BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन वापस लेने की सहमति से इनकार और आरोपी के ट्रायल कोर्ट में अधिकारों का विश्लेषण

लेख शीर्षक: BNSS की धारा 360 के तहत अभियोजन वापस लेने की सहमति से इनकार और आरोपी के ट्रायल कोर्ट में अधिकारों का विश्लेषण

परिचय:
भारतीय न्याय प्रणाली में अभियोजन को वापस लेने (Withdrawal from Prosecution) की प्रक्रिया अभियोजन पक्ष (Public Prosecutor) और न्यायालय दोनों की संतुलित भूमिका पर आधारित है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (अब भारत न्याय संहिता – BNSS) की धारा 360 इस प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। यह धारा अभियोजन अधिकारी को किसी मामले को वापस लेने की अनुमति प्राप्त करने के लिए सक्षम न्यायालय से अनुमति लेने का अधिकार देती है। लेकिन जब अभियोजन को वापस लेने की सहमति नहीं दी जाती, तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या आरोपी को इस निर्णय को चुनौती देने का कोई अधिकार है?

धारा 360 का उद्देश्य और प्रावधान:
BNSS की धारा 360 अभियोजन पक्ष को किसी मामले को “सार्वजनिक हित” में वापस लेने की अनुमति देती है, बशर्ते न्यायालय इससे सहमत हो। अभियोजन की वापसी मुख्यतः दो चरणों में होती है—

  1. चार्ज फ्रेम होने से पहले,
  2. चार्ज फ्रेम होने के बाद, न्यायालय की अनुमति से।

न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होता है कि वापसी का निर्णय किसी राजनीतिक या दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से नहीं लिया गया है और यह निष्पक्षता के सिद्धांतों के अनुरूप है।

अभियोजन वापसी की सहमति न मिलने की स्थिति:
यदि ट्रायल कोर्ट अभियोजन को वापस लेने की अनुमति नहीं देता, तो आमतौर पर अभियोजन जारी रहता है। यहां एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न यह है कि क्या आरोपी को यह अधिकार है कि वह इस निर्णय को चुनौती दे या उस पर आपत्ति जताए?

भारतीय न्याय प्रणाली में आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई और त्वरित न्याय का अधिकार प्राप्त है, लेकिन उसे यह अधिकार नहीं है कि वह अभियोजन को रोकने या वापस लेने के लिए कोर्ट को बाध्य कर सके। यह न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति है। हालांकि, यदि अभियोजन वापसी के पीछे कोई वैध कारण हो—जैसे गवाहों की अनुपलब्धता, साक्ष्यों की कमी, या समझौता—और न्यायालय इन कारणों को अस्वीकार करता है, तो आरोपी ऊपरी अदालत (जैसे हाईकोर्ट) में इसकी पुनरावृत्ति के लिए आवेदन कर सकता है।

न्यायालय का दृष्टिकोण:
भारत के सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने कई निर्णयों में स्पष्ट किया है कि अभियोजन की वापसी केवल अभियोजन अधिकारी और न्यायालय के बीच का विषय है। आरोपी को इससे कोई मौलिक अधिकार नहीं प्राप्त होता कि वह वापसी की मांग कर सके या इसके न होने पर आपत्ति दर्ज कर सके। उदाहरण के लिए, State of Punjab v. Union of India जैसे मामलों में न्यायालय ने अभियोजन वापसी को न्यायिक विवेक के अधीन माना है।

निष्कर्ष:
BNSS की धारा 360 अभियोजन अधिकारी और न्यायालय को अभियोजन वापसी के संदर्भ में विवेकाधीन शक्ति प्रदान करती है। यदि न्यायालय सहमति नहीं देता, तो आरोपी को स्वतः इसका लाभ नहीं मिल सकता। हालांकि, यदि अभियोजन वापसी का कारण मजबूत हो और न्यायालय बिना ठोस आधार के मना करे, तो आरोपी या अभियोजन पक्ष उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। यह प्रक्रिया न्याय की निष्पक्षता, न्यायालय की स्वतंत्रता और आरोपी के अधिकारों के संतुलन को बनाए रखने का कार्य करती है।