“जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय अधिकार: एक सतत भविष्य की ओर संवैधानिक और वैश्विक दृष्टिकोण”

“जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय अधिकार: एक सतत भविष्य की ओर संवैधानिक और वैश्विक दृष्टिकोण”


प्रस्तावना

जलवायु परिवर्तन आज वैश्विक चिंता का विषय बन चुका है। यह केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकारों, सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास और सतत भविष्य की दिशा में गंभीर बाधा भी है। बढ़ते वैश्विक तापमान, अनियमित वर्षा, समुद्र स्तर में वृद्धि, सूखा और बाढ़ जैसी आपदाएं अब आम होती जा रही हैं। इन संकटों ने पर्यावरणीय अधिकारों की आवश्यकता और उनके संरक्षण की अनिवार्यता को और अधिक स्पष्ट कर दिया है।


जलवायु परिवर्तन: कारण और प्रभाव

जलवायु परिवर्तन मुख्यतः मानवीय गतिविधियों, विशेषकर जीवाश्म ईंधनों का अत्यधिक उपयोग, वन-विनाश, औद्योगीकरण, और अत्यधिक उपभोगवादी संस्कृति के कारण हो रहा है। इसके प्रभाव गंभीर हैं:

  • तापमान में वृद्धि: जिससे हिमनद पिघल रहे हैं और समुद्र का स्तर बढ़ रहा है।
  • अनियमित मौसमी बदलाव: कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है।
  • स्वास्थ्य संकट: मलेरिया, डेंगू, हीट वेव और जलजनित रोगों में वृद्धि।
  • प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि: सूखा, बाढ़, जंगल की आग और चक्रवात अधिक तीव्र हो गए हैं।

पर्यावरणीय अधिकार: एक मानवाधिकार के रूप में

पर्यावरणीय अधिकार का अर्थ है – एक ऐसा स्वच्छ, सुरक्षित और स्वस्थ पर्यावरण, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति गरिमा के साथ जीवन व्यतीत कर सके। यह अधिकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अन्य मौलिक अधिकारों से जुड़ा है:

  • जीवन का अधिकार (Right to Life): भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक स्वच्छ पर्यावरण को जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग माना गया है (सुबाष कुमार बनाम बिहार राज्य, 1991)।
  • जल और वायु की गुणवत्ता: प्रदूषण नियंत्रण, साफ पानी, स्वच्छ वायु, और जैव विविधता की रक्षा आवश्यक है।
  • न्यायिक दृष्टिकोण: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर पर्यावरणीय अधिकारों की रक्षा हेतु दिशा-निर्देश दिए हैं (MC Mehta मामले)।

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक प्रयास भी लगातार चल रहे हैं:

  • स्टॉकहोम सम्मेलन (1972): पर्यावरण संरक्षण को अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनाया गया।
  • क्योटो प्रोटोकॉल (1997): ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता।
  • पेरिस समझौता (2015): वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2°C से नीचे रखने का लक्ष्य।
  • सतत विकास लक्ष्य (SDGs): विशेष रूप से लक्ष्य 13 – जलवायु कार्रवाई

भारत में संवैधानिक और विधिक उपाय

भारतीय संविधान में भी पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया गया है:

  • अनुच्छेद 48A: राज्य का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण और वन्य जीवन की रक्षा और सुधार करे।
  • अनुच्छेद 51A(g): प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा करे।
  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986: यह अधिनियम पर्यावरणीय अधिकारों की सुरक्षा हेतु अधिसूचना जारी करने का अधिकार केंद्र सरकार को देता है।

न्यायिक सक्रियता और हरित न्यायाधिकरण (NGT)

भारतीय न्यायपालिका ने पर्यावरणीय मामलों में जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से सक्रिय भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम, 2010 के तहत NGT की स्थापना की गई, जो पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण फैसले देता है।


चुनौतियाँ और समाधान

चुनौतियाँ:

  • विकास बनाम पर्यावरण का टकराव
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
  • उद्योगों का विरोध
  • जागरूकता की कमी
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग की सीमाएं

समाधान:

  • हरित प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना
  • नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर जोर
  • जनभागीदारी और पर्यावरणीय शिक्षा
  • कड़े पर्यावरणीय कानूनों का क्रियान्वयन
  • वैश्विक न्याय और उत्तरदायित्व का सिद्धांत

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन की चुनौती केवल वैज्ञानिक या तकनीकी समाधान से नहीं सुलझेगी, बल्कि इसके लिए न्याय, समानता और अधिकार आधारित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। पर्यावरणीय अधिकारों को मानवाधिकार के रूप में मान्यता देना और उनका विधिक संरक्षण सुनिश्चित करना ही एक समावेशी और सतत भविष्य की ओर सशक्त कदम होगा।