शीर्षक:
“स्कूलों में बच्चों के अधिकार: शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न पर रोक”
भूमिका
शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चों का बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास करना है। लेकिन जब विद्यालय ही हिंसा, डर और उत्पीड़न का केंद्र बन जाए, तो यह न केवल शिक्षा के उद्देश्यों को विफल करता है, बल्कि बच्चों के बुनियादी मानवाधिकारों का भी उल्लंघन करता है। शारीरिक दंड (Corporal Punishment) और मानसिक उत्पीड़न (Mental Harassment) ऐसे ही अमानवीय कृत्य हैं, जो बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
भारत में बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई संवैधानिक प्रावधान, विधिक कानून और नीतिगत पहलें मौजूद हैं, जो विद्यालयों में इस प्रकार की हिंसा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती हैं।
1. शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न की परिभाषा
1.1 शारीरिक दंड (Corporal Punishment)
बच्चों को नियंत्रित करने या अनुशासन में रखने के उद्देश्य से उन्हें शारीरिक पीड़ा पहुँचाने वाला कोई भी कार्य — जैसे मारना, थप्पड़ लगाना, खड़ा करना, कान खींचना, बेंत से मारना — शारीरिक दंड कहलाता है।
1.2 मानसिक उत्पीड़न (Mental Harassment)
किसी बच्चे को अपमानित करना, नीचा दिखाना, डराना-धमकाना, सार्वजनिक रूप से तिरस्कार करना या लगातार नकारात्मक टिप्पणियाँ करना मानसिक उत्पीड़न की श्रेणी में आता है।
2. बच्चों के अधिकार और कानूनी संरक्षण
2.1 संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जिसमें गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है।
- अनुच्छेद 21A – 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार।
- अनुच्छेद 39(e) और (f) – बच्चों के स्वास्थ्य, विकास और शोषण से बचाव के लिए राज्य की जिम्मेदारी।
2.2 विधिक प्रावधान
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act)
- धारा 17: बच्चों पर शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न का पूर्ण प्रतिबंध।
- उल्लंघन करने वाले पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान।
- किशोर न्याय (बालकों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015
- किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक शोषण बच्चों के खिलाफ अपराध।
- भारतीय दंड संहिता (IPC)
- धारा 323, 324, 352 – चोट, मारपीट और हमले पर दंड।
- धारा 506 – आपराधिक धमकी के लिए सजा।
2.3 नीतिगत पहलें
- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) द्वारा जारी “Guidelines on Eliminating Corporal Punishment in Schools”।
- शिक्षकों के लिए संवेदनशीलता और बाल-मैत्री प्रशिक्षण कार्यक्रम।
3. शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न के दुष्प्रभाव
3.1 शारीरिक दुष्प्रभाव
- चोट, नीले निशान, हड्डी टूटना।
- लंबे समय तक स्वास्थ्य समस्याएँ।
3.2 मानसिक और भावनात्मक दुष्प्रभाव
- आत्मविश्वास की कमी।
- डर और चिंता विकार।
- आत्महत्या की प्रवृत्ति।
3.3 शैक्षणिक दुष्प्रभाव
- स्कूल से भागना या पढ़ाई छोड़ना।
- सीखने की क्षमता में कमी।
4. रोकथाम की रणनीतियाँ
4.1 कानूनी प्रवर्तन
- स्कूल प्रबंधन और शिक्षकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई।
- शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना।
4.2 सकारात्मक अनुशासन (Positive Discipline)
- बच्चों को समझाने और प्रेरित करने की तकनीक अपनाना।
- व्यवहार सुधारने के लिए रचनात्मक तरीके, जैसे अतिरिक्त जिम्मेदारी देना।
4.3 अभिभावक और सामुदायिक भागीदारी
- अभिभावकों को स्कूल की नीतियों में शामिल करना।
- सामुदायिक स्तर पर जागरूकता अभियान।
4.4 मानसिक स्वास्थ्य सहायता
- काउंसलिंग सेवाएँ उपलब्ध कराना।
- नियमित मानसिक स्वास्थ्य कार्यशालाएँ।
5. चुनौतियाँ
- सामाजिक मानसिकता कि “मारना अनुशासन का हिस्सा है”।
- शिकायत करने पर बच्चों या अभिभावकों को प्रतिशोध का डर।
- शिक्षकों के प्रशिक्षण की कमी।
6. आगे की राह
- शून्य सहनशीलता नीति (Zero Tolerance Policy) लागू करना।
- सभी राज्यों में RTE Act के प्रावधानों का सख्त पालन।
- शिक्षकों के लिए अनिवार्य बाल-अधिकार प्रशिक्षण।
- पीड़ित बच्चों के लिए पुनर्वास और मनोवैज्ञानिक सहायता सुनिश्चित करना।
निष्कर्ष
स्कूल केवल पढ़ाई का स्थान नहीं, बल्कि बच्चों के सर्वांगीण विकास का केंद्र होना चाहिए। शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न से बच्चों के अधिकारों का गंभीर हनन होता है और यह शिक्षा प्रणाली में अविश्वास पैदा करता है। जब तक विद्यालय सुरक्षित, सम्मानजनक और प्रोत्साहनपूर्ण वातावरण नहीं देंगे, तब तक हम शिक्षा के असली उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगे।