धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: साझेदारी फर्म पर मुकदमा न होकर भी भागीदारों पर मामला दर्ज हो सकता है

शीर्षक:
धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: साझेदारी फर्म पर मुकदमा न होकर भी भागीदारों पर मामला दर्ज हो सकता है

 लेख:

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 138 के अंतर्गत यदि कोई चेक बाउंस होता है, और वह चेक साझेदारी फर्म (Partnership Firm) के नाम से जारी किया गया हो, तो उस स्थिति में फर्म को अभियुक्त बनाए बिना भी उसके भागीदारों (Partners) के विरुद्ध मामला बनाए रखना वैध होगा।

यह फैसला साझेदारी फर्म और उसके भागीदारों के दायित्व की संयुक्त और पृथक (joint and several liability) की अवधारणा पर आधारित है, जो कि भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 25 में भी निहित है। अदालत ने कहा कि:

“जब अपराध साझेदारी फर्म की ओर से किया गया हो, तो फर्म स्वयं एक कृत्रिम इकाई होने के कारण दोषी नहीं ठहराई जा सकती, लेकिन फर्म की ओर से कार्य करने वाले भागीदारों की व्यक्तिगत, संयुक्त और पृथक जिम्मेदारी स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है।”

प्रमुख बिंदु:

  1. धारा 138 NI Act का उद्देश्य
    यह धारा चेक बाउंस होने पर दंडात्मक कार्रवाई की अनुमति देती है, ताकि चेक जारी करने की जिम्मेदारी और विश्वसनीयता बनी रहे।
  2. साझेदारी फर्म की प्रकृति
    साझेदारी फर्म कोई पृथक कानूनी व्यक्ति नहीं होती, बल्कि उसके भागीदार ही उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं। अतः यदि चेक फर्म के खाते से जारी हुआ और बाउंस हो गया, तो भागीदारों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
  3. फर्म को अभियुक्त न बनाना कोई बाधा नहीं
    सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि फर्म को अभियुक्त के रूप में नामित नहीं भी किया गया, तब भी उसके भागीदारों पर धारा 138 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा सकता है, बशर्ते यह सिद्ध हो जाए कि उन्होंने फर्म की ओर से कार्य किया।
  4. जिम्मेदारी का विस्तार
    जो भागीदार चेक जारी करने या उसके संचालन से जुड़े थे, उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई न्यायोचित है। यदि भागीदारी की भूमिका या सहभागिता सिद्ध हो जाती है, तो अभियोजन संभव है।

न्यायालय का दृष्टिकोण:

यह निर्णय न केवल विधिक दायित्वों की व्याख्या करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि व्यावसायिक लेन-देन में पारदर्शिता और जवाबदेही बनी रहे। भागीदारों को यह ध्यान रखना होगा कि वे जो भी लेन-देन फर्म के नाम पर करें, उसमें विधिक सावधानी बरतें।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह सिद्ध होता है कि साझेदारी फर्म के कार्यों के लिए भागीदारों को जवाबदेह ठहराया जा सकता है, भले ही फर्म को स्वयं अभियुक्त न बनाया गया हो। यह फैसला व्यापारिक व्यवहार में वित्तीय अनुशासन को बढ़ावा देगा और चेक का दुरुपयोग रोकने में सहायक होगा।