरता को खतरा हो।
इसकी घोषणा राष्ट्रपति करते हैं और संसद की स्वीकृति आवश्यक है।
इस दौरान –
- राज्य सरकारों के वित्तीय अधिकार सीमित हो जाते हैं,
- राज्यों के कर्मचारियों के वेतन, भत्तों को कम किया जा सकता है,
- सभी वित्तीय निर्णय केंद्र के नियंत्रण में आ जाते हैं।
हालांकि आज तक भारत में वित्तीय आपातकाल कभी लागू नहीं हुआ है।
🔶 18. अनुच्छेद 50 और न्यायपालिका की स्वतंत्रता का संबंध क्या है?
अनुच्छेद 50 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में आता है और कहता है – “राज्य कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करेगा।”
इसका उद्देश्य है न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना ताकि न्याय प्रक्रिया निष्पक्ष हो सके।
हालाँकि यह न्यायपालिका पर बाध्यकारी नहीं है, फिर भी इस अनुच्छेद ने स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को संवैधानिक मान्यता दी है।
इससे निष्पक्ष न्याय और लोकतंत्र की रक्षा सुनिश्चित होती है।
🔶 19. भारत में राष्ट्रपति शासन की प्रक्रिया क्या है?
राष्ट्रपति शासन अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लगाया जाता है जब राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाए।
प्रक्रिया:
- राज्यपाल की रिपोर्ट या राष्ट्रपति की संतुष्टि,
- राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा,
- संसद की स्वीकृति आवश्यक (दोनों सदनों में 2 महीने के भीतर)।
इस अवधि को हर 6 महीने पर बढ़ाया जा सकता है, अधिकतम 3 वर्ष तक।
इसके दौरान राज्य विधानसभा निलंबित या भंग हो जाती है, और कार्यपालिका राष्ट्रपति के अधीन हो जाती है।
एस.आर. बोम्मई केस के बाद इसकी न्यायिक समीक्षा भी संभव है।
🔶 20. न्यायपालिका का लोक हित याचिका (PIL) में क्या योगदान है?
लोक हित याचिका (PIL) भारतीय न्यायपालिका का एक अभिनव उपाय है। इसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति, जनता के व्यापक हित में याचिका दाखिल कर सकता है, भले ही वह व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न हो।
यह मूल रूप से न्याय तक पहुंच को लोकतांत्रिक बनाता है।
मानवाधिकार, पर्यावरण, बाल श्रम, भ्रष्टाचार, जेल सुधार आदि विषयों में PIL का प्रयोग सफल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने खुद कई मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर जनहित के लिए कदम उठाए हैं।
PIL ने न्यायपालिका को समाज के वंचित वर्गों की आवाज़ बनाने में अहम भूमिका निभाई।
🔶 21. केंद्र को राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार कब होता है?
सामान्यतः राज्य सूची पर राज्य ही कानून बनाते हैं। लेकिन कुछ परिस्थितियों में केंद्र भी इन पर कानून बना सकता है –
- राज्यसभा में विशेष प्रस्ताव (अनुच्छेद 249),
- आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 250),
- दो या अधिक राज्यों की सहमति (अनुच्छेद 252),
- राष्ट्रीय महत्व का विषय (अनुच्छेद 253 – अंतरराष्ट्रीय संधियाँ)।
इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि संविधान केंद्र को सीमित परिस्थितियों में राज्य सूची पर अधिकार देता है।
🔶 22. अनुच्छेद 226 का महत्व क्या है?
अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति दी गई है।
यह शक्ति मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के साथ-साथ किसी अन्य विधिक अधिकार के उल्लंघन के मामलों में भी प्रयोग की जा सकती है।
यह अनुच्छेद नागरिकों को त्वरित और प्रभावी न्याय की गारंटी देता है।
यह सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 32 से व्यापक है क्योंकि इसमें गैर-मौलिक अधिकार भी आते हैं।
इस प्रकार अनुच्छेद 226 न्यायपालिका को अधिक प्रभावशाली और लोक कल्याणकारी बनाता है।
🔶 23. भारत के न्यायपालिका में कोलेजियम प्रणाली क्या है?
कोलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की एक पद्धति है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में सिफारिश करते हैं।
यह प्रणाली तीन ऐतिहासिक निर्णयों – फर्स्ट, सेकंड और थर्ड जजेज केस से विकसित हुई।
यह कार्यपालिका के हस्तक्षेप को सीमित करती है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
हालाँकि पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर इस प्रणाली की आलोचना भी होती है।
इसके स्थान पर सरकार ने NJAC लाने की कोशिश की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया।
🔶 24. समवर्ती सूची में कानून बनाने की शक्ति किसे है?
समवर्ती सूची (सातवीं अनुसूची की तीसरी सूची) में केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार होता है।
लेकिन यदि दोनों ने एक ही विषय पर कानून बनाया है और टकराव हो जाए, तो केंद्र का कानून प्रभावी रहेगा (अनुच्छेद 254)।
यदि राज्य ने केंद्र के कानून से भिन्न कानून बनाया है और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त है, तो वह राज्य में लागू रहेगा।
यह प्रावधान संघीय संतुलन और समन्वय बनाए रखने हेतु आवश्यक है।
🔶 25. संविधान में अंतर-राज्यीय विवादों को सुलझाने की व्यवस्था क्या है?
अनुच्छेद 131 के अनुसार, यदि दो या अधिक राज्यों या राज्य और केंद्र के बीच कोई विधिक विवाद हो तो सुप्रीम कोर्ट इसकी प्राथमिक अधिकारिता में सुनवाई करता है।
इसके अलावा, अनुच्छेद 263 के तहत अंतर-राज्यीय परिषद की व्यवस्था है, जो राज्यों के बीच समन्वय और विवाद समाधान में सहायता करती है।
जल विवाद, सीमा विवाद, भाषा या कर वितरण से जुड़े मामले इसी प्रकार सुलझाए जाते हैं।
यह संघीय ढांचे को सुदृढ़ बनाने के लिए एक आवश्यक तंत्र है।
🔶 26. केंद्र राज्य सूची पर अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के आधार पर कैसे कानून बना सकता है?
अनुच्छेद 253 के अनुसार, संसद को यह अधिकार है कि वह किसी अंतरराष्ट्रीय संधि, समझौते या सम्मेलन को लागू करने के लिए राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है।
यह केंद्र सरकार को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने हेतु शक्ति प्रदान करता है, भले ही वह विषय राज्य सूची में हो।
इसका उपयोग पर्यावरण, मानवाधिकार, व्यापार समझौते आदि मामलों में किया गया है।
यह संघात्मक संरचना में केंद्र को एक अतिरिक्त शक्ति देता है।
🔶 27. क्या न्यायपालिका के निर्णय राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं?
हाँ, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों और राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं (अनुच्छेद 141)।
यह प्रावधान पूरे देश में न्याय की एकरूपता और संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है।
उच्च न्यायालयों के निर्णय उस राज्य के लिए बाध्यकारी होते हैं जब तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ भिन्न न कहा जाए।
इससे कानूनी स्थिरता और नागरिकों के अधिकारों की एक समान सुरक्षा संभव होती है।
🔶 28. न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) का क्या अर्थ है?
न्यायिक सक्रियता का तात्पर्य है जब न्यायपालिका सामाजिक, राजनीतिक या प्रशासनिक मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप करती है ताकि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके।
यह मुख्य रूप से PIL, न्यायिक समीक्षा, मौलिक अधिकारों की रक्षा के माध्यम से होता है।
न्यायपालिका ने कई बार सरकार की निष्क्रियता पर हस्तक्षेप किया और पर्यावरण, मानवाधिकार, भ्रष्टाचार, जेल सुधार जैसे मामलों में ऐतिहासिक निर्णय दिए।
हालांकि इसकी आलोचना भी होती है जब न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल देती है।
🔶 29. न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण कैसे है?
भारत में स्पष्ट पृथक्करण नहीं है, लेकिन संविधान में स्वायत्तता दी गई है।
न्यायपालिका स्वतंत्र है और कार्यपालिका उसके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है, लेकिन कोलेजियम प्रणाली द्वारा न्यायपालिका को प्रमुख भूमिका दी गई है।
शक्तियों के पृथक्करण का उद्देश्य है – निष्पक्ष शासन, अधिकारों की रक्षा, और सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण।
यह लोकतंत्र के संतुलन को बनाए रखता है।
🔶 30. संविधान की आठवीं अनुसूची का न्यायपालिका से क्या संबंध है?
आठवीं अनुसूची में भारत की मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची है। इसका न्यायपालिका से संबंध यह है कि
- न्यायालयों में राज्य भाषा का प्रयोग,
- उच्च न्यायालय में राज्य सरकार की अनुमति से हिंदी या अन्य भाषा में कार्य,
- अनुवाद की आवश्यकता,
इस अनुसूची का उद्देश्य है – भाषायी समानता, न्याय सुलभ करना, और प्रशासन में पारदर्शिता लाना।
🔶 31. संविधान में न्यायपालिका के जवाबदेही की व्यवस्था क्या है?
न्यायपालिका की जवाबदेही मुख्यतः चार रूपों में सुनिश्चित की गई है –
- महाभियोग प्रक्रिया (अनुच्छेद 124(4)),
- नैतिक आचार संहिता,
- जनता व मीडिया का दवाब,
- न्यायिक समीक्षा की पारदर्शिता।
हालांकि न्यायाधीशों के व्यवहार की निगरानी के लिए अलग से कोई संस्था नहीं है, लेकिन Judges (Inquiry) Act, 1968 के तहत जांच संभव है।
इस विषय में सुधार की मांग लगातार उठती रही है।
🔶 32. अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की मूल अधिकारिता क्या है?
अनुच्छेद 131 सुप्रीम कोर्ट को दो या अधिक राज्यों अथवा राज्य और केंद्र के बीच संवैधानिक विवादों की सुनवाई का अधिकार देता है।
यह “मूल अधिकारिता” (Original Jurisdiction) है – मतलब मामला सीधे सुप्रीम कोर्ट में दायर होता है, किसी निचली अदालत से नहीं आता।
यह संघीय संरचना में संघ और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रभावशाली उपाय है।
पानी, कर, सीमा विवाद इसके उदाहरण हैं।
🔶 33. न्यायिक समीक्षा और संसदीय सर्वोच्चता में क्या अंतर है?
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) का अर्थ है – न्यायालय यह जांचे कि कोई विधि या निर्णय संविधान के अनुरूप है या नहीं।
संसदीय सर्वोच्चता (Parliamentary Supremacy) में संसद सर्वोच्च होती है, जैसे ब्रिटेन में।
भारत में संविधान सर्वोच्च है, इसलिए संसद सीमित है और न्यायपालिका संविधान के उल्लंघन पर उसे रोक सकती है।
इसलिए भारत में न्यायिक समीक्षा संसद पर नियंत्रण का माध्यम है।
🔶 34. संविधान में न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले प्रावधान कौन-कौन से हैं?
न्यायिक स्वतंत्रता हेतु प्रमुख प्रावधान हैं:
- अनुच्छेद 124 से 147 (सुप्रीम कोर्ट),
- अनुच्छेद 214 से 231 (हाई कोर्ट),
- वेतन और भत्ते संसद द्वारा निर्धारित (न्यायपालिका द्वारा नहीं),
- हटाने की प्रक्रिया जटिल – केवल महाभियोग द्वारा,
- कार्यपालिका का हस्तक्षेप निषिद्ध,
- कार्यकाल की सुरक्षा,
इन सभी का उद्देश्य है निष्पक्ष और स्वतंत्र न्याय व्यवस्था।
🔶 35. न्यायपालिका द्वारा मौलिक अधिकारों की सुरक्षा कैसे होती है?
संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को रिट जारी करने का अधिकार है।
ये रिट – Habeas Corpus, Mandamus, Prohibition, Certiorari, Quo Warranto – के माध्यम से न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं।
यदि कोई सरकारी या निजी संस्था नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन करती है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर उसे रोका सकता है।
यह लोकतंत्र की आत्मा को सुरक्षित रखने का कार्य है।
🔶 36. न्यायपालिका में PIL (जनहित याचिका) की उत्पत्ति कैसे हुई?
PIL की शुरुआत भारत में 1980 के दशक में जस्टिस पी.एन. भगवती और जस्टिस वी.आर. कृष्ण अय्यर द्वारा हुई।
इसका उद्देश्य था – निर्धनों और वंचितों को न्याय तक पहुंच देना।
पहली PIL मामलों में कैदियों के अधिकार, श्रमिकों की स्थिति, पर्यावरण संरक्षण आदि शामिल थे।
इस यंत्र ने न्यायिक सक्रियता को जन्म दिया और लोकतंत्र को मजबूत किया।
🔶 37. अनुच्छेद 144 का महत्व क्या है?
अनुच्छेद 144 कहता है – “भारत में सभी नागरिक और अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और निर्णयों का पालन करेंगे।”
यह सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की बाध्यता सुनिश्चित करता है।
यदि कोई सरकारी संस्था पालन न करे, तो अवमानना कार्यवाही संभव है।
यह प्रावधान न्यायपालिका की गरिमा और निर्णयों की प्रभावशीलता को बनाए रखने हेतु महत्वपूर्ण है।
🔶 38. क्या राज्यपाल केंद्र के अधीन होता है?
राज्यपाल का पद संविधान द्वारा स्थापित है और वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होता है।
हालाँकि वह राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, लेकिन उसकी नियुक्ति, बर्खास्तगी और दिशा निर्देशों में केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
एस.आर. बोम्मई केस के बाद न्यायालय ने राज्यपाल की भूमिका पर निगरानी रखी है।
व्यवहार में राज्यपाल की स्थिति राजनीतिक हो जाती है, जिससे संघीय ढाँचा प्रभावित होता है।
🔶 39. संसद राज्य के विषयों पर कानून कब बना सकती है?
संसद निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है:
- राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित (अनुच्छेद 249),
- आपातकाल (अनुच्छेद 250),
- दो या अधिक राज्यों की सहमति (अनुच्छेद 252),
- अंतरराष्ट्रीय दायित्व (अनुच्छेद 253)।
इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि संविधान केंद्र को विशेष परिस्थिति में अतिरिक्त शक्तियाँ देता है।
🔶 40. अनुच्छेद 137 में पुनर्विचार याचिका की क्या व्यवस्था है?
अनुच्छेद 137 सुप्रीम कोर्ट को अपने निर्णयों की पुनर्विचार (Review) करने का अधिकार देता है।
यदि कोई पक्ष यह सिद्ध करता है कि –
- निर्णय में गंभीर त्रुटि है,
- कोई महत्त्वपूर्ण तथ्य छूट गया,
तो वह पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता है।
यह सिद्धांत न्याय की अंतिम सुरक्षा है और यह सुनिश्चित करता है कि अदालत स्वयं अपनी गलती सुधार सके।
🔶 41. भारत में न्यायिक सक्रियता के लाभ और हानियाँ क्या हैं?
न्यायिक सक्रियता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें न्यायपालिका सामाजिक, राजनीतिक या प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप कर सुधार लाने का प्रयास करती है।
लाभ:
- यह वंचितों को न्याय तक पहुँच दिलाती है।
- कार्यपालिका और विधायिका की निष्क्रियता पर नियंत्रण रखती है।
- लोक हित याचिका (PIL) के माध्यम से गरीब और अनपढ़ वर्ग को भी न्याय मिलता है।
हानियाँ: - यह सत्ता के पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध जा सकती है।
- इससे न्यायपालिका पर ‘न्यायिक अतिक्रमण’ (Judicial Overreach) का आरोप लगता है।
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया और जनप्रतिनिधियों की भूमिका कमजोर होती है।
इसलिए न्यायिक सक्रियता लाभकारी है, परंतु सीमित और संतुलित रूप में।
🔶 42. न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) क्या है?
जब न्यायपालिका अपनी सीमाओं को पार करके विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगती है, तो उसे न्यायिक अतिक्रमण कहा जाता है।
यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब अदालतें प्रशासनिक नीतियों या कानून निर्माण जैसे क्षेत्रों में निर्णय देने लगती हैं।
यह संविधान में वर्णित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विपरीत है।
हालाँकि कई बार यह जनहित में होता है, लेकिन लगातार हस्तक्षेप से लोकतंत्र की संस्थाओं की स्वायत्तता पर असर पड़ सकता है।
इसलिए न्यायिक अतिक्रमण से बचते हुए न्यायिक सक्रियता को संतुलित रूप में लागू करना आवश्यक है।
🔶 43. संविधान में राज्यपाल की भूमिका पर न्यायपालिका का दृष्टिकोण क्या है?
न्यायपालिका ने कई निर्णयों में राज्यपाल की भूमिका को संविधान के अनुरूप बनाए रखने का निर्देश दिया है।
एस.आर. बोम्मई केस (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल की रिपोर्ट और अनुच्छेद 356 के तहत की गई कार्रवाई न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
न्यायपालिका ने कहा कि राज्यपाल राजनीतिक पक्षपात से बचें और संविधान के अनुरूप कार्य करें।
नवीन चंद्र बनाम आंध्र प्रदेश केस में भी न्यायालय ने राज्यपाल की शक्तियों की सीमाएँ स्पष्ट कीं।
इस प्रकार न्यायपालिका राज्यपाल के पद को निष्पक्ष और संविधानिक बनाए रखने के लिए सक्रिय रही है।
🔶 44. अनुच्छेद 148 के अंतर्गत भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की भूमिका क्या है?
अनुच्छेद 148 के अंतर्गत CAG (Comptroller and Auditor General of India) की नियुक्ति होती है।
यह भारत सरकार के खर्चों और आय की लेखा परीक्षा (audit) करता है और इसकी रिपोर्ट संसद को प्रस्तुत की जाती है।
CAG की भूमिका है –
- लोक धन की निगरानी करना।
- वित्तीय पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
- सरकारी संस्थाओं की लेखा परीक्षा करना।
यह एक संवैधानिक संस्था है जिसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए उसे सुरक्षित कार्यकाल और वेतन संरचना प्राप्त है।
CAG को “लोकतंत्र का प्रहरी” भी कहा जाता है।
🔶 45. संविधान में अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल की विशेषताएं क्या हैं?
अनुच्छेद 360 वित्तीय आपातकाल की घोषणा की व्यवस्था करता है। यदि राष्ट्रपति को यह लगता है कि भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता को खतरा है, तो वे इसकी उद्घोषणा कर सकते हैं।
विशेषताएं:
- सभी राज्यों के वित्तीय अधिकार केंद्र को हस्तांतरित हो जाते हैं।
- कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कटौती की जा सकती है।
- संसद को राज्यों के आर्थिक निर्णयों पर नियंत्रण मिल जाता है।
हालाँकि यह व्यवस्था संविधान में है, परंतु आज तक भारत में वित्तीय आपातकाल कभी लागू नहीं हुआ है।
🔶 46. न्यायपालिका में “मूल संरचना सिद्धांत” (Basic Structure Doctrine) क्या है?
मूल संरचना सिद्धांत का अर्थ है कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान की मूल विशेषताओं को नष्ट या समाप्त नहीं कर सकती।
यह सिद्धांत केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
मूल संरचना में शामिल हैं –
- संविधान की सर्वोच्चता,
- लोकतंत्र,
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता,
- संघवाद,
- मौलिक अधिकार आदि।
यह सिद्धांत संविधान की आत्मा की रक्षा करता है और संसद की असीमित शक्ति पर नियंत्रण रखता है।
🔶 47. अनुच्छेद 50 का उद्देश्य क्या है?
अनुच्छेद 50 संविधान के नीति निदेशक तत्वों में आता है। यह कहता है – “राज्य कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करेगा।”
इसका उद्देश्य है –
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना,
- कार्यपालिका के अनुचित दबाव से न्यायिक निर्णयों को बचाना,
- निष्पक्ष न्याय व्यवस्था को बनाए रखना।
हालाँकि यह बाध्यकारी नहीं है, फिर भी यह संवैधानिक आदर्श के रूप में न्यायिक स्वतंत्रता का मार्गदर्शन करता है।
🔶 48. भारत में आपातकालीन उपबंधों की आलोचना क्यों होती है?
आपातकालीन उपबंधों की आलोचना मुख्यतः इसलिए होती है क्योंकि इनके लागू होने पर –
- मौलिक अधिकार निलंबित हो जाते हैं,
- केंद्र को अत्यधिक शक्तियाँ मिल जाती हैं,
- संविधान का संघीय ढांचा प्रभावित होता है,
- राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना होती है (जैसे 1975 का आपातकाल)।
हालाँकि 44वाँ संशोधन (1978) के माध्यम से इन पर कुछ नियंत्रण और शर्तें लगाई गईं, फिर भी इनकी संवैधानिक और नैतिक सीमाएँ आज भी चर्चा का विषय हैं।
🔶 49. न्यायिक पुनरावलोकन और पुनर्विचार में क्या अंतर है?
न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का अर्थ है – अदालत किसी कानून या निर्णय की संवैधानिक वैधता की जाँच करे।
यह अनुच्छेद 13, 32, 226 आदि के अंतर्गत आता है।
पुनर्विचार (Review) का अर्थ है – कोई पक्ष न्यायालय से अपने पूर्ववर्ती निर्णय की पुन: समीक्षा की मांग करे।
यह अनुच्छेद 137 के अंतर्गत होता है और विशेष परिस्थितियों में ही स्वीकार्य है।
दोनों की प्रकृति अलग है – पुनरावलोकन संविधान की रक्षा है, पुनर्विचार न्याय में सुधार का उपाय।
🔶 50. न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र को कैसे सुदृढ़ करती है?
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका संविधान और नागरिक अधिकारों की रक्षक है।
यह विधायिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है और आवश्यकता पड़ने पर उनकी कार्रवाई को रद्द कर सकती है।
मौलिक अधिकारों की रक्षा, संवैधानिक व्याख्या, न्यायिक समीक्षा, PIL, संविधान की मूल संरचना की रक्षा, आदि के माध्यम से यह नागरिकों को न्याय और लोकतंत्र की भावना की सुरक्षा देती है।
इस प्रकार न्यायपालिका भारत के लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी है।