“नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 – भारतीय दीवानी न्याय प्रणाली की रीढ़”

“नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 – भारतीय दीवानी न्याय प्रणाली की रीढ़”


प्रस्तावना

न्यायिक प्रणाली का प्रभावी संचालन किसी भी सभ्य समाज की आधारशिला होती है। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में जहां विविधता और जनसंख्या अत्यधिक है, वहां न्याय को सुलभ, त्वरित और व्यवस्थित ढंग से उपलब्ध कराने के लिए विधिक प्रक्रियाएं अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। इन्हीं विधिक प्रक्रियाओं को विनियमित करने वाला प्रमुख कानून है — नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code, 1908)


नागरिक प्रक्रिया संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

CPC की जड़ें ब्रिटिश शासन के समय की हैं। इससे पूर्व दीवानी मामलों की प्रक्रिया क्षेत्र विशेष के अनुसार भिन्न थी, जिससे एकरूपता नहीं थी। इस समस्या के समाधान हेतु 1908 में एक समग्र संहिता तैयार की गई, जो 1 जनवरी 1909 से लागू हुई। यह संहिता पूर्ववर्ती 1859, 1877 और 1882 की संहिताओं को प्रतिस्थापित करती है।


CPC की संरचना

नागरिक प्रक्रिया संहिता दो मुख्य भागों में विभाजित है:

  1. प्रारंभिक भाग (Preliminary Part): इसमें 158 धाराएं (Sections 1 to 158) सम्मिलित हैं जो न्यायालयों की शक्तियों, अधिकार क्षेत्र, न्यायिक आदेशों, अपील, पुनरीक्षण आदि का निर्धारण करती हैं।
  2. द्वितीय भाग (Orders and Rules): इसमें 51 आदेश (Orders I to LI) एवं उनके अधीन नियम सम्मिलित हैं जो दीवानी मामलों की प्रक्रिया से संबंधित विस्तृत प्रावधान करते हैं।

मुख्य विषयवस्तु

1. प्रक्रिया की समानता और निष्पक्षता

CPC यह सुनिश्चित करता है कि सभी पक्षों को समान अवसर मिले और न्याय बिना भेदभाव के हो।

2. प्रभावी उपाय और राहत

यह संहिता वादी और प्रतिवादी दोनों को राहत के लिए कानूनी उपाय प्रदान करती है, जैसे – निषेधाज्ञा, हर्जाना, विशेष निष्पादन आदि।

3. अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विचार की व्यवस्था

यदि किसी पक्ष को न्यायालय के निर्णय से असंतोष है, तो CPC के अंतर्गत उसे ऊपरी अदालत में अपील, पुनरीक्षण या पुनर्विचार की सुविधा मिलती है।

4. स्थगन एवं निषेधाज्ञा

संहिता के अंतर्गत न्यायालय अस्थायी निषेधाज्ञा (temporary injunction) और स्थायी निषेधाज्ञा (permanent injunction) जारी कर सकता है।


महत्वपूर्ण धाराएं और आदेश

अनुक्रम धारा/आदेश विषय
1 धारा 9 दीवानी न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र
2 धारा 10 वाद की लंबितता (Res Sub Judice)
3 धारा 11 पूर्वविवाद निवारण (Res Judicata)
4 आदेश 1 पक्षकारों का समावेश
5 आदेश 7 वाद पत्र (Plaint)
6 आदेश 8 लिखित उत्तर (Written Statement)
7 आदेश 9 उपस्थिति और अनुपस्थिति
8 आदेश 21 डिक्री का निष्पादन
9 आदेश 39 अस्थायी निषेधाज्ञा

संशोधन और आधुनिकरण

समय के साथ CPC में अनेक संशोधन हुए, जैसे:

  • 2002 का संशोधन – मुकदमे की प्रक्रिया को त्वरित बनाने के लिए किया गया।
  • E-filing और Online Summons जैसे तकनीकी प्रावधानों की शुरुआत की गई।

न्यायिक व्याख्याएं और योगदान

भारतीय उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय ने CPC की व्याख्या करते हुए न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता और कार्यक्षमता को बढ़ाया है। उदाहरण:

  • Satyadhyan Ghosal v. Deorajin Debi — Res Judicata की व्याख्या।
  • Salem Advocate Bar Association v. Union of India — संशोधनों की वैधता पर निर्णय।

निष्कर्ष

नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 भारतीय विधि प्रणाली की वह रीढ़ है, जो दीवानी मामलों की निष्पक्ष, तर्कसंगत और व्यवस्थित सुनवाई सुनिश्चित करती है। यह केवल एक प्रक्रिया संहिता नहीं, बल्कि न्याय तक पहुंच का सेतु है। समयानुकूल संशोधन और न्यायालयों की व्याख्याएं इसे और अधिक प्रभावी बनाती हैं।