“‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ बनाम ‘कानून की उचित प्रक्रिया’: भारतीय संविधान में न्याय, समानता और स्वतंत्रता के दो दृष्टिकोणों की तुलना”

“‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ बनाम ‘कानून की उचित प्रक्रिया’: भारतीय संविधान में न्याय, समानता और स्वतंत्रता के दो दृष्टिकोणों की तुलना”


🔷 भूमिका

संविधान के अनुच्छेद 21 में भारत के प्रत्येक नागरिक को यह मौलिक अधिकार प्राप्त है कि –
“किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, सिवाय विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।”
यह प्रावधान भारतीय लोकतंत्र का मूल स्तंभ है। परंतु इसी के संदर्भ में दो प्रमुख कानूनी अवधारणाएँ सामने आती हैं –

  1. विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Established by Law)
  2. कानून की उचित प्रक्रिया (Due Process of Law)

ये दोनों अवधारणाएं देखने में समान प्रतीत होती हैं, किंतु इनका अंतर बहुत गहरा और दूरगामी है।


🔷 विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure Established by Law) – भारतीय दृष्टिकोण की प्रारंभिक व्याख्या

‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का अर्थ है कि यदि कोई कानून विधिवत रूप से संसद या विधानमंडल द्वारा बनाया गया है और उसमें जीवन या स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रावधान है, तो उसे वैध माना जाएगा — भले ही वह न्यायपूर्ण हो या नहीं।

मुख्य विशेषताएँ:

  • यह केवल कानून की वैधानिकता (legality) की जांच करता है।
  • कानून की नैतिकता या न्यायसंगत स्वरूप पर विचार नहीं करता।
  • यह अवधारणा जापान के संविधान से ली गई है।

ए.के. गोपालन बनाम राज्य मद्रास (1950)

इस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि कोई कानून विधिवत पारित हुआ है, तो उसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी जा सकती है, भले ही वह कानून न्यायसंगत हो या नहीं।


🔷 कानून की उचित प्रक्रिया (Due Process of Law) – अमेरिकी संविधान की अवधारणा

‘Due Process of Law’ का अर्थ है कि किसी कानून के अधीन किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को छीनने से पहले यह देखना आवश्यक है कि:

  1. वह कानून वैधानिक रूप से पारित हुआ है।
  2. वह कानून निष्पक्ष, न्यायसंगत और विवेकपूर्ण भी है।
  3. उसे लागू करने की प्रक्रिया भी उचित और न्यायोचित होनी चाहिए।

मुख्य विशेषताएँ:

  • यह सिर्फ वैधानिकता नहीं, बल्कि न्याय, समानता और नैतिकता का मूल्यांकन करता है।
  • इसमें न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह किसी भी कानून को संवैधानिक मूल्यों के आधार पर परख सके।
  • यह अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से प्रेरित है।

🔷 दोनों अवधारणाओं के बीच मुख्य अंतर

बिंदु विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया कानून की उचित प्रक्रिया
उत्पत्ति जापानी संविधान अमेरिकी संविधान
मूल्यांकन केवल यह देखता है कि कानून वैध है या नहीं यह देखता है कि कानून वैध होने के साथ-साथ न्यायसंगत है या नहीं
न्याय का महत्व न्याय की कोई सीधी गारंटी नहीं न्याय, समानता, और विवेक की सीधी गारंटी
न्यायालय की शक्ति सीमित – केवल प्रक्रिया की वैधता की जांच व्यापक – कानून की सामग्री की भी जांच
नागरिक अधिकारों की सुरक्षा सीमित अधिक प्रभावी

🔷 मनके गांधी बनाम भारत संघ (1978): न्यायिक क्रांति

इस ऐतिहासिक निर्णय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार यह कहा कि –
“विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का अर्थ मात्र कानूनी औपचारिकताओं की पूर्ति नहीं है, बल्कि कानून निष्पक्ष, न्यायोचित और तर्कसंगत भी होना चाहिए।”
इस निर्णय के बाद ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का व्यावहारिक अर्थ ‘Due Process of Law’ से बहुत अधिक मेल खाने लगा।


🔷 क्यों है यह अंतर महत्वपूर्ण?

  1. न्याय की रक्षा:
    केवल वैध रूप से बनाए गए कानून से न्याय नहीं हो सकता, जब तक वह कानून नैतिक और समानतापूर्ण न हो।
  2. लोकतंत्र की आत्मा:
    कानून केवल सत्ता का उपकरण नहीं, बल्कि जनता की संवेदनाओं और अधिकारों का रक्षक होना चाहिए।
  3. न्यायपालिका की भूमिका:
    ‘Due Process’ के तत्वों को अपनाकर न्यायपालिका को यह अधिकार मिला कि वह राज्य के किसी भी कानून की संवैधानिक समीक्षा कर सकती है।

🔷 समकालीन उदाहरण

  • धारा 377 (IPC):
    समलैंगिकता को अपराध बताने वाला कानून विधिवत पारित था, लेकिन न्यायपालिका ने उसे संवैधानिक नैतिकता के विरुद्ध मानते हुए निरस्त किया।
  • धारा 124A (राजद्रोह):
    यह औपनिवेशिक कानून अभी भी ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अंतर्गत वैध माना जाता है, परंतु इस पर ‘Due Process’ के आधार पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।

🔷 निष्कर्ष

विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का सीमित दृष्टिकोण केवल वैधानिकता तक सीमित रह जाता है, जबकि ‘Due Process’ समाज के मूलभूत न्याय, नैतिकता और समानता के सिद्धांतों की रक्षा करता है।

भारतीय न्यायपालिका ने मनके गांधी केस के बाद से दोनों अवधारणाओं को समाहित करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। अब यह आवश्यक हो गया है कि हम किसी भी कानून को केवल इसलिए वैध न मान लें कि वह पारित हो गया है, बल्कि यह भी जांचें कि वह न्यायपूर्ण, मानवीय और संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप है या नहीं।