प्रश्न: हिन्दू विवाह की प्रकृति और आवश्यक शर्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
परिचय (Introduction)
हिन्दू समाज में विवाह को केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक धार्मिक और नैतिक संस्कार के रूप में देखा जाता है। यह जीवन के 16 संस्कारों में से एक है और व्यक्ति के गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का माध्यम है। हिन्दू विवाह को “अविनाशी बंधन” माना गया है, जिसमें पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक बनकर जीवन भर साथ निभाते हैं। हालांकि, आधुनिक विधि के तहत हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत विवाह को वैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ है।
हिन्दू विवाह की प्रकृति (Nature of Hindu Marriage)
हिन्दू विवाह की प्रकृति को समझने के लिए धार्मिक, सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोणों से विश्लेषण आवश्यक है:
(1) धार्मिक दृष्टिकोण से
पारंपरिक हिन्दू विचारधारा के अनुसार, विवाह एक पवित्र संस्कार (Sacrament) है। यह एक ऐसा धार्मिक बंधन है, जिसमें पति और पत्नी मिलकर धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति करते हैं। इसका उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति नहीं, बल्कि जीवन के धर्म पालन में सहयोग करना है।
(2) सामाजिक दृष्टिकोण से
हिन्दू विवाह सामाजिक स्वीकृति और नैतिक आचरण का माध्यम है। यह स्त्री और पुरुष को सामाजिक रूप से एक-दूसरे से बांधता है और परिवार, समाज तथा वंश को संरचित करता है। विवाह के द्वारा स्त्री को सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है।
(3) कानूनी दृष्टिकोण से
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने विवाह को कानूनी मान्यता दी और इसे एक वैधानिक अनुबंध का स्वरूप प्रदान किया। अधिनियम के अनुसार, विवाह वैध तब ही माना जाएगा जब उसमें विधिक शर्तों का पालन किया गया हो। अधिनियम के अंतर्गत तलाक, पृथक्करण, उत्तराधिकार जैसे अधिकार एवं कर्तव्य भी निर्धारित किए गए हैं।
न्यायालय का दृष्टिकोण:
Smt. Yamunabai Anantrao Adhav v. Rani Adhav (1988) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हिन्दू विवाह अब केवल धार्मिक संस्कार नहीं है, बल्कि विधिक अधिकार और कर्तव्यों का बंधन भी है।
हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें (Essential Conditions of a Valid Hindu Marriage)
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (Section 5) में एक वैध हिन्दू विवाह के लिए आवश्यक शर्तों का उल्लेख किया गया है। ये निम्नलिखित हैं:
(1) पक्षकार हिन्दू हों (Both Parties must be Hindus)
विवाह के दोनों पक्षकार हिन्दू धर्मावलंबी होने चाहिए। इसका अर्थ है कि वे हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिख धर्म को मानने वाले हों। यदि कोई भी पक्षकार मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या पारसी है, तो हिन्दू विवाह अधिनियम लागू नहीं होता।
(2) एक विवाह प्रचलन में (Monogamy)
विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई भी जीवित अवस्था में किसी अन्य व्यक्ति के साथ वैध विवाह संबंध में नहीं होना चाहिए। यदि कोई पहले से विवाहित है, तो दूसरा विवाह शून्य (void) माना जाएगा। यह बिगैमी (bigamy) अपराध है, जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अंतर्गत दंडनीय बनाया गया है।
(3) मानसिक स्थिति (Mental Capacity)
दोनों पक्षकार मानसिक रूप से स्वस्थ होने चाहिए। इसका तात्पर्य है कि वे विवाह को समझने और उसे निभाने में सक्षम हों। यदि कोई पक्षकार मानसिक रूप से विक्षिप्त है या असाध्य मानसिक रोग से ग्रस्त है, तो विवाह अवैध माना जा सकता है।
(4) विवाह की आयु (Age of the Parties)
संशोधित अधिनियम के अनुसार, विवाह के समय लड़के की आयु कम से कम 21 वर्ष और लड़की की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए। यह शर्त विवाह की वैधता को प्रभावित नहीं करती, लेकिन बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अंतर्गत दंडनीय अपराध बन जाती है।
(5) विवाह में निषेध संबंध नहीं होना चाहिए (No Prohibited Degree Relationship)
यदि विवाह निषिद्ध संबंध (prohibited degrees) में आता है, तो वह अमान्य होगा। उदाहरण के लिए, भाई-बहन, मामा-भांजी, मौसी-भांजा आदि के बीच विवाह वर्जित है। अपवादस्वरूप, यदि संबंधित जाति या समुदाय में ऐसी प्रथा प्रचलित है जो इसे मान्यता देती है, तो विवाह वैध होगा।
(6) सपिंड संबंध में विवाह नहीं (No Sapinda Relationship)
सपिंड का अर्थ है—समान पूर्वज से उत्पन्न संबंध। हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार, यदि पति-पत्नी एक ही पूर्वज के पाँचवीं पीढ़ी (पिता की ओर से) और तीसरी पीढ़ी (माता की ओर से) के भीतर आते हैं, तो वे सपिंड कहलाते हैं और उनका विवाह वर्जित होगा। परंतु यदि परंपरा अनुमति देती है, तो यह मान्य हो सकता है।
अन्य महत्वपूर्ण तत्व (Other Important Elements)
(1) विवाह की विधि
हिन्दू विवाह अधिनियम में विवाह की विधि निर्दिष्ट नहीं की गई है, परंतु सामान्यतः परंपरागत धार्मिक विधियों का पालन किया जाता है। जैसे कि सप्तपदी (सात फेरे), कन्यादान, मांग भराई आदि। सप्तपदी को हिन्दू विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म माना जाता है, और इसके साथ ही विवाह पूर्ण और वैध माना जाता है।
(2) पंजीकरण (Registration)
यद्यपि विवाह का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, लेकिन विवाह के प्रमाण के रूप में यह बहुत महत्वपूर्ण है। इससे विधिक अधिकारों की सुरक्षा होती है, जैसे कि तलाक, उत्तराधिकार, भरण-पोषण आदि में।
निष्कर्ष (Conclusion)
हिन्दू विवाह न केवल एक धार्मिक संस्कार है, बल्कि यह एक विधिक अनुबंध भी बन चुका है, जिसमें पति-पत्नी के कर्तव्यों, अधिकारों और उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। विवाह की वैधता के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत निर्धारित शर्तों का पालन आवश्यक है। यह न केवल वैयक्तिक जीवन का आधार है, बल्कि सामाजिक संरचना और नैतिक मूल्यों का भी केंद्र है। अतः विवाह को केवल परंपरा नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक एवं विधिक बंधन के रूप में समझना आवश्यक है।