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BNSS अधिनियम के तहत नोटिस की पालना करने के बाद यदि पुलिस कारण नहीं रिकॉर्ड करे तो गिरफ्तारी अवैध

“BNSS अधिनियम के तहत नोटिस की पालना करने के बाद यदि पुलिस कारण नहीं रिकॉर्ड करे तो गिरफ्तारी अवैध: मुंबई उच्च न्यायालय का एक मिसाल न्यायादेश”


परिचय

राज्य की पुलिस को नागरिकों की स्वतंत्रता सुरक्षा की भारी जिम्मेदारी होती है। लेकिन कानून और संविधान ने पुलिस की विवशता को सीमित किया है ताकि व्यक्तिगत आज़ादी (personal liberty) पर अनावश्यक हस्तक्षेप न हो सके। Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 (BNSS) ने इस दृष्टिकोण को और मजबूत किया है, विशेष रूप से उन मामलों में जहाँ आरोपी ने पुलिस द्वारा जारी नोटिस का पालन किया है।

हाल ही में मुंबई (Bombay) उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि किसी आरोपी ने BNSS की धारा 35(3) के तहत पुलिस नोटिस का पालन किया है, तो पुलिस तुरंत गिरफ्तारी नहीं कर सकती, बशर्ते वह लिखित कारणों (reasons in writing) को रिकॉर्ड न करे। इस तरह की गिरफ्तारी कानून के दायरे से बाहर मानी जाएगी। यह निर्णय न्यायिक विवेक, संवैधानिक निर्देश तथा नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।


BNSS में नोटिस और गिरफ्तारी की व्यवस्था

BNSS अधिनियम ने पारंपरिक CrPC प्रावधानों को संशोधित एवं विस्तारित किया है। विशेष रूप से धारा 35 महत्वपूर्ण है:

  • धारा 35(3): यदि कोई संज्ञेय अपराध (cognizable offence) सामने है और आरोपी पर विश्वसनीय सूचना या संदेह हो, तो पुलिस पहले उसे नोटिस (notice to appear) जारी करे और उसे उपस्थित होने का अवसर दे।
  • धारा 35(5): यदि आरोपी नोटिस के अनुसार उपस्थित हो जाए और सहयोग करता रहे, तो पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर सकती, जब तक कि लिखित कारण (reasons to be recorded) न हों कि विशेष स्थिति में गिरफ्तारी आवश्यक है।
  • यह व्यवस्था एक संरोधक तंत्र (safeguard) है ताकि गिरफ्तार करने की शक्ति स्वेच्छा से प्रयोग न हो।

मुंबई उच्च न्यायालय ने इस कानून की व्याख्या करते हुए कहा कि यदि पुलिस नोटिस की पालना के बावजूद गिरफ्तारी करती है, तो पहले उसे यह दिखाना होगा कि उन्होंने लिखित कारण रिकॉर्ड किए जो उन्हें यह भरोसा दिलाते हों कि गिरफ्तारी आवश्यक थी। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो गिरफ्तारी अवैध मानी जाएगी।


निर्णय का तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

यह मामला Vicky @ Vikky Vilas Kamble v. State of Maharashtra से जुड़ा है। वहाँ यह तथ्य प्रस्तुत हुए:

  • शिकायतकर्ता ने आर्थिक धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप था कि आरोपी ने निवेश योजनाओं द्वारा ₹47 लाख से अधिक की ठगी की।
  • पुलिस ने आरोपी को BNSS धारा 35 के तहत नोटिस जारी किया कि वह पुलिस स्टेशन उपस्थित हो। आरोपी ने नोटिस की पालना की और बयान दिया।
  • इसके बाद पुलिस ने आरोपी की गिरफ्तारी की — लेकिन लिखित कारण पुलिस द्वारा रिकॉर्ड नहीं किए गए।
  • आरोपी को 24 घंटे के भीतर न्यायालय में पेश नहीं किया गया।
  • न्यायालय ने पाया कि गिरफ्तारी “नियत (in substance)” द्वारा की गई थी, क्योंकि आरोपी को कंट्रोल में ले लिया गया था। और 24 घंटे की अवधि का उल्लंघन तथा कारण न बताने की पद्धति दोनों ही संवैधानिक और विधिक रूप से अनुचित थीं।

न्यायमंडल ने इस गिरफ्तारी को BNSS की धारा 35(5) का उल्लंघन माना और आदेश दिया कि आरोपी को तात्कालिक रिहाई दी जाए यदि अन्य मामलों में उसकी ज़रूरत न हो।


न्यायालय का तर्क और विश्लेषण

मुंबई हाईकोर्ट के निर्णय में निम्नलिखित कानूनी एवं संवैधानिक तर्क प्रमुख हैं:

  1. नोटिस का पालन और गिरफ्तारी का प्रतिबंध
    • यदि आरोपी नोटिस के अनुरूप उपस्थित हो और सहयोग करता रहा है, तो पुलिस को स्वतः गिरफ्तारी नहीं करनी चाहिए। ऐसी गिरफ्तारी केवल विशेष स्थितियों में हो सकती है — और लिखित कारण रिकॉर्ड करने के बाद
    • यदि पुलिस बिना कारण लिखे गिरफ्तार करती है, तो यह BNSS धारा 35(5) का स्पष्ट उल्लंघन होगा।
  2. लिखित कारणों की अनिवार्यता
    • सिर्फ “मुझसे विश्वास है” अथवा “मुझे शक है” — जैसे सामान्य वाक्य पर्याप्त नहीं हैं। पुलिस को विशिष्ट, ठोस, संगत कारण लिखित रूप में प्रस्तुत करना होगा।
    • यदि ये कारण रिकॉर्ड नहीं किए गए, तो गिरफ्तारी की प्रक्रिया ही अवैध मानी जाएगी।
  3. 24 घंटे के भीतर न्यायालय में पेश करना
    • BNSS के तहत (जैसा कि CrPC में पहले था) आरोपी को गिरफ्तारी के 24 घंटे (अदालत तक पहुंचाने के समय को छोड़कर) के भीतर मोजूद न्यायालय के समक्ष पेश करना अनिवार्य है। यदि यह समय सीमा पार हो जाए, तो गिरफ्तारी और रिमांड दोनों ही अवैध कहे जाएंगे।
    • इस मामले में कोर्ट ने देखा कि आरोपी को देर से न्यायालय में पेश किया गया, जो संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  4. मौलिक अधिकार और संवैधानिक समरक्षक
    • गिरफ्तारी और दृष्टिकोण दोनों मामलों में अनुच्छेद 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 22(2) (पकड़े जाने पर तुरंत न्यायालय के सामने पेश करने का अधिकार) लागू होते हैं।
    • जब पुलिस प्रक्रिया कानून द्वारा निर्धारित रूप से नहीं होती, तो व्यक्ति की आज़ादी छीनना, संविधान और कानून की मूल भावना दोनों के खिलाफ है।
  5. गिरफ्तारी का “स्वाभाविक” नियंत्रण
    • न्यायालय ने यह भी माना कि जब आरोपी पुलिस नियंत्रण में आ जाता है, चाहे “गिरफ्तारी” शब्द न प्रयोग हो, यदि वह संप्रभु नियंत्रण में हो, वह गिरफ्तारी मानी जाएगी। उसी क्षण से 24-घंटे की अवधि गिने जाएँगी।
    • इसी आधार पर पुलिस द्वारा आरोपी को किसी अन्य स्थान पर ले जाना भी गिरफ्तारी की क्रिया मानी गई।

कानूनी और व्यावहारिक निहितार्थ

यह फैसला सिर्फ एक विशिष्ट मामले तक सीमित नहीं है — इसके कई व्यापक प्रभाव हैं:

  1. पुलिस क्रियाओं पर नया अनुशासन
    पुलिस अधिकारी अब नोटिस पालन के बाद बिना लिखित कारण गिरफ्तारी नहीं कर सकते। यह उन्हें अधिक सोच-विचार करने पर बाध्य करेगा और स्वेच्छा से गिरफ्तारी की प्रवृत्ति को रोकेगा।
  2. नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा
    व्यक्ति को यह अधिकार मिलेगा कि यदि उसने उचित प्रक्रिया का पालन किया हो, तो उसे अनियंत्रित गिरफ्तारी से सुरक्षा मिले। यह एक मजबूत संवैधानिक सुरक्षा तंत्र है।
  3. अदालती समीक्षा का दायरा
    अदालतों को अब यह देखने का अधिकार मिल गया है कि क्या गिरफ्तारी के समय लिखित कारण प्रस्तुत किए गए हैं या नहीं। यदि नहीं, तो गिरफ्तारी रद्द की जा सकती है और हिबियस कॉर्पस (Habeas Corpus) याचिका सफल हो सकती है।
  4. न्यायपालिका का संदेश
    यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका संवैधानिक गारंटी और प्रक्रिया का उल्लंघन करने वाले पुलिस विधेयों के आचरण को बर्दाश्त नहीं करेगी
  5. BNSS की प्रभावशीलता
    इस निर्णय से यह साफ हो गया है कि BNSS अधिनियम महज शब्दों में ही नहीं, बल्कि वास्तविक क्रियान्वयन में भी नागरिक सुरक्षा उपकरण बन सकता है।

पूर्व और समकालीन निर्णयों के संदर्भ

  • सुप्रीम कोर्ट ने Prabir Purkayastha v. State of NCT of Delhi में स्पष्ट किया है कि गिरफ्तारी पर लिखित कारणों की सूचना देना एक मौलिक और संवैधानिक दायित्व है।
  • इसी प्रकार, CrPC काल के दौरान भी न्यायालयों ने यह माना है कि यदि गिरफ्तारी के दौरान गिरफ्तारी का कारण नहीं बताया गया, तो गिरफ्तारी अवैध है।
  • BNSS अधिनियम ने इन अवधारणाओं को और सख्ती से विधिसम्मत स्वरूप दिया है, और मुंबई HC का निर्णय उसी संवैधानिक और कानूनी धारा का विस्तार है।

कुछ चुनिंदा विवादास्पद प्रश्न

  1. क्या हर घटना में लिखित कारण अपेक्षित है?
    हाँ — यदि आरोपी ने नोटिस का पालन किया हो और पुलिस को गिरफ्तारी की आवश्यकता हो, तो लिखित कारण देना अनिवार्य है।
  2. क्या मौखिक सूचना पर्याप्त होगी?
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सिर्फ मौखिक उल्लेख पर्याप्त नहीं है — लिखित कारण अवश्य प्रस्तुत किए जाने चाहिए।
  3. कितना समय लगता है लिखित कारण देने में?
    कानून यह कहता है कि “तुरंत (forthwith)” — संभव हो सके तो उसी समय, या यथाशीघ्र। यदि कारण देर से दिए जाएँ, तो यह अवैधता का आधार हो सकती है।
  4. क्या गिरफ्तारी वाजिब हो सकती है यदि कारण रिकॉर्ड हों?
    हाँ — यदि लिखित कारणों में तथ्य, संदेह, जांच आवश्यकता आदि स्पष्ट हों, तो पुलिस गिरफ्तारी कर सकती है, और वह वैध होगी।

समापन एवं निष्कर्ष

मुंबई उच्च न्यायालय का यह निर्णय एक संविधान-उन्मुख, नागरिक-समर्थक और प्रक्रियात्मक अनुशासन का प्रतीक है।
BNSS अधिनियम के तहत पुलिस की गिरफ्तारी शक्ति को नियंत्रित एवं उत्तरदायी बनाया गया है, और यदि पुलिस उन सीमाओं का उल्लंघन करे — विशेष रूप से नोटिस की पालना एवं लिखित कारणों की अभाव — तो ऐसी गिरफ्तारी निष्प्रभावित और अवैध मानी जाएगी।

यह निर्णय नागरिकों को यह आश्वासन देता है कि यदि उन्होंने उचित प्रक्रिया का पालन किया हो, तो उनकी आज़ादी को सुरक्षित रखा जाएगा। और पुलिस को यह याद दिलाता है कि शक्ति दंड नहीं, बल्कि सुरक्षा और न्याय के लिए है।