Administrative Law Short Answer

प्रश्न 1. शुष्क प्रशासन एवं प्रशासनिक विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – शुष्क प्रशासन एवं प्रशासनिक विधि में अन्तर –

(Difference between Droit Administratiff and Administrative Law)

    शुष्क प्रशासन एवं प्रशासनिक विधियों के मुख्य अन्तर निम्नलिखित है :-

1. शुष्क प्रशासन एक स्वतन्त्र प्रणाली होती है जबकि प्रशासनिक विधि संविधान के अधीनस्थ रहकर ही कार्य करती है

2. शुष्क प्रशासन के अन्तर्गत दोहरी शासन प्रणाली प्रयुक्त होती है जबकि प्रशासनिक विधि के अन्तर्गत दोहरी शासन प्रणाली प्रयुक्त होती है।

3. शुष्क प्रशासन विधि केवल फ्रांस में ही अपनायी जाती है जबकि प्रशासनिक विधि का प्रयोग भारत, अमेरिका, तथा इंग्लैण्ड में होता है।

4. शुष्क प्रशासन विधि में न्यायायिक पुनराविलोकन (Judicial Review) का कोई महत्व नहीं होता है।

5. शुष्क प्रशासन विधि में प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त पाया जाता है जबकि प्रशासनिक विधि में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त को अपनाया जाता है।

6. शुष्क प्रशासन का क्षेत्र सीमित होता है जबकि प्रशासनिक विधि का क्षेत्र विस्तृत होता है।

7. शुष्क प्रशासन में सभी नागरिकों के लिए समान पद्धति नहीं अपनायी जाती है जबकि प्रशासनिक विधि सभी नागरिकों के लिए संमान पद्धति को महत्व देती है। अतः इस प्रणाली में सभी नागरिकों को समान महत्व दिया जाता है। इसमें पक्षपात की कोई सम्भावना नहीं होती है।

प्रश्न 2- संवैधानिक विधि और प्रशासनिक विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए ?

अथवा

प्रशासी विधि एवं संवैधानिक विधि में अन्तर कीजिए।

अथवा

प्रशासनिक विधि एवं संवैधानिक विधि के संबंधो को विवेचित कीजिये। 

उत्तर –

संवैधानिक विधि और प्रशासनिक विधि में अन्तर (Difference between Constitutional Law and Administrative Law)

प्रशासनिक विधि और संवैधानिक विधि के संबंध में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं –

प्रथम विचारधारा इस विचारधारा के अनुसार, प्रशासनिक विधि और संवैधानिक विधि में कोई भेद नहीं है।

द्वितीय विचारधारा इस विचारधारा के अनुसार, कोई आधारभूत अन्तर नहीं है फिर भी कुछ विद्वान दोनों विधियों में अन्तर मानते हैं। निम्न बिन्दुओं द्वारा संवैधानिक विधि और प्रशासनिक विधि को प्रकट किया जा सकता है –

(1) लिखित संविधान के देशों में भिन्न स्थिति – इंग्लैण्ड में संविधान अलिखित है इसलिए वहाँ की स्थिति लिखित संविधान के देशों के समान नहीं है। जिन देशों में लिखित संविधान है वहाँ संवैधानिक और प्रशासनिक विधि में भेद का लोप उस सीमा तक नहीं हो पाता है. जैसा कि इंग्लैण्ड में पाया जाता है। इन देशों में संवैधानिक विधि का स्रोत लिखित संविधान होता है।

(2) संरचना और कृत्य की दृष्टि से भेद – सवैधानिक विधि शासन के गठन पर अधिक जोर देती है जबकि प्रशासनिक विधि शासन के कृत्यिक अध्ययन पर विशेष बल देती है।

(3) भारतीय संदर्भ में – संविधान के अन्तर्गत प्रशासनिक प्राधिकारियों पर प्रतिपादित सारा का सारा नियंत्रण तंत्र जल संभर के अन्तर्गत आ जाता है, जिसमें अनुच्छेद 32, 136, 226, 300 और 311 सन्निविष्ट है। प्रशासनिक प्राधिकारियों को विधायी शक्ति के प्रत्यायोजन पर अधिरोपित संवैधानिक सीमाओं तथा ऐसे संवैधानिक उपबंधों को जो प्रशासनिक कार्यों पर नियंत्रण प्रतिपादित करते हैं उनकी भी गणना जल समर के अन्तर्गत की जा सकती है। अनुच्छेद 280 के अधीन वित्त आयोग का गठन किया जाता है। अनुच्छेद 315 के अधीन संघ लोक सेवा आयोग हेतु उपबंध और अनुच्छेद 329 के अधीन निर्वाचन आयोग का गठन किया जाता है।

प्रश्न 3. कानसेल-डे-एटेट से आप क्या समझते है ? समझाइए।

कानसेल-डे-एटेट (Conceil-d-Etat)

उत्तर – कानसेल-डे-एटेट एक निकाय है जिसमें उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो

(1) शासन के गोपनीय सलाहकार होते हैं, तथा

(2) प्रजा और प्रशासन के बीच वादों का निर्णय करते हैं। ये व्यक्ति निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह कार्य करते हैं जिनके आधार पर इसको एक संस्था बना दिया गया है। जैसाकि हैम्सन, इक्जिक्यूटिव डिस्किशन एण्ड जुडिशियल कन्ट्रोल, 40

(1954) में भी वर्णन किया गया है Conceil-d-Etat consists of a body of men who are on the one side the confidential advisors of the Government and on the other sido decide the case of the subjects against the administration. प्रशासनिक मामलों में सामान्य न्यायालय को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार या शक्ति नहीं प्रदान की गयी है। प्रशासन को न्यायिक नियन्त्रण से स्वतन्त्र रखा गया है। छोटे न्यायालयो को प्रशासन के ऊपर कोई अधिकार नहीं है।

शुष्क प्रशासन (Droit Administratiff) की परिभाषा एक निकाय के रूप में की जा सकती है, इसमें प्रशासन के गठन और कर्त्तव्यों का निर्धारण भी किया जाता है। प्रारम्भ में फ्रांस में इस प्रकार की स्थिति थी कि वहाँ कोई केन्द्रीय न्यायालय नहीं था, जिसकी अधिकारिता सारे राज्य में होती है। सन् 1789 ई. के बाद फ्रांसीसी क्रान्ति के समय तक कोई इस प्रकार का विधान मण्डल वहाँ नहीं था जिस प्रकार ब्रिटेन में संसद थी। सुरक्षा तथा बचाव के लिए लोगों का झुकाव इस आधार पर प्रशासन की तरफ हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि सिविल न्यायालयों की प्रशासन के ऊपर कोई अधिकारिता न रही और प्रशासन का केन्द्रीयकरण हो गया जैसाकि नगेन्द्र घोष, कम्पैरेटिव एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ’ 95-977 (1999) में भी वर्णन किया गया है।

फ्रांस की न्याय प्रशासन प्रणाली में सभी मामले जो प्रशासन से जुड़े हुए होते हैं प्रशासनिक न्यायालयों की अधिकारिता में आते हैं। इन न्यायालयों की अध्यक्षता उच्च प्रशासनिक न्यायालय (कानसेल-डे-एटेट) द्वारा की जाती है। इस प्रणाली में प्रशासनिक कार्यों का पुनर्विलोकन सम्बन्धी कार्य प्रशासन के ही अधीन सम्पन्न किया जाता है। इस प्रकार का कार्यभार उच्च प्रशासनिक न्यायालय ने अपने ऊपर लिया है जिसकी सहायता 1954 से क्षेत्रीय प्रशासनिक न्यायालय करते हैं। जैसाकि नेवाइल ब्राउन दि रिफार्म ऑफ फ्रेंच एमिनिस्ट्रेटिव कोर्टस, 22 M.L.. रिव्यू 357 (1959) में अभिनिर्धारित किया गया है।

प्रश्न 4- शासन एवं प्रशासन में अन्तर कीजिये । Distinguish between Government and Administrarion.

उत्तर – सामान्य बोलचाल की भाषा में शासन-प्रशासन का अर्थ सामान्यत एक ही लगाया जाता है और इन दोनों शब्दों को समानार्थी या पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया जाता है परन्तु वास्तव में ये दोनों दो पृथक शब्द है और दोनों के अर्थ अलग-अलग है। देश का शासन जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। जनता द्वारा चुने गये ये प्रतिनिधि सांसद या विधायक कहलाते है। ये सासद या विधायक मिलकर सरकार का गठन करते है जो देश का शासन देश के संविधान के अनुसार संचालित करती है। संविधान में सरकार के कार्यों, दायित्वों आदि का वर्णन होता है जिसके अनुसार देश के शासन का संचालन करती है। यही सरकार देश के लिए नीतियों का निर्माण करती है और आवश्यकता पड़ने पर नई विधियों का भी निर्माण करती है और पुरानी या अप्रासंगिक विधियों को समाप्त भी कर सकती है। इस प्रकार देश का शासन देश की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होता है और ये प्रतिनिधि जनता के प्रति ही उत्तरदायी होते हैं जनता चाहे तो उन्हें हटा भी सकती है।

      देश का प्रशासन प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा संचालित किया जाता है। ये प्रशासनिक अधिकारी विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ होते हैं और शासन की नीतियों के अनुसार देश के प्रशासन का संचालन करते हैं। ये जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होते बल्कि ये विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ होते है और विभिन्न आयोगों द्वारा योग्यता के आधार पर इनका चयन किया जाता है। शासन या देश की सरकार आवश्यक नीतियों, नियमों का निर्माण करती है और प्रशासनिक अधिकारी उसी के अनुसार प्रशासन का संचालन करते हैं। इस प्रकार शासन और प्रशासन, दो भिन्न इकाइयाँ है लेकिन देश के संचालन में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

प्रश्न 5. शुष्क प्रशासन का क्या अर्थ है? इसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए ?

अथवा

फ्रान्सीसी नीति शुष्क प्रशासन क्या है ?

अथवा

ड्रायट ऐडमिनिस्ट्रेटिफ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये ।

उत्तर –

शुष्क प्रशासन (Droit Administratiff)

     शुष्क प्रशासन की व्यवस्था फ्रांस की व्यवस्था है, यह व्यवस्था भारत, अमेरिका एवं इग्लैण्ड की संवैधानिक व्यवस्था से अलग है।

       डायसी महोदय ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘संवैधानिक विधि’ में इसके बारे में उद्देश्य निधि शासन के साथ विषमता को प्रदर्शित किया था एवं इसीलिए यह भी कहा था कि इंग्लैण्ड में प्रशासी विधि नहीं है। डायसी महोदय ने कहा कि इंग्लैण्ड के कानून के अन्तर्गत केवल एक ही प्रकार के न्यायालय होते हैं इस प्रकार के न्यायालयों को सामान्य न्यायालय के नाम से पुकारा जाता है जिसके सामने बिना पक्षपात के सभी को इसमें उपस्थित होना पड़ता है।

      इस व्यवस्था को जन्म देने वाला नेपोलियन बोना पार्ट को माना जाता है। इन्होंने एक काउन्सिल का निर्माण किया इस जिसका नाम D-ETAT COUNCIL था। इसके बाद एक अध्यादेश पारित किया गया जिससे इस संस्था को राज्य प्रशासन के क्षेत्राधिकार में सौंप दिया गया, यह फ्रांस का सबसे बड़ा न्यायालय था।

शुष्क प्रशासन के लक्षण या विशेषताएँ

(Chacteristics of Droit Administratiff)

शुष्क प्रशासन में कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ होती हैं, जिनका वर्णन निम्नवत है –

1. विधि निर्माण का अधिकार,

2. क्षेत्राधिकार,

3. कर्मचारियों की रक्षा,

4. विधि निर्माण का अधिकार सुरक्षित,

5. सबसे बड़ा न्यायालय,

6. लेख घोषित करने का अधिकार।

1. विधि निर्माण का अधिकार फ्रांस के न्यायाधिकरणों (Tribunals) को विधि निर्माण का भी अधिकार दिया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो फ्रांस के न्यायाधिकरण होते हैं, वे विधि का निर्माण कर सकते हैं। अतः फ्रांस के न्यायाधिकरणों को विधि निर्माण करने का अधिकार है।

2. क्षेत्राधिकार क्षेत्राधिकार के संघर्ष की दशा में प्रशासनिक न्यायालयों का निर्णय निश्चित होता है। इनके द्वारा दिए गए निर्णयों में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

3. कर्मचारियों की रक्षा शुष्क प्रशासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह कर्मचारियों की रक्षा के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। अतः शुष्क प्रशासन कर्मचारियों की रक्षा में भी सहायक है।

4. विधि निर्माण का अधिकार सुरक्षित शुष्क प्रशासन की विशेषता यह भी है कि इसे विधि निर्माण के अधिकार को सुरक्षित रखने का भी अधिकार दिया गया है।

5. सबसे बड़ा न्यायालय शुष्क प्रशासन न्यायालय फ्रांस का सबसे बड़ा न्यायालय है।

6. लेख घोषित करने का अधिकार फ्रांस के प्रशासी न्यायालयों को अपने लेख घोषित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस प्रकार वहाँ के न्यायालय लेख घोषित कर सकते हैं।

प्रश्न 6- प्रशासनिक विवेक का न्यायिक पुनर्विलोकन समझाइए । Describe Judicial Review of Administrative discretion.

अथवा

प्रशासनिक कार्यों एवं विवेक का न्यायिक पुनर्विलोकन रवेछारिता को दूर करने में मददगार है।” समालोचनात्मक विवेचना कीजिये।

उत्तरप्रशासनिक विवेक का न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review of Administrative Discretion) – न्यायिक निर्णयों से अनेक ऐसे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जिनके आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों के विवेकाधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप किया जा सकता है। ये आधार निम्न हैं –

1. जहाँ पर कोई अधिकारी, जिसमें विवेकाधिकार निहित हैं. विवेक का प्रयोग स्वयं नहीं करता है

2. जहाँ पर संबंधित प्राधिकारी किसी दूसरे प्राधिकारी के कथनानुसार विवेक का प्रयोग करता है और स्वयं को अपने विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए अयोग्य बना लेता है।

3. जहाँ पर विवेकाधिकार के प्रयोग में संबंधित प्राधिकारी कोई ऐसा कार्य करता है जिसको करने से वह प्रतिषिद्ध कर दिया गया है अथवा वह कोई ऐसा कार्य करता है जिसको करने के लिए वह प्राधिकृत नहीं किया गया है।

4. जहाँ विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए कुछ पूर्व शर्ते उल्लिखित की गयी है, परन्तु वे शर्तें मौजूद नहीं हैं और प्रशासनिक अधिकारी, अधिकारिता के प्रयोग की अवस्था के अभाव में विवेक का प्रयोग करता है।

5. जहाँ वैवेकिक अधिकारों का प्रयोग परिनियम की भावनाओं तथा आशय से भिन्न रूप में किया गया हो।

6. जहाँ पर प्राधिकारी कोई ऐसी शर्त आरोपित करता है जो परिनियम के उद्देश्य अथवा नीति से संबंधित नहीं होता अथवा उससे सम्बद्ध है।

विधि का शासन

(Rule of Law)

प्रश्न 1 विधि के शासन से आप क्या समझते हैं ?

अथवा

‘विधि के शासन’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर –

विधि के शासन का आशय

(Meaning of Rule of Law)

     विधि के शासन का आशय है कि सरकार व्यक्तियों के सिद्धान्तों पर नहीं वरन विधि के नियमों पर आधारित है। विधि के शासन का आशय है कि शासन के प्रत्येक कार्य को विधि के अनुसार पूरा किया जाय। विधि के शासन के अन्तर्गत शासक एवं शासित (प्रजा) के मध्य राज्य की प्राथमिकता का सिद्धान्त नहीं होता है। किसी को भी गैर-विधिक कार्य के लिए क्षमा नहीं किया जा सकता। सरकारी कर्मचारी एवं जनता दोनों ही राज्य के नियमों के अन्तर्गत समान रूप से जिम्मेदार होते हैं।

     “विधि का शासन का सिद्धान्त प्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ. डायसी की देन है। उन्होंने इस सिद्धान्त को इतना महत्व दिया कि आगे चलकर आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। डायसी का विचार था कि किसी भी देश में विधि सर्वोच्च होनी चाहिए। शायद इसी कारण उन्होंने फ्रांस की ” दोहरी न्याय व्यवस्था का विरोध किया। डायसी का मत था कि प्रशासनिक अधिकारियों का विशेषाधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।

      विधि के शासन का सिद्धान्त बहुत पुराना है। कोक को इसका प्रवर्तनकर्ता माना जाता है। कोक का विचार था कि राजा को ईश्वर एवं विधि के अधीन होना चाहिए। कोक ने प्रशासकों की महत्वाकाक्षा पर विधि के आधिपत्य को माना ।

प्रश्न 2. विधि के शासन की संकल्पना के पहलुओं को समझाइये।

उत्तर- विधि के शासन के पहलू

(Aspects of Rule of Law)

     डायसी ने विधि के शासन की शास्त्रीय मीमासा बतायी। उनका मत विधि जगत में प्रभावी हुआ। विधि के शासन की सकल्पना में निम्नलिखित तीन पहलू / सिद्धान्त शामिल हैं –

(1) विधि का स्रोत संविधान नहीं – विधि का शासन शब्द का प्रयोग इसलिए किया जाता है ताकि यह स्पष्ट रहे कि इंग्लैंड में विधि का स्रोत संविधान नहीं है वरन न्यायालयों द्वारा परिभाषित और लागू किये जाने वाले अधिकारों के परिणाम है। डायसी के अनुसार, अधिकतर देशों में प्राय: लोगों में व्यक्तिगत अधिकारों, जैसे गिरफ्तारी के विरुद्ध संरक्षण इत्यादि का आश्वासन यहाँ के लिखित संविधान द्वारा दिया जाता है जबकि इंग्लैण्ड में कोई मामला प्रस्तुत होने पर न्यायालय ही विधि के कानूनी अधिकारों की व्याख्या और संरक्षण करते हैं। अतः डायसी ने कहा कि न्यायालय के उक्त कार्य लोगों की स्वतन्त्रता का आश्वासन है।

(2) विधि के समक्ष समानता – विधि के शासन का अर्थ यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समानता प्राप्त है और उससे समान रूप से कानूनी संरक्षण मिलेगा। यह कहा जा सकता है कि दासी के अनुसार, कोई व्यक्ति कानून से उच्च नहीं है. अतः किसी भी पद या स्थान वाला व्यक्ति देश में सामान्य कानून के अनुसार किसी साधारण न्यायालय की अधिकता में आता है। अतः डायसी ने इसी सिद्धान्त के आधार पर फ्रांस की दुहरी न्यायिक प्रणाली की आलोचना की जिसके अन्तर्गत फ्रांस में आम नागरिक के लिए पृथक और कर्मचारी के लिए अलग न्यायालय की स्थापना की गई।

(3) विधि की सर्वोच्चता – इसका अर्थ यह है कि देश में विधि ही सर्वोच्च हो और . सरकार विधि के अनुसार कार्य करे। विधि की सर्वोच्चता इस बात का आश्वासन देती है कि किसी व्यक्ति के जीवन या सम्पत्ति को उस समय तक हानि न पहुंचाई जाये तब तक कि देश के किसी सामान्य न्यायालय ने सामान्य न्यायिक प्रक्रिया द्वारा उसे किसी कानून के भग करने के लिए दोषी न ठहराया हो।

प्रश्न 3 डायसी के मत की समीक्षा कीजिए।

उत्तरडायसी के मत की समीक्षा

(Comment on Dicey’s View)

    डायसी द्वारा विधि के शासन की विद्यमानता की कल्पना एवं विस्तार फॉस के ड्रापट एडमिनिस्ट्रेटिन के आधार पर की गई थी। इसे इनकी एक बहुत बड़ी गलती माना जाता है। डायसी द्वारा विशेष प्राधिकरणों को ध्यान में नहीं रखा गया। अब डायसी के मत को पूर्णतया स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह संकल्पना सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मूल्यों पर आधारित है जोकि बदलती रहती है। अतएव इसे भी परिवर्तनीय माना जाना चाहिए। डायसी के मत की समीक्षा हेतु निम्नलिखित पर विचार किया जाता है-

1. शासक एवं शासित की विधिपूर्ण साम्यता का प्रश्न (Question of Legal Equality of Administrator and Administered) – डायसी के काल में शासक एवं . शासितों में पूर्ण विधिक साम्यता नहीं थी। शासक की विधिक क्रियाये विशेषाधिकार रखती हैं। शासक को अपकृत्य विधि के अधीन प्रतिवादी नहीं बनाया जा सकता है। शासक एवं शासित को एक ही तराजू से तौलना ठीक नहीं लगता क्योंकि इन दोनों के वास्तविक भेद इन्हें स्वीकार करने ही होगे।

2. विवेक शक्ति तथा मनमानेपन की शक्ति (Rational Power and Power of Arbitraryness) – डायसी ने अपने सिद्धान्त में विवेकाधीन शक्ति तथा मनमानी करने की शक्ति को एक ही रूप में स्वीकार किया है जबकि विवेकाधिकार वर्तमान शासन पद्धति के लिए वाँछनीय होता है। विवेकाधिकार को विधि के शासन का विरोधी नहीं माना जा सकता और न ही इसे मनमानी करने की शक्ति ही माना जा सकता है। प्रशासकीय विधि से विवेकाधिकार पर नियंत्रण करने की आवश्यकता होती है। प्रशासनिक विधि विधि-शासन की विरोधी नहीं है। विधि का शासन मनमानी करने को रोकता है तथा प्रशासन की विवेकपूर्ण शक्तियों को मान्यता देता है।

3. ग्रिफिथ एवं स्ट्रीट के विचारानुसार इनके द्वारा विधि के शासन के निम्नलिखित भाव बताए गये है –

(i) विधि के शासन का आशय मनमानीपन की शक्ति के विपरीत सामान्य विधि की पूर्ण सर्वोच्चता या वरिष्ठता से है।

(ii) विधि के शासन के अधीन लोग केवल विधि के द्वारा ही शासित होते हैं। किसी भी व्यक्ति को केवल तभी दण्ड दिया जा सकता है जब वह विधि का उल्लंघन करे।

(iii) प्रशासन की शक्तियों के स्रोत अधिनियम है।

(iv) यदि किसी व्यक्ति को विधि के बदलाव के कारण या सामान्य हित में विवेकाधिकार के उपयोग के कारण नुकसान उठाना पडता है तो राज्य उसे क्षतिपूर्ति देगा।

(v) प्रशासन विधि से आबद्ध होता है।

4. आधुनिक संकल्पना (Modern Concept) – वर्तमान कल्याणकारी राज्य में डायसी के मत को पूर्णतया स्वीकार नहीं किया जा सकता। डेविस ने विधि के शासन के निम्नलिखित अर्थ बताए है-

(i) विवेकाधिकार की व्यवस्था

(ii) निश्चित नियम,

(iii) विवेकाधिकार का विलोपन

(iv) विधि की सम्यक प्रक्रिया,

(v) प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन,

(vi) कार्यपालक प्राधिकारी एवं प्रशासकीय अधिकरणों की अपेक्षा न्यायाधीशों एवं साधारण न्यायालयों को प्राथमिकता।

(vii) प्रशासकीय कार्यों का न्यायिक पुनर्विलोकन ।

     विधि के शासन को परिवर्तनशील अवधारणा माना जाता है। यह एक विधिक आदर्श है। विधि के शासन के अनुसार विधि में निम्नलिखित बातें होनी वाँछित होती है –

1. विधियाँ भविष्योन्मुखी हो।

2. सभी विधियों सुलभ एवं स्पष्ट हो।

3. विधि में उचित स्थिरता होनी चाहिए।

4. विधि में प्राकृतिक न्याय के नियमों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

5. न्यायपालिका एवं विधि व्यवसाय की स्वतन्त्रता सुनिश्चित हो।

6 न्यायालय सभी के लिए खुले होने चाहिए।

7. न्यायपालिका प्रशासकीय कार्यों का पुनरीक्षण कर सकती हो

प्रश्न 1. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-

(a) मनमानेपन का अपवर्जन, न कि विवेकाधिकार का

(b) लोकहित का संरक्षण

(c) औचित्य निर्धारण।

उत्तर- (a) मनमानेपन का अपवर्जन, न कि विवेकाधिकार का (Exclusion of Arbitraryness, nor of Discretionary Power)

     हमारे देश में विधि के शासन की संकल्पना में मनमानी करने की शक्ति को मान्यता नहीं दी गयी है जबकि विवेकाधिकार का अपवर्जन नहीं किया गया है। इन्दिरा नेहरू गाँधी बनाम राजनारायण ए. आई. आर. 1975 एम. सी. 2299 के बाद में यह विचार दिया गया था कि विश्व में कोई भी सरकार या विधि प्रणाली ऐसी नहीं है जिसके पास विवेकाधीन शक्तियों न हो। इस वाद में मुख्य न्यायाधीश ने अभिनिर्धारित किया था कि प्रधानमन्त्री के निर्वाचन को विधि सम्मत करने का कार्य किसी विधि को प्रभावी करके नहीं किया गया था. इसलिए यह विधि के शासन का अतिलघन करता है। सोमराज बनाम हरियाणा राज्य (1990) में कहा गया था कि “मनमानेपन की शक्ति की कमी विधि के नियमों की मुख्य मान्यता है जिस पर पूरा संवैधानिक प्रासाद निर्भर है। यदि विवेकाधीन शक्ति को बिना किसी सिद्धान्त के अथवा बिना किसी नियम के किया जाता है तो यह स्थिति विधि के शासन के विपरीत के बराबर होगी फिर भी विधि का शासन विवेकाधीन शक्ति को पूर्णतया अलग नहीं करता है। सर्वोच्च न्यायालय वकील ऑन- रिकार्ड संघ बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1994 एस. सी. 1268 के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “यह वास्तविकता है कि विधि के शासन को लागू करने में विवेकाधिकार की गुंजाइश हो फिर भी ठीक शासन हेतु इसे कम से कम सीमा तक किया जाना आवश्यक होता है तथा विवेकाधिकार के क्षेत्र में उचित दिशानिर्देशों अथवा प्रभावी किए जाने वाले मानकों की विद्यमानता विवेकाधीन शक्ति के मनमाने प्रयोग को रोकती है। ऐसी दशा में ऐसी शक्ति का उचित मार्गदर्शक सिद्धान्तों एवं मानकों के अनुरूप लोगों के प्रति प्रयोग विवेकाधीन शक्ति के क्षेत्र को और घटा देता है, परन्तु उस स्तर तक पद्धति को चलने योग्य बनाने हेतु उसे दिया जाना वाँछित होता है। लेकिन इस दिशा में उस सीमित क्षेत्र में और आगे नियंत्रण विवेकाधिकार को एक व्यक्ति को प्रदान न करके व्यक्तियों के एक निकाय को देकर किया जाता है जिसमें यह अपेक्षा की जाती है कि अन्तिम निर्णय उनकी आपसी क्रिया एवं प्रभावी सलाह से लिया जाता है  ताकि सभी विचार-बिन्दुओ का प्रक्षेपण हो एवं उन सभी की सामूहिक बुद्धिमानी हो ताकि उस निर्णय में अनेकता रहे। उसी दिशा में उच्चतम कृत्यकारी को विवेकाधीन शक्ति दी जाय।

(b) लोकहित का संरक्षण (Protection of Public Interest)

     सर्वोच्च न्यायालय ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जिससे कि विधि के शासन का संरक्षण समाज के सभी व्यक्तियों को प्राप्त हो सके। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विधि के शासन की पहुँच को निर्धनों व पिछड़ों, गैर-जानकारों तथा निरक्षरों तक पहुँचाया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने निःशुल्क कानूनी सहायता समिति पर कार्यवाही की है। भारत में विधि के शासन की पहुँच समाज के निर्धन एवं कमजोर वर्ग तक भी है तथा यदि उनके संवैधानिक एवं विधिक अधिकारो का उल्लंघन होता है तो विधि का शासन उनकी सहायता करता है। विधि के शासन के लिए वह दशा ठीक नहीं होगी जब निर्धन अनभिज्ञ तथा सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के अधिकारों का उपचार नहीं किया जाता है। विधि के शासन का क्षेत्र निर्धनों, दलितों, अनभिज्ञो एवं अशिक्षित लोगों तक बढ़ा दिया गया है। विधि का शासन केवल उन्हीं लोगों के लिए नहीं है जिनके पास अपने अधिकार हेतु लड़ने के साधनों की कमी है।

(c) औचित्य निर्धारण (Determination of Rational)

    प्रत्येक कल्याणकारी राज्य में विधि का शासन महत्वपूर्ण होता है। यह प्रशासकीय विधि के उचित प्रयोग को आवश्यक करता है। शीला वारसे बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए. आई. आर. 1983 एस. सी. 378 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बारसे के पत्र को याचिका की माँति स्वीकार किया तथा यह तय किया कि पुलिस अभिरक्षा में रखी गई महिलाओं के साथ उचित बर्ताव करना चाहिए। अभिरक्षा में कैदियों के संरक्षण के लिये एक मार्गदर्शन संहिता भी प्रारूपित की। सार्वजनिक नियोजन के मामले में औचित्य को यह तय करके सर्वोच्च न्यायालय ने सुरक्षित किया कि जैसे एक प्रजातान्त्रिक गणराज्य में पुलिस की रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना ठीक नहीं है।

प्रश्न 2- अन्तर्राष्ट्रीय विधिवेत्ता आयोग के अनुसार विधि के शासन की परम आदर्श के रूप में अवधारणा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – विधि के शासन की परम आदर्श के रूप में संकल्पना (Concept of Rule of Law as a Supreme Ideal)

अन्तर्राष्ट्रीय विधिवेत्ता आयोग (International Commission of Jurists) ने विधि के शासन की संकल्पना को परम आदर्श के रूप में बताया है। इसके अनुसार विधि के शासन के निम्नलिखित तत्व है –

1. विधि के शासन में स्वतन्त्र समाज की विधायिका का कार्य उन दशाओं की स्थापना करना एवं बनाए रखना है जो मानव की गरिमा को एक व्यक्ति के रूप में रखे।। 2. विधि का शासन कार्यपालिका द्वारा शक्ति के विपरीत पर्याप्त सुरक्षा उपायों की व्यवस्था पर ही नहीं वरन विधि एवं व्यवस्था का रखरखाव करने तथा समाज के लिए जीवन की आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं को तय करने में सक्षम शासन पर निर्धारित करता है।

3. विधि के शासन हेतु स्वतन्त्र न्यायपालिका एवं स्वतन्त्र विधि वृत्ति वाँछित होती है।

     विधि के शासन में कोई भी व्यक्ति कितना ही ऊँचा क्यों न हो परन्तु वह विधि के नीचे ही होता है। प्रत्येक लोकसेवक समाज का न्यासी होता है तथा वह संवैधानिक उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए दायी होता है। इससे देश में विधि का शासन सुसंगत होता है।

प्रश्न 3- प्रशासनिक स्वविवेक का उल्लेख कीजिये

Explain ‘Administrative discretion’

अथवा

प्रशासनिक स्वविवेक ।

उत्तर– आधुनिक युग में लोक कल्याणकारी राज्य के परिप्रेक्ष्य में प्रशासनिक अधिकारियो को असंख्य वैवेकिक अधिकार प्रदान किया गये है। राज्य द्वारा समाजवादी राज्य की कल्पना को साकार करने के लिए राज्य को अनेक प्रकार के कानूनों की रचना करनी पड़ी और उसके अन्तर्गत कार्यकारिणी को विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ सौपनी पड़ी जिसके परिणामस्वरूप उनके विवेकाधिकार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। ऐसे अनेक कानूनों का निर्माण हुआ जिसमें उन्हे व्यक्तिगत रूप से सन्तुष्ट होकर अपने विवेक के अनुसार कार्य करने का अवसर प्रदान किया गया। इन विवेकाधिकारों का प्रयोग कभी-कभी मनमाने रूप से भी किया जाता है जिसे रोकने के लिए न्यायिक नियंत्रण भी आवश्यक हो गया।

     सामान्यत: न्यायालय विवेकाधिकार के मामलो में हस्तक्षेप नहीं करता परन्तु यदि विवेकाधिकार का प्रयोग यदि मनमाने ढंग से किसी के लाभ या हानि पहुँचाने के लिए किया जाता हैं वहाँ पर न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है। न्यायालयों ने न्यायिक निर्णयो के माध्यम से अनेक सिद्धात प्रतिपादित किये है। जिनके आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों के विवेकाधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप किया जा सकता है यथा है-

1. जहाँ विवेक का प्रयोग अपने प्राधिकार के आधिक्य में किया गया है जिसके कारण विवेकाधिकर का प्रयोग अधिकारातीत हो गया हो, तथा

2. जहाँ पर विवेक का दुरुपयोग किया गया हो अथवा उसका गलत प्रयोग किया गया हो।

(3) शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)

प्रश्न 1. ब्रिटिश संविधान के अन्तर्गत शक्ति के पृथकारण सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- ब्रिटिश संविधान में शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त (Rule of Separation of Power in British Constitution) – शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त ग्रेट ब्रिटेन के संविधान के आधार पर प्रतिपादित किया गया। ब्रिटेन में राजा विधानमंडल का अपृथक्करणीय अंग होता है तथा कार्यपालिका का अध्यक्ष भी होता है। उसके मंत्री संसद के सदनों में एक अथवा दूसरे सदन के सदस्य होते हैं।

    ब्रिटेन में संसद की सर्वोचता है। संसदीय कार्यपालिका संसद के नियंत्रण में होने के कारण कोई शक्ति पृथक्करण नहीं है।

    ब्रिटेन में एक अंग द्वारा दूसरे अंग के कार्यों के निर्वहन के बारे में कोई पृथकरण नहीं है। यहाँ हाउस ऑफ लॉर्डस विधायिका तथा न्यायपालिका के कार्यों का निर्वाह करता है। यहाँ विधायिका एवं न्यायिक शक्तियों के प्रत्यायोजन में वृद्धि होती जा रही है जोकि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

    शक्ति पृथकरण के सिद्धान्त का स्पष्टीकरण माण्टेस्क्यू द्वारा ब्रिटेन के संविधान की गतिशीलता के आधार पर किया गया था।

(4) प्रत्यायोजित विधान

(Delegated Legislation)

प्रश्न 1. प्रत्यायुक्त विधान से आप क्या समझते हैं ? वर्णन कीजिए।

अथवा

प्रत्यायोजित विधायन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- प्रत्यायुक्त विधान (Delegated Legislation)

    साधारण शब्दों में प्रत्यायुक्त विधान की प्रमुख विषय वस्तु विधान है जिसका शाब्दिक अर्थ है विधि का निर्माण। जब विधि-निर्माण का कार्य स्वयं व्यवस्थापिका न करके किसी अन्य निकाय को सौंप देती है तो इसे प्रत्यायुक्त विधान कहते हैं।

      सामण्ड ने प्रत्यायुक्त विधान की परिभाषा इस प्रकार दी है वह जो सम्प्रभु की शक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता से अपना कार्य संचालित करती है और अपने निरन्तर अस्तित्व और औचित्य के किसी श्रेष्ठ या सर्वोच्च सत्ता पर निर्भर करती है।

    प्रत्यायुक्त विधान का सिद्धान्त शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के विरुद्ध है क्योंकि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के अनुसार सरकार के तीनों अंगो व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अपना-अपना स्वतन्त्र कार्यक्षेत्र है अतः विधि-निर्माण का कार्य सिर्फ व्यवस्था का है किसी अन्य निकाय का नहीं।

     चाहे कितना भी विवादग्रस्त हो परन्तु उसका अपना महत्व है यह विचारधारा ऐसे सत्य की ओर इंगित करती है कि जिसे नकारा नहीं जा सकता है। अतः विधान कार्य स्वयं में इतना महत्वपूर्ण है कि वह किसी अन्य निकाय को नहीं दिया जाना चाहिए। सभी प्रकार के नियम उपनियम इत्यादि बनाने के कार्य प्रत्यायुक्त विधान की श्रेणी में आते है क्योंकि वे व्यवस्थापिका द्वारा न बनाये जाकर अन्य निकाय द्वारा बनाये जाते हैं। इसके लिए वे मुख्य सत्ता द्वारा ही अधिकार प्राप्त करते हैं।

     भारत में प्रत्यायुक्त विधान सामान्यतः प्रत्यायोजित नियमों और आदेशों के नाम से जाना जाता है। किन्तु इसको विनिमय अधिसूचना, उपविधि, स्थानीय निदेश आदि के नामों से भी जाना जाता है। प्रत्यायुक्त विधान से अभिप्राय यह है कि वह विधान जो विधानमण्डल के अतिरिक्त किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा बनाये जाते हैं।

प्रश्न 2- प्रत्यायुक्त विधान के उत्थान के कारणों का वर्णन कीजिए ?

उत्तर – प्रत्यायुक्त विधान के उत्थान के कारण (Reasons for the Growth of Delegated Legislation) प्रत्यायुक्त विधान इस समय में सबसे अधिक आवश्यक है। व्यावहारिक रूप से प्रशासन के कार्य के लिए इसकी अधिक आवश्यकता है। प्रत्यायुक्त विधान के उत्थान के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-

(1) आपातकाल में महत्व (Importance in Emergency) इस विधान का अधिक महत्व आपातकाल के समय में सबसे अधिक होता है। सामान्य समय में व्यवस्थापिका भविष्य की आवश्यकताओं और परिस्थितियों का अनुमान लगाकर कानून बनाती है किन्तु आपातकाल में होने वाली किसी भी घटना का या आपातकाल में घटनी वाली घटना का पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता है तथा इसके लिए प्रशासन को आपातकाल में हर प्रकार की समस्या से शीघ्र ही निपटना होता है। अतः प्रत्यायुक्त विधान द्वारा प्रशासन को विधि-निर्माण के अधिकार मिलने से इसमें आयी कोई भी समस्या हल की जा सकती है।

(2) विषय-वस्तु का तकनीकी होना (Subject-matter must be Technical) प्रशासन के पास कुछ विभागों का कार्य तथा उनसे सम्बन्धित विषय वस्तु तकनीकी होती है। इस तकनीकी विषय-वस्तु के लिए विषय से सम्बन्धित विशेषज्ञ ही इस सम्बन्ध में अपनी राय दे सकते हैं। इस प्रकार के विषयों के लिए व्यवस्थापिका कानून बनाकर आधारभूत सिद्धान्त निश्चित कर सकती है परन्तु इससे सम्बन्धित सामग्री के लिए अपने अधिकार को प्रत्यापित कर देती है। उदाहरण व्यवस्थापिका विधि द्वारा खतरनाक औषधियों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाती है तो इससे सम्बन्धित सभी विवरण जो इसके लिए आवश्यक है स्वास्थ्य विभाग को प्रत्यायन कर देती है क्योंकि इस प्रकार की विषय-वस्तु के बारे में स्वास्थ्य विभाग के विशेषज्ञ ही ऐसा निर्णय लेते हैं कि कौन-कौन सी औषधियाँ खतरनाक है तथा उन्हें कितनी कितनी मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।

(3) स्थानीय समस्याओं के उचित हल के लिए (For the Proper Solution of Local Needs) – व्यवस्थापिका पर पूरे देश का कानून बनाने का दायित्व होता है तथा कानून बनाने के लिए सामान्य हित को ध्यान में रखा जाता है जिससे कि जनसामान्य के लिए किसी भी प्रकार की कोई समस्या न आ पाये।

प्रश्न 3. संसदीय कार्यों की अधिकता का वर्णन कीजिए।

उत्तर- संसदीय कार्यों की अधिकता (Excess of Parliament Work) संसद का कार्य अधिक मात्रा में बढ़ जाने के कारण संसद को आवश्यक कार्यों के साथ ही साथ सार्वजनिक हित से जुड़े हुए अन्य कार्यों के बारे में भी कानून तैयार करने पड़ते हैं और इसके अलावा महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर भी कानून तैयार करने होते हैं। अत संसद के पास कार्य का भार अधिक होने के कारण वह प्रशासन की छोटी व बड़ी समस्याओं को दूर नहीं कर सकती है। यही कारण है कि कार्य का भार अधिक होने के कारण तथा सीमा की भी कमी के कारण व्यवस्थापिका अपनी विधायी शक्ति अधीनस्थ विधायनी निकायों (Subordinate Legislative Bodies) तथा प्रशासनिक अधिकारियों को प्रत्यायुक्त कर देती है।

     प्रशासन को दृढ़ बनाने के लिए (To Make Firm Administration) प्रशासनिक अधिकारियों के पास समय और सुविधा की कमी होने के कारण इनके लिए व्यवस्थापिका द्वारा तैयार किए गये कानून (Law) में किसी भी प्रकार की रह गयी कमी को दूर कर पाना सम्भव नहीं है। यदि कानून में किसी भी प्रकार की त्रुटि होगी तो इससे व्यक्तियों के हितों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा। अत इस प्रकार से बने कानूनों का पालन करना भी मुश्किल हो जायेगा तथा इस आधार पर व्यवस्थापिका अपनी शक्ति को प्रत्यायुक्त कर सकती है, जिससे कि जो भी त्रुटि रह जाती है उसमें संशोधन किया जा सके।

    लचीलेपन की आवश्यकता (Need of Flexibility) यह एक सामान्य नियम है कि जिन देशो में संविधान लिखित होते है उन देशों की संवैधानिक व्यवस्था में कोई संशोधन या परिवर्तन करना बहुत ही मुश्किल कार्य होता है तथा इस प्रकार के कार्य के लिए लम्बी व कठिन प्रक्रिया अपनानी पड़ती है जिससे समय व धन की बर्बादी अधिक होती है। इस प्रकार की गम्भीर समस्याओं को प्रत्यायुक्त विधान द्वारा काफी आसान एवं सरल बनाया जाता है। अधीनस्थ विधायी संस्थाओं की कार्यप्रणाली व इनके संशोधन की प्रक्रिया के द्वारा उपर्युक्त कथन में आई सभी समस्याओं का हल आसानी से किया जा सकता है।

   आर्थिक कार्यों के लिए नियमो एवं विनियमों की आवश्यकता (Need of Regulations for Economic Activities) व्यवस्थापिका के कार्यों का सम्बन्ध प्रमुख रूप से प्रशासनिक क्रिया-कलापों से अधिक होता है। कुछ बिन्दु इस प्रकार के होते हैं कि व्यवस्थापिका इनमें पूर्णरूप से सफल नहीं हो पाती है। कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं 1. व्यापार, II. उद्योग-धन्धे III. सार्वजनिक व्यवस्था इस प्रकार के कार्यों में व्यवस्थापिका पूर्णरूप से सफलता नहीं प्राप्त कर सकती है क्योंकि इन कार्यों के लिए अधिक समय व योग्य व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जबकि व्यवस्थापिका के पास इन दोनों ही तत्वों का अभाव पाया जाता है। व्यावसायिक कार्यों की प्रगति का लेखा-जोखा प्रशासनिक कार्यों से बिल्कुल हटकर होता है।

    कानूनी संरक्षण के द्वारा ही व्यवसायों की उन्नति और अन्य कार्यों में प्रगति की सम्भावना अधिक रहती है। अत कम समय में अधिक अच्छे कार्यों के लिए व अधिक सफलता प्राप्त करने के लिए तथा कार्यों की प्रगति के लिए व कानूनी संरक्षण की अधिकता के लिए अधीनस्थ व्यवस्थापिकाएँ इसमें बहुत अच्छा कार्य करती है।

प्रश्न 4- प्रत्यायुक्त विधान के प्रकार बताइए ?

उत्तर- प्रत्यायुक्त विधान के प्रकार – प्रत्यायुक्त विधान के द्वारा आधुनिक युग में काफी सफलता प्राप्त कर ली गयी है, तथा आगे भी काफी सफलता की सम्भावना है। प्रत्यायुक्त विधान को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है-

(1) सशर्त विधान (Conditional Legislation) इस प्रकार के विधान में, एक क़ानून, प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) प्राधिकरण को यह निर्धारित करने की शक्ति प्रदान करता है कि कानून कब लागू किया जाना चाहिए या कब लागू होता है। लेकिन उनके साथ कुछ विशिष्टताओं को जोड़ता है।

(2) विवरण पूरे करने का अधिकार (Power to Fill up the Details)-  यह एक सामान्य प्रकार का विधान है। इस विधायन के अनुसार, व्यवस्थापिका किसी भी कानून का मुख्य ढाँचा/संरचना बना देती है मुख्य ढाँचा तैयार करने के बाद जो इस कानून में शेष प्रक्रिया रह जाती है उसे पूरा करने के लिए इस प्रक्रिया को प्रशासन को सौंप दिया जाता है। वर्तमान समय में यह प्रणाली बहुत मान्य है तथा व्यवस्थापिका ने अपने इस कार्य को पूर्ण रूप से कार्यपालिका को दे दिया है।

(3) कानून के किसी प्राविधान को लागू करने में या उसमें छूट देने का अधिकार (Power to Apply or to Exempt Certain Provision of Law) – व्यवस्थापिका द्वारा प्रशासन को कुछ समय में अधिकार दिया जाता है कि वह किसी मान्य कानून की सीमा समय समाप्त होने पर सरकारी राजपत्र में उचित सूचना प्रकाशित करके उसकी समाप्त सीमा में परिवर्तन करके उसमें समय सीमा बढा दी जाती है। इस पूरे मामले में व्यवस्थापिका के किसी मुख्य उद्देश्य के लिए कानून बनाया जाता है किन्तु इस सम्बन्ध में प्रशासनिक अधिकारियों को यह अधिकार दे दिया जाता है। इसी प्रकार के उद्देश्य के लिए इस कानून को लागू कर सकते हैं या इसके किसी प्रावधान को इच्छानुसार या आवश्यकतानुसार लागू करके या छूट देने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। उदाहरण न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1952 की धारा 27 के अनुसार केन्द्रीय सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह उद्योग की सूची में किसी अन्य उद्योग का नाम भी बढ़ा सकते हैं जिस उद्योग पर उस कानून को लागू करना उचित माने।

(4) कठिनाइयों को दूर करने का अधिकार (Power to Remove Difficulties) – व्यवस्थापिका द्वारा कुछ मुख्य समय में प्रशासन को विस्तृत अधिकार प्रत्यायन कर दिए जाते है जिससे प्रशासनिक अधिकारी किसी कानून को पालन करवाने के लिए उसकी उचित व्याख्या करके उसमे संशोधन आदि कर सकें।

प्रश्न 5- किसी विशेष क्षेत्र पर किस प्रकार कानून लागू किया जाता है ?

उत्तर – किसी विशेष क्षेत्र पर कानून को लागू करना (To Apply Law in a Particular Territory) – कुछ समय कभी-कभी इस तरह का होता है जब व्यवस्थापिका द्वारा किसी भी विशेष क्षेत्र के लिए जो कानून बनाया जाता है उसको किसी अन्य क्षेत्र में लागू करने का कार्य प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है। प्रशासन इस मामले में गहराई से अध्ययन करके सभी तत्वों का विश्लेषण करके तथा उसके सभी बिन्दुओं पर काफी गहराई से विचार-विमर्श करके उस पर कार्यवाही करके इस सम्बन्ध में आगे की योजना तैयार करती है। प्रशासन किसी विशेष क्षेत्र में उस कानून को लागू करने से पूर्व उसमें आवश्यक संशोधन (Modification) करने का अधिकार रखता है। अतः संशोधन की प्रक्रिया के बाद प्रशासन किसी उचित क्षेत्र पर कानून को लागू करने का अधिकार अपने पास रखता है और उसे जब इस कानून को लागू करने की आवश्यकता होती है उसे लागू कर देता है।

     विधि और अधिनियम में यह वर्णन किया जाता है कि किसी कानून को लागू करने की दिनांक पर केन्द्रीय सरकार फैसला करके उसकी सूचना राजपत्र में प्रकाशित करवाती है। तत्पश्चात इस प्रकार के सभी कानूनों को लागू करने की दिनांक सम्बन्धी कार्य व्यवस्थापिका प्रशासन को प्रत्यायुक्त कर देती है।

प्रश्न 6- प्रत्यायुक्त विधान के महत्व का वर्णन कीजिए।

उत्तर – प्रत्यायुक्त विधान का महत्व- वर्तमान युग में प्रत्यायुक्त विधान का इतना महत्व बढ़ता जा रहा है कि प्रशासन के लिए प्रत्यायुक्त विधायन प्रशासन के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। वर्तमान में विधायिका के इतने कार्य एवं अधिकार है कि वह प्रत्येक विषय सामग्री पर कानून नहीं बना सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि व्यवस्थापिका के पास कार्य की अधिकता व समय की कमी रहती है। इसके अतिरिक्त कुछ विषय क्षेत्र इतने तकनीकी होते हैं कि इनके तकनीकी विशेषज्ञों (Experts) की राय की आवश्यकता होती है क्योंकि इस प्रकार की विषय सामग्री पर विषय विशेषज्ञ ही अपनी राय प्रकट कर सकते है विषय विशेषज्ञों को प्रत्येक प्रकार की जानकारी एवं महत्वपूर्ण सूचनाओं के लिए भी सभी साधन एवं इनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उपलब्ध करायी जाती है।

     उदाहरण – स्थानीय निकायों के अन्तर्गत निम्न निकायों को शामिल किया जाता है – (1) नगर निगम, (2) नगरपालिका। इन निकायों को अपने क्षेत्र की आवश्यकताओं व हितों का अनुमान होता है। अतः ये निकाय अपनी आवश्यकताओं के अनुसार विधि निर्माण कर सकते है। प्रत्यायुक्त विधान के बारे में एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वर्तमान समय में प्रशासन का कार्य काफी कठिन हो गया है इस कार्य के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को बड़े स्तर पर अधिकारों की आवश्यकता पड़ती है। यह तथ्य भी सम्भव नहीं हो पाता है कि प्रत्येक प्रकार की छोटी-बड़ी समस्या के लिए कानून का निर्माण करने के लिए व्यवस्थापिका से ही सम्पर्क किया जाए तथा व्यवस्थापिका के पास भी इतना खाली समय नहीं होता है कि आवश्यकता पड़ते ही किसी भी प्रकार की नयी विधि का निर्माण कर सके। अतः इसके लिए यह आवश्यक है कि प्रशासन को हर प्रकार की आने वाली समस्या से निपटने के लिए नियम तथा अन्य कार्यवाही के लिए अधिकार होने चाहिए।

प्रश्न 7- प्रत्यायुक्त विधान की सीमाओं का वर्णन कीजिए ?

उत्तर- प्रत्यायुक्त विज्ञान की सीमाएँ (Limitations of Delegated Legislation) – विधान को प्रत्यायुक्त करने की कुछ मुख्य सीमाएँ भी होती है। यदि इन सीमाओं से बाहर जाकर कोई भी कार्य किया जाता है या इन सीमाओं से आगे बढ़ने का प्रयत्न किया जाता है तो प्रत्यायुक्त का उद्देश्य ही नहीं पूरा हो पाता है।

प्रत्यायुक्त विधान की प्रमुख सीमाएँ निम्न प्रकार है-

1. न्यायालय को कानूनों की स्वतन्त्र रूप से व्याख्या करने का अधिकार तो अवश्य होता हे परन्तु यह अधिकार नहीं होता है कि व्यवस्थापिका द्वारा निर्धारित नियम एवं नीति में कोई हस्तक्षेप करें।

2. व्यवस्थापिका को अपने विधान से सम्बन्धित मूल कार्य स्वयं करना चाहिए। इसलिए इसका प्रत्यायन नहीं कर सकती है।

3. व्यवस्थापिका अपनी विधान शक्ति को स्वयं समाप्त नहीं कर सकती है और न उसमें कोई कटौती कर सकती है।

4. व्यवस्थापिका विधान कार्यों के अधीन अन्य संस्थाओं को नियम व उपनियम आदि बनाने का अधिकार प्रत्यायुक्त कर सकती है। इससे सम्बन्धित प्रशासनिक अधिकारी, कानून से सम्बन्धित आंकड़ो तथ्यों तथा विस्तृत विवरणों की जानकारी करके उस कानून की व्यावहारिक कमी को पूरा करते है।

5. व्यवस्थापिका का यह अनिवार्य कार्य है कि वह इस प्रकार का भी निर्णय दे कि नीति निर्धारण में किन-किन शब्दों का तथा कितनी वाक्यावलियों का प्रयोग करना है।

6. जब इस बात की पुष्टि हो जाए कि व्यवस्थापिका अपने क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ता रखती है तो इसे इस बात की पूर्ण स्वतन्त्रता है कि किसी भी विषय पर कानून बनाए तथा उस कानून को अच्छे ढंग से लागू किया जा सके।

प्रश्न 8- कानून बनाने का अधिकार स्वयं ही प्रत्यायन है, स्पष्ट कीजिए।

उत्तर “कानून बनाने का अधिकार स्वयं ही प्रत्यायन अधिकार है” इस कथन का स्पष्टीकरण निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा किया जा सकता है :-

1. व्यवस्थापिका कानून की नीति की अपने आप घोषणा करे व इसके लिए एक निश्चित मापदण्ड निर्धारित करें तथा इस मापदण्ड के आधार पर ही अधीनस्थ विधायिकाएँ अपना कार्य पूरा करें।

2. विधायन का वास्तविक तथा अनिवार्य कार्य व्यवस्थापिका को ही करना चाहिए।

3. यदि किसी भी अधीनस्थ विधायिका का कानून बनाने का अधिकार प्रत्यायुक्त कर दिया जाए तो इसके लिए मुख्य कानून से सम्बन्धित विवरण, नियम तथा उपनियम होने चाहिए।

4. प्रत्यायुक्त विधान को प्रत्यायुक्त नहीं किया जा सकता है (Delegatus non Potest Delegara)। इस कथन का तात्पर्य है कि मूल सत्ता द्वारा प्रत्यायुक्त किया गया अधिकार आगे और किसी सत्ता को प्रत्यायुक्त नहीं किया जा सकता है। इस कथन को निम्न वाद द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है – ग्वालियर इयेन मिल्स मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी लिमिटेड A.I.R. 1974 S.C. के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि जब किसी समय विधानमण्डल गौण विधायी शक्तियों को प्रत्यायोजित करने की व्यवस्था किसी अधिनियम में करता है तो उसे उस प्राधिकारी के लिए जिसे वह शक्तियाँ दी गयी है उसमें विभिन्न निर्देशों एवं विधायी नीतियों को स्पष्ट कर देना चाहिए जिसके अनुसार बनाम असिटेन्ट क. सैल्स टैक्स या जिस तथ्य के आधार पर उसे कानून बनाना होता है। एक बात यह भी मुख्य रूप से ध्यान देने योग्य है कि विधायिका जनता के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार निकाय है। यह निकाय प्रत्यायुक्त नहीं हो सकता है।

प्रश्न 9. प्रत्यायोजित विधान पर संसदीय नियंत्रण से आप क्या समझते हैं ? प्रत्यायोजित विधान पर संसदीय नियंत्रण

उत्तर – (Parliamentary Control Over Delegated Legislation) – संसद द्वारा बनाए गये विधान के समान ही प्रत्यायोजित विधान महत्वपूर्ण होता है। विधि निर्माण की वास्तविक शक्ति संसद के पास है। यदि किसी कारणवश संसद अपनी विधायी शक्ति कार्यपालिका को प्रत्यायोजित कर देता है तो संसद का यह अधिकार एवं कर्तव्य होगा कि ऐसी प्रत्यायोजित शक्ति के उपयोग का पर्यवेक्षक एवं नियंत्रण हो जिससे कि इसका सदुपयोग सुनिश्चित रहे। प्रत्योजित विधान पर नियंत्रण हेतु इसे संसद में पेश किया जाना चाहिए। कॉमन- वेल्थ वाले देशों में प्रत्यायोजित विधान को संसद के सदन में रखने की परम्परा है। भारत एव ब्रिटेन में प्रत्यायोजित विधान का संसद में पेश किया जाना संविधि विशेष पर आधारित होता है।

    कुछ संविधियों के बारे में यह प्रावधान है कि उनमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं किया जा सकता है। संविधि निर्माण का कार्य मुख्यतया संसद / विधानसभाओं का है। उन्हें पेश किये जाने की प्रक्रिया केवल एक साधन है जिसके द्वारा संसद / विधानसभाएँ यह सूचनाएँ प्राप्त करते। है कि उनके द्वारा प्रत्यायोजित शक्ति के अधीन क्या-क्या किया गया है।

प्रश्न 2. भारत में संसदीय नियंत्रण के घटक कौन-कौन से हैं ? उनका वर्णन कीजिए।

अथवा

प्रत्यायोजित विधान पर भारत में नियंत्रण किस प्रकार किया जाता है ? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- भारत में संसदीय नियंत्रण के घटक (Components of Parliamentary Control in India) – हमारे देश में ऐसी कोई सविधि नहीं है जिसके अन्तर्गत प्रत्यायोजित नियमों एवं विनियमों को संसद में प्रस्तुत करने के लिए प्रशासन की बाध्यता तय ही गयी हो। किसी भी अधिनियम के अन्तर्गत बनाए गये नियमों एवं विनियमों को संसद में पेश करने या न करने की बात प्रत्यायोजन करने वाली विधि के निबन्धन पर आधारित है। प्रस्तुतीकरण प्रक्रिया के बारे में अपनाए गये उपायों को प्रत्यायोजन विधान की प्रखर समिति ने निम्नलिखित रूप में बताया है –

1. बिना किसी नियंत्रण के पेश करना (Laying without further Provision for Control) सम्बन्धित सविधि द्वारा ऐसी व्यवस्था में यह बताया जा सकता है कि अनियमान्तर्गत बनाये गये नियमों एवं विनियमों का ससद के निम्न सदन में रखा जायेगा एवं ऐसे प्रस्तुतीकरण के बाद प्रभावी माना जायेगा। सामान्य दशाओं में उन्हें व पहले भी प्रभावशील किया जा सकता है। ऐसे प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य संसद को नियमों एवं विनियमों की जानकारी देना होता है।

2. प्रत्यायोजित विधान को प्रभावशाली किए जाने की प्रक्रिया सहित पेश करना (Laying Delegated Legislation with the Process of making Effective) – यदि अधिनियम के अन्तर्गत बनाए गये किसी नियम एवं विनियम को पेश किये जाने को स्थगित कर दिया जाता है तो उस पर संसद का अधिक नियंत्रण होता है। परन्तु ऐसी प्रक्रिया को नहीं सविधि में निर्धारित नहीं किया जाता है। नयी संविधियों में सकारात्मक प्रक्रिया पर जोर दिया गया। है।

3. नियमों एवं विनियमों को शीघ्र पेश किये जाने का प्रावधान जोकि रद्दकरण के अधीन हो (Provision for Laying the Rules and Regulations with Immediate Effect but Subject to Cancellation)- ऐसी प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया मे नियम एवं विनिमय सदन में पेश किए जाने के पश्चात क्रियान्वित हो जाते है। परन्तु उन्हें संसद के किसी सदन द्वारा स्वीकार न किए जाने की दशा में वे प्रभावी नहीं होंगे।

    प्रत्यायोजित विधान के संसदीय नियंत्रण की यह विधि ज्यादा अपनायी जाती है। इस नकारात्मक तरीका माना जाता है।

4. नियमों के प्रारूप को सदन में इस आशय से पेश करना कि उन पर आगे कोई कार्यवाही न होगी (Laying the Draft of Rules but Subject to Resolution that No Further Proceeding be taken) यह तब प्रभावशाली होती है जब सम्बन्धित . अधिनियम के सम्बन्ध में बनाए गये नियमों व विनियमों के प्रारूप को संसद में रखने की व्यवस्था बतायी गयी हो।

यह नकारात्मक प्रक्रिया का ही एक रूप होता है।

5. प्रारूप नियमों एवं विनियमों को इस अपेक्षा से पेश करना कि संसद द्वारा उनके बारे में सकारात्मक विकल्प पास किया जाय (Laying the Draft Rules and Regulations Requiring Affirmative Resolution) प्रत्यायोजित नियम एवं विनियम तभी लागू होते है जब उन्हें सकारात्मक संकल्प पास करके स्वीकृत कर दिया जाता है अर्थात प्रस्तावित नियमों व विनियमों पर चर्चा होनी चाहिए।

6. नियमों एवं विनियमों को आस्थगित प्रक्रिया के साथ इस उद्देश्य से पेश करना कि संसद द्वारा सकारात्मक संकल्प के अनुमोदन के बिना प्रभावी न होंगे (Laying the Rules and Regulations with Operation Deferred until Approved by the Parliament through Affirmative) ऐसी प्रणाली में यह अपेक्षा की जाती है कि नियम एवं विनियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक कि संसद उसे स्वीकृति न दे दे। प्रत्यायोजित विधान पर संसदीय निरीक्षण आवश्यक होने पर यह प्रणाली अधिक आसान हो जाता है।

7. तुरन्त लागू हो जाने के साथ पेश किया जाना परन्तु बनाए रखने हेतु सकारात्मक संकल्प शर्त के रूप में वांछित हो (Laying with Immediate Effect but Requiring Affirmative Resolution as Condition for Continuance) – एसे    प्रस्तुतीकरण का उपयोग यहाँ होता है जहाँ प्रत्यायोजित विधान के शीघ्र लागू किया जाना हो।

8. जाँच समितियों की कार्यवाहियाँ (Proceedings of Scrutining Committees) प्रत्यायोजित विधान पर नियन्त्रण जाँच समितियों करती है। संसद के सदन में ये समितियाँ बनायी जाती है।

 

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