51. प्रशासनिक विधि में ‘न्यायिक नियंत्रण’ की आवश्यकता क्यों होती है?
प्रशासनिक कार्यों में न्यायिक नियंत्रण इसलिए आवश्यक है ताकि कार्यपालिका के कार्य विधिक मर्यादा में रहें और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। मनमानी, पक्षपात, पूर्वाग्रह या अधिकार सीमा से बाहर के निर्णयों को रोकने के लिए न्यायिक समीक्षा एक प्रभावी उपाय है। इससे प्रशासनिक पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और विधिक शासन को बढ़ावा मिलता है।
52. प्रशासनिक कानून में ‘सुनवाई का अवसर’ (Right to be Heard) क्यों आवश्यक है?
सुनवाई का अवसर देना ‘प्राकृतिक न्याय’ का मूलभूत सिद्धांत है। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों या हितों पर प्रशासनिक निर्णय का प्रभाव पड़ता है, तो उसे अपनी बात रखने का अवसर मिलना चाहिए। ऐसा न होने पर निर्णय एकतरफा और अवैध माना जाएगा। यह सिद्धांत न्याय और निष्पक्षता की आत्मा है।
53. लोकहित याचिका में ‘बोनाफाइड’ (सद्भावना) का क्या महत्व है?
PIL दाखिल करने वाले याचिकाकर्ता की नीयत ईमानदार (बोनाफाइड) होनी चाहिए। यदि याचिका केवल प्रचार, निजी स्वार्थ या राजनीतिक बदले के उद्देश्य से दायर की जाती है, तो न्यायालय उसे खारिज कर सकता है और याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी लगा सकता है। इसलिए PIL में याचिकाकर्ता की सद्भावना का अत्यधिक महत्व होता है।
54. प्रशासनिक निर्णयों में ‘विवेकाधिकार का दुरुपयोग’ कैसे पहचाना जाता है?
जब कोई अधिकारी अपने विवेकाधिकार का प्रयोग व्यक्तिगत स्वार्थ, दुर्भावना या बिना पर्याप्त कारण के करता है, तो उसे विवेकाधिकार का दुरुपयोग माना जाता है। जैसे – योग्य व्यक्ति को नियुक्ति से वंचित करना या नियमों के विरुद्ध निर्णय लेना। ऐसे मामलों में न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और आदेश रद्द कर सकता है।
55. ‘प्राकृतिक न्याय’ और ‘विधिक न्याय’ में क्या अंतर है?
प्राकृतिक न्याय वह नैतिक और न्यायिक सिद्धांत है जो निष्पक्षता और सुनवाई पर आधारित है, जबकि विधिक न्याय कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया और तकनीकी नियमों पर आधारित होता है। प्राकृतिक न्याय का पालन अर्ध-न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों में आवश्यक होता है, जबकि विधिक न्याय न्यायालयों की कानूनी प्रक्रिया में लागू होता है।
56. प्रशासनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा किन आधारों पर की जाती है?
प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा निम्न आधारों पर की जाती है –
- अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय लेना,
- प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन,
- विवेकाधिकार का दुरुपयोग,
- प्रासंगिक तथ्यों की उपेक्षा,
- मनमानी या पक्षपातपूर्ण निर्णय।
इन आधारों पर न्यायालय प्रशासनिक आदेशों को रद्द कर सकता है।
57. न्यायालय ‘प्रशासनिक नीति’ मामलों में हस्तक्षेप क्यों नहीं करता?
प्रशासनिक नीतियों में निर्णय सरकार के विवेक और विशेषज्ञता पर आधारित होते हैं। जब तक कोई नीति स्पष्ट रूप से अवैध, मनमानी या संविधान के विरुद्ध न हो, तब तक न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता। यह शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत और शासन के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक है।
58. ‘न्यायिक समीक्षा का अधिकार’ संविधान द्वारा कैसे सुरक्षित किया गया है?
संविधान के अनुच्छेद 13, 32 और 226 न्यायिक समीक्षा का आधार प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 13 कहता है कि कोई भी कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, वह शून्य होगा। अनुच्छेद 32 द्वारा सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 226 द्वारा हाई कोर्ट को रिट जारी करने की शक्ति दी गई है जिससे वे कानूनों और कार्यों की वैधता की जांच कर सकते हैं।
59. प्रशासनिक कानून में ‘सार्वजनिक उत्तरदायित्व’ का क्या महत्व है?
प्रशासनिक अधिकारियों का कार्य जनता की सेवा करना होता है, इसलिए वे अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यह उत्तरदायित्व जवाबदेही, पारदर्शिता और नैतिकता के रूप में प्रकट होता है। यदि कोई प्रशासनिक कार्य नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो वह न्यायिक समीक्षा के अधीन आ सकता है।
60. रिट अधिकार नागरिकों के लिए कैसे उपयोगी हैं?
रिट अधिकार नागरिकों को प्रशासनिक अत्याचारों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट नागरिकों को हैबियस कॉर्पस, मंडेमस, सर्टियोरारी, प्रोहिबिशन और क्वो वारंटो रिट प्रदान कर सकते हैं। इन रिटों के माध्यम से व्यक्ति अपने मौलिक या विधिक अधिकारों की रक्षा कर सकता है और शासन को नियंत्रित कर सकता है।
61. प्रशासनिक कानून में ‘नैतिक जिम्मेदारी’ और ‘कानूनी जिम्मेदारी’ में अंतर क्या है?
नैतिक जिम्मेदारी आचार-संहिता, नैतिक मूल्यों और सामाजिक अपेक्षाओं पर आधारित होती है, जबकि कानूनी जिम्मेदारी विधिक दायित्वों और नियमों पर आधारित होती है। नैतिक जिम्मेदारी का उल्लंघन अनैतिक माना जाता है, लेकिन कानूनी जिम्मेदारी का उल्लंघन दंडनीय होता है।
62. न्यायपालिका का प्रशासनिक विधि के विकास में क्या योगदान है?
भारतीय न्यायपालिका ने PIL, न्यायिक समीक्षा, प्राकृतिक न्याय जैसे सिद्धांतों के माध्यम से प्रशासनिक विधि को विस्तारित किया है। सुप्रीम कोर्ट ने मेनका गांधी, ओल्गा टेलिस, एम.सी. मेहता जैसे मामलों में प्रशासनिक न्याय की सीमाएँ और अधिकार स्पष्ट किए, जिससे यह विधि अधिक प्रभावी और नागरिक हितैषी बनी।
63. ‘कार्यपालिका की विवेक शक्ति’ के सीमांकन में न्यायपालिका की भूमिका क्या है?
न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि कार्यपालिका विवेक शक्ति का प्रयोग कानून और संविधान के अनुरूप करे। यदि यह शक्ति मनमाने ढंग से प्रयोग होती है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और उसे अनुचित ठहरा सकता है। इससे विधिक शासन और नागरिकों की रक्षा सुनिश्चित होती है।
64. प्रशासनिक कानून का प्रभावी क्रियान्वयन कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?
प्रशासनिक कानून का प्रभावी क्रियान्वयन पारदर्शिता, उत्तरदायित्व, जन-सहभागिता और न्यायिक नियंत्रण से संभव है। RTI, लोकायुक्त, ट्रिब्यूनल, और न्यायिक समीक्षा जैसे उपाय इसे सुनिश्चित करते हैं। प्रशासनिक अधिकारियों की नियमित प्रशिक्षण और नैतिक जागरूकता भी इसमें सहायक होती है।
65. प्रशासनिक विधि और संवैधानिक विधि में क्या संबंध है?
प्रशासनिक विधि, संवैधानिक विधि का ही विस्तार है। यह संविधान द्वारा निर्धारित मूल अधिकारों, शक्तियों और सीमाओं के भीतर रहकर कार्यपालिका की कार्यप्रणाली को नियंत्रित करती है। संवैधानिक विधि संपूर्ण शासन व्यवस्था का आधार है, जबकि प्रशासनिक विधि विशेष रूप से कार्यपालिका की शक्तियों और नियंत्रण पर केंद्रित होती है।
66. प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के लाभ क्या हैं?
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल विशेष विवादों के शीघ्र समाधान के लिए गठित होते हैं जैसे – सेवा विवाद, कर विवाद, आदि। इसके लाभ हैं:
- निर्णय जल्दी होते हैं,
- कम खर्च में न्याय मिलता है,
- प्रक्रिया लचीली और सरल होती है,
- विशेषज्ञता आधारित निर्णय होते हैं।
इससे न्यायिक बोझ कम होता है और न्याय सुलभ होता है।
67. ‘लोकपाल’ और ‘लोकायुक्त’ की भूमिका क्या है?
लोकपाल (केंद्र) और लोकायुक्त (राज्य) भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वतंत्र जांच एजेंसियां हैं। ये उच्च अधिकारियों, मंत्रियों और सरकारी कर्मियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करते हैं। इनका उद्देश्य प्रशासन को ईमानदार, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाना है। लोकपाल अधिनियम, 2013 के तहत इन संस्थाओं को वैधानिक आधार मिला है।
68. न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र की सुरक्षा कैसे करती है?
न्यायिक समीक्षा कार्यपालिका और विधायिका की सीमाओं का निर्धारण करती है और उन्हें संविधान के अनुरूप कार्य करने को बाध्य करती है। यदि कोई कार्य नागरिक अधिकारों का हनन करता है या संविधान के विरुद्ध होता है, तो न्यायपालिका उसे अमान्य घोषित कर सकती है। इससे लोकतंत्र में ‘संवैधानिक सर्वोच्चता’ कायम रहती है।
69. ‘प्राकृतिक न्याय’ का आधुनिक महत्व क्या है?
आधुनिक प्रशासनिक प्रक्रियाओं में प्राकृतिक न्याय का अत्यधिक महत्व है। यह न केवल न्यायालयों में, बल्कि प्रशासनिक निकायों में भी लागू होता है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी निर्णय बिना सुनवाई, बिना निष्पक्षता और बिना तर्क के न लिया जाए। इससे न्याय की भावना मजबूत होती है और निर्णय स्वीकार्य होते हैं।
70. प्रशासनिक कानून में ‘डेलिगेशन ऑफ पॉवर्स’ का क्या अर्थ है?
‘डेलिगेशन ऑफ पॉवर्स’ का तात्पर्य है कि उच्च प्रशासनिक अधिकारी या विधायिका अपनी कुछ शक्तियाँ अधीनस्थों को सौंप सकती है ताकि कार्य कुशलता से हो। लेकिन यह केवल सीमित रूप में किया जा सकता है। असंवैधानिक डेलिगेशन न्यायालय में निरस्त हो सकता है। यह प्रशासनिक दक्षता के लिए आवश्यक प्रक्रिया है।
71. न्यायपालिका लोकहित याचिका को कैसे नियंत्रित करती है?
न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि PIL का दुरुपयोग न हो। इसके लिए न्यायालय याचिकाकर्ता की नीयत, तथ्य की सत्यता, और याचिका की सार्वजनिक उपयोगिता की जांच करता है। झूठी या प्रचार-प्राप्ति के उद्देश्य से दायर याचिकाओं को न्यायालय खारिज कर देता है और दंड भी लगा सकता है। यह PIL की गरिमा बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
72. प्रशासनिक कार्रवाई में ‘पारदर्शिता’ का क्या महत्व है?
पारदर्शिता से जनता को यह जानकारी मिलती है कि प्रशासनिक निर्णय किस आधार पर लिए गए हैं। इससे विश्वास, जवाबदेही और कानून का शासन मजबूत होता है। सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) प्रशासनिक पारदर्शिता का प्रमुख माध्यम है। पारदर्शी प्रशासन भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक होता है।
73. ‘नैतिक प्रशासन’ की विफलता के क्या दुष्परिणाम होते हैं?
यदि प्रशासन में नैतिकता नहीं होती तो भ्रष्टाचार, पक्षपात, अनियमितता और जन-असंतोष बढ़ता है। इससे शासन प्रणाली में विश्वास समाप्त होता है। नीति-निर्माण और कार्यान्वयन दोनों ही पक्ष प्रभावित होते हैं। नैतिक प्रशासन लोकतंत्र का मूल स्तंभ होता है और उसकी विफलता से संविधानिक मूल्यों को आघात पहुँचता है।
74. न्यायिक समीक्षा और विधायिका के अधिकार में संतुलन कैसे बनाए रखा जाता है?
न्यायिक समीक्षा विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की वैधता की जांच करती है, परंतु न्यायपालिका विधायिका के अधिकारों में सीधा हस्तक्षेप नहीं करती जब तक कि कोई कानून संविधान के विरुद्ध न हो। इसी संतुलन से शक्ति पृथक्करण (Separation of Powers) का सिद्धांत बना रहता है और लोकतांत्रिक संरचना सुदृढ़ होती है।
75. प्रशासनिक विधि का मुख्य उद्देश्य क्या है?
प्रशासनिक विधि का मुख्य उद्देश्य कार्यपालिका की शक्तियों को नियंत्रित करना, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना, और प्रशासन को उत्तरदायी, पारदर्शी तथा न्यायसंगत बनाना है। यह कानून और प्रशासन के बीच संतुलन बनाए रखता है तथा प्राकृतिक न्याय, न्यायिक समीक्षा और लोकहित याचिका जैसे उपायों से प्रशासन को नियंत्रित करता है।
76. ‘न्यायपालिका का अतिक्रमण’ (Judicial Overreach) क्या होता है?
जब न्यायपालिका कार्यपालिका या विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है, जहाँ स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती, तब इसे ‘न्यायिक अतिक्रमण’ कहा जाता है। यह शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अतः न्यायालयों को संतुलन बनाए रखना चाहिए और केवल वैधता की जांच तक सीमित रहना चाहिए।
77. सूचना का अधिकार (RTI) प्रशासनिक नियंत्रण का कैसे साधन है?
RTI अधिनियम 2005 के तहत नागरिक प्रशासन से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यह प्रशासन को पारदर्शी, उत्तरदायी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाने में सहायक होता है। यदि अधिकारी सूचना नहीं देते या गलत सूचना देते हैं, तो उन पर दंडात्मक कार्यवाही की जा सकती है। RTI नागरिकों को सशक्त बनाता है।
78. प्रशासनिक निर्णयों में ‘पूर्व निर्णयों का पालन’ कितना आवश्यक है?
पूर्व निर्णयों (precedents) का पालन प्रशासनिक स्थिरता और समानता के लिए आवश्यक होता है। इससे समान परिस्थितियों में समान निर्णय लिए जाते हैं और पक्षपात की संभावना कम होती है। यदि कोई नया निर्णय पूर्व नज़ीर से भिन्न हो, तो उसका तर्क स्पष्ट होना चाहिए।
79. प्रशासनिक कानून में ‘न्यायिक स्वायत्तता’ (Judicial Independence) का महत्व क्या है?
न्यायिक स्वायत्तता यह सुनिश्चित करती है कि न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा कर सके। इससे प्रशासनिक दुरुपयोग पर नियंत्रण रहता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा होती है। यदि न्यायपालिका स्वतंत्र न हो तो वह निष्पक्ष निर्णय नहीं ले पाएगी और विधिक शासन खतरे में पड़ जाएगा।
80. प्रशासनिक कानून में ‘नैतिक मूल्यों’ की भूमिका क्या है?
नैतिक मूल्य प्रशासन को जनहितकारी, निष्पक्ष और पारदर्शी बनाते हैं। जैसे – ईमानदारी, जवाबदेही, सहानुभूति, और निष्पक्षता। यदि प्रशासनिक अधिकारियों में नैतिक मूल्यों की कमी हो, तो भ्रष्टाचार, पक्षपात और निर्णयों में अन्याय बढ़ता है। नैतिक प्रशासन सुशासन का आधार है।
81. न्यायिक समीक्षा संविधान के कौन से अनुच्छेदों में निहित है?
न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, 32 और 226 में निहित है। अनुच्छेद 13 यह कहता है कि कोई भी कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, वह शून्य होगा। अनुच्छेद 32 द्वारा सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 226 द्वारा हाई कोर्ट को अधिकार प्राप्त है कि वे रिट जारी कर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करें। इन अनुच्छेदों के माध्यम से न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की शक्ति पर नियंत्रण रखती है।
82. ‘हैबियस कॉर्पस’ रिट का प्रशासनिक विधि में क्या महत्व है?
‘हैबियस कॉर्पस’ का अर्थ है – “शरीर को प्रस्तुत करो।” यह रिट तब जारी होती है जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में लिया गया हो। यह रिट नागरिक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करती है। यदि कोई प्रशासनिक अधिकारी बिना विधिक आधार के किसी को बंदी बनाता है, तो न्यायालय इस रिट द्वारा उसकी रिहाई का आदेश दे सकता है।
83. प्रशासनिक विधि में ‘मंडेमस’ रिट की भूमिका क्या है?
‘मंडेमस’ रिट का उपयोग तब किया जाता है जब कोई सार्वजनिक अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा हो। यह न्यायालय उस अधिकारी को अपने कर्तव्य का पालन करने का आदेश देता है। यह रिट प्रशासनिक निष्क्रियता को नियंत्रित करने के लिए अत्यंत प्रभावी साधन है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करता है।
84. न्यायिक नियंत्रण और विधायी नियंत्रण में क्या अंतर है?
न्यायिक नियंत्रण का तात्पर्य है न्यायालय द्वारा प्रशासनिक कार्यों की वैधता की समीक्षा, जबकि विधायी नियंत्रण वह होता है जब संसद या विधानसभा प्रशासन की जांच करती है – जैसे प्रश्नोत्तर, शून्यकाल, समिति प्रणाली आदि के माध्यम से। न्यायिक नियंत्रण संवैधानिक नियमों पर आधारित होता है, जबकि विधायी नियंत्रण राजनीतिक उत्तरदायित्व पर आधारित होता है।
85. प्रशासनिक विधि में ‘पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत’ क्या है?
पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत के अनुसार सरकार और प्रशासन जनता की संपत्ति और संसाधनों की संरक्षक होती है। उन्हें जनहित में प्रयोग किया जाना चाहिए। यदि प्रशासन प्राकृतिक संसाधनों या सार्वजनिक संपत्ति का दुरुपयोग करता है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है। यह सिद्धांत पारदर्शी और उत्तरदायी प्रशासन को बढ़ावा देता है।
86. प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में अपील की प्रक्रिया क्या होती है?
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध संबंधित अपीली प्राधिकरण में अपील की जा सकती है। कुछ मामलों में ट्रिब्यूनल के निर्णयों के विरुद्ध सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की जा सकती है। अपील का अधिकार कानून द्वारा निर्धारित किया जाता है और समयसीमा का पालन आवश्यक होता है।
87. प्रशासनिक प्रक्रिया में ‘पूर्व सूचना’ (Show Cause Notice) का क्या महत्व है?
‘पूर्व सूचना’ एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रभावित व्यक्ति को कारण बताने का अवसर दिया जाता है कि उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई क्यों न की जाए। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत – “Audi Alteram Partem” (दूसरी पक्ष को सुनो) – का पालन करता है। इससे निर्णय निष्पक्ष और वैध बनता है।
88. प्रशासनिक विधि में ‘उचित प्रक्रिया’ (Due Process) का सिद्धांत क्या है?
‘उचित प्रक्रिया’ का अर्थ है कि कोई भी प्रशासनिक कार्रवाई कानून के अनुसार होनी चाहिए और उसमें निष्पक्षता, सुनवाई, तर्क और पारदर्शिता होनी चाहिए। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों को प्रभावित करने वाली कार्रवाई उचित प्रक्रिया के बिना की जाती है, तो वह न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
89. रिट ‘प्रोहिबिशन’ का प्रशासनिक कार्यों में क्या उपयोग है?
‘प्रोहिबिशन’ रिट तब जारी की जाती है जब कोई निचला न्यायालय या ट्रिब्यूनल अपनी अधिकार सीमा से बाहर जाकर कोई कार्यवाही कर रहा होता है। यह रिट कार्यवाही को रोकने के लिए होती है, जिससे अतिक्रमण को रोका जा सके। यह रिट न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्यों में जारी होती है।
90. न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता में क्या अंतर है?
न्यायिक समीक्षा संविधान के तहत विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की वैधता की जांच है, जबकि न्यायिक सक्रियता तब होती है जब न्यायालय जनहित में स्वयं पहल करता है या सामाजिक न्याय को लागू करने के लिए सक्रिय भूमिका निभाता है। न्यायिक सक्रियता का आधार PIL, मानवाधिकार और संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत होते हैं।
91. प्रशासनिक कानून में ‘शक्ति का पृथक्करण’ सिद्धांत का क्या स्थान है?
शक्ति का पृथक्करण (Separation of Powers) सिद्धांत के अनुसार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियाँ अलग-अलग होती हैं और वे एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते। प्रशासनिक विधि में यह सिद्धांत न्यायिक समीक्षा और प्रशासनिक नियंत्रण की सीमाओं को तय करता है ताकि संतुलन बना रहे।
92. प्रशासनिक विधि में ‘नियमों का गठन’ (Rule-Making Power) कैसे होता है?
विधायिका कार्यपालिका को नियम बनाने की शक्ति सौंप सकती है जिसे विनियमन शक्ति (Delegated Legislation) कहते हैं। इसके अंतर्गत मंत्रालय, विभाग या प्राधिकरण कानून के अंतर्गत नियम, अधिसूचना या दिशा-निर्देश बनाते हैं। यह शासन में लचीलापन लाता है परंतु इसके लिए विधायिका की निगरानी आवश्यक है।
93. प्रशासनिक विधि में ‘गोपनीयता बनाम पारदर्शिता’ विवाद क्या है?
कई बार प्रशासनिक कार्यों में गोपनीयता की आवश्यकता होती है (जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा), लेकिन अधिकतर मामलों में पारदर्शिता की आवश्यकता होती है ताकि जनता जान सके कि निर्णय कैसे लिए गए। RTI अधिनियम ने पारदर्शिता को बढ़ावा दिया, लेकिन कुछ मामलों में गोपनीयता को प्राथमिकता दी जाती है। यह संतुलन बनाए रखना आवश्यक होता है।
94. प्रशासनिक कानून में ‘दायित्व की निरंतरता’ क्या है?
प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारी केवल निर्णय लेने तक सीमित नहीं होती, बल्कि उसके परिणामों के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। यदि कोई निर्णय गलत प्रभाव डालता है या अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो संबंधित अधिकारी या संस्था को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह प्रशासनिक जवाबदेही को मजबूती देता है।
95. प्रशासनिक विधि में ‘लोक सेवकों की नैतिकता’ क्यों आवश्यक है?
लोक सेवकों की नैतिकता शासन व्यवस्था की रीढ़ होती है। यदि वे ईमानदारी, निष्पक्षता और संवेदनशीलता के साथ कार्य करें, तो प्रशासन जनहित में कार्य करता है। लेकिन यदि नैतिकता न हो तो भ्रष्टाचार, अनियमितता और मनमानी बढ़ती है। इसलिए प्रशिक्षण, सेवा शर्तें और अनुशासनात्मक कार्रवाई से नैतिकता सुनिश्चित की जाती है।
96. ‘विधि का शासन’ (Rule of Law) प्रशासनिक कानून में कैसे लागू होता है?
‘विधि का शासन’ का अर्थ है कि सभी व्यक्ति और संस्थाएं कानून के अधीन हैं। प्रशासनिक अधिकारियों को भी उसी कानून का पालन करना होता है जो आम नागरिकों पर लागू होता है। यह सिद्धांत समानता, वैधता और अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। यह लोकतंत्र और प्रशासनिक पारदर्शिता का आधार है।
97. न्यायिक समीक्षा में ‘अति सक्रियता’ के क्या खतरे हैं?
यदि न्यायपालिका बार-बार कार्यपालिका या विधायिका के मामलों में हस्तक्षेप करती है, तो इससे लोकतांत्रिक संतुलन बिगड़ सकता है। यह कार्यपालिका की कार्यक्षमता को प्रभावित कर सकता है और शक्ति के दुरुपयोग का खतरा भी उत्पन्न हो सकता है। अतः न्यायिक सक्रियता को न्यायिक विवेक के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
98. प्रशासनिक कानून में ‘प्रतिष्ठा की रक्षा’ क्यों आवश्यक है?
प्रशासनिक संस्थानों की प्रतिष्ठा ही उनकी वैधता और प्रभावशीलता का आधार होती है। यदि निर्णय निष्पक्ष, पारदर्शी और उत्तरदायी होंगे तो जनता का विश्वास बना रहेगा। प्रतिष्ठा की रक्षा से जनसहयोग प्राप्त होता है और विधिक शासन सुदृढ़ होता है।
99. प्रशासनिक कानून में ‘लोक जवाबदेही’ का क्या स्थान है?
लोक जवाबदेही का अर्थ है कि प्रशासन को अपने निर्णयों और कार्यों के लिए जनता को उत्तर देना होता है। यह लोकतंत्र का मूल तत्व है। जवाबदेही से भ्रष्टाचार कम होता है, पारदर्शिता बढ़ती है और अधिकारों की रक्षा होती है। लोकायुक्त, RTI, न्यायिक समीक्षा इसके प्रभावी उपकरण हैं।
100. प्रशासनिक विधि का भविष्य क्या है?
प्रशासनिक विधि का भविष्य उत्तरदायी, पारदर्शी और प्रौद्योगिकी आधारित शासन में निहित है। डिजिटल प्रशासन, नागरिक सहभागिता, और तेज न्यायिक प्रक्रिया इसे अधिक प्रभावी बना रही है। साथ ही न्यायिक समीक्षा, नैतिक प्रशासन और सामाजिक न्याय के नए आयाम इसे सशक्त बना रहे हैं। यह विधि शासन को अधिक न्यायपूर्ण और लोकहितकारी बनाने की दिशा में अग्रसर है।