“क्या सहमति की उम्र 18 से घटाकर 16 की जाए? : इंदिरा जयसिंह की सिफारिश और किशोर अधिकारों पर व्यापक विमर्श”

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“क्या सहमति की उम्र 18 से घटाकर 16 की जाए? : इंदिरा जयसिंह की सिफारिश और किशोर अधिकारों पर व्यापक विमर्श”

✒️ भूमिका

भारतीय कानून में सहमति से यौन संबंधों के लिए न्यूनतम उम्र 18 वर्ष निर्धारित है। लेकिन वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त न्यायमित्र इंदिरा जयसिंह ने इस प्रावधान को लेकर एक गंभीर कानूनी और सामाजिक बहस की शुरुआत कर दी है। सुप्रीम कोर्ट में ‘निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ’ मामले में दी गई अपनी लिखित प्रस्तुतियों में उन्होंने सहमति की उम्र को 18 से घटाकर 16 करने की सिफारिश की है। उनका तर्क है कि वर्तमान कानून किशोरों की भावनात्मक और सामाजिक वास्तविकताओं को नहीं समझता तथा उनके अधिकारों और आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता का हनन करता है।


⚖️ वर्तमान कानूनी स्थिति

1. यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO), 2012)

  • POCSO के तहत 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का यौन संपर्क अपराध की श्रेणी में आता है – भले ही वह सहमति से क्यों न हो।

2. भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (IPC – Rape Law)

  • यह स्पष्ट करती है कि यदि लड़की की उम्र 18 वर्ष से कम है, तो सहमति भी अप्रासंगिक मानी जाएगी — और वह यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में आएगा।

🧠 इंदिरा जयसिंह की मुख्य दलीलें

  1. 🔸 किशोरों की सहमति को स्वीकार किया जाए
    • 16 से 18 वर्ष की आयु में कई किशोर प्रेम-संबंधों में प्रवेश करते हैं। ऐसे संबंधों को अपराध बना देना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि यह कानूनी दुर्व्यवहार का रास्ता भी खोलता है।
  2. 🔸 स्वायत्तता और संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन
    • जब एक 16 साल का व्यक्ति अन्य फैसले (जैसे रोजगार चुनना, इंटरनेट इस्तेमाल, निजी संवाद) ले सकता है, तो उसे अपने शारीरिक संबंधों के फैसले का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता?
  3. 🔸 सहमति की उम्र को 16 करने का कोई विरोधाभास नहीं
    • भारत में शादी की वैध उम्र लड़कियों के लिए 18 है, लेकिन यह यौन सहमति के लिए बाध्यता नहीं होनी चाहिए — खासकर जब दो किशोर आपसी सहमति से संबंध बना रहे हों
  4. 🔸 POCSO का दुरुपयोग
    • जयसिंह ने कहा कि माता-पिता या समाज द्वारा प्रेम संबंधों को रोकने के लिए POCSO का प्रयोग किया जाता है — जिससे किशोरों को आपराधिक मुकदमों का सामना करना पड़ता है, जबकि उनका कोई आपराधिक इरादा नहीं होता।

🧪 अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

  • ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और कई यूरोपीय देशों में सहमति की उम्र 16 वर्ष है।
  • इनमें ‘age-gap exemption’ यानी यदि दोनों व्यक्तियों की उम्र एक-दूसरे के नजदीक हो, तो सहमति मान्य होती है।

📊 आंकड़ों की स्थिति और सामाजिक यथार्थ

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, POCSO के लगभग 50% मामले ऐसे होते हैं जिनमें दो किशोरों के प्रेम संबंध शामिल होते हैं, परंतु किशोर लड़के को बलात्कारी बना दिया जाता है।
  • ऐसे मामलों में लड़की की सहमति के बावजूद माता-पिता की शिकायत पर लड़के को कारावास तक भुगतना पड़ता है।

👨‍⚖️ न्यायिक दृष्टिकोण और विरोधी तर्क

⚠️ विरोध में दिए जाने वाले मुख्य तर्क:

  1. शारीरिक और मानसिक परिपक्वता की कमी
    • 16 वर्ष की आयु तक व्यक्ति को पूर्ण मानसिक परिपक्वता प्राप्त नहीं होती, इसलिए उसकी सहमति अव्यवहारिक हो सकती है।
  2. बच्चों के शोषण का बढ़ता खतरा
    • यदि सहमति की आयु घटाई जाती है, तो व्यस्कों द्वारा किशोरों के शोषण का मार्ग खुल सकता है।
  3. भारतीय समाज की पारिवारिक संरचना और नैतिक मूल्य
    • हमारे समाज में किशोर संबंधों को अभी भी सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं माना जाता।

न्यायिक झुकाव में बदलाव:

हाल के वर्षों में कई अदालतों ने भी माना है कि किशोरों के बीच सहमति से बने संबंधों को POCSO के कठोर दंड से अलग किया जाना चाहिए

“प्रेम में किया गया स्पर्श अपराध नहीं होना चाहिए।” – मद्रास हाई कोर्ट


🧭 आगे का रास्ता : संभावित समाधान

  1. Age-Gap Exemption Provision
    • यदि दोनों किशोरों की उम्र में 3-4 वर्षों से अधिक अंतर नहीं है और संबंध सहमति से हुआ है, तो उसे अपराध नहीं माना जाए।
  2. POCSO अधिनियम में संशोधन
    • 16-18 आयु वर्ग के लिए विशेष खंड जोड़े जाएं जो न्यायिक विवेक और किशोर की मानसिक स्थिति को ध्यान में रखें।
  3. परिवारों और स्कूलों में जागरूकता
    • किशोरों के यौन स्वास्थ्य, अधिकार, और कानूनी सीमाओं पर व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाएं।

🧾 निष्कर्ष

इंदिरा जयसिंह की सिफारिश महज एक कानूनी प्रस्ताव नहीं है — यह किशोर अधिकारों, स्वायत्तता और न्यायिक संवेदनशीलता को लेकर एक गहरी बहस का आह्वान है। यह स्पष्ट है कि 16-18 वर्ष की आयु के किशोरों के लिए वर्तमान कानून अत्यधिक कठोर और कभी-कभी अन्यायपूर्ण है। यदि भारत को अपने युवाओं को स्वतंत्र और सुरक्षित नागरिक बनाना है, तो उसके लिए कानूनों में मानवीय दृष्टिकोण और व्यवहारिक संशोधन अनिवार्य हैं।