“मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता के आधार पर विवाह विच्छेद का दावा अस्वीकार्य: झारखंड उच्च न्यायालय का विवेचनात्मक निर्णय”
परिचय:
झारखंड उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(iii) के अंतर्गत मानसिक अस्वस्थता केवल तभी विवाह विच्छेद (divorce) का वैध आधार बनती है जब वह गंभीर, असाध्य, और दांपत्य जीवन को असंभव बना देने वाली हो। साथ ही, बिना पर्याप्त साक्ष्यों के लगाए गए क्रूरता (cruelty) के आरोप भी तलाक की मंजूरी के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
इस निर्णय में उच्च न्यायालय ने पारिवारिक न्यायालय (Family Court) के उस आदेश को सही ठहराया जिसमें पति द्वारा विवाह विच्छेद हेतु दायर याचिका खारिज कर दी गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि:
वादकर्ता (पति) ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) के तहत एक मुकदमा दायर किया, जिसमें दो आधार प्रस्तुत किए गए:
- पत्नी की मानसिक अस्वस्थता, और
- उसके कथित व्यवहार से उत्पन्न मानसिक क्रूरता।
पति का दावा था कि पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है, वैवाहिक जीवन में सहयोग नहीं कर रही है और उसका व्यवहार असहनीय हो गया है। वह चाहता था कि इस आधार पर विवाह को समाप्त किया जाए।
पारिवारिक न्यायालय का निर्णय:
पारिवारिक न्यायालय ने उपलब्ध साक्ष्यों की विवेचना के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि:
- पत्नी की मानसिक स्थिति उपचार योग्य थी और वह “incurably of unsound mind” नहीं थी, जैसा कि धारा 13(1)(iii) में तलाक के लिए अपेक्षित है।
- पति द्वारा लगाए गए क्रूरता के आरोप सामान्य वैवाहिक मतभेदों तक सीमित थे, जिन्हें वास्तविक क्रूरता नहीं माना जा सकता।
- कोई चिकित्सकीय प्रमाण या गवाह इस बात की पुष्टि नहीं करते कि पत्नी मानसिक रूप से इतनी अस्वस्थ थी कि पति के साथ जीवन यापन असंभव हो गया हो।
अतः याचिका खारिज कर दी गई।
झारखंड हाईकोर्ट का निर्णय:
पति ने इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर की। झारखंड हाईकोर्ट ने अपील को खारिज करते हुए निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
- मानसिक अस्वस्थता का तलाक का आधार बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह गंभीर और स्थायी हो तथा दांपत्य जीवन को निभाना कठिन बना दे।
- इलाज योग्य मानसिक स्थिति तलाक का वैध आधार नहीं बनती।
- पति द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अपर्याप्त और असंगत थे। मानसिक रोग से संबंधित कोई विशेषज्ञ रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई थी जो पत्नी की गंभीर विक्षिप्तता को साबित कर सके।
- क्रूरता का दावा भी प्रमाणित नहीं था। पति के आरोप केवल सामान्य वैवाहिक तनाव या असहमति को दर्शाते थे, न कि अमानवीय व्यवहार को।
न्यायिक दृष्टिकोण:
यह निर्णय भारतीय विवाह कानून में “साक्ष्य-आधारित न्याय” की अवधारणा को पुष्ट करता है। न्यायालयों का उद्देश्य केवल भावनाओं या व्यक्तिगत आक्षेपों के आधार पर विवाह विच्छेद की अनुमति देना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि:
- मूल्यांकन तथ्यात्मक और कानूनी दोनों स्तरों पर हो,
- और पति या पत्नी के मौलिक अधिकारों का हनन न हो।
निष्कर्ष:
झारखंड हाईकोर्ट का यह निर्णय मानसिक अस्वस्थता और क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग को लेकर एक महत्वपूर्ण दृष्टांत है। यह स्पष्ट करता है कि विवाह विच्छेद केवल तभी स्वीकार्य है जब दावों का कानूनी रूप से ठोस आधार हो और उन्हें प्रमाणित किया जा सके।
इस फैसले से न्यायपालिका की यह प्रतिबद्धता सामने आती है कि विवाह संस्था को केवल शंकाओं या सामान्य पारिवारिक मतभेदों के कारण भंग नहीं किया जा सकता।