-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-
प्रश्न 1. विवादों के वैकल्पिक निस्तारण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है एवं विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय के क्या लाभ है? स्पष्ट करें। What is the Historical Background of Alternative Dispute Resolution (ADR) and what are the advantages of ADR? Explain.
उत्तर– प्राचीन समय में औपचारिक न्याय प्रणाली के बाहर झगड़ों के निस्तारण के लिए माध्यस्थम् समझौते तथा माध्यस्थम् को अपनाया जाता था। माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता (Arbitration, Conciliation and Mediation) की प्रथा सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में विवादों के निस्तारण के लिए प्रमुखता से अपनाई जाती थी। औपचारिक विधिक पद्धति (न्यायालय) के बाहर विवादों के निस्तारण को प्रोत्साहन देने की प्रथा भारत में लम्बे समय तक रही है। भारत गाँवों का देश है। गाँवों में विवादों का निस्तारण प्रबुद्ध व्यक्तियों के समूह या विद्वत् जनों के हस्तक्षेप से किया जाता था। प्राचीन न्याय व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर न्याय पंचायत कार्य करती थी। इन न्याय पंचायतों का निर्णय पक्षकारों पर बाध्य होता था तथा इनके निर्णयों का उल्लंघन विरले मामलों में ही होता था। भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ-साथ यह परम्परागत न्याय पद्धति समाप्त होती गई तथा उसके स्थान पर अंग्रेजों द्वारा लागू की जाने वाली औपचारिक न्याय पद्धति (Formal Legal System) अस्तित्व में आई। वर्तमान न्याय पद्धति (System of Justice) अंग्रेजों की देन है। सन् 1660 से लेकर 1947 ई० तक अंग्रेजों ने एक ऐसी न्याय पद्धति का विकास किया जिसका आधार ब्रिटिश न्याय व्यवस्था थी।
अंग्रेजों द्वारा विकसित न्याय पद्धति के तहत अपनायी गयी प्रक्रिया में बहुत देरी और खर्च होता था जिसके कारण लोगों का विश्वास इस न्याय पद्धति में कम होता गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी जो इस विलम्बकारी तथा खर्चीली न्याय व्यवस्था के विकल्प के रूप में विवादों को दुतगामी तथा अल्पव्ययी निस्तारण के लिए कार्य कर सके। अतः अब यह सोचा जाने लगा कि विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक साधनों को किस प्रकार अधिक वैज्ञानिक रूप से विकसित किया जाय। माध्यस्थम् (Arbitration), सुलह (Conciliation) तथा मध्यस्थता (Mediation) जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक प्रथागत उपायों के विकास की और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान गया। भारत ही नहीं अपितु चीन, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में विवाद निस्तारण के उपरोक्त वैकल्पिक उपायों की लम्बी परम्परा रही है। अब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समुदाय ने विवाद निस्तारण के इन वैकल्पिक उपायों के लाभ को समझा तथा इस बात को महसूस किया कि विवाद निस्तारण के ये वैकल्पिक उपाय ही वर्तमान न्याय व्यवस्था की बुराइयों का हल है। यह सर्वविदित तथ्य है कि माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय कम खर्चीले, कम प्रतिरोधी हैं जिससे व्यापारिक सम्बन्धों की सुरक्षा के लिए उनकी व्यापक तथा अहम् भूमिका है।
विगत वर्षों में विवाद निस्तारण के लिए माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे उपायों का उपयोग व्यापारिक जगत में व्यापक रूप से बढ़ा है। विश्व के कई देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विवादों के निस्तारण में माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक साधनों के महत्व को समझा है तथा उन्हें अपनी न्याय प्रणाली में विधिक मान्यता प्रदान की है, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी व्यापारिक सन्धियों में विवाद निस्तारण के इन वैकल्पिक साधनों (Alternative Means of Dispute Resolution : ADR) के सम्बन्ध में सामान्य प्रावधान किये हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विवादों के वैकल्पिक निस्तारण के साधनों का प्रमुख समर्थक रहा है। इस क्षेत्र के प्रमुख विद्वानों की यह मान्यता रही है कि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निस्तारण में विवादों के निस्तारण के इन वैकल्पिक साधनों का प्रभाव अधिक रहा है तथा यह प्रभाव और अधिक बढ़ेगा।
यह स्मरणीय है कि विवाद निस्तारण के वैकल्पिक साधन (उपाय) (Alternative means of dispute resolution), औपचारिक न्याय पद्धति का विकल्प नहीं है परन्तु यह न्याय पद्धति की पूरक है। इसका उद्देश्य विवाद के निस्तारण में खर्च को कम करना तथा विलम्ब को समाप्त करना है। विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के अन्तर्गत बातचीत (Negotiation), मध्यस्थता (Mediation), सुलह या समझौता (Conciliation) तथा माध्यस्थम् (Arbitration) सम्मिलित हैं। विवाद निस्तारण के इन साधनों के बढ़ते हुए महत्व ने यह आवश्यक बना दिया है कि इन उपायों के विकास के लिए ऐसे व्यक्तियों को प्रशिक्षित किया जाए जो इन उपायों के सम्बन्ध में विशेषज्ञता तथा कौशल प्राप्त करें तथा उन साधनों की व्यापक सफलता में सहायक हो सकें। इन उपायों को व्यापक मान्यता तथा वैधता प्रदान करने के उद्देश्य से एक संगठन (Organisation) की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इस दिशा में प्रयत्न करने हेतु कई संस्थानों का प्रादुर्भाव हुआ। इस पृष्ठभूमि में विवाद निस्तारण के उपायों को प्रभावी बनाने के प्रयोजन से एक अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। दिनांक 4 दिसम्बर, 1993 को भारत के मुख्यमंत्रियों, मुख्य न्यायाधीशों का एक सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में प्रस्ताव के माध्यम से यह घोषणा की गई कि “वर्तमान न्याय व्यवस्था, न्याय वितरण के सम्पूर्ण भार को वहन करने में अक्षम है। तथा न्याय का वितरण विवाद निस्तारण के वैकल्पिक साधनों से किया जाना समीचीन होगा। इन साधनों के अन्तर्गत प्रक्रियात्मक लचीलापन (लोच) (Procedural flexibility) है। इसके अन्तर्गत समय तथा धन की बचत होने के साथ-साथ नियमित विचारण (Regular Trial) के तनाव का अभाव होता है। निस्तारण के इन वैकल्पिक साधनों के अन्तर्गत पक्षकारों के विवाद के निर्णायक विवाद निर्णय के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया तथा विधि के निर्धारण की स्वतन्त्रता होती है।’
इस सन्दर्भ में व्यापारिक प्रशासकीय तथा विधिक क्षेत्र के कुछ प्रमुख व्यक्ति एकमत हुए तथा इन्होंने एक संस्था स्थापित की जिसका नाम था “वैकल्पिक विवाद निस्तारण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र” (International Centre for Alternative Dispute Resolution -ICADR)। इस संस्था का स्थान दिल्ली रखा गया। यह संस्था सोसायटी रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1960 के अन्तर्गत दिनांक 31 मई, 1995 को पंजीकृत की गई। यह एक स्वतन तथा अलाभकारी संस्था है। इस अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र का उद्देश्य वैकल्पिक विवाद निस्तारण की संस्कृति का विश्व के इस भू-भाग में (भारत में) प्रचार तथा प्रसार करना है। यद्यपि वर्तमान में इसका कार्यालय दिल्ली में स्थित है परन्तु इसके कार्यालय (शाखाएँ) भारत के अन्य भागों में खोले जाने की योजना है।
इस अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा-
” जबकि न्यायिक क्षेत्र में संशोधन (सुधार) आवश्यक गति से किया जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत नहीं होता कि न्यायालय या न्यायाधिकरण सम्पूर्ण न्यायिक पद्धति का भार वहन करने की स्थिति में हैं। यह सरकार का दायित्व है कि वह विवादों के निस्तारण (हल) के अधिक से अधिक साधन उचित मूल्य पर उपलब्ध कराये जो उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के विवादों के निस्तारण के लिए आवश्यक हो। विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों को अपनाने के लिए वादकारियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे कि न्यायालय अपना ध्यान कम से कम में उन्हीं महत्वपूर्ण मामलों तक ही सीमित कर सके जिन्हें न्यायिक ध्यान (Judicial attention) की अधिक आवश्यकता है। “
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए० एच० अहमदी ने इस अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र के उद्घाटन की बैठक में संरक्षक के रूप में अपना भाषण देते हुए कहा, “वैकल्पिक विवाद निस्तारण के अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के मध्य हो रहे व्यापारिक संव्यवहार तथा परिवर्तनशील व्यापारिक पद्धति आदि का निस्तारण इस केन्द्र के माध्यम से अधिक प्रभावी तथा त्वरित रूप से हो सके।”
नई दिल्ली में दिनांक 6 अक्टूबर, 1995 को तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित इस अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र के निम्न उद्देश्य हैं-
(i) घरेलू (स्थानीय या राष्ट्रीय) तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निस्तारण (Settlement) के लिए विवाद निस्तारण के वैज्ञानिक उपायों का प्रसार करना, उनको बढ़ावा देना तथा उन्हें लोकप्रिय बनाना।
(ii) सुलह, मध्यस्थता, लघुविचारण तथा माध्यस्थम् प्रक्रिया के लिए सुविधा, तथा प्रशासकीय एवं अन्य सहायक सेवाओं को उपलब्ध कराना।
(iii) विवाद निस्तारण की पद्धति में सुधार या संशोधन को बढ़ावा देना तथा समुदाय (समाज) की सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य आवश्यकताओं के उपयुक्त इनके (विवाद निस्तारण के) स्वत्व विकास को बढ़ावा देना।
(iv) विवाद के पक्षकारों द्वारा अनुरोध किये जाने पर सुलहकर्त्ता, मध्यस्थ (Mediator) तथा माध्यस्थमों की नियुक्ति करना।
(v) विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय तथा सम्बन्धित मामलों में प्रशिक्षण देना तथा उनसे सम्बन्धित डिप्लोमा, प्रमाण पत्र तथा अन्य अकादमिक (Academic) या वृत्तिक (Professional) उपलब्धियाँ प्रदान करना।
(vi) विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों, शिक्षा, शोध तथा प्रशिक्षण के क्षेत्र में अवसंरचनात्मक सुविधा (Infrastructural facilities) का विकास करना।
(vii) विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों (ADR) तथा सम्बन्धित मामलों में प्रशिक्षण देना तथा इसके लिए फेलोशिप, छात्रवृति, स्टाइपेण्ड तथा पुरस्कार की व्यवस्था करना।
भारत में विवाद निस्तारण की वैकल्पिक व्यवस्था यद्यपि प्राचीन काल में विद्यमान थी। परन्तु इसे वैधानिक मान्यता 20वीं शताब्दी में मिली। इस सम्बन्ध में दृष्टिकोण अभी भी व्यापारिक ही है, इसमें अभी बहुत विकास की आवश्यकता है, आशा है कि इन उपायों के विकास, संवर्धन तथा प्रोत्साहन की दिशा में प्रयास तथा शोध की बढ़ावा मिलेगा।
विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों की आवश्यकता जितनी भारत को है उतनी विश्व के किसी राष्ट्र को शायद ही हो। दिनांक 25 फरवरी, 2001 को संसद में वक्तव्य देते विधि मंत्री अरुण जेटली ने कहा, भारत के विभिन्न न्यायालयों में 2 करोड़ 34 लाख मामले अन्तिम निर्णय का इन्तजार कर रहे हैं। भारत की ग्रामीण पृष्ठभूमि है। अतः इस बात के प्रचार तथा प्रसार की आवश्यकता है कि विवादों के निस्तारण के लिए माध्यस्थम्, सुलह, मध्यस्थता तथा बातचीत के माध्यमों को निचले स्तर पर (वाद के प्रारम्भ में) ही अपना लिया जाय, ऐसा करने से आपसी विद्वेष तो कम होगा ही साथ-साथ लोगों के समय तथा धन की बचत होगी तथा शान्तिपूर्ण अस्तित्व का निर्माण होगा। न्यायमूर्ति जयचन्द्र रेड्डी के शब्दों में यदि हमारे बुजुर्गों ने विवाद निस्तारण के इन वैकल्पिक उपायों का महत्व समझा होता तो. कुरुक्षेत्र के महान संग्राम का निवारण हो सकता था।
विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय न्यायिकेतर प्रकृति (Extra-Judicial in Nature) के होते हैं। इनके अन्तर्गत न्यायिक प्रक्रिया के तकनीकी तथा विलम्बकारी एवं खर्चीले प्रावधानों का पालन किया जाना आवश्यक नहीं होता। विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों का प्रयोग पक्षकारों के करार के अन्तर्गत प्रायः सभी प्रकार के विवादों को हल करने के लिए किया जा सकता है। इनका प्रयोग दीवानी, (व्यापारिक) वाणिज्यिक, औद्योगिक तथा सरिवारिक विवादों के निस्तारण (हल) के लिए सफलतापूर्वक किया जा रहा है। अब इन उपायों के माध्यम से मोटर वाहन अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न विवाद, बैंकिंग व्यवसाय से सम्बन्धित विवाद, बौद्धिक सम्पदा अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले विवाद, बीमा से सम्बन्धित विवाद, संयुक्त उपक्रम से सम्बन्धित विवाद, भागीदारी से सम्बन्धित विवाद- व्यक्तिगत क्षति से सम्बन्धित विवाद तथा वृत्तिक दायित्व (Professional liability) से सम्बन्धित विवाद निस्तारित (Resolve) किए जा रहे हैं।
विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों (Alternative means of Dispute redressal) के लाभ – डॉ० पी० सी० राव ने अपने लेख में विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के निम्न लाभ बताये हैं-
(i) इनका उपयोग किसी भी समय किया जा सकता है, यहाँ तक कि यदि विवाद न्यायालय में लम्बित हों तो उन्हें विवाद के किसी पक्षकार द्वारा किसी भी समय समाप्त किया जा सकता है (बाध्यकारी माध्यस्थम् को छोड़कर)।
(ii) इन विवादों का हल मुकदमेबाजी की अपेक्षा त्वरित रूप से तथा कम खर्च पर हो सकता है। इनसे विवाद को व्यक्तिगत विषय वस्तु बनाये रखने में सहायता मिलती है। कभी-कभी इनसे विवाद का निस्तारण एक या दो दिनों में ही हो जाता है चूँकि विवादों के वैकल्पिक निस्तारण के उपायों की प्रक्रिया पक्षकारों के नियन्त्रण में रहती है अतः इनसे मामलों का सृजनात्मक तथा वास्तविक हल (Solution) प्राप्त होता है।
(iii) विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के अन्तर्गत प्रक्रिया लचीली (Flexible) होती है तथा यहाँ प्रक्रिया कठोर प्रक्रियात्मक नियमों से प्रभावी नहीं होती।
(iv) चूँकि विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक उपायों (ADR) के अन्तर्गत विवाद के पक्षकारों को एक-दूसरे को समझाने में सहायता मिलती है। इससे समय की बर्बादी नहीं कहा जा सकता।
(v) विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय वकीलों की सहायता से या वकीलों के दखल के बिना भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं।
(vi) विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय न्यायालय के बोझ को कम करने में सहायक होते हैं।
प्रश्न 2. विवाद निस्तारण के प्रमुख वैकल्पिक उपाय क्या हैं? विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय के सम्बन्ध में भारत की क्या स्थिति है? What are the important Alternative Means of Dispute Redressal? What is the position of India regarding the Alternative Means of Dispute Resolution?
उत्तर– विवाद निस्तारण के प्रमुख वैकल्पिक उपाय— विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें न तो कोई पक्षकार हारता है। न ही किसी पक्षकार की इसमें विजय होती है। आपसी सद्भावना तथा आपसी लेनदेन के माध्यम से तनिक-सा त्याग भविष्य में उत्पन्न होने वाली महानतम् कठिनाइयों को निवारित करने का अवसर पक्षकारों के लिए यह माध्यस्थम् प्रदान करता है। इसमें पक्षकार स्वयं करार द्वारा न्यायालय की तकनीकी परेशानियों से अपना बचाव कर सकते हैं तथा थोड़ी-सी समझ अपनाकर बड़े से बड़े भावी संग्राम निवारित करने का अवसर प्रदान करते हैं।
किसी विवाद के निस्तारण के निम्नलिखित वैकल्पिक उपाय हो सकते हैं-
(1) समझौता तथा मध्यस्थता द्वारा (By means of Conciliation and Mediation) – यदि विवाद के पक्षकार किसी विवाद का हल बातचीत के माध्यम से करने में असफल हो जाते हैं तो विवाद का निस्तारण करने के लिए किसी निरपेक्ष व्यक्ति की सहायता ले सकते हैं। समझौता एवं मध्यस्थता विवाद के पक्षकारों को संतोषजनक तथा मान्य हल ढूंढ निकालने में मदद करता है। इस माध्यम से एक तीसरा व्यक्ति जिसका विवाद से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है पक्षकारों को हल निकालने के लिए प्रेरित करता है। इसके लिए वह अपने सद्भाव एवं प्रभाव का प्रयोग कर सकता है। उसका कार्य पक्षकारों को समझाना होता है। यह विवाद के पक्षकारों को विवाद के विषय-वस्तु के सम्बन्ध में अनुदान प्रदान करने के लिए प्रेरित करता है।
(2) बातचीत के द्वारा (By Negotiation ) यह विवाद के निस्तारण का सबसे सरल उपाय है। यह एक बाध्यकारी तरीका है। इसमें पक्षकार स्वयं बिना किसी बाहरी व्यक्ति के हस्तक्षेप के बातों के लिए एक दूसरे के समीप आते हैं। इसका उद्देश्य आदान- प्रदान करने के माध्यम से विवाद का निस्तारण करना है। इसमें पक्षकारों को एक दूसरे के पक्ष को प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। पक्षकार एक दूसरे की कठिनाई को समझकर यदि चाहें तो विवाद का हल आपसी आदान-प्रदान के माध्यम से कर सकते हैं। यदि आपसी समझ तथा संयम हो तो बातचीत के जरिये विवाद का हल किया जाना सबसे सरल एवं बिना खर्च के अपनाया जाने वाला उपाय है।
( 3 ) मेडोला की प्रक्रिया द्वारा (By Medola) – यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो तथ प्रारम्भ होती है जहाँ पक्षकार मध्यस्थता (Mediation) के अन्तर्गत किसी करार पर पहुँचने में असफल रहते हैं। यहाँ वह व्यक्ति जो मध्यस्थता कर रहा होता है, वह माध्यस्थ का स्थान ग्रहण कर लेता है तथा वह पक्षकारों द्वारा बातचीत के दौरान प्रभावित प्रस्तावों में से कुछ का निष्पक्षतापूर्वक चुनाव करता है तथा उसके द्वारा किया गया चुनाव विवाद के पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है, उस प्रक्रिया के दौरान पक्षकारों के मध्य बातों के दौरान प्रभावित शर्तों को बाध्यकारी रूप से प्रयोजनों से निष्पक्ष व्यक्ति का चुनाव करता है जिन पर विवाद के दोनों पक्षकार सहमत थे तथा बीच का रास्ता निकालते हुए विवाद के हल पर पक्षकारों को सहमत कराया जाता है।
( 4 ) मध्य मध्यस्थता द्वारा (By Mid-Arbitration)—यह उपाय समझौता तथा मध्यस्थता के बीच की कड़ी है यहाँ पर किसी तृतीय निष्पक्ष व्यक्ति को विवाद के पक्षकार समझौता के विफल रहने पर निर्णय के लिए अधिकृत कर सकते हैं जहाँ समझौता वार्ता विवाद के निस्तारण में सफल नहीं हो पाती वहीं पर मध्य, मध्यस्थता द्वारा विवादों को हल करने की कोशिश की जाती है। इसमें तथा मध्यस्थता के बीच सबसे बड़ा अन्तर यह होता है। कि यह उपाय माध्यस्थ नियम द्वारा साबित नहीं होता है। यह उल्लेखनीय है कि इसमें विवाद का संदर्भ औपचारिक रूप से किया जाता है।
( 5 ) माध्यस्थम् द्वारा (By Arbitration)—यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत विवाद के पक्षकार को सुनने के बाद मध्यस्थ अपना निर्णय पंचाट के रूप में देता है जिससे करार के पक्षकार बाध्य होते हैं। इस प्रक्रिया को माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अधिनियम द्वारा मान्यता प्राप्त है। मध्यस्थ द्वारा किया गया निर्णय उसी प्रकार से प्रभावी होता है जिस प्रकार से कोई डिक्री होती है।
( 6 ) लघु विचारण द्वारा (By Mini-Trial)— लघु विचारण औपचारिक रूप से किये जाने वाले वाद विचार से भिन्न है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पक्षकार एक ईमानदार एवं निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र व्यक्ति का चुनाव करने में समक्ष होते हैं और उनके समक्ष संक्षिप्त रूप से अपना मामला प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से पक्षकारों के तर्क एवं कथन के आधार पर पक्षकारों को निष्पक्ष सलाह दी जाती है एवं उसकी सलाह पर पक्षकार एक निर्णय पर आदान-प्रदान के माध्यम से सहमत होने का मौका पा जाते हैं। इस प्रकार से उस प्रक्रिया में एक निष्पक्ष व्यक्ति के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का पक्षकार अवसर पा जाते हैं तथा इसके प्रस्तुतीकरण के ही आधार पर पक्षकार लेन-देन के आधार पर हल की तलाश करते हैं और ऐसा करने में एक निष्पक्ष व्यक्ति की राय उत्प्रेरक (Catalyst) का काम करती है।
(7) द्रुतगति माध्यस्थम् द्वारा (Fast track Arbitration )— यह माध्यस्थम् का एक प्रकार है जिसमें माध्यस्थम् प्रक्रिया का संचालन अल्प या कम से कम खर्च पर संभव होता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्णय एक दो दिन में ही हो जाता है। इस प्रक्रिया को सामान्यतः व्यापारिक विवादों का हल करने के लिए ही अपनाया जाता है।
विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय के सम्बन्ध में भारत की स्थिति – भारतीय वर्तमान न्याय प्रणाली का विकास अंग्रेजी शासन काल में हुआ है। अंग्रेजों के भारत आने के पूर्व भारत की न्याय पंचायत प्रणाली ही न्याय प्रदान करने का प्रमुख साधन या माध्यम थी। यहाँ तक कि उस समय के पूर्व जब राज्य न्याय वितरण व्यवस्था का प्रावधान था तब भारत में न्याय पंचायत प्रणाली प्रचलित थी। यह न्याय प्रणाली अल्पव्ययी, सरल तथा थी। गाँव के प्रबुद्ध एवं वरिष्ठ लोग जो ईमानदार एवं निष्ठावान होते थे, न्याय वितरण का कार्य करते थे। आम जनता उन्हें भगवान ही मानती थी इसीलिए उन्हें पंच परमेश्वर कहा जाता था। उन्हें न्याय वितरण के समय अपने दायित्वों का इस प्रकार से बोध तथा ज्ञान होता था कि वे सभी प्रकार की कटुता का परित्याग करके निष्पक्षतापूर्ण तथा निःस्वार्थपूर्ण व्यवहार करते थे। अंग्रेजों के आगमन के साथ ही यह न्याय व्यवस्था लगभग पूर्णतः समाप्त हो गयी थी।
सन् 1859 की सिविल प्रक्रिया संहिता में माध्यस्थम् (Arbitration) से सम्बन्धित प्रावधान थे। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेंसियों में प्रचलित विभिन्न विनियमों के अंतर्गत भी माध्यस्थम् जैसे विवाद के निस्तारण के वैकल्पिक उपाय को मान्यता प्राप्त थी। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 28 व्यापार के अवरोध में की गई संविदा को शून्य घोषित करती है किन्तु इस धारा के अपवाद के रूप में माध्यस्थम् को मान्यता दी गयी।
इस दिशा में सार्थक प्रयास माध्यस्थम् अधिनियम, 1899 (Arbitration Act, 1899) से सम्बन्धित प्रावधानों में किया गया था। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की द्वितीय अनुसूची में माध्यस्थम् अधिनियम के बाहर माध्यस्थम् के लिए प्रावधान किया गया था। इनका सम्बन्ध मुख्यतः वादों के अंतर्गत माध्यस्थम् (Arbitration under suits) से था। माध्यस्थम् अधिनियम, 1899 का स्थान माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 ने लिया था। माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 में सिविल प्रक्रिया संहिता की द्वितीय अनुसूची एवं माध्यस्थम् अधिनियम, 1999 के माध्यस्थम् से सम्बन्धित प्रावधानों को संहिताबद्ध किया गया है। यह उल्लेखनीय है कि माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 ब्रिटिश माध्यस्थम, 1934 पर आधारित था। माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 का माध्यस्थम् घरेलू माध्यस्थों से सम्बन्धित था।
माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 के अधिनियमन के बाद भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुई है। दूर संचार के आधुनिक साधनों के विकास से तथा आवागमन के आधुनिक साधनों के विकास के कारण विभिन्न देश के मध्य व्यापार तथा व्यवसाय में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है तथा इससे सम्बन्धित विवादों के निपटारे के लिए माध्यस्थम् प्रक्रिया की आवश्यकता महसूस की गयी थी तथा जिनेवा अभिसमय, 1927, न्यूयार्क अभिसमय, 1958 में पारित किये गये प्रस्तावों के आधार पर क्रमशः माध्यस्थम् (प्रोटोकाल तथा अभिसमय अधिनियम, 1937 तथा विदेशी पंचाट (मान्यता एवं प्रवर्तन) अधिनियम, 1961 पारित हुआ था। सन् 1996 में भारतीय संसद ने माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम पारित किया था और इन सभी अधिनियमों का निरसन कर दिया गया था तथा उनके स्थान पर घरेलू पंचाटों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थों के सम्बन्ध में प्रावधान किये गये हैं और सुलह प्रक्रिया को भी मान्यता दी गयी है।
प्रश्न 3. “न्याय देर से मिलना, न्याय न मिलने के तुल्य है।” इस कथन की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। “Justice delayed is Justice denied.” Critically examine this statement.
उत्तर – न्याय देर से मिलना, न्याय न मिलने के तुल्य है।” यह कथन आज के समय में पूर्णतया सत्य है।
अंग्रेजों द्वारा विकसित न्याय पद्धति के अन्तर्गत अपनाई जाने वाली प्रक्रिया अत्यन्त विलम्बकारी तथा खर्चीली थी जिसके कारण लोगों का विश्वास इस न्याय पद्धति में कम होता गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् एक ऐसी वैकल्पिक पद्धति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी जो इस विलम्बकारी तथा खर्चीली न्याय व्यवस्था के विकल्प के रूप में विवादों के द्रुतगामी तथा अल्पव्ययी निस्तारण के लिए कार्य कर सके। अतः यह सोचा जाने लगा कि विवादों के निस्तारण के वैकल्पिक साधनों को किस प्रकार अधिक वैज्ञानिक रूप से विकसित किया जाय। माध्यस्थम् (Arbitration), सुलह (Conciliation) तथा मध्यस्थता (Mediation) जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक प्रथागत उपायों के विकास की ओर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान गया। भारत ही नहीं अपितु चीन, इंग्लैंड तथा अमेरिका में विवाद निस्तारण के उपरोक्त वैकल्पिक उपायों की लम्बी परम्परा रही है। अब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समुदाय ने विवाद निस्तारण के इन वैकल्पिक उपायों के लाभ को समझा तथा इस बात को महसूस किया कि विवाद निस्तारण के ये वैकल्पिक उपाय ही वर्तमान न्याय- व्यवस्था की बुराइयों का हल है।
न्यासी (मद्रास बंदरगाह) के बाद में न्यायालय ने यह कहा कि “कभी समाप्त न होने वाली जटिल, खर्चीली तथा दीर्घकालीन न्यायिक प्रक्रिया ने विधिवेत्ताओं को इनके विकल्प के बारे में सोचने के लिए विवश किया है ताकि लोगों को सस्ता, कम समय में आसानी से न्याय उपलब्ध हो सके जिससे वे अपने वाणिज्यिक प्रकृति के मामलों को आसानी से हल कर सकें।
यह सर्वविदित तथ्य है कि माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपाय कम खर्चीले तथा कम प्रतिरोधी हैं जिससे वे व्यापारिक सम्बन्धों की सुरक्षा के लिए उनकी व्यापक तथा अहम भूमिका है।
गत वर्षों में विवाद निस्तारण के लिए माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे उपायों का उपयोग व्यापारिक जगत में व्यापक रूप से बढ़ा है। विश्व के कई देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विवादों के निस्तारण में माध्यस्थम्, सुलह तथा मध्यस्थता जैसे विवाद निस्तारण के वैकल्पिक साधनों के महत्व को समझा है तथा उन्हें अपनी न्याय प्रणाली में विधिक मान्यता प्रदान की है, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी व्यापारिक सन्धियों में विवाद निस्तारण के इन वैकल्पिक साधनों (Alternative Means of Dispute Resolution ADR) के सम्बन्ध में सामान्य प्रावधान किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विवादों के वैकल्पिक निस्तारण के साधनों का प्रमुख समर्थक रहा है। इस क्षेत्र के प्रमुख विद्वानों की यह मान्यता रही है कि अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निस्तारण में विवादों के निस्तारण के उन वैकल्पिक साधनों का प्रभाव अधिक रहा है तथा यह प्रभाव और अधिक बढ़ेगा।
अतः विवाद निस्तारण के वैकल्पिक साधन (उपाय) (Alternative ineans of Dispute Resolution ADR) औरचारिक न्याय पद्धति का विकल्प नहीं है परन्तु यह न्याय पद्धति की पूरक है। इसका उद्देश्य विवाद के निस्तारण में खर्च को कम करना तथा विलम्ब को समाप्त करना है। विवाद निस्तारण के वैकल्पिक उपायों के अन्तर्गत बातचीत (Negotiation), मध्यस्थता (Mediation). सुलह या समझौता (Conciliation) तुम माध्यस्थम् (Arbitration) सम्मिलित हैं।
प्रश्न 4. (a) माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 का संक्षिप्त परिचय दीजिए तथा इसके पारित होने के प्रमुख कारणों की व्याख्या कीजिए। Give a short introduction of the Arbitration and Conciliation Act, 1996 and discuss main causes of its enactment.
(b) माध्यस्थम, एवं सुलह अधिनियम के प्रमुख लक्षणों की व्याख्या कीजिए। माध्यस्थम् के क्या लाभ हैं? Explain the salient features of Arbitration and Conciliation Act, 1996. What are the advantages of Arbitration?
उत्तर (a ) – माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के प्रवर्तन के पूर्व भारत में माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 प्रवर्तन में था। माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 सिर्फ भारत में घरेलू विवादों को मध्यस्थम् के माध्यम से हल करने में सहायक था। यह अधिनियम स्वतंत्रता पूर्व पारित अधिनियमों में से एक था। इस अधिनियम में विवादों को सुलह के माध्यम से हल करने की कोई व्यवस्था न थी। इस अधिनियम के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय पर कई परिवर्तन हुए। भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया तथा व्यापारिक गतिविधियों विकसित हुई।
कई भारतीय कम्पनियाँ अस्तित्व में आर्यों जिनका कार्य विस्तार विदेशों में था। उसी प्रकार कई विदेशी कम्पनियों की गतिविधियों भारत में प्रारम्भ हुई तो कई विदेशी कम्पनियों की गतिविधियों का विस्तार भारत में हुआ। विदेशी कम्पनियों की व्यापारिक गतिविधियों के भारत में तथा भारतीय कम्पनियों की व्यापारिक गतिविधियों का विदेशों में विस्तार होने के फलस्वरूप इन कम्पनियों तथा आम जनता के मध्य विवादों का होना अपरिहार्य था। इन विवादों को मध्यस्थम् के माध्यम से हल करने के लिए कुछ व्यापारिक प्रथायें तथा व्यापारिक नियम परिनियम अस्तित्व में थे, परन्तु ये प्रथा तथा परिनियम समेकित तथा निश्चित न थे। इसके अतिरिक्त इन प्रथाओं तथा व्यापारिक नियम परिनियमों को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं थी। कुछ व्यापारिक प्रथाएँ तथा व्यापारिक नियम भारत में मान्यता प्राप्त थे, परन्तु उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किया जाता था। भारतीय माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 के अन्तर्गत माध्यस्थम् के में विवादों के हल किये जाने को सिर्फ भारत में ही मान्यता प्राप्त थी। इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त न थी अतः यह महसूस किया जाने लगा कि माध्यस्थम् के सम्बन्ध में कोई आदर्श विधि होनी चाहिए जिसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो । अतः सन् 1985 में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विधि पर संयुक्त राष्ट्र संघ के आयोग ने एक आदर्श विधि को तैयार किया जिसका केन्द्र बिन्दु अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक माध्यस्थम् था, यदि संसार के सभी स्वतंत्र राष्ट्रों द्वारा इसे स्वीकार कर लिया जाये और इस आदर्श विधि को सभी देश अपनी विधिक प्रणाली में शामिल कर लें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक विवादों के पंचाटों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त होना सम्भव हो सके। इसी उद्देश्य को मूर्त स्वरूप देने के लिए भारतीय संसद द्वारा माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 पारित किया गया।
माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996 का उद्देश्य विदेशी माध्यस्थम् पंचाटों का प्रवर्तन अन्तर्राष्ट्रीय मध्यस्थम् में देशीय माध्यस्थम् से सम्बन्धित विधि को समेकित तथा संशोधित करना तथा सुलह और उससे जुड़े हुए मामलों के लिए या उससे सम्बन्धित विषये को परिभाषित करना अधिनियम का उद्देश्य है। दूसरे शब्दों में माध्यस्थम् तथा सुल अधिनियम, 1996 को भारतीय संसद द्वारा पारित करने के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
1. विदेशी माध्यस्थम् विधि पंचाटों को भारत में लागू करना तथा विदेशी माध्यस्थमों एवं पंचाटों को भारत में मान्यता प्रदान करना;
2. देशी माध्यस्थम् विधि को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुरूप करना तथा उसके लिए यदि संशोधन की आवश्यकता हो तो देशी माध्यस्थम् विधि में। तदनुरूप करना; संशोधन
3. सुलह तथा उससे सम्बन्धित विषयों को परिभाषित करना;
4. ऐसी माध्यस्थम् प्रक्रिया के लिए प्रावधान करना जो ऋजु त्वरित तथा सक्षम हो तथा विशिष्ट माध्यस्थम् की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम हो
5. माध्यस्थम् न्यायाधिकरण के लिए यह प्रावधान करना कि यह माध्यस्थम् पंचाट के लिए कारण दें:
6. माध्यस्थम् कार्यवाहियों में न्यायालय की पर्यवेक्षीय भूमिका को कम करना;
7. विवादों के हल को उत्साहित करने के उद्देश्य से माध्यस्थम् प्रक्रिया के दौरान, माध्यस्थता, सुलह तथा अन्य प्रक्रिया का प्रयोग करने की माध्यस्थम् न्यायाधिकरण को अनुमति देना।
माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 के पारित होने के प्रमुख कारण – इस अधिनियम के पारित होने के प्रमुख कारण निम्न थे –
1. संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विधि आयोग ने वर्ष 1980 में संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग सुलह नियमों (नियमावली) को स्वीकार कर लिया।
2. संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग ने वर्ष 1980 में संयुक्त राष्ट्र अन्तराष्ट्रीय विधि आयोग सुलह नियमों (नियमावली) को स्वीकार कर लिया।
3. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसे मामलों में उक्त नियमों के प्रयोग की संस्तुति की है जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक सम्बन्धों के संदर्भ में विवाद उत्पन्न होता है और पक्षकारगण सुलह का आश्रय लेकर उस विवाद के सौहार्दपूर्ण निपटारे की ईप्सा करते हैं।
4. उक्त आदर्श विधि एवं नियमावली को अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक सम्बन्धों में उत्पन्न विवादों के निष्पक्ष तथा क्षमतापूर्ण (Fair and efficient) निपटारे के लिए स्वीकृत विधिक ढाँचे की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया था, तथा
5. आदर्श विधि तथा सुलह अधिनियम, 1996 की प्राथमिकी में तथा सुलह से सम्बन्धित विधि को निर्मित करना समय की अपेक्षा थी।
यह ध्यातव्य है कि यह अधिनियम, दिनांक 16 अगस्त, 1996 को सन् 1996 के अधिनियम संख्या 26 के रूप में संसद द्वारा पारित किया गया। भारत सरकार ने अपने शासकीय राजपत्र (Official Gazette) के भाग-2 के खण्ड 1 में दिनांक 19 अगस्त, 1996 को इस अधिनियम को प्रकाशित किया तथा इस अधिसूचना में इस अधिनियम के लागू होने की तिथि 22 अगस्त को घोषित की थी। इस प्रकार यह अधिनियम, 22 अगस्त, 1996 को भारत में समस्त भू-भाग पर प्रभावी हुआ।
उत्तर (b) – माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 में कुल 86 धाराओं का समावेश है तथा इसमें तीन अनुसूचियाँ भी शामिल हैं। प्रथम खण्ड में कुल 43 धाराओं का समावेश है। भाग-2 कतिपय विदेशी पंचाटों को प्रवर्तित करता है।
भाग-2 में धारा 44 से 60 तक का समावेश किया गया है तथा इसमें न्यूयार्क अभिसमय एवं जेनेवा अभिसमय से सम्बन्धित प्रमुख बातों का उल्लेख किया गया है। इसमें पूरक उपबन्धों का समावेश धारा 82 से 86 तक विस्तृत है।
इस अधिनियम के प्रमुख लक्षणों पर प्रकाश निम्न शीर्षकों के माध्यम से डाला जा सकता है-
1. समान रूप में लागू होने वाली संहिता;
2. एक विस्तृत एवं स्पष्टीकरणात्मक संहिता;
3. अधिनियम द्वारा न्यायालय की शक्ति को सीमित किया जाना;
4. मध्यस्थता एवं पंचाट के लिए विस्तृत प्रक्रिया;
5. न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार का संक्षेप एवं सुष्ट वर्णन
6. मध्यस्थों के अधिकार में वृद्धि;
7. अधिनियम से सम्बन्धित नवीन परिकल्पना ।
1. समान रूप में लागू होने वाली संहिता – सन् 1996 का वर्तमान मध्यस्थम् अधिनियम के पारित होने के पीछे उद्देश्य यह है कि उसके द्वारा पूर्व में विद्यमान सभी माध्यस्थमों व विनियमों को समेकित करने के साथ-साथ उनमें आवश्यक संशोधन किया जाये जिससे यह आन्तरिक परिस्थितियों के अनुरूप हो एवं घरेलू नागरिकों के बीच वर्तमान विवादों को शान्तिपूर्वक निपटाने में सहायक हो सके इसके अतिरिक्त इस अधिनियम के पारित होने के पीछे अन्य कारण भी थे जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक विवादों को हल करने में इसकी उपादेयता आदि अर्थात् इस विवाद के संदर्भ में माध्यस्थम् अधिनियम प्रासंगिक है। अतः विवाद को हल करना इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य रहा है।
इस अधिनियम के अन्तर्गत विदेशी पंचाटों को प्रवर्तन में लाने की भी व्यवस्था है। सन् 1985 में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक माध्यस्थम् पर संयुक्त राष्ट्र के आयोग तथा संयुक्त राष्ट्र के जेनेवा सम्मेलन द्वारा की गयी संस्तुतियों के कारण राष्ट्रों के मध्य यह राय बनी कि माध्यस्थम् पर एक ऐसी आदर्श विधि का निर्माण हो जिसका सभी राष्ट्रों की विधि में समावेश हो एवं जो सभी राष्ट्रों द्वारा मान्य हो। माध्यस्थम् प्रक्रिया की समरूपता तथा माध्यस्थम् व्यवहार की विशिष्ट आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस अधिनियम का अध्यादेश जारी करना न्यायोचित था तथा जो कालान्तर में इस व्यापक अधिनियम का रूप ले सका। अतः माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से लागू किया गया है।
2. एक विस्तृत एवं स्पष्टीकरणात्मक संहिता – पुराने माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 में अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् के बारे में कोई उपबन्ध नहीं था। पुरानी माध्यस्थम् विधि घरेलू माध्यस्थम् तक ही सीमित थी, जबकि 1996 का माध्यस्थम् अधिनियम अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यापक संहिता है। यह वर्तमान परिवेश के अनुरूप है। इस वर्तमान अधिनियम में प्रथम बार माध्यस्थम् न्यायाधिकरण के बारे में प्रावधान किया गया है। इसमें माध्यस्थमाँ, मध्यस्थ परिसर तथा सांविधिक मध्यस्थों को दर्जा प्रदान करके उनके निर्णयों को अंतिमता प्रदान की गयी है। इस अधिनियम में विदेशी तथा अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् के चुनाव की विस्तृत तथा विधिक प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम में सुलह की प्रक्रिया को प्रथम बार मान्यता प्रदान की गयी तथा सुलह की कार्यवाही को अन्य कार्यवाहियों में ग्राह्य किये जाने का प्रावधान किया गया। इस अधिनियम के प्रावधान विस्तृत तथा स्पष्टीकरणात्मक होने के कारण इनको समझना सरल है।
3. अधिनियम द्वारा न्यायालय की शक्ति को सीमित किया जाना- इस – अधिनियम में माध्यस्थम् मामलों में न्यायालय की शक्तियों को इस अधिनियम की सीमाओं के अन्तर्गत सीमित किया गया है। इस अधिनियम की धारा 5 के अनुसार विधि की अन्य शाखाओं के अन्तर्गत अन्तर्निहित प्रावधानों के रहते हुए इस अधिनियम के भाग-1 में शामिल विषयवस्तु पर जिसका सम्बन्ध माध्यस्थम् से है, इस भाग के प्रावधानों के अतिरिक्त कोई न्यायिक अधिकरण हस्तक्षेप नहीं करेगी। इस अधिनियम की धारा 35 पंचारों की अंतिमता के बारे में है। इस धारा के अनुसार अधिनियम के भाग-1 के प्रावधानों के अधीन माध्यस्थम् पंचाट अंतिम होगा एवं इस पंचाट के अधीन दावा करने वाले पक्षकारों तथा व्यक्तियों पर यह माध्यस्थम् पंचाट अंतिम होगा।
4. मध्यस्थता एवं पंचाट के लिए विस्तृत प्रक्रिया – माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 के भाग-5 में माध्यस्थम् प्रक्रिया को संचालित करने हेतु विस्तृत प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम की धारा 18 में प्रथम बार पक्षकारों के साथ समान व्यवहार का प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत माध्यस्थम् के पक्षकारों, व्यक्तियों को समान मानते हुए यह व्यवस्था की गयी है। इनको अपने मामलों को रखने का सम्मान तथा पूर्ण अवसर (Equal and full opportunity) प्रदान किया जायेगा। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत की प्रक्रिया को अपनाने का विकल्प पक्षकारों को दिया गया है अर्थात् यदि पक्षकार चाहें तो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की प्रक्रिया को अपनायें या आपसी सहमति के आधार पर अपनी स्वयं की प्रक्रिया अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं।
माध्यस्थम् न्यायाधिकरण को यह स्वतंत्रता दी गयी है, कि वह माध्यस्थम् प्रक्रिया का संचालन ऐसी प्रक्रिया से कर सकते हैं जो उनके अनुसार उचित हो। माध्यस्थम् न्यायाधिकरण के क्षेत्राधिकार पर आपत्ति करने हेतु सीमा का प्रावधान किया गया है।
माध्यस्थम् न्यायाधिकरण के क्षेत्राधिकार पर आपत्ति बचाव के कथन दाखिल किये जाने से पहले की जानी चाहिए।
क्षेत्राधिकार एवं उनके अधिकार पर आपत्ति के निस्तारण का अधिकार स्वयं माध्यस्थम् न्यायाधिकरण को है फिर भी व्यथित पक्षकार पंचाट को अपास्त करने हेतु आवेदन कर सकता है।
5. न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार का संक्षेप एवं सुस्पष्ट वर्णन – न्यायिक हस्तक्षेप की सीमा अधिनियम की धारा 42 में वर्णित है। कोई भी न्यायिक अधिकरण इस अधिनियम की धारा 5 के प्रावधानों के अतिरिक्त हस्तक्षेप नहीं कर सकता है वहाँ एक माध्यस्थम् करार के लिए इस अधिनियम के भाग-1 के अन्तर्गत आवेदन न्यायालय में किया गया हो।
माध्यस्थम् कार्यवाही में हस्तक्षेप करने का अधिकार न्यायालय को होगा तथा माध्यस्थम् की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने का अधिकार उसी न्यायालय को होगा जहाँ ऐसा आवेदन किया गया है तथा इस करार या इस माध्यस्थम् कार्यवाही से उत्पन्न सभी पश्चात्वर्ती आवेदनों को उच्च न्यायालय में ही किया जाएगा। अन्य न्यायालय में नहीं।
माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 सिर्फ विशिष्ट मामलों में ही न्यायालय के हस्तक्षेप की अनुमति देता है। माध्यस्थम् अधिकरण को पूर्ण अनुमति से साक्ष्य लेने के लिए न्यायालय की सहायता ली जा सकती है। इस अधिनियम की धारा 27 (1) के अनुसार माध्यस्थम् न्यायाधिकरण पर पक्षकार माध्यस्थम् न्यायाधिकरण की पूर्व अनुमति से साक्ष्य लेने के प्रयोजन से न्यायालय की सहायता ले सकते हैं।
6. मध्यस्थों के अधिकार में वृद्धि – सन् 1940 में पुराने माध्यस्थम् अधिनियम की अपेक्षा सन् 1996 के नवीन माध्यस्थम् अधिनियम के अन्तर्गत मध्यस्थों को. अधिक अधिकार दिये गये हैं।
नवीन अधिनियम के भाग-4 की धारा 16 एवं 17 इस विषय में प्रावधान करती है। धारा 16 तथा 17 के प्रावधानों ने क्षेत्राधिकार के सम्बन्ध में मध्यस्थों के अधिकार में अधिक वृद्धि की है। इन धाराओं के प्रावधानों ने मध्यस्थ के शासन शक्ति क्षमता में वृद्धि की है। धारा 17 के अनुसार एक पक्षकार के आवेदन करने पर विवाद की विषयवस्तु की सुरक्षा के लिए उपाय करने हेतु उपाय करने के अन्तरिम आदेश मध्यस्थ दे सकता है।
माध्यस्थम् न्यायाधिकरण एक पक्षकार से यह अपेक्षा कर सकता है कि वह विषयवस्तु की सुरक्षा के उपाय के सम्बन्ध में कोई प्रतिभूति दे।
7. अधिनियम से सम्बन्धित नवीन परिकल्पना – सन् 1996 का माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम नवीन अन्तर्राष्ट्रीय सुलह की सीमा तथा प्रवर्तन के बारे में उपबन्ध करता है। इस अधिनियम के भाग तीन में सुलह प्रक्रिया का समावेश किया गया है। इस भाग में यह प्रावधान किया गया है कि लम्बित, विवादित या सम्भावित विवाद में एक पक्षकार सुलह की प्रक्रिया की शुरुआत कर सकता है। यदि दूसरा पक्षकार इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो विवाद को सुलहकर्ता को सौंपा जा सकता है। सुलहकर्ता की संख्या सामान्यतः एक होगी। परन्तु पक्षकारों की सहमति के आधार पर सुलहकर्ताओं की संख्या 2 या 3 हो सकती है।
धारा 67 के अनुसार सुलहकर्ता विवाद का मैत्रीपूर्ण निपटारा करने में पक्षकारों की स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रूप से सहायता करने का प्रयास करेगा सुलहकर्ता की नियुक्ति को प्रक्रिया धारा 64 में दी गयी है। इस प्रक्रिया के अनुसार इस प्रकार निष्पक्ष सुलहकर्ता सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही करेगा और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 की प्रक्रिया के अनुसार कार्य करेगा। सुलहकर्ता का यह प्रयास होगा कि पक्षकार आपस में शांतिपूर्ण हल पर सहमत हों।
धारा 68 के अनुसार सुलहकर्ता, यदि पक्षकार सहमत हों तो उपर्युक्त नियम की प्रशासनिक सहायता ले सकता है। सुलहकर्ता सम्भावित हल की शर्तों को तैयार कर पक्षकारों के सम्मुख रख सकता है। यदि पक्षकार इन शर्तों के अवलोकन के पश्चात् कोई आपत्ति या सुझाव रखते हैं तो उनकी आपत्तियों तथा सुझावों के आलोक में सुलहकर्ता पुनः एक नवीन हल या समझौते का प्ररूप निर्मित करेगा। यदि पक्षकार इस नवीन प्ररूप पर सहमत हो जाते हैं। तो समझौता करार तैयार किया जायेगा जिसे एक लिखित समझौता करार कहा जाएगा जिस पर पक्षकार अपने हस्ताक्षर करेंगे। उसके पश्चात् उस समझौता करार का वह प्रभाव होगा जो सामान्य न्यायालयों के निर्णयों का होता है। माध्यस्थम् पंचाट का सुलहकर्ता तथा पक्षकार सुलह की कार्यवाही की सभी बातें गुप्त रखेंगे जब तक कि इनका प्रकटन सुलह करार के प्रवर्तन के लिए आवश्यक न हो। मेसर्स सुन्दरम फाइनेन्स लि० बनाम मेसर्स एल० एफ० पी० सी०, इण्डिया लि० ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 565, के मामले में यह अवधारित किया गया कि माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के उपबन्धों का निर्वाचन अधिनियम, 1940 में उपबन्धित प्रावधानों तथा सिद्धान्तों से प्रभावित हुए बिना किया जाना। चाहिए। यदि माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 के उपबन्ध का निर्वचन करना है तो इसके लिए संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विधि आयोग की आदर्श विधि की सहायता लेनी चाहिए न कि अधिनियम, 1940 के प्रावधानों की
माध्यस्थम् के लाभ – माध्यस्थम् के निम्नलिखित लाभ हैं-
1. सर्वप्रथम लाभ यह है कि माध्यस्थम् के कारण न्यायालय की पारम्परिक तकनीकी प्रक्रिया का सामना नहीं करना पड़ता है। न्यायालय की प्रक्रिया एक तकनीकी प्रक्रिया है तथा इसके संचालन के लिए विधि विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है। माध्यस्थम् एक अति सरल तथा द्रुतगामी प्रक्रिया है। माध्यस्थम् प्रक्रिया पर सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 तथा साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तकनीकी प्राक्रियात्मक उपबन्ध लागू नहीं होते हैं। माध्यस्थम् के अन्तर्गत विवाद के पक्षकार माध्यस्थम् प्रक्रिया के संचालन के लिए प्रक्रिया का निर्धारण आपसी सहमति से करार द्वारा कर सकते हैं।
2. माध्यस्थम् से दूसरा लाभ यह है कि माध्यस्थम् प्रक्रिया अधिक द्रुतगामी होती है। तथा बोझिल नहीं होती है। अक्सर देखा जाता है कि न्यायिक प्रक्रिया के अन्तर्गत न्यायालय में लम्बित वादों की बहुलता के कारण न्यायिक प्रक्रिया अत्यन्त बोझिल एवं विलम्बकारी होती है। किसी न्यायालय में यह निश्चित नहीं होता है कि मामला न्यायालय के समक्ष कब सुनवाई के लिए आयेगा जबकि माध्यस्थम् प्रक्रिया सिर्फ एक ही मामले के सम्बन्ध में होती है। अतः इसकी सुनवाई के लिए तिथियों का निर्धारण पक्षकारों की सहमति से उनकी सुविधा के अनुसार किया जाना सम्भव होता है। अतः माध्यस्थम् कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही की भाँति विलम्बकारी नहीं होती है। प्रथम अनुसूची में यह प्रावधान किया गया है कि माध्यस्थम् को चार महीने में तथा अधिनिर्णय को दो माह के अन्दर पंचाट का निर्णय देना होता है और यदि इस अवधि को पक्षकारों द्वारा न्यायालय को बताया नहीं गया हो।
3. तीसरा लाभ यह है कि माध्यस्थम् प्रक्रिया के निर्णायक की नियुक्ति पक्षकारों की सहमति से होती है। न्यायिक प्रक्रिया का संचालन सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश द्वारा होता है जिनके निर्णय पक्षकारों पर पक्षकारों की मर्जी के विरुद्ध आवडकर होते हैं। किन्तु माध्यस्थम् प्रक्रिया में निर्णायक (मध्यस्थों) की नियुक्ति विवाद के पक्षकारों द्वारा की जाती है। अतः इसके लिए विवाद के पक्षकार निर्णायकों (मध्यस्थों) को अपनी पसंद के अनुसार नियुक्त करते हैं। माध्यस्थम् प्रक्रिया के पक्षकार अपनी सुविधानुसार माध्यस्थम् कार्यवाही के स्थान का चुनाव कर सकते हैं जबकि न्यायिक प्रक्रिया में ऐसा किया जाना सम्भावना ही होती है किन्तु यदि एक बार करार द्वारा मध्यस्थ, माध्यस्थम् प्रक्रिया तथा माध्यस्थम् के स्थान के चयन के सम्बन्ध में करार हो जाने पर पक्षकार करार की शर्तों से आबद्ध हो जाते हैं। माध्यस्थम् प्रक्रिया में माध्यस्थम् का स्थान तथा समय पक्षकारों की सुविधा के अनुसार निर्धारित किया जाना सम्भव होता है जो न्यायिक प्रक्रिया में सम्भव नहीं है।
4. माध्यस्थम् का चौथा लाभ यह है कि इसकी प्रक्रिया में तकनीकी विशेषज्ञों (Technical Experts) का लाभ मिल जाता है। माध्यस्थम् प्रक्रिया में मध्यस्थ (Arbitrator) की नियुक्ति पक्षकारों द्वारा की जाती है और पक्षकार ऐसे व्यक्ति को मध्यस्थ नियुक्त कर सकते हैं जिसे विवादास्पद विषयवस्तु पर विशेषज्ञता प्राप्त होती है। विशेषज्ञों को सम्बन्धित विषय की विधि एवं प्रथाओं का समुचित ज्ञान होता है। इसके विपरीत न्यायिक प्रक्रिया में हम देखते हैं कि न्यायाधीशगण सभी विषयों में कुशल नहीं होते हैं। यद्यपि न्यायाधीशों द्वारा विशेषज्ञों की परामर्श एवं सहायता ली जा सकती है किन्तु ऐसे विशेषज्ञ एक सामान्य साक्षी के अलावा कोई महत्व नहीं रखते हैं और उनके द्वारा दी गयी जानकारी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती है।
5. माध्यस्थम् प्रक्रिया में एक लाभ यह भी है कि इसमें मध्यस्थ के द्वारा विषय-वस्तु की व्यक्तिगत जाँच की जा सकती है। न्यायिक प्रक्रिया में यद्यपि न्यायालय भी विवादस्थल अथवा विवादित वस्तु की जाँच या अवलोकन कर सकता है किन्तु अपनी व्यस्तता के कारण न्यायालय इस कार्य को किसी अधिवक्ता या किसी कर्मचारी को कमीशन के रूप में भेजकर करवाता है जबकि माध्यस्थम् प्रक्रिया के अन्तर्गत माध्यस्थम् स्वयं विवादित या विवाद की विषय-वस्तु की जाँच तथा अवलोकन करके स्वयं जानकारी प्राप्त करता है। इस प्रकार के मामले पर निर्णय अधिक सुनिश्चितता से किया जा सकता है।
6. माध्यस्थम् की प्रक्रिया एवं कार्यवाही में मामले की गोपनीयता बनाये रखना सम्भव हो जाता है। चूँकि माध्यस्थम् प्रक्रिया में मध्यस्थ प्रक्रिया के दौरान पक्षकारों के अतिरिक्त अवांछित व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित रहता है इसलिए मामले की गोपनीयता बनाये रखना सम्भव होता है जबकि न्यायिक प्रक्रिया एवं कार्यवाही खुली अदालत में होती है। जहाँ हर आदमी पहुँच सकता है और विवाद तथा उस विषय-वस्तु या विवादग्रस्त पक्षकारों के विषय में गोपनीयता बनाये रख पाना असम्भव सा हो जाता है। इस तरह से माध्यस्थम् प्रक्रिया में अवांछित प्रचार से बचाव किया जा सकता है।
7. माध्यस्थम् प्रक्रिया न्यायिक प्रक्रिया की अपेक्षा कम खर्चीली होती है। न्यायिक प्रक्रिया में अधिवक्ताओं की फीस देनी पड़ती है तथा न्यायालय को फोस देनी पड़ती है और कई प्रकार के दस्तावेज आदि तैयार करवाने का भुगतान भी मामले के पक्षकारों को वहन करना पड़ता है और यह भी निश्चित नहीं रहता है कि एक निश्चित तारीख को सुनवाई पूरी हो जाएगी, इसलिए साक्षियों को बुलाने आदि के कारण भी वादकारों को पर्याप्त मात्रा में धन खर्च करना पड़ता है। माध्यस्थम् कार्यवाही में सामान्यतः इस प्रकार के खर्च आदि से बचा जा सकता है। मध्यस्थ सुनवाई के स्थान तथा सुनवाई के समय को निश्चित करके उसकी सूचना सम्बन्धित पक्षकारों को दे देता है। इस प्रकार से माध्यस्थम् के पक्षकार अपने साथियों एवं पैरवीकारों को माध्यस्थम् के स्थान एवं समय की सूचना दे देते हैं जिससे इसकी उपस्थिति माध्यस्थम् की प्रक्रिया एवं कार्यवाही न्यायिक प्रक्रिया की अपेक्षा कम खर्चीली होती है।
8. माध्यस्थम् प्रक्रिया से सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसके पक्षकार मध्यस्थ के प्राधिकार का कतिपय आधारों पर प्रतिसंहरण कर सकते हैं। यदि माध्यस्थम् के पक्षकार माध्यस्थम् प्रक्रिया के दौरान यह पाते हैं कि मध्यस्थ भ्रष्ट आचरण एवं कपटपूर्ण व्यवहार या पक्षपात से ग्रस्त है तो वे मध्यस्थ के प्राधिकार को वापस ले सकते हैं जबकि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान ऐसा किया जाना प्रायः असम्भव होता है।
9. पाध्यस्थम् प्रक्रिया में प्रक्रिया के पूरा होने की समयावधि का निर्धारण किया जा सकता है। माध्यस्थम् प्रक्रिया कितने समय तक चलेगी अर्थात् माध्यस्थम् अधिकरण कितनी समयावधि में पंचाट को जारी कर सकेगा, यह माध्यस्थम् के पक्षकार करार द्वारा निर्धारित कर सकते हैं जबकि न्यायिक प्रक्रिया के बाद के निर्णय के लिए समयावधि का निर्धारण असम्भव होता है।
10. माध्यस्थम् से एक लाभ यह भी है कि इसकी प्रक्रिया के दौरान मध्यस्थ को प्राप्त हुई जानकारी या माध्यस्थम् प्रक्रिया के दौरान उसके द्वारा अवलोकित साक्ष्य या दस्तावेजों की अन्तर्वस्तु मध्यस्थ या माध्यस्थम् अधिकरण कहीं भी प्रकट नहीं कर सकता है। अतः विवाद के पक्षकार निश्चित एवं निर्भयतापूर्वक अपने साक्ष्य एवं दस्तावेज मध्यस्थ को दिला सकते हैं क्योंकि उनकी गोपनीयता को प्रकट नहीं किया जा सकता है।
माध्यस्थम् अधिनियम की रचना इस उद्देश्य से की गयी थी कि दीवानी न्यायालयों में यादों की सुनवायी में जो विलम्ब हो रहा है, उसकी समाप्ति हो सके और पक्षकारों को शीघ्र, सस्ता और सरल न्याय प्राप्त हो सके, लेकिन इस कानून की कुछ कमजोरियों ने इस उद्देश्य को व्यर्थ कर दिया है। नए माध्यस्थम् अधिनियम ने एक ओर प्रक्रिया को सरल बनाया है। और पंच निर्णय को स्वयमेव न्यायालय की डिक्री का स्तर प्रदान कर दिया है, लेकिन दूसरी ओर धारा 36 में यह व्यवस्था देकर कि, जब तक पंचाट के विरुद्ध आपत्तियों का निस्तारण न हो, पंचाट का अनुपालन नहीं होगा, सम्पूर्ण उद्देश्य को व्यर्थ कर दिया। अब स्थिति यह है कि पंचाट के विरुद्ध आपत्ति जिला न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत होती है। जिला न्यायाधीश के पास कार्य का भार इतना अधिक होता है कि उन्हें माध्यस्थम् अधिनियम के वादों के शीघ्र निस्तारण का समय नहीं रहता है और इस सम्बन्ध में वाद कई वर्ष तक विचाराधीन रहते हैं। पंचाट का अनुपालन तत्काल नहीं होने से पक्षकार न्याय पाने से वंचित हो जाते हैं। माध्यस्थम् . की सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यर्थ हो जाती है। इस परिस्थिति को समाप्त करने के दो विकल्प है।
पहला पंचाट के अनुपालन के सन्दर्भ में आपत्ति निस्तारण की पूर्व शर्त समाप्त कर दी जाये। ।। दूसरा यह व्यवस्था कर दी जाये कि यदि आपत्ति का निस्तारण जिला न्यायाधीश द्वारा तीन महीने की निश्चित अवधि में नहीं किया जा सके तो एवार्ड का निष्पादन कराया जा सकेगा। एक अन्य विकल्प भी सम्भव है कि यह वाद जिला न्यायाधीश के बजाय अपर जिला न्यायाधीश के द्वारा सुने जाने की व्यवस्था हो, लेकिन इस सन्दर्भ में माध्यस्थम् अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता है जो संसद द्वारा ही सम्भव है।
इस प्रकार से माध्यस्थम् से वादकारियों को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। माध्यस्थम् अधिनियम को इसी उद्देश्य से लाया गया था कि दीवानी न्यायालयों के समक्ष वादों की सुनवाई में जो विलम्ब हो रहा है, उसको समाप्ति हो सके और पक्षकारों को त्वरित, सस्ता एवं सरल न्याय प्राप्त हो सके। किन्तु इस अधिनियम में कतिपय ऐसी खामियाँ हैं जिनके कारण यह उद्देश्य व्यर्थ हो गया है। जैसे नये माध्यस्थम् अधिनियम ने एक ओर प्रक्रिया को सरल बनाया है और पंच निर्णय को स्वयमेव न्यायालय की डिक्री का स्तर प्रदान कर दिया है। किन्तु दूसरी ओर धारा 36 में यह व्यवस्था देकर कि जब तक एवार्ड के विरुद्ध आपत्तियों का निस्तारण न हो तब तक उनका अनुपालन नहीं होगा, सम्पूर्ण उद्देश्य को व्यर्थ कर देता है।
प्रश्न 5. माध्यस्थम् से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार के होते हैं? मध्यस्थ की नियुक्ति के प्रावधानों की संक्षेप में व्याख्या करें। What do you understand by Arbitration? What are the kinds of Arbitration? Discuss the provisions of appointment of Arbitrators.
उत्तर— जब विवाद के पक्षकार अपनी सहमति से समझौता करके मध्यस्थ नियुक्त करते हैं और उसे विवाद को सौंपते हैं तब विवाद को सुलझाने की इस पद्धति को माध्यस्थम् कहा जाता है। प्रारम्भ में माध्यस्थम् के लिए कोई विशिष्ट विधि नहीं बनायी गयी थी परन्तु कुछ विनिमय जो प्रेसीडेन्सियों में अस्तित्व में थे जिनमें केवल यादों के मध्यस्थता के लिए ही मान्यता प्राप्त थी। सर्वप्रथम इसका प्रावधान दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1859 की धारा 312 तथा 314 में किया गया परन्तु स्वतंत्र रूप से यह 1899 में ही प्रावधानित हो सका। दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1859 के अधीन पहली बार न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना ही विवाद को माध्यस्थम् को सौंपने का प्रावधान किया गया जबकि माध्यस्थम् अधिनियम, 1899 में भविष्य में उत्पन्न होने वाले संभावित विवादों या मतभेदों को माध्यस्थम को सौंपने की व्यवस्था की गयी थी परन्तु यह अधिनियम केवल प्रेसीडेन्सी नगरों में ही लागू था अतः समान विधिक रूप में इसे लागू करने के लिए माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 पारित किया गया, जो सम्पूर्ण भारत के लिए समान प्रावधान करता है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में निरन्तर वृद्धि के फलस्वरूप यह अधिनियम सफल नहीं हो सका तथा इसमें व्यापक परिवर्तन कर इस अधिनियम को निरसित कर दिया गया तथा मध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
माध्यस्थम् (Arbitration)- मानव एक विवेकशील प्राणी है और इनके बीच विवाद अवश्यम्भावी है। विधि इस विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थता को प्रोत्साहित करती है। माध्यस्थम् सुलह का एक तरीका है जो सबसे आसान तथा कम खर्चीला है। माध्यस्थम् में विवाद के पक्षकारों को निर्णायक के चुनाव की स्वतंत्रता होती है परन्तु निर्णय का अधिकार एक अन्य व्यक्ति को होता है। जब पक्षकार विवादों को सुलह करने के दृष्टिकोण से अन्य व्यक्ति की मध्यस्थता को स्वीकार करते हैं और आपस में करार करते हैं तो ऐसे तरीके को माध्यस्थम कहा जाता है। अतः माध्यस्थम् का अर्थ है दो या दो से अधिक पक्षकारों द्वारा अपने विवादों को मध्यस्थ नामक एक तीसरे व्यक्ति को निर्णय करने के लिए सुपुर्द करना है जो विवाद का निर्णय न्यायिक तरीके से करता है। माध्यस्थम् को परिभाषित करते हुए जॉन बी० साउण्डर्स ने कहा है कि –
“माध्यस्थम् दो या दो से अधिक पक्षकारों के मध्य विवाद या मतभेद को दोनों पक्षकारों को न्यायिक रूप से सुनने के पश्चात् निर्णय के लिए ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को किया गया संदर्भ है जो सक्षम क्षेत्राधिकार का न्यायालय नहीं है।”
रोमली एच० आर० ने कालिन्स बनाम कालिन्स, 28 1. Ch. 186 नामक प्रसिद्ध बाद में माध्यस्थम् को परिभाषित करते हुए कहा कि- “माध्यस्थम् करारों के मध्य विशिष्ट विषय-वस्तु पर मतभेद का एक या एक से अधिक व्यक्तियों को अधिनिर्णायक (umpire) या (Proceeding officer) के बिना, निर्णय के लिए किया गया संदर्भ है।”
माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (1) का खण्ड (क) माध्यस्थम् को निम्न परिभाषा करता है-“मध्यस्थ से कोई माध्यस्थ अभिप्रेत है जो चाहे स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा किया गया हो या नहीं।”
उपरोक्त परिभाषाओं के निष्कर्ष स्वरूप देखें तो अधिनियम की परिभाषा स्पष्ट नहीं है क्योंकि परिभाषा के अनुसार माध्यस्थम् सिर्फ स्थायी या अस्थायी संस्था द्वारा प्रशासित हो सकता है जबकि यह आवश्यक नहीं है कि माध्यस्थम् स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा ही प्रशासित हो।
अतः माध्यस्थम् ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को पक्षकारों के मतभेद या विवाद का संदर्भ है, जिसे मध्यस्थ कहा जाता है जिसकी नियुक्ति पक्षकार आपसी सहमति से करार द्वारा कर सकते हैं तथा जो सक्षम क्षेत्राधिकार का न्यायालय नहीं है। माध्यस्थम् न्यायिक प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्णय के लिए न्यायालय में दाखिल किया गया याद नहीं है।
मध्यस्थ (Arbitrator ) मध्यस्थ एक ऐसा न्यायाधीश है जो पक्षकारों के बीच के मतभेदों तथा विवादों के निर्णय के लिए आपसी सहमति द्वारा चुना जाता है। इन्हें मध्यस्थता का अधिकार होता है तथा उनके निर्णय भी निश्चित होते हैं। इसीलिए इनके विरुद्ध कोई अपील नहीं होती। मध्यस्थ के रूप में एक वकील या गंवार कोई भी व्यक्ति हो सकता है। मध्यस्थ की एकमात्र अर्हता उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता से है अर्थात् मध्यस्थ की कोई अर्हता निर्धारित नहीं की गयी है। परन्तु मध्यस्थ वही व्यक्ति होता है जिसे विवाद की विषयवस्तु का सम्यक् ज्ञान हो तथा वह विवादित विषय-वस्तु का विशेषज्ञ हो, यद्यपि मध्यस्थ के निर्णयों के विरुद्ध कोई अपील नहीं होती. परन्तु कुछ अपवादित परिस्थितियाँ हैं –
जिसमें इसे अपास्त किया जा सकता है-
(i) मध्यस्थ ने कपटपूर्ण आचरण किया है।
(ii) मध्यस्थ भ्रष्ट आचरण का दोषी है।
(iii) मध्यस्थ के निर्णय में विधि की त्रुटि हो
मध्यस्थ की नियुक्ति (Appointment of Arbitrator ) – माध्यस्थम् अधिकरण के लिए मध्यस्थों की नियुक्ति से सम्बन्धित उपबन्ध धारा 11 में किया गया है। मध्यस्थ की कोई विशिष्ट अर्हता निर्धारित नहीं की गई है अतः मध्यस्थ के रूप में कोई भी व्यक्ति नियुक्त हो सकता है फिर भी यह ध्यान रखा जाता है कि मध्यस्थ विवादित विषयवस्तु में विशिष्ट जानकारी तथा कौशल रखने वाला ही होना चाहिए। यहाँ तक कि पक्षकारों के नाते-रिश्तेदार तथा सम्बन्धी भी मध्यस्थ नियुक्त किये जा सकते हैं। अतः मध्यस्थ की एकमात्र अर्हता उसकी निष्पक्षता, स्वतंत्रता या नैतिकता तथा समर्पण है। मध्यस्थ के निर्णय को पक्षपात, भ्रष्टाचार या कपटपूर्ण आचरण के आधार पर उन्हें अपास्त किया जा सकता है। विवाद के पक्षकार जितनी संख्या में चाहें मध्यस्थ नियुक्त कर सकते हैं, परन्तु उनकी संख्या सम न हो जब तक कि पक्षकारों के मध्य अन्यथा करार न हो। विवाद के पक्षकार किसी भी राष्ट्र के नागरिकों का चुनाव कर सकते हैं यह चुनाव प्रक्रिया का निर्धारण आपसी सहमति या करार द्वारा किया जा सकता है।
कई मध्यस्थों से मिलकर माध्यस्थम् अधिकरण है जिसमें तीन सदस्य होंगे। एक- एक मध्यस्थ की नियुक्ति स्वयं पक्षकार करेंगे तथा तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति चुने गये मध्यस्थ ही करेंगे। परन्तु यह 30 दिनों के भीतर ही होना आवश्यक है। इसको अवधि बीत जाने पर किसी एक पक्षकार के अनुरोध पर मुख्य न्यायाधीश या कोई नामित व्यक्ति ही कर सकता है। मध्यस्थों की नियुक्ति के प्रावधान में निम्न व्यक्ति भी शामिल हो सकते हैं। जैसे –
1. हितबद्ध व्यक्ति की मध्यस्थ के रूप में नियुक्ति – कोई भी व्यक्ति यहाँ तक कि विदेशी व्यक्ति भी मध्यस्थ हो सकता है परन्तु ऐसा कोई व्यक्ति जो विवाद की विषयवस्तु में हित रखता है, वह भी मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकता है। शर्त यह होगी कि इसकी जानकारी विवाद के पक्षकारों को होनी चाहिए।
2. पक्षकारों की सहमति से मध्यस्थों की नियुक्ति-विवाद के दोनों पक्षकार किसी एक व्यक्ति को मध्यस्थ नियुक्त करने के लिये आपसी करार या सहमति बनाकर नियुक्त कर सकते हैं। इसे एकमात्र मध्यस्थ भी कहा जा सकता है। विवाद के पक्षकार यदि चाहें तो मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए किसी व्यक्ति को या किसी संस्था को मध्यस्थ के लिए नामित कर सकते हैं तो व्यक्ति या संस्था या निकाय द्वारा की गयी मध्यस्थ की नियुक्ति पत्रकारों पर आबद्धकर होगी।
3. करार में नामित व्यक्ति की नियुक्ति- विवादित पक्षकार मध्यस्थों की नियुक्ति के लिए बाध्य हैं। न्यायालय करार की अनदेखी करके किसी व्यक्ति की नियुक्ति नहीं कर सकता।
4. आपत्तिजनक व्यक्तियों की मध्यस्थ के रूप में नियुक्ति – विवादित पक्षकार मध्यस्थों की नियुक्ति के संदर्भ में पूर्णतः स्वतंत्र हैं। मध्यस्थ अधिकरण का चुनाव स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते हैं। यदि विवाद के पक्षकार एक बेईमान, पक्षपाती तथा विवाद की विषयवस्तु में हितबद्ध व्यक्ति या व्यक्तियों की नियुक्ति पर पूर्व जानकारी के साथ सहमत होते हैं तो ऐसे व्यक्तियों की मध्यस्थ के रूप में नियुक्ति अवैध नहीं होती तथा ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति के पश्चात् पक्षकार पलटकर यह नहीं कह सकते कि मध्यस्थ का चरित्र दागदार संदिग्ध या आपत्तिजनक है। परन्तु यदि पक्षकारों को उन व्यक्तियों के आपत्तिजनक चरित्र का ज्ञान नियुक्ति के पश्चात् होता है तो उनके इन चरित्रों के आधार पर उनके प्राधिकार की वापसी या प्रतिसंहरण के लिए आवेदन किया जा सकता है।
माध्यस्थम् के प्रकार- माध्यस्थम् तीन प्रकार का होता है-
(i) व्यक्तिगत माध्यस्थम् या घरेलू माध्यस्थम् (Personal Arbitration or Domestic Arbitration);
(ii) सांविधिक माध्यस्थम् या कानूनी माध्यस्थम् या अधिनियमित माध्यस्थम् (Statutory Arbitration or Arbitration under Enactment);
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् (International Arbitration)।
(i) व्यक्तिगत माध्यस्थम् या घरेलू माध्यस्थम् (Personal Arbitration or Domestic Arbitration) – घरेलू या व्यक्तिगत माध्यस्थम् उसे कहते हैं जहाँ विवाद के पक्षकार अपने विवाद या मतभेद को किसी माध्यस्थम् अधिकरण (Arbitration Tribunal) को निर्णय के लिए संदर्भित करते हैं। घरेलू (Domestic) माध्यस्थम् की परिभाषा माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत नहीं दी गई है। घरेलू माध्यस्थम् के दोनों पक्षकार भारतीय नागरिक या भारतीय कम्पनियों या भारतीय निगम होते हैं। ऐसा माध्यस्थम् घरेल माध्यस्थम् कहलाता है जिसका एक पक्षकार भारतीय प्राकृतिक व्यक्ति (Natural Person) तथा दूसरा पक्षकार भारतीय विधिक व्यक्ति (Indian Legal Person) हो । घरेलू माध्यस्थम् के अन्तर्गत विवाद के दोनों पक्षकार भारतीय होते हैं। इस प्रकार के माध्यस्थम् द्वारा जारी किये गये पंचाट को भारतीय न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है। इस तरह से घरेलू माध्यस्थम् या व्यक्तिगत माध्यस्थम् की रचना पक्षकारों के करार द्वारा की जाती है तथा यह भारतीय विधि तथा भारतीय लोकनीति के प्रतिकूल नहीं होते हैं।
घरेलू माध्यस्थम् (Domestic Arbitration) की चर्चा माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 के भाग एक में धारा 1 से 43 तक की धाराओं के अन्तर्गत की गयी है। पुराने तथा निरसित माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 में सिर्फ घरेलू माध्यस्थम् (Domestic Arbitration) के बारे में उपबन्ध (Provisions) थे, परन्तु आधुनिक युग में बढ़ते अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक सम्बन्धों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् के बारे में उपबन्ध किया जाना आवश्यक हो गया था। इसलिए माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 के द्वारा पुराने माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 को समाप्त कर माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 को पारित किया गया तथा अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् के बारे में प्रावधान प्रथम बार किया गया।
(ii) सांविधिक माध्यस्थम् या कानूनी माध्यस्थम् या अधिनियमित माध्यस्थम् Statutory Arbitration or Arbitration under Enactment) – व्यवस्थापिका अपने द्वारा पारित अधिनियम के अन्तर्गत कभी-कभी भविष्य में उत्पन्न होने वाले विवाद के हल के लिए माध्यस्थम् प्रक्रिया के सम्बन्ध में प्रावधान करती है। ऐसे अधिनियम के अधीन नर्मित माध्यस्थम् को सांविधिक माध्यस्थम् (Statutory Arbitration) कहा जाता है। पांविधिक माध्यस्थम् के मामलों में पक्षकारों की सहमति अथवा इच्छा का कोई महत्व नहीं होता है। माध्यस्थम् प्रक्रिया तब आरम्भ होती है जब अधिनियम में दी गयी शर्तें (निबन्धन) पूरी हो जाती हैं। सांविधिक माध्यस्थम् में मध्यस्थ की नियुक्ति, माध्यस्थम् का स्थान, पंचाट निर्गत करने की समयावधि, पंचाट का प्रवर्तन, माध्यस्थम् प्रक्रिया पर लागू होने वाली विधि और माध्यस्थम् शुल्क आदि का निर्धारण अधिनियम में दिये गये उपबन्धों के अनुसार होता है। माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 उपधारा (4) में यह प्रावधान किया गया है कि इस अधिनियम के प्रावधान सांविधिक माध्यस्थम् पर लागू होंगे सांविधिक माध्यस्थम् का संचालन उस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होता है जिनसे इसका जन्म होता है। सहकारी समितियों (Co-operative Societies) अधिनियम के अधीन माध्यस्थम् पंजाब सहकारी समितियाँ अधिनियम, 1961 के अधीन माध्यस्थम्, बम्बई सहकारी समितियाँ अधिनियम, 1925 के अन्तर्गत माध्यस्थम् कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत माध्यस्थम्, विद्युत आपूर्ति अधिनियम, 1948 के अधीन माध्यस्थम् आदि सांविधिक माध्यस्थम् (Statutory Arbitration) के कतिपय उदाहरण हैं। इनका वर्णन क्रमशः निम्न प्रकार से है-
(क) सहकारी समितियाँ (Co-operative Societies) अधिनियम के अन्तर्गत माध्यस्थम् – उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम की धारा 98 तथा धारा 111, पुराने तथा निरसित माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 की धारा 14, 17 तथा 33 के उपबन्धों के अनुरूप प्रावधान करती है। माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 की धारा 14 पंचाट के हस्ताक्षरित होने तथा न्यायालय में दाखिल किये जाने से सम्बन्धित प्रावधान करती है। धारा 17 के अनुसार यदि पंचाट को अपास्त करने के लिए न्यायालय को आवेदन किया गया है तथा न्यायालय इसे अपास्त करने का कोई कारण नहीं पाता तो वह पंचाट को मध्यस्थ अधिकरण को वापस लौटा देगा तथा न्यायालय पंचाट के अनुसार निर्णय सुनाएगा जो एक आज्ञप्ति (Decree) होगी। ऐसी आज्ञप्ति के विरुद्ध अपील नहीं होगी सिवाय, इस आधार पर कि आज्ञप्ति पंचाट से बाहर है या पंचाट के अनुसार नहीं है। धारा 33, जहाँ कि माध्यस्थम् करार हो, कार्यवाहियों को रोक देने की शक्ति के बारे में है।
(ख) पंजाब सहकारी समितियाँ अधिनियम, 1961 – यह अधिनियम इस अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न माध्यस्थम् पर, पुराने माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 की धारा 33 या वर्तमान माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों के प्रवर्तन को अपवर्जित करता है।
(ग) बम्बई सहकारी समितियाँ अधिनियम, 1925 की यह धारा 54, धारा 54 (क) तथा नियम 35 रजिस्ट्रार या उसके द्वारा नामित व्यक्ति के निर्णय को पंचाट नहीं मानती क्योंकि इन धाराओं के अन्तर्गत निर्णय देते समय रजिस्ट्रार मध्यस्थ के कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करता तथा वह सांविधिक कर्तव्य के अन्तर्गत अपना निर्णय देता है। पंजाब सोसाइटी अधिनियम की धारा 54 तथा 54 (क) इस अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त तीन मध्यस्थों के माध्यस्थम् पर माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 के प्रावधानों को आकर्षित करती है। इस अधिनियम के अन्तर्गत मध्यस्थ को नियुक्ति तथा पदच्युति रजिस्ट्रार के द्वारा होगी।
इस प्रकार माध्यस्थम् प्रक्रिया के सम्बन्ध में किसी अधिनियम के अन्तर्गत कोई प्रावधान किया गया है तो वे प्रावधान ही प्रभावी होंगे।
(घ) कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत नियुक्त दो माध्यस्थमों की विफलता पर एक अधिनिर्णायक (Umpire) की नियुक्ति न्यायालय द्वारा की जा सकेगी।
(ङ) विद्युत आपूर्ति अधिनियम, 1948 की धारा 57 (1) एक माध्यस्थम् खण्ड समाविष्ट करती है। इस माध्यस्थम् खण्ड के अनुसार विद्युत शक्ति की आपूर्ति के लिए सरकार द्वारा उपभोक्ता को दी गयी अनुज्ञप्ति के सम्बन्ध में विवाद न्यायाधिकरण या माध्यस्थम् की विषय-वस्तु नहीं होगी, क्योंकि अनुज्ञप्ति सरकार तथा उपभोक्ता के मध्य एक व्यवस्था है यह विवाद नहीं है तथा धारा 57 (1) के अन्तर्गत समाविष्ट माध्यस्थम् खण्ड के अनुसार सिर्फ उपभोक्ता तथा सरकार के मध्य इस अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न विवाद हो माध्यस्थम् को सौंपे जा सकते हैं, इस बात की पुष्टि एमलगमेटेड इलेक्ट्रिक कम्पनी लिमिटेड बनाम एन० एस० बघेला, ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 711, के बाद में उच्चतम न्यायालय ने भी की विद्युत आपूर्ति अधिनियम प्रतिकर प्राप्त करने के लिए माध्यस्थम् कार्यवाही प्रारम्भ करने की अनुमति नहीं देता।
(च) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 10 (क) पक्षकारों के मध्य करार के अन्तर्गत माध्यस्थम् प्रक्रिया प्रारम्भ किये जाने का प्रावधान करती है।
सांविधिक मध्यस्थ (Statutory Arbitrator) चूँकि अधिनियम के द्वारा सृजित होता है। अतः इसके अधिकार उस अधिनियम के प्रावधानों द्वारा नियन्त्रित होते हैं जिसके द्वारा उसका जन्म होता है। सांविधिक मध्यस्थ को सामान्यतः वह सब कुछ करने का अधिकार होता है जो विवाद के हल के लिए वह आवश्यक समझता है।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् (International Arbitration)- अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् विश्व में बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की देन है। माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 की उपधारा (1) खण्ड (च) में अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् को अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् को संज्ञा दी गयी है। आज संचार माध्यमों द्वारा व्यापक एवं नवीन परिवर्तन हुए हैं तथा राष्ट्रीय व्यापार नीति में उदारीकरण अपनाया गया है जिसके कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं वाणिज्य में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि के परिणामस्वरूप व्यापारिक मतभेद और विवाद उत्पन्न हुए हैं जिनको हल करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थमों तथा उसके निर्णयों (पंचाटों) को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रवर्तन के लिए राष्ट्रीय विधि की आवश्यकता को माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 ने पूरा किया है। विदेश में सम्पन्न माध्यस्थम् प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्गत विदेशी पंचाटों का भारत में प्रवर्तन (Enforcement) भारतीय न्यायालयों के माध्यम से करवाया जाता है। भारत ने न्यूयार्क अघिसमय, 1958 में स्वीकार किये जाने वाले करार को पूरा करने के लिए माध्यस्यम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 पारित किया है। इस अधिनियम के भाग दो में 44 से 52 तक की धारायें शामिल की गयी हैं। इस अधिनियम के भाग दो में प्रथम बार अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् के बारे में उपबन्ध किया गया है।
माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1966 की धारा 2 उपधारा (1) के खण्ड (च) में अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम की निम्नलिखित परिभाषा दी गयी है –
धारा 2 (1) (च) ” अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् ” (International Commercial Arbitration) से ऐसे विवादों से सम्बन्धित कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत (तात्परित) हैं, जो ऐसे विधिक सम्बन्धों से उद्भूत हों जो भारत में प्रवृत्त विधि के अधीन वाणिज्यिक समझे गये हों चाहे ऐसे विधिक सम्बन्ध संविदात्मक हों या नहीं तथा (माध्यस्थम्) पक्षकारों में कम से कम एक पक्षकार निम्न व्यक्तियों में से कोई एक हो-
(i) ऐसा कोई व्यक्ति है जो भारत से भिन्न किसी देश का नागरिक (राष्ट्रिक) है या उसका (भारत से भिन्न किसी देश का) आभ्यासिक निवासी (Habitual Resident) है, या
(ii) ऐसा कोई निगमित निकाय (Incorporated body) है जो भारत से भिन्न किसी देश में (विदेश में) निगमित (Incorporated body) है, या
(iii) ऐसी कोई कम्पनी या संगम (Association) या व्यष्टि निकाय (Body of Individuals) जिसका केन्द्रीय प्रबन्ध और नियन्त्रण भारत से भिन्न किसी देश में किया जाता है; या
(iv) विदेशी सरकार।
इस प्रकार से ऐसा माध्यस्थम् जिसक क पक्षकार भारतीय नागरिक न होकर विदेशी नागरिक है या विदेशी कम्पनी या विदेशी मि या विदेशी व्यक्तियों का समूह, या ऐसी कम्पनी या निगम जिसका केन्द्रीय नियन्त्रण भारत से भिन्न किन्हीं विदेशी व्यक्तियों के हाथ में है या जिसका एक पक्षकार विदेशी सरकार है, वह माध्यस्थम् अन्तरर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् है परन्तु माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत सिर्फ अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् को मान्यता है। अतः इस अधिनियम के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् का वाणिज्यिक होना अनिवार्य है कोई माध्यस्थम् वाणिज्यिक तब कहा जायेगा जब वह भारत