एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य (1996): बाल श्रम के खिलाफ न्यायिक सक्रियता और पुनर्वास की दिशा में एक मील का पत्थर

एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य (1996): बाल श्रम के खिलाफ न्यायिक सक्रियता और पुनर्वास की दिशा में एक मील का पत्थर

भूमिका:

भारत में बाल श्रम एक गम्भीर सामाजिक समस्या रही है, जो बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य और भविष्य को प्रभावित करती है। संविधान के अनुच्छेद 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक कार्यों में लगाने पर रोक है, फिर भी बाल श्रम व्यापक रूप से फैला हुआ था। इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1996 में एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य के ऐतिहासिक मामले में एक ऐसा निर्णय दिया जिसने बाल श्रमिकों की स्थिति में सुधार के लिए निर्णायक दिशा प्रदान की।

मामले की पृष्ठभूमि:

पर्यावरणविद और जनहित याचिकाकर्ता एम.सी. मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि तमिलनाडु राज्य के सिवकासी क्षेत्र में सैकड़ों बच्चे पटाखा फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं, जो न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी है। यह याचिका बाल श्रम निषेध अधिनियम, 1986 और संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन बताकर दाखिल की गई थी।

न्यायालय का हस्तक्षेप और महत्वपूर्ण आदेश:

सुप्रीम कोर्ट ने बाल श्रम की भयावह स्थिति को देखते हुए इस मुद्दे पर गम्भीर रुख अपनाया और एक विस्तृत आदेश पारित किया। न्यायालय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निर्देश दिए:

  1. पुनर्वास कोष की स्थापना:
    सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक बाल श्रमिक के लिए ₹20,000 का जुर्माना संबंधित नियोक्ता से वसूल कर बाल श्रमिक पुनर्वास कोष (Child Labour Rehabilitation-cum-Welfare Fund) में जमा करने का निर्देश दिया। इस कोष का उपयोग बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य और पुनर्वास के लिए किया जाना था।
  2. परिवार को सहायता:
    उन बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों को ₹5,000 की प्रोत्साहन राशि राज्य सरकार की ओर से देने का आदेश दिया गया, ताकि वे बच्चों को स्कूल भेज सकें।
  3. बच्चों की शिक्षा का प्रावधान:
    न्यायालय ने सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि प्रत्येक चिन्हित बाल श्रमिक को पूर्णकालिक शिक्षा उपलब्ध कराई जाए और पुनर्वास कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हें आवश्यक सहायता मिले।
  4. खतरनाक और गैर-खतरनाक उद्योगों में अंतर:
    सुप्रीम कोर्ट ने खतरनाक उद्योगों (जैसे पटाखा, रसायन, खनन आदि) में बाल श्रमिकों को तत्काल हटाने का आदेश दिया और गैर-खतरनाक उद्योगों में भी बच्चों की संख्या को धीरे-धीरे समाप्त करने की नीति अपनाने को कहा।
  5. निगरानी तंत्र की स्थापना:
    कोर्ट ने प्रत्येक जिले में एक निरीक्षण समिति गठित करने का निर्देश दिया ताकि यह निगरानी की जा सके कि बाल श्रमिकों को हटाने और पुनर्वास की प्रक्रिया सही तरीके से लागू हो रही है।

इस फैसले का महत्व:

यह निर्णय बाल श्रम के खिलाफ एक टर्निंग पॉइंट माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि केवल कानूनी प्रतिबंध पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि पुनर्वास और शिक्षा जैसे सकारात्मक उपायों की भी जरूरत है। इसके अलावा यह आदेश यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका किस प्रकार सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा सकती है।

बाल श्रम के उन्मूलन में इस निर्णय की भूमिका:

  • इस फैसले के बाद विभिन्न राज्यों में बाल श्रमिकों की पहचान, पुनर्वास और शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया।
  • केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बाल श्रमिकों के लिए विशेष योजनाएं शुरू की गईं।
  • गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने इस आदेश को आधार बनाकर बच्चों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया।

निष्कर्ष:

एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य (1996) का फैसला भारतीय न्यायपालिका द्वारा सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम था। इसने यह सिद्ध कर दिया कि कानून के साथ-साथ न्यायालय की सक्रियता भी समाज में बदलाव ला सकती है। बाल श्रम जैसी गम्भीर समस्या से लड़ने के लिए यह निर्णय एक मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है, जो आज भी नीति निर्धारण और प्रशासनिक कार्यवाही में संदर्भ के रूप में उद्धृत किया जाता है।

सुझाव:
इस ऐतिहासिक फैसले के सकारात्मक प्रभावों को स्थायी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि—

  • सरकारी योजनाओं का सही क्रियान्वयन हो।
  • स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार हो।
  • गरीब परिवारों के लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं। तभी बाल श्रम का उन्मूलन एक स्थायी सामाजिक परिवर्तन बन सकेगा।