“अधिकार क्षेत्र का विवेक और वादपत्र में संशोधन की सीमाएँ: M/s. Vivienda Luxury Homes LLP बनाम M/s. Gregory & Nicholas व अन्य (सुप्रीम कोर्ट – 2025)”

शीर्षक:
“अधिकार क्षेत्र का विवेक और वादपत्र में संशोधन की सीमाएँ: M/s. Vivienda Luxury Homes LLP बनाम M/s. Gregory & Nicholas व अन्य (सुप्रीम कोर्ट – 2025)”


भूमिका:
भारतीय विधि व्यवस्था में अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) का निर्धारण किसी भी न्यायिक प्रक्रिया की नींव होता है। कोई भी वाद यदि गलत अधिकार क्षेत्र की अदालत में दायर किया गया है, तो उसका सुनवाई योग्य होना ही प्रश्न के घेरे में आ जाता है। M/s. Vivienda Luxury Homes LLP बनाम M/s. Gregory & Nicholas व अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट, गोवा पीठ के एक महत्वपूर्ण निर्णय की पुष्टि करते हुए यह स्पष्ट किया कि केवल वादपत्र (Pleading) में संशोधन कर किसी अदालत को अधिकार क्षेत्र नहीं दिया जा सकता।


मामले की पृष्ठभूमि:
इस विवाद में M/s. Vivienda Luxury Homes LLP द्वारा एक सिविल वाद दायर किया गया था, जिसकी प्राथमिक प्रकृति एक सम्पत्ति विवाद की थी। प्रतिवादीगण (M/s. Gregory & Nicholas & Ors) ने प्रारंभिक आपत्ति उठाई कि जिस न्यायालय में वाद दायर किया गया है, उसे इस मामले में सुनवाई का अधिकार (jurisdiction) नहीं है और इस आधार पर Order 7 Rule 10 CPC के तहत वादपत्र को वापस किए जाने की माँग की गई।

वाद के उत्तर में वादी पक्ष ने वादपत्र में संशोधन कर विवाद की प्रकृति को इस प्रकार बदलने का प्रयास किया कि वह संबंधित न्यायालय की अधिकार सीमा में आ जाए। इस संशोधन से ऐसा प्रतीत होने लगा कि वाद का विषय अब संपत्ति अधिकार से हटकर अनुबंध का उल्लंघन है, ताकि अदालत को अधिकार क्षेत्र प्रदान किया जा सके।


प्रक्रियागत घटनाक्रम:

  • ट्रायल कोर्ट ने पाया कि यह संशोधन विवाद की मूल प्रकृति को ही परिवर्तित करता है और इस प्रकार का संशोधन स्वीकार्य नहीं है।
  • वादी ने इस आदेश को चुनौती देते हुए अनुच्छेद 227 के तहत बॉम्बे हाईकोर्ट की गोवा पीठ में याचिका दायर की।
  • हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया और कहा कि वादी पक्ष वादपत्र में संशोधन कर न्यायालय को अधिकार क्षेत्र नहीं प्रदान कर सकता, विशेष रूप से तब जब वाद का मूल स्वरूप ही बदला जा रहा हो।

न्यायिक विश्लेषण:
हाईकोर्ट ने इस सिद्धांत पर बल दिया कि:

“Jurisdiction is conferred by law, not by pleadings.”
अर्थात, किसी न्यायालय को सुनवाई का अधिकार कानून द्वारा निर्धारित होता है, न कि पक्षकारों की सुविधा अनुसार प्रस्तुत की गई याचिकाओं या उनके संशोधनों से।

न्यायालय ने यह भी कहा कि Order 6 Rule 17 CPC के तहत याचिका में संशोधन की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन यह केवल तभी जब वह विवाद की प्रकृति को मूल रूप से परिवर्तित न करे।


सुप्रीम कोर्ट की पुष्टि:
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की सराहना की और इस निर्णय को भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता की व्याख्या में एक न्यायसंगत दृष्टांत माना। शीर्ष अदालत ने यह दोहराया कि यदि किसी अदालत के पास किसी विवाद को सुनने का अधिकार नहीं है, तो केवल वादपत्र में किए गए संशोधन से उसे वह अधिकार नहीं मिल सकता।


महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु:

  1. अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) की स्थापना वाद के प्रारंभिक तथ्यों और कानून के अधीन होती है।
  2. वादपत्र में संशोधन का उद्देश्य न्याय में सहायता होना चाहिए, न कि प्रक्रिया का दुरुपयोग कर मनमाफिक अदालत चुनना।
  3. यदि विवाद की प्राकृतिक पहचान बदलकर अदालत को अधिकार देने का प्रयास किया जाए, तो वह संशोधन अनुचित और अवैध माना जाएगा।
  4. अनुच्छेद 227 के तहत उच्च न्यायालय की निगरानी की भूमिका सीमित है और इसमें हस्तक्षेप तभी उचित होता है जब निचली अदालत की प्रक्रिया गंभीर विधिक त्रुटि से ग्रसित हो।

निष्कर्ष:
M/s. Vivienda Luxury Homes LLP बनाम Gregory & Nicholas व अन्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता और अधिकार क्षेत्र की मौलिकता की पुष्टि करता है। यह फैसला भारतीय सिविल कानून में एक स्पष्ट संकेत देता है कि न्यायालय का अधिकार कानून से उत्पन्न होता है, न कि रणनीतिक संशोधनों से।

यह निर्णय विशेष रूप से उन मामलों में महत्वपूर्ण बन जाता है जहाँ पक्षकार जानबूझकर अनुकूल फोरम में मुकदमा दायर कर न्याय को प्रभावित करना चाहते हैं। ऐसे निर्णय न केवल विधिक सिद्धांतों की रक्षा करते हैं, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता को भी बनाए रखते हैं।