सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification) की अवधारणा: एक विस्तृत अध्ययन (समाजशास्त्र)

सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification) की अवधारणा: एक विस्तृत अध्ययन (समाजशास्त्र)

परिचय:

सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification) समाजशास्त्र की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो समाज में व्यक्तियों और समूहों के बीच असमानताओं की संरचित व्यवस्था को दर्शाती है। यह वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समाज में लोगों को विभिन्न स्तरों (strata) में बाँटा जाता है, जहाँ प्रत्येक स्तर सामाजिक स्थिति, प्रतिष्ठा, अधिकार और संसाधनों की पहुँच के आधार पर भिन्न होता है। यह व्यवस्था समाज में जन्म, जाति, वर्ग, लिंग, आय, शिक्षा आदि अनेक आधारों पर निर्मित होती है।


सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा:

1. मेल्विन टी. मिंचर (Melvin Tumin):
“सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ है व्यक्तियों और समूहों के बीच मूल्यवान संसाधनों, प्रतिष्ठा और शक्ति के वितरण की व्यवस्था।”

2. ओसिप मोरगन (Ossip K. Flechtheim):
“सामाजिक स्तरीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समाज में असमानताएं उत्पन्न होती हैं और व्यक्तियों को उच्च और निम्न स्तर पर रखा जाता है।”

3. पार्सन्स (Talcott Parsons):
“सामाजिक स्तरीकरण समाज के लिए आवश्यक है क्योंकि यह लोगों को उनके योगदान के आधार पर विभिन्न भूमिकाओं में स्थान प्रदान करता है।”

इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण समाज में विद्यमान असमानताओं की एक स्थायी व्यवस्था है, जो विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मापदंडों पर आधारित होती है।


सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएं:

  1. सामाजिक प्रकृति: यह एक सामाजिक प्रक्रिया है, न कि केवल व्यक्तिगत भिन्नता।
  2. व्यवस्थित असमानता: यह एक संरचित व्यवस्था है जिसमें संसाधनों, अधिकारों और प्रतिष्ठा का असमान वितरण होता है।
  3. स्थायित्व: सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है।
  4. प्रत्येक समाज में विद्यमान: कोई भी समाज इससे मुक्त नहीं है; केवल आधार और रूप बदलते हैं।
  5. मानदंड आधारित: यह जाति, वर्ग, लिंग, धर्म आदि मानदंडों पर आधारित होता है।
  6. प्रवेश व गतिशीलता (Mobility): कुछ समाजों में स्थिति स्थिर होती है (जैसे जाति), जबकि कुछ में ऊर्ध्वगामी अथवा अधोमुखी गतिशीलता होती है (जैसे वर्ग व्यवस्था)।

सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधार:

1. जाति (Caste):

  • विशेषतः भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार।
  • जन्म आधारित, स्थिर और अनुवांशिक।
  • ऊँच-नीच, शुद्धता-अपवित्रता की अवधारणा पर आधारित।
  • सामाजिक गतिशीलता बहुत सीमित।

2. वर्ग (Class):

  • आधुनिक औद्योगिक समाजों में प्रमुख।
  • आर्थिक स्थितियों पर आधारित – जैसे उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, निम्न वर्ग।
  • अर्जित स्थिति (Achieved Status) पर आधारित।
  • सामाजिक गतिशीलता संभव।

3. लिंग (Gender):

  • पुरुष और महिला के बीच सामाजिक भिन्नता।
  • परंपरागत रूप से पुरुषों को उच्च स्थिति, अधिकार एवं अवसर प्राप्त रहे हैं।
  • समकालीन समाज में लैंगिक समानता की दिशा में प्रयास।

4. नस्ल और जातीयता (Race and Ethnicity):

  • विशेषकर पश्चिमी देशों में नस्लीय भेदभाव सामाजिक स्तरीकरण का आधार रहा है।
  • अश्वेत और गोरे, मूल निवासी और प्रवासी जैसे भेद।

5. धर्म और संस्कृति:

  • कुछ समाजों में धर्म के आधार पर सामाजिक स्थिति निर्धारित होती है।
  • उदाहरणतः मध्यकालीन यूरोप में चर्च के पादरियों की उच्च स्थिति।

सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार:

प्रकार विशेषता
खुली व्यवस्था (Open Stratification System) व्यक्ति अपनी योग्यता, शिक्षा, परिश्रम से ऊपर उठ सकता है। जैसे – वर्ग व्यवस्था।
बंद व्यवस्था (Closed Stratification System) जन्म से मिली स्थिति में परिवर्तन संभव नहीं। जैसे – जाति व्यवस्था।

सामाजिक स्तरीकरण के कार्य (Functions):

  1. सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना:
    यह तय करता है कि कौन व्यक्ति किस भूमिका में होगा।
  2. प्रेरणा प्रदान करना:
    ऊँचे स्तर की प्राप्ति के लिए लोग मेहनत करते हैं।
  3. प्रतिष्ठा और पहचान:
    लोगों को उनकी सामाजिक स्थिति से सामाजिक पहचान मिलती है।
  4. संसाधनों का वितरण:
    समाज में अधिकार, संपत्ति, अवसर आदि का वितरण तय होता है।

सामाजिक स्तरीकरण के दुष्परिणाम (Disfunctions):

  1. असमानता की स्थायित्व:
    गरीब हमेशा गरीब और अमीर अमीर बना रहता है।
  2. शोषण:
    उच्च वर्ग या जाति निम्न वर्ग का शोषण कर सकती है।
  3. वर्ग संघर्ष:
    संसाधनों और अधिकारों के लिए संघर्ष उत्पन्न होता है।
  4. प्रतिभा का दमन:
    बंद व्यवस्थाओं में योग्य व्यक्ति अवसर से वंचित हो सकता है।

भारत में सामाजिक स्तरीकरण: जाति व्यवस्था का विशेष संदर्भ:

भारतीय समाज में जाति एक पारंपरिक सामाजिक स्तरीकरण की पद्धति है। यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे वर्णों में विभाजित थी, जो समय के साथ हजारों जातियों और उपजातियों में बदल गई। जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित, अंतर्विवाही (endogamous) और अनुवांशिक होती है।

आधुनिक भारत में परिवर्तन:

  • संवैधानिक समानता और आरक्षण नीति ने कुछ हद तक सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाया है।
  • शिक्षा, शहरीकरण और वैश्वीकरण ने जातिगत प्रभाव को कमजोर किया है।
  • फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में जाति आधारित भेदभाव आज भी मौजूद है।

निष्कर्ष:

सामाजिक स्तरीकरण समाज की एक अनिवार्य संरचना है जो समाज में असमानता, प्रतिष्ठा और संसाधनों के वितरण को नियंत्रित करती है। यद्यपि इसका कुछ हद तक सकारात्मक पक्ष यह है कि यह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखता है, किन्तु इससे उत्पन्न असमानता, भेदभाव और संघर्ष समाज के लिए चुनौती भी हैं। एक आदर्श समाज की दिशा में प्रयास यह होना चाहिए कि सामाजिक स्तरीकरण में व्याप्त असमानताओं को न्यूनतम किया जाए और सभी को समान अवसर प्राप्त हों। BA LLB जैसे विधिक पाठ्यक्रम में इस अवधारणा की समझ समाज की न्यायिक संरचना और विधिक सुधारों की दिशा में अत्यंत सहायक सिद्ध होती है।