CODE of Civil Procedure Short Answer

-: लघु उत्तरीय प्रश्न :-

प्रश्न 1. डिक्री से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Decree?

उत्तर- डिक्री (Decree ) — डिक्री को परिभाषा सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) में दी गई है। सामान्य रूप से डिक्री किसी सक्षम न्यायालय के निर्णय को औपचारिक अभिव्यक्ति (Formal expression) है जिसके अन्तर्गत न्यायालय अपने समक्ष प्रस्तुत बाद में सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में बाद के पक्षकारों के अधिकारों को निश्चयात्मक रूप से निर्धारित करता है और वह या तो प्रारम्भिक या अन्तिम हो सकेगी। यह समझा जाएगा कि इसके अन्तर्गत वादपत्र का नामंजूर किया जाना और धारा 144 के भीतर के किसी प्रश्न का अवधारण आता है किन्तु इसके अन्तर्गत-

(क) न तो कोई ऐसा न्याय निर्णयन आएगा जिसकी अपील, आदेश की अपील की भाँति होती है, और

(ख) न व्यतिक्रम के लिए खारिज करने का कोई आदेश आएगा।

प्रश्न 2. प्रारम्भिक आज्ञप्ति को समझाइये। Explain Preliminary Decree.

उत्तर- प्रारम्भिक आज्ञप्ति (Preliminary Decree ) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) के अनुसार प्रारम्भिक डिक्री वह होती है जब वाद के पूर्णरूप से निपटा दिये जाने से पूर्व आगे और कार्यवाही की जाती है। प्रारम्भिक डिक्री के माध्यम से न्यायालय वाद में विवादग्रस्त मामलों में कुछ एक के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों को निर्धारित करता है। परन्तु ऐसा करने से वाद का पूर्ण रूप से निपटारा नहीं हो जाता है तथा प्रारम्भिक डिक्री प्राप्त किये जाने पर न्यायालय का कार्य समाप्त नहीं हो जाता परन्तु बाद में अगली कार्यवाही करनी शेष रह जाती है।

प्रश्न 3. डिक्री के आवश्यक तत्व क्या हैं? What is essential elements of decree.

उत्तर- डिक्री के आवश्यक तत्व- डिक्री की परिभाषा से निम्न आवश्यक तत्व सामने आते हैं-

(1) डिक्री न्याय निर्णयन को औपचारिक अभिव्यक्ति है।

(2) न्याय निर्णयन न्यायालय द्वारा किसी बाद में होना।

(3) न्यायालय द्वारा न्याय निर्णयन।

(4) वाद में विवादास्पद सब या कुछ विषयों के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण।

(5) न्याय निर्णयन का निश्चायक होना।

प्रश्न 4. क्या निम्न मामलों में न्यायालय द्वारा किया गया फैसला डिक्री माना जायेगा?

(i) वाद-पत्र की नामंजूरी

(ii) चूक के लिए खारिजी

Whether the decision given by the Court will amount to decree in following cases:

(i) Rejection of Plaint.

(ii) Dismissal of suit for omission.

उत्तर- (1) वाद-पत्र की नामंजूरी (Rejection of Plaint ) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 में दी गई आज्ञप्ति की परिभाषा में यह स्पष्ट कर दिया गया है। कि किसी वाद-पत्र की (नामंजूरी) अस्वीकृति एक आज्ञप्ति समझी जायेगी। एक वाद-पत्र निम्न आधारों पर अस्वीकृत किया जा सकता है :

(1) अतिरिक्त न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असफल रहने परः

(2) वाद कारण के अभाव में प्रतिवादियों में से कुछ को मुक्त करने का आदेश;

(3) पुरोबन्ध (Foreclosure) की अन्तिम आज्ञप्ति को अस्वीकृत करने का आदेश:

(4) स्टाम्प शुल्क के अभाव में वाद-पत्र को अस्वीकृत करने का आदेश;

(5) विवरण न पेश करने पर प्रतिवादियों को मुक्त करने का आदेश

(6) अपीलीय न्यायालय द्वारा निचले न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अभाव में दिये गये निर्णय को निरस्त करने का आदेश

(7) एक विवाधक को निपटाकर किसी अन्य विवाद्यक को निपटाने हेतु निचली अदालत को वापस करने का आदेश

(8) किसी वाद के उपशमन का आदेश:

(9) किसी आज्ञप्ति के निष्पादन को रोकने का आदेश:

(10) किसी प्रति अपील को विराम करने का आदेश

(11) अभिलेख पर वैध प्रतिनिधि लाने को अस्वीकार करने का आदेश

उत्तर- (II) चूक के कारण वाद को निरस्त करने के आदेश (Dismissal of Suit of Omission)– सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 की उपधारा 2 के अन्तर्गत दी गई परिभाषा के अनुसार चूक के कारण वाद को निरस्त करने का आदेश आज्ञप्ति में शामिल नहीं होता। चूक वाद या अपील को आगे न बढ़ाने से हो सकती है या उपस्थित होने में भी चूक हो सकती है।

प्रश्न 5. प्रारम्भिक आज्ञप्ति एवं अन्तिम आज्ञप्ति में अन्तर करते हुए बताइए कि कोई आज्ञप्ति अंतिम कब बन जाती है? Distinguishing between a preliminary decree and a final decree states as to when a decree becomes a final decree?

उत्तर- प्रारम्भिक डिक्री और अन्तिम डिक्री में अन्तर (Defference between a Preliminary Decree and a Final Decree )—प्रारम्भिक डिक्री और अन्तिम डिक्री में निम्नलिखित अन्तर किये जा सकते हैं-

(i) प्रारम्भिक डिक्री में वाद के पक्षकारों के सभी अधिकारों का विनिश्चय नहीं होता है, बल्कि विवाद्यक विषयों में से कुछ के सम्बन्ध में अभिनिर्णय होता है जबकि अन्तिम डिक्री में पक्षकारों से सम्बन्धित सभी विवाद्यक पर निर्णय होता है ।

(ii) सभी मामलों में प्रारम्भिक डिक्री पारित करना आवश्यक नहीं है किन्तु अन्तिम डिक्री पारित करना सभी मामलों में आवश्यक होता है।

(iii) प्रारम्भिक डिक्री केवल ऐसे मामलों में ही पारित की जा सकती है, जिनके बारे में संहिता में उपबन्ध किया गया है जैसे- (आदेश 20 नियम 12, 13, 14, 15, 16), अन्तिम डिक्री पारित करने के लिए ऐसी कोई शर्त विहित नहीं है।

(iv) प्रारम्भिक डिक्री पारित हो जाने के बाद भी मामले में पूर्णरूपेण निस्तारण हेतु अन्तिम डिक्री पारित होना आवश्यक है जबकि अन्तिम डिक्री पारित हो जाने के बाद प्रारम्भिक डिक्री पारित नहीं की जा सकती।

    कोई आज्ञप्ति अन्तिम आज्ञप्ति कब बन जाती है-निम्नलिखित दशाओं में कोई आज्ञप्ति अन्तिम आज्ञप्ति बन जाती है –

(i) जब वह किसी मामले में किसी सक्षम न्यायालय द्वारा पारित की गई हो और वह उस मामले का पूर्ण रूप से और अंतिम रूप से निपटारा कर देती है।

(ii) जब उसके विरुद्ध कोई अपील दायर न की गई हो और अपील की मियाद समाप्त हो गई हो।

(iii) जब वह उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित की गई आज्ञप्ति हो ।

प्रश्न 6. कोई आज्ञप्ति अंशतः प्रारंभिक और अंशतः अन्तिम हो सकेगी। उदाहरण देकर समझाइये। A Decree may be partly Preliminary and partly Final. Explain by giving illustration.

उत्तर- अंशत: प्रारम्भिक और अंशतः अंतिम डिक्री  – सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (2) के स्पष्टीकरण में अंशत: प्रारम्भिक और अंशतः अंतिम डिक्री के बारे में प्रावधान किया गया है। अंशतः प्रारम्भिक और अंशतः अंतिम डिक्री का प्रश्न वहीं उठता है जहाँ पर न्यायालय ने एक ही डिक्री के माध्यम से दो प्रश्नों का निर्णय दिया है। उदाहरण के लिए जहाँ एक वाद कब्जे और अंत:कालीन लाभ के लिए संस्थित किया गया है तथा न्यायालय ने कब्जे और अंत:कालीन लाभ के लिए डिक्री पारित किया है ऐसी स्थिति में जहाँ एक कब्जे के सम्बन्ध में है, डिक्री अंतिम होती है किन्तु अंत:कालीन लाभ के संदर्भ में मात्र प्रारम्भिक होगी क्योंकि अन्तःकालीन लाभ की अंतिम डिक्री तब पारित की जा सकती है जब अंतःकालीन लाभ की धनराशि का विनिश्चय जाँच के पश्चात् कर लिया जाय।

प्रश्न 7. आर्थिक एवं स्थानीय क्षेत्राधिकार को समझाइए। Explain Pecuniary and Territorial Jurisdiction.

उत्तर- प्रादेशिक क्षेत्राधिकार (Territorial Jurisdiction) – एक न्यायालय की स्थानीय क्षेत्राधिकार की सीमा सरकार द्वारा निश्चित होती है तथा उस स्थानीय सीमा से बाहर न्यायालय को क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं होता। सामान्यतः एक जिला न्यायालय को जिले की सीमा के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है। जिले में बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। सिविल जज (जूनियर डिवीजन) को भी क्षेत्राधिकार केवल एक विशेष क्षेत्र तक हो सीमित होता है, इस सीमा से बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। इसी प्रकार उच्च न्यायालय को सामान्यतः राज्य विशेष की सीमाओं के अन्तर्गत हो क्षेत्राधिकार होता है तथा उस क्षेत्र के बाहर वह अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता।

       आर्थिक क्षेत्राधिकार (Pecuniary Jurisdiction) – प्रत्येक न्यायालय की सरकार द्वारा न केवल स्थानीय अधिकारिता निश्चित कर दी जाती है अपितु इस न्यायालय की धन सम्बन्धी अधिकारिता भी निश्चित कर दी जाती है। न्यायालय उसी धन सम्बन्धी सीमा के अन्तर्गत किसी वाद या अपील को ग्रहण करने के लिए अधिकृत होते हैं। इस धन सम्बन्धी अधिकारिता की सीमा विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। उत्तर प्रदेश में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की धन सम्बन्धी अधिकारिता ऐसे मुकदमों तक सीमित है जिसकी विषय-वस्तु का मूल्यांकन 25,000 रुपये तक है।

प्रश्न 8. विदेशी निर्णय को परिभाषित करें। Define Foreign Judgment.

उत्तर- विदेशी निर्णय (Foreign Judgment) — सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (6) में विदेशी निर्णय की परिभाषा दी गई है। विदेशी न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय विदेशी निर्णय है। यदि निर्णय ऐसे न्यायालय द्वारा दिया गया है जो भारत में केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित नहीं किया गया है तो वह विदेशी निर्णय कहा जायेगा। विदेशी न्यायालय के अन्तर्गत ऐसा न्यायालय नहीं आता जिस पर सिविल प्रक्रिया संहिता लागू कर दी गई हो। एसे न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय संहिता की धारा 13 के अन्तर्गत विदेशी न्यायालय का निर्णय नहीं है। यही बात लाला जी राजा एण्ड सन्स बनाम हंसराज नाथूराम, (1972) 2 उम० नि० प० 377 में भी कही गयी है।

प्रश्न 9. “निर्णय ” पद को परिभाषित करें। Define the term “Judgment”.

उत्तर- निर्णय (Judgment) – सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 2 (9) में निर्णय की परिभाषा दी गई है किसी डिक्री या आदेश के आधारों का न्यायाधीश द्वारा कथन निर्णय कहलाता है। निर्णय एक तरह से न्याय निर्णयन होता है जो पक्षकारों के अधिकारों का अन्तिम रूप से विनिश्चय करता है एवं उसमें कारणों का भी उल्लेख किया जाता है।

     अश्वनी कुमार सिंह बनाम पू० पी० पब्लिक सर्विस कमीशन तथा अन्य, ए० आई० आर० 2003 एस० सी० के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि न्यायालय के किसी निर्णय को न्यायिक निर्णय के रूप में प्रस्तुत करते समय उसके द्वारा प्रयुक्त शब्द और पदों का निर्वाचन किसी विधायन में प्रयुक्त शब्द और पदों की तरह नहीं किया जा सकता। न्यायिक निर्णय को लागू करते समय न्यायालय तथ्यों और परिस्थितियों की जाँच करते हुए उसे देखेगा कि यह कैसे उक्त परिस्थितियों में लागू होता है? न्यायाधीश द्वारा किया जाने वाला विवेचन व्याख्या के रूप में देखा जाना चाहिए न कि परिभाषा के रूप में।

प्रश्न 10. “आदेश” को परिभाषित करें। Define Order.

उत्तर- आदेश (Order) – आदेश की परिभाषा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (14) के अन्तर्गत दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार किसी सिविल न्यायालय के. निर्णय विनिश्चय की प्रारूपिक अभिव्यक्ति (Formal Expression) जी आज्ञप्ति (Decree) नहीं होती, आदेश होता है। किसी आदेश तथा आज्ञप्ति में प्रमुख अन्तर यह होता है कि प्रत्येक आज्ञप्ति की प्रथम अपील होती है तथा धारा 100 में दी गई शर्तों के अनुसार द्वितीय अपील भी हो सकती है परन्तु किसी आदेश की साधारणतः कोई अपील नहीं होती यदि वह धारा 104 या आदेश 43, नियम 1 के अन्तर्गत दिया गया आदेश न हो तथा किसी भी दशा में ऐसे अपीलीय आदेश के विरुद्ध द्वितीय अपील नहीं हो सकती।

प्रश्न 11. “प्रत्येक अभिवचन में तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए विधि का नहीं।” विवेचना कीजिए। “Every pleading must state facts not law. Comment.

उत्तर- प्रत्येक अभिवचन में तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए विधि का नहीं – सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 2 यह स्पष्ट करता है कि अभिवचन में क्या-क्या सम्मिलित होना चाहिए। इसके अनुसार अभिवचन (Pleading) में सिर्फ उन तथ्यों का संक्षिप्त कथन सम्मिलित होगा जिन पर अभिवचन करने वाला पक्षकार अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए निर्भर रहता है। अभिवचन में सिर्फ तथ्यों को सम्मिलित करना चाहिए। अभिवचन में उन साक्ष्यों को सम्मिलित नहीं करना चाहिए जिनसे तथ्यों को साबित किया जाना है।

     अभिवचन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि इसमें केवल तथ्यों का अभिकथन किया. जाना चाहिए न कि विधि का यह Plead facts not the law (केवल तथ्यों का अभिवचन करे न कि विधि का) के सूत्र पर आधारित है। प्रत्येक पक्षकार का यह कर्तव्य है कि वह केवल उन्हीं तथ्यों का अभिवचन करे जिस पर वह अपने दावे को आश्रित करना चाहता है। यह न्यायालय का कार्य होता है कि वह अभिकथित तथ्यों के आधार पर विधि को लागू करें।

      तथ्य दो प्रकार के होते हैं-

(i) साबित किये जाने वाले तथ्य (facta probanda) और

(ii) साक्ष्य सम्बन्धी तथ्य, जिनके माध्यम से प्रथम प्रकार के तथ्य साबित किये जाते हैं।

      प्रतिवादी द्वारा लिखित कथन में किए गये अभिवचन पर भी यह सिद्धान्त लागू होता है। प्रतिवादी अपने लिखित कथन में इसका अभिवचन नहीं कर सकता है कि मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। उसे केवल उन्हीं तथ्यों को अभिकथित करना चाहिए जो यह प्रदर्शित करते हैं कि वह उत्तरदायी नहीं है। इस प्रकार जो प्रतिवादी मानहानि सम्बन्धी वाद से विशेषाधिकार का दावा करता है उसे केवल वह अभिवचन नहीं करना चाहिए कि “उसने विशेषाधिकृत अवसर पर शब्दों का प्रकाशन किया था।” उसे केवल उन तथ्यों का अभिकथन करना चाहिए जो इस विशेषाधिकार को उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 12. अभिवचन से आपका क्या तात्पर्य है? What do you mean by pleading?

उत्तर- अभिवचन (Pleading) अभिवचन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6, नियम 1 के अन्तर्गत अभिवचन (Pleading) को परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार अभिवचन से वादपत्र या लिखित कथन अभिप्रेत होगा अर्थात् अभिवचन का अर्थ है। वादपत्र या लिखित कथन।

    वादपत्र वादी द्वारा तथा लिखित कथन प्रतिवादी द्वारा वाद-पत्र के प्रत्युत्तर में तैयार किया जाकर न्यायालय में दाखिल किया जाता है।

    मोघा के अनुसार- “अभिवचन मामले के किसी भी पक्षकार द्वारा तैयार किया गया तथा न्यायालय में दाखिल किया गया लिखित में एक कथन होता है जिसमें प्रत्येक पक्षकार द्वारा किया गया उसका वह प्रतिवाद या तर्क होगा जो मामले में विचारण के समय उठाए जायेंगे तथा जिसमें ऐसे विवरण दिये जाएंगे जिसकी विरोधी पक्षकार को आवश्यकता होती है। जिससे कि वह उनके उत्तर में अपने मामले को तैयार कर सके।”

प्रश्न 13. अभिवचन का क्या उद्देश्य है? What is object of pleading ?

उत्तर- अभिवचन के उद्देश्य – अभिवचन का सम्पूर्ण उद्देश्य पक्षकारों को निश्चित वाद बिन्दुओं (Issues) तक सीमित रखना तथा खर्च और विलम्ब को कम करना है। विशेषतया ऐसी सुनवाई के समय प्रत्येक पक्ष से होने वाले विलम्ब को कम करना है विशेषतया ऐसी सुनवाई के समय प्रत्येक पक्ष से होने वाले परिसाक्ष्य में आवश्यक होता है। वस्तुतः अभिवचन का उद्देश्य पक्षकारों में मतभेद या भिन्नता के स्थल बिन्दु की खोज करना है ।

प्रश्न 14. विवाद के बिन्दुओं की रचना कब और किस प्रावधान में की जाती है? When and under which provision the issues are framed?

उत्तर- वाद-बिन्दु या विवाद्यक ( issue) वे तथ्य होते हैं जिन पर वाद के पक्षकारों के दायित्व या अधिकार निर्भर रहते हैं। वाद-बिन्दुओं का सृजन न्यायालय अभिवचन के अन्तर्गत वादी तथा प्रतिवादी द्वारा अभिकथित कथनों के आधार पर करता है। वाद-बिन्दु की रचना का प्रयोजन पक्षकारों के मध्य वास्तविक विवाद का निर्धारण करना होता है।

      वाद-बिन्दु या विवाद्यक ( issues) तब पैदा होते हैं जब कि तथ्य या विधि का कोई तात्विक कथन (प्रतिपादन) (material proposition) एक पक्ष द्वारा अभिपुष्ट (affirmed) हो तथा दूसरे पक्ष द्वारा उसका प्रत्याख्यान (इन्कार deny) किया गया हो अर्थात् न्यायालय केवल उन्हीं तथ्यों के बारे में बाद बिन्दुओं की रचना करेगा जिनका कि एक पक्ष द्वारा अभिकथन किया गया हो और दूसरे पक्ष द्वारा अस्वीकार किया गया हो।

प्रश्न 15. प्राङ्गन्याय या रेस- जूडिकेटा का क्या अर्थ है?What is Res-Judicata?

उत्तर- प्राङ्गन्याय (Res- Judicata) – प्राङ्गन्याय या रेस जुडिकेटा का तात्पर्य पूर्व निर्णीत विषय वस्तु से है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अनुसार-

      “कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिन्दु का विचारण नहीं करेगा जिसमें वादपत्र में वह विषय, उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा उन पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन वे अथवा उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत मुकदमेबाजी करने का दावा करता है। एक ऐसे न्यायालय में जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद अथवा ऐसे बाद जिसमें ऐसा वाद बिन्दु उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, किसी पूर्ववर्ती बाद में प्रत्यक्षतः एवं सारवान रूप से रहा है और सुना जा चुका है तथा अन्तिम रूप से ऐसे न्यायालय द्वारा निर्णीत हो चुका है।”

प्रश्न 16. प्रलक्षित अथवा आन्वयिक प्राङ्गन्याय से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Constructive Res-judicata?

उत्तर- आन्वयिक प्राङ्गन्याय (Constructive Res Judicata)- प्रलक्षित या विवक्षित या आत्यधिक प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के स्पष्टीकरण 4 में अन्तर्निहित है। पूर्वन्याय या प्रांन्याय का सिद्धान्त एक पश्चात्वर्ती वाद का संज्ञान (Cognizance) लेने से रोकती है। यदि प्रश्नगत विवाद्यक (issues) उन्हीं पक्षकारों के मध्य पूर्ववर्ती किसी मामले में न्यायालय द्वारा विचारित होने के पश्चात् अन्तिम रूप से निर्णीत हों। दोनों वादों में विवाद्यक ( issue) प्रत्यक्षतः या सारतः एक ही हो। कोई विवाद विषय दोनों वादों में एक ही हो इसके लिए आवश्यक है कि पूर्ववर्ती वाद में विवाद विषय- वस्तु पर पक्ष तथा विपक्ष में सक्रिय तथा स्पष्ट रूप से विवाद रहा हो अर्थात् एक पक्ष ने आरोप लगाया हो तथा दूसरे पक्ष ने इन्कार किया हो। परन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थिति होती है। जिसमें यह मान लिया जाता है, यह उपधारणा की जाती है, या इसे आवश्यक रूप से विवक्षा द्वारा (Impliedly) विनिश्चित या विवादित समझा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में यदि न्यायालय ने एक विशिष्ट विवाद्यक पर स्पष्टतः निर्णय या विनिश्चयन नहीं किया है परन्तु पूर्ववर्ती वाद में विवाद्यक को न्यायालय द्वारा निर्णीत किया हुआ मान लिया जाता है। जब कोई बात जिसे पूर्ववर्ती कार्यवाही में प्रतिवाद या आक्षेप का आधार बनाया गया था या बनाया जाना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं किया गया तब विधि की दृष्टि में ऐसी बात मुकदमे की बहुलता (Multiplicity of suit) त्यागने के लिए और उसमें अन्तिमता लाने के लिए विवक्षित रूप से विवाद विषय समझा जाता है कि उसे न्यायालय द्वारा विनिश्चित या निर्णीत कर दिया गया है। कोचीन पत्तन न्यास के कर्मकार बनाम कोचीन पत्तन न्यास के न्यासी मण्डल तथा अन्य, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 1283

      जब किसी विशेष अनुमति याचिका को निरस्त करते समय किसी एक बात को स्पष्ट रूप से, या अभिव्यक्त रूप से विनिश्चित हुआ या निर्णीत हुआ माना जा सकता है तब उसे पुनः चालू नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 17. प्राङ्गन्याय और विचाराधीन न्याय में अन्तर स्पष्ट कीजिए। Distinguish between Res-Judicata and Res-Subjudice.

उत्तर- प्राङ्गन्याय और विचाराधीन न्याय में अन्तर (Distinction between Res-Judicata and Res-Subjudice)

प्राङ्गन्याय (Res-Judicata)

(i) जबकि प्राङ्गन्याय में पूर्ववर्ती वाद का निर्णय हो चुका है।

(ii) प्राङ्गन्याय में पश्चात्वर्ती वाद के विचारण का वर्जन कर दिया जाता है ।

(iii) जबकि प्राङ्गन्याय में मात्र एक विवाद्यक भी समान होने पर पश्चात्वर्ती वाद का वर्जन होता है।

(iv) प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त सिविल वादों के अतिरिक्त भी कई कार्यवाहियों पर लागू होता है।

विचाराधीन न्याय (Res-Subjudice)

(i) पूर्ववर्ती वाद विचारण  न्याय मामले में लम्बित होता है।

(ii) विचाराधीन न्याय के अन्तर्गत पश्चात्वर्ती वाद का विचारण पूर्ववर्ती वाद के निर्णय होने तक रोक दिया जाता है।

(iii) विचाराधीन न्याय के अन्तर्गत पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती वाद में सम्पूर्ण विषय, जो विवाद्य है, एक समान होता है न कि एक विवाद्यक ।

(iv) विचाराधीन न्याय का सिद्धान्त केवल सिविल वादों तक ही सीमित होता है ।

प्रश्न 18. प्राङ्गन्याय एवं विबन्धन में अन्तर कीजिए। Distinguish between res-judicata and estoppel.

उत्तर-

प्राङ्गन्याय (Res-Judicata)

(i) प्राङ्गन्याय का आधार एक लोक नीति (Public policy) है कि मुकदमेबाजी का अन्त हो ।

(ii) प्राङ्गन्याय न्यायालय के क्षेत्राधिकार को बाधित करता है।

(iii) प्राङ्गन्याय न्यायालय को उस निर्णीत वाद का संज्ञान लेने से रोकता है जिसमें वाद बिन्दु उन्हीं पक्षकारों के मध्य निर्णीत हो चुका होता है।

(iv) प्राङ्गन्याय वाद के दोनों पक्षकारों को बाँधता है।

(v) प्राङ्गन्याय न्यायलय के निर्णय का  परिणाम होता है।

(vi) प्राङ्गन्याय प्रक्रिया विधि का नियम है ।

विबन्ध (Estoppel)

(i) विबन्ध साक्ष्य विधि का नियम है तथा उसका आधार यह है कि एक व्यक्ति एक ही बात का समर्थन तथा खण्डन नहीं कर सकता तथा उसे अपने पूर्ववर्ती कथन से मुकरने की अनुमति नहीं होगी।

(ii) विबन्धन पक्षकार के मुँह को बंद करता है।

(iii) विबंन्ध किसी पक्षकार को विभिन्न अवसरों पर दो परस्पर विरोधी बातें कहने से रोकता है।

(iv) विबन्ध उसी पक्षकार को बाँधता है जिसने पूर्ववर्ती कथन किया था।

(v) विबन्ध स्वयं पक्षकारों के किसी कार्य का परिणाम है।

(vi) विबन्ध साम्या (Equity) का नियम है ।