हिन्दू विधि में ‘स्त्रीधन’ की परिभाषा और महत्व की चर्चा कीजिए। क्या पति या अन्य रिश्तेदार स्त्रीधन को रख सकते हैं? Hindu Law

प्रश्न: हिन्दू विधि में ‘स्त्रीधन’ की परिभाषा और महत्व की चर्चा कीजिए। क्या पति या अन्य रिश्तेदार स्त्रीधन को रख सकते हैं?
उत्तर:

परिचय (Introduction)

हिन्दू विधि में स्त्रीधन (Stridhan) एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा है जो नारी के संपत्ति पर अधिकार को दर्शाती है। स्त्रीधन का संबंध स्त्री को प्राप्त उस संपत्ति से है जो वह अपने विवाहित या अविवाहित जीवन में किसी भी माध्यम से प्राप्त करती है और जिस पर उसका पूर्ण और व्यक्तिगत स्वामित्व होता है। यह स्त्री की स्वतंत्र संपत्ति मानी जाती है, जिसे वह अपने विवेक से उपयोग, व्यय, दान या उत्तराधिकार में देने के लिए स्वतंत्र होती है।


स्त्रीधन की परिभाषा (Definition of Stridhan)

‘स्त्रीधन’ दो शब्दों से मिलकर बना है – “स्त्री” (महिला) और “धन” (संपत्ति)। अतः स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है – स्त्री की संपत्ति

मिताक्षरा और दायभाग शास्त्रों में स्त्रीधन को उस संपत्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो स्त्री को –

  • विवाह के समय,
  • विवाह के बाद,
  • पिता, माता, भाई, पति या अन्य संबंधियों से,
  • उपहार, दान, वसीयत या अर्जन से प्राप्त होती है।

स्पष्ट रूप से, हिन्दू विधि में स्त्रीधन का अर्थ है:

वह संपत्ति जो स्त्री को स्वतंत्र रूप से और स्वेच्छा से दी गई हो तथा जिस पर उसका पूर्ण अधिकार हो।


स्त्रीधन के प्रकार (Types of Stridhan)

हिन्दू विधि में स्त्रीधन को सामान्यतः दो श्रेणियों में बांटा गया है:

(1) विवाहपूर्व स्त्रीधन (Pre-marriage Stridhan)

वह संपत्ति जो स्त्री को विवाह से पहले प्राप्त होती है, जैसे:

  • माता-पिता या अन्य संबंधियों से उपहार,
  • वेतन या अर्जित संपत्ति,
  • उपहार स्वरूप गहने, वस्त्र आदि।

(2) विवाहोत्तर स्त्रीधन (Post-marriage Stridhan)

वह संपत्ति जो स्त्री को विवाह के बाद प्राप्त होती है, जैसे:

  • ससुराल पक्ष से प्राप्त उपहार,
  • पति द्वारा दिया गया धन,
  • किसी धार्मिक कार्य, दान, या शुभ अवसर पर प्राप्त संपत्ति,
  • स्व-आर्जित आय या व्यवसाय से प्राप्त संपत्ति।

स्त्रीधन का महत्व (Importance of Stridhan)

  1. आर्थिक स्वतंत्रता का प्रतीक:
    स्त्रीधन स्त्री को आर्थिक आत्मनिर्भरता प्रदान करता है। यह उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा का साधन है, विशेषकर यदि वह विधवा हो जाए या पति का साथ छूट जाए।
  2. वैधानिक अधिकार:
    हिन्दू महिला को उसके स्त्रीधन पर पूर्ण स्वामित्व प्राप्त होता है। यह उत्तराधिकार, विक्रय, दान आदि के लिए स्वतंत्र होती है। यह पति या अन्य संबंधियों की संपत्ति नहीं मानी जाती।
  3. संरक्षण का माध्यम:
    स्त्रीधन विशेषकर विवाह के समय दिए गए उपहार (जैसे गहने, आभूषण, नगदी आदि) एक प्रकार की सुरक्षा निधि के रूप में कार्य करता है, जिसका उपयोग आपातकाल में किया जा सकता है।
  4. कानूनी संरक्षण:
    दहेज निषेध अधिनियम, 1961 और भारतीय दंड संहिता की धारा 406 के अंतर्गत यदि कोई पति या ससुराल पक्ष स्त्रीधन को हड़पता है या लौटाने से इनकार करता है, तो यह आपराधिक विश्वासभंग (Criminal Breach of Trust) माना जाएगा और दंडनीय अपराध होगा।

क्या पति या अन्य रिश्तेदार स्त्रीधन को रख सकते हैं?

(1) पति का अधिकार नहीं होता:

पति स्त्रीधन का स्वामी नहीं होता। यदि पत्नी ने स्वेच्छा से पति को स्त्रीधन दिया हो, तभी वह उसका उपयोग कर सकता है।
यदि पत्नी मांग करे, तो पति को उसे वह संपत्ति लौटानी होती है।

(2) ससुराल पक्ष भी स्त्रीधन का स्वामी नहीं:

सास, ससुर, जेठ आदि कोई भी व्यक्ति स्त्रीधन को अपने पास रखने या उपयोग करने का अधिकार नहीं रखते। यदि कोई स्त्रीधन को लौटाने से इनकार करता है, तो पत्नी कानून की सहायता ले सकती है।

(3) न्यायिक निर्णय:

Pratibha Rani v. Suraj Kumar (1985) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि स्त्रीधन स्त्री की निजी संपत्ति है और यदि पति या उसके परिवारजन उसे वापस नहीं करते, तो यह विश्वासघात और आपराधिक अपराध है। पत्नी को न्याय पाने का अधिकार है।


कानूनी प्रवधान (Legal Provisions)

भारतीय दंड संहिता, 1860 – धारा 406:

यदि पति या उसका परिवार स्त्रीधन को हड़पता है या लौटाने से इनकार करता है, तो उसे आपराधिक विश्वासभंग (Criminal Breach of Trust) के अंतर्गत 3 वर्ष तक की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

दहेज निषेध अधिनियम, 1961:

यदि स्त्रीधन को दहेज के रूप में जबरदस्ती लिया गया हो, तो यह अधिनियम उस पर कार्रवाई की अनुमति देता है।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956:

यह अधिनियम स्त्री को अपने स्त्रीधन पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार प्रदान करता है, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित।


निष्कर्ष (Conclusion)

स्त्रीधन हिन्दू विधि में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो महिला को उसके आर्थिक अधिकार, सामाजिक सम्मान और आत्मनिर्भरता का संवैधानिक व सामाजिक संरक्षण प्रदान करता है। यह न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्व रखता है, बल्कि विधिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत आवश्यक है।

पति या कोई अन्य रिश्तेदार स्त्रीधन का स्वामी नहीं बन सकता। यदि वे उसे लौटाने से मना करते हैं, तो पीड़िता के पास कानूनी विकल्प उपलब्ध हैं। अतः स्त्रीधन एक ऐसी संपत्ति है जो महिला की गरिमा, स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा करता है और उसे आर्थिक रूप से सशक्त बनाता है।