प्रश्न 1 संयुक्त स्कन्ध कम्पनी को परिभाषित कीजिए।
अथवा
कम्पनी का क्या आशय है ? कम्पनी की परिभाषा दीजिए।
अथवा
उत्तर –
कम्पनी का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Company)
कम्पनी से आशय एक ऐसी समामेलित संस्था से है जिसका एक कृत्रिम वैधानिक व्यक्तित्व होता है। इसके पास एक अपनी सार्वमुद्रा होती है। इसके सदस्यों का दायित्व प्रायः सीमित होता है और इसके सदस्यों का अस्तित्व अलग होता है। इसकी पूंजी अशो में विभाजित होती है। कम्पनी को विभिन्न विधानों एवं अधिनियम में निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है.
कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (20) के अनुसार कम्पनी का आशय इस अधिनियम अथवा किसी विगत कम्पनी कानून के आधीन निगमित कम्पनी से है।” प्रो० हैने के अनुसार कम्पनी एक समामेलित संस्था है। यह विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका पृथक अस्तित्व, सर्वत्र उत्तराधिकार एवं सार्वमुद्रा होती है। न्यायाधीश मार्शल के अनुसार, “संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी कृत्रिम, अदृश्य तथा अमूर्त सस्था है जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है। लार्ड लिण्डले के अनुसार, “कम्पनी व्यक्तियों का समूह है, जोकि द्रव्य अथवा द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में करते है तथा इसका उपयोग एक निश्चित उद्देश्य हेतु करते हैं।
न्यायाधीश जेम्स के अनुसार, एक कम्पनी विभिन्न व्यक्तियों का एक समूह है जिसका संगठन किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है।
उपरोक्त परिभाषाओं का विश्लेषणात्मक विवेचन करके निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्पनी एक विधिक तथा अदृश्य कृत्रिम व्यक्ति होती है जिसका समामेलन कम्पनी संविधि के अधीन कुछ निर्धारित उद्देश्यों हेतु किया जाता है। कम्पनी अपने सदस्यों से भिन्न अस्तित्व रखती है। इसकी एक सार्वमुद्रा होती है एवं सामान्य रूप से इसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता है।
प्रश्न 2. एक कम्पनी में कौन-कौन सी विशेषताएँ पायी जाती है ? संक्षिप्त विवरण दीजिए।
अथवा
कम्पनी के पृथक वैधानिक अस्तित्व से क्या आशय है ?
उत्तर –
कम्पनी की आधारभूत विशेषताएँ
(Fundamental Characteristics of a Company)
एक कम्पनी में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती है-
1. समामेलित संघ (Incorporated Association)– कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार इसकी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि प्रत्येक कम्पनी का समामेलन होना अनिवार्य है अर्थात पंजीकरण द्वारा ही कम्पनी का निर्माण हो सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रत्येक ऐसा संघ वह सहकारी संस्था है जिसकी स्थापना लाभार्जन के उददेश्य से हुई है, जिसका पंजीकरण विधान के अन्तर्गत अनिवार्य है समामेलित सघ कहलाता है।
2. कृत्रिम वैधानिक व्यक्ति (Artificial Legal Person)- कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है क्योकि कम्पनी का जन्म अप्राकृतिक तरीके से होता है एवं इसके अधिकार एवं दायित्व प्राकृतिक व्यक्ति की तरह होते हैं। इसलिए कम्पनी को कृत्रिम वैधानिक व्यक्ति कहा जाता है।
3. सीमित दायित्व (Limited Liability) इसके अंशधारियों का दायित्व उनके द्वारा खरीदे गये अशो की अदत्त राशि तक ही सीमित होता है। इसके अतिरिक्त कम्पनी के दायित्वों का भुगतान करने के लिए सदस्यों से कुछ भी नहीं माँगा जा सकता, चाहे कम्पनी को कितनी भी हानि क्यों न हो। इस प्रकार एक सीमित दायित्व वाली कम्पनी में किसी भी अंशधारी का दायित्व उसके द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक ही सीमित होता है।
4. सार्वमुद्रा (Common Seal) कम्पनी का प्राकृतिक मानव के समान शरीर नहीं होता है। इसलिए यह प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करने के अयोग्य है। इसीलिए प्रत्येक कम्पनी के पास अपनी एक सार्वमुद्रा होती है जिसका प्रयोग कम्पनी के द्वारा हस्ताक्षर के स्थान पर किया जाता है। कम्पनी की सार्वमुद्रा जिस प्रपत्र पर लगी होती है, कम्पनी उन्हीं प्रपत्रो पर कानूनी रूप से बाध्य होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सार्वमुद्रा कम्पनी के हस्ताक्षर का काम करती है।
5. अंशों की हस्तान्तरणीयता (Transferability of Shares)- अंशों का हस्तान्तरण करने के लिए अन्य सदस्यों से कोई अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती है और सदस्य अपनी इच्छानुसार किसी भी अन्य व्यक्ति को अशो का हस्तान्तरण कर सकते हैं।
6. अलग सम्पत्ति (Separate Property ) कम्पनी अपने नाम से सम्पत्ति खरीदने, उसे रखने व उसका निपटारा करने में पूर्ण सक्षम है, क्योंकि कम्पनी अपने सदस्यों से भिन्न एक कानूनी व्यक्ति है। कम्पनी के सदस्य कम्पनी की सम्पत्तियों में अपने स्वामित्व का दावा नहीं कर सकते है और न ही अपनी कम्पनी की सम्पत्ति में सदस्यों का बीमा योग्य हित होता है।
7. शाश्वत अस्तित्व (Prepetual Existence) कम्पनी एक कानूनी व्यक्ति है। इसका जीवन इसके सदस्यों अथवा संचालकों के जीवन पर निर्भर नहीं करता है। समापन काल तक कम्पनी निरन्तर कार्य करती रहती है। कम्पनी अपने एजेन्टों के माध्यम से कार्य करती है क्योंकि कम्पनी का कोई भौतिक अथवा शारीरिक अस्तित्व नहीं होता है। एजेंटों द्वारा जो कार्य कम्पनी की ओर से किये जाते हैं उनमे कम्पनी की सार्वमुद्रा होनी आवश्यक है।
8. पृथक वैधानिक अस्तित्व (Separate Legal Entity) कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है। एक समामेलित कम्पनी का पृथक अस्तित्व होता है तथा कानून इसे अपने सदस्यों से अलग मानता है। ऐसा पृथक अस्तित्व समामेलन होते ही उत्पन्न हो जाता है। कम्पनी का अस्तित्व उन व्यक्तियों या सदस्यों से भिन्न होता है जो कम्पनी की स्थापना करते है या उसके अंशों क्रय करते है। कम्पनी एवं कम्पनी के संचालकों का भी अलग-अलग अस्तित्व होता है। कानून के अनुसार कम्पनी पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियो से भिन्न होती है।
प्रश्न 3. कम्पनी अधिनियम, 2013 का प्रशासन किन किन एजेन्सीज द्वारा चलाया जाता है?
उतर –
कम्पनी अधिनियम, 2013
(Companies Act, 2013)
कम्पनी अधिनियम 2013 कम्पनियों के सम्बन्ध में विधि को एकीकृत एवं संशोधित करता है। इस अधिनियम में 470 धाराये है जिन्हें 29 अध्यायों में दिया गया है। इस अधिनियम के साथ 7 अनुसूचियों लगी है।
कम्पनी अधिनियम 2013 के उद्देश्य निम्नलिखित है-
1. कम्पनियों के सम्बन्ध में विधि को स्वीकृत एवं संशोधित करना,
2. खुले वैश्विक बाजार में उद्यमियों को मुक्त पहुँच प्रदान करना,
3. कम्पनियों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करना,
4. निवेशकों एवं स्टेकधारकों के हितों का संरक्षण करना।
कम्पनी अधिनियम 2013 का प्रशासन
(Administration of the Companies
Act, 2013)
वर्तमान में कम्पनी अधिनियम 2013 का प्रशासन निम्नलिखित एजेन्सियों द्वारा किया जाता है
1. केन्द्रीय सरकार ( The Central Government) केन्द्रीय सरकार द्वारा कम्पनी कार्य विभाग के माध्यम से कम्पनी अधिनियम 2013 का प्रशासन किया जाता है। कम्पनी प्रशासन के सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार उच्चतम प्राधिकारी है। केन्द्रीय सरकार के पास अपनी शक्तियों एवं कर्त्तव्यों को किसी उचित प्राधिकारी को प्रत्योजित करने की शक्ति प्राप्त है। केन्द्रीय सरकार द्वारा कम्पनी विधि के प्रशासन सम्बन्धी शक्तियों को कम्पनी अधिनियम के अधीन गठित प्राधिकारी को प्रत्यायोजित कर दिया गया है।
2. राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण (National Company Law Tribunal NCLT) – कम्पनी लॉ बोर्ड के स्थान पर राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण बनाया गया है। कम्पनी लॉ बोर्ड के समक्ष विचाराधीन मामलों को अब न्यायाधिकरण को अन्तरित किया जायेगा। कम्पनी लॉ बोर्ड की कुछ शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के पास तथा कुछ राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण को अन्तरित कर दी गयी हैं।
3. अपीलीय न्यायाधिकरण (Appellate Tribunal) राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण के निर्णय या आदेश से पीडित व्यक्ति राष्ट्रीय कम्पनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण में अपील कर सकता है। राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण के आदेश या निर्णय के 45 दिन के भीतर अपील की जा सकती है। परन्तु अपीलीय न्यायाधिकरण को पर्याप्त कारण बताये जाने पर वह और आगे 45 दिन तक अपील को स्वीकार कर सकता है।
4. कम्पनी रजिस्ट्रार (Registrar of Companies ) कम्पनी रजिस्ट्रार एक सार्वजनिक कार्यालय होता है जहाँ कम्पनियों को प्रपत्र एवं विवरणपत्र फाइल करने होते हैं तथा जनता द्वारा इन प्रपत्रों का निरीक्षण किया जा सकता है।
5. राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण [National Financial Reporting Authority (NFRA)] कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन गठित लेखांकन प्रमापों पर राष्ट्रीय परामर्श समिति का नाम कम्पनी अधिनियम, 2013 द्वारा बदलकर राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण कर दिया गया है। यह अर्द्ध-सरकारी प्राधिकरण है।
6. भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India : SEBI) • केन्द्रीय सरकार ने विनियोजकों के हित संरक्षण हेतु भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) का गठन किया है। यह प्रतिभूति बाजार का नियमन करता है। सेवी अपने कर्तव्यों एवं कार्यों को प्रभावी ढंग से निमा सके, केन्द्रीय सरकार ने इसे सूचीयत कम्पनियों की दशा में प्रतिभूतियों के निर्गमन एवं हस्तान्तरण तथा लाभांश का भुगतान न करने के बारे में शक्तियाँ दी हैं।
7. सरकारी समापक (Official Liquidators) राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण द्वारा कम्पनियों के समापन के उद्देश्यार्थ एक सरकारी समापक होगा। सरकारी समापक को चार्टर्ड एकाउन्टेन्टो, वकीलो कम्पनी सचिवों, लागत एवं कार्य लेखाकारों की पेशेवर फर्मों के पैनल से नियुक्त किया जा सकता है। यह केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित पेशेवरों वाला निगमित निकाय हो सकता है।
प्रश्न-4 निगमित व्यक्तित्व एवं कॉर्पोरेट का आवरण उठाना (Corporate Personality and Lifting the Corporate Veil)
कार्पोरेट का आवरण उठाने से क्या तात्पर्य है ?
अथवा
समामेलन के आवरण को हटाने के सिद्धान्तों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
अथवा
कम्पनी के आवरण से आपका क्या तात्पर्य है ?
अथवा
“निगमन का आवरण क्या हैं? किन परिस्थितियों में इसका अनावरण किया जाता है? निर्जिव वादो का उल्लेख करते हुए निर्णय दीजिये।
अथवा
‘निगमन आवरण भेदन’ से आप क्या समझते हैं ? निर्णीत वादों की सहायता से विवेचना कीजिए।
उत्तर-
समामेलन के आवरण का अर्थ
(Meaning of the Corporate Veil)
कम्पनी का समामेलन होने से कम्पनी और उनके सदस्यों के बीच एक आवरण पड़ जाता है जो कम्पनी को अपने सदस्यों से सर्वथा पृथक वैधानिक अस्तित्व प्रदान करता है और जिसको हटाकर सदस्यों के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता है। इसी आवरण को समामेलन का आवरण कहते है।
समामेलन के आवरण को हटाना
(Lifting of the Corporate Veil)
समामेलन के आवरण को हटाकर सदस्यों के स्वरूप को नहीं जाना जा सकता है। कम्पनी का निर्माण करने से सबसे बड़ा लाभ यही प्राप्त होता है कि उसका एक अपना अलग विधिक अस्तित्व होता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में समामेलन के आवरण को हटाकर उसके पीछे छिपे अंशधारियों को प्रकट किया जाता है और उन्हें व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है
1. सदस्यों का वैधानिक न्यूनतम संख्या से कम होना (Reduction of Number of Members below Statutory Minimum)– यदि कभी भी सदस्यों की संख्या न्यूनतम सीमा से कम हो जाती है और फिर भी कम्पनी लगातार 6 महीने से अधिक व्यापार करती है तो ऐसी स्थिति में उपरोक्त अवधि में लिये गये ऋणों के लिए प्रत्येक सदस्य व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा अर्थात् इस तथ्य के प्रत्येक जानकार सदस्य पर जो निरन्तर कम्पनी का सदस्य बना रहा है, ऋणों की वसूली के लिए वाद लाया जा सकता है।
2. सूत्रधारी एवं सहायक कम्पनी के सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए (For Estabilishing the Relationship of Holding and Subsidary Company). कोई कम्पनी किसी दूसरी कम्पनी की सूत्रधारी अथवा सहायक कम्पनी है या नहीं है, इस तथ्य को स्थापित करने के लिए कम्पनी की सदस्यता जानना आवश्यक है और इस बात की जानकारी समामेलन का आवरण हटाकर ही की जा सकती है।
3. कम्पनी के स्वामित्व की जाँच के लिए (For Investigation of Ownership of a Company) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 216 के अनुसार केन्द्रीय सरकार एक या अधिक निरीक्षकों की नियुक्ति कर सकती है जो यह जाँच करेंगे कि वे कौन-से व्यक्ति है जिनका वास्तिक नियंत्रण है अथवा कम्पनी की नीतियों पर सारवान प्रभाव डालते हैं।
4. कम्पनी के कार्यकलापों का अन्वेषण (Investigation of the Affairs of the Company)- धारा 219 प्रावधान करती है कि यदि कम्पनी का प्रबन्ध कुछ या सभी समस्याओं के साथ कपटपूर्ण या अन्यायपूर्ण नीतियाँ अपनाता है तो निरीक्षक अन्वेषण कर सकता है।
5. कपटपूर्ण लेनदेन का अन्वेषण (Investigating Fraudulent Trading) यदि कम्पनी के समापन के दौरान यह प्रकट होता है कि कम्पनी द्वारा अपने लेनदारों या किन्हीं अन्य व्यक्तियों को धोखा देने या किसी कपटपूर्ण उद्देश्य से व्यवसाय चलाया जा रहा है तो राष्ट्रीय कम्पनी विधि न्यायाधिकरण वैधानिक निगमित आवरण को हटा सकता है तथा कपटपूर्ण गतिविधियों में लिप्त व्यक्तियों को उत्तरदायी ठहरा सकता है।
6. कम्पनी का नाम प्रकट न करना (Non-disclosure of Company’s Name): धारा 12 प्रावधान करती है कि यदि कम्पनी का नाम व पंजीयत कार्यालय का पता कम्पनी के प्रपत्रों पर उचित एवं स्पष्टतया नहीं लिखा जाता तो उत्तरदायी व्यक्ति परिणामों के लिए व्यक्तिगत रूप से दायी होगा।
7. आवेदन धनराशि को वापस न लौटाना (Non-return of Application Money) धारा 39 प्रावधान करती है कि कम्पनी का दायित्व है कि यह उन अंशों के आवेदन पर प्राप्त राशि को वापस लौटा दे जिन आवेदकों को अश आवंटित नहीं किये जाते। यदि राशि को प्रविवरण के निर्णयन के 130 दिनों में वापस नहीं लौटया जाता तो संचालक व्यक्तिगत एवं पृथक रूप से दायी होंगे।
8. प्रविवरण में मिथ्याकथन (Mis-statement in Prospectus ) धारा 35 प्रावधान करती है कि प्रविवरण में मिथ्याकथन होने पर संचालक, प्रवर्तक अथवा प्रविवरण जारी करने वाला प्रत्येक व्यक्ति दायी ठहराया जा सकता है।
न्यायालयों के निर्णय के अधीन जिन परिस्थितियों में ‘समामेलन के आवरण को हटाया जाता है, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –
1. राजस्व की रक्षा (Protection of Revenue) न्यायालय आयकर निर्धारण के सम्बन्ध में कम्पनी के निगमित व्यक्तित्व के पीछे आर्थिक वास्तविकताओं की ओर ध्यान दे सकता है और यदि यह प्रतीत हो जाये कि कम्पनी का समामेलन केवल कर दायित्व से बचने के लिए कराया गया है तो न्यायालय समामेलन के आवरण के अन्दर छिपे अंशधारियों को व्यक्तिगत रूप से दायी ठहरा सकता है। ‘री सर डिनशाँ मैनेकजी पेटिट का वाद इस तथ्य का एक प्रमुख उदाहरण है। सर डिनशाँ एक धनवान व्यक्ति था जिसे लाभांश और ब्याज से काफी आय होती थी। उसने चार निजी कम्पनियों का निर्माण किया और अपने विनियोग को चार भागों में बांटकर इन चारों कम्पनियों को इनके अंशों के बदले हस्तान्तरण कर दिया। फलस्वरूप अब लाभांश और ब्याज की आय इन कम्पनियों को होने लगी और ये कम्पनियाँ अपनी आय को दिखावटी ऋण के रूप में सर डिनशों को देने लगी। इस प्रकार उसने आयकर दायित्व को कम करने के लिए अपनी आय को चार भागों में बाँट दिया और यह निर्णय दिया कि कम्पनियों का निगमन केवल कर दायित्व से बचने के लिए कराया गया है, अतः ये और करदाता एक ही व्यक्ति है।
2. कपट या अनुचित आचरण की रोकथाम (Prevention of Fraud or Misconduct ) न्यायालय निगमित व्यक्तित्व के आवरण को उस स्थिति में भी हटा देता है जब उसे इस बात का अहसास हो कि समामेलन की औपचारिकता केवल कपटपूर्ण और अवैधानिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु की गयी है। गिलफोर्ड मोटर बनाम हार्ने का बाद इस सम्बन्ध में एक अच्छा उदाहरण है, जिसके तथ्य निम्न प्रकार हैं-
एक सेवा कम्पनी के अधीन हार्ने को गिलफोर्ड मोटर कम्पनी का प्रबन्ध संचालक नियुक्त किया गया। सेवा अनुबन्ध में यह शर्त थी कि हार्ने कम्पनी के ग्राहकों से अपना स्वयं का व्यापार नहीं करेगा। इस प्रतिबन्ध से बचने के लिए हार्ने ने एक कम्पनी का निर्माण किया जिसके नाम में उसने अपनी स्वामी कम्पनी के ग्राहकों से व्यापार आरम्भ कर दिया। न्यायालय ने इसे एक आडम्बर बताते हुए हार्ने तथा उसके द्वारा निर्मित कम्पनी पर व्यापार करने पर रोक लगा दी।
3. कम्पनी के शत्रु चरित्र का निश्चय करना ( Determination of the Enemy Character of Company) न्यायालय द्वारा कम्पनी के शत्रु चरित्र का पता करने के लिए। भी समामेलन का आवरण हटा दिया जाता है। यदि कम्पनी पर नियन्त्रण रखने वाले व्यक्ति शत्रु देश के वासी हैं या शत्रुओं के नियंत्रण में कार्य करते हैं, तो कम्पनी शत्रु का रूप धारण कर लेती है। उदाहरणार्थ- इंग्लैण्ड और जर्मनी के युद्ध के समय, डैमलर कम्पनी लि० बनाम कान्टिनेन्टल टायर एण्ड रबर कं० नामक वाद में न्यायालय ने कम्पनी के पृथक वैधानिक अस्तित्व के सिद्धान्त की मान्यता नहीं दी और वाद को अपास्त करते हुए निर्णय दिया कि वादी कम्पनी प्रतिवाद से अपना व्यापारिक ऋण वसूल नहीं कर सकती। न्यायालय ने कहा, भले ही प्रतिवादी कम्पनी का समामेलन हमारे ही देश (इंग्लैण्ड) में हुआ है, लेकिन यह एक शत्रु कम्पनी है क्योंकि इसका नियंत्रण करने वाले व्यक्ति शत्रु देश (जर्मनी) के निवासी हैं और युद्ध के दौरान शत्रु देश से कोई भी व्यापार करना जन-कल्याण नीति के विरुद्ध है। इस प्रकार वैधानिक उपबन्धों एवं न्यायालयों के निर्णयों के अधीन समामेलन के पृथक वैधानिक अस्तित्व वाले सिद्धान्त के अपवादों को मान्यता दी गयी।
प्रश्न-5 कम्पनी के निगमन से क्या लाभ हैं ?
उत्तर- कम्पनी के निगमन के लाभ –
(1) निगमन प्रमाणपत्र जारी होने के पश्चात कम्पनी की सारी प्रस्थिति बदल जाती है।
1924 में कोर्ट ऑफ अपील ने जुबली काटन मिल्स बनाम लेविन के मामले में यह अवधारित किया है कि निगमन का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी
(क) एक निगमित निकाय बन जाती है.
(ख) उसका शाश्वत उत्तराधिकार हो जाता है और
(ग) इसकी एक सामान्य मुद्रा बन जाती है।
निकाय बन जाने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि कम्पनी को विधिक व्यक्ति का दर्जा प्राप्त हो जाता है और अब कम्पनी किसी व्यक्ति पर वाद ला सकती है और उसके विरुद्ध भी वाद लाया जा सकता है।
अशोक मार्केटिंग लि. बनाम पी. एन. बी. (1990) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अवधारित किया है कि निगमन प्रमाणपत्र जारी होने के बाद कम्पनी के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों तथा समय-समय पर कम्पनी की सदस्यता धारण करने वाले व्यक्ति एक निगमित निकाय का रूप धारण कर लेते हैं जो निगमित कम्पनी के रूप में कार्य करते हैं और जिनका शाश्वत अस्तित्व होता है।
(2) प्रिवी कौंसिल ने मूसा गुलाम आरिफ बनाम इब्राहिम गुलाम आरिफ (1913) के मामले में प्रिवी कौंसिल उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया है कि निगमन का प्रमाण पत्र जारी होना इस बात का प्रमाण है कि कम्पनी अधिनियम की सारी औपचारिकतायें पूरी कर ली गयी है और कम्पनी अब विधिवत निगमित निकाय बन गयी है। जब रजिस्टार द्वारा एक बार निगमन का प्रमाण पत्र जारी कर दिया जाता है तो उसे किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
यदि कम्पनी के उद्देश्यों में से कुछ अवैध हो तो भी कम्पनी के निगमन को चुनौती नहीं दी जा सकती है।
(3) निगमन का प्रमाण पत्र प्राप्त हो जाने पर कम्पनी विधिक व्यक्तित्व प्राप्त कर लेती है। और अब वह अपने मान से संविदा कर सकती है तथा चल और अचल संपत्ति का क्रय-विक्रय कर सकती है।
(4) इनलैक इन्वेस्टमेंट कम्पनी बनाम डायनामेटिक हाइड्रोलिक्स लि. (1989) के मामले में यह निर्णीत किया गया है कि कम्पनी के निगमन के पूर्व उसके शेयर नहीं क्रय किये जा सकते हैं। इस प्रकार निगमन का एक लाभ यह भी है कि कम्पनी शेयरों के क्रय-विक्रय के लिए अधिकृत हो जाती है।
(5) निगमन के बाद कम्पनी का विधिक अस्तित्व उसके सदस्यों से पृथक हो जाता है जिसके कारण किसी सदस्य के दिवालिया हो जाने पर भी कम्पनी पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता।
(6) निगमित कम्पनी की एक पृथक निधि होती है जो उसके सदस्यों की निधियों से भिन्न होती है।
निगमन का प्रभाव – कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 9 के अनुसार निगमन के निम्न प्रभाव होते हैं-
(क) कम्पनी निगमित निकाय बन जाती है।
(ख) इसका शाश्वत उत्तराधिकार हो जाता है।
(ग) इसकी एक सामान्य मुद्रा होती है।
(घ) कम्पनी मूर्त एवं अमूर्त दोनों प्रकार की संपत्ति का क्रय-विक्रय, अर्जन एवं व्ययन कर सकती है।
(ड) कम्पनी को संविदा करने का अधिकार मिल जाता है।
(च) कम्पनी द्वारा और उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है।
प्रश्न- 6 क्या समामेलन प्रमाण-पत्र इस बात का निश्चायक प्रमाण है कि कम्पनी का समामेलन विधिवत हुआ है ?
उत्तर- समामेलन का प्रमाण-पत्र इस बात का निश्चायक प्रमाण है कि कम्पनी का समामेलन विधिवत् हुआ है। दूसरे शब्दों में जब एक बार रजिस्ट्रार द्वारा समामेलन का प्रमाण-पत्र निर्गमित कर दिया जाता है तो बाद में किसी अनियमितता का ज्ञान होने पर भी कोई आपत्ति नही उठाई जा सकती। सुप्रसिद्ध पील के वाद में लॉर्ड केरन्स का कथन इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है, “जब एक बार समामेलन का प्रमाण-पत्र दे दिया जाता है तो बाद में समामेलन से पहले की गयी किसी भी कार्यवाही की अनियमितता के बारे में कोई जांच-पड़ताल नहीं की जा सकती।” जुबली कॉटन मिल्स लि. बनाम लिविस 2 के वाद में भी ऐसा ही निर्णय दिया गया। इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं-
6 जनवरी को रजिस्ट्रार के पास सभी आवश्यक प्रलेख कम्पनी के पंजीकरण हेतु प्रस्तुत कर दिये गये। रजिस्ट्रार ने इसके दो दिन बाद समामेलन का प्रमाण-पत्र निर्गमित किया किन्तु उस पर 8 जनवरी की तारीख की बजाय 6 जनवरी लिख दी। 6 जनवरी को लिविस को कुछ शेयर आवंटित किये गये। इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठाया गया की क्या प्रमाण-पत्र के वास्तव में निर्गमित किये जाने से पहले का आवंटन व्यर्थ है ? यह निर्णय दिया गया कि समामेलन का प्रमाण-पत्र उसमें निर्दिष्ट सभी तथ्यों के बारे में अकाट्य प्रमाण है। अतः कानून की दृष्टि से कम्पनी का निर्माण 6 जनवरी को हुआ था और अंशों का आवंटन वैध है।
इस प्रकार भले ही पंजीकरण से पहले अधिनियम में निर्दिष्ट पंजीकरण सम्बन्धी उपबन्धों का पूर्णतया पालन न किया गया हो जैसे कम्पनी के ज्ञापन पत्र पर हस्ताक्षरकर्ता अवयस्क रहे हो, या ज्ञापन पत्र पर जाली हस्ताक्षर रहे हों या हस्ताक्षर करने के बाद ज्ञापन पत्र को आधारभूत रूप से परिवर्तित कर दिया गया हो, या ज्ञापन पत्र पर हस्ताक्षरकर्ताओं की संख्या 7 से कम रही हो तो भी समामेलन प्रमाण-पत्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और कम्पनी के अस्तित्व के बारे में कोई आपत्ति नहीं उठाई जा सकती। इस वैधानिक व्यवस्था के पीछे अन्तर्निहित सिद्धान्त यह है कि जब एक बार समस्त संसार के समक्ष कम्पनी को व्यापार सम्बन्धी अनुबन्ध करने के योग्य घोषित कर दिया जाता है तब ऐसी स्थिति में यह बहुत खतरनाक होगा यदि वर्षों बाद किसी व्यक्ति को यह साबित करने का अधिकार दिया जाये कि कम्पनी उचित रूप से पंजीकृत नहीं की गयी थी।
यह ध्यान देने योग्य है कि यदि कोई अवैधानिक उद्देश्य वाली कम्पनी पंजीकृत कर दी गयी है तो प्रमाण-पत्र के निर्गमन से अवैधानिक उद्देश्य वैध नहीं बन जाते। परन्तु समामेलन का प्रमाण-पत्र कम्पनी के अस्तित्व का निश्चायक प्रमाण बना रहता है और कम्पनी के विधिक व्यक्तित्व के प्रमाण-पत्र को रद्द करके समाप्त नहीं किया जा सकता (बीमैन बनाम सैक्यूलर सोसाइटी लि०) अतः यह तथ्य पूर्णतया स्वीकार किया जा चुका है कि किसी कम्पनी को समाप्त कराने के लिए उसके समामेलन पर आक्रमण करने के बजाय अधिनियम के उन उपबन्धों की सहायता ली जानी चाहिए जिसके अनुसार कम्पनी का समापन किया जा सकता है (प्रेन्सेस ऑफ रूस बनाम बोस)।
प्रश्न-7 व्यापार का प्रारम्भ करने से आपका क्या आशय है ? क्या एक निजी कम्पनी को व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र लेना आवश्यक होता है ? व्यापार प्रारम्भ करने के प्रमाणपत्र का प्रारूप भी दीजिए।
उत्तर – व्यापार का प्रारम्भ करना (Commencement of Business)- निजी कम्पनी तो समामेलन का प्रमाणपत्र मिलते ही व्यापार प्रारम्भ कर देती है लेकिन सार्वजनिक कम्पनी तब तक व्यापार प्रारम्भ नहीं कर सकती है जब तक व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र नहीं मिल जाता है। प्रविवरण जारी करने वाली कम्पनी की दशा में कम्पनी को कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 11 के अनुसार निम्नलिखित शर्ते पूर्ण करनी होती है –
(i) नकद भुगतान हेतु प्रस्तावित अंशों के सम्बन्ध में पाँच लाख रुपये का न्यूनतम अभिदान प्राप्त करना।
(ii) संचालकों द्वारा आवेदन एवं आवंटन राशि का नकद भुगतान होना।
(iii) कम्पनी द्वारा घोषणा किया जाना कि आवेदकों को कोई राशि वापस नहीं की जानी है।
(iv) निर्धारित फार्म पर संचालक या कम्पनी सचिव द्वारा वैधानिक घोषणा किया जाना।
जो कम्पनी प्रविवरण जारी नहीं करती उसे यह घोषणा करनी होती है कि संचालकों ने अपने अशों पर आवेदन एवं आवंटन राशि का नकद भुगतान कर दिया है। एक संचालक या कम्पनी के सचिव को रजिस्ट्रार के पास यह वैधानिक घोषणा फाइल करनी होती है कि निर्धारित वाँछनीयताएँ पूर्ण कर ली गयी हैं। जब सभी आवश्यक कार्यवाहियों को पूरा कर लिया जाता है तो व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र जारी कर दिया जाता है।
व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र (Certificate of Commencement of Business)- सार्वजनिक कम्पनी व्यापार प्रारम्भ करने के प्रमाणपत्र के बिना न तो कारोबार आरम्भ कर सकती है और न ही ऋण ले सकती है। इस प्रमाणपत्र के बगैर किये गये अनुबन्ध अस्थायी होते हैं और प्रमाणपत्र मिल जाने के बाद ही कम्पनी अनुबन्ध को पूरा करने के लिए बाध्य होती है। यदि कम्पनी को यह प्रमाणपत्र नहीं मिलता है तो इस प्रकार किये गये अनुबन्ध शून्य हो जाते हैं। यदि सार्वजनिक कम्पनी व्यवसाय प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र प्राप्त किये बिना अपने व्यवसाय को प्रारम्भ कर देती है तो कम्पनी पर 5,000 रु. जुर्माना तथा प्रत्येक उत्तरदायी व्यक्ति पर 1,000 रु. प्रतिदिन जुर्माना लगाया जा सकता है।
प्रश्न-8 कम्पनी प्रवर्तक कौन होता है ? कम्पनी प्रवर्तक के कार्यों का वर्णन कीजिए तथा उसके द्वारा प्रवर्तित कम्पनी तथा उसके बीच संबंधों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
संप्रवर्तक को परिभाषित करते हुए उसके मुख्य कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – कम्पनी प्रवर्तक का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and of Company Promoter) प्रवर्तक से आशय ऐसे व्यक्ति से लगाया जाता है जिसके मस्तिष्क में कम्पनी को खोलने का विचार आता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति, फर्म एवं संस्था है जो प्रवर्तन का कार्य करता है तथा कम्पनी निर्माण की योजना बनाकर मूर्त रूप देता है। प्रवर्तन का कार्य कम्पनी को खोलने के विचार से लेकर तब तक चलता रहता है जब तक व्यापार पूर्ण रूप से प्रारम्भ करने के लिए तैयार नहीं हो जाता है। इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएं दी है-
प्रवर्तक वह होता है जो किसी निश्चित उद्देश्य के आधार पर कम्पनी निर्माण का दायित्व अपने ऊपर लेता है तथा उसे चालू करने के लिए और अपने कार्य की पूर्ति के लिए आवश्यक कदम उठाता है। न्यायाधीश कॉकवर्न
प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति है जो एक कम्पनी के निर्माण की योजना बनाता है, पार्षद सीमानियम और अन्तर्नियमों को तैयार करवाता है, उनका पंजीकरण करवाता है और प्रथम संचालकों को चुनता है, प्रारम्भिक अनुबन्धों की शर्तों को तय करता है और यदि आवश्यकता हुई. तो प्रविवरण बनाता है और उसको प्रमाणित करने एवं पूँजी एकत्र करने का प्रबन्ध करता है। सर फ्रांसिस पामर
प्रवर्तन शब्द कानून का शब्द नहीं है बल्कि व्यापार का शब्द है। इस शब्द में व्यापारिक जगत से परिचित सभी क्रियाओं का समावेश किया जाता है जिनके माध्यम से कम्पनी अस्तित्व में लायी जाती है। लॉर्ड जस्टिस पावेन
कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (69) के अनुसार प्रवर्तक का आशय एक ऐसे व्यक्ति से है –
(a) जिसका इस रूप में प्रविवरण में नाम दिया गया हो अथवा धारा 92 में संदर्भित विवरणपत्र में कम्पनी द्वारा इंगित किया गया हो, अथवा
(b) जिसका चाहे अश धारक, संचालक या अन्यथा रूप में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के कार्यकलापों पर नियंत्रण रहा हो, अथवा
(c) जिसकी सलाह, मार्गदर्शन या निर्देशों का संचालक मण्डल आदी हो।
उपरोक्त उप-वाक्य (c) उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा जो प्रवर्तक की ओर से पेशेवर क्षमता में कार्य करे। सौलिसिटर या मूल्यांकक जिसे प्रवर्तक द्वारा परिश्रमिक दिया जाता हो, वह प्रवर्तक नही होता।
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रवर्तक एक व्यक्ति होता है जो कम्पनी खोलने की कार्यवाही प्रारम्भ करता है और जब तक कम्पनी का निर्माण नहीं हो जाता है तब तक अपनी कार्यवाही को जारी रखता है। वह इस कार्यवाही के दौरान विभिन्न प्रकार के प्रपत्र तैयार करता है जिन्हें रजिस्ट्रार के यहाँ दाखिल करता है। इसके अलावा उन सभी अनुबन्धों को करता है जिनका करना कम्पनी के निर्माण के लिए आवश्यक है।
प्रवर्तकों के कार्य (Functions of Promoters)
प्रवर्तकों को निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-
(1) कम्पनी के निर्माण करने के बारे में सोचना एवं इस विचारधारा को पूरा करने का प्रयास करना।
(2) कम्पनी निर्माण के लिए विद्वानों व विशेषज्ञों से परामर्श करना।
(3) प्रथम संचालक बनाने के लिए एवं पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करने के लिए व्यक्ति की तलाश करना।
(4) कम्पनी का नाम तय करना।
(5) कम्पनी के उद्देश्यों एवं पूँजी का निर्धारण करना।
(6) यदि आवश्यकता हो तो अभिगोपकों का प्रबन्ध करना।
(7) कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय को तय करना।।
(8) पार्षद सीमानियम को तैयार करना।
(9) पार्षद अन्तर्नियमों को तैयार करना।।
(10) यदि आवश्यक हो तो कम्पनी का प्रविवरण तैयार करना।
(11) बैकर्स अंकेक्षक एवं कानूनी सलाहकार आदि की खोज करना।
(12) समामेलन का प्रमाणपत्र प्राप्त करना।
(13) प्रविवरण को प्रकाशित करना।
(14) प्रारम्भिक व्ययों का भुगतान करना।
(15) न्यूनतम अंशदान का प्रबन्ध करना।
(16) यदि कोई चालू व्यवसाय क्रय किया गया है तो उसके लिए बातचीत करना ।
(17) अंशो एवं ऋणपत्रों का आवंटन करना।
(18) कम्पनी की व्यवस्था के लिए कार्यकर्ताओं को नियुक्त करना।
“प्रवर्तक का कम्पनी के साथ सम्बन्ध” (Relationship of Promoter with the Company)
एक प्रवर्तक का कम्पनी के साथ निम्न प्रकार का सम्बन्ध होता है.
(1) विश्वासाश्रित सम्बन्ध (Fiduciary Relation) कम्पनी के साथ प्रवर्तक के . विश्वासाश्रित सम्बन्ध होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कम्पनी के प्रवर्तकों का कम्पनी के साथ तथा उन व्यक्तियों के साथ, जिन्हें अंशधारी बनाने के लिए आकर्षित किया जाता है, विश्वासाश्रित सम्बन्ध होते है। कम्पनी और प्रवर्तक के बीच यह सम्बन्ध तब तक रहता है जब तक कम्पनी का निर्माण न हो जाये।
(2) निर्माण बाद कार्यों के लिए उत्तरदायी न होना (Not to be Responsible for after Formation Functions) प्रवर्तक कम्पनी के निर्माण से सम्बन्धित समस्त कार्य सम्पन्न करता है और अनुबन्ध करता है लेकिन प्रवर्तक कम्पनी का निर्माण होने से पूर्व तक के कार्यों के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है और निर्माण के बाद के कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं होता है।
(3) व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी न होना (No to be Responsible as Individuals)- यदि प्रवर्तक ने ईमानदारी तथा सावधानी से कम्पनी के हित में कार्य किया है। तो वह कम्पनी के प्रति हानियों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नही होता है।
(4) समामेलन के बाद पद न होना (No Existence of Designation after Incorporation)- कम्पनी समामेलन हो जाने के बाद प्रवर्तक पद समाप्त कर दिया जाता है, क्योंकि कम्पनी की प्रबन्ध व्यवस्था अब संचालक करते हैं।
प्रश्न-9 एक प्रवर्तक के कर्त्तव्य एवं दायित्व क्या होते हैं ? उसको कैसे पारितोषित किया जाता है?
उत्तर- प्रवर्तकों के कर्त्तव्य (Duties of Promoters)
एक प्रवर्तक के निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं
(1) निजी लाभों को प्रकट करना (To Disclose the Private Interests)- कम्पनी के निर्माण के दौरान यदि प्रवर्तक को कोई निजी लाभ प्राप्त हुआ है तो ऐसी दशा में प्रवर्तक का कर्तव्य है कि वह उसे प्रकट करे।
(2) गुप्त लाभों को प्रकट करना (To Disclose the Secret Profits)- प्रत्येक प्रवर्तक का यह कर्त्तव्य है कि वह निर्माणाधीन कम्पनी से कोई गुप्त लाभ प्राप्त न करे। फिर भी उसने कोई गुप्त लाभ प्राप्त कर लिया है तो उसे प्रकट कर देना चाहिए।
(3) प्रवर्तन सम्बन्धी तथ्यों को प्रकट करना (To Disclose the Promotional Facts)– प्रवर्तकों का यह कर्त्तव्य है कि वह कम्पनी के प्रवर्तन से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण तथ्यों को स्पष्ट रूप से प्रकट कर दे। उसे किसी भी तथ्य को छिपाना नहीं चाहिए।
(4) भावी अंशधारियों के प्रति कर्तव्य (Duties towards Prospective Shareholders)- प्रवर्तक का कर्तव्य केवल पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वालों के प्रति ही नहीं है बल्कि भावी अशधारियों के प्रति भी प्रवर्तको का कर्तव्य होता है। प्रवर्तक को ” अशधारियों के साथ विश्वासाश्रित सम्बन्ध रखना आवश्यक है।
प्रवर्तकों के दायित्व (Liabilities of Promoters)
प्रवर्तकों के दायित्वों का अध्ययन निम्नवत शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों के दायित्व (Liability in Relation to the Promotional Functions)- प्रवर्तक प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों में कम्पनी के निर्माण सम्बन्धी कार्य शामिल किये जाते हैं ।
(2) गुप्त लाभ प्रकट करने तथा भुगतान करने का दायित्व (Liability to Disclose and Pay the Secret Profit)- गुप्त लाभ प्रकट करने एवं भुगतान करने का मुख्य दायित्व प्रवर्तक का है। यदि प्रवर्तक ने प्रवर्तन के समय कोई गुप्त लाभ प्राप्त किया है तो उसे प्रकट कर देना चाहिए तथा उसका भुगतान कम्पनी को कर देना चाहिए।
(3) विवरण दिये बिना सम्पत्ति खरीदने पर दायित्व (Liability for the Purchase of Assets without Giving Statement)- प्रवर्तको द्वारा यदि पूर्ण विवरण दिये बगैर कोई सम्पत्ति क्रय की जाती है और उससे कम्पनी को हानि होती है तो ऐसी हानि के लिए प्रवर्तक उत्तरदायी होंगे। कम्पनी इन हानियों के लिए प्रवर्तकों पर मुकदमा चला सकती है।
(4) अनुबन्धपूर्ण होने तक दायित्व (Liability till the Completion of Contract)- प्रवर्तको द्वारा जो अनुबन्ध कम्पनी की तरफ से किये जाते हैं जब तक वे अनुबन्ध पूर्ण नहीं हो जाते हैं तब तक प्रवर्तक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगे।
(5) प्रविवरण में मिथ्याकथन के लिए दायित्व (Liability for the Mis. statement in the Prospectus)– जो प्रवर्तक प्रविवरण के निर्गमन में भाग लेते हैं और प्रविवरण में कोई मिथ्यावचन देते हैं जिसके कारण कम्पनी को किसी प्रकार की हानि होती है तो प्रवर्तक उसके लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं।
(6) प्रविवरण में वैधानिक त्रुटियों के लिए दायित्व (Liability for Legel Mistakes in Prospectus)- प्रवर्तकों द्वारा जारी किये प्रविवरण में यदि वैधानिक त्रुटियाँ हैं जिसकी वजह से अंशधारियों को हानि उठानी पड़ी है तो इस हानि के लिए प्रवर्तक उत्तरदायी होते है।
(7) प्रविवरण में कपट के लिए दायित्व (Liability for the Fraud in the Prospectus)- वे प्रवर्तक जिन्होंने कम्पनी के प्रविवरण के निर्गमन में भाग लिया है ऐसे प्रवर्तक उन सभी प्रकार के कपटों के लिए अंशधारियों के प्रति उत्तरदायी होते हैं जिनका वर्णन प्रविवरण में किया गया है।
प्रविवरण के गलत कथन होने पर अंशों या ऋणपत्रों का आवंटन निरस्त किया जा सकता है तथा प्रवर्तकों पर क्षतिपूर्ति का दावा किया जा सकता है। प्रवर्तकों पर दण्डनीय दायित्व की कार्यवाही की जा सकती है। यदि प्रवर्तक प्रविवरण में झूठा या धोखापूर्ण कथन करता है तो धारा 34 के अधीन उसे दायी ठहराया जा सकता है।
(8) मृत होने पर उसकी सम्पत्ति से वसूली (Recovery from his Assets after Death)- यदि किसी प्रवर्तक की मृत्यु हो जाती है तो उसके द्वारा दी जाने वाली राशि कम्पनी उसकी सम्पत्ति से वसूल कर सकती है।
(9) दिवालिया होने पर दायित्व (Responsibility on becoming Insolvent)- यदि कोई प्रवर्तक दिवालिया हो जाता है तो उसको दी जाने वाली राशि कम्पनी उसकी सम्पत्ति से वसूल कर सकती है।
(10) कर्तव्य भंग के लिए दायित्व (Liability for the Breach Duty)– यदि प्रवर्तको द्वारा कर्तव्य भंग किया जाता है जिसके कारण यदि कम्पनी को कोई हानि उठानी पडती है तो वह उस हानि की पूर्ति प्रवर्तकों से वसूल कर सकती है।
(11) समापन पर दायित्व (Liability on the Winding up)- यदि निस्तारक अपने प्रतिवेदन में कम्पनी के निर्माण में प्रवर्तकों के कपट का उल्लेख करता है तो प्रवर्तक उत्तरदायी ठहराया जायेगा।
(12) समापन पर दुरुपयोग का दायित्व (Liability to Misuse on Winding up)- कम्पनी के समापन के समय यदि यह ज्ञात होता है कि प्रवर्तकों ने कम्पनी की किसी सम्पत्ति का दुरुपयोग किया था ऐसी स्थिति में उसे सम्बन्धित वस्तुओं को लौटाना होगा।
प्रवर्तकों का पारिश्रमिक (Remuneration of Promoters)
कम्पनी को खोलने के विचार से लेकर कम्पनी के निर्माण तक प्रवर्तक को बहुत परिश्रम करना पड़ता है। इसके लिए उसे पारिश्रमिक मिलना चाहिए लेकिन प्रवर्तक वैधानिक रूप से पारिश्रमिक की माँग नहीं कर सकता है। परन्तु व्यवहार में यह देखा जाता है कि प्रवर्तक को पारिश्रमिक दिया जाता है। प्रवर्तकों को निम्न प्रक से पारिश्रमिक दिया जा सकता है।
(1) एकमुश्त राशि (Lump sum)– प्रवर्तकों को एकमुश्त राशि के रूप में नकद धनराशि दी जा सकती है। यह राशि आपसी समझौते के आधार पर तय कर ली जाती है।
(2) कमीशन (Commission)- को उनके द्वारा कम्पनी के लिए क्रय की गयी सम्पत्तियों या कम्पनी के लिए की गयी सेवाओं के लिए पारिश्रमिक के रूप में कमीशन दिया जा सकता है।
(3) लाभ (Profit)- प्रवर्तक अपने नाम से किसी व्यवसाय या सम्पत्ति को खरीद कर उचित लाभ लेकर पुन कम्पनी को बेच सकता है व इस प्रकार वह लाभ कमा सकता है।
(4) अंश एवं ऋणपत्र (Shares and Debentures)- प्रवर्तकों को पारिश्रमिक के रूप में कम्पनी कुछ अंशों एवं ऋणपत्रों को निःशुल्क दे सकती है।
(5) नकद एवं अंश व ऋणपत्र (Cash and Shares) प्रवर्तकों को पारिश्रमिक के रूप में आंशिक रूप से कुछ नकद धनराशि और आशिक रूप से कुछ अंश व ऋणपत्र दिये जा सकते हैं ।
प्रश्न-10 कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत एक कम्पनी का निर्माण कैसे होता है ?
अथवा
एक कम्पनी निर्माण की क्रियाविधि लिखिए।
अथवा
कम्पनी के समामेलन से क्या आशय है ? एक संयुक्त स्कन्ध कम्पनी के समामेलन की प्रक्रिया का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
कम्पनी के प्रवर्तन से क्या आशय है ? कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार कम्पनी के निर्माण के सम्बन्ध में किन-किन वैधानिक औपचारिकताओं की पूर्ति करना अनिवार्य है ?
उत्तर – संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी का निर्माण (Formation of a Joint Stock Company) संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी का निर्माण करना कोई सरल कार्य नहीं है। ऐसी कम्पनी के निर्माण की पाँच अवस्थायें होती हैं जिन्हें क्रमबद्ध रूप में पूरा किया जाता है –
(1) कम्पनी का प्रवर्तन
(2) कम्पनी का पंजीयन या समामेलन
(3) पूँजी अभिदान
(4) व्यवसाय का आरम्भ ।
कम्पनी का प्रवर्तन (Promotion of Company)
कम्पनी निर्माण की प्रथम सीढी कम्पनी का प्रवर्तन होती है। जब कोई व्यक्ति किसी कम्पनी को खोलने के बारे में सोचता है तो वह सबसे पहले यह पता लगाता है कि व्यवसाय का भविष्य क्या होगा, कच्चा माल कहाँ से मिलेगा, निर्मित माल कहाँ बिकेगा, पूजी की व्यवस्था कहीं से होगी। कौन-कौन सी वैधानिक कार्यवाहियों करनी पड़ेगी ? इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएं दी है –
“प्रवर्तन में व्यापार सम्बन्धी सुअवसरों की खोज की जाती है और इसके बाद लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से कोषों, सम्पत्ति तथा प्रबन्ध कला का संगठन किया जाता है।” – ब्रेस्टनबर्ग
“प्रवर्तन एक विशेष व्यवसाय या उपक्रम की सृष्टि की क्रिया है उन सभी क्रियाओं का योग प्रवर्तन है जो एक उपक्रम के निर्माण में भाग लेते हैं। ई० एस० होमलैण्ड
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे कम्पनी स्थापित करने का विचार उत्पन्न होता है और उसे परिणत करने के लिए कार्यवाही की जाती है।
कम्पनियों का समामेलन या रजिस्ट्रेशन (Incorporation or Registration of Companies) समामेलन या पंजीकरण कराना कम्पनी निर्माण की दूसरी अवस्था है। जब तक किसी कम्पनी का पंजीकरण नहीं हो जाता है तब तक कोई कम्पनी कम्पनी नहीं मानी जाती है। कम्पनी को पंजीकृत कराना ही कम्पनी का समामेलन कहलाता है। कम्पनी का जन्म होना उसी दिन माना जाता है जिस दिन कम्पनी का पंजीकरण होता है। इस प्रकार पंजीयन से कम्पनी को वैधानिक ‘अस्तित्व प्राप्त होता है। यह कम्पनी को वैधानिक रूप देता है। कम्पनी के वैधानिक दायित्व इसके समामेलन से ही शुरू होते हैं। कम्पनी के समामेलन की पूर्व आवश्यकता निम्नवत है-
1 निश्चित संख्या में व्यक्ति सहयुक्त होने चाहिए।
2 व्यक्तियों को कानूनी उद्देश्यों हेतु सहयुक्त होना चाहिए।
3 कम्पनी अधिनियम की बाँछनीयताएं पूर्ण की जानी चाहिए। किसी कम्पनी का पंजीकरण कराने के लिए निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –
1. प्रारम्भिक क्रियाएं (Preliminary Activities) प्रारम्भिक क्रियाएँ निम्नलिखित है –
(i) सबसे पहले पंजीकृत कार्यालय का निर्णय लिया जाता है क्योंकि कम्पनी का पंजीकरण उस राज्य में कराया जाता है जिस राज्य में कम्पनी का पंजीकृत कार्यालय होता है।
(ii) राज्य का निर्णय लेने के बाद कम्पनी के नाम का निर्धारण किया जाता है। कम्पनी का नाम निर्धारित करने के लिए रजिस्ट्रार से यह पूछ लेना चाहिए कि जिस नाम से कम्पनी खोली जा रही है वह नाम उपलब्ध है या नहीं। कम्पनी का नाम निश्चित करने के बाद पार्षद सीमानियम पार्षद अन्तर्नियम और प्रविवरण तैयार किये जाते हैं।
(ii) अभिगोएको, दलालों, बैकरो, सौलिसिटर, अंकेक्षकों की नियुक्ति की जाती है एवं पार्षद सीमानियम हस्ताक्षरकर्ताओं को तैयार किया जाता है।
(iv) उपरोक्त औपचारिकताएं पूर्ण कर लेने के बाद प्रवर्तक द्वारा कम्पनी पंजीयक को पंजीयन हेतु आवेदन पत्र दिया जाता है।
2. प्रपत्रों को रजिस्ट्रार के पास प्रस्तुत करना (Presentation of Documents before Registrar) प्रवर्तक रजिस्ट्रार के पास पंजीकरण कराने के लिये निम्नलिखित प्रपत्र दाखिल करते है (a) पार्षद सीमानियम (b) पार्षद अन्तर्नियम (c) कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय की सूचना, (d) संचालकों की सूची. (6) संचालकों की संचालकों के रूप में कार्य करने की लिखित सहमति, (1) योग्यता अंशों की प्रतिज्ञा. (g) वैधानिक घोषणा, (h) निर्धारित शुल्क जमा करना।
कम्पनी पंजीवक को प्रपत्रों की सुपुर्दगी (Delivery of Documents to the Registrar of Companies) कम्पनी के पंजीकरण हेतु रजिस्ट्रार के पास निम्नलिखित प्रपत्र भेजने होते हैं –
1. पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association) यह कंपनी का सर्वप्रमुख दस्तावेज होता है। सभी कम्पनियों को इसे तैयार करना तथा रजिस्ट्रार के पास भेजना अनिवार्य होता है। सार्वजनिक कम्पनी की दशा में 7 तथा निजी कम्पनी की दशा में 2 व्यक्तियों के इस पर हस्ताक्षर होते हैं।
2. पार्षद अन्तर्नियम (Articles of Association) यह कम्पनी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रपत्र होता है। इस प्रपत्र पर उन्ही व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिए जिन्होंने पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर किये हो। अशो द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी को इसे तैयार करने व फाइल करने से छूट दी गयी है परन्तु इसके अभाव में तालिका ‘अ’ लागू होगी।
3. संचालकों की सूची (List of Directors) – कम्पनी के संचालक बनने हेतु तैयार व्यक्तियों के नाम पते तथा उनसे सम्बन्धित अन्य विवरण रजिस्ट्रार के पास भेजा जायेगा। यह सूची भेजना निजी कम्पनी के लिए आवश्यक नहीं होता है।
4. संचालकों की लिखित सहमति (Written Consent of Directors)- संचालकों की लिखित सहमति रजिस्ट्रार के पास भेजी जानी चाहिए कि वे सचालक बनने हेतु तैयार है। निजी कम्पनी के लिए यह सहमति भेजना आवश्यक नहीं होता है। निम्नलिखित
5. अन्य प्रपत्र (Other Documents) उपरोक्त प्रपत्रों के अलावा प्रपत्र भी रजिस्ट्रार के पास भेजे जाने चाहिए-
(i) संचालकों के द्वारा लिये जाने वाले योग्यता अंश,
(ii) कम्पनी के पंजीयत कार्यालय की सूचना
(ii) वैधानिक घोषणा.
(iv) निर्धारित पंजीयन शुल्क।
समामेलन का प्रमाणपत्र (Certificate of Incorporation)
जब सभी प्रपत्र रजिस्ट्रार के पास जमा हो जाते है तो यह सभी प्रपत्रों की जाँच- पडताल करता है और जब उसे विश्वास हो जाता है कि कम्पनी के समामेलन हेतु सभी वैधानिक व्यवस्थाओं की पूर्ति कर दी गई है तो वह कम्पनी को पंजीकृत कर देता है तथा कम्पनी का |पंजीकरण करने के बाद रजिस्ट्रार अपने हस्ताक्षर तथा कार्यालय की सील के साथ एक प्रमाणपत्र कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 9 के अधीन जारी करता है जिसे समामेलन का प्रमाणपत्र कहते है। इस प्रमाणपत्र पर लिखा रहता है कि कम्पनी समामेलित हो गई है तथा यह लिमिटेड सार्वजनिक या निजी कम्पनी है।
समामेलन प्रमाणपत्र के जारी होने के बाद कम्पनी कानूनी रूप से वैध हो जाती है। इस प्रमाणपत्र के जारी होने की तिथि से कम्पनी का अपने सदस्यों से अलग अस्तित्व हो जाता है। उसे अपने प्रतिनिधि को नियुक्त करने का अधिकार मिल जाता है। कम्पनी रजिस्ट्रार द्वारा प्रत्येक पंजीकृत कम्पनी को कार्पोरेट आइडेन्टिटी नम्बर जारी किया जाता है।
कम्पनी के समामेलन के प्रभाव (Effects of Registration of Company)
1- कम्पनी का अस्तित्व में आ जाना.
2- समामेलन तिथि कम्पनी की जन्मतिथि होती है,
3- पार्षद सामानियम व पार्षद अन्तर्नियमों के अनुसार कम्पनी व सदस्यों के अनुसार कम्पनी सदस्यों में अनुबन्ध होना
4- कम्पनी का विधिक अस्तित्व हो जाना।
पूँजी अभिदान की अवस्था (State of Capital Subscription)
न्यूनतम अभिदान पूँजी का वह भाग होता है जो संचालकों के विचार से कम्पनी के प्रारम्भिक व्ययों कथ की गयी सम्पत्ति के मूल्य व अन्य ऋणों के भुगतान तथा कार्यशील पूंजी के लिए पर्याप्त होता है। जब तक इन कार्यों हेतु पर्याप्त पूँजी प्राप्त न हो जाये तब तक कम्पनी न तो अश आवेदन पर आये धन का उपयोग कर सकती है और न ही अशों का आवंटन ही कर सकती है।
कम्पनी के का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेने के बाद एक निजी कम्पनी अपना व्यवसाय तुरन्त प्रारम्भ कर देती है परन्तु एक सार्वजनिक कम्पनी के समामेलन का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेने के बाद संचालकों की एक सभा बुलाती है। मीटिंग में पूंजी प्राप्त करने के लिए योजना बनाई जाती है उसके लिये आवश्यक प्रस्ताव पारित किये जाते हैं तथा न्यूनतम अभिदान राशि का निर्धारण किया जाता है। प्रविवरण जारी करके इसकी एक प्रति रजिस्ट्रार के यहाँ दाखिल कर ही जाती है। प्रविवरण जारी करने के बाद कम्पनी को आवेदनपत्र मिलने लगते हैं। यदि कम्पनी को न्यूनतम अभिदान प्राप्त हो जाता है तो वह आवंटन कर सकती है। आवंटन करने पर रजिस्ट्रार के पास आवंटन का विवरणपत्र दाखिल किया जाता है। इसके बाद सदस्यों का एक रजिस्टर तैयार किया जाता है। इसके बाद अश प्रमाणपत्र तैयार करके अंशधारियों को वितरित कर दिय जाते है।