‘विधि का उद्देश्य न्याय है’ – आलोचनात्मक व्याख्या एवं विधि और न्याय के संबंध की विवेचना (Jurisprudence)

‘विधि का उद्देश्य न्याय है’ – आलोचनात्मक व्याख्या एवं विधि और न्याय के संबंध की विवेचना


परिचय

विधि का उद्देश्य न्याय है” यह कथन विधिशास्त्र के सबसे महत्वपूर्ण आदर्श को प्रकट करता है। विधि (Law) को समाज के लिए एक नियामक साधन माना जाता है, जबकि न्याय (Justice) उस आदर्श स्थिति को कहते हैं जहाँ समाज में समानता, स्वतंत्रता, और संतुलन की स्थापना हो। इस कथन के अनुसार, विधि केवल नियमों का समूह नहीं है, बल्कि वह एक ऐसा माध्यम है, जो समाज में न्याय की स्थापना के लिए प्रयुक्त होता है। परंतु क्या वास्तव में हर विधि न्याय सुनिश्चित करती है? क्या कभी विधि अन्याय का साधन बन सकती है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देना आवश्यक है।


विधि और न्याय की परिभाषा

विधि (Law):

विधि एक सामाजिक संस्था है जो राज्य द्वारा स्थापित नियमों के माध्यम से सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करती है। यह अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण करती है, और उसका उल्लंघन करने पर दंड प्रदान करती है।

न्याय (Justice):

न्याय एक आदर्श मूल्य है, जिसका उद्देश्य व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार अधिकार, संरक्षण, अवसर एवं समान व्यवहार प्रदान करना है। यह विधि की आत्मा है।


‘विधि का उद्देश्य न्याय है’ – इस कथन का तात्पर्य

यह कथन इस धारणा पर आधारित है कि विधि केवल नियमों का ढांचा नहीं है, बल्कि उसका प्रमुख लक्ष्य समाज में न्याय की स्थापना करना है। विधि के माध्यम से समाज में:

  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा होती है,
  • समान अवसर प्रदान किए जाते हैं,
  • दोषियों को दंड और
  • पीड़ितों को राहत दी जाती है।

इस प्रकार, विधि एक ऐसा यंत्र है जिससे समाज को व्यवस्थित और न्यायपूर्ण बनाया जा सकता है।


विधि और न्याय का ऐतिहासिक संबंध

  1. प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण:
    हमारे शास्त्रों में ‘धर्म’ को विधि और न्याय दोनों का स्रोत माना गया है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य आदि ने न्याय को धर्म के अनुकूल बताया है।
  2. प्लेटो और अरस्तू:
    उन्होंने न्याय को समाज के चारित्रिक गुणों में प्रमुख माना। उनके अनुसार विधि का कार्य समाज को उसके नैतिक मूल्यों के अनुसार संचालित करना है।
  3. संत थॉमस एक्विनास:
    उन्होंने कहा कि “यदि कोई विधि नैतिक नहीं है तो वह विधि नहीं है।” अर्थात् न्याय के अभाव में विधि निष्फल है।
  4. जॉन रॉल्स (John Rawls):
    आधुनिक विचारकों में उन्होंने ‘न्याय को सामाजिक संस्थाओं का प्रथम गुण’ कहा। उनके अनुसार एक विधिक व्यवस्था तभी उचित मानी जा सकती है जब वह न्यायपूर्ण हो।

विधि और न्याय के बीच संबंध (Relationship between Law and Justice)

आधार विधि (Law) न्याय (Justice)
स्वरूप विधिक नियमों का समूह नैतिक एवं दार्शनिक मूल्य
उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना सामाजिक आदर्शों की पूर्ति करना
स्रोत संविधान, विधान, न्यायालय समानता, नैतिकता, विवेक
लागू करने वाली संस्था न्यायालय, प्रशासन विधि के माध्यम से
परिणाम आदेश, प्रतिबंध, दंड संतुलन, शांति, संतोष

विधि न्याय की ओर जाने वाला साधन है, लेकिन जरूरी नहीं कि हर विधि न्यायसंगत ही हो।


विधि और न्याय में अंतर

विधि और न्याय एक-दूसरे से जुड़े हुए होते हुए भी अलग-अलग हैं:

  • विधि लिखित होती है, जबकि न्याय एक नैतिक भावना है।
  • विधि सभी पर एक समान लागू होती है, परंतु न्याय व्यक्ति-विशेष की परिस्थितियों को ध्यान में रखता है
  • विधि बदल सकती है, परंतु न्याय के आदर्श स्थायी और सार्वभौमिक होते हैं

विधि का उद्देश्य न्याय है – आलोचनात्मक विश्लेषण

इस सिद्धांत के पक्ष और विपक्ष दोनों दृष्टिकोणों को समझना आवश्यक है:

पक्ष में तर्क:

  1. सामाजिक संतुलन:
    विधि के बिना न्याय की कोई गारंटी नहीं हो सकती। विधि के माध्यम से ही समाज में व्यवस्था और संतुलन बना रहता है।
  2. न्यायिक प्रक्रिया की आधारशिला:
    न्यायालय विधि का प्रयोग करके न्याय करता है। यदि विधि न हो, तो न्यायिक प्रक्रिया अराजक हो जाएगी।
  3. न्याय को व्यावहारिक स्वरूप:
    विधि न्याय के आदर्श को ठोस और व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करती है।
  4. मानवाधिकार की रक्षा:
    विधिक अधिकारों की संरचना द्वारा व्यक्ति को न्याय प्राप्त होता है।

विपक्ष में तर्क:

  1. कभी-कभी विधि अन्यायपूर्ण होती है:
    जैसे – नस्लभेदी कानून, स्त्रियों के अधिकारों का हनन करने वाली कानूनें, हिटलर के काल में बने कानून आदि। वे विधिक रूप से वैध थे, परंतु न्यायसंगत नहीं।
  2. विधि में सुधार की आवश्यकता:
    समाज में परिवर्तनशीलता के कारण कई बार पुरानी विधियाँ न्याय से दूर हो जाती हैं।
  3. विधि का दुरुपयोग:
    सत्ता के हाथों में विधि का प्रयोग दमन और अन्याय के लिए भी हो सकता है।
  4. न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता:
    कई बार विधिक प्रक्रियाएँ इतनी लंबी और जटिल होती हैं कि पीड़ित को न्याय मिल ही नहीं पाता, जिससे ‘न्याय में देरी अन्याय के बराबर’ हो जाती है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विधि और न्याय का संबंध

आज विधि को केवल राज्य का आदेश नहीं माना जाता, बल्कि उसे नैतिक मूल्यों, सामाजिक उद्देश्य और मानव गरिमा से जोड़कर देखा जाता है:

  • भारतीय संविधान में प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक सिद्धांत – सबका उद्देश्य न्याय की स्थापना है।
  • न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय भी विधि की सीमाओं को पार करके न्याय की दिशा में बढ़ते हैं – जैसे मनु भंडारी बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय, मनुका गांधी बनाम भारत संघ, आदि।

निष्कर्ष

यह सत्य है कि ‘विधि का उद्देश्य न्याय है’, लेकिन यह तभी संभव है जब विधि स्वयं न्यायसंगत, नैतिक और मानवोचित हो। विधि को केवल नियमों का समूह नहीं, बल्कि न्याय की सेवा का माध्यम होना चाहिए। जब विधि अन्याय को बढ़ावा देती है, तब वह अपनी आत्मा को खो देती है।

इसलिए, विधि और न्याय के बीच एक संतुलन बनाना अत्यावश्यक है, जहाँ विधि न्याय को प्राप्त करने का माध्यम बने और न्याय विधि के भीतर ही पूर्णतः सुनिश्चित किया जा सके। यही एक न्यायपूर्ण समाज की आधारशिला है।