“V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य: सुप्रीम कोर्ट में चेक के प्रयोग की प्रामाणिकता पर प्रश्न – चेक बुक 1996 की, देनदारी 2000 की”

शीर्षक:
“V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य: सुप्रीम कोर्ट में चेक के प्रयोग की प्रामाणिकता पर प्रश्न – चेक बुक 1996 की, देनदारी 2000 की”


प्रस्तावना:
भारतीय दंड संहिता और निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के अंतर्गत चेक संबंधित अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि के चलते न्यायालयों को बार-बार यह तय करना पड़ता है कि किसी चेक का प्रयोग वास्तव में वैध लेन-देन के लिए किया गया या नहीं। V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले में एक ऐसा ही असामान्य प्रश्न सामने आया: क्या कोई व्यक्ति 1996 में समाप्त हो चुकी चेक बुक से 2000 की देनदारी का भुगतान कर सकता है? केरल उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में इस प्रश्न पर न्यायिक दृष्टिकोण से गंभीरता से विचार किया गया।


मामले का पृष्ठभूमि:
V.P. Zacharia के विरुद्ध भारतीय निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत अभियोजन शुरू किया गया। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उत्तरदाता ने एक चेक जारी किया था जो बाउंस हो गया और वह चेक उनकी वर्ष 2000 की वित्तीय देनदारी को चुकाने के लिए दिया गया था।

हालाँकि, जब इस चेक के विवरणों की जांच की गई, तो यह तथ्य सामने आया कि चेक 1996 में समाप्त हो चुकी एक चेक बुक का हिस्सा था। इससे यह गंभीर संदेह उत्पन्न हुआ कि क्या वास्तव में वह चेक 2000 में जारी किया गया था।


केरल उच्च न्यायालय का अवलोकन:
केरल उच्च न्यायालय ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा:

“यह अत्यंत अविश्वसनीय है कि 1996 में समाप्त हो चुकी चेक बुक का कोई पृष्ठ वर्ष 2000 में उभरी देनदारी का निर्वहन करने के लिए प्रयोग किया जाए।”

इस तर्क के साथ न्यायालय ने चेक की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाया और संदेह जताया कि यह चेक वास्तव में वादी द्वारा तैयार किया गया हो सकता है या आरोपित व्यक्ति की सहमति के बिना प्रयुक्त हुआ हो।


विधिक प्रश्न:

  1. क्या 1996 में समाप्त हुई चेक बुक से 2000 की देनदारी चुकाना संभव है?
    उत्तर सैद्धांतिक रूप से ‘हां’ हो सकता है, यदि कोई व्यक्ति पुराने चेक को संभालकर रखता है और बाद में उस पर हस्ताक्षर करके भुगतान करता है। किंतु न्यायालय का दायित्व है यह जांचना कि क्या ऐसा करना व्यावहारिक और सामान्य व्यवहार के अनुरूप है।
  2. धारा 138 के अंतर्गत अभियोजन कब वैध है?
    जब यह सिद्ध हो जाए कि:

    • चेक किसी वैध देनदारी के निर्वहन के लिए दिया गया,
    • वह देनदारी उस समय प्रचलित थी,
    • चेक जानबूझकर दिया गया था, और
    • बाउंस होने के पश्चात वैधानिक नोटिस के बाद भी भुगतान नहीं किया गया।

इस मामले में यदि चेक ही संदिग्ध है, तो देनदारी के अस्तित्व और आरोपी की मंशा पर संदेह उठना स्वाभाविक है।


सुप्रीम कोर्ट में मामला:
जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा, तो न्यायालय ने इस आधार पर गहराई से विचार किया कि क्या एक बहुत पुराने और समाप्त हो चुके चेक बुक के पन्ने का उपयोग वर्षों बाद किया जाना स्वाभाविक व्यवहार है, विशेषकर जब उस पर विवाद हो और अभियोजन की समस्त प्रक्रिया इसी पर आधारित हो।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में शिकायतकर्ता पर यह दायित्व है कि वह स्पष्ट और ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करे कि चेक वास्तव में आरोपी द्वारा वर्ष 2000 में जारी किया गया था।


न्यायिक विश्लेषण:

  1. साक्ष्य की विश्वसनीयता:
    केवल एक चेक प्रस्तुत कर देना, विशेषकर तब जब वह पुराने चेक बुक का हो, पर्याप्त नहीं है। उसके साथ यह सिद्ध करना अनिवार्य है कि वह चेक स्वेच्छा से जारी किया गया था और उसमें न तो कोई छेड़छाड़ है, न ही जबरन हस्ताक्षर कराए गए।
  2. न्यायालय की सावधानी:
    न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे फौजदारी प्रक्रिया का दुरुपयोग न होने दें। यदि कोई व्यक्ति पुराने चेक को लेकर किसी के विरुद्ध अभियोजन शुरू करे और उसमें विश्वसनीयता का अभाव हो, तो यह न्यायिक दंड प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा।
  3. मंशा का तत्व (Mens Rea):
    धारा 138 के अंतर्गत अभियोजन हेतु आवश्यक है कि आरोपी ने जानबूझकर (intentionally) चेक जारी किया हो। पुराने चेक से यह मंशा सिद्ध नहीं हो पाती जब तक कि अन्य साक्ष्य न हों।

निष्कर्ष:
V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य का यह मामला चेक बाउंस मामलों में साक्ष्य के महत्व और अभियोजन की वैधता की कसौटी को स्पष्ट करता है। यह निर्णय उन मामलों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगा, जिनमें पुराने या संदिग्ध चेक का उपयोग करके किसी के विरुद्ध फौजदारी कार्यवाही की जाती है।

इस निर्णय से यह भी स्पष्ट होता है कि न्यायालय केवल दस्तावेजों की उपस्थिति पर ही नहीं, बल्कि उसके पीछे की वास्तविकता, समय, परिस्थितियाँ और उपयोग की स्वाभाविकता पर विचार करते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण न्यायिक विवेक और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की रक्षा करता है।