फर्जी विवाह प्रमाणपत्र के आधार पर सुरक्षा मांगने पर हाईकोर्ट की सख्ती: प्रेमी युगल की याचिका खारिज, धोखाधड़ी में मुकदमा दर्ज
🔹 प्रस्तावना
भारतीय न्यायपालिका की यह जिम्मेदारी होती है कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करे, विशेषकर जब मामला जीवन और स्वतंत्रता जैसे अधिकारों से संबंधित हो। लेकिन जब इन अधिकारों की आड़ में न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश होती है, तो अदालत सख्त रुख अपनाने से पीछे नहीं हटती। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ऐसे ही मामले में एक प्रेमी युगल की याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने फर्जी विवाह प्रमाणपत्र के आधार पर सुरक्षा की मांग की थी। कोर्ट ने दस्तावेजों की जांच कराई और पाया कि याचिका में प्रस्तुत प्रमाणपत्र फर्जी था। इसके बाद संबंधित पुलिस थाने को निर्देश देकर प्रेमी युगल पर धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज कराया गया।
यह मामला न केवल न्यायिक ईमानदारी की रक्षा का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि झूठे दस्तावेजों के सहारे न्याय प्रणाली का दुरुपयोग करना अब जोखिमभरा है।
🔹 मामले की पृष्ठभूमि
उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के मंझनपुर क्षेत्र का एक युवक और सैनी इलाके की एक युवती आपसी प्रेम संबंध में थे। जब उनके संबंधों की जानकारी परिजनों को हुई तो उन्होंने मिलने-जुलने पर प्रतिबंध लगा दिया। सामाजिक और पारिवारिक दबाव से परेशान होकर यह युगल अपने घर से भाग गया और अक्तूबर 2024 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की शरण में पहुंचा।
याचिका में उन्होंने दावा किया कि उन्होंने आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया है और अब उनके जीवन को परिजनों से खतरा है। उन्होंने अपनी जान-माल की रक्षा के लिए सुरक्षा की मांग की। इसके समर्थन में उन्होंने एक विवाह प्रमाणपत्र भी याचिका के साथ संलग्न किया।
🔹 कोर्ट द्वारा दस्तावेज सत्यापन
हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए युगल द्वारा प्रस्तुत विवाह प्रमाणपत्र की सत्यता की जांच का आदेश दिया। जांच प्रयागराज के सहसों क्षेत्र स्थित उस आर्य समाज मंदिर से कराई गई, जिसका नाम प्रमाणपत्र पर था।
जांच रिपोर्ट में सामने आया कि:
- प्रस्तुत विवाह प्रमाणपत्र फर्जी है।
- संबंधित आर्य समाज मंदिर में ऐसा कोई विवाह पंजीकृत नहीं है।
- न ही युगल ने मंदिर में विधिक विवाह किया और न ही संस्था ने ऐसा कोई प्रमाण पत्र जारी किया।
🔹 कोर्ट का रुख और याचिका की अस्वीकृति
जांच रिपोर्ट के आधार पर हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय को गुमराह करने का प्रयास किया है। उन्होंने विवाह का झूठा दावा कर एक संवेदनशील विषय — सुरक्षा — को आधार बनाकर अदालत से राहत पाने की कोशिश की।
कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कोतवाली पुलिस को निर्देश दिया कि वह इस मामले में आवश्यक विधिक कार्रवाई करें। आदेश के बाद शमसाबाद चौकी प्रभारी द्वारा प्रेमी युगल के खिलाफ धोखाधड़ी (IPC की धारा 420), कूटरचना (धारा 468/471) के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया।
🔹 फर्जी प्रमाणपत्र और कानूनी प्रभाव
भारतीय दंड संहिता (IPC) में फर्जी दस्तावेज तैयार करना, उनका उपयोग करना और न्यायालय को गुमराह करना गंभीर अपराध है। इस मामले में युगल पर निम्न धाराएं लागू हो सकती हैं:
- धारा 420 – धोखाधड़ी एवं बेईमानी से प्राप्ति:
– अधिकतम सजा: 7 वर्ष + जुर्माना - धारा 468 – कूटरचना:
– अधिकतम सजा: 7 वर्ष + जुर्माना - धारा 471 – कूटरचित दस्तावेज का उपयोग:
– वास्तविक सजा उस अपराध के अनुसार, जिसके लिए दस्तावेज का उपयोग किया गया।
इन अपराधों में गिरफ्तारी, न्यायिक हिरासत और चार्जशीट की प्रक्रिया लागू हो सकती है।
🔹 प्रेम संबंध और सुरक्षा याचिका की वैधता
भारत में उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों में यह कहा है कि बालिग प्रेमी युगल, यदि सहमति से साथ रह रहे हैं, तो उन्हें जीवन और स्वतंत्रता का संरक्षण दिया जाना चाहिए।
केस उदाहरण: Lata Singh v. State of U.P., (2006) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अंतरजातीय या प्रेम विवाह करने वाले युगलों को पुलिस सुरक्षा मिलनी चाहिए।
लेकिन जब याचिका में प्रस्तुत तथ्यों और दस्तावेजों की सत्यता संदिग्ध हो, या वे फर्जी हों, तब सुरक्षा का अधिकार स्वतः समाप्त नहीं होता, लेकिन याचिका अविश्वसनीय मानी जाती है।
🔹 इस निर्णय का सामाजिक और विधिक महत्व
✅ 1. न्यायालय की सत्यता पर ज़ोर:
कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि मौलिक अधिकारों की रक्षा तभी होगी जब प्रस्तुत तथ्य और दस्तावेज़ सत्य एवं प्रमाणित हों।
✅ 2. न्यायिक प्रक्रिया की मर्यादा:
फर्जी प्रमाणपत्रों के आधार पर याचिका दायर करना अदालत की प्रतिष्ठा के साथ धोखा है और इस पर कठोर कार्रवाई अनिवार्य है।
✅ 3. दस्तावेज सत्यापन की प्रवृत्ति:
अब कोर्ट केवल प्रस्तुत प्रमाणों पर विश्वास नहीं करती, बल्कि सत्यापन (Verification) की दिशा में अग्रसर हो चुकी है, जिससे फर्जीवाड़ा पकड़ा जा सके।
✅ 4. पुलिस पर जवाबदेही:
अदालत ने पुलिस को भी निर्देशित किया कि वह बिना पक्षपात निष्पक्ष जांच करे और आवश्यक कार्रवाई सुनिश्चित करे।
🔹 निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता की रक्षा का एक उदाहरण है। यह स्पष्ट करता है कि सुरक्षा जैसे मौलिक अधिकारों की मांग तभी वैध मानी जाएगी जब उसकी नींव सत्य और पारदर्शिता पर आधारित हो।
यह निर्णय आने वाले समय में ऐसे मामलों में एक न्यायिक मार्गदर्शक बन सकता है, जहां प्रेमी युगल न केवल सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहे हों, बल्कि खुद अपनी ही विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रहे हों।
न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है — “सुरक्षा की मांग अधिकार है, परंतु उसका दुरुपयोग अपराध है।”