धारा 9, दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत सिविल न्यायालयों का अधिकार-क्षेत्र (Jurisdiction of Civil Courts)
भूमिका
दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) की धारा 9 भारत में दीवानी न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र का मूल प्रावधान है। यह निर्धारित करती है कि किन प्रकार के वाद (Suits) सिविल न्यायालय में दायर किए जा सकते हैं और किन परिस्थितियों में ऐसे वादों का अधिकार-क्षेत्र न्यायालय से वर्जित (Barred) होता है।
I. धारा 9 का पाठ (Text of Section 9)
“The Courts shall (subject to the provisions herein contained) have jurisdiction to try all suits of a civil nature excepting suits of which their cognizance is either expressly or impliedly barred.”
हिंदी अनुवाद:
“न्यायालय (यहाँ निहित प्रावधानों के अधीन रहते हुए) सभी दीवानी प्रकृति के वादों का विचार करेगा, सिवाय उन वादों के जिनका संज्ञान स्पष्ट या निहित रूप से वर्जित हो।”
II. धारा 9 का सार (Essence of Section 9)
- सामान्य नियम (General Rule) – सिविल न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र व्यापक है, और वह सभी दीवानी प्रकृति के वाद सुन सकता है।
- अपवाद (Exception) – जहाँ विधि द्वारा स्पष्ट (Express) या निहित (Implied) रूप से अधिकार-क्षेत्र को वर्जित किया गया हो, वहाँ न्यायालय सुनवाई नहीं करेगा।
III. “दीवानी प्रकृति के वाद” (Suits of Civil Nature)
A. परिभाषा
- ऐसा वाद जो व्यक्ति के निजी अधिकार (Private Rights) या संपत्ति के अधिकार से संबंधित हो, चाहे वह संपत्ति अचल (Immovable) हो या चल (Movable)।
- इसमें धार्मिक अधिकार भी शामिल हैं, यदि वे किसी विधिक या नागरिक अधिकार से जुड़े हों।
B. उदाहरण
- संपत्ति विवाद
- अनुबंध विवाद
- उत्तराधिकार एवं वसीयत संबंधी विवाद
- धार्मिक पद या कार्यालय का अधिकार (यदि उसमें संपत्ति का तत्व हो)
C. केस लॉ
- P.M.A. Metropolitan v. Moran Mar Marthoma, AIR 1995 SC 2001 – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “दीवानी प्रकृति” में धार्मिक पदों से जुड़े विवाद भी आ सकते हैं यदि वे नागरिक अधिकारों को प्रभावित करते हैं।
- Ramesh Chand Ardawatiya v. Anil Panjwani, (2003) 7 SCC 350 – सभी निजी अधिकारों और दायित्वों से जुड़े मामले दीवानी प्रकृति के अंतर्गत आते हैं।
IV. अधिकार-क्षेत्र का वर्जन (Bar of Jurisdiction)
सिविल न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र निम्न परिस्थितियों में वर्जित माना जाता है –
1. स्पष्ट वर्जन (Express Bar)
जब किसी विशेष अधिनियम में स्पष्ट रूप से लिखा हो कि उस विषय में सिविल न्यायालय को अधिकार नहीं होगा।
- उदाहरण:
- भूमि राजस्व अधिनियम – राजस्व मामलों का निपटारा केवल राजस्व अधिकारियों द्वारा होगा।
- Rent Control Acts – किराया निर्धारण, बेदखली आदि के मामले किराया नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा सुने जाएंगे।
केस लॉ:
- Dhulabhai v. State of Madhya Pradesh, AIR 1969 SC 78 – जब किसी विशेष कानून में स्पष्ट प्रावधान है और उसी के अंतर्गत सभी उपाय उपलब्ध हैं, तो सिविल न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र वर्जित होगा।
2. निहित वर्जन (Implied Bar)
जब किसी कानून की प्रकृति या योजना (Scheme) से यह निष्कर्ष निकले कि सिविल न्यायालय को अधिकार नहीं है, भले ही स्पष्ट शब्दों में न कहा गया हो।
उदाहरण:
- कर निर्धारण से संबंधित विवाद – कर विभाग की अपीलीय अथॉरिटी के पास जाना होगा।
- चुनाव विवाद – निर्वाचन याचिका के रूप में चुनाव न्यायाधिकरण के पास ही जाना होगा।
केस लॉ:
- State of A.P. v. Manjeti Laxmi Kantha Rao, (2000) 3 SCC 689 – जब किसी विशेष कानून में विवाद निपटाने के लिए विशेष तंत्र मौजूद है, तो सिविल न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र निहित रूप से वर्जित होगा।
V. धारा 9 के अंतर्गत कुछ विशेष बिंदु
- धार्मिक विवाद बनाम नागरिक अधिकार
- केवल धार्मिक रीति-रिवाज या पूजा-पद्धति से जुड़े विवाद, जिनका कोई नागरिक अधिकार से संबंध नहीं है, सिविल न्यायालय में नहीं आएंगे।
- लेकिन अगर विवाद संपत्ति, कार्यालय या पद के अधिकार से जुड़ा है, तो वह दीवानी प्रकृति का माना जाएगा।
- प्रतिबंध की व्याख्या संकीर्ण (Strict Interpretation)
- न्यायालय मानता है कि अधिकार-क्षेत्र को सीमित करने वाले प्रावधानों की व्याख्या संकीर्ण दृष्टिकोण से की जानी चाहिए, ताकि न्याय से वंचित न किया जाए।
- वैकल्पिक उपाय का अस्तित्व
- यदि विशेष अधिनियम में वैकल्पिक उपाय (Alternative Remedy) उपलब्ध है, तो पहले उसी का प्रयोग करना होगा।
VI. प्रमुख न्यायिक दृष्टांत (Key Case Laws)
- Dhulabhai v. State of M.P., AIR 1969 SC 78
- सिद्धांत स्थापित किया कि सिविल न्यायालय का अधिकार तभी वर्जित होगा जब:
(i) विशेष अधिनियम में स्पष्ट वर्जन हो, और
(ii) उसमें सभी उपाय (Remedies) उपलब्ध हों।
- सिद्धांत स्थापित किया कि सिविल न्यायालय का अधिकार तभी वर्जित होगा जब:
- Secretary of State v. Mask & Co., AIR 1940 PC 105
- अधिकार-क्षेत्र को सीमित करने वाले प्रावधानों की व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए।
- P.M.A. Metropolitan Case (1995)
- धार्मिक पद और उससे जुड़े अधिकार, यदि नागरिक प्रकृति के हैं, तो CPC की धारा 9 के अंतर्गत सुनवाई योग्य हैं।
- Ramesh Chand Ardawatiya Case (2003)
- नागरिक अधिकार से संबंधित कोई भी विवाद, भले ही वह परोक्ष रूप से धार्मिक हो, सिविल न्यायालय में लाया जा सकता है।
VII. निष्कर्ष
CPC की धारा 9 सिविल न्यायालयों को व्यापक अधिकार देती है कि वे सभी दीवानी प्रकृति के वादों का निपटारा करें। यह अधिकार केवल उन्हीं मामलों में वर्जित होता है, जहाँ कानून द्वारा स्पष्ट या निहित रूप से यह प्रावधान किया गया हो कि मामला किसी विशेष प्राधिकरण द्वारा ही निपटाया जाएगा।
न्यायिक दृष्टांतों से यह सिद्ध होता है कि न्यायालय हमेशा अधिकार-क्षेत्र की व्याख्या न्याय के विस्तार और संरक्षण के दृष्टिकोण से करता है, न कि उसे सीमित करने के लिए।