न्याय प्रक्रिया की धीमी गति – भारतीय विधिक प्रणाली की एक गंभीर चुनौती

लेख शीर्षकः न्याय प्रक्रिया की धीमी गति – भारतीय विधिक प्रणाली की एक गंभीर चुनौती

परिचयः
भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ माना जाता है, जिसका मूल उद्देश्य है– लोगों को त्वरित और निष्पक्ष न्याय प्रदान करना। परंतु, वर्तमान समय में न्याय प्रक्रिया की धीमी गति एक विकराल समस्या बन चुकी है, जो न केवल पीड़ित पक्ष को न्याय से वंचित करती है, बल्कि न्याय प्रणाली की साख पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।

न्याय प्रक्रिया की धीमी गति के कारणः
भारतीय न्याय व्यवस्था में मामलों की अत्यधिक संख्या और न्यायालयों में जजों की कमी इस समस्या के प्रमुख कारणों में से हैं। साथ ही, जटिल कानूनी प्रक्रियाएं, बार-बार की तारीखें, अपूर्ण अनुसंधान, और न्यायिक आधारभूत ढांचे की कमी जैसे तत्व न्याय में अनावश्यक विलंब का कारण बनते हैं। सरकारी मामलों में अधिकारियों की उपस्थिति न होना या अभियोजन पक्ष की तैयारियों की कमी भी इसका एक बड़ा कारण है।

आंकड़ों की दृष्टि से स्थिति:
भारत के उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में लाखों की संख्या में लंबित मामले हैं। नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, देशभर में करोड़ों दीवानी और आपराधिक मामले वर्षों से लंबित हैं। कई मामलों में तो पीड़ित पक्ष की मृत्यु हो जाती है, तब जाकर निर्णय आता है।

न्याय में देरी का सामाजिक प्रभाव:
न्याय में देरी का सबसे बड़ा असर आम नागरिकों पर पड़ता है। पीड़ित को लंबे समय तक मानसिक, आर्थिक और सामाजिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। अपराधी लंबे समय तक खुले में घूमते हैं, जिससे समाज में भय और अविश्वास का माहौल बनता है। विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और समाज के कमजोर वर्गों के मामलों में देरी, उनकी सुरक्षा और गरिमा के खिलाफ है।

विधिक सुधारों की आवश्यकता:
न्यायिक प्रणाली की दक्षता बढ़ाने के लिए न्यायालयों में डिजिटलीकरण, ई-कोर्ट्स की स्थापना, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई, और फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की संख्या में वृद्धि आवश्यक है। इसके अलावा, न्यायधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को शीघ्र और पारदर्शी बनाना, केस मैनेजमेंट सिस्टम लागू करना और वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण होगा।

वर्तमान प्रयास:
भारत सरकार और न्यायपालिका दोनों ही स्तरों पर इस समस्या के समाधान के लिए सक्रिय प्रयास कर रहे हैं। ई-कोर्ट्स परियोजना, मिशन मोड कार्यक्रम, Gram Nyayalayas Act, और Nyaya Bandhu Pro Bono Legal Services जैसे अनेक कदम उठाए गए हैं। साथ ही, विभिन्न न्यायालयों द्वारा मामलों की प्राथमिकता तय करना और समय-सीमा निर्धारित करना भी उल्लेखनीय पहल हैं।

निष्कर्षः
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्याय में देरी, न्याय से वंचना के समान है। यदि आमजन को समय पर न्याय नहीं मिलेगा तो न्यायपालिका की उपयोगिता और विश्वसनीयता पर संकट आ सकता है। अतः यह आवश्यक है कि सरकार, न्यायपालिका और नागरिक समाज मिलकर न्याय प्रक्रिया को सुगम, पारदर्शी और शीघ्र बनाएं, जिससे “न्याय में विश्वास” कायम रह सके और संविधान में प्रदत्त अधिकारों की सार्थकता बनी रहे।