Alternative Dispute Resolution System Short Answer

– : लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

प्रश्न 1. विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय क्या हैं? बताइये। What is Alternative means of Dispute Redressal? Explain.

उत्तर– विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें न तो कोई पक्षकार हारता है न ही किसी पक्षकार की इसमें विजय होती है। आपसी सद्भावना तथा आपसी लेनदेन के माध्यम से तनिक-सा त्याग भविष्य में उत्पन्न होने वाली महानतम् कठिनाइयों को निवारित करने का अवसर पक्षकारों के लिए यह माध्यस्थम् प्रदान करता है। इसमें पक्षकार स्वयं करार द्वारा न्यायालय की तकनीकी परेशानियों से अपना बचाव कर सकते हैं तथा थोड़ी-सी समझ अपनाकर बड़े से बड़े भावी संग्राम निवारित करने का अवसर प्रदान करते हैं।

    किसी विवाद के निस्तारण के निम्नलिखित वैकल्पिक उपाय हो सकते हैं-

(1) समझौता तथा मध्यस्थता द्वारा (Conciliation and Mediation)

(2) बातचीत के द्वारा (By Negotiation)

(3) मेडोला की प्रक्रिया द्वारा (By Medola)

(4) मध्य-मध्यस्थता द्वारा

(5) लघु विचारण द्वारा

(6) द्रुतगति माध्यस्थम् द्वारा ।

प्रश्न 2. अनुकल्पी विवाद निपटारा के लाभ बतलाइये?

Explain Advantage of Alternative Dispute Resolution (ADR).

उत्तर- अनुकल्पी विवाद निपटारा के लाभ-विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के निम्न लाभ हैं-

(i) इसका उपयोग किसी भी समय किया जा सकता है, यहाँ तक कि यदि विवाद न्यायालय में लम्बित हों तो उन्हें विवाद के किसी पक्षकार द्वारा किसी भी समय समाप्त किया जा सकता है (बाध्यकारी माध्यस्थम् को छोड़कर) ।

(ii) इन विवादों का हल मुकदमेबाजी की अपेक्षा त्वरित रूप से तथा कम खर्च पर हो सकता है। इनसे विवाद को व्यक्तिगत विषय-वस्तु बनाये रखने में सहायता मिलती है। कभी-कभी इनसे विवाद का निस्तारण एक या दो दिनों में ही हो जाता है चूँकि विवादों के वैकल्पिक निस्तारण के उपायों की प्रक्रिया पक्षकारों के नियन्त्रण में रहती है अतः इनसे मामलों का सृजनात्मक तथा वास्तविक हल (Solution) प्राप्त होता है।

(iii) विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के अन्तर्गत प्रक्रिया लचीली (Flexible) होती है तथा जहाँ प्रक्रिया कठोर प्रक्रियात्मक नियमों से प्रभावी नहीं होती।

(iv) चूँकि विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक उपायों (ADR) के अन्तर्गत विवाद ३ पक्षकारों को एक-दूसरे को समझाने में सहायता मिलती है। इसे समय के बर्बादी नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 3. माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 का संक्षिप्त इतिहास लिखिए। Write a brief History of Arbitration and Concilation Acts 1996.

उत्तर—माध्यस्थम् (Arbitration) एक ऐसा तरीका है जिसके अन्तर्गत विवाद के पक्षकार अपनी सहमति से करार करके, एक या अधिक माध्यस्थम् नियुक्त करके विवाद का उसके निर्णय के लिए सौंपते हैं या सन्दर्भित करते हैं। माध्यस्थम की प्रक्रिया को एक विधिक रूप वर्तमान समय में दिया गया है, वैसे इस बारे में प्रावधान प्राचीन समय से ही विद्यमान है। लेकिन इसे विधिक रूप देने का प्रयास 1859 की दीवानी प्रक्रिया संहिता के माध्यम से किया गया। लेकिन यहाँ पर भी किसी अन्य अधिनियम के माध्यम से माध्यस्थम् को संरक्षित करने का प्रयास नहीं किया गया। सन् 1899 का वर्ष माध्यस्थम् के लिए स्वर्णिम युग बनकर आया जब इस वर्ष माध्यस्थम् पर एक स्वतन्त्र अधिनियम बना जिसे “माध्यस्थम् अधिनियम, 1899” के नाम से जाना गया। इस अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि जिस माध्यस्थम् को विवाद या मतभेद का सन्दर्भ किया जाना हो, वह विवाद के पक्षकारों द्वारा नियुक्त किया जाएगा तथा न्यायालय के समक्ष लम्बित वादों को पक्षकारों के विरोध करने पर न्यायालय उसे माध्यस्थम् को सन्दर्भित नहीं कर सकता था। इस अधिनियम के माध्यम से प्रथम बार भविष्य में उत्पन्न होने वाले सम्भावित विवादों या मतभेदों को माध्यस्थम् को सौंपने की व्यवस्था की गयी। वर्ष 1940 में केन्द्रीय स्तर पर माध्यस्थम् अधिनियम का गठन किया गया। माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 घरेलू या राष्ट्रीय माध्यस्थम के सम्बन्धों में सम्पूर्ण भारत के लिए समान प्रावधान करता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि के फलस्वरूप एक ऐसी विधि की आवश्यकता महसूस की गयी जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् तथा विदेशी पंचाट को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो। इस क्रम में जेनेवा अभिसमय, 1927 तथा न्यूयार्क अभिसमय, 1958 सम्पन्न हुआ। इन अभिसमयों की संस्तुति पर क्रमशः माध्यस्थम् अधिनियम, 1937 तथा विदेशी पंचाट अधिनियम, 1961 पारित हुए। अब भारतीय माध्यस्थम् अधिनियम को भी अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय तथा अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् के अनुरूप लाने के लिए संशोधन की आवश्यकता महसूस की गयी। यह आवश्यकता 1996 के माध्यस्थम् अधिनियम द्वारा पूरी हो गयी और इस समय यही विधि अस्तित्व में है।

प्रश्न 4. माध्यस्थम से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Arbitration?

उत्तर- माध्यस्थम् – माध्यस्थम् का अर्थ है दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा अपने विवादों को मध्यस्थ नामक एक तीसरे व्यक्ति को निर्णय करने के लिए सुपुर्द करना जो विवाद का निर्णय न्यायिक तरीके से करता है। माध्यस्थम् को परिभाषित करते हुए जान बी० साउण्डर्स ने कहा है कि-

     ‘माध्यस्थम् दो या दो से अधिक पक्षकारों के मध्य विवाद या मतभेद को दोनों पक्षकारों को न्यायिक रूप से सुनने के पश्चात् निर्णय के लिए ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को किया गया सन्दर्भ है जो सक्षम क्षेत्राधिकार का न्यायालय नहीं है।”

माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (1) का खण्ड (क) माध्यस्थम् की निम्न परिभाषा करता है- “माध्यस्थम् से कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत है जो चाहे स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा किया गया हो या नहीं।’

    उपरोक्त परिभाषाओं के निष्कर्ष स्वरूप देखें तो अधिनियम को परिभाषा स्पष्ट नहीं है। क्योंकि परिभाषा के अनुसार, माध्यस्थम् सिर्फ स्थायी या अस्थायी संस्था द्वारा प्रशासित हो सकता है जबकि यह आवश्यक नहीं है कि माध्यस्थम् स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा ही प्रशासित हो।

     अतः माध्यस्थम् ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को पक्षकारों के मतभेद या विवाद का सन्दर्भ है, जिसे मध्यस्थ कहा जाता है जिसकी नियुक्ति पक्षकार आपसी सहमति से करार द्वारा कर सकते हैं तथा जो सक्षम क्षेत्राधिकार का न्यायालय नहीं है। माध्यस्थम् न्यायिक प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्णय के लिए न्यायलय में दाखिल किया गया बाद नहीं है।

प्रश्न 5. माध्यस्थम् करार से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Arbitration Agreement?

उत्तर- माध्यस्थम् करार (Arbitration Agreement)— माध्यस्थम करार किन्हीं पक्षकारों के मध्य किया गया ऐसा करार होता है जिसके अन्तर्गत पक्षकार किसी ऐसे विवाद को माध्यस्थम् को सौंपते हैं जो उनके मध्य संविदात्मक या अन्य विशिष्ट विधिक सम्बन्धों से सन्दर्भित होते हैं। चाहे विवाद उत्पन्न हुआ हो या विवाद उत्पन्न होने की भविष्य में | सम्भावना हो। एक माध्यस्थम् करार में करार की सभी आवश्यक शर्तें विद्यमान होनी चाहिए। इस करार के लिए भी पक्षकारों के मध्य स्वतन्त्र सहमति होनी चाहिए। माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 (1) (ख) के अनुसार, माध्यस्थम करार से तात्पर्य इसी अधिनियम की धारा 7 को सन्दर्भित माध्यस्थम् करार से है। धारा 7 (1) माध्यस्थम् करार को दो पक्षकारों के बीच एक ऐसे करार के रूप में परिभाषित करती है जिसके द्वारा विवाद के | पक्षकार किसी ऐसे विवाद को माध्यस्थम् को सौंपते हैं जिसका अस्तित्व है या जिसका अस्तित्व भविष्य में दिखायी देता हो माध्यस्थम् करार के लिए जरूरी शर्त नहीं है कि पक्षकारों के बीच विवाद का अस्तित्व करार के समय हो। अगर पक्षकारों को इस बात की आशंका हो कि भविष्य में इनके बीच किसी भी प्रकार के विवाद उत्पन्न होने की सम्भावना है के इस प्रकार के विवाद को भी किसी माध्यस्थम् को सुपुर्द कर दिये जाने का उपबन्ध है।

प्रश्न 6. माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व ।Essentials of arbitration agreements.

उत्तर- माध्यस्थम् करार के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-

(1) माध्यस्थम् करार का कोई निर्धारित प्रारूप न होना। (2) माध्यस्थम् करार का लिखित होना।

(3) माध्यस्थम् करार स्पष्ट व असंदिग्ध होना।

(4) माध्यस्थम् करार में संविदा के सारे तत्वों का होना।

(5) माध्यस्थम् करार के लिए पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित एवं लिखित स्वीकृति होना जरूरी नहीं।

(6) माध्यस्थम् करार को व्याख्या का उदारता पूर्वक किया जाना।

प्रश्न 7. एक मध्यस्थ पर आक्षेप के आधार । Ground for challenge of an Arbitrator.

उत्तर- एक मध्यस्थ पर आक्षेप के आधार (Grounds for challenge of an arbitrator)— माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 12 उन आधारों का वर्णन करती है जिनके अन्तर्गत मध्यस्थ पर आक्षेप किया जा सकता है तथा मध्यस्थ के प्राधिकार को चुनौती दी जा सकती है। धारा 12 के अनुसार निम्न चार आधार हैं-

(1) जब किसी व्यक्ति के पास उसकी मध्यस्थ के रूप में सम्भाव्य नियुक्ति के सम्बन्ध में पहुँचा जाया जाता है, तब वह ऐसी परिस्थितियों के विषय में लिखित में प्रकट करेगा जिनमें उसकी स्वतन्त्रता या निष्पक्षता के सम्बन्ध में न्यायोचित सन्देहों को जन्म देने की सम्भावना पायी जाती है।

(2) एक मध्यस्थ अपनी नियुक्ति की तिथि से और सम्पूर्ण माध्यस्थम् कार्यवाहियां के दौरान पक्षकारों के समक्ष उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी परिस्थिति के विषय में लिखित में, विलम्ब के बिना प्रकट कर देगा जब तक उन्हें उसके द्वारा पहले से ही संसूचित न कर दिया गया हो।

(3) एक मध्यस्थ को केवल तभी चुनौती दी जा सकती है, यदि- (क) वे परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जो उसकी स्वतन्त्रता या निष्पक्षता के सम्बन्ध में न्यायोचित सन्देहों को जन्म देती हैं, या

(ख) वह पक्षकारों द्वारा किये गये करार की योग्यताओं को धारण नहीं करता है ।

(4) एक पक्षकार अपने द्वारा नियुक्त किये गये मध्यस्थ या जिसकी नियुक्ति में उसने भाग लिया है, को केवल उन्हीं कारणों पर चुनौती दे सकता है जिसके विषय में उसे जानकारी उसको नियुक्ति के बाद होती है।

प्रश्न 8. मध्यस्थता एवं माध्यस्थम् Mediation and Arbitration.

उत्तर- मध्यस्थता (Mediation) – मध्यस्थता को बीच-बचाव के नाम से भी जाना जाता है। बीच-बचाव विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों में वार्तालाप के बाद आता है यानि वार्तालाप या बातचीत जब असफल हो जाती है तब बीच-बचाव की स्थिति आती है। बीच-बचाव के द्वारा विवाद के निस्तारण के लिए किसी निरपेक्ष व्यक्ति की सहायता ले ‘सकते हैं। इस माध्यम के अन्तर्गत एक तृतीय व्यक्ति जिसका विवाद से कोई सम्बन्ध नह रहता, पक्षकारों को एक हल पर पहुँचने के लिए प्रेरित करता है। इसके लिए वह अपने सद्भाव तथा प्रभाव का प्रयोग कर सकता है। इसका कार्य पक्षकारों को समझाना है। वह विवाद के पक्षकारों को विवाद की विषय वस्तु के सम्बन्ध में आदान-प्रदान के लिए प्रेरित करता है।

     माध्यस्थम् (Arbitration) – माध्यस्थम् का अर्थ दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा अपने विवादों को माध्यस्थम् नामक एक तृतीय व्यक्ति को निर्णय के लिए सुपुर्द या सन्दर्भित करना है जो विवाद का निर्णय न्यायिक तरीके से करता है।

प्रश्न 9. माध्यस्थता का स्थान कौन-सा होगा? What should be the place of Arbitration?

उत्तर- माध्यस्थम् का स्थान (Place of Arbitration)- माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 20 यह प्रावधान करती है कि माध्यस्थम् के पक्षकार माध्यस्थम् का स्थान सहमति के आधार पर चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं।

(1) पक्षकारगण माध्यस्थम् के स्थान के विषय में करार करने के लिए स्वतन्त्र हैं।

(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट किये गये किसी करार को करने में असफल रहने पर माध्यस्थम् का स्थान, माध्यस्थम् न्यायाधिकरण द्वारा पक्षकारों की सुविधा के साथ-साथ मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अवधारित किया जायेगा।

(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी माध्यस्थम् न्यायालय, जब तक पक्षकारों द्वारा अन्यथा करार नहीं किया जाता है, किसी भी ऐसे स्थान, जो वह उचित समझे, पर अपने सदस्यों के साथ परामर्श करने के लिए साक्षियों, विशेषज्ञ या पक्षकारों को सुनने के लिए या दस्तावेजों, मालों या अन्य सम्पत्ति या निरीक्षण करने के लिए बैठक (Meeting) कर सकेगा।

     इस प्रकार माध्यस्थम अधिकरण माध्यस्थम् कार्यवाही के स्थान के निर्धारण के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। इस सहूलियत का लाभ यह है कि पक्षकार अपने उद्योग के स्थान का या सुविधाजनक स्थान का चयन करने में समर्थ होंगे उससे समय तथा धन की बचत होगी।

प्रश्न 10. मध्यस्थ की नियुक्ति । Appointment of Arbitrator.

उत्तर – मध्यस्थ की नियुक्ति (Appointment of Arbitrator) – माध्यस्थम् अधिकरण के लिए मध्यस्थों की नियुक्ति से सम्बन्धित उपबन्ध धारा 11 में किया गया है। मध्यस्थ की कोई विशिष्ट अर्हता निर्धारित नहीं की गयी है। अतः मध्यस्थ के रूप में कोई भी • व्यक्ति नियुक्त हो सकता है फिर भी यह ध्यान रखा जाता है कि मध्यस्थ विवादित विषय वस्तु में विशिष्ट जानकारी तथा कौशल रखने वाला ही होना चाहिए। यहाँ तक कि पक्षकारों के नाते – निश्तेदार तथा सम्बन्धी भी मध्यस्थ नियुक्त किये जा सकते हैं। अतः मध्यस्थ की • एकमात्र अर्हता उसकी निष्पक्षता, स्वतन्त्रता या नैतिकता तथा समर्पण है। मध्यस्थ के निर्णय को पक्षपात, भ्रष्टाचार या कपटपूर्ण आचरण के आधार पर अपास्त किया जा सकता है। विवाद के पक्षकार जितनी संख्या में चाहें, मध्यस्थ नियुक्त कर सकते हैं, परन्तु उनकी संख्या सम न हो जब तक कि पक्षकारों के मध्य अन्यथा करार न हो। विवाद के पक्षकार किसी भी राष्ट्र के नागरिकों का चुनाव कर सकते हैं। इस चुनाव प्रक्रिया का निर्धारण आपसी सहमति या करार द्वारा किया जा सकता है।

     कई मध्यस्थों से मिलकर माध्यस्थम् अधिकरण बनता है जिसमें तीन सदस्य होंगे। एक एक मध्यस्थ की नियुक्ति स्वयं पक्षकार करेंगे तथा तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति चुने गये मध्यस्थ ही करेंगे। परन्तु यह 30 दिनों के भीतर ही होना आवश्यक है। इसकी अवधि बीत जाने पर किसी एक पक्षकार के अनुरोध पर मुख्य न्यायाधीश या कोई नामित व्यक्ति ही कर सकता है।

प्रश्न 11. न्यायालय । Court.

उत्तर- न्यायालय (Court) – माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (1) का खण्ड (ङ) के अन्तर्गत दी गई न्यायालय की परिभाषा अत्यन्त विस्तृत है। इस परिभाषा की परिधि में जिले की दीवानी अदालत के साथ-साथ मूल दीवानी क्षेत्राधिकार वाले उच्च न्यायालय को भी सम्मिलित किया गया है। माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1998 की धारा 2 की उपधारा (1) खण्ड (ङ) द्वारा यह स्पष्ट किया गया है। कि कोई भी दोवानी न्यायालय जो जिले के मुख्य न्यायालय (Principal Court) से निम्नतर (Inferior) हो तो वह इस अधिनियम के अन्तर्गत न्यायालय नहीं कहा जा सकता है।

     नाचप्पा चेट्टीयार बनाम सुब्रमनियम चेट्टियार, ए० आई० आर० 1960 एस० सी० 2075 के मामले में यह स्पष्ट किया गया है कि न्यायालय शब्द के अन्तर्गत अपीलीय यायालय (Appellate Court) तथा पुनरीक्षणीय न्यायालय (Revisional Court) भी शामिल होते हैं। माध्यस्यम् अधिनियम, 1940 के अन्तर्गत माध्यस्थम् पंचाट केवल उसी न्यायालय में संस्थित किया जा सकता है जिस न्यायालय को विवादग्रस्त विषय-वस्तु को एक वाद (Suit) के रूप में क्षेत्राधिकार प्राप्त हो। वर्तमान अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत माध्यस्थम् पंचाट को न्यायालय में संस्थित किये जाने की कोई बाध्यता नहीं है।

     इस प्रकार हम देखते हैं कि न्यायालय में निम्नलिखित न्यायालय सम्मिलित हैं –

(i) जिले के प्रमुख दीवानी न्यायालय (Principal Civil Court of District)

(ii) उच्च न्यायालय तथा अपीलीय न्यायालय (High Court and Appellate Court)

(iii) पुनरीक्षणकर्ता न्यायालय (Revisional Court)।

प्रश्न 12. माध्यस्थम् के प्रकारों को बतलाइये। Give the kinds of Arbitration.

उत्तर- माध्यस्थम् के प्रकार – माध्यस्थम् तीन प्रकार का होता है-

(i) व्यक्तिगत माध्यस्थम् या घरेलू माध्यस्थम् (Personal Arbitration Domestic Arbitration)

(ii) सांविधिक माध्यस्थम् या कानूनी माध्यस्थम् या अधिनियमिति माध्यस्थम् (Statutory Arbitration or Arbitration under Inactment)

(iii) अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् (International Arbitration)

प्रश्न 13.    माध्यस्थम् करार के पक्षकार को परिभाषित कीजिए। Define the parties of Arbitration Agreement.

उत्तर- पक्षकार (Parties) – माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (1) (ज) में पक्षकार को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार ‘पक्षकार’ से तात्पर्य माध्यस्थम् करार के पक्षकार से है। सामान्यतः न्यायालय में पक्षकारों को वादी और प्रतिवादी कहा जाता है, जबकि माध्यस्थम् में पक्षकारों को दावेदार (claiment) और प्रत्यर्थी (respondent) कहा जाता है।

      इसी तरह की परिभाषा मद्रास उच्च न्यायालय ने यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम मेसर्स सरवन कन्सट्रक्शन्स प्राईवेट लिमिटेड, ए० आई० आर० (2010) मद्रास 6 के बाद में दिया। जिसमें न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् कार्यवाहियों का पक्षकार शब्द से तात्पर्य माध्यस्थम करार का कोई पक्षकार केवल या तो दावाकर्ता (claiment) या प्रत्युत्तरदाता respondent) हो सकता है, अन्य कोई व्यक्ति नहीं हो सकता है।

     भारत संघ बनाम देवको दिवकी इंजीनियर्स एण्ड कान्ट्रेक्टर्स, ए० आई० आर (2005) एस० सी० डब्ल्यू0 1635 सु० कौ० के बाद में न्यायालय ने पक्षकार को स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘पक्षकार’ एवं आवेदन करने वाला पक्षकार से तात्पर्य वह व्यक्ति जो प्रक्रियाओं में शामिल हो और उसके साथ सीधे जुड़ा होना चाहिए एवं जो माध्यस्थम् के समक्ष की प्रक्रियाओं के नियन्त्रण में हो।

      माध्यस्थम् करार के ‘पक्षकार’ के अन्तर्गत माध्यस्थम् के हितबद्ध पक्षकार को सम्मिलित नहीं किया गया है, क्योंकि हितबद्ध पक्षकार माध्यस्थम् विवाद में दावेदार या प्रत्यर्थी नहीं होता है, भले ही वह माध्यस्थम् पंचाट से प्रभावित हो, हितबद्ध माध्यस्थम् कार्यवाही में केवल गवाह के रूप में उपस्थित हो सकते हैं।

प्रश्न 14. माध्यस्थम् कार्यवाही। Arbitration Proceeding.

उत्तर- माध्यस्थम कार्यवाही (Arbitration proceeding) – माध्यस्थम् कार्यवाही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर माध्यस्थ, किसी विवाद की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विवाद के पक्षकार के परस्पर विरोधी दावों तथा प्रतिदावों के आधार पर, विवाद के पक्षकारों के मध्य उनके दायित्व तथा अधिकार का विनिश्चयन या निर्णयन करते हैं। माध्यस्थम् प्रक्रिया क्या होगी इसका निर्धारण पक्षकार आपसी सहमति से करार द्वारा निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र हैं। यदि पक्षकारों ने माध्यस्थम के संचालन के लिए किसी विशिष्ट प्रक्रिया का निर्धारण नहीं किया है तो माध्यस्थम् उस प्रक्रिया का अनुसरण करेंगे जो उन्हें मामलों की परिस्थितियों में उचित प्रतीत हो। माध्यस्थम् प्रक्रिया में पक्षकारों की सुनवाई की प्रक्रिया, उसे समन करने या बुलाने की विधि तथा विवाद पर दस्तावेजी या मौखिक साक्ष्य का ग्रहण किया जाना सम्मिलित है।

प्रश्न 15. माध्यस्थम् के क्या लाभ हैं? What are the advantages of Arbitration?

उत्तर- माध्यस्थम् के निम्नलिखित लाभ या महत्व हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) पारम्परिक तकनीकी प्रक्रिया का अभाव- न्यायालय की प्रक्रिया एक तकनीकी प्रक्रिया है। इसके संचालन के लिए विधि विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है। माध्यस्थम् एक अति सरल तथा द्रुतगामी प्रक्रिया है। माध्यस्थम् प्रक्रिया पर दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तकनीकी प्रक्रियात्मक उपबन्ध लागू नहीं होते।

(2) माध्यस्थम् प्रक्रिया का द्रुतगामी तथा बोझिल न होना। (3) माध्यस्थम प्रक्रिया में निर्णायक की नियुक्ति पक्षकारों की सहमति से होना।

(4) माध्यस्थम् प्रक्रिया में माध्यस्थम् द्वारा विषय-वस्तु की व्यक्तिगत जाँच किया जाना।

(5) माध्यस्थम् प्रक्रिया का कम खर्चीली होना।

(6) माध्यस्थम् प्रक्रिया में प्रक्रिया के पूरा होने की समयावधि का निर्धारण सम्भव है।

प्रश्न 16. माध्यस्थम् अधिकरण को परिभाषित कीजिए।Define the Arbitral Tribunal.

उत्तर- माध्यस्थम् अधिकरण (Arbitral Tribunal) माध्यस्थम् अधिकरण (Arbitral Tribunal)  की परिभाषा माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 उपधारा (1) खण्ड (क) में दी गयी है। इस परिभाषा के अनुसार, माध्यस्थम् अधिकरण से तात्पर्य है एकमात्र माध्यस्थम् या मध्यस्थों का पैनल (Panel of Arbitrators)। अतः यह स्पष्ट है कि यदि कोई विवाद एकमात्र मध्यस्थ को सन्दर्भित है तो वह एक मात्र मध्यस्थ है। इस अधिनियम के (प्रयोजन) उद्देश्य के लिए माध्यस्थम् अधिकरण है। यदि किसी विवाद को पक्षकारों के बीच करार द्वारा एक से अधिक मध्यस्थों की पैनल (सूची) को सन्दर्भित किया गया है तो मध्यस्थों के इस पैनल को इस अधिनियम के प्रयोजन से माध्यस्थम् अधिकरण (Arbitral Tribunal) माना जायेगा। पक्षकारों को यह अधिकार है कि वे विवाद को एकमात्र माध्यस्थम् या मध्यस्थों के एक पैनल को सन्दर्भित कर दें। माध्यस्थम अधिनियम की उपर्युक्त परिभाषा संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक आयोग विधिक (United Nations Commission on International Trade Law-UNCITRAL) (अनसीट्राल) को आदर्श विधि (Model Law) के अनुच्छेद 2 के अधीन दी गयी परिभाषा से ली गयी है।

प्रश्न 17. माध्यस्थम् अधिकरण के कर्तव्य । Duty of Arbitration Tribunals.

उत्तर – माध्यस्थ कार्यवाही का स्वतन्त्रता, निष्पक्षता एवं निष्ठापूर्वक कार्य करना, पक्षकारों द्वारा करार में निर्धारित अर्हताओं को पूरा करना, माध्यस्थ कार्यवाही के संचालन में अविलम्ब कार्य करना, अपने क्षेत्राधिकार की सीमा में कार्य करना, अपने प्राधिकार (Authority) की सीमा के अन्तर्गत कार्य करना, बहुमत से निर्णय करना आदि माध्यस्थ अधिकरण के प्रमुख कर्तव्य हैं।

प्रश्न 18. माध्यस्थम् अधिकरण का क्या क्षेत्राधिकार होता है? What is the Jurisdiction of Arbitral Tribunal?

उत्तर- माध्यस्थम् अधिकरण का क्षेत्राधिकार- माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 अधिकरणों की अधिकारिता के बारे में प्रावधान करती है। धारा 16 के अनुसार-

(1) माध्यस्थम् न्यायाधिकरण, माध्यस्थम् करार के अस्तित्व या वैधता से सम्बन्धित किसी आपत्ति पर विनिर्णय के साथ-साथ अपनी अधिकारिता के सम्बन्ध में नियम बना सकेगा।

(2) यह अभिवचन कि माध्यस्थम् न्यायाधिकरण को अधिकारिता नहीं है, प्रतिरक्षा के कथन को प्रस्तुत करने के बाद नहीं उठाया जायेगा।

(3) यह अभिवचन कि माध्यस्थम् न्यायाधिकरण अपने प्राधिकार के परिक्षेत्र से बाहर जाकर कार्य कर रही है, उसी समय तुरन्त उठाया जाना चाहिए जबकि मामला जिसका अपने प्राधिकार के परिक्षेत्र से बाहर होना अभिकथित है, माध्यस्थम् कार्यवाहियों के दौरान उठाया जाता है।

(4) माध्यस्थम् न्यायाधिकरण उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट किये गये। किसी भी मामले में पश्चात् अभिवचन को स्वीकृत कर सकेगा यदि वह लिम्को न्यायोचित समझता है।

(5) माध्यस्थम् न्यायाधिकरण उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट किये गये अभिवचन पर विनिश्चय करेगा और जहाँ माध्यस्थम् न्यायाधिकरण, अभिवचन को अस्वीकृत करने का विनिश्चय करता है, वहाँ वह माध्यस्थम् कार्यवाहियों को जारी रखेगा और माध्यस्थम पंचाट निर्मित करेगा।

(6) एक पक्षकार, जो ऐसे माध्यस्थम् पंचाट से व्यथित है, धारा 34 के अनुसार, ऐसे माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने का आवेदन-पत्र दाखिल कर सकेगा।

      इसके अलावा अधिनियम की धारा 16 यह प्रावधान करती है कि एक मध्यस्थ अपनी अधिकारिता के विरुद्ध पक्षकार द्वारा आपत्तियों को सुनकर उस पर निर्णय करने का अधिकार रखता है।

प्रश्न 19. मध्यस्थ कौन हो सकता है? Who can be Arbitrator?

उत्तर- मध्यस्थ (Arbitrator )– मध्यस्थं एक ऐसा न्यायाधीश है जो पक्षकारों के बीच के मतभेदों तथा विवादों के निर्णय के लिए आपसी सहमति द्वारा चुना जाता है। इन्हें मध्यस्थता का अधिकार होता है तथा उनके निर्णय भी निश्चित होते हैं। इसीलिए इनके विरुद्ध कोई अपील नहीं होती। मध्यस्थ के रूप में एक वकील या गंवार कोई भी व्यक्ति हो सकता है। मध्यस्थ की एकमात्र अर्हता उसकी स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता से है अर्थात् मध्यस्थ की कोई अर्हता निर्धारित नहीं की गयी है। परन्तु मध्यस्थ वही व्यक्ति होता है जिसे विवाद की विषयवस्तु का सम्यक् ज्ञान हो तथा वह विवादित विषय-वस्तु का विशेषज्ञ हो, यद्यपि मध्यस्थ के निर्णयों के विरुद्ध कोई अपील नहीं होती, परन्तु कुछ आपवादिक परिस्थितियाँ हैं जिसमें इसे अपास्त किया जा सकता है –

(i) मध्यस्थ ने कपटपूर्ण आचरण किया है।

(ii) मध्यस्थ भ्रष्ट आचरण का दोषी है।

(iii) मध्यस्थ के निर्णय में विधि की त्रुटि हो ।

प्रश्न 20. (a) घरेलू पंचाट । Domestic Award.

(b) पंच निर्णय को समझाइये। Explain Award.

उत्तर (a) – घरेलू पंचाट (Domestic Award) – माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 उपधारा 7 के अनुसार इस अधिनियम के भाग एक के अन्तर्गत किये गये। पंचाट घरेलू या देशी (Domestic Award) माने जायेंगे। जिस पंचाट का कोई भी पक्षकार विदेशी नहीं है, वह देशी या घरेलू पंचाट कहा जायेगा। इसके अतिरिक्त घरेलू पंचाट वह है। जो न्यूयार्क अभिसमय (Newyork Convention) के अन्तर्गत नहीं किया गया है।

उत्तर (b) – सामान्य अर्थों में पंचाट का तात्पर्य होता है फैसला या विनिश्चय। माध्यस्थम् अधिनियम के सन्दर्भ में पंचाट का अर्थ होता है माध्यस्थम् का अन्तिम फैसला या अन्तिम अभिनिश्चयन।

     माध्यस्थम् या अधिनिर्णायक द्वारा विवादित प्रश्न से सम्बन्धित मामले, उन्हें सन्दर्भित किये गये हों, पर किये गये फैसलों को पंचाट (Award) कहते हैं। पंचाट का समस्त मामलों में निर्णय का होना आवश्यक है।

    एक माध्यस्थम् पंचाट लिखित होना चाहिए तथा माध्यस्थम् अधिकरण के सदस्यों द्वारा इस पर हस्ताक्षर किया जाना आवश्यक है।

प्रश्न 21. विदेशी पंचाट और स्थानीय पंचाट में अन्तर कीजिए। Describe the difference between Foreign Award’ and ‘Domestic Award’.

उत्तर- विदेशी पंचाट और स्थानीय पंचाट में निम्नलिखित अन्तर हैं जो इस प्रकार हैं- सामान्यतः विदेशी पंचाट ऐसा पंचाट होता है, जो विदेश में किया गया होता है एवं यह विदेशी कानून के द्वारा ही शासित होता है, किन्तु माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अनुसार तथा 1961 के अधिनियम के अनुसार विदेशी पंचाट ऐसा पंचाट होता है जो कि ऐसे देश के अन्तर्गत किया गया हो जो कि न्यूयार्क अभिसमय पर हस्ताक्षर करने वाला सदस्य हो जबकि स्थानीय पंचाट या देशी या घरेलू पंचाट ऐसा पंचाट होता है जिसमें पंचाट का कोई भी पक्षकार विदेशी नहीं है, वह देशी या घरेलू पंचाट कहा जायेगा। इसके अतिरिक्त देशी पंचाट वह पंचाट है जो न्यूयार्क अभिसमय के अन्तर्गत नहीं किया गया है। घरेलू पंचाट के सन्दर्भ में माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (7) में प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 22. माध्यस्थम् पंचाट का प्ररूप तथा अन्तर्वस्तु क्या होती है? What is the form and contents of an Award?

उत्तर- पंचाट का प्रारूप तथा अन्तर्वस्तु – (1) पंचाट लिखित किया जायेगा तथा (सभी) माध्यस्थ या माध्यस्थों द्वारा हस्ताक्षरित होगा। एक से अधिक मध्यस्थ वाली मध्यस्थ कार्यवाही अधिकरण के सदस्यों के बहुमत (Majority) के हस्ताक्षर पर्याप्त होंगे। यदि लुप्त (Omitted Signature) का कारण दिया गया हो।

(2) पंचाट में उन आधारों का उल्लेख होगा जिस पर पंचाट किया गया है जब तक कि अनुच्छेद 30 के अन्तर्गत पक्षकारों ने यह करार न किया हो कि पंचाट के कारण नहीं दिये जायेंगे या पंचाट सहमत (agreed ) शर्तों (निबन्धनों पर है।

(3) पंचाट पर अनुच्छेद 20 (1) के अनुसार निर्धारित समय तथा स्थान का उल्लेख होगा तथा पंचाट उस स्थान पर किया हुआ माना जायेगा।

(4) पंचाट किये जाने के पश्चात् तथा पैरा (1) के अनुसार हस्ताक्षरित होने के पश्चात् प्रत्येक पक्षकार को दिया जाना चाहिए।

प्रश्न 23. क्या पंचाट अथवा अतिरिक्त पंचाट में संशोधन एवं निर्वचन सम्भव है? Is correction and interpretation of Award or Additional Award possible.

उत्तर- पंचाट एवं अतिरिक्त पंचाट में संशोधन एवं क्रियान्वयन (Correction and interpretation of Award and Additional Award) – पंचाट एवं अतिरिक्त पंचाट में संशोधन एवं निर्वचन के सम्बन्ध में माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 33 में प्रावधान किया गया है। इस धारा में पंचाट एवं अतिरिक्त पंचाट के संशोधन तथा व्याख्या के सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया है। अधिनियम की यह धारा संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्य आयोग की आदर्श विधि के अनुच्छेद 33 पर आधारित है। इस धारा में पंचाट एवं अतिरिक्त पंचाट के संशोधन एवं व्याख्या के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। जब माध्यस्थम् कार्यवाही इस अधिनियम की धारा 32 के अधीन समाप्त हो जाती है। तब धारा 33 मुख्य रूप से माध्यस्थम् अधिकरण को निम्नलिखित कार्य सौंप देती है-

1. गणना, लिपिकीय या टाइप सम्बन्धी त्रुटि करने का अधिकार।

2. पंचाट के किसी भाग या पंचाट के किसी बिन्दु की व्याख्या करने का अधिकार

3. मूल पंचाट में छोड़े गये (सुप्त) दावे के सम्बन्ध में अतिरिक्त पंचाट करने का अधिकार ।

प्रश्न 24 (क) दावे एवं प्रतिरक्षा के कथनों के सम्बन्ध में माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत क्या प्रावधान किये गये हैं? What Provisions have been made in Arbitration and Concilation Act, 1996 regarding statements of claims and defence?

(ख) निपटारा करार क्या है? समझाइये। What is Settlement Agreement? Explain.

उत्तर (क)  – दावे तथा प्रतिरक्षा के कथनों के सम्बन्ध में माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत धारा 23 में प्रावधान किया गया है। माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान दावा करने वाले व्यक्ति को अपने दावे के समर्थन में तथ्यों का कथन दाखिल करना होता है। इसे दावा पत्र भी कहते हैं। दावा पत्र की प्राप्ति के पश्चात् प्रतिवादी या प्रत्यर्थी दावे में उल्लिखित विवरण के सम्बन्ध में अपना प्रतिवाद या बचाव दाखिल करता है। माध्यस्थम् कार्यवाही के पक्षकार किसी अन्य प्रक्रिया का निर्धारण करने के लिए स्वतन्त्र हैं जिसके द्वारा वे विवाद के तथ्यों को माध्यस्थम् अधिकरण के संज्ञान में लायें। इन प्रपत्रों को दाखिल करने की समय सीमा पक्षकार करार द्वारा तय कर सकते हैं या उसे माध्यस्थम् द्वारा तय किया जा सकता है।

      धारा 23 उपधारा (1) यह प्रावधान करती है कि करार के माध्यम से निर्धारित या माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा निर्धारित समयावधि के भीतर दावेदार अपने दावे के समर्थन करने वाले तथ्यों, विवाद्यक मुद्दों तथा वांछित अनुतोष या उपचार का कथन करेगा और प्रत्यर्थी इन विवरणों के सम्बन्ध में अपनी प्रतिरक्षा (बचाव) का कथन करेगा, जब तक कि पक्षकारों ने उन कथनों के अपेक्षित तत्वों के बारे में अन्यथा करार न किया हो। इस प्रकार पक्षकारों को यह स्वतन्त्रता है कि वे समय सीमा का निर्धारण करें जिसके अन्तर्गत दावा आदि माध्यस्थम् अधिकरण के समक्ष प्रस्तुत किया जाना है। यदि पक्षकार करार द्वारा ऐसा नहीं करते तो इस समय सीमा का निर्धारण माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जायेगा।

      धारा 23 उपधारा (2) के अनुसार माध्यस्थम् के पक्षकार अपने कथनों के साथ, सभी दस्तावेजों को जिन्हें वे सुसंगत समझते हैं (दावे के साथ) प्रस्तुत कर सकते हैं।

उत्तर (ख) – निपटारा करार (Settlement Agreement) – सफल सुलह कार्यवाही का परिणाम समझौता करार है जो विवाद के हल को सहमत शर्तों को परिलक्षित करता है तथा सुलहकर्ता के प्रयासों से विवाद के पक्षकारों के मध्य होता है। समझौता करार के बारे में प्रावधान धारा 73 में किया गया है।

     धारा 73 की उपधारा (1) के अनुसार जब सुलहकर्ता को ऐसा प्रतीत होता है कि मझौते में कुछ ऐसे तत्व विद्यमान हैं जो विवाद के पक्षकारों को स्वीकार्य हैं तो वह समझौते की सम्भावित शर्तों को तैयार करेगा तथा उन्हें पक्षकारों को उनके विचार व्यक्त करने के लिए देगा। पक्षकारों के विचार प्राप्त हो जाने के पश्चात् सुलहकर्ता पक्षकारों द्वारा व्यक्त विचारों के प्रकाश में सम्भावित समझौते की शर्तों को पुनः तैयार कर सकेगा।

      धारा 73 को उपधारा (2) यह उपबन्ध करती है कि यदि विवाद के पक्षकार विवाद के किसी समझौते पर सहमत होते हैं तो वे एक लिखित समझौता करार तैयार करा सकेंगे तथा उस समझौता करार पर हस्ताक्षर कर सकेंगे।

     धारा 73 को उपधारा (3) समझौते के अस्तित्व तथा उसकी बाध्यकारी प्रकृति की चर्चा करती है। इस उपधारा के अनुसार जब पक्षकार समझौते के करार पर हस्ताक्षर कर देते हैं तो वह उनके मध्य अन्तिम समझौता होता है। यह अन्तिम समझौता विवाद के पक्षकारों पर तथा उनके अधीन दावा करने वाले व्यक्तियों पर हस्ताक्षर करने की तिथि से बाध्यकर होता है तथा समझौते पर हस्ताक्षर करने की तिथि से समझौता कार्यवाही समाप्त हो जाती है।

       धारा 73 को उपधारा (4) सुलहकर्ता को अधिकार देती है कि वह पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित समझौता को अधिप्रमाणित करेगा तथा उसकी एक प्रति प्रत्येक पक्षकार को देगा।

प्रश्न 25 सांविधिक माध्यस्थम क्या है? What is Statutory Arbitration?

उत्तर- सांविधिक माध्यस्थम् (Statutory Arbitration) – विधायिका द्वारा पारित अधिनियम में, अधिनियम के अन्तर्गत भविष्य में उत्पन्न होने वाले विवाद के हल के लिए माध्यस्थम् प्रक्रिया के सम्बन्ध में ऐसे अधिनियम के अन्तर्गत सृजित माध्यस्थम् को सांविधिक माध्यस्थम / कानूनी माध्यस्थम् (Statutory Arbitration) की संज्ञा दी जाती है। सांविधिक माध्यस्थ के मामले में पक्षकारों की सहमति या इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। सांविधिक माध्यस्थम में माध्यस्थ की नियुक्ति, माध्यस्थ का स्थान, पंचाट निर्गत करने की समयावधि, पंचाट का प्रवर्तन, माध्यस्थम् प्रक्रिया पर लागू होने वाली विधि, माध्यस्थ का शुल्क अथवा निर्धारण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होता है।

प्रश्न 26. माध्यस्थम् प्रक्रिया एवं न्यायिक प्रक्रिया में क्या अन्तर है? What is the difference between arbitral proceeding and judicial proceeding?

उत्तर- माध्यस्थम् प्रक्रिया विवादों के हल की सरल तथा द्रुतगामी प्रक्रिया है जबकि न्यायिक प्रक्रिया विवादों के हल की तकनीकी तथा विलम्बकारी प्रक्रिया है। माध्यस्थम् के अन्तर्गत विवाद का हल पक्षकारों द्वारा चयनित न्यायाधीश (मध्यस्थ) द्वारा किया जाता है। जबकि न्यायिक प्रक्रिया में न्यायाधीशों का चयन सरकार द्वारा किया जाता है। माध्यस्थम् प्रक्रिया पर सिविल प्रक्रिया संहिता एवं साक्ष्य अधिनियम लागू नहीं होते हैं जबकि न्यायिक प्रक्रिया लिखित प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम के नियमों के अनुसार संचालित होती है। माध्यस्थम् प्रक्रिया को वैधता माध्यस्थम् अधिनियम के प्रावधानों से मिलती है जबकि न्यायिक प्रक्रिया एक परम्परागत प्रक्रिया है जिसे संसद या विधायिका के अधिनियम से वैधता प्राप्त होती है।

प्रश्न 27. माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने के लिए कदाचरण अच्छा आधार है? Misconduct is a good ground for setting aside an award.

उत्तर- कदाचरण (Misconduct) शब्द का प्रयोग माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 12 एवं 13 के अधीन किया गया है जिसे मध्यस्थ के प्राधिकार की समाप्ति हेतु या उसे अनर्ह (Disqualified) घोषित करके उसके प्राधिकार को चुनौती देने के सन्दर्भ में किया गया है। इसका प्रयोग माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 में पंचाट को अपास्त करने के आधार के रूप में किया गया है और माध्यस्थम् प्राधिकार को चुनौती देने के आधार के रूप में किया गया है। कदाचार शब्द के अन्तर्गत मध्यस्थ में निष्पक्षता तथा स्वतन्त्रता की कमी शामिल होती है। यदि कोई मध्यस्थ मामले का निर्णय स्वतन्त्रतापूर्वक तथा निष्पक्षतापूर्वक नहीं करता है तो वह कदाचार या कदाचरण का दोषी होगा। कदाचार की उत्पत्ति में कई परिस्थितियाँ उत्तरदायी हो सकती हैं। जैसे मध्यस्थ पंचाट में सभी बिन्दुओं पर विचार करने में असफल रहा हो या उसने पंचाट में आकस्मिक त्रुटि की हो या वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों की अवहेलना का दोषी है। वह तब भी कदाचार का दोषी होगा यदि उसने अपनी अधिकारिता से हटकर कार्य किया हो या उसने ऐसे किसी मामले में निर्णय दिया हो जो उसे निर्णय के लिए सन्दर्भित न किया गया हो। यदि मध्यस्थ इस प्रकार का कोई आचरण करता है. वो उसकी निष्पक्षता पर सन्देह उत्पन्न हो जाता है और ऐसी स्थिति में उसके पंचाट को अपास्त किया जा सकता है।

प्रश्न 28. क्या पक्षकार की मृत्यु होने पर माध्यस्थम् करार उन्मोचित हो जाता है? Whether Arbitration Agreement is discharged by death of the Party ?

उत्तर- माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 40 की उपधारा (1) यह स्पष्ट एवं अभिव्यक्त प्रावधान करती है कि माध्यस्थम् करार करार के किसी पक्षकार की मृत्यु के कारण न तो मृतक पक्षकार के तथा न किसी अन्य पक्षकार के सम्बन्ध में प्रभावोन्मुक्त या उन्मोचित (Discharged) होगा। माध्यस्थ करार के किसी पक्षकार को मृत्यु की दशा में करार मृतक के विधिक प्रतिनिधि (Legal Representative) के द्वारा या विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध प्रवर्तनीय होगा।

     धारा 40 की उपधारा (2) के अनुसार किसी माध्यस्थ (Arbitrator) का प्राधिकार (Authority), माध्यस्थ की नियुक्ति करने वाले पक्षकार की मृत्यु पर प्रतिसंहृत (Revoked) या खण्डित नहीं होगा।

      धारा 40 की उपधारा (3) के अनुसार, इस धारा की कोई बात ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जिसके आधार पर कि कार्यवाही का कोई अधिकार किसी व्यक्ति की मृत्यु के कारण निर्वाचित (समाप्त) हो जाता है।

प्रश्न 29. विधिक सेवा पाने के लिए क्या औपचारिकताएं आवश्यक हैं? What formalities are required for entitlement of legal services?

उत्तर— विधिक सेवा पाने के लिए पक्षकारों को उन औपचारिकताओं को पूरा करना होता हैं जो कि अधिनियम में उल्लिखित कर दिये गये हैं। एक माध्यस्थ अपने पंचाट की रचना के लिए विधिक सहायता ले सकता है। यदि उसे यह सन्देह है कि उसे निधिक सहायता लेने का अधिकार है या नहीं वह उसके लिए माध्यस्थम् कार्यवाही के पक्षकारों को सुन सकता है। अन्यथा पंचाट को अपास्त किया जा सकता है।