सहमति और कानून के बीच संतुलन: जब दुष्कर्म कानून का मज़ाक बनता है

शीर्षक: सहमति और कानून के बीच संतुलन: जब दुष्कर्म कानून का मज़ाक बनता है

प्रस्तावना:
दुष्कर्म एक गंभीर अपराध है और भारत में महिलाओं को इससे संरक्षण देने के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं। लेकिन हाल के वर्षों में एक नई चिंताजनक प्रवृत्ति उभरकर सामने आई है—जहां महिलाएं सहमति से बनाए गए संबंधों को बाद में “शादी का झांसा देकर दुष्कर्म” बताकर पुरुषों पर कानूनी शिकंजा कस रही हैं। यह स्थिति न केवल कानून के उद्देश्य का उल्लंघन है, बल्कि समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच भरोसे की नींव को भी कमजोर करती है।

घटनाओं की वास्तविकता:
एक हालिया घटना में एक महिला ने सोशल मीडिया के माध्यम से एक पुरुष से संपर्क किया। दोनों के बीच संबंध प्रगाढ़ होते गए और वर्षों तक शारीरिक संबंध भी बने। महिला के अनुसार, पुरुष ने उसे शादी का वादा किया था, पर शादी न होने पर उसने दुष्कर्म का मामला दर्ज करा दिया। कोर्ट में जब यह प्रश्न उठा कि कोई महिला सात वर्षों तक कैसे शादी की उम्मीद में संबंध बना सकती है, तो यह साफ हुआ कि ऐसे मामलों में सहमति और कानून के दुरुपयोग की सीमाएं धुंधली हो चुकी हैं।

कानून का उद्देश्य और उसका दुरुपयोग:
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में यदि कोई पुरुष किसी महिला से उसकी इच्छा के विरुद्ध या धोखे से शारीरिक संबंध बनाता है, तो यह दुष्कर्म माना जाता है। लेकिन यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि संबंध महिला की स्वतंत्र सहमति से बने हैं, तो उसे दुष्कर्म नहीं माना जा सकता। “शादी का झांसा देकर सहमति प्राप्त करना” एक अपवाद है, पर इसका प्रयोग अब एक हथियार की तरह होने लगा है।

कई मामलों में महिलाएं वर्षों तक सहमति से संबंध बनाती हैं, रिश्तों में भावनात्मक रूप से जुड़ती हैं, और जब रिश्ते टूटते हैं या विवाह संभव नहीं होता, तो पुरुषों पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा देती हैं। इस प्रवृत्ति ने न्यायिक व्यवस्था को एक ऐसी चुनौती में डाल दिया है, जहां सही और गलत की रेखा स्पष्ट करना मुश्किल हो गया है।

न्यायपालिका की भूमिका और प्रतिक्रिया:
सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई मामलों में स्पष्ट किया है कि यदि कोई महिला लंबे समय तक संबंध में रहती है और विवाह की कोई ठोस योजना नहीं बनती, तो वह बाद में यह दावा नहीं कर सकती कि उसे धोखा देकर शोषण किया गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में महिला से पूछा, “आप सात वर्षों तक कैसे शादी की उम्मीद में संबंध में रह सकती हैं?” यह प्रश्न इस पूरे मुद्दे की गंभीरता को उजागर करता है।

कानूनी दुरुपयोग के परिणाम:
इन झूठे आरोपों के कारण अनेक निर्दोष पुरुष न केवल जेल जाते हैं, बल्कि समाज में उनका मान-सम्मान, परिवार, करियर और मानसिक स्वास्थ्य सब कुछ बर्बाद हो जाता है। हाल ही में कोलकाता में एक युवक के माता-पिता ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उनका बेटा झूठे मुकदमे में जेल चला गया था। क्या यह न्याय है?

विवाह और संबंधों में स्वतंत्रता और सहमति दोनों पक्षों की होनी चाहिए। यदि महिला संबंध में सहज है, तो वह सिर्फ शादी न होने की स्थिति में उसे अपराध नहीं बना सकती।

महिला सशक्तिकरण और उत्तरदायित्व:
आज जब महिलाएं अंतरिक्ष में जा रही हैं, सेना में भर्ती हो रही हैं और हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं, तब उन्हें अपनी कानूनी और सामाजिक जिम्मेदारियों को भी उतनी ही गंभीरता से समझना चाहिए। महिला सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं है कि महिलाएं जब चाहें संबंध बनाएँ और जब संबंध टूटे तो पुरुष को दोषी ठहराकर उसे जेल भेज दें। ऐसे कृत्य महिला सशक्तिकरण नहीं बल्कि कानून का शोषण हैं।

समाधान की दिशा में कदम:

  1. स्पष्ट कानूनी परिभाषा: “शादी का झांसा देकर दुष्कर्म” की परिभाषा को और स्पष्ट किया जाए ताकि कोर्ट में इसका दुरुपयोग रोका जा सके।
  2. जांच की निष्पक्षता: पुलिस को ऐसे मामलों में बिना पूर्वाग्रह के निष्पक्ष जांच करनी चाहिए और झूठे आरोप साबित होने पर महिला पर भी उचित कार्रवाई होनी चाहिए।
  3. फास्ट ट्रैक कोर्ट: इस प्रकार के मामलों के लिए विशेष अदालतों की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वर्षों तक मुकदमे चलने से निर्दोषों की जिंदगी न बर्बाद हो।
  4. कानूनी जागरूकता: समाज में कानूनी जागरूकता का प्रसार होना चाहिए ताकि संबंधों में प्रवेश करने से पहले दोनों पक्ष अपनी जिम्मेदारियों और कानूनी परिणामों को समझें।

निष्कर्ष:
कानून का उद्देश्य है समाज को सुरक्षित रखना और अपराधियों को दंडित करना। लेकिन जब कानून का प्रयोग व्यक्तिगत बदले या भावनात्मक निर्णयों के लिए किया जाता है, तो यह पूरी न्याय व्यवस्था का मजाक बन जाता है। “शादी का झांसा देकर दुष्कर्म” जैसे मामलों में यदि महिला ने स्वयं लंबे समय तक सहमति से संबंध बनाए हैं, तो केवल शादी न होने पर पुरुष को अपराधी बना देना कानून के साथ अन्याय है। हमें ऐसी सोच से बाहर निकलने की आवश्यकता है, जहां महिला को सदैव पीड़िता और पुरुष को सदैव अपराधी माना जाता है। न्याय केवल महिलाओं का नहीं, बल्कि सभी नागरिकों का अधिकार है – और उसे निष्पक्ष बनाए रखना ही एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।