51. निष्पादन में संपत्ति कुर्की (Attachment) का क्या उद्देश्य होता है?
CPC के आदेश 21 के अंतर्गत, जब कोई प्रतिवादी न्यायालय द्वारा पारित डिक्री का पालन नहीं करता, तब वादी उसकी संपत्ति कुर्क करने का आवेदन कर सकता है। कुर्की का मुख्य उद्देश्य है कि प्रतिवादी की चल या अचल संपत्ति को ज़ब्त कर उसकी बिक्री की जाए और उससे डिक्री की राशि वसूली जाए। कुर्की डिक्री को प्रभावी बनाने का एक सशक्त माध्यम है। न्यायालय संपत्ति की पहचान कर उसकी घोषणा करता है, फिर आदेश पारित कर कुर्की की कार्रवाई करता है। कुछ संपत्तियाँ जैसे—गृहस्थ उपयोग की आवश्यक वस्तुएँ, वेतन का एक हिस्सा आदि, कानूनन कुर्की से मुक्त होती हैं।
52. डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तारी कब संभव है?
CPC की धारा 51 और आदेश 21 के तहत, यदि प्रतिवादी जानबूझकर डिक्री का पालन नहीं करता, और उसके पास भुगतान की क्षमता होते हुए भी वह टालमटोल करता है, तो वादी उसकी गिरफ्तारी के लिए आवेदन कर सकता है। न्यायालय संतुष्ट होने पर डिक्रीबद्ध राशि की वसूली हेतु प्रतिवादी को सिविल जेल में भेज सकता है। यह दंडात्मक नहीं बल्कि दबावात्मक उपाय होता है, ताकि प्रतिवादी भुगतान करने के लिए बाध्य हो। हालाँकि, महिलाओं को सामान्यतः धन वसूली हेतु गिरफ्तार नहीं किया जा सकता (आदेश 21, नियम 37–40)।
53. निष्पादन की कार्यवाही में तृतीय पक्ष दावा कैसे उठाया जा सकता है?
यदि निष्पादन की कार्यवाही के दौरान कोई तीसरा व्यक्ति यह दावा करता है कि जिस संपत्ति की कुर्की की जा रही है, वह उसकी है और डिक्री में सम्मिलित नहीं है, तो वह न्यायालय में दावा याचिका (Claim Petition) दाखिल कर सकता है। आदेश 21, नियम 58 से 63 में इसकी प्रक्रिया वर्णित है। न्यायालय इस दावे की जांच करता है और यदि प्रमाणित हो जाए कि संपत्ति तृतीय पक्ष की है, तो कुर्की रद्द कर दी जाती है। इससे निर्दोष व्यक्तियों की संपत्ति की रक्षा होती है।
54. क्या एक ही वाद में कई डिक्री हो सकती हैं?
हाँ, एक ही वाद में कई विषयों पर निर्णय हो सकते हैं, और उन पर अलग-अलग डिक्री जारी की जा सकती है। इसे “Preliminary and Final Decree” के रूप में भी समझा जा सकता है। उदाहरणतः, बंटवारे के वाद में न्यायालय पहले यह घोषित करता है कि कौन किस हिस्से का अधिकारी है (Preliminary Decree), और फिर बाद में संपत्ति का वास्तविक विभाजन होता है (Final Decree)। एक ही वाद में कई डिक्री पारित होना न्याय की प्रक्रिया को चरणबद्ध और स्पष्ट बनाता है।
55. निर्णय और डिक्री में क्या अंतर है?
निर्णय (Judgment) वह लिखित वक्तव्य है जिसमें न्यायालय मामले के तथ्यों, साक्ष्यों और कानून के आधार पर तर्क प्रस्तुत करता है। वहीं डिक्री (Decree) वह औपचारिक आदेश है जो निर्णय के निष्कर्ष को कार्यान्वित करता है। निर्णय अधिक व्यापक होता है, जबकि डिक्री उसका परिणाम होता है। CPC की धारा 2(9) में डिक्री की परिभाषा दी गई है। उदाहरणतः, निर्णय में लिखा गया कि वादी को ₹1,00,000 मिलना चाहिए, तो डिक्री उस राशि की वसूली का आदेश होगी।
56. आदेश (Order) और डिक्री (Decree) में अंतर क्या है?
डिक्री वह निर्णय होता है जिससे किसी वाद का अधिकारिक निपटारा होता है, जैसे – संपत्ति मिलना, पैसा वसूलना आदि। वहीं आदेश (Order) न्यायालय द्वारा वाद की प्रक्रिया के दौरान दिया गया कोई निर्देश होता है, जो वाद को अंतिम रूप से समाप्त नहीं करता। उदाहरण – दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश। डिक्री CPC की धारा 2(2) और आदेश CPC की धारा 2(14) में परिभाषित हैं। डिक्री अपील योग्य होती है, जबकि आदेश सीमित परिस्थितियों में ही अपील योग्य होता है।
57. न्यायालय वाद खारिज करने के कौन-कौन से आधार हैं?
न्यायालय वाद खारिज तब कर सकता है जब:
- वादी अनुपस्थित हो (आदेश 9),
- वाद समयबद्ध न हो (Limitation),
- वाद में पर्याप्त कारण न हो (Order 7 Rule 11),
- पूर्व में निर्णय हो चुका हो (Res Judicata),
- न्यायालय को अधिकार न हो (Jurisdiction),
- वाद कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग हो।
इन सभी आधारों का उद्देश्य न्याय प्रक्रिया को अनुशासित, पारदर्शी और समयबद्ध बनाना है। न्यायालय सतर्कता से प्रत्येक वाद की वैधता की जाँच करता है।
58. क्या आदेश के विरुद्ध भी अपील की जा सकती है?
हाँ, CPC की धारा 104 और आदेश 43 में अपील योग्य आदेशों (Appealable Orders) की सूची दी गई है। जैसे – निषेधाज्ञा का आदेश, पक्षकार हटाने या जोड़ने का आदेश, जमानत संबंधी आदेश आदि। हालांकि, हर आदेश अपील योग्य नहीं होता, केवल वे आदेश जिनसे पक्षकारों के अधिकार प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं, वही अपील के अंतर्गत आते हैं। अन्य आदेशों के विरुद्ध पुनरीक्षण या विशेष अनुमति याचिका (SLP) का विकल्प खुला होता है।
59. अपील में कौन-कौन सी राहत मांगी जा सकती है?
अपील में अपीलार्थी निम्न राहतें मांग सकता है:
- मूल निर्णय को रद्द या संशोधित किया जाए,
- डिक्री में कोई त्रुटि सुधारी जाए,
- अंतरिम निषेधाज्ञा दी जाए,
- वाद दोबारा सुनवाई हेतु निचली अदालत में भेजा जाए,
- न्यायालय प्रक्रिया में त्रुटियों को सुधारा जाए।
अपील में पक्षकार को यह दिखाना होता है कि निचली अदालत के निर्णय में कोई कानून या तथ्य की त्रुटि थी। यदि उच्च न्यायालय संतुष्ट होता है, तो उपयुक्त राहत प्रदान की जाती है।
60. CPC की धारा 144 – प्रतिकर (Restitution) का क्या अर्थ है?
धारा 144 के अनुसार, यदि कोई डिक्री बाद में उच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दी जाती है, और उस डिक्री के आधार पर वादी को लाभ मिला हो, तो उसे वह लाभ लौटाना होगा। इसे प्रतिकर (Restitution) कहते हैं। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जब न्यायिक आदेश गलत साबित हो जाए, तो उससे प्राप्त लाभ को वापस कर दिया जाए और पक्षकारों को यथास्थिति में लाया जाए। यह सिद्धांत न्याय की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।
61. वाद की संयोजन (Consolidation of Suits) कब की जाती है?
जब दो या दो से अधिक वादों में पक्षकार, मुद्दे और साक्ष्य समान हों, तो न्यायालय उन्हें एक साथ सुनने का आदेश दे सकता है। इसे Consolidation of Suits कहते हैं। CPC में इसका कोई विशेष प्रावधान नहीं है, लेकिन न्यायालय अपनी अंतर्निहित शक्ति (धारा 151) के तहत यह आदेश दे सकता है। इसका उद्देश्य समय और संसाधनों की बचत करना है। संयोजन से परस्पर विरोधी निर्णयों की संभावना भी कम होती है।
62. क्या न्यायालय आदेश देने से पहले पक्षकार को सुनता है?
हाँ, न्याय का मूल सिद्धांत है – audi alteram partem, अर्थात् “पक्षकार को सुने बिना कोई निर्णय नहीं।” CPC में भी अधिकांश मामलों में आदेश पारित करने से पूर्व न्यायालय सभी पक्षों को नोटिस देता है और सुनवाई करता है। हालांकि, कुछ आपातकालीन परिस्थितियों में न्यायालय ex-parte (एकपक्षीय) अंतरिम आदेश पारित कर सकता है, लेकिन बाद में प्रतिवादी को सुनवाई का अवसर दिया जाता है।
63. क्या वादी अपने वाद को वापस ले सकता है?
हाँ, CPC की धारा 148 और आदेश 23 के अनुसार वादी वाद वापस लेने (Withdrawal of Suit) का अधिकार रखता है। यदि वादी को लगे कि वाद में त्रुटि है या वह आगे नहीं बढ़ाना चाहता, तो वह अनुमति लेकर वाद वापस ले सकता है। यदि वह भविष्य में उसी विषय पर फिर से वाद दायर करना चाहता है, तो उसे अवकाश (Leave of Court) प्राप्त करना आवश्यक है, अन्यथा यह वाद फिर से नहीं चल सकता।
64. अंतरिम डिक्री (Preliminary Decree) क्या है?
अंतरिम डिक्री वह आदेश होता है जिसमें न्यायालय अधिकारों को निर्धारित करता है, लेकिन उनका पूर्ण निष्पादन बाद में किया जाता है। जैसे, संपत्ति बंटवारे के वाद में न्यायालय पहले यह तय करता है कि किस पक्ष को कितना हिस्सा मिलेगा – इसे Preliminary Decree कहा जाता है। इसके बाद वास्तविक बंटवारा Final Decree के रूप में किया जाता है। CPC की धारा 2(2) में डिक्री की परिभाषा में यह शामिल है। यह चरणबद्ध न्याय प्रदान करने की विधि है।
65. समयसीमा की समाप्ति पर क्या वाद स्वतः खारिज हो जाता है?
सीमा अधिनियम की समयसीमा समाप्त होने पर वाद स्वतः खारिज नहीं होता, लेकिन यदि प्रतिवादी इसका आपत्ति (Objection) उठाता है, तो न्यायालय उसे स्वीकार करते हुए वाद खारिज कर सकता है। यदि वादी यह सिद्ध करता है कि देरी उचित कारणों से हुई है, तो न्यायालय धारा 5 के तहत देरी क्षमा कर सकता है। अतः समयसीमा का उल्लंघन गंभीर मुद्दा है, लेकिन न्यायालय प्रत्येक मामले में न्यायिक विवेक से निर्णय करता है।
66. वाद में पुनरुद्धार (Revival of Suit) क्या होता है?
यदि कोई वाद निष्क्रिय हो गया हो — जैसे खारिज हो गया हो या समयसीमा में निष्पादन न हुआ हो — और बाद में वादी उसे पुनर्जीवित करना चाहे, तो वह न्यायालय से पुनरुद्धार की अनुमति माँग सकता है। CPC की धारा 151 के अंतर्गत न्यायालय को अंतर्निहित शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनके माध्यम से वह न्याय के हित में निष्क्रिय वाद को पुनः चालू कर सकता है, बशर्ते वादी उचित कारण सिद्ध करे। यह प्रक्रिया न्यायिक विवेक पर आधारित होती है।
67. क्या निष्पादन में संपत्ति की नीलामी हो सकती है?
हाँ, यदि प्रतिवादी डिक्री का पालन नहीं करता है, तो उसकी संपत्ति कुर्क करके नीलामी की जा सकती है। CPC के आदेश 21 के तहत न्यायालय संपत्ति की सार्वजनिक नीलामी कर सकता है और उससे प्राप्त राशि वादी को दिलवाता है। नीलामी से पहले उचित नोटिस, मूल्यांकन और公告 (प्रकाशन) अनिवार्य होता है। यह निष्पादन की अंतिम और प्रभावी विधि मानी जाती है।
68. क्या न्यायालय अंतरिम राहत दे सकता है?
हाँ, CPC की धारा 94 और आदेश 39 के तहत न्यायालय पक्षकारों को अंतरिम राहत (Interim Relief) प्रदान कर सकता है, जैसे – स्थगन आदेश (Stay), अस्थायी निषेधाज्ञा, या संपत्ति की सीलिंग। अंतरिम राहत तब दी जाती है जब वादी यह दिखाता है कि उसे अपूरणीय क्षति हो सकती है या यथास्थिति बनाए रखने की आवश्यकता है। यह अस्थायी होती है और अंतिम निर्णय आने तक प्रभावी रहती है।
69. आदेश 9, नियम 9 क्या कहता है?
आदेश 9, नियम 9 CPC में यह प्रावधान है कि यदि वादी की अनुपस्थिति के कारण वाद खारिज हो गया है, तो वादी पुनः उसी वाद को फिर से दाखिल नहीं कर सकता, जब तक कि वह वाद बहाली (Restoration) की याचिका दाखिल कर न्यायालय की अनुमति प्राप्त न करे। यह अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रावधान है, जिससे वादी लापरवाही न बरते।
70. अपील और पुनरीक्षण में क्या अंतर है?
अपील वह प्रक्रिया है जिसमें उच्च न्यायालय निचली अदालत के निर्णय की कानूनी और तथ्यों की समीक्षा करता है। जबकि पुनरीक्षण (Revision) केवल कानून के प्रश्नों की जांच के लिए होता है, और इसमें उच्च न्यायालय निचली अदालत की कार्यवाही की वैधता की जाँच करता है। अपील CPC की धारा 96-100 में, और पुनरीक्षण धारा 115 में वर्णित है।
71. न्यायालय के पास आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत वाद खारिज करने का क्या अधिकार है?
आदेश 7, नियम 11 CPC न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह वाद पत्र (प्लैंट) को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर सके यदि:
- प्लैंट में कारण नहीं दर्शाया गया है,
- वाद समय barred है,
- वाद न्यायालय के क्षेत्राधिकार में नहीं है,
- प्लैंट सही मूल्यांकन के साथ दाखिल नहीं है।
यह प्रावधान न्यायालय के समय की बचत और न्यायिक प्रक्रिया की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए है।
72. क्या पारिवारिक न्यायालय में CPC पूरी तरह लागू होती है?
नहीं, पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 10 कहती है कि CPC केवल सीमित रूप से लागू होगी। पारिवारिक न्यायालयों में प्रक्रियाएँ अधिक लचीली और न्यायसंगत होती हैं। न्यायालय संहिताबद्ध प्रक्रिया के बजाय सुलह, मध्यस्थता और त्वरित निपटान को प्राथमिकता देते हैं। तथापि, कुछ प्रक्रियाओं में CPC के सिद्धांतों का उपयोग किया जा सकता है।
73. सिविल रिवीजन याचिका (Civil Revision Petition) क्या है?
सिविल रिवीजन याचिका CPC की धारा 115 के तहत उच्च न्यायालय में दायर की जाती है, जब निचली अदालत ने कोई आदेश पारित किया हो जो अधिकार क्षेत्र के बाहर हो, या जिससे कानून का उल्लंघन हुआ हो। इसमें तथ्य की नहीं, बल्कि कानून की त्रुटियों की समीक्षा होती है। यह एक संविधानिक निगरानी प्रक्रिया है, जिससे निचली अदालतें अपनी सीमाओं का पालन करें।
74. न्यायालय पक्षकार जोड़ने या हटाने का आदेश कैसे देता है?
CPC के आदेश 1, नियम 10 के अनुसार, न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को वाद में पक्षकार बना सकता है जो विवाद से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित हो, और यदि किसी अनावश्यक व्यक्ति को पक्ष बनाया गया हो, तो उसे हटाया भी जा सकता है। यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि वाद केवल आवश्यक और उचित पक्षकारों के साथ चले और न्यायिक निर्णय सार्थक हो।
75. निष्पादन की कार्यवाही में समय सीमा क्या है?
CPC के अनुसार, किसी डिक्री के निष्पादन के लिए 12 वर्षों की समयसीमा होती है, जो उस दिन से शुरू होती है जिस दिन डिक्री लागू हो जाती है। यह प्रावधान सीमा अधिनियम की धारा 136 में निहित है। यदि यह समयसीमा समाप्त हो जाती है और वादी ने निष्पादन याचिका दाखिल नहीं की, तो उसे डिक्री लागू करने का अधिकार नहीं रह जाता।
76. देरी क्षमा याचिका (Condonation of Delay) कब दी जाती है?
जब कोई व्यक्ति अपील या आवेदन निर्धारित समय के बाद दाखिल करता है, तो उसे धारा 5 के अंतर्गत देरी क्षमा याचिका देनी होती है। इसमें उसे यह सिद्ध करना होता है कि देरी उचित कारणों से हुई, जैसे बीमारी, दस्तावेज़ में विलंब, या जानकारी की कमी। यदि न्यायालय संतुष्ट होता है, तो वह याचिका स्वीकार कर आगे की कार्यवाही की अनुमति देता है।
77. क्या निष्पादन में वेतन को कुर्क किया जा सकता है?
हाँ, परंतु आंशिक रूप से। CPC की धारा 60 में बताया गया है कि वेतन का केवल एक निर्धारित भाग ही कुर्क किया जा सकता है। आमतौर पर पहला ₹1000 छूट प्राप्त होता है और शेष का एक तिहाई हिस्सा कुर्क किया जा सकता है। सरकारी कर्मचारियों के मामले में विशेष अधिसूचना की आवश्यकता हो सकती है। यह सामाजिक सुरक्षा और जीवन निर्वाह के दृष्टिकोण से आवश्यक नियंत्रण है।
78. अंतरिम निषेधाज्ञा की अवधि कितनी हो सकती है?
अंतरिम निषेधाज्ञा की अवधि वाद की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। यह अस्थायी होती है और जब तक मुख्य वाद पर अंतिम निर्णय न हो जाए या न्यायालय इसे निरस्त न कर दे, तब तक प्रभावी रहती है। न्यायालय इसे समय-समय पर नवीनीकृत भी कर सकता है। यह आदेश न्यायिक विवेक और यथास्थिति की आवश्यकता पर आधारित होता है।
79. क्या अंतरिम आदेश के विरुद्ध अपील हो सकती है?
हाँ, CPC की धारा 104 और आदेश 43 के अंतर्गत कुछ अंतरिम आदेशों के विरुद्ध फर्स्ट अपील की अनुमति है, जैसे – निषेधाज्ञा देना या इनकार करना, पक्षकार जोड़ना या हटाना, जमानत संबंधी आदेश आदि। यदि आदेश अपील योग्य नहीं है, तब विशेष परिस्थिति में पुनरीक्षण याचिका या SLP का सहारा लिया जा सकता है।
80. निष्पादन में कौन-कौन से उपाय होते हैं?
डिक्री के निष्पादन हेतु न्यायालय निम्नलिखित उपाय कर सकता है:
- संपत्ति की कुर्की और नीलामी,
- कब्जा दिलाना,
- वेतन या किराये की कटौती,
- डिक्रीधारी को संपत्ति में प्रवेश दिलाना,
- गिरफ्तारी।
CPC का आदेश 21 इन सभी उपायों को नियंत्रित करता है। निष्पादन वादी को वास्तविक न्याय दिलाने का अंतिम चरण होता है।
81. क्या विदेशी डिक्री भारत में लागू की जा सकती है?
हाँ, CPC की धारा 13 और 14 के अनुसार यदि किसी ‘मान्य विदेशी न्यायालय’ द्वारा कोई डिक्री पारित की जाती है, तो वह भारत में क्रियान्वयन योग्य (enforceable) होती है, बशर्ते वह न्याय के सिद्धांतों और भारतीय कानून के विरुद्ध न हो। विदेशी डिक्री को भारत में निष्पादित करने हेतु निष्पादन याचिका दाखिल की जा सकती है।
82. निष्पादन में संपत्ति का वास्तविक कब्जा कैसे दिलाया जाता है?
CPC के आदेश 21 के नियम 35 व 36 के अनुसार, डिक्रीधारी को अचल संपत्ति का वास्तविक कब्जा दिलाने के लिए न्यायालय न्यायालयिक अधिकारी भेजता है जो कब्जा हटाकर डिक्रीधारी को अधिकार सौंपता है। यदि संपत्ति पर अवैध कब्जा हो तो बल प्रयोग करके कब्जा हटाया जा सकता है।
83. निर्णय की प्रमाणिक प्रति क्या होती है?
Certified Copy या प्रमाणिक प्रति वह प्रति होती है जिसे न्यायालय द्वारा हस्ताक्षरित और मोहरबंद किया गया हो और जो किसी निर्णय, आदेश या डिक्री की आधिकारिक प्रति होती है। इसे अपील या अन्य प्रक्रिया में उपयोग हेतु आवश्यक माना जाता है और इसे कोर्ट रेकॉर्ड सेक्शन से प्राप्त किया जा सकता है।
84. क्या सिविल वाद में पुनरुद्धार की अपील हो सकती है?
हाँ, यदि न्यायालय ने वाद को बहाल (Restore) करने से इनकार किया हो या बहाल किया हो और कोई पक्ष असंतुष्ट हो, तो वह CPC की धारा 104 और आदेश 43 के तहत अपील योग्य आदेश के रूप में उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है, बशर्ते आदेश अपील योग्य श्रेणी में आता हो।
85. क्या सीमाबद्ध वाद में संशोधन की अनुमति है?
हाँ, CPC की धारा 153-A और आदेश 6, नियम 17 के अनुसार, यदि वादी को यह लगता है कि उसकी याचिका में त्रुटि है या तथ्य अधूरे हैं, तो वह संशोधन (Amendment) के लिए आवेदन कर सकता है। न्यायालय आवश्यकतानुसार संशोधन की अनुमति दे सकता है, बशर्ते उससे न्याय की प्रक्रिया प्रभावित न हो।
86. क्या निष्पादन की अवधि के दौरान वाद विराम (Stay) किया जा सकता है?
हाँ, निष्पादन की अवधि में यदि प्रतिवादी यह दिखाता है कि वह अपील या पुनरीक्षण में है, तो न्यायालय धारा 151 या धारा 94 के तहत निष्पादन पर स्थगन (Stay) का आदेश दे सकता है। इससे न्यायिक अधिकार की रक्षा होती है और अपील का उद्देश्य सार्थक रहता है।
87. क्या मृत्यु के बाद वाद चल सकता है?
हाँ, CPC की धारा 107 और आदेश 22 के तहत, यदि वादी या प्रतिवादी की वाद लंबित रहते मृत्यु हो जाती है, तो उनके कानूनी उत्तराधिकारी (Legal Representatives) को वाद में सम्मिलित किया जा सकता है। ऐसा न होने पर वाद समाप्त मान लिया जाता है।
88. अंतरिम निषेधाज्ञा (Temporary Injunction) के लिए कौन-से तत्व आवश्यक हैं?
- prima facie मामला (प्रथम दृष्टया अधिकार),
- अपूरणीय क्षति (Irreparable Injury),
- संतुलन का लाभ (Balance of Convenience)।
CPC के आदेश 39, नियम 1 व 2 में इन तत्वों का उल्लेख है। यदि ये तत्व सिद्ध होते हैं, तो न्यायालय अंतरिम निषेधाज्ञा प्रदान कर सकता है।
89. सिविल न्यायालय की अधिकारिता को कब चुनौती दी जा सकती है?
CPC की धारा 9 कहती है कि सिविल न्यायालय सभी दीवानी मामलों में अधिकार रखता है जब तक कि किसी अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से उसे वर्जित न किया गया हो। यदि किसी विशेष अधिनियम में विशेष न्यायाधिकरण का प्रावधान है, तो सिविल न्यायालय की अधिकारिता को चुनौती दी जा सकती है।
90. Limitation Act की धारा 5 का क्या उद्देश्य है?
धारा 5 देरी क्षमा से संबंधित है। यह अपील, आवेदन या रिवीजन में देरी हो जाने पर न्यायालय को विवेकाधीन शक्ति देती है कि यदि देरी उचित कारणों से हुई हो, तो उसे क्षमा कर दिया जाए। यह न्याय सुलभता को बढ़ावा देती है।
91. निष्पादन में संयुक्त संपत्ति को कैसे विभाजित किया जाता है?
यदि डिक्रीबद्ध राशि की वसूली हेतु संयुक्त संपत्ति की कुर्की आवश्यक हो, तो न्यायालय उसमें से डिक्रीधारी के हिस्से का मूल्यांकन कर उसकी बिक्री की अनुमति देता है। यदि विभाजन संभव न हो तो पूरी संपत्ति की बिक्री कर अनुपातानुसार वितरण किया जाता है।
92. निष्पादन याचिका की अस्वीकृति के क्या कारण हो सकते हैं?
- डिक्री स्पष्ट न हो,
- समय सीमा समाप्त हो गई हो,
- निष्पादन योग्य आदेश न हो,
- संपत्ति का विवरण अधूरा हो,
- डिक्री पहले ही निष्पादित हो चुकी हो।
इन कारणों से न्यायालय निष्पादन याचिका को अस्वीकार कर सकता है।
93. क्या स्थायी निषेधाज्ञा दी जा सकती है?
हाँ, CPC की धारा 38 व 41 के अनुसार, यदि किसी कार्य से किसी के अधिकार को निरंतर हानि हो रही हो, और केवल क्षतिपूर्ति पर्याप्त न हो, तो न्यायालय स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) दे सकता है। यह वाद के अंतिम निर्णय के साथ दी जाती है।
94. क्या वादी एक ही समय में अंतरिम व स्थायी निषेधाज्ञा माँग सकता है?
हाँ, वादी यदि वाद की सुनवाई लंबी चलने की संभावना को देखते हुए तात्कालिक राहत चाहता है, तो वह अंतरिम निषेधाज्ञा और अंतिम निर्णय में स्थायी निषेधाज्ञा दोनों की माँग कर सकता है। यह न्यायिक लचीलापन दर्शाता है।
95. क्या डिक्री में त्रुटि को सुधारा जा सकता है?
हाँ, CPC की धारा 152 के अंतर्गत न्यायालय स्पष्ट त्रुटियों को, जैसे गणना की गलती या टाइपिंग की त्रुटियाँ, स्वयं या पक्षकार की याचिका पर सुधार सकता है। इससे डिक्री की सटीकता सुनिश्चित होती है।
96. वाद पत्र की वापसी (Return of Plaint) कब होती है?
यदि न्यायालय पाता है कि वाद उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में नहीं आता, तो वह वाद पत्र को वापसी के लिए आदेशित कर सकता है (Order 7 Rule 10)। वादी इसे उचित न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है। न्यायालय कारण सहित आदेश देता है।
97. क्या एक ही विवाद पर एक से अधिक वाद दायर हो सकते हैं?
नहीं, CPC की धारा 11 (Res Judicata) और Order 2 Rule 2 के अनुसार, एक ही विषय पर एक से अधिक वाद दायर नहीं किए जा सकते। यदि वादी ने पहले वाद में सभी दावे नहीं किए, तो बाद में वह शेष दावे दायर नहीं कर सकता।
98. विशेष सिविल वादों की सुनवाई की प्रक्रिया क्या होती है?
विशेष वाद, जैसे – विवाह विच्छेद, किराया विवाद, उपभोक्ता विवाद आदि, जिनके लिए विशेष अधिनियम हैं, उनकी सुनवाई सामान्य CPC के बजाय संक्षिप्त प्रक्रिया (summary procedure) या संबंधित अधिनियम के नियमों के अनुसार होती है। CPC का अनुप्रयोग सीमित रूप में होता है।
99. क्या निष्पादन याचिका में संशोधन किया जा सकता है?
हाँ, यदि निष्पादन याचिका में कोई तकनीकी त्रुटि हो, या संपत्ति विवरण आदि में परिवर्तन हो, तो डिक्रीधारी न्यायालय से संशोधन की अनुमति मांग सकता है। CPC की धारा 151 या आदेश 6 नियम 17 के तहत संशोधन संभव है।
100. क्या अंतरिम निषेधाज्ञा का उल्लंघन दंडनीय है?
हाँ, CPC की धारा 94 और आदेश 39, नियम 2-A के अनुसार, यदि कोई पक्ष न्यायालय द्वारा जारी अंतरिम निषेधाज्ञा का उल्लंघन करता है, तो उसके विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही, जैसे – संपत्ति की कुर्की या कारावास, की जा सकती है। इससे न्यायालय की गरिमा सुरक्षित रहती है।