क्या एक न्यायाधीश के सामाजिक विचार उसके निर्णय को प्रभावित करते हैं? – एक न्यायिक विवेचन

क्या एक न्यायाधीश के सामाजिक विचार उसके निर्णय को प्रभावित करते हैं? – एक न्यायिक विवेचन

परिचय

न्यायाधीश की भूमिका संविधान, विधि और न्याय के स्तंभों में से एक मानी जाती है। उसके कंधों पर यह जिम्मेदारी होती है कि वह बिना पक्षपात, पूर्वाग्रह या व्यक्तिगत विचारों के, कानून के अनुसार निष्पक्ष निर्णय दे। परंतु यह प्रश्न अक्सर उठता है कि क्या न्यायाधीश के सामाजिक विचार, मूल्य और पृष्ठभूमि उसके निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं? यदि हाँ, तो उस प्रभाव की सीमा और परिणाम क्या हैं?


न्यायिक निर्णय में मानव तत्व की अनिवार्यता

किसी भी न्यायाधीश को मात्र यांत्रिक कानून का अनुयायी नहीं माना जा सकता। वह एक सामाजिक प्राणी भी है जिसकी परवरिश, शिक्षा, अनुभव, संस्कृति और संवेदनशीलताएँ उसके सोचने के तरीके को प्रभावित करती हैं।
जैसा कि अमेरिकी जज बेंजामिन कार्डोज़ो ने कहा था –

“The great tides and currents which engulf the rest of men do not turn aside in their course and pass the judges by.”

इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक और नैतिक विचार न्यायाधीश के मन-मस्तिष्क को भी प्रभावित करते हैं।


भारत में उदाहरण

  1. ऑल्टमस कबीर बनाम तमिलनाडु राज्य मामला (Right to Education और सामाजिक आर्थिक न्याय)
    • जस्टिस ऑल्टमस कबीर ने शिक्षा के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा मानते हुए सामाजिक न्याय के पक्ष में निर्णय दिया, जो उनके सामाजिक न्याय के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
  2. नालसा बनाम भारत सरकार (2014)
    • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देने के पीछे न्यायाधीशों की समावेशिता और लैंगिक समानता की व्यक्तिगत मान्यता की छाप स्पष्ट थी।
  3. सबा फातिमा बनाम बिहार सरकार (2023, पटना HC)
    • न्यायाधीश की व्यक्तिगत संवेदना ने महिला उम्मीदवार के हिजाब पहनने के अधिकार को सुरक्षित करने की दिशा में निर्णय को प्रभावित किया।

फैसले में सामाजिक दृष्टिकोण के प्रभाव के पक्ष में तर्क

  • न्याय अधिक मानवीय होता है
    • शुद्ध कानूनी व्याख्या कई बार कठोर हो सकती है, जबकि सामाजिक दृष्टिकोण से सोचने वाला न्यायाधीश न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) के माध्यम से समाज के हाशिये पर बैठे वर्गों को राहत दे सकता है।
  • संविधान की उद्देशिका और सामाजिक न्याय
    • भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय” की बात की गई है। न्यायाधीश का सामाजिक दृष्टिकोण इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होता है।

फैसले में सामाजिक विचारों के प्रभाव के विरोध में तर्क

  • पूर्वाग्रह का खतरा
    • यदि सामाजिक सोच न्यायाधीश की तटस्थता को भंग करती है, तो न्याय की निष्पक्षता पर प्रश्न उठ सकते हैं। इससे पक्षकारों का विश्वास डगमगा सकता है।
  • कानून की प्रधानता
    • न्यायालयों को कानून का अनुपालन कराना होता है, न कि व्यक्तिगत मूल्यों के अनुसार निर्णय देना।
    • सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि न्यायाधीश कानून निर्माता नहीं हो सकते।

संतुलन की आवश्यकता

एक न्यायाधीश के लिए यह आवश्यक है कि वह सामाजिक यथार्थ से अनभिज्ञ न रहे, लेकिन निर्णय लेते समय वह अपनी व्यक्तिगत सोच को संविधान और विधि के अधीन रखे। यही संतुलन भारतीय न्याय प्रणाली की आत्मा है।


निष्कर्ष

न्यायाधीश के सामाजिक विचार उसके निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं, किंतु यह प्रभाव सकारात्मक तभी होता है जब वह न्याय की मूल भावना – निष्पक्षता, तटस्थता और विधिक मान्यता – से मेल खाता हो। समाज के प्रति संवेदनशील न्यायाधीश न्याय को केवल कानूनी नहीं बल्कि मानवीय भी बनाता है, लेकिन व्यक्तिगत विचारों के अतिरेक से न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता खतरे में पड़ सकती है।