शीर्षक: आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन करने वाले नगद ऋण के लिए दिया गया चेक “वैधानिक रूप से प्रवर्तनीय देयता” नहीं माना जाएगा: केरल उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय – P.C. Hari बनाम Shine Varghese (25 जुलाई 2025)
भूमिका
भारत में आर्थिक लेन-देन की पारदर्शिता और विधिकता सुनिश्चित करने के लिए नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 और आयकर अधिनियम, 1961 जैसे कानून कार्यरत हैं। हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने P.C. Hari बनाम Shine Varghese [Crl. Rev. No. 408/2024, दिनांक: 25 जुलाई 2025] में एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय पारित किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि यदि कोई चेक उस ऋण की पुनर्भुगतान के लिए जारी किया गया हो जो आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन करते हुए नगद में ₹20,000 से अधिक दिया गया हो, तो वह चेक धारा 138, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के तहत “legally enforceable debt” नहीं माना जा सकता।
इस निर्णय से भारत में चेक बाउंस के मामलों में वैध ऋण की परिभाषा और धारा 139 के अंतर्गत उठने वाले अनुमान की सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
मामले की पृष्ठभूमि
- शिकायतकर्ता Shine Varghese ने P.C. Hari के विरुद्ध शिकायत दर्ज की थी जिसमें कहा गया था कि आरोपी ने उनसे ₹3,00,000/- नगद ऋण लिया था और उसकी चुकौती के लिए एक चेक जारी किया।
- जब वह चेक बैंक में प्रस्तुत किया गया, तो वह “funds insufficient” के कारण अस्वीकृत हो गया।
- इस पर शिकायतकर्ता ने धारा 138 और 139, N.I. Act के अंतर्गत अभियोजन शुरू किया।
- ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया और सजा सुनाई।
- आरोपी ने उच्च न्यायालय में आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (Criminal Revision Petition) दायर की।
प्रमुख कानूनी प्रावधान
✅ धारा 138, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881
यदि कोई चेक किसी ऋण या देयता के भुगतान के लिए जारी किया गया हो और वह अस्वीकृत हो जाए, तो वह एक दंडनीय अपराध है।
✅ धारा 139, N.I. Act
यह एक बाध्यकारी अनुमान लगाता है कि चेक किसी “legally enforceable debt or liability” के लिए दिया गया था, जब तक कि इसके विपरीत साबित न हो।
✅ धारा 269SS, आयकर अधिनियम, 1961
यह प्रावधान किसी व्यक्ति को ₹20,000/- से अधिक का ऋण या जमा नगद रूप में लेने से प्रतिबंधित करता है। ऐसा लेन-देन केवल चेक, बैंक ड्राफ्ट या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर के माध्यम से किया जा सकता है।
✅ धारा 271D और 273B, आयकर अधिनियम
यदि धारा 269SS का उल्लंघन किया जाता है, तो धारा 271D के तहत दंडनीय है, जब तक कि धारा 273B के तहत उचित स्पष्टीकरण न दिया जाए।
न्यायालय का विश्लेषण
केरल उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया:
🔷 चेक “legally enforceable debt” के लिए नहीं था
चेक जिस ऋण की चुकौती के लिए दिया गया था, वह ₹3 लाख की नकद राशि थी, जो कि स्पष्ट रूप से धारा 269SS का उल्लंघन था। अतः यह ऋण कानूनन अवैध था।
🔷 धारा 139 का अनुमान खंडित हुआ
चूंकि ऋण स्वयं अवैध था, इसलिए धारा 139 के तहत लगने वाला अनुमान (presumption) भी टिक नहीं सका। आरोपी ने यह साबित कर दिया कि ऋण वैधानिक रूप से प्रवर्तनीय नहीं था।
🔷 कोई वैध स्पष्टीकरण नहीं दिया गया
शिकायतकर्ता द्वारा न तो कोई वैध कारण धारा 273B के अंतर्गत दिया गया, और न ही यह राशि आयकर विवरणियों (Income Tax Returns) में घोषित की गई थी। इससे पूरा लेन-देन गोपनीय और अवैध सिद्ध हुआ।
🔷 सजा रद्द करना उचित
ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा और दोषसिद्धि को अवैध आधार पर माना गया, अतः उसे रद्द करते हुए आरोपी को बरी कर दिया गया।
महत्वपूर्ण टिप्पणी (Court’s Observation)
“When the debt itself is not legally enforceable due to statutory illegality under the Income Tax Act, a cheque issued for repayment of such debt cannot attract criminal liability under Section 138 of the Negotiable Instruments Act.“
यह न्यायालय का अत्यंत सशक्त कथन था जिसने इस मामले की दिशा ही बदल दी।
फैसले का प्रभाव
✅ चेक बाउंस मामलों में “वैध ऋण” की जांच अनिवार्य
अब न्यायालय यह देखेगा कि जिस ऋण के लिए चेक दिया गया, वह कानूनन वैध था या नहीं। यदि मूल लेन-देन ही अवैध है, तो धारा 138 लागू नहीं होगी।
✅ आयकर नियमों का उल्लंघन अब आपराधिक मामलों में भी प्रासंगिक
इस फैसले से यह सिद्ध हुआ कि आयकर अधिनियम और N.I. Act परस्पर पूरक हैं, और एक अधिनियम के उल्लंघन से दूसरे अधिनियम के तहत संरक्षण नहीं मिल सकता।
✅ सिविल दायित्व बनाम आपराधिक दायित्व का भेद स्पष्ट
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने कई बार दोहराया है कि सभी सिविल दायित्वों को आपराधिक दायित्व में नहीं बदला जा सकता। यह निर्णय इस सिद्धांत को और बल देता है।
अन्य संबंधित निर्णय
- Krishna Janardhan Bhat v. Dattatraya G. Hegde [(2008) 4 SCC 54]
— सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चेक के पीछे वैध और प्रवर्तनीय ऋण होना आवश्यक है। - Aparna A. Shah v. Sheth Developers [(2013) 8 SCC 71]
— चेक की कानूनी देनदारी तब तक मानी नहीं जा सकती जब तक कि उसका स्रोत वैध न हो। - Dalmia Cement v. Galaxy Traders [(2001) 6 SCC 463]
— धारा 139 के अंतर्गत अनुमान rebuttable है, और आरोपी को इसका विरोध करने का अवसर मिलना चाहिए।
निष्कर्ष
P.C. Hari बनाम Shine Varghese का यह निर्णय भारत में धारा 138, N.I. Act के दायरे को सीमित करता है और यह स्पष्ट करता है कि अवैध रूप से दिया गया नगद ऋण यदि चेक के ज़रिए चुकाया जाए, तो वह “legally enforceable debt” नहीं बनता।
इस फैसले से चेक बाउंस के आपराधिक मामलों में आरोपितों को एक महत्वपूर्ण बचाव मिला है, यदि वे यह सिद्ध कर सकें कि मूल ऋण ही कानूनन अमान्य था। इसके साथ ही यह फैसला वित्तीय अनुशासन और कर अनुपालन को बढ़ावा देने में भी सहायक सिद्ध होगा।