-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-
प्रश्न 1. डिक्री (आज्ञप्ति) की परिभाषा दीजिए। डिक्री के आवश्यक तत्व बतायें। डिक्री कितने प्रकार की होती है? वे कौन से मामले हैं जिनमें सिविल प्रक्रिया संहिता प्रारम्भिक डिक्री तैयार किये जाने की अपेक्षा करती है? क्या निम्न मामलों में न्यायालय द्वारा किया गया फैसला (आज्ञप्ति) माना जायेगा-
(1) वादपत्र की नामंजूरी
(2) सम्पत्ति में प्रत्यास्थापना से सम्बन्धित प्रश्न की अवधारणा,
(3) चूक के लिए खारिजी।
Give the definition of Decree. What are essential elements of Decree? What are kinds of Decree? What are the cases in which Civil Procedure Code desires Preliminary Decree to be prepared? Whether the decision given by the Court will amount to Decree in following cases-
(1) Rejection of Plaint.
(2) Determination of any question relating to Restitution of Property.
(3) Dismissal of suit for Omission.
उत्तर- डिक्री (Decree ) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) में आज्ञप्ति को परिभाषित किया गया है। सामान्य रूप से आज्ञप्ति किसी सक्षम न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति (Formal Expression) है जिसके अन्तर्गत न्यायालय ने अपने समक्ष प्रस्तुत वाद में सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में वाद के पक्षकारों के अधिकारों को निश्चयात्मक रूप से निर्धारित किया है। धारा 2 (2) के अन्तर्गत आज्ञप्ति के दो प्रकार बताये गये हैं –
(1) प्रारम्भिक आज्ञप्ति (Preliminary Decree)
(2) अन्तिम डिक्री (Final Decree )
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) के दूसरे भाग में यह स्पष्ट किया गया है कि आज्ञप्ति के अन्तर्गत क्या आता है तथा आज्ञप्ति की परिभाषा में क्या सम्मिलित नहीं है। इसके अनुसार आज्ञप्ति की परिभाषा के अन्तर्गत निम्न आज्ञप्ति हैं-
(1) किसी वादपत्र का नामंजूर किया जाना (Rejection of Plaint)
(2) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत प्रत्यास्थापना के लिए आदेश (Order for Restitution) की चर्चा की गई है।
धारा 2 (2) सिविल प्रक्रिया संहिता की आज्ञप्ति की परिभाषा के अनुसार निम्न आज्ञप्ति नहीं मानी जायेगी।
(1) कोई ऐसा न्याय निर्णय जिसकी अपील आदेश की अपील की भाँति होती है।
(2) किसी चूक (व्यतिक्रम: Omission) के लिए खारिज करने का कोई आदेश।
(3) धारा 47 के अन्तर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण जिसका सम्बन्ध आज्ञप्तियों के निष्पादन (Execution of Decrees) से है
संक्षेप में कहें तो किसी न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति है जिसमें न्यायालय ने अपने समक्ष प्रस्तुत बाद में अधिकारों का निर्धारण किया है। इसमें किसी वादपत्र का नामंजूर किया जाना तथा धारा 144 के अन्तर्गत किसी प्रश्न का निर्धारण सम्मिलित है। आज्ञप्ति प्रारम्भिक या अन्तिम हो सकती है।
पटना उच्च न्यायालय ने मीरा सिन्हा बनाम गिरजा सिन्हा एवं अन्य, ए० आई० आर० (2009) पटना 19 के मामले में वादपत्र के खारिज किये जाने के आर्डर को डिक्री माना है जिसका धारा 115 के अधीन पुनरीक्षण नहीं हो सकता परन्तु धारा 96 के अधीन अपील हो सकती है।
आज्ञप्ति (Decree) के आवश्यक तत्व (Essential elements of Decreç)
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) में दो गई आज्ञप्ति की परिभाषा के विश्लेषण से आज्ञप्ति के निम्न आवश्यक तत्व मिलते हैं :
(1) आज्ञप्ति न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति है।
(2) यह न्यायनिर्णय किसी वाद में किया गया होना चाहिए।
(3) न्याय निर्णय के बाद में विवादग्रस्त सभी या किन्हीं विषयों के सम्बन्ध में वाद पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण (अवधारणा) किया गया होना चाहिए।
(4) न्यायालय द्वारा पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण निश्चयात्मक होना चाहिए।
(1) आज्ञप्ति न्याय निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति (Formal expression of Judicial Decree ) — आज्ञप्ति न्यायालय की निर्णय के रूप में अभिव्यक्ति है अर्थात् किसी ऐसे अधिकारी द्वारा दिया गया निर्णय न्याय निर्णय नहीं होगा जो न्यायालय के रूप में नहीं बैठता। औपचारिक अभिव्यक्ति से तात्पर्य ऐसी अभिव्यक्ति से है जिसमें प्रारूप (Form) की सभी अपेक्षाओं का पालन किया गया हो, आज्ञप्ति के अन्तर्गत न्यायालय द्वारा निर्धारित सभी प्रारूपों का पालन करना आवश्यक होता है जैसे पक्षकारों के मध्य अधिकार का विनिश्चयन करने हेतु बाद बिन्दुओं का निर्धारण, पक्षकारों को सुना जाना तथा उनके द्वारा माँगे गये अनुतोष (Relief) को मंजूर (स्वीकार) या नामंजूर (अस्वीकार) किया जाना किसी आज्ञप्ति के रूप में किया गया आदेश जिसमें आज्ञप्ति के लिए आवश्यक प्रारूपों का पालन नहीं किया गया है उस आदेश को आज्ञप्ति नहीं बना सकता। यदि किसी आज्ञप्ति को औपचारिक रूप से न्यायनिर्णय की पदावली में नहीं लिखा गया है तो उससे अपील नहीं होती। परन्तु सभी औपचारिक अभिव्यक्ति तब तक आज्ञप्ति नहीं हो जाती जब तक कि आज्ञप्ति के लिए निर्धारित शर्तों का पालन नहीं किया गया होता।
(2) न्यायनिर्णय किसी वाद में किया गया होना चाहिए— बाद या मुकदमा सक्षम व्यवहार न्यायालय (Civil Court) में वादपत्र दाखिल करके प्रारम्भ किया जा सकता बिना वादपत्र के आज्ञप्ति का अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि वादपत्र के आधार पर माँगे गये अनुतोषों (Reliefs) के सम्बन्ध में तर्कसंगत निष्कर्ष ही आज्ञप्ति है। इस प्रकार एक अकिंचन (निर्धन : Pauper) के रूप में बाद लाने हेतु दाखिल किया गया आवेदन किसी भी प्रकार से आज्ञप्ति की परिभाषा में नहीं आता क्योंकि जब तक ऐसा आवेदन स्वीकार नहीं किया जाता कोई वादपत्र दाखिल नहीं किया जा सकता।
श्रीमती आरती दास बनाम भारती सरकार एवं अन्य, ए० आई० आर० (2009) कल० 8 के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि एक हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 22 (2) के अधीन पूर्व-क्रयाधिकार के अधिकार का न्याय निर्णयन सि० प्र० सं० की धारा 2 (2) में परिभाषित डिक्री की श्रेणी में नहीं आता।
लीला होटल लि० बनाम हाउसिंग अर्बन डेवलपमेण्ट, ए० आई० आर० (2012) एस० सी० 903 के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णीत किया है कि माध्यस्थम अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत दिया गया पंचाट, डिक्री की संज्ञा में आता है।
(3) न्यायनिर्णय में वाद में विवादग्रस्त सभी या किन्हीं विषयों के सम्बन्ध में वाद के पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण (अवधारणा) किया जाना आवश्यक है— प्रत्येक वादपत्र में एक पक्षकार विपक्षी पर आरोप लगाता है तथा विपक्षी अपने लिखित कथन के माध्यम से इन आरोपों का उत्तर देता है। इन आरोपों तथा उत्तर के आधार पर वाद बिन्दु या विवादग्रस्त विषय की अवधारणा की जाती है। न्यायालय का कार्य इन्हीं विवादग्रस्त विषयों के बिन्दुओं पर पक्षकारों को सुनने के पश्चात् निर्णय देना है। इसी निर्णय के माध्यम से पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण होता है। अतः यदि कोई पक्षकार न्यायालय में उपस्थित होने से चूक करता है तथा इस चूक के आधार पर यदि न्यायालय द्वारा कोई आदेश किया जाता है तो यह आदेश आज्ञप्ति नहीं कहा जायेगा क्योंकि इस आदेश से पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण नहीं होता। इस प्रकार यदि किसी पक्षकार को वादपत्र में एक पक्षकार के रूप में सम्मिलित करने के लिए आवेदन दिया जाता है तथा न्यायालय इस आवेदन पर कोई आदेश देता है तो ऐसा आदेश आज्ञप्ति नहीं कहलाएगा। विवादग्रस्त मामलों में वाद करने वाले पक्षकार के अधिकार, न्यायालय का क्षेत्राधिकार, वाद दाखिल करने की योग्यता सम्बन्धित कोई प्रश्न आ सकता है। विवादग्रस्त मामलों में वाद दायर करने की प्रारम्भिक कार्यवाही सम्मिलित नहीं है।
‘पक्षकारों के अधिकार’ शब्दावली से तात्पर्य पक्षकारों के मौलिक अधिकारों से है न कि उनके प्रक्रिया सम्बन्धी अधिकार से है। इसमें पक्षकारों के आपसी सामान्य अधिकार सम्मिलित हैं जैसे पक्षकारों की हैसियत, न्यायालय का क्षेत्राधिकार, वाद की रचना तथा लेखा इत्यादि से सम्बन्धित अधिकार।
(4) न्यायालय द्वारा पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण निश्चयात्मक होना चाहिए – अधिकारों के निश्चयात्मक निर्धारण से तात्पर्य न्यायालय के अन्तिम निर्णय से है। यदि किसी मामले में न्यायालय द्वारा विनिश्चयन खुला रह जाता है. मामले का निश्चयात्मक निर्धारण नहीं माना जा सकता। जैसे-यदि किसी न्यायालय ने किसी मामले को अन्तिम रूप से निर्णीत न करके निचले न्यायालय को विनिश्चयन हेतु वापस किया है तो यह न्यायालय का अन्तिम या निश्चयात्मक निर्धारण नहीं माना जा सकता। मामले में न्यायालय द्वारा निश्चात्मक निर्धारण का अर्थ पक्षकारों को सुनने के पश्चात् न्यायालय द्वारा अभिव्यक्त अन्तिम अभिमत है जिसमें न्यायालय द्वारा कुछ भी विचार किया जाना अवशेष नहीं रहता तथा ऐसे विनिश्चयन से सिर्फ अपील का उपचार ही उपलब्ध रहता है।
इस प्रकार यदि किसी निर्णय में उपरोक्त चारों आवश्यक तत्व विद्यमान हैं तो वह आज्ञप्ति (Deoree) होगा अन्यथा नहीं। यह उल्लेखनीय है कि सन् 1976 के पश्चात् अब न्यायालय द्वारा संहिता की धारा 47 के अन्तर्गत की गई अवधारणा (विनिश्चयन) आज्ञप्ति नहीं है। इसी प्रकार मियाद (Limitation) के आधार पर वाद को अस्वीकार किया जाना आज्ञप्ति नहीं है। इसी प्रकार न्यायालय शुल्क के अभाव में खारिज अपील का आदेश भी आज्ञप्ति नहीं है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 49 के अन्तर्गत किया गया कोई विनिश्चयन आज्ञप्ति नहीं है तथा इसके विरुद्ध अपील नहीं हो सकती है। न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किसी वाद पर पक्षकारों को सुनने के पश्चात् पक्षकारों के अधिकारों पर न्यायालय द्वारा किये गये अभिमत की औपचारिक अभिव्यक्ति ही आज्ञप्ति होगी।
आज्ञप्ति के प्रकार (Kinds of Decree) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) के अन्तर्गत दी गई आज्ञप्ति की परिभाषा के अनुसार आज्ञप्ति दो प्रकार की होती है- (1) प्रारम्भिक आज्ञप्ति (Preliminary Decree)
(2) अन्तिम आज्ञप्ति (Final Decree)
(1) प्रारम्भिक आज्ञप्ति (Preliminary decree) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) से जुड़े स्पष्टीकरण के अनुसार प्रारम्भिक आज्ञप्ति वह है, जब वाद के पूर्ण रूप से निपटा दिये जाने से पूर्व आगे और कार्यवाही की जाती है। प्रारम्भिक आज्ञप्ति के माध्यम से न्यायालय वाद में विवादग्रस्त मामलों में से कुछ एक से सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण करती है परन्तु ऐसा करने से वाद का पूर्ण रूप से निपटारा नहीं हो जाता है तथा प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित किये जाने पर न्यायालय का कार्य समाप्त नहीं हो जाता परन्तु वाद में अगली कार्यवाही करनी शेष रह जाती है। प्रारम्भिक आज्ञप्ति में न्यायालय पक्षकारों के कुछ अधिकारों का निर्धारण करती है परन्तु मामलों का पूर्ण रूप से निपटारा किया जाना शेष रहता है। उदाहरण के रूप में यदि एक फर्म के निर्धारण के पश्चात् पक्षकारों के लेखे (Accounts) के लिए बाद लाया जाता है। ऐसे बाद में यदि न्यायालय भागीदार के आनुपातिक अंश (Proportional Share) का निर्धारण करता है तो यह प्रारम्भिक आज्ञप्ति होगी। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 20 में उन वादों की सूची प्रस्तुत की गई है जिसमें न्यायालय को प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित करने का अधिकार है परन्तु यह सूची अन्तिम नहीं है। प्रारम्भिक आज्ञप्ति के निर्धारण की कसौटी उस निर्णय का सार तत्व होगा न कि उस आज्ञप्ति का प्रारूप बंटवारे के मामलों में पक्षकारों के अंशों का निर्धारण का आदेश प्रारम्भिक आज्ञप्ति का दूसरा उदाहरण है।
(2) अन्तिम आज्ञप्ति (Final Decree ) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 की उपधारा (2) से जुड़ा स्पष्टीकरण अन्तिम आज्ञप्ति को परिभाषित करते हुए कहता है कि अन्तिम आज्ञप्ति यह आज्ञप्ति है जो वाद को पूर्ण रूप से निपटा देती है। यदि न्यायालय अपने समक्ष प्रस्तुत वाद में विवादित प्रश्नों का निपटारा पूर्ण एवं अन्तिम रूप से कर देता है तथा उसके पश्चात् वाद में कोई कार्यवाही करना शेष नहीं रहता तो ऐसी आज्ञप्ति अन्तिम आज्ञप्ति कही जाती है। अन्तिम आज्ञप्ति, प्रारम्भिक आज्ञप्ति के पश्चात् पारित की जाती है परन्तु अन्तिम आज्ञप्ति सीधे प्रारम्भिक आज्ञप्ति के बिना भी पारित की जा सकती है। यदि किसी मामले में न्यायालय ने प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की है तो अन्तिम आज्ञप्ति प्रारम्भिक आज्ञप्ति के निर्देशों के अनुसार या प्रारम्भिक आज्ञप्ति के अनुरूप पारित की है। इस प्रकार अन्तिम आज्ञप्ति प्रारम्भिक आज्ञप्ति पर निर्भर रहती है। यदि अपील में प्रारम्भिक आज्ञप्ति निरस्त कर दी जाती है तो अन्तिम आज्ञप्ति स्वयमेव निरर्थक हो जाती है।
अंशतः प्रारम्भिक तथा अंशतः अंतिम आज्ञप्ति (Partly Preliminary and Partly Final Decree )— यद्यपि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 की उपधारा 2 आज्ञप्ति के दो प्रकार ही बताती है परन्तु आज्ञप्ति अंशत: प्रारम्भिक एवं अंशतः अंतिम भी हो सकती है। यदि न्यायालय को किसी मामले में एक ही आज्ञप्ति से दो प्रश्नों का निश्चय (निर्धारण) करना होता है तो वहाँ आज्ञप्ति अंशत: प्रारम्भिक तथा अंशत: अन्तिम हो सकती है।
उदाहरण के लिए यदि कोई वाद सम्पत्ति पर कब्जा तथा अन्त:कालीन लाभ (Mesne Profit) के लिये दाखिल किया गया है तो वहाँ न्यायालय को कब्जा तथा अन्त:कालीन लाभ के दो प्रश्नों का निर्धारण एक ही आज्ञप्ति द्वारा करना होता है। ऐसे मामलों में अन्त:कालीन लाभ के बारे में न्यायालय का निर्णय प्रारम्भिक आज्ञप्ति मानी जायेगी परन्तु कब्जे के प्रश्न का न्यायालय द्वारा निर्धारण अन्तिम आज्ञप्ति होगी। श्रीमती संध्या रानी सरकार बनाम श्रीमती सुधा रानी देवी, (1979) 1 उम० नि० प० 633 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया है। कि स्थावर सम्पत्ति के विक्रय के विनिर्दिष्ट पालन के लिए जब कोई डिक्री पारित की जाती है तब उसे प्रारम्भिक डिक्री नहीं माना जा सकेगा किन्तु माया देवी और अन्य बनाम जियाउद्दीन और अन्य, (1976) दिल्ली 462 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि नीलाम विक्रय को अपास्त करने वाला आदेश होता है और वह धारा 2 (2) के अर्थ में डिक्री है।
ऐसे मामले जिनमें सिविल प्रक्रिया संहिता में प्रारम्भिक आज्ञप्ति तैयार किये जाने का प्रावधान किया गया है— सिविल प्रक्रिया संहिता में निम्न प्रकार के वादों में प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित किये जाने की न्यायालय से अपेक्षा की गई है।
(1) किसी सम्पति पर कब्जा या अन्तःकालीन लाभ के लिए वाद (आदेश 20, नियम 12) तत्व;
(2) किसी सम्पत्ति पर प्रशासन वाद (Administration Suit) (आदेश 20, नियम 13)
(3) हकशुफा अथवा अग्रक्रय (Preemption) के लिए वाद (आदेश 20. नियम 16)
(4) स्वामी तथा अभिकर्त्ता के मध्य लेखा (Accounts) के लिए वाद (आदेश 20, नियम 16)
(5) सम्पति के विभाजन तथा पृथक कब्जे के लिए वाद (आदेश 20, नियम 18 )
(6) पुरोबन्ध वाद (Suit for fore-closure) (आदेश 34, नियम 2)
(7) बन्धक सम्पत्ति के विक्रय का वाद (आदेश 34, नियम 4 )
(B) बन्धक के मोचन सम्बन्धी वाद (Suit for Redemption) (आदेश 34, नियम 7)
निम्न मामलों में दिया गया निर्णय क्या आज्ञप्ति है–
(1) वादपत्र की नामंजूरी (Rejection of Plaint ) — सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 में दी गई आज्ञप्ति की परिभाषा में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी बाद-पत्र की (नामंजूरी) अस्वीकृति एक आज्ञप्ति समझी जायेगी एक बाद पत्र निम्न आधारों पर अस्वीकृत किया जा सकता है (1) अतिरिक्त न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असफल रहने पर; (2) बाद कारण के अभाव में प्रतिवादियों में से कुछ को मुक्त करने का आदेश (3) पुरोबन्ध (Foreclosure) की अन्तिम आज्ञप्ति को अस्वीकृत करने का आदेश; (4) स्टाम्प शुल्क के अभाव में वाद-पत्र को अस्वीकृत करने का आदेश (5) विवरण न पेश करने पर प्रतिवादियों को मुक्त करने का आदेश (6) अपीलीय न्यायालय द्वारा निचले न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अभाव में दिये गये निर्णय को निरस्त करने का आदेश; (7) एक विवाधक को निपटाकर किसी अन्य विवाद्यक को निपटाने हेतु निचली अदालत को वापस करने का आदेश (8) किसी वाद के उपशमन का आदेश; (9) किसी आज्ञप्ति के निष्पादन को रोकने का आदेश (10) किसी प्रति अपील को विराम करने का आदेश (11) अभिलेख पर वैध प्रतिनिधि लाने को अस्वीकार करने का आदेश
स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम राजपाल सिंह चौहान, ए० आई० आर० (2012) एन० ओ० सी० 162 राजस्थान के मामले में पहली अपील को अवधिरुद्ध होने के आधार पर खारिज कर दिया गया था। तत्पश्चात् विलम्ब को माफ करने का प्रार्थनापत्र पेश किया गया जो निरस्त कर दिया गया। इस आदेश को डिक्री माना गया।
(2) सम्पत्ति में प्रत्यास्थापन (Restitution) से सम्बन्धित प्रश्न की अवधारणा – सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 के अन्तर्गत यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसी संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत सम्पत्ति के पुनरस्थापन (Restitution) के अन्तर्गत किसी प्रश्न का विनिश्चयन स्पष्ट रूप से आज्ञप्ति की परिभाषा में आता है। यद्यपि ऐसा निर्णय न तो किसी बाद में किया जाता है न ही ऐसा निर्णय वास्तव में एक आज्ञप्ति का रूप होता है। अतः इस धारा के अधीन किसी प्रश्न का निपटारा एक आज्ञप्ति होता है तथा इसके विरुद्ध अपील हो सकती है।
(3) चूक के कारण वाद को निरस्त करने के आदेश– सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 के अन्तर्गत दीगई परिभाषा के अनुसार चूक के कारण बाद को निरस्त करने का आदेश आज्ञप्ति में शामिल नहीं होता। चूक वाद या अपील को आगे न बढ़ाने से हो सकती है या उपस्थित होने में भी चूक हो सकती है। फिरदौस बनाम बंकिम चन्द्र, ए० आई० आर० (2006) सु० को० 2759 के बाद में निर्णीत हुआ कि व्यतिक्रम के लिये खारिज करने का आदेश डिक्री की परिभाषा में नहीं आता है।
प्रश्न 2. (क) आदेश किसे कहते हैं? कौन-कौन से आदेश डिक्री की श्रेणीमें आते हैं और कौन-कौन से नहीं आते हैं? स्पष्ट कीजिए। What is Order? Which orders are fall under thecategory of Decree and which do not? Explain.
(ख) न्यायालय के क्षेत्राधिकार से आप क्या समझते हैं? यह क्षेत्राधिकार कितने प्रकार का होता है? What do you mean by the Jurisdiction of the Court? What kinds can this Jurisdiction be of?
उत्तर (क)- आदेश (Order) – सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (14) में ‘आदेश’ को परिभाषित किया गया है। धारा-2 (14) के अनुसार सिविल न्यायालय के किसी विनिश्चय की प्रारूपक अभिव्यक्ति जोडिको नहीं होती, आदेश होता है। किसी सिविल न्यायालय का न्यायनिर्णयन या तो डिक्री होता है या आदेश आदेश
किसी न्याय निर्णयन की प्रारूपिक अभिव्यक्ति (Formal Expression) होता है जो डिक्री नहीं होती।
निम्नलिखित आदेश डिकी होते हैं, जैसे-
(i) किसी वाद का उपशमन करने वाला आदेश;
(ii) अभिलेख पर लाए जाने के लिए वैध प्रतिनिधि के द्वारा दिये गये आवेदन को अपास्त (Set aside) करने वाला आदेश;
(iii) वादकारण के अभाव में प्रतिवादियों में से कुछ प्रतिवादियों को उन्मुक्त करने वाला आदेश:
(iv) एक न्यायायल द्वारा किसी विषय-वस्तु को अपने अधीन किसी न्यायालय के पास प्रतिप्रेषित करना:
(v) प्रति आपत्ति को अपास्त करने वाला आदेश:
(vi) वादकालीन (Interlocutory) आदेश डिक्री हो सकते हैं यदि वे पूर्ण वाद- निर्धारण करने हेतु पर्याप्त हैं;
(vii) निष्पादन के स्थगन का प्रश्न अवधारित करने वाला आदेश:
(viii) समझौता डिक्री
(ix) एकपक्षीय डिक्री
(x) आदेश-21, नियम 58 के अन्तर्गत किया जाने वाला आदेश;
(xi) माँगी गई अतिरिक्त न्यायालय फीस की अदायगी न करने पर अपील की खारिज करने का आदेश:
(xii) किसी प्रतिवादी का निकाला जाना एवं उसके विरुद्ध वाद का खारिज किया जाना;
(xiii) धारा-92 के अन्तर्गत किसी योजना को रूपान्तरित करने का आदेश
(xiv) अन्तिम डिक्री के लिऐ किये गये किसी आवेदन का खारिज किया जाना
(xv) नीलामी द्वारा विक्रय को अपास्त करने वाला आदेश।।
निम्नलिखित आदेश जो डिक्री नहीं होते-
(1) कोई ऐसा न्यायनिर्णयन जिससे कोई अपील किसी आदेश से अपील की तरह होती है अर्थात् अपील योग्य आदेश डिक्री नहीं हो सकते क्योंकि उसमें डिक्री के कुछ तत्व अनुपस्थित होते हैं।
(2) किसी अनुपस्थिति के लिए अपास्ति का आदेश।
(3) स्थगन को अस्वीकृत करने वाला आदेश।
(4) धारा-47 के अन्तर्गत किसी प्रश्न का अवधारण करने वाला आदेश।
(5) रिट याचिका में हाईकोर्ट द्वारा दिया जाने वाला आदेश;
(6) नया बाद संस्थित करने के उद्देश्य से बाद वापस लेने की अनुज्ञा प्रदान करने वाला आदेश।
(7) उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र प्रदान करने वाला आदेश।
(8) कालबाधित होने के कारण अपील को खारिज करने वाला आदेश;
(9) धारा 151 के अन्तर्गत अपीलीय न्यायालय द्वारा नये सिरे से मुकदमें के लिए प्रतिप्रेषण का आदेश।
(10) निर्धन व्यक्ति की हैसियत में वाद लाने के लिए किये गये आवेदन को अस्वीकृत करने वाला आदेश।
उत्तर (ख ) न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of the Courts)— सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत न्यायालय के क्षेत्राधिकार से तात्पर्य न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वह किसी वाद, अपील या आवेदन को ग्रहण कर सकता है और सुनवाई के बाद उस पर निर्णय दे सकता है। सामान्य अर्थों में ‘क्षेत्राधिकार’ किसी वाद हेतु को सुनने, निपटाने, निर्णय करने और किसी न्यायिक शक्ति का प्रयोग करने की न्यायालय की शक्ति है। न्यायालयों द्वारा इस क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर विधि द्वारा कुछ सीमाएँ। निर्धारित की गई हैं जो वादों की विषय-वस्तु आर्थिक या प्रादेशिक क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित हो सकती हैं।
श्रीमती उज्जैन बाई बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० ए० आई० आर० 1962 एस० सी० 1621 के मामले में यह कहा गया कि ‘क्षेत्राधिकार’ से तात्पर्य निर्णय करने की शक्ति या अधिकार से है।
क्षेत्राधिकार को दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(क) प्रथम प्रकार का क्षेत्राधिकार तथा
(ख) द्वितीय प्रकार का क्षेत्राधिकार
(क) प्रथम प्रकार का क्षेत्राधिकार- इसे तीन भागों में विभाजित किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(i) विषय-वस्तु पर क्षेत्राधिकार (Jurisdiction over Subject Matter);
(ii) प्रादेशिक क्षेत्राधिकार (Territorial Jurisdiction); तथा
(iii) आर्थिक क्षेत्राधिकार (Pecuniary Jurisdiction)।
(i) विषय-वस्तु पर क्षेत्राधिकार (Jurisdiction over Subject Matter) – किसी भी न्यायालय की सक्षमता निश्चित करने के लिए न केवल स्थानीय एवं धन सम्बन्धी अधिकारिता क्षेत्राधिकार) का होना आवश्यक है अपितु उसको विषय-वस्तु सम्बन्धी -वस्तु अधिकारिता (क्षेत्राधिकार) भी प्राप्त होना चाहिए। हर न्यायालय को सभी विषय-व सम्बन्धी मामलों की सुनवाई का अधिकार नहीं होता।
उदाहरण स्वरूप – किसी लघुवाद न्यायालय को अचल सम्पत्ति के विभाजन सम्बन्धी बाद संविदा के विनिर्दिष्ट पालन सम्बन्धी भागीदारी के विघटन सम्बन्धी वाद या भागीदारी के लेखा सम्बन्धी इत्यादि के विचारण का अधिकार नहीं होता। इसी प्रकार प्रोबेट (Probate), संरक्षकता (Guardianship), वसीयत सम्बन्धी विवाह विषयक मामलों की सुनवाई का अधिकार, जिला जज से भिन्न किसी अन्य को नहीं होता। अब विवाह सम्बन्धी मामलों की सुनवाई के लिए पारिवारिक न्यायालय बना दिये गये हैं।
(ii) प्रादेशिक क्षेत्राधिकार (Territorial Jurisdiction) – एक न्यायालय की स्थानीय क्षेत्राधिकार की सीमा सरकार द्वारा निश्चित होती है तथा उस स्थानीय सीमा से बाहर न्यायालय को क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं होता। सामान्यतः एक जिला न्यायालय को जिले की सीमा के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है। जिले से बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। सिविल जज (जूनियर डिवीजन) का भी क्षेत्राधिकार केवल एक विशेष क्षेत्र तक ही सीमित होता है, इस सीमा से बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। इसी प्रकार उच्च न्यायालय को सामान्यतः राज्य विशेष सीमाओं के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है। तथा उस क्षेत्र के बाहर वह अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता।
(iii) आर्थिक क्षेत्राधिकार (Pecuniary Jurisdiction )- प्रत्येक न्यायालय की सरकार द्वारा न केवल स्थानीय अधिकारिता निश्चित कर दी जाती है अपितु इस न्यायालय की धन सम्बन्धी अधिकारिता भी निश्चित कर दी जाती है। न्यायालय उसी धन सम्बन्धी सीमा के अन्तर्गत किसी वाद या अपील को ग्रहण करने के लिए अधिकृत होते हैं। इस धन सम्बन्धी अधिकारिता की सीमा विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। उत्तर प्रदेश में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की धन सम्बन्धी अधिकारिता ऐसे मुकदमों तक सीमित है जिसकी विषय-वस्तु का मूल्यांकन 25,000 रुपये तक है।
(ख) द्वितीय प्रकार का क्षेत्राधिकार- इसे दो भागों में विभाजित किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(i) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction); तथा
(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction)।
(i) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) प्रारम्भिक सिविल अधिकारिता से अभिप्राय न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वे किसी भी “बाद” या प्रार्थना-पत्र या अन्य विधिक कार्यवाही को प्रथमतः ग्रहण करते हैं एवं निपटाते हैं। कुछ न्यायालयों को केवल प्रारम्भिक सिविल अधिकारिता ही प्राप्त है।
जैसे- लघुवाद न्यायालय और उत्तर प्रदेश में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) का न्यायालय तथा मध्य प्रदेश में लघुवाद न्यायालय और सिविल जज द्वितीय श्रेणी।
(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction ) – अपीलीय सिविल अधिकारिता से अभिप्राय न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वह किसी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध की गई अपील या आपत्ति को ग्रहण करता है एवं निपटाता है।
जैसे- सिविल जज, जिला जज एवं उच्च न्यायालयों को प्रारम्भिक अधिकारिता एवं अपील अधिकारिता दोनों है।
प्रश्न 3. (क) सिविल प्रकृति के बाद से आप क्या समझते हैं? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। What do you understand by the suit of civil nature? Explain with the help of decided cases.
(ख) निम्नलिखित मामलों में तर्क सहित निर्णय कीजिए कि वे सिविल प्रकृति के बाद हैं-
(1) जाति का प्रश्न
(2) धार्मिक संस्कार एवं उत्सव
(3) धर्म निरपेक्ष पद
(4) धार्मिक पद
(5) पूजा के अधिकार के लिए वाद
(6) न्यास भंग के लिए न्यासी के विरुद्ध वाद
(7) कब्रिस्तान में मुर्दा दफनाने के अधिकार से सम्बन्धित वाद
(8) साझेदारी के विघटन के लिए वाद।
Describe with reasons whether the following cases are of civil nature-
(1) Caste Question
(2) Religious Rights and Ceremonies
(3) Secular Office
(4) Religious Office
(5) A suit for the right of worship
(6) A suit against trustee for breach of trust
(7) A suit relating to the right to bury a dead body in a burial place
(8) A suit for dissolution of partnership.
उत्तर (क) – सिविल प्रकृति के वाद (Suits of Civil Nature) धारा 9 – सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 में सिविल प्रकृति के बाद के बारे में उपबन्ध किया गया है। धारा 9 के अनुसार-
“जब तक कि वर्जित न हो, न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेंगे- न्यायालय को (इसमें अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुए) इन वादों के सिवाय जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है, सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।”
स्पष्टीकरण 1 – वह वाद, जिसमें सम्पत्ति सम्बन्धी या पद-सम्बन्धी अधिकार प्रतिपादित है. इस बात के होते हुए कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति का वाद है।
स्पष्टीकरण 2- इस धारा के प्रयोजन के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि स्पष्टीकरण 1 में निर्दिष्ट पद के लिए कोई फीस है या नहीं अथवा ऐसा पद विशिष्ट स्थान से जुड़ा है या नहीं।
इस धारा में वर्णित किया गया है कि किस प्रकृति के वादों को देखने की अधिकारिता न्यायालय रखता है। इस धारा के प्रावधान तभी लागू होंगे जब निम्नलिखित दो शर्तें पूरी हों-
(i) वाद एक सिविल प्रकृति का हो। प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि न्यायालय उन वादों का विचारण नहीं करेगा जो सिविल प्रकृति के न हों।
(ii) किन्हीं विशेष मामलों के लिए न्यायाधिकरण स्थापित करके सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित न किया गया हो। सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार या अधिकार वहाँ वर्जित होगा जब कोई अधिनियम किसी वाद का संज्ञान स्पष्ट रूप से वर्जित करता है, जैसे— संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम या सहकारी समिति अधिनियम के अन्तर्गत दिये गये पंचनिर्णय
वादों की प्रकृति के आधार पर वाद दो प्रकार के होते हैं-
(i) सिविल प्रकृति के बाद
(ii) वे बाद जो सिविल प्रकृति के नहीं हैं।
जो वाद सिविल प्रकृति के होते हैं वहीं सिविल न्यायालय द्वारा परीक्षणीय होते हैं, न कि असिविल प्रकृति के वाद।
मद्रास उच्च न्यायालय ने मेसर्स कैम्ब्रिज सल्यूसन लि० बंगलौर बनाम ग्लोबल साफ्टवेयर लि० एण्ड अदर्स, ए० आई० आर० (2009) मद्रास 74 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि जहाँ वादी ने इस आधार पर डिबेन्चर प्राप्त करने का दावा किया है कि उन्हें कपटपूर्ण ढंग से कुर्क किया गया है, वहाँ सिविल न्यायालय को अधिकारिता प्राप्त है। न कि ऋण वसूली अधिकरण (DRT) को।
द्वारका प्रसाद अग्रवाल बनाम रमेश अग्रवाल, (2003 एस० सी० सी०) के वाद में ● एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक ने प्रेस को एक कम्पनी के पक्ष में पट्टा कर दिया जिसका वह भी एक सदस्य था। कम्पनी के अन्य एक सदस्य ने पट्टाकर्ता को बेदखल करने के उद्देश्य से एक बाद संस्थित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने धारित किया कि सिविल न्यायालय धारा 9 में इस वाद की अधिकारिता रखता है और कम्पनी विधि द्वारा इस बाद की अधिकारिता सिविल न्यायालय में वर्जित नहीं है। धारा 9 के स्पष्टीकरण || से यह स्पष्ट है कि जिस बाद में सम्पत्ति का अधिकार या पद का अधिकार विवादास्पद रहता है, वह सिविल प्रकृति का बाद है, चाहे ऐसा अधिकार धार्मिक संस्कारों या उत्सवों के विषय में प्रश्नों के निर्णय पर पूर्णतया निर्भर क्यों न हो। इससे स्पष्ट है कि यदि किसी वाद में जाति का या धार्मिक संस्कार एवं उत्सव का कोई प्रश्न मुख्य प्रश्न है तो वह सिविल प्रकृति का बाद नहीं होता। परन्तु जब-
(i) किसी वाद में जाति का प्रश्न या धार्मिक संस्कारों का प्रश्न गौण प्रश्न है;
(ii) मुख्य प्रश्न सिविल प्रकृति का है, जैसे किसी पद या सम्पत्ति का अधिकार; और
(ii) मुख्य प्रश्न जो सिविल प्रकृति का है जिसका विनिर्धारण जाति के प्रश्न या धार्मिक संस्कारों तथा उत्सवों के प्रश्न का विनिर्धारण किये बिना नहीं किया जा सकता। इन जातियों एवं धार्मिक संस्कारों एवं उत्सवों से सम्बन्धित प्रश्नों के विनिर्धारण की अधिकारिता जो मुख्य प्रश्न के विनिर्धारण के लिए आवश्यक है, सिविल न्यायालय रखता है।
साहेब गौड़ा बनाम ओगेप्पा, (2003 एस० सी० सी० 151) के बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया कि जो स्टेट्यूट निर्वाचन (Statute) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 के अन्तर्गत सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अपवर्जित करती है, इस बाबत उसे स्पष्ट प्रावधानों द्वारा ऐसा करना चाहिए अथवा ऐसे पदों एवं शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिससे अपवर्जन का निष्कर्ष निकाला जा सके। सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अपवर्जन को सिद्ध करने का भार पक्षकार पर होता है, जो ऐसा करना चाहता है।
गुरदीप सिंह बनाम उपकार को-आपरेटिव थ्रिफ्ट एण्ड क्रेडिट सोसायटी लि, ए० आई० आर० (2012) एन० ओ० सी० 52 पंजाब एण्ड हरियाणा के मामले में सरकारी समिति एवं उसके सदस्यों के बीच विवाद को सिविल न्यायालय की अधिकारिता से बाहर माना गया है ।
उत्तर (ख) (1) जाति का प्रश्न (Caste Question ) – जाति एक समुदाय है, जो अपने द्वारा बनाये गये नियमों एवं विनियमों द्वारा कुछ आन्तरिक उद्देश्यों के लिए शासित होता है। जाति का प्रश्न एक ऐसा प्रश्न होता है जो जाति और उसके सामाजिक सम्बन्धों के आन्तरिक स्वायत्तता को प्रभावित करता है। जाति के भोजों या उत्सवों में किसी सदस्य को आहूत न करना उसे सामाजिक विशेषाधिकारों से वंचित करना है जो केवल सामाजिक एवं नैतिक कर्तव्य का उल्लंघन है इसमें विधिक कर्तव्य की अवहेलना नहीं होती है।
किसी शव को हटाने में सहायता का अधिकार, विवाह के अवसरों पर चन्दा देने का अधिकार, दहेज देने का अधिकार, विधिक अधिकार की अवहेलना न होने के कारण प्रवर्तनीय नहीं है।
किसी सदस्य को जाति से बहिष्कृत करना उसके विधिक अधिकारों को आघात पहुँचाना है जो उसकी प्रास्थिति (Status) से सम्बन्धित है। इसके सम्बन्ध में सिविल बाद संस्थित करके प्रतिकर प्राप्त किया जा सकता है और इस बात की घोषणा भी कराई जा सकती है कि उसको पुनः जाति में प्रवेश दिया जाये [ जगन्नाथ बनाम अकाली (1894) 211 कलकत्ता ]
यदि किसी सदस्य को जाति से नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों या नियमों का पालन करते हुए बहिष्कृत किया गया है तो ऐसा बहिष्कार न्यायोचित होगा और इसके लिए कोई बाद नहीं लाया जा सकता। जाति के बहिष्कार के सम्बन्ध में बादी की सफलता तभी सम्भव है जब वह सिद्ध करे कि जाति बहिष्कार दोषपूर्ण था। रघुनाथ दामोदर बनाम जनार्दन गोपाल, 15 बम्बई ।
जाति बहिष्कार दोषपूर्ण माना जायेगा यदि बहिष्कृत सदस्य को अपनी बातों को कहने का अवसर नहीं दिया गया है। अप्पैया बनाम वादण्या, (1899) बम्बई ।
न्यास में रखी गई जातीय सम्पत्ति के लेखा परीक्षण का अधिकार सिविल बाद द्वारा प्रवर्तित कराया जा सकता है।
(2) धार्मिक संस्कार एवं उत्सव (Religious rites and Ceremonies) – धार्मिक संस्कार एवं उत्सव मुख्य प्रश्न हैं तो वाद सिविल प्रकृति का नहीं है। किसी पद से संलग्न सम्मान को प्रस्थापित करने के लिए कोई वाद नहीं चलाया जा सकता। जैसे- किन्हीं निश्चित दिनों सार्वजनिक मार्ग से पालकी ले जाने का अधिकार दीवानी प्रकृति का नहीं है। श्री शंकर बनाम सिद्ध (1843)।
(3) धर्म निरपेक्ष पद (Secular Office) — सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 के स्पष्टीकरण (2) से जुड़ने के पूर्व यह स्पष्ट नहीं था कि क्या उन परिस्थितियों में सिविल वाद संस्थित किया जा सकता था जब कि धर्म-निरपेक्ष पद से कोई पारिश्रमिक हो भी सकता और नहीं भी हो सकता है।
(4) धार्मिक पद (Religious Office ) — सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 के स्पष्टीकरण (2) के अनुसार, धार्मिक पद से सम्बन्धित ऐसे बाद समनुज्ञात किये जायेंगे जो पद स्पष्टीकरण (1) के अन्तर्गत आते हैं। वृति यजमानी अधिकार के लिए वाद व्यवहार प्रकृति का होता है यह अधिकार वाद योग्य होता है और इसका अन्तरण भी हो सकता है। जहाँ शुल्क के रूप में धनराशि प्राप्त होती है, उसके अंश के लिए सिविल बाद लाया जा सकता है किन्तु जहाँ धन उपादान के रूप में स्वेच्छा से दिया जाता है, यजमान से उसको प्राप्त करने के लिए बाद संस्थित नहीं किया जा सकता।
(5) पूजा के अधिकार के लिए वाद (A suit for the right of worship)— पूजा करने का अधिकार एक दीवानी अधिकार है और अपने पूजा करने के अधिकार को स्थापित करने के लिए कोई भी वाद लाया जा सकता है। ऐसा वाद दीवानी प्रकृति का वाद होगा। किसी धार्मिक संस्थान में घूमने के लिए व्यक्ति के अधिकार को स्थापित करने का वाद. और पूजा के स्थान में घुसने से बादी को रोकने सम्बन्धी बाद दीवानी बाद है।
( 6 ) न्यास भंग के लिए न्यासी के विरुद्ध बाद (A suit against a trustee for breach of Trust)— न्यास भंग के लिए न्यासी के विरुद्ध वाद दायर करने का अधिकार भारतीय न्यास अधिनियम के अन्तर्गत ऐसे न्यास के लाभार्थी (Benficiary) को प्राप्त है।। इसलिए ऐसा वाद एक सिविल प्रकृति का वाद है।
(7) कब्रिस्तान में मुर्दा दफनाने के अधिकार से सम्बन्धित बाद (A suil relating to the right to bury a dead body in a burial place)—कब्रिस्तान में मुर्दा दफनाने के अधिकार से सम्बन्धित बाद सिविल प्रकृति का बाद है क्योंकि कब्रिस्तान एक सार्वजनिक स्थल होता है इसी प्रकार मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर भी सार्वजनिक स्थान होता है इसलिए सम्बन्धित वर्ग-विशेष के प्रत्येक व्यक्ति को उस भूमि पर मुर्दा जलाने या दफनाने का अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार एक सिविल अधिकार है।
जंग बहादुर बनाम वजीर खान, ए० आई० आर० 1930 अवध 54 के मामले में कहा गया कि मृतक को दफनाने सम्बन्धी अधिकार एक दीवानी अधिकार है और ऐसे अधिकार के हस्तक्षेप के मामले को दीवानी अधिकार में हस्तक्षेप माना जायेगा और ऐसे हस्तक्षेप को रोकने के लिए दीवानी बाद संस्थित किया जा सकता है।
(8) साझेदारी के विघटन के लिए बाद (A suit for dissolution of Partnership)- ऐसा कोई बाद साझेदारी अधिनियम के अन्तर्गत एक सिविल बाद होगा, क्योंकि साझेदारी के विघटन के लिए बाद दायर करना उसके किसी साझेदार या ऋणदाता का विधिक अधिकार है।
प्रश्न 4. (i) विचाराधीन मामला या वाद स्थगन से आप क्या समझते हैं? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट कीजिए। What do you mean by Res-sub Judice? Explain with the help of decided cases.
(ii) प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त या पूर्व न्याय से आप क्या सझते हैं? यह सिद्धान्त किन परिस्थितियों में लागू होता है? और इसके क्या उद्देश्य हैं? स्पष्ट करें। What do you understand by the principle of Res- judicata? What are the ingredients of this principle or what circumstances does this principle apply and what are its objects.
उत्तर (i) विचाराधीन मामला (Res-sub- Judice)- यदि एक ही विवाद बिन्दु पर वही पक्षकार कई अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालयों में बाद संस्थित करे तो यह वादों को बहुलता तो होती ही है साथ ही साथ न्यायालय एवं पक्षकारों को असुविधा होती है। धारा 10 का उद्देश्य इसी कठिनाई को दूर करना है। यदि पक्षकार एक ही विषय-वस्तु को दो या दो से अधिक अधिकारिता वाले न्यायालयों में संचालित करते हैं तो इससे एक प्रश्न पर दो परस्पर आज्ञप्तियों के पारित होने की आशंका रहती है। धारा 10 का प्रयोजन इसी आशंका को निर्मूल करना है। इस धारा के अनुसार यदि दो पक्षकारों के मध्य किसी वाद बिन्दु पर एक सक्षम न्यायालय में वाद चल रहा है तथा यदि वही पक्षकार उन्हीं बिन्दुओं पर दूसरे सक्षम न्यायालय में वाद दाखिल करते हैं तो पश्चात्वर्ती वाद (बाद वाला वाद) स्थगित कर दिया जायेगा। इस प्रकार सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 10 के अन्तर्गत पश्चात्वर्ती वाद सिर्फ स्थगित कर दिया जायेगा पश्चात्वर्ती वाद खारिज या निरस्त नहीं किया जाता। पश्चात्वती वाद के स्थगन का आदेश न्यायालय तभी देगा जब धारा 10 की सभी शर्तें पूरी हों। इस विषय पर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 भी उल्लेखनीय है जिसके अन्तर्गत कोई भी न्यायालय अपने समक्ष वाद स्थगन की माँग को अस्वीकार कर दे यदि दूसरा बाद विधिक प्रक्रिया के गलत प्रयोग के उद्देश्य से दाखिल किया गया है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 10 के अनुसार कोई भी न्यायालय ऐसे वाद का परीक्षण नहीं करेगा जिसमें वहीं विवाद्यक विषय उन्हीं पक्षकारों के बीच या उन पक्षकारों के बीच, जिनके आश्रित रहकर वे या उनमें से कोई पक्षकार उसी हक के अधीन रहकर वाद करते हुए दावा करते हैं किसी पूर्वतन संस्थित बाद या पहले दायर किये गये किसी वाद में भी प्रत्यक्षत: और सारत: विवादग्रस्त है। जहाँ ऐसा बाद इसी न्यायालय में या भारत के किसी दूसरे न्यायालय में, जिसे उपचार (Relief) प्रदान करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है या भारत की सीमाओं से परे किसी न्यायालय में जो केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित या प्रवर्तित है और जिसे समान क्षेत्राधिकार प्राप्त है या उच्चतम न्यायालय के समक्ष लम्बित है।
इस धारा से जुड़े स्पष्टीकरण के अनुसार, किसी विदेशी न्यायालय में किसी वाद का लम्बित रहना भारत के न्यायादत्य को उसी वाद हेतुक या वादकारिता (Cause of Action) का परीक्षण करने से नहीं रोकता।
रविन्द्र कुमार बनाम कर्नाटक राज्य, ए० आई० आर० (2013) कर्ना० 126 के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि धारा 10 में उल्लिखित शब्दावली ‘वाद को रोकना’ का सम्बन्ध परीक्षण से है न कि कार्यवाही से न्यायालय द्वारा वाद को रोकने से यह तात्पर्य नहीं समझना चाहिये कि न्यायालय ने वाद की कार्यवाही पर अपना नियंत्रण खो दिया। है। न्यायालय वाद पर अपना प्रशासन जारी रखेगा, केवल परीक्षण से पृथक् रहेगा।
धारा 10 के विश्लेषण से धारा 10 को लागू करने हेतु निम्न आवश्यक शर्तें स्पष्ट होती है-
(1) पक्षकारों द्वारा किसी न्यायालय में पहले से दाखिल किया गया वाद लम्बित (Pending) है।
(2) दूसरे वाद में विवाद्यक विषय ( Issue) तथा पहले दाखिल किये गये वाद में भी प्रत्यक्ष तथा सारतः विवाद्य है।
(3) पहले दाखिल किया गया बाद उसी न्यायालय में लम्बित (Pending) होना चाहिए जिसमें बाद वाला (पश्चात्वर्ती) वाद लाया जाता है या भारत में किसी दूसरे न्यायालय में या भारत की सीमाओं से बाहर किसी ऐसे न्यायालय में जो केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित या प्रवर्तित है या उच्च न्यायालय (High Court ) में लाया जाता है।
(4) वह न्यायालय जिसमें (पूर्ववर्ती) पहले वाला वाद लम्बित है, बाद वाले (पश्चावर्ती बाद में वांछित अनुतोष (Relief) को प्रदान करने का क्षेत्राधिकार रखता है।
(5) पूर्ववर्ती वाद में तथा पश्चात्वर्ती वाद में पक्षकार वही (एक ही) होना चाहिए।
(6) पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती वाद में पक्षकार एक ही हक (अधिकार) के लिए विवाद कर रहे हों।
धारा 10 में प्रयुक्त वाद (Case) के अन्तर्गत अपील भी सम्मिलित समझी जानी चाहिए। यह भी स्मरणीय है कि यदि पूर्ववर्ती बाद किसी विदेशी न्यायालय में दाखिल किया गया है. तो धारा 10 के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
धारा 10 की शर्तें पूरी होने पर न्यायालय पश्चात्वर्ती बाद में विचारण स्थगित कर देंगे। धारा 10 का प्रावधान आदेशात्मक (Mandatory) है तथा न्यायालय इस अधिकार का प्रयोग विवेकहीन अधिकारी की भाँति नहीं कर सकते। पश्चात्वर्ती वाद का स्थगन बाद के किसी भी स्तर पर हो सकेगा।
प्रिज्म इन्टरटेन्मेन्ट प्रा० लि० एवं अन्य बनाम प्रसाद प्रोडक्शन प्रा० लि० एवं अन्य, ए० आई० आर० (2006) कोल० 2006 के बाद में करार को रद्द करने के लिए वाद कलकत्ता उच्च न्यायालय में फाइल किया गया था। परन्तु इसके पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय में धन की वसूली के लिए जो कि उसी करार की विषयवस्तु थी, वह फाइल किया जा चुका था। दोनों ही वादों में एक प्रतिवादी को छोड़कर शेष सभी पक्षकार समान थे। दोनों ही वादों में न्यायालय को करार की विधिमान्यता पर विचार करना था। यह अभिनिर्धारित हुआ कि दिल्ली उच्च न्यायालय में सबसे पहले बाद फाइल किया गया इसलिए वहाँ बाद सुना जाएगा और कलकत्ता उच्च न्यायालय में फाइल किया गया वाद स्थगित हो जाएगा।
उदाहरण- वाराणसी निवासी ‘क’ का अभिकर्ता ‘ख’ गोरखपुर में उसके लिए क्रय- विक्रय करने के लिए नियोजित है। ‘ख’ अपनी ओर से ‘क’ के मध्य सम्पन्न व्यवहारों के हिसाब-किताब के सम्बन्ध में एक वाद गोरखपुर में दाखिल करता है। गोरखपुर में चल रहे बाद के लम्बित रहते ही ‘क’ वाराणसी में ‘ख’ के विरुद्ध ‘ख’ की उपेक्षा से हुई क्षति के लिए क्षतिपूर्ति हेतु वाद दाखिल करता है। यहाँ ‘क’ के वाद में विवाद्यक विषय प्रत्यक्षतः और सारतः ‘ख’ के बाद में वादगस्त है तथा वाराणसी तथा गोरखपुर में दाखिल किया गया वाद उन्हीं पक्षकारों के मध्य है। अतः यदि गोरखपुर का न्यायालय ‘ख’ के बाद में किये गये दावे के अनुतोष (Relief) को प्रदान करने की क्षेत्राधिकारिता रखता है तो वाराणसी के न्यायालय को ‘क’ द्वारा संस्थित वाद का विचारण स्थगित कर देना चाहिए तथा गोरखपुर न्यायालय में संस्थित वाद (जो समय के अनुसार पहले दाखिल किया गया है) का ही विचारण होना चाहिए।
परन्तु ‘क’ यदि वाराणसी के न्यायालय के स्थान पर नेपाल में ‘ख’ का अभिकर्ता होता और यदि उसके द्वारा नेपाल के किसी न्यायालय में बाद लाया गया होता तो गोरखपुर का न्यायालय विचारण में अग्रसरित होने से नहीं रुकेगा क्योंकि नेपाल का न्यायालय एक विदेशी न्यायालय था। (स्पष्टीकरण धारा 10)
धारा 10 के आवश्यक तत्वों का विवेचन-
(1) वाद का पहले से लम्बित होना- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 10 को लागू होने के लिए आवश्यक है कि पश्चात्वर्ती वाद किये जाने के समय कोई बाद पहले से लम्बित हो। यदि किसी बाद में निर्णय हो गया है तथा आज्ञप्ति बनाई गई है तो बाद लम्बित नहीं माना जायेगा तथा धारा 10 लागू नहीं होगी पूर्ववर्ती बाद लम्बित है यह साबित करने का भार पश्चात्वर्ती बाद के प्रतिवादी पर है। सरदार आनन्द दीप सिंह बनाम रनजीत कौर, ए० आई० आर० 1992 दिल्ली 87 नामक बाद में एक सम्पत्ति के विभाजन के लिए बाद लम्बित था। मृतक वादी के स्थान पर उसके पुत्र तथा पुत्री पक्षकार बनाए गए। उनके पुत्रों में से एक द्वारा दूसरा वाद संस्थित किया गया तथा उसमें सम्पत्ति से सम्बन्धित कुछ मद जोड़े गये। दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय किया कि पश्चातवर्ती वाद धारा 10 के अन्तर्गत स्थगित किया जाना चाहिए।
(2) विवाद-बिन्दु (Issues) का समान होना – धारा 10 को लागू होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दोनों वादों में विषय-वस्तु या विवाद बिन्दु में सभी प्रकार से समानता हो। सिर्फ यह पर्याप्त है कि यदि विवाद बिन्दु में सारतः समानता हो। इसी प्रकार दोनों वादों में अनुतोष (Relief) की पूर्णतः समानता होना आवश्यक नहीं है। परन्तु क्रितीश चन्द्र बनाम हरक चन्द्र, ए० आई० आर० 1985 गौहाटी 55 में गौहाटी उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है। कि जहाँ वाद हेतुक (Cause of Action) तथा अनुतोष (Relief) मिलता है वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि दोनों वादों में विवाद्य विषय प्रत्यक्षतः या सारतः एक ही है।
(3) पक्षकारों की समानता- धारा 10 को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि पूर्ववर्ती वाद तथा पश्चात्वर्ती वाद में पक्षकारों में समानता हो। दोनो वादों में पक्षकार वही हों, यह आवश्यक नहीं। वहीदुन्निसा बनाम जामिन, आई० एल० आर० 42 इलाहाबाद 290 नामक वाद में अ’ तथा ‘ब’ ने ‘क’ तथा ‘ख’ के विरुद्ध वाद दाखिल किया। तत्पश्चात् ‘क’ ने वादी के रूप में ‘ब’ तथा ‘स’ के विरुद्ध वाद किया, यहाँ पूर्ववर्ती बाद में से वादी नहीं था, परन्तु दोनों वाद में एक ही पक्षकार माने जायेंगे।
आर्य ग्रुप इण्टरप्राइजेज लिमिटेड बनाम वाल्डार्फ रेस्टोरेन्ट, (2003) 6 एस० सी० सी० के बाद में मकान मालिक द्वारा एक उपकिरायेदार को बेदखल करने के लिए वाद संस्थित किया गया। उच्च न्यायालय ने कहा कि एक विवाद का निस्तारण मुख्य किरायेदार के निष्कासन हेतु समझौता डिक्री की निष्पादन कार्यवाही में किया जा सकता है। समझौता कार्यवाही के दौरान उपकिरायेदार के द्वारा दाखिल प्रतिवाद जिसके द्वारा समझौता कार्यावाही के निष्पादन को रोकने के लिए प्रार्थना की गई थी खारिज कर दी गई तथा मकान मालिक के आवेदन-पत्र को समनुज्ञात (Allowed) कर दिया गया। पक्षकारों के दो प्रतिवादों (Counter) suit) के निर्णय ने विधिक स्थिति स्पष्ट कर दिया पक्षकारों के अधिकारों तथा दावों को गुण- दोष के आधार पर निर्णीत नहीं किया जा रहा है इसलिए उच्चतम न्यायालय की दृष्टि में ‘प्राङ्गन्याय’ का तर्क मान्य नहीं होगा। अपीलकर्ता सभी न्यायालयों में हुए समस्त खर्चों को प्राप्त करने का अधिकारी है
उत्तर (ii)—प्राङ्गन्याय (Res- Judicata) – प्राङ्गन्याय दो शब्दों से मिलकर बना है। रेस (Res) तथा जुडिकेटा (Judicata) रेस (Res) का अर्थ है एक वस्तु या वाद वस्तु तथा जुडिकेटा (Judicata) का अर्थ है पूर्वनिर्णीत अर्थात् प्राङ्गन्याय या रेस जुडिकेटा का तात्पर्य पूर्व निर्णीत विषय-वस्तु से है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में अन्तर्निहित प्राङ्गन्यास का सिद्धान्त तीन रोमन सूक्तियों पर आधारित है। प्रथम नेमों डेबेट बिस बेक्सरी प्रो उनो एटेटे एडेम कासा (NEMO DEBET BIS VEXARIPRO UNATETE ADEM CAUSA) अर्थात एक ही वाद कारण को दुबारा विवादित नहीं किया जा सकता तथा दूसरा इन्टरेस्ट रिपब्लिकी अटसिटफिनिस लिटम (INTEREST REPUBLICAE UTSOTFOMSS- LITIUM) अर्थात् राज्य हित मुकदमेबाजी की समाप्ति में है तथा तीसरा – RES JUDICATA PRO VERITATE OCCIPTUR रेस जुडिकेटा प्रो वरिटेट आकिप्वर अर्थात् एक न्यायिक विनिश्चय को सही माना जाना चाहिए। प्रथम सूत्र किसी व्यक्ति को मुकदमेबाजी की विविधता में संरक्षित करता है तथा दूसरा सूत्र लोक नीति (Public policy) पर आधारित है क्योंकि असीमित मुकदमेबाजी समाज में शांति को प्रभावित करती है।
उच्चतम न्यायालय ने एम० एन० नागभूषण बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक, ए० आई० आर० (2011) सु० को० 1113 के बाद में स्पष्ट किया कि प्राग्न्याय का सिद्धान्त एक तकनीकी सिद्धान्त नहीं है अपितु मूल सिद्धान्त है जो विधि के अनुसार अन्तिमता प्रदान करता है। इसका सिद्धान्त ईमानदारी, न्याय प्रशासन की शुद्धता तथा पक्षकारों के मध्य जो विवाद अन्तिम हो गया है उसके सम्बन्ध में न्यायालय में होने वाली दो बुराइयाँ समाप्त करता है। यदि कोई विवाद अन्तिम रूप से निर्णीत कर दिया गया है तो उसे पुनः सुनना न्यायालय की प्रक्रिया का दोष है तथा प्रांगन्याय के सिद्धान्त के विपरीत है।
स्टेट ऑफ तमिलनाडु बनाम स्टेट ऑफ केरल, ए० आई० आर० (2014) सु० को० 2407 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि प्रांगन्याय का सिद्धान्त पक्षकारों को रोकता है न कि विधायन को न्यायालय ने यह भी अवलोकन किया कि प्रांगन्याय को लागू करने के लिये निर्णय का बाद में दिया जाना आवश्यक नहीं है, रिट पेटिशन में दिये गये निर्णय पर भी प्रांगन्याय का सिद्धान्त लागू होगा। यदि कोई निर्णय रिट याचिका में दिया गया है तो यह निर्णय पश्चात्वर्ती वाद के लिए प्रांगन्याय होगा।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में निरूपित प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त निम्न है-
“कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिन्दु का विचारण नहीं करेगा जिसमें वादपत्र में वह विषय, उन्हीं पक्षकारों के मध्य अथवा उन पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन वे अथवा उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत मुकदमेबाजी करने का दावा करता है। एक ऐसे न्यायालय में जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद अथवा ऐसे वाद जिसमें ऐसा वाद बिन्दु उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, किसी पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षतः एवं सारवान रूप से रहा है और सुना जा चुका है तथा अन्तिम रूप से ऐसे न्यायालय द्वारा निर्णीत हो चुका है।”
धारा 11 से जुड़े आठ स्पष्टीकरण मुख्य धारा में अभिलिखित कुछ पदावलियों को स्पष्ट करते हैं।
प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त को लागू होने की आवश्यक शर्तें-
(1) प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त को लागू होने के लिए दो बाद होना चाहिए।
(2) पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती वादों से सम्बन्धित न्यायालय सक्षम क्षेत्राधिकारिता वाले न्यायालय होने चाहिए।
(3) पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती बाद में प्रत्यक्षत: (Directly) तथा सारतः (Substantially) या विवक्षित (Constructively) रूप से विषय वस्तु (Subject matter) वही होने चाहिए।
(4) पूर्ववर्ती बाद में न्यायालय का निर्णय अन्तिम (Final) होना चाहिए।
(5) पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती वाद या तो उन्हीं पक्षकारों या ऐसे पक्षकारों के मध्य होना चाहिए जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं।